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समालोचन

Home » ख़ाली जगह: प्रवीण कुमार

ख़ाली जगह: प्रवीण कुमार

प्रवीण कुमार की कहानियों पर लिखते हुए कथाकार और ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश ने ‘हिंसा के सूक्ष्म रूपों को भी ओझल नहीं होने देते’ ऐसा रेखांकित किया है. त्रासदी, उत्पीड़न, अलगाव, हिंसा के बीच आदमी के भीतर जो घट रहा है उसे व्यक्त करने के लिए समकालीन कथा को सूक्ष्म की पहचान करनी ही होगी. यह कहानी यही करती है. प्रवीण कुमार की एकदम नयी कहानी ख़ास आपके लिए.

by arun dev
July 15, 2021
in कथा, साहित्य
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ख़ाली जगह: प्रवीण कुमार
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ख़ाली जगह
प्रवीण कुमार

ख़ाली जगहें दो चीज़ों से भरा करती हैं- उजाले से या फिर अँधेरे से. और इसकी गवाह आँखें होती हैं. अंतर बस यह है कि उजाले की सघनता में कई बार आँखें चौंधियाकर बंद हो जाती हैं. जबकि अँधेरे में आँखें बंद नहीं होतीं .खासकर तब जब आदमी डरा हुआ हो. उस अदमी के साथ हो यह रहा था कि अँधेरा जितना गझिन होता जा रहा था, आँखों के खुले या बंद रहने के मायने मिटते जा रहे थे. और इसके विरुद्ध  वह आदमी लगातार आँख खोले हुए था.

उसके कमरे मे अँधेरा अब इतना था और पलंग के पास तो इतना घना था कि उसे भ्रम हो रह था कि उसकी अपनी ही आँख खुली है कि बंद है. उसने अँधेरे में बारी-बारी से अपनी दोनों आँखों को छुआ और खुद को तसल्ली दी “हाँ, खुली तो  हैं.”

एक हल्के इत्मीनान के बाद उसने अचानक महसूस किया कि उसके साथ सोयी हुइ औरत के सिरहाने फिर वही शख्स आकर उकड़ू बैठ गया है. वही है ही.

अँधेरे में उसे पहचानना अब मुश्किल नहीं रह गया था. वह जब भी आता है एक अजीब क़िस्म की गंध लेकर आता है. मुर्दा गंध. मशान वाली. मारे डर के वह आदमी लेटे-लेटे ही उस सोई हुई औरत की कलाई को ज़ोर लगाकर झकझोरने लगा. चूडि़यों की खनक से अँधेरा गूँजने लगा.

पर औरत थी कि जाग ही नहीं रही थी. जैसे मर गई हो.

डरे हुए आदमी की इस कोशिश पर उकड़ू   बैठा शख्स “फ्फी” करके हँसा. निहायत ही निर्लज्ज और नंगी हँसी-‘फ्फी’. वह जैसा था वैसा ही हँसा. नंगा और निर्लज्ज. लेटे हुए आदमी के  मन मे आया कि झट से उठकर बत्ती जला दे. लेकिन नहीं. उकड़ू  बैठे उस शख़्स को वह आदमी देखना ही नहीं चहता था. इतना घिनौना, इतना नंगा, इतना  अड़ियल और मशान की गंध से भरा. असहनीय था वह शख़्स उस आदमी के लिये. और वह शख़्स  था कि लेटे हुए आदमी की बगल मे सोई हुइ औरत के ठीक सिरहाने, लकड़ी के ऊँचे बेड-हेड पर चढ़कर उकड़ू  बैठा था. एकदम नंगा और शांत. उसकी भी आँखें खुली हुई थीं. घुप्प अँधेरे में उकड़ू  बैठे  शख़्स की केवल आँखें चमक रही थीं.  झक्क सफ़ेद आँखें. जिनमें पुतलियाँ भी नहीं थीं. वह उन झक्क सफ़ेद आँखों से सोई हुई औरत को अपलक निहारे जा रहा था.

लेटे  हुए आदमी को अब बर्दाश्त नहीं हुआ. वह मूर्छित साहस को बटोरते हुए झटके से उठ बैठा; और उस घिनौने शख़्स को धीमे से झिड़क दिया “कुछ दूर होकर नहीं बैठ सकते तुम ?” उसने उकड़ू  बैठे शख़्स को इतने धीमे-से झिड़का था मानो जोर से झिड़कने पर सोई हुई  औरत जाग जाती. औरत तो नही जागी लेकिन वह उकड़ू  बैठा शख़्स फिर से ‘फ्फी’ करके हँस पड़ा.

डर और साहस के बीच डोलता हुआ आदमी समझ गया. इससे ज्यादा वह कर ही क्या सकता था ? विवश था. उसे अब रुलाई आ रही थी. पर वह रोया नहीं.

रूलाई रोककर वह औरत का ठंडा माथा सहलाने लगा. वह औरत  फिर मर चुकी थी. जबकि उकड़ू  बैठा शख़्स उसी तरह अपलक औरत को निहारे जा रहा था. उसकी नंगी निगाहों से बचाने के लिये वह आदमी औरत की देह पर पड़े अस्तव्यस्त कपड़ों को ठीक करने लगा. इस कोशिश में आदमी की दहिनी आँख के कोने में आँसू  का एक क़तरा उग आया. बड़ी कठिनाई से उसने उस कतरे को साफ़ किया जैसे कोई लोहे की कील हो जिसे निकालने के लिये बड़ी सावधानी चाहिए थी. फिर आदमी ने उकड़ू  बैठे शख़्स से सवाल पूछा  “बताओ, आज क्या करना होगा.”

उकड़ू बैठे शख़्स ने बेड-हेड पर बैठे-बैठे ही जवाब दिया. पर वह जवाब नही मशवरा था शायद  “करना क्या है अब ! मुझे नहीं  लगता है कि आगे तुम इसे बचा पाओगे. तुम थक रहे हो.”

मशवरे के जवाब में आदमी ने लाश हो चुकी संगिनी का माथा चूम लिया. यही उसका जवाब था.

वह शख़्स फिर वैसी ही हँसी हँसा और बुदबुदाया “आज चूमकर ज़िन्दा करना मुश्किल है उसे.”

“तो..?”

“तो क्या ? जानने का दावा तो तुमने किया था.”

“हाँ ”

“इसकी संपूर्णता में ?”

“हाँ”

फिर नंगे शख़्स ने कोई सवाल नहीं पूछा. इससे आदमी बौखला गया “बताओगे भी ? कि आज क्या करना होगा” उसकी आँखें डबडबा गईं थी.

उस शख़्स ने शैतानी मुस्कुराहट में लंबी साँस छोड़ी और आज का सवाल दागा

“अब यही कि कोई ऐसा सच इस मृत देह के कान में  फुसफुसा दो जो तुम्हारे लिये संपूर्ण हो पर इस औरत के लिये अभी भी अधूरा होते हुए उसे खूब पसंद हो.”

“मतलब?”

“मतलब भी मैं ही बताऊँ?”

“अब ऐसे कैसे हो सकता है यह ?” सवाल समझते हुए आदमी डबडबाई आँखों के साथ फुसफुसाया .

“बिलकुल हो सकता है. क्यों नहीं हो सकता ?  अगर नहीं जानते तो मतलब साफ़ है, इसे और जानना अभी बाकी रह गया है तुमसे. और मेरे लिए इतना काफी है. ले जाऊँगा.”

“बकवास कर रहे हो अब तुम. ऐसा कुछ भी नहीं है हम दोनों में जो आधा हो. मन की सारी गठरी खोल चुके हैं हम एक दूसरे के सामने. उसका सच और मेरा सच एक ही है. संपूर्ण. कुछ भी आधा नहीं है अब”

वह शख़्स ‘फ्फी’ करके फिर हँसा “ देखो ! यह तुम भी जानते हो कि ना तो मैं झूठ बोलता हूँ और ना ऐसे सवाल पूछ्ता हूँ जिसका तुम्हारे अनुभव से अलग कोई अस्तित्व ही ना हो. मैं ऐसे ही  नंगा और ताकतवर नहीं हूँ .”

आदमी कसमसाकर रह गया. उसे प्यास लग गई. उसने महसूस किया कि वह उकड़ू  बैठा शख़्स बेड-हेड से उतर गया अब. झक्क सफ़ेद आँखें वहां से हटकर कुर्सी पर जा बैठीं. पर यह आदमी लाश के पास पत्थर बना बैठा रहा. ज्यों का त्यों .

“वक़्त कम है. बैठने की जगह सोचना मुफ़ीद रहेगा” कुर्सी पर से आवाज़ आई.

पत्थर ने कुछ हरक़त की पर बोला कुछ भी नहीं.

“भरोसा तो करना होगा मुझ पर. वैसे भी तुम्हारे पास कोई दूसरा रास्ता नही.जो कह रहा हूँ वह कर सकते हो कि नहीं, बता दो ?”

पत्थर लाश के पास से सरककर चुपचाप खिड़की के पास आ गया. उसने खिड़की के पर्दे हटा दिए. दूर आसमान में ध्रुव-तारा चमक रहा था. बाकी सारा आकाश अँधेरे से पटा पड़ा था.

 

2

डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर दोनों आमने-सामने बैठ गए थे. एक-दूसरे को घूरते हुये. पर्दे हटने के बाद खिड़की से अँधेरा झर रहा था जैसे भीतर के अँधेरे से मिलना चाह रहा हो. खिड़की से कभी-कभी हवा छन कर आ जाती तो पर्दे हौले-से हिल जाते. हवाओं के असर से अँधेरे कमरे में मुर्दा-गंध कभी छुपती तो कभी उभरती. गंधाए शख़्स ने उस आदमी के भीतर झांकना चाहा “मुझे ताज्जुब इस बात पर है कि तुम्हारा मेरे प्रति जो अचानक अविश्वास उभरा है, वह आख़िर आया कहाँ से ?”

“तुम्हारे ही सवालों से. उलझाने वाले. और ज़िंदा करवाने के तरकीबों से.” आदमी स्पष्ट था.

“यदि मुझे उलझाना होता तो उस दिन यह सवाल नहीं कर देता कि मृत औरत के सिर में  कितने बाल हैं? क्या तुम बता देते ?”

“तुमने यह पूछा था कि औरत की देह मे कुल कितने तिल हैं. पर यह कोई आसान सवाल नहीं था.”

“मुश्किल भी तो नही था !”

“मैंने ग्यारह बताए थे. पर मैं तुम्हें बता दूँ कि पहले नौ तिल ही थे उसकी देह में. दो तो इधर उभरे हैं.”

“आखिर तुम्हारे जवाब से उस दिन जीवित तो हो ही गई न वह .तुम नौ बताते तो भी जीवित हो जाती.” गंधाया शख़्स फुसफुसाया.

“लेकिन उस दिन उसके जीवित होने के बाद मैंने फिर से उसके तिल गिने थे. उनकी संख्या अब तेरह है. तो क्यों न अविश्वास करूँ तुम पर ?”

“मैंने कहा न कि तुम्हारे अनुभव के बाहर का मैं कुछ भी नहीं पुछूंगा. तुम्हारी चेतना में नौ ही तिल थे. तुमने अवचेतन में जाकर दो और निकाल लिए. मुझे तो सच में हैरानी हो रही थी. तुम सही निकले इसलिये वह जीवित हो गई. पर मैं भी तुम्हें बता दू कि अब उसकी समूची काया पर तेरह नहीं बल्कि कुल चौदह तिल हैं.”

बिना पुतली वाले शख़्स ने जब यह बात कही तो आदमी और सहम गया. उसे डर हुआ कि कहीं  वह यह ना पूछ डाले कि वह चौदहवा तिल मृत औरत के किस हिस्से में है. उसने साहस बटोरकर उस गंधाते मनुष्य की बात काटी “ अब सिर के बाल में छिपे तिल को गिनना तो असंभव है.”

गंधाया मनुष्य “फ्फी” करके  हँसा“ तुमने उस औरत के तलुओं को देखा है इधर ?”

“ बिल्कुल. कल ही देखा था.”  आदमी का खोया हुआ आत्मविश्वास जैसे यकायक लौटा था .

पर गंधाता शख़्स जबरा निकला “उसके दाहिने पैर के तलुए को ध्यान से नहीं देख होगा.”

सहमे हुए आदमी का अनुभव हारिल की लकड़ी थी जिसे दबाए वह डोलने लगा. उसने गला साफ़ करते हुए जवाब दिया“ बिल्कुल देखा था. उसके रक्तिम साफ तलुए पर कोई निशान नहीं.”

उस शख़्स ने कहा था कि वह नंगा और ताकतवर है. उसने इन दोनों शक्तियों का प्रदर्शन किया “अब ध्यान से देखना. उसी तलुए में उपर कानी ऊँगली की जड़ों में एक नया तिल उभर आया है.”

आदमी को काटो तो खून नहीं. हारिल की लकड़ी ही गिर पड़ी जैसे. अँधेरे जैसी चुप्पी फैलती गई.

“पुरानी बातों में समय जाया मत करो. ध्रुव-तारा छुपने के पहले औरत को ज़िंदा करना तुम्हारी जिम्मेवारी है. फिर मुझे दोष मत देना.” यह एक तरह से सांत्वना थी.

“ऐसा कब तक चलेगा” आदमी ने टूटते हुये सवाल किया.

“तब तक जब तक मुझे तसल्ली ना हो जाये कि तुम इस औरत को पूरा जान गये हो.”

“तुम्हारा क्या हक़ बनता है हमारे बीच में आने का ? आख़िर तुम कौन हो ? क्यों हो ?” आदमी रो पड़ा.

पर वह शख़्स ढीठ बना रहा “फिर वही सवाल ? मैं कई दफा जवाब दे चुका हूँ. मैं बहुत पीछे से आ रहा हूँ और बहुत आगे तक जाना है मुझे.”

“नहीं, तुम्हारे जवाब बदल-बदल जाते हैं. पहले तुमने कहा था कि मैं हर औरत का एक आकर्षित स्थान  हूँ, एक ख़ाली  जगह. और तो और, इससे पहले तुमने कहा था कि मैं प्रेम से लेकर मृत्यु तक कुछ भी हो सकता हूँ.”

नंगे शख़्स ने आदमी को ठहरी आँखों से जवाब दिया “ हाँ!  यह बात भी कही थी, तो ?”

आदमी इस बार चीख़  पड़ा “इससे तुम्हारे वजूद को लेकर भ्रम होता है ?”

नंगा शख़्स दुगनी आवाज़ से चीख़ा “मेरा वजूद मेरे चाहने से नहीं बनता है. कितनी बार तुम्हें बता चुका हूँ.”

रोते हुये आदमी को इस बात का अब डर नहीं रह गया था कि सोई हुई औरत जाग सकती है . उसे जवाब चाहिये था. उसने दाँत पिसते हुये उस नंगे शख़्स से पूछा “ किसके चाहने से बनता है तुम्हारा वज़ूद ?”

नंगा शख़्स चुपचाप कुर्सी से उठा और पलंग की ओर लपका , जहाँ वह औरत मृत सोई थी “इसके चाहने से.”

आदमी हडबड़ाकर अपनी कुर्सी से उठा और अँधेरे में मेज़-सोफे से टकराता हुआ पलंग तक पहुंचा. पहुँचते ही वह औरत की देह टटोलने लगा. इसी बीच उसने यह अंदाजा भी लगा लिया कि सफ़ेद आँखों वाला शख़्स औरत के पैताने बैठा है. बिना हरकत. आदमी की साँस में साँस लौटी. वह वही बैठ गया. उसने उस औरत की देह को फिर टटोला.

 

3 

अँधेरे आसमान के आकार को जानने के लिये थोड़ी- सी रौशनी चाहिये या फिर कुछ तारे ही सही. पर फिलहाल आसमान में ना रौशनी थी ना तारे. एक ध्रुव-तारा जरूर था. पर उससे दूरी का पता चलता था. बस. वह शख़्स औरत के पैताने अब भी चुपचाप बैठा था जबकि वह डरा हुआ आदमी औरत का सिर अपनी गोद मे रखकर बैठा था. उसने औरत का चेहरा अपने दोनों हाँथो से ऐसे थामा था जैसे वह चेहरा नहीं कोइ परिंदा हो जिसे छोड़ते ही उसके उड़ जाने का  ख़तरा हो.

पैताने बैठे शख़्स ने उस औरत के पैरों की उँगलियाँ चटकानी शुरु कीं. सिरहाने बैठे आदमी के भीतर का डर फिर किसी लावे में तब्दील हो गया, अचानक “मैं कह रहा हूँ कि उसे छुओ मत. बिल्कुल दूर हटो तुम.”

‘फ्फि… मैं तो तुम्हें एहसास करा रहा था कि ख़ाली जगहें अपनी जगह कैसे बनाती हैं धीरे-धीरे!”

“पहले उसका पैर छोड़ो, फिर तर्क करना.” आदमी ने आज दूसरी दफा उस पर अपने दाँत पीसे थे. गंधाये शख़्स ने फौरन औरत का पैर छोड़ दिया. अभी तक तीन ही उँगलियाँ चटका पाया था वह. पर ढीठ के अपने कर्म होते हैं, उसने औरत के पैरों को सहलाते हुये छोड़ा था. अगर कमरे मे रौशनी होती तो वह आदमी इस नंगे और शायद ताकतवर शख़्स को कुछ सज़ा देने की भी सोचता. पर अँधेरे में कुछ देख नहीं पाया वह.

नंगी गंध वहाँ से उठी और खिड़की के पास चली गई. शायद आसमान निहार रही थी. ध्रुव-तारा इस वाली खिड़की से कुछ खिसक चुका था.  गंध ने मुस्कुराते हुये कहा “ यदि तुम जानने की दावेदारी नहीं करते तो शायद मैं कभी नहीं आता यहाँ. समझ रहे हो ना तुम ?”

औरत का चेहरा गोद मे लिये-लिये ही उसने जवाब दिया “हाँ.”

“तो शुरु हो जाओ. अब एक पूरा पहर भी नहीं है तुम्हारे पास .”

आदमी की धड़कनें बढ़ती गईं और वह धड़कते हुये दिल के साथ स्मृतियों में फिर से गोता लगाने लगा. वैसे जब से वह शैतान इन जोड़ों के बीच आया है तब से इस आदमी ने अपने अनुभव और अपनी  स्मॄति की सारी तहें खरोंच डाली हैं . पर हर बार कुछ ना कुछ रह ही जाता है खुरचने को. वह अब भी स्मॄति में डूबा हुआ अपनी धड़कनों को लगातार संयत करने की कोशिश कर रहा था. कोई ऐसी शर्तिया बात जो जीवन दे जाए. फिर से. उसने उस औरत से अपनी पहली मुलाकात याद की. फिर दूसरी. फिर तीसरी. क्रम बढ़ता गया. सौवीं. दो सौवीं. फिर उसने उल्टा याद करना शुरु किया. कल सोने के पहले से लेकर पहली मुलाकात तक. नहीं-नहीं. कुछ तो है, मैं जानता हूँ कि उसे क्या पसंद है और क्या नापसंद. मेरा मन रखने के लिये वह किन-किन चीजों में दिलचस्पी दिखाती है, यह भी मैं जानता हूँ. पर नहीं यह मरदूद कह रहा है किसी पूरे और आधे सच के बारे में .मेरा पूरा पर…  नहीं- नहीं, ऐसे कैसे हो सकता है. पर होगा ज़रूर. शायद होगा या शायद नहीं. पर होगा ही तभी तो पूछा है ! उसकी आँखों के आँसू डर के मारे सूखने लगे.

इधर दूर क्षितिज में रौशनी का एक क़तरा दिखाते हुए वह नंगा आदमी फुस्फुसाया “ वक़्त नहीं है अब. जल्दी बोलो .”

बेचैनी में वह आदमी अपना सर दाहिने-बाएँ करने लगा. समय ते़जी से फिसल राहा था. आसमान में रौशनी धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी.पर कमरे में अभी भी घुप्प अंधेरा था. अंतर बस यह आया कि खिड़की के पास खड़े उस गंधाये शख़्स का आकार कुछ स्पष्ट होने लगा. इस आदमी की निगाह में वह शख़्स और ज्यादा घिनौना लगने लगा .आदमी ने अपना चेहरा अंधेरे में लिपटी उस औरत के चेहरे की ओर जड़ कर लिया जैसे चूमना चाहता हो. उसकी स्मॄति अब जवाब दे रही  थी . किसी धतूरा खाये जीव की तरह वह अब हिलने लगा.  ऐसा कौन-सा सच है ? कौन- सा सच ?

इधर रौशनी ने आसमान को निगलना शुरु कर दिया. उसकी रफ्तार भी कुछ ज्यादा थी. मशान वाली गंध अब ज्यादा तेज़ी से फैलने लगी थी. वह शख़्स, उसका आकार-प्रकार सब स्पष्ट हो चुका था. हे ईश्वर !!

उस शख़्स की उभरी हुई मांसपेशियाँ उसकी अतुलनीय ताकत का अंदाजा दे रही थीं. उससे  लड़ा तो जा सकता है पर जीता नहीं जा सकता. वह झक्क सफ़ेद आँखें जिनमें पुतलियाँ नहीं थी. अपलक इधर ही देख रही थी . आदमी ने अपनी आँख बंद कर ली.

कमरे में चहलकदमी हुई तो आदमी उस शख़्स के पदचाप सुनने लगा. शायद पास आ रहा है वह .वह मुर्दा-गंध जितना पास आती गई आदमी उतनी ही सिसकियाँ भरता गया. वही होने जा रहा था जिसको आदमी अब तक बचाए हुये था. सिसकते हुये उसने उस औरत की देह को कुछ और ऊपर सरकाकर अपनी गोद में भर लिया.

शख़्स बेड-हेड पर आकर फिर उकड़ू  बैठ गया. वह उस आदमी के ठीक बगल में कुछ ऊँचाई पर था. उसकी गर्म और गंधाती हुई साँस आदमी के कंधे से सीधे टकराने लगी. आदमी अगर रो ना रहा होता तो मिचली के मारे मर गया होता . पर आदमी संगिनी को छोड़ भी कैसे सकता था. सिसकता रहा औरत का चेहरा कमरे के उजाले में नहा उठा था. अभिसार के बाद का तृप्त चेहरा. कोई कह ही नहीं सकता है कि वह मर गई है. आदमी ने सबसे पहले उसके माथे के तिल को चूमा. फिर चेहरे को बेतरतीबी से चूमता गया. आज वह जिस सच की तलाश करने में असफल रहा उसकी भरपाई वह औरत को चूमकर ही कर सकता था. उसने औरत को फिर जगाने की कोशिश की “उठो ना ! देखो ना इस आदमी को. यह तंग कर रहा है मुझे.”

पर औरत ने कोई भी जवाब नहीं दिया . वह वैसी ही सुंदर, सुगंधित और मृत सोई थी.

आदमी की सिसकी बांध तोड़कर रुलाई में बदल गई “जाग जाओ प्लीज़. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. मैं तुमसे प्यार करता हूँ.”

आदमी के अंतिम वाक्य बोलते ही औरत की देह ने कुछ हरकत की. उसका चेहरा और खिलता गया. होंठ के एक सिरे में खिंचाव आया और दाहिने गाल पर डिंपल बनने लगे.

उकड़ू  बैठे शख़्स की मुर्दा गंध कमजोर पड़ने लगी पर उसके पंजे मे बहुत बल था. उस नंगे ने अपने मजबूत पंजे उस आदमी के कंधे में गड़ा दिया “ फ्फी .. कब तक ? कल फिर आऊंगा.”

इधर औरत ने अपने दोनों तलवों को आपस में रगड़ा और ज़ोर की अंगड़ाई ली .एकाध लाल डोरों से भरी आँखें खोली तो सामने आदमी का पसीने में नहाया हुआ चेहरा देखा . आँखों में आँसू . वह समझ गई और लाड से उस आदमी के दोनों गाल खींच दिये “ कितनी बार कहा है कि सोते वखत सोचा मत करो . फिर बुरा सपना देखा न ?”

आदमी जैसे इस लोक मे था ही नहीं . उसने दहिने हाथ की तर्जनी से अपने बाँए कंधे की ओर इशारा किया .

औरत ने उधर झांका और  मुस्कुराई “अरे बाबा ! कुछ भी तो नहीं, बस एक ख़ाली  जगह है.”

आदमी अब भी सिसक रहा था.
_______

प्रवीण कुमार 

पहले कहानी-संग्रह ‘ छबीला रंगबाज़  का शहर’ से चर्चित, जिसे 2017 का डॉ. विजय मोहन सिंह युवा कथा-पुरस्कार और 2018 का अमर-उजाला शब्द-सम्मान (थाप) मिला है. दूसरा कहानी संग्रह-‘ वास्को डी गामा की साइकिल’ 2020 में राजपाल से प्रकाशित.

jpkpravindu677@gmail.com / 8800904606 

Tags: प्रवीण कुमार
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Comments 11

  1. Anonymous says:
    4 years ago

    Badhai…

    Reply
  2. teji grover says:
    4 years ago

    रोचक और कुछ अँधेरी कहानी। ख़ाली जगह का कांसेप्ट लेखन के लिए बेहद ज़रूरी है। MARGUERITE DURAS ने किसी कहानी में लिखा था: औरतें ही साहित्य हैं।

    तीसरे para के अन्तिम तीन शब्दों को देखें। क्या त्रुटि है या अतिरिक्त बल है?

    Reply
    • Anonymous says:
      4 years ago

      जी , कुछ और जगह भी त्रुटियाँ हैं । आभार ।

      Reply
  3. प्रांजल सिंह says:
    4 years ago

    प्रवीण कुमार की कई कहानियों से परिचित हूँ. उन्हें पढ़ा भी और कुछ टिप्पणियां लिखने की कोशिश भी की.जल्द ही मेरी मेरी एक समीक्षा उनकी कहानी पर सरे बाज़ार होगी. लेकिन ये कहानी प्रवीण कुमार को दर्शन के खाँचे में ले जाती है.और सामान्य से अलग मतलब बिल्कुल वैसे ही जैसे निगाहे कही और और निशाना कही और . इस कहानी के पेशकश एक बौद्धिक दाव पेच से उठाकर राजनीतिक दर्शन के मायने को समझने के लिए हाथ दबा देती है. जहां आप उलझते है वही हल्की सी मुश्कान के साथ आप आईना दिखा देती है. बधाई ।

    Reply
  4. Anonymous says:
    4 years ago

    बहुत शानदार कहानी है प्रवीण जी! हर पल लगता रहा कि आगे क्या होगा…बहुत बधाई और समालोचन को धन्यवाद।

    Reply
    • Rashmi Sharma says:
      4 years ago

      बहुत शानदार कहानी है प्रवीण जी! हर पल लगता रहा कि आगे क्या होगा…बहुत बधाई और समालोचन को धन्यवाद।

      Reply
  5. राकेश बिहारी says:
    4 years ago

    कथ्य के साथ न्याय करती, एक चुस्त और पठनीय कहानी. गहन उत्सुकताबोध का निर्वहन और कहानीपन के ठाठ की रक्षा करते हुए बिना किसी गैरजरूरी विस्तार में उलझे यह कहानी अपना काम सफलतापूर्वक कर जाती है. वाचाल हुए बिना कह जाने की कलात्मकता भी इस कहानी की बड़ी विशेषता है. समालोचन और प्रवीण दोनों को बधाई

    Reply
  6. प्रमोद सिंह says:
    4 years ago

    “वह जैसा था वैसा ही हँसा. नंगा और निर्लज्ज…. इतना घिनौना, इतना नंगा, इतना अड़ियल और मशान की गंध से भरा.”

    एक आदमी, एक औरत, और उन दोनों को जोड़ने वाला ‘संबंध’.त्रिकोण तो यहीं पूरा हो गया.फिर ये नंगा, निर्लज्ज, अड़ियल, यही नहीं मशान की गंध से भरा चौथा कौन है,,,,कहाँ से आया है, किसने इसे जन्मा है.

    Reply
  7. Prof Garima Srivastava says:
    4 years ago

    एक खूबसूरत कहानी जो अपने प्रवाह में बहा ले जाती है .समकालीन हिंदी कहानी में प्रवीण कुमार एक प्रतिनिधि कहानीकार अपनी पहचान बना चुके हैं .उन्हें ‘खाली जगह’के लिए साधुवाद

    Reply
  8. मनोज मोहन says:
    4 years ago

    ‘जाग जाओ प्लीज़. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. मैं तुमसे प्यार करता हूँ.”

    आदमी के अंतिम वाक्य बोलते ही औरत की देह ने कुछ हरकत की. उसका चेहरा और खिलता गया. होंठ के एक सिरे में खिंचाव आया और दाहिने गाल पर डिंपल बनने लगे.’

    मनुष्य (स्त्री-पुरुष दोनों ही) मन के आंंतरिक लय को जिस ख़ूबी से प्रवीण ने ख़ाली जगह में भरा है,वह महत्त्वपूर्ण है. एक और अच्छी कहानी के लिए प्रवीण कुमार को बधाई…

    Reply
  9. Anonymous says:
    3 years ago

    “खाली जगह”ऐसा शीर्षक क्यूँ को समझने की जद्दोजहद में कब पूरी कधा पढ़ डाली पता ही नहीं चला। काफी रोचक व शानदार लेखनी। अंत तक पाठक को बाँधे रखने की क्षमता से भरपूर। कहानी के दूसरे पारे में जहाँ मन निश्चितता और अनिश्चितता के बीच झूलता रहता है और मायूसी के बादल गहरेहोते चले जाते हैं, किंतु तीसरे पारे में पहुँचते ही सारे बादल छँट जाते हैं।
    अंततः कहानी का सुखद अंत मन को तसल्ली देता है।

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समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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