ग़ुलामी के दस्तावेज़ और सवा सेर गेहूँ की कहानीसुजीत कुमार सिंह |
‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी तत्कालीन समाज में प्रचलित कमियौटी या सेवकिया प्रथा की दास्तान सुनाती है. यह प्रथा बंधुआ मजदूरी से संबंधित है. यह एक ऐसी कहानी है जिसे पढ़कर भारतीय सभ्यता, भारतीय संस्कृति, भारतीय ज्ञान परंपरा और हिन्दू धर्म से सवाल करने का मन होता है. इस कहानी के माध्यम से मैंने तत्कालीन बंधुआ मजदूरी को समझने का थोड़ा-बहुत प्रयास किया है. यह भी जानने की कोशिश की है कि रूढ़िवादी विप्रों और खेतिहर कुरमियों के बीच किस तरह के सम्बन्ध थे? उन कारणों को भी जानना चाहा है जिस कारण कुरमी जाति इस प्रथा के शिकार होते थे.
यहाँ यह जान लेना चाहिए कि कमियौटी या सेवकिया प्रथा बिहार में फैला हुआ था. उसका असर पूर्वी उत्तर प्रदेश और अवध में भी था. हेमिल्टन ने ‘डिस्क्रिप्सन ऑफ हिन्दुस्तान’ में लिखा है कि बनारस में छोटे भूस्वामी चरवाहों तथा हलवाहों के रूप में आमतौर पर दासों का इस्तेमाल करते थे. बनारस कुरमी बाहुल्य क्षेत्र है. प्रेमचंद जी ने बनारस या अवध के किसी हिस्से में इसे देखा या सुना होगा, ऐसा ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी पढ़कर महसूस होता है.
बंधुआ मजदूरी पर समाज विज्ञानियों ने खूब लिखा है. हिन्दी में इस पर बहुत कम किताबें मिलती हैं. सहजानन्द सरस्वती जैसे एकाध किसान नेताओं ने कमियौटी या सेवकिया प्रथा पर काम किया है.
प्रसन्न कुमार चौधरी ने ‘स्वर्ग पर धावा: बिहार में दलित आन्दोलन (1912-2000)’ किताब के पहले ही अध्याय में कमियौटी प्रथा पर विस्तार से लिखा है. अवधेश प्रधान की किताब ‘स्वामी सहजानन्द और उनका किसान आन्दोलन’ कमियौटी या सेवकिया प्रथा को समझने में मदद पहुँचाती है. रामाज्ञा शशिधर की किताब ‘किसान आन्दोलन की साहित्यिक ज़मीन’ में कमियौटी की तरह की अन्य प्रथाओं का भी उल्लेख है, जैसे– बहिया प्रथा, बरजाना प्रथा, जनौरी प्रथा, हरवाही प्रथा, हरौरी प्रथा, धंगराई प्रथा इत्यादि. सहजानन्द सरस्वती ने ‘हाली और दुबला प्रथा’ का उल्लेख किया है जो गुजरात में प्रचलित था. इतिहासकार कपिल कुमार के हवाले से रामाज्ञा शशिधर दर्ज करते हैं कि अवध में सेवकिया प्रथा के रूप में एक किस्म की अर्द्धदास प्रथा वजूद में थी. कुरमी जाति का कोई भी आदमी अगर धनी किसान, भूस्वामी और बनिया से अग्रिम पैसा ले लेता था तो वह या तो पूरी ज़िन्दगी के लिए या जब तक पैसा वापस नहीं कर देता तब तक के लिए बंधुआ अर्द्धदास बन जाता था.
कमियौटी या सेवकिया वह प्रथा है जिसमें कृषिदास के रूप में खेती करने वाले कुरमी जाति के लोग अपने मालिकों द्वारा प्राप्त ऋण पर दी जाने वाली ब्याज की राशि के बदले में जीवन भर अपने मालिकों की सेवा करते थे. इस प्रथा में भुगतान ज्यादातर वस्तुओं के रूप में किया जाता था. प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकान्त के अनुसार-
“काम के दिन दो से तीन सेर (कच्ची) भूसी वाला अनाज अथवा दो से ढाई सेर बिना भूसी वाला अनाज (जैसे मकई) दिया जाता. देर से आने अथवा थोड़ा पहले चले जाने पर इसमें कटौती की जाती थी और शारीरिक दण्ड भी मिलता. अनाज भी नया दिया जाता जिसकी बाजार में सबसे कम कीमत होती. महुआ के दिनों में पगार में आमतौर पर महुआ ही दिया जाता.”
‘सवा सेर गेहूँ’ में भी कलेवा के लिए आध सेर जौ, ओढ़ने के लिए कंबल और मिरजई देने का उल्लेख मिलता है. विप्र और शंकर का वह संवाद सुनिए :
शंकर– “महाराज, सूद में तो काम करूँगा, और खाऊँगा क्या?”
विप्र– “तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे. रहा मैं, तुम्हें आध सेर जौ रोज़ कलेवा के लिए दे दिया करूँगा. ओढ़ने को साल में एक कंबल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा, और क्या चाहिए. यह सच है कि और लोग तुम्हें छह आने रोज़ देते हैं लेकिन मुझे ऐसी ग़रज़ नहीं है, मैं तो तुम्हें अपने रुपये भराने के लिए रखता हूँ.”
यहाँ विप्र ने शंकर की घरवाली और उसके लड़के का नाम लिया है. यहाँ यह देखा जाए कि एक बँधुआ मजदूर की बीवी और उसका पुत्र कितना कमा लेते थे! यहाँ हम प्रसन्न कुमार चौधरी की मदद लेंगे :
“थोड़ा सहारा पत्नी से मिलता जो ऐसे दिनों में मालिक के घर गोबर पाथने से लेकर साफ-सफाई, सभी तरह का काम कर कुछ कमाई कर लेती और खाने के लिए बचा-खुचा कुछ ले आती. वैसे कटनी समेत कृषि-कार्यों के लिए कमिया की पत्नी को बनि के रूप में अथवा बोझा के रूप में पति की तुलना में कम ही दिया जाता. घरेलू काम के लिए तो मालिक/मालकिन की मर्जी पर ही सब कुछ निर्भर होता. बच्चे भी थोड़ी-बहुत कमाई कर लेते. मालिक की बकरी और गाय के चराने के लिए उन्हें महीने में 2 पैसे से आठ आने तक मिल जाता था. चरवाहे का काम भी अल्सुबह शुरू होकर शाम ढलने तक होता.”
यह प्रथा व्यक्तियों के एक समूह को गुलाम बनाती थी. सूदखोरी की इस घृणित अभिव्यक्ति के चलते ब्रिटिश सरकार ने 1920 ई. में ‘द बिहार एण्ड उड़ीसा कमियौटी एक्ट’ बनाया जिसमें मजदूर या निष्पादक की मृत्यु पर कमियौटी करार शून्य करने की बात कही गयी थी. प्रो. ज्ञानप्रकाश ने अपनी किताब ‘बाॅण्डेड हिस्ट्रीज़ : जीनि’एलिजीस ऑफ़ लेबर सर्विट्यूड इन क’लोनियल इण्डिया’ (1990) में कमियौटी प्रथा की उत्पत्ति, विकास और निरंतरता को तार्किक रूप से प्रस्तुत किया है.
आख़िर कुरमियों को ही इस प्रथा के दायरे में क्यों लाया गया? तत्कालीन साहित्य की छानबीन करने पर जो कारण मुझे मिले, वह काफी दिलचस्प है.
‘हिन्दी-शब्द-सागर’ जैसा शब्दकोश कुरमी जाति को एक हुनरमंद खेतिहर जाति के रूप में परिभाषित करता है. ‘कविता कौमुदी’ के पाँचवें भाग में रामनरेश त्रिपाठी दर्ज करते हैं कि
“कुरमी बारहों महीने खेत में ही पड़ा रहता है. वे तभी घर आ सकते हैं जब खेत संबंधी कोई भय न हो, या चोट लगे अथवा बीमार हो.”
कुरमी जाति अपनी युक्ति से खलिहान में अन्न का ढेर लगा देता है. एक कारण यह हो सकता है कि कुरमी एक सीधी व सरल जाति है. अतः अपनी सरलता के कारण ही वे विप्रों के जाल में फँस जाते रहे होंगे? प्रेमचंद ने कहानी की शुरुआत में ही शंकर कुरमी की सरलता का कुछ इस तरह चित्र खींचा है:
“किसी गाँव में शंकर नाम का एक कुरमी किसान रहता था. सीधा-सादा ग़रीब आदमी था, अपने काम से काम, न किसी के लेने में, न देने में. छक्का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठगविद्या न जानता था, भोजन मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी, चबेना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा.… सरल शंकर को क्या मालूम था कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा.”
नफरत भी एक कारण हो सकता है. रूढ़िवादी और सनातनी विप्र आदि कुरमियों से घृणा का भाव रखते थे. एकाध उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है. मामला जनेऊ से संबंधित है. बिहार में जनेऊ आन्दोलन को लेकर प्रसन्न कुमार चौधरी ने विस्तार से लिखा है. यहाँ मैं उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों द्वारा जनेऊ धारण करने के संबंध में दो बातें रखना चाहूँगा.
बनारस से बाबू शिवराम सिंह ‘कूर्मि-क्षत्रिय-दिवाकर’ पत्रिका निकालते थे. अगस्त 1928 के अंक में इलाहाबाद कोर्ट के सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट मि. एल. एच. निबलेट के एक फ़ैसले का नक़ल छपा हुआ है. नक़ल के अनुसार, कहानी यह है कि मौजा काजीपुर फुलहा, थाना सराय इनाइत, तहसील हंडिया, ज़िला इलाहाबाद के कुरमियों ने 27 मई 1928 को एक सभा की. मज़ेदार बात यह थी कि उस सभा में पण्डित भी शामिल थे. सभा में चार-पाँच सौ के आसपास उपस्थित कुरमियों ने जनेऊ पहनने का निर्णय लिया. वे जनेऊ पहने. हवन वग़ैरह हुआ और ब्राह्मणों को स्वादिष्ट भोजन कराया.
नक़ल के अनुसार, सुदनीपुर के ठाकुरों व ब्राह्मणों को कुरमियों का जनेऊ पहनना अच्छा न लगा और उन लोगों ने उनका जनेऊ तोड़ने का इरादा जाहिर किया. जबानी ख़बर भिजवाया गया कि “आप ख़ैरियत चाहते हो तो जनेऊ उतार डालो और जनेऊ पहिनकर हरगिज कहीं बाहर दिखलाई न पड़ो.” नक़ल के अनुसार, “मौजा काजीपुर के कुरमियों ने मौजा सुदनीपुर के ठाकुरों व बरहमनों के कहने पर अमल न किया और जनेऊ पहिनते रहे.” एक दिन दस लट्ठधारी जवान आवाज़ बुलन्द करते हुए मौजा काजीपुर पहुँचे और हड़काते हुए कहा कि “बेहतर होगा जनेऊ उतार डालो.” कुरमियों ने जनेऊ उतारने से मना कर दिया. इस पर लट्ठधारियों ने जनेऊ तोड़ डाला और थप्पड़-घूँसा मारते हुए कहा कि “तुम लोग शूद्र हो और जनेऊ पहिनने का तुम लोगों को हक हासिल नहीं है और अगर शूद्र जनेऊ पहिनेंगे तो बरहमन व क्षत्री आखें निकलवा लेंगे.”
कुछ इसी तरह का मामला आज़मगढ़ के मोहम्मदाबाद गोहना में घटित हुआ था. गोहना के आसपास के गाँवों के कुरमियों ने जब जनेऊ पहना तो ब्राह्मणों ने उन्हें मारा-पीटा. जब जान बचाने के लिए वे खेतों की तरफ भागे तो वहाँ भी उन्हें दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया. श्रावस्ती का किसान सुमंगल – जो दराती, हल और कुदाली से खेत में काम करके अपनी जीविका कमाता था – बौद्ध साहित्य में नीच जाति का बतलाया गया है.
एक दूसरी घटना भी जनेऊ को लेकर है. भदोही के गोहिलगाँव बाजार में ब्राह्मणों से कुरमियों ने शास्त्रार्थ किया था. गोहिलगाँव और उसके सन्निकट के गाँवों के कुरमियों ने जब जनेऊ धारण किया तो वहाँ के विप्रों ने विरोध किया. शास्त्रार्थ के लिए गोहिलगाँव स्थित तालाब पर सुबह दस बजे का समय नियत किया गया. कुरमी जन ससमय तालाब पर पहुँच गये किन्तु विप्र देवता न आए. उन्हें बार-बार बुलावा भेजा गया. अंततः सायं चार बजे वे लोग आए. पण्डित ज्वालादत्त ने कहा कि
“कूर्मी लोग हल चलाकर पृथ्वी माता का पेट चीरते हैं इसलिये शूद्र हुये और यज्ञोपवीत के उत्तराधिकारी नहीं हैं.”
कुरमी लोग इस शास्त्रार्थ के लिये पूरी तैयारी के साथ आए थे. वे अपने समय के मशहूर विद्वान् जे.पी. चौधरी को साथ लाए थे. जे.पी. चौधरी का जन्म मिर्जापुर के अदलहाट में 1881 ई. में हुआ था. उन्होंने हिन्दी, फारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी और वैदिक संस्कृत साहित्य का गहन अध्ययन किया था. वे तत्कालीन मुख्यधारा की पत्रिकाओं में भी छपते रहते थे. चौधरी जी जाति के कोइरी थे. ‘कुशवाहा क्षत्रिय बन्धु’ पत्रिका के संपादक थे. बहरहाल… कुरमियों की तरफ से जे.पी. चौधरी ने उत्तर दिया कि
“ब्राह्मण लोग भी पृथ्वी माता को फड़ुये से खोदते हैं और उसी पृथ्वी माता पर पखाना करते हैं. तो आप लोग कौन हुये? और किसी शास्त्र में यह नहीं लिखा है कि हल चलाना शूद्रों का कार्य है.”
जे.पी. चौधरी ने चैलेंज किया कि “वेद के किसी मंत्र से सिद्ध कीजिये कि हल चलाना शूद्रों का काम है तो हम हार स्वीकार कर लेंगे.” उन्होंने यह भी कहा कि “बहुत से ब्राह्मण जैसे गौड़ आदि हल चलाते हैं. सीतापुर आदि जिले में ब्राह्मण हल जोतते हैं. नैनीताल आदि पहाड़ी स्थानों में तो ब्राह्मण चौका बरतन करते हैं, धोती फेंचते हैं.” जे.पी. चौधरी की बातें सुनकर विप्रों में खरमण्डल मच गया. “ब्राह्मण देवता थोड़े देर तक इधर-उधर की बातें करते बगल झाँकते रहे और अन्त में यह कहकर चले गये कि सब लोग अपना कर्म करें और सुधारें, हमसे कूर्मियों से अब कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा.” (कूर्मि-क्षत्रिय-दिवाकर, अगस्त 1934 : 21)
‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी पढ़ने पर महात्मा की सेवा करना, शाप देकर भस्म करना, देवता, नीयत का फल भोगना, ईश्वर, पोथी-पत्रा, साइत-सगुन, भगवान् का घर, ब्राह्मण का ऋण, नरक, पूर्व जन्म का संस्कार, देवता का शाप, ईश्वर का दरबार आदि जैसे जुमले मिलते हैं. कहानी के एकदम आरम्भ में ही धर्म आता है. साधु-महात्मा के रूप में. शंकर को भय है कि इसे भूखा सुलाता हूँ तो यह शाप देकर भस्म कर देगा. आजकल के तथाकथित साधु-संत माडर्न भगवा ड्रेस पहनते हैं और आधुनिक सुविधाओं से पूरी तरह लैस रहते हैं. शंकर के द्वार पर जो महात्मा डेरा जमाता है– वह कैसा है और उसका रूप कैसा है? प्रेमचंद बताते हैं:
“तेजस्वी मूर्ति थी, पीतांबर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखों पर, संपूर्ण वेष उन महात्माओं का-सा था जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योग-सिद्धि प्राप्त करने के लिए रुचिकर भोजन करते हैं.”
जोकहरा के पुस्तकालय में मशहूर कथाकार कमलेश्वर ने इस तरह के भगवाधारियों को खूब लताड़ा था. यह शायद 2003 ई. की बात है और मामला अयोध्या से संबंधित था.

प्रेमचंद मानते थे कि अगर दो भाई हैं तो वे एक साथ नहीं रह सकते. अपने कथा-साहित्य में वे सगे भाइयों को अलगा देते हैं. चिरगाँव से लौटकर जब जैनेन्द्र कुमार बनारस आए और मैथिलीशरण गुप्त के भाइयों की चर्चा प्रेमचंद से की कि वे किस तरह मिलकर रहते हैं तो कथासम्राट ने आश्चर्य प्रकट किया था. मार्च 1939 के ‘हंस’ में प्रकाशित वह रेखाचित्र पढ़ने योग्य है. ‘सवा सेर गेहूँ’ में भी प्रेमचंद शंकर और मंगल को अलग कर देते हैं. जब दोनों मिलकर रहते थे तो किसान थे. अलग हो जाने से मजदूर हो गये. खेत बिक या छिन जाने पर, पशु के मर जाने पर, अलग्योझा हो जाने पर प्रेमचंद के किसान फूट-फूटकर रोते हैं. विवेचित कहानी में भी शंकर को रोते हुए दिखलाया गया है. इसीलिए राहुल सांकृत्यायन सामूहिक खेती पर जोर देते थे ताकि अनाज की समस्या हल हो जाए और किसानों को फूट-फूटकर रोना न पड़े.
शंकर-मंगल एक साथ रहते तो? विप्र महाजन न होता!
खलिहानी देने के पीछे यह धारणा थी कि खेत में जो कुछ पैदा हुआ है, वह ब्राह्मणों के आशीर्वाद से हुआ है. हिन्दी-पट्टी के सम्पूर्ण खेतिहर मजदूर और किसान ब्राह्मणों के इस जाल में बुरी तरह फँसे हुए थे. बनारस से निकलने वाली पत्रिका ‘जात-पात तोड़क’ के जनवरी 1929 के अंक में प्रकाशित एक लेख से पता चलता है कि किसानों पर ब्राह्मणों का किस तरह का आतंक था! ‘जात-पात तोड़क’ लिखता है :
“सहस्रों वर्ष से बिचारे किसान अन्न पैदा करते हैं, रात-दिन पिसते खपते रहते हैं परन्तु आधा अपने संरक्षकों को बाँट देते हैं. क्यों? इसलिए कि बिना इनकी कृपा से न पानी बरस सकता है, न धूप निकल सकती है न हवा चल सकती है. जब जब अतिवृष्टि या अनावृष्टि से दुर्भिक्ष होते हैं तब तक खोजने पर उसका यही कारण मिलता है कि श्रमिकों ने पाप किया, पुरोहित मण्डली की यथेष्ट पूजा नहीं की.”
(जात-पात तोड़क, जनवरी 1929 : 128)
‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी में शंकर कुरमी इस तथाकथित पाप से आद्यंत डरा हुआ है. प्रेमचंद ने विप्रों की चालाकियों को दिखाकर उनके सड़ियल धर्म का पोल खोला है. प्रेमचंद यह दिखाते हैं कि कमियौटी या सेवकाई प्रथा के विकास में धर्म ने किस तरह मदद पहुँचाई! यह धर्म ही था कि 1920 में बने एक्ट का भी असर ग़ुलामी कर रहे कुरमियों पर न पड़ा क्योंकि वे विप्रों का कर्ज़ लेकर नरक नहीं जाना चाहते थे. 22 मार्च 1929 को लेजिस्लेटिव कौंसिल, पटना में ब्रजनंददास ने आर.ई. रसेल से कमियौटी-एक्ट संबंधी कुछ जरूरी प्रश्न किये. उसके जवाब में रसेल ने बताया कि प्रान्त में कमियौटी अधिनियम प्रभावी नहीं है क्योंकि कामिया (बंधुआ मजदूर) लोग इससे उदासीन हैं. यानी धर्म ने उनकी जीती-जागती आत्मा को बुरी तरह रौंद डाला था. प्रेमचंद अपनी कहानियों के माध्यम से तत्कालीन विप्र समाज की धार्मिक चालाकियों को भी दिखा रहे थे.
विप्र जब पहली बार शंकर से हिसाब माँगता है तो वह धर्म का डर दिखाकर ही यह कहता है कि “इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता.” सात वर्ष पुरानी बात सुनकर अवाक् शंकर अपने तथाकथित ईश्वर को ही याद करता है – “ईश्वर! मैंने उन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया? जब पोथी-पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ ‘दक्षिणा’ ले ही जाते थे. इतना स्वार्थ!”
गुलाम भारत में रह रही कुरमी जाति निरक्षर थी. वे ‘तार्किक और व्यवहार चतुर’ न थे. उसे ईश्वर और बाभनों के फर्जी पोथी-पत्रों पर अटूट विश्वास था. यहाँ साफ है कि बहुजनों के ईश्वर और विप्रों के ईश्वर में फरक है. इस फरक को स्वामी अछूतानन्द ने पकड़ा था. इस कहानी में प्रेमचंद इशारा कर रहे हैं कि स्वर्ग में भी विप्रों के ही भाई-बन्धु हैं. वहाँ के ऋषि-मुनि सब ब्राह्मण हैं. देवता भी ब्राह्मण हैं और बहुजनों का कोई भी हितैषी स्वर्ग में नहीं है.
स्वगत कथन के बाद विप्र और शंकर के बीच जो बातचीत होती है, उसे भी सुना जाना चाहिए –
शंकर – “महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानों में सेर-सेर, दो-दो सेर दे दिया है. अब आप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा?”
विप्र – “लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ, तुमने जो कुछ दिया होगा, खलिहानों में दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो. तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है; जिससे चाहे हिसाब लगवा लो. दे दो तो तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा.”
शंकर – “पांडे, क्यों एक ग़रीब को सताते हो. मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा?”
विप्र – “जिसके घर से चाहे लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोड़ूँगा; यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे.”
यहाँ ‘भगवान्’ शब्द सुनते ही प्रेमचंद ने शंकर को काँपते हुए दिखलाया है. इस संवाद में विप्र अपनी विप्रता भूल गया है. वह बनियागिरी पर उतर आया है. शंकर कहता भी है कि ‘ब्राह्मण होके तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.’ विप्र को ‘बाजार-भाव’ का ज्ञान है. ‘लेखा जौ-जौ, बखसीस सौ-सौ’ का हिन्दूवादी अर्थ तो मैं ‘पृथिवी-पुत्र’ का एक अध्याय ‘वणिक् सूत्र’ पढ़ते हुए समझ पाया. ‘वणिक् सूत्र’ अध्याय में यह इस तरह दर्ज है – ‘इनाम सौ-सौ, हिसाब जौ-जौ’. आगे वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं –
“हिसाब गणित-शास्त्र का अनुशासन मानता है और गणित ईश्वर का मूर्तिमान सत्यरूप है, इसलिए हिसाब भी बड़ी पवित्र वस्तु है. ईश्वर के सदृश वह निष्पक्षपात होकर छोटे-बड़े सबके साथ एक-सा व्यवहार करता है. इसलिए हिसाब के क्षेत्र में मुरव्वत या लगी-लिपटी नहीं रखनी चाहिए. जहाँ ऐसा होता है वहाँ जीवन का व्यवहार भी गंदला पड़ जाता है. हिसाब के बीच में पिता-पुत्र, पति-पत्नी सबका समान स्वत्व होना चाहिए.”
वासुदेवशरण अग्रवाल इस सूत्र को अनुपम मानते हुए इसे बही-खातों के आरम्भ में छापने तथा संगमरमर के अक्षरों में लिखकर व्यापार-व्यवसाय के सार्वजनिक स्थानों में लगाने की सलाह देते हैं.
“सात साल गुजर गये… सात वर्ष बीत गये… शंकर ने साल भर तक कठिन तपस्या की… बाकी मैं दो-तीन महीने में दे दूँगा… इस भाँति तीन वर्ष निकल गये… विप्र जी महाराज ने एक बार भी तक़ाजा न किया. वह चतुर शिकारी की भाँति अचूक निशाना लगाना चाहते थे. पहले से शिकार को चौंकाना उनकी नीति के विरुद्ध था.”
यह जो दस साल का समय आया है कहानी में, शंकर को ग़ुलाम बनाने में, उसका रहस्य यह है कि बंधुआ मजदूर रखने वाले ज़मींदारों-रईसों की संख्या क़रीब 84 प्रतिशत थी जबकि बंधुआ मजदूरों की संख्या नाम मात्र. इस तरह के तथ्यों से डाॅ. ए.के. लाल अपनी किताब ‘पालिटिक्स ऑफ़ पावर्टी : ए केस स्टडी ऑफ़ बाॅण्डेड लेबर’ (1977) में अवगत कराते हैं. शंकर हाथ से निकल न जाए, इसलिए विप्र जी दस साल का समय लगाते हैं उसे अपना ग़ुलाम बनाने के लिए.
सात साल बाद, प्रेमचंद जी के अनुसार,
“हिसाब लगाया गया तो गेहूँ के दाम 60 रुपए हुए. 60 रुपये का दस्तावेज लिखा गया, 3 रुपये सैकड़े सूद. साल-भर में न देने पर सूद की दर साढ़े तीन रुपये सैकड़े. आठ आने का स्टाम्प 1) दस्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पड़ी.… शंकर ने विप्रजी के यहाँ बीस वर्ष तक सेवकाई करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया.” यहाँ प्रेमचंद जी ने सेवकाई-प्रथा का सीधे नाम लिया है लेकिन हमारे आलोचक इसे समझ नहीं पाये हैं. प्रेमचंद आगे लिखते हैं : “पंडित जी ने उस ग़रीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे. उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी. आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है. उसका उद्धार कब होगा; होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने.”
इस कर्ज़ और घृणित सूद व्यवस्था पर रामविलास शर्मा ने आश्चर्य प्रकट किया है. उन्होंने लिखा है कि प्रेमचंद ने “कर्ज के विचित्र तरीकों, सूद लेने की अनोखी तरकीबों का चित्रण किया है.” रामविलास जी ने महावीरप्रसाद द्विवेदी पर एक शानदार किताब लिखी है. अपने मनोनुकूल सामग्री को उन्होंने ले लिया है लेकिन ऐसी बहुत-सी महत्वपूर्ण सामग्री है जिसे उन्होंने छोड़ दिया है. रामविलास जी अगर महावीरप्रसाद द्विवेदी की जनवरी 1914 की ‘सरस्वती’ में प्रकाशित टिप्पणी ‘बिहार और उड़ीसे में ग़ुलामी’ पर थोड़ा-बहुत ध्यान दिया होता तो ‘विचित्र कर्ज और सूद लेने की अनोखी तरक़ीबों’ को कुछ अच्छे से समझ पाते क्योंकि महावीरप्रसाद द्विवेदी की टिप्पणी कमियौटी या सेवकाई प्रथा पर बहुत कुछ रोशनी डालती है.
बिहार को-ऑपरेटिव सोसायटी के रजिस्ट्रार ने हैमंड साहब की एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. यह रिपोर्ट ‘सवा सेर गेहूँ ‘ में आयी कुछ बातों की पुष्टि करता है. महावीर प्रसाद द्विवेदी हैमंड साहब की रिपोर्ट के हवाले से लिखते हैं :
“इस सूबे में ग़ुलामी की प्रथा जारी है. ग़रीब काश्तकारों और मज़दूरों को सदा ही कर्ज़ लेना पड़ता है. कर्ज़ देने वाले को वे आठ आने के काग़ज़ पर एक दस्तावेज़ लिख देते हैं और सूद के बदले वे स्वयं, अथवा अपने लड़के या भाई आदि को कर्ज़ देने वाली की ग़ुलामी करने की शर्त कर लेते हैं. जब तक कर्ज़ अदा नहीं होता तब तक वे महाजन की मज़दूरी करते हैं और सिर्फ़ पेट की रोटी और कपड़ा पाते हैं. इस प्रकार इन लोगों को दस दस बीस बीस वर्ष तक काम करना पड़ता है. पांच पांच छः छः रुपये उधार देने वाले भी इस तरह की ग़ुलामी के दस्तावेज़ लिखा लेते हैं. ऐसे कितने ही दस्तावेज़ों को हैमंड साहब ने फाड़ फेंका है और कितनों ही की नक़लें अपनी रिपोर्ट में छापी हैं. उनका कहना है कि यह प्रथा वहाँ सैकड़ों वर्ष से जारी है.”
(सरस्वती, जनवरी 1914 : 49-50)
तो ऐसा था राष्ट्रवादयुगीन भारतीय समाज. प्रेमचंद यह सब देख रहे थे. प्रेमचंद के कथा साहित्य में उनका जीवनानुभव झाँकता है. यह उनका अनुभव ही था कि ‘रंगभूमि’ में वे लिख सके कि “लिपिबद्ध ऋण अमर होता है, वचनबद्ध ऋण निर्जीव और नश्वर.” ‘सवा सेर गेहूँ’ लिपिबद्ध ऋण की सच्ची कहानी सुनाता है. नामवर सिंह की एक किताब है – ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’ नाम से. इस किताब में उन्होंने ‘सवा सेर गेहूँ’ का नाम ही नहीं लिया है. हो सकता है कि वे इस कहानी के मर्म को न पकड़ सके हों!
‘सवा सेर गेहूँ’ का विप्र निर्मम है. ‘सद्गति’ का पंडित भी क्रूर है. कुछ लोग प्रेमचंद पर आरोप लगाते हैं कि वे ब्राह्मणद्वेष से पीड़ित थे. यह सब फ़ालतू बातें हैं. सनातनी धर्म के साथ जीने-मरने वाला ब्राह्मण ऐसा ही था – क्रूर, निष्ठुर और निर्मम. श्रीनाथ सिंह का लेख ‘घृणा के प्रचारक प्रेमचंद’ झूठ का पुलिन्दा है. उनकी ‘दीदी’ की फाइलें उलट-पुलट डालिये. आप देखेंगे कि बनारस के लेखकों से वे कितना घृणा भाव रखते थे. बाबू श्यामसुन्दरदास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल वगैरह के बारे में कितनी खराब बातें ‘दीदी’ में लिखी हैं.
चूँकि ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी सत्य घटना पर आधारित है. इसलिए कहानी के अंत में प्रेमचंद जी को हलफनामा देना पड़ा है. उस जमाने के कहानीकार, अगर सत्यकथा लिख रहे हैं, तो वे ऐसा करते थे. प्रेमचंद लिखते हैं :
“पाठक! इस वृत्तांत को कपोल-कल्पित न समझिए. यह सत्य घटना है. ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया ख़ाली नहीं है.”
अपूर्वानंद ने इस हलफनामे पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि प्रेमचंद की कहानियों में इस तरह के हलफनामे नहीं आते. इस हलफनामे को रामविलास शर्मा ने हू-ब-हू यह कहते हुए उद्धृत किया है कि ‘सवा सेर गेहूँ में प्रेमचंद ने कर्ज़ की वजह से ग़ुलामी करने वाले शंकर की करुण कथा लिखी है. वह एक बार सवा सेर गेहूँ उधार लेता है और उसे पटाते-पटाते बीस साल लग जाते हैं. फिर भी वह ग़ुलामी करता हुआ मरता है.’ रामविलास शर्मा हलफ़नामे के रहस्य को सुलझा नहीं पाए हैं.
विप्र के फर्जी कर्ज को भगवान् के घर देने की बात जब शंकर सुनता है तो प्रेमचन्द यह कहते हैं कि
“हम पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगे; वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी. कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता.”
प्रेमचंद की इस तार्किक बात को कुरमियों के मध्य पहुँचाना है. पहुँचे कैसे? इसे पहुँचाते हैं– भोलानाथ और शिवराम सिंह.
नवंबर 1924 की ‘चाँद’ में प्रकाशित ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानी को किसी कुरमी पाठक ने पढ़ा या नहीं – यह शोध का विषय है. लेकिन यही कहानी जब 1926 में ‘प्रेम प्रतिमा’ में संकलित होकर आई तो हुमायूंपुर (गोरखपुर) के भोलानाथ ने इसे पढ़ा. पढ़ा ही नहीं बल्कि ‘कूर्मि-क्षत्रिय-दिवाकर’ पत्रिका के संपादक बाबू शिवराम सिंह के पास भेजा जिसे उन्होंने दिसम्बर 1929 – जनवरी 1930 के संयुक्तांक में छापा. ‘सवा सेर गेहूँ’ शीर्षक से यह कहानी उक्त पत्रिका में प्रकाशित तो जरूर हुई लेकिन प्रेमचंद का नाम न देकर कहानी के अंत में संपादक ने छापा– ‘प्रेम प्रतिमा’ से भोलानाथ हुमाऊँपुर गोरखपूर.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डाॅ. आशुतोष पार्थेश्वर के संयोजकत्व में ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘कर्बला’, ‘रंगभूमि’ के सौ साल पूरे होने पर 23-24 अक्टूबर 2024 को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़ा गया पर्चा.
संदर्भ:
1.प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकान्त (2005), स्वर्ग पर धावा : बिहार में दलित आन्दोलन (1912-2000), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली
2.अपूर्वानंद (2021), यह प्रेमचंद हैं, सेतु प्रकाशन, दिल्ली
3.अवधेश प्रधान (2011), स्वामी सहजानन्द और उनका किसान आन्दोलन, नई किताब प्रकाशन, दिल्ली
4.(सं.) सत्यप्रकाश मिश्र (2015), प्रेमचंद के श्रेष्ठ निबंध, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
5.रामाज्ञा शशिधर (2012), किसान आन्दोलन की साहित्यिक ज़मीन, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद
6.प्रसन्न कुमार चौधरी/श्रीकान्त (2001), बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
7.प्रेमचंद (संस्करण 2017), मानसरोवर-4, सुमित्र प्रकाशन, इलाहाबाद
8.प्रेमचंद (संस्करण 2016), रंगभूमि, सुमित्र प्रकाशन, इलाहाबाद
9जाफ़र रज़ा (2008), प्रेमचंद : कहानी का रहनुमा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
10.नामवर सिंह (सं. आशीष त्रिपाठी : 2017), प्रेमचंद और भारतीय समाज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
11.कूर्मि-क्षत्रिय-दिवाकर, अगस्त 1928
12.कूर्मि-क्षत्रिय-दिवाकर, अगस्त 1934
13.जात-पात तोड़क, जनवरी 1929
14.सरस्वती, जनवरी 1914
सुजीत कुमार सिंह हिन्दी नवजागरणकालीन साहित्य के गम्भीर अध्येता. अब तक तीन किताबें प्रकाशित. ‘वर्तमान साहित्य’ के नवजागरणकालीन स्त्री कविता का अतिथि संपादन. इन दिनों ‘जात पात तोड़क’ और ‘कलवार केसरी’ पर काम कर रहे हैं. ई-मेल : sujeetksingh16@gmail.com |
प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहू’ के मार्फत देश में गुलामी के दस्तावेज की पड़ताल करते हुए सुजीत कुमार सिंह ने यह तो सिद्ध कर ही दिया कि देश में दास प्रथा की जड़ें मजबूत करने में वर्ण व्यवस्था का कितना अहम रोल था। इस लेख से दो बातों पर रोशनी पड़ती दिखाई देती है कि प्रेमचंद तत्कालीन भारतीय समाज व्यवस्था की कुरीतियों को कितने सुनियोजित ढंग से साहित्य में ला रहे थे कि प्रबुद्ध लोग उस पर विचार करें।
सच्ची कहानी लिखकर प्रेमचंद यह भी बता रहे थे कि केवल काल्पनिक कहानियों से काम चलने वाला नहीं। साहित्य को समृद्ध और गंभीर बनाना है तो लेखक को समाज और जीवन की सच्चाई से अपना मुख नहीं मोड़ना होगा।
तीसरी बात जो इस संदर्भ में बहुत सामान्य तरीके से कहीं जा रही है पर है महत्वपूर्ण : कहानी ऐसी ही हो, जिसे पढ़कर साहित्य का सामान्य विद्यार्थी भी समझ सके और उस पर कुछ कह सके । विद्वान लोग उस पर उलझना चाहें तो उनकी खुशी – जितना चाहें उलझते चले जायें।
हीरालाल नागर
सुबह ही पढ़ने की सोची थी । पर हर बार की तरह फिसड्डी ।
जैसे कुरमी या अन्य अनुसूचित जातियों के लोग विप्रो से कमतर आँकते रहे ।
कहानी में दर्द की दास्तान ही नहीं अपितु बंधुआ मज़दूरों के विलाप को पवित्र गंगा बहती है । हमारे अतीत की यथास्थिति इस कहानी के ज़रिए शोधकर्ताओं ने शोध किए । प्रस्तुतीकरण प्रभावी है ।
Santosh Dixit
बहुत बढ़िया विश्लेषण! सूदखोर विप्रों का भयानक आतंक रहता था गांवों में। प्रेमचंद लिखते हैं –शंकर ने सारा गांव छान मारा, मगर किसी ने रुपए न दिए। इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था या किसी के पास पैसे नहीं थे, बल्कि इसलिए कि पंडित जी के शिकार को छेड़ने की किसी को हिम्मत न थी।