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समालोचन

Home » प्रियदर्शन की कविताएँ

प्रियदर्शन की कविताएँ

अब युद्ध हथियारों और आख्यानों के साथ लड़े जाते हैं. हथियार ज़मीन पर गिरते हैं और आख्यान दिमाग़ पर असर करता है, कुछ इस तरह कि पीड़ित ही आततायी लगने लगता है. एक समय इस तरह के युद्ध ‘लोकतंत्र की स्थापना' के आख्यान के लिए लड़े जाते थे. जनता की तबाही की कौन ताक़तवर कभी परवाह करता है? प्रियदर्शन की प्रस्तुत कविताएँ युद्ध की इन्हीं विडम्बनाओं से उपजी हैं. घायल, कराहता, असहाय वर्तमान है यह.

by arun dev
November 17, 2023
in कविता
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प्रियदर्शन की कविताएँ
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प्रियदर्शन की कविताएँ

 

मेरी दुविधाएँ

१.

फिलिस्तीन में मारे जा रहे बच्चों की बात करूं
या मणिपुर में निर्वस्त्र की जा रही स्त्रियों की?
या यह बात करूं भी तो कैसे करूं?
लेख लिखूं या कविता?
भर्त्सना करूं या विवेचना?
या कुछ भी करूं, उससे कहीं कोई पत्ता भी खड़कता है?
मैं उस भाषा का कवि हूँ जिसे उसके अपने लोगों ने धोखा दिया है
जिसे बस तमाशबीन बोलते हैं या हत्यारे, या कुछ पाखंडी
इस भाषा में हर दुख बहुत खोखला होकर निकलता है
हर सुख लगभग अंधा होकर.

इस भाषा में कौन सुनेगा मेरी बात?
क्या वह मणिपुर या फिलिस्तीन तक जाएगी?
क्या वह किन्हीं बहरे कानों तक पहुंचेगी?
क्या वह यहीं इसी भाषा में ठीक से समझी जाएगी?
क्या मुझे ठीक से कहना आता है
क्या दूसरों को ठीक से सुनना आता है?
या चारों तरफ़ जो शोर मचा हुआ है, उसमें कोई भी आवाज़ सुनने की फुरसत किसी को है?
सब जैसे अपने लिए बोल रहे हैं
ताकि सनद रहे कि उन्होंने भी मणिपुर पर दिया था ज्ञान
कि उन्हें भी फिलिस्तीन की थी जानकारी
लेकिन ज्ञान हर तरफ़ है
जानकारी हर तरफ़
और फिलिस्तीन भी हर जगह है
मणिपुर भी हर जगह.

 

२.

खुशकिस्मत हैं वे लोग
जो ठीक-ठीक जानते हैं
कि उन्हें कहाँ खड़ा होना है.
उनकी सयानी संवेदना
बिल्कुल सूंघ लेती है वह समय
जब बोलना सबसे ज़्यादा सुना जाएगा
वे पहचान लेते हैं उन मित्रों को
जो इतिहास लिखेंगे और उनका सम्मान से उल्लेख करेंगे
उन्हें पता रहता है
यह फासीवाद के विरोध का मौसम है
और यह सांप्रदायिकता के विरुद्ध बोलने का
यह भी कि कब उन्हें चुप रह जाना है
कब मूंद लेनी है आँख
कहाँ बंद करने हैं कान.
जबकि मेरा संकट है कि सबकुछ गड्ड-मड्ड नज़र आता है
एक जैसी लगती हैं यातना की सारी तस्वीरें.

पता नहीं चलता कौन सी रुलाई फिलिस्तीन की है
और कौन सी चीख मणिपुर की.
हर तरफ़ दिखते हैं अत्याचारियों के चेहरे
और आँसू पोंछने का उनका पाखंड.
अपना बोलना बेमानी‌‌ लगता है तो चुप रहना अपराध.

हर बार सोचता हूँ कोई सटीक सी बात कहूँ
अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध
और पीड़ितों के पक्ष में.
लेकिन हर बार एक नामालूम सी विडंबना से घिर जाता हूँ
जैसे मैं ही हूँ फिलिस्तीन
मैं ही हूँ मणिपुर
सबकुछ अपनी छाती पर झेलता हुआ
अपने घर ध्वस्त होते देखता हुआ
अपने बच्चों की चीख मंद पड़ती पाता हुआ.
अपने और अपनों के मरने का सोग चुपचाप मनाता हुआ.

 

३.

मुझे इतिहास से उम्मीद थी
कि वह लोगों को कुछ ज़रूरी सबक़ देगा
मुझे वर्तमान से उम्मीद थी
कि वह पुरानी ग़लतियाँ नहीं दुहराएगा
मुझे भविष्य पर भरोसा था
कि वह पुरानी भूलों को पीछे छोड़ आएगा.
लेकिन यह सारा समय एक सा निकला
रूप और नाम बदल कर आते रहे आततायी
स्पार्टाकस को मारते रहे
रोहित वेमुला को मरने पर मजबूर करते रहे
पहले वे युद्ध करते रहे
फिर लाते रहे शांति प्रस्ताव
बीच-बीच में उदार होकर देते रहे
इतनी मोहलत
कि भर जाएँ पीड़ितों के घाव.
सारा समय उनकी मुट्ठी में रहा.
भूत-वर्तमान-भविष्य सब उनकी सेवा में.
बस वे इस बात पर हैरान होते रहे
बार-बार कुचले जाने के बावजूद
कुछ लोग बार-बार कैसे खड़े हो जाते हैं
इंसाफ़ और अमन के लिए लड़ने को तैयार
अतीत को पीछे छोड़, वर्तमान का पहिया मोड़
भविष्य को अपनी तरह से गढ़ने को तैयार.

 

चार घंटे
(युद्ध में रोज़ चार घंटे की छूट देगा इज़राइल)

चार घंटे हैं
तुम्हारे पास
और तय करना है तुम्हें
इनका सर्वोत्तम उपयोग क्या करोगे.

मलबे में जाकर अपनी पत्नी का शव खोजोगे
या अपने मारे गए भाई के लिए क़ब्र खोदोगे?
या फिर बचे हुए इकलौते बेटे के लिए
रोटी, दूध और दवाएँ जुटाओगे?
लेकिन क्या अपने दुखों का बोझ उठाए
उस लाचार भीड़ में दाखिल हो पाओगे
जो किसी भी सूरत में बंट रहा खाना लूटने में लगी हैं?
नहीं उन्हें मत कोसो
वे भी तुम्हारी तरह शरीफ़ लोग हैं
जिनमें इतनी गैरत हुआ करती थी
कि किसी का हक़ न मारें
बल्कि कोई भूखा आ जाए
तो उसे अपने हिस्से की रोटी खिला दें.
लेकिन ज़िंदगी बहुत बेरहम होती है
उसके होते हैं बहुत सख़्त इम्तिहान.
वह इंसान को जानवर बना देती है
जिसमें बस इतनी ही फ़िक्र हो
कि बची रहे अपनी और अपनों की जान.
लेकिन यह सब मत सोचो
अभी बस दौड़ो
पहले एक कतार में रोटियां झपटनी हैं तुम्हें
फिर रेड क्रॉस की गाड़ी से लेनी हैं दवाएँ
अभी भूल जाओ
तुम्हारा कोई भाई भी है.
वैसे भी वह बिना क़ब्र के भी
तमाम दुखों से ऊपर जा चुका है.
भूल जाओ कि तुम्हारी पत्नी भी है
जिसके बारे में तुम्हें नहीं मालूम
वह जीवित भी है या नहीं.
लेकिन उसकी सौगात वह फूल सा बच्चा
अभी बचा हुआ है
जिसे ज़िंदा रखने के लिए
तुम्हें मिले हैं चार घंटे.
तो सोचो मत, रुको मत.
दौड़ो
कि खुदा चार घंटों के लिए
मेहरबान हुआ है.
अमेरिका और इज़राइल का
शुक्रिया अदा करो.

प्रियदर्शन
(जून, 1968, राँची)

‘ज़िन्दगी लाइव’ (उपन्यास); ‘बारिश, धुआँ और दोस्त’, ‘उसके हिस्से का जादू’ (कहानी-संग्रह); ‘नष्ट कुछ भी नहीं होता’ (कविता-संग्रह) प्रकाशित. सलमान रुश्दी और अरुंधति‍ रॉय की कृतियों सहित सात किताबों का अनुवाद और तीन किताबों का सम्पादन. विविध राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर तीन दशक से नियमित विविधतापूर्ण लेखन और हिन्दी की सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन आदि

कहानी के लिए पहला ‘स्पन्दन सम्मान’.
priyadarshan.parag@gmail.com

Tags: 20232023 कविताइज़राइलगाजापट्टीप्रियदर्शनयुद्धयुद्ध के विरुद्ध हिंदी कविता
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Comments 8

  1. कुमार अम्बुज says:
    2 years ago

    दुविधाएँ-1 और चार घंटे, इन कविताओं की
    व्यग्रता, दुविधा और पुकार रेखांकन योग्य है।

    Reply
    • Priyadarshan says:
      2 years ago

      शुक्रिया!

      Reply
  2. Rahul jha says:
    2 years ago

    इन कविताओं से गुजरने के लिए वही ‘कलेजा’ चाहिए…जिस कलेजे से ये कविताएँ लिखी हैं…कवि ने…

    Reply
  3. Dr Om Nishchal says:
    2 years ago

    युद्ध की कविताएं लिखना कितना कठिन है, कविता पढ़ने से पता चलता है । जब युद्ध किसी आख्यान की तरह दृश्यमान हो और उसकी बारंबारता हमारी संवेदना को बिना छुए निकल जाती हो ऐसे समय कविता की शक्ल में ठीक-ठीक कहना वाकई मुश्किल होता है । यह कविता रिपोर्ताज अपने भीतर की मार्मिकता से छूता हुआ लगता है।

    Reply
  4. रवि रंजन says:
    2 years ago

    प्रियदर्शन संभवत: पहले गंभीर हिंदी कवि हैं जिनकी ये कविताएं हमारे समय में धर्म के नाम पर वर्चस्व के लिए चल रहे अत्याधुनिक वैज्ञानिक तकनीकों से लैस उन्मादी युद्ध के कारण हो रहे भयावह नरसंहार की शिनाख्त का गवाह हैं.
    बावजूद इसके, निवेदन है कि ग़ज़ा से भिन्न मणिपुर में एक जनजातीय समुदाय के प्रति हिंसा व यौन हिंसा के लिए किसी बाहरी सैन्य शक्ति के बजाए प्रताड़ितों से मिलते जुलते दूसरे जनजातीय समुदाय के हिंसक समूह जिम्मेदार हैं.
    ‘चार घंटे’ कविता के अंत में इज़राइल और अमेरिका का नमोल्लेख अनावश्यक प्रतीत होता है. इनका कविता के शीर्षक के ठीक बाद उल्लेख हो चुका है.
    कवि साधुवाद और सम्पादक अरुण जी को धन्यवाद.

    Reply
  5. Divakar Pandey says:
    2 years ago

    मर्माहत समय की बेहतरीन कविताएं

    Reply
  6. पद्मसंभव says:
    2 years ago

    “अपने और अपनों के मरने का सोग चुपचाप मनाता हुआ”
    और इस के बाद अंत में कवि मणिपुर और फलिस्तीन को अपनी छाति पर घटता हुआ पाता है. सच में? कवि की छाती लाखों लोगों के नरसंहार के दुख का बोझ महसूस रही है? क्या सच में हमारा फलिस्तीनियों के लिय दुख वही है जो अपनी माँ, अपने पिता, अपनी संतान, अपने दोस्त, अपने रिश्तेदारों के लिए? क्या कवि ने कविता का अंत लिखने से पहले इन सबको बम से फटते हुए, मलबे में लहुलुहान कल्पित भी किया? यह मात्र रेटोरिक नहीं बल्कि तदाकारिता का एक विलक्षण दावा है.
    सच में, “इस भाषा में हर दुख बहुत खोखला होकर निकलता है”

    Reply
  7. Hiralal Nagar says:
    2 years ago

    युद्ध चल रहा है। लोग मारे जा रहे हैं । लोग अनाथ और विकलांग हो रहे हैं। जहां युद्ध चल रहा है, चीख -पुकार केवल वहीं है। बाकी जगह लोग शांत और उद्वेलित हैं।
    युद्ध के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं है। छिटपुट है-बीच – बीच होती फायरिंग की तरह। ऐसे में प्रियदर्शन की कविताएं ढांढस बंधाती हैं कि कोई तो है जो युद्ध पर कविताएं लिख रहा है।
    श्रीलंका में जब शान्ति रक्षक सेना तमिल उग्रवादियों के साथ युद्ध जैसी स्थिति में थी, तब उसे कोई युद्ध नहीं मान रहा था। तब किसी कवि ने कविताएं लिखी ं? युद्ध यह भी है और युद्ध वह भी था। जहां युद्ध से मानवता त्रस्त हो और लोगों के मारे जाने की खबर है वह युद्ध ही है। कवि की निगाह समान रूप से युद्ध में होनेवाली मानवीय पीड़ा तथा करुणा की ओर पहुंचनी चाहिए।
    हीरालाल नागर

    Reply

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