प्रियंका दुबे कविताएँ |
खंडित
तुम्हें चूमते हुए अक्सर,
दुनिया में हर रोज़ मारे जा रहे बच्चों कि छवियाँ
मेरी आखों में कौंध जाती हैं..
और फिर अचानक,
इतना विभाजित महसूस करती हूँ मैं
जैसे हमारी इस जल रही दुनिया में पसरी हिंसा के बीच भी
तुमसे इतना गहरा प्यार कर पाने की ग्लानि से
खंडित हो रही हूँ.
तुमने मुझे खींच लिया है अपनी तरफ़,
पूरा का पूरा.
तुम मुझे पूरा चाहते हो,
सशरीर, सआत्मा
पूरी तरह उपस्थिति.
मैं
तुम्हें भी चाहती हूँ,
देश को भी, दुनिया के बच्चों को भी, क्रांति को भी.
प्रेम का स्वभाव ऐसा क्यों है?
यूँ ‘पूरे’ की माँग करने वाला?
रति के क्षणों में
विस्मृत करना पड़ता है मुझे
हमारी जल रही दुनिया का दिया हुआ विष.
दुनिया का हिंसा से मन नहीं भरता,
और हमारा एक दूसरे को चूमने से मन नहीं भरता
हिंसा और अन्याय के इस अंधेरे असंभव समंदर में
हमारा प्यार जैसे
किसी नाज़ुक दिये की तरह रौशन है.
इस दिये की रौशनी को मैं
दुनिया के लिए उम्मीद समझूँ ?
या विराट दुखों से कराहते इस संसार के बीच
तुम्हारे प्यार में सुखी होने की
ग्लानि से मर जाऊँ?
रात का फ़िक्शन
उसे प्रेम से पहले बात करना पसंद था
और आदमी को रति के बाद.
पीली रौशनी में डूबी लकड़ी की फ़र्श पर
हर रात घटित होने वाला उनका प्रेम
जैसे कोई पुल था
जिसके उस पार वह सारे वाक्य पूरे होते थे
जिन्हें वह रति से पहले कहना शुरू करती थी.
फिर बत्ती बुझने के बाद
वह दोनों देर तक बातें करते
वह दोस्तोवस्की को फ़िक्शन का पितामह बताती
और आदमी जेफरी आर्चर की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ता
‘फिक्शन असल में है क्या ?’ पर गुत्थम गुत्था होते हुए
अचानक उन्हें याद आता
कि एक दूसरे पर बिखरे उनके शरीर
अब भी
बेल पर फूलों की तरह उग रहे थे.
बरामदे में खड़े कदंब पर टंगा कोहरा
सर्दियों की उन रातों में
खिड़की से होता हुआ
उनके कमरे में उतर आता था.
आदमी की जाँघ पर अपनी कोहनी टीकाकर
वह अपना चेहरा उठाती,
और खड़की से झांकती कदंब की पत्तियों को नज़र भर देख कहती-
“हमारे प्यार की यह रातें क्या किसी अच्छे फिक्शन से कम हैं?”
“वाइट नाइट्स से भी अच्छी हैं”, जवाब आता.
जापान भागना
उन दिनों,
जापानी लेखक मिशिमा पर दिल आया हुआ था मेरा.
उनके लिखे पर पहाड़ी बारिश की तरह
घंटों बोलती.
फ़ोन के उस तरफ़ कुनमुनाते तुम
उसी एक वाक्य को दोहराते-
“अगर हमारा विवाह न हो सका,
तो मैं आपको लेकर जापान भाग जाऊँगा”
अब शादी के बाद
हमारी जापान यात्रा के लिए पैसे जोड़ते हुए
मैं अक्सर सोचती हूँ
कि तुम मुझे भगा कर जापान ही क्यों ले जाना चाहते थे?
हम ट्यूरिन भी तो जा सकते थे?!
ट्यूरिन– जहाँ नीत्शे ने घोड़े को पिटते हुए देखा था
जहाँ मेरे प्रिय कवि पावेसी ने अपनी जान ली.
बत्ती बुझने के बाद,
बीच रात मैं पूछती हूँ
मूराकामी तो तुम्हें यूँ भी पसंद नहीं
फिर जापान ही क्यों?
‘”लेकिन तुम्हें तो पसंद है न?”
तुम नींद में बुदबुदाते,
“मिशिमा भी, मछली भी.
हम ठंडे समंदर के किनारे रहते,
लिखते और जापानियों की तरह
खूब बूढ़े हो कर मरते”
बरसात का राजा ‘अम्बर’
हमारा विवाह जिन गर्मियों में हुआ,
तब भरी जून में भी ज़ोर बारिश पड़ा करती थी
टिप-टिप की उस सतत पुकार
के पार्श्व में प्रेम करने के विचार भर से
इतनी उल्लसित हो जाती थी मैं
कि शाम से कदंब के भीगे पत्तों पर बैठी कोयल को
इच्छा से भर कर ताका करती.
“बारिश में प्रेम करने की इच्छा बहुत सताती है
सिर्फ़ इसलिए तुम्हारे साथ चेरापूंजी जाने का सोचती हूँ
लेकिन यहाँ तो तुम्हारा शहर ही,
पृथ्वी पर बरसात का राजा बना बैठा है…
देखना,
अगर यह कोयल अभी लगातार दो बार कूक उठा देगी,
तो आज रात भर बारिश होगी”
‘रात भर बरसात’ की प्रार्थना करते मेरे टोटकों को
‘मासूम’ बताकर तुम मुझे बाँहों में खींच लेते.
और कहते,
“मेरा शहर सिर्फ़ पृथ्वी पर ही नहीं,
अम्बर पर भी बरसात का राजा है.
अम्बर तुम्हारी बाँहों में है,
और बारिश तुम्हारी उँगलियों पर…
जितना जी चाहे, बरसा लो”
मैं चूमती तुम्हें,
शाम के धुँधलके में बैठे हम
अम्बर से
अनवरत बूँदों का गिरना सुनते.
प्यार का वज़न
तुम्हारे साथ इतनी सुखी हूँ मैं
कि अब मेरे इस सुख से भी
ग्लानि का तीर झाँकने लगा है…
यूँ भी,
ग्लानि ने कब छोड़ा है साथ मेरा?
भूखे प्राणियों से अटी पड़ी इस पृथ्वी पर
गर्म भात में सनी मेरी उँगलियों पर चिपकी ग्लानि हो
या हो
दुनिया के लहूलुहान अल्पसंख्यकों के सामने
एक साबुत, ज़िंदा बहुसंख्यक होने की ग्लानि.
फिर प्रेम तो सृष्टि का सबसे दुर्लभ सुख है!
जितनी जान इसके न मिलने पर जाती है
उतनी ही जान यह मिल-जाने पर लेता भी है.
तुम्हारे संग मैं इतनी सुखी हूँ
कि इस सुख के वज़न से साँस रुकती है मेरी-
अक्सर रातों को तुम्हारी बाँहों में पड़ी दोहराती.
“श्श्श…देवता ईर्ष्या करने लगते हैं”
मेरे होठों पर अपनी उँगलियाँ रख तुम धीमे से कहते
“देवता अमर होते हैं न,
जिनको मृत्यु ही नहीं, उन्हें खोने का क्या भय?
सो, देवताओं के यहाँ प्रेम नहीं होता”
जो प्रेम ईश्वर के भाग्य भी नहीं,
उसी के वज़न की तासीर होगी
जिसे मीर को भी
“भारी पत्थर” कहकर
पुकारना पड़ा.
विश्व कविता दिवस
मार्च की उस दुपहर
मेरे बाजू पर तुम्हारा चेहरा पड़ा था,
कानों पर चिपके नीले हेडफ़ोन्स और बिखरे बालों के बीच
दमकता तुम्हारा स्वप्निल चेहरा
केसरबाई केरकर की आवाज़ में राग केदार सुनते हुए
नींद में झूल रहे थे तुम.
दाहिनी बाँह पर तुम्हारी नींद को यूँ सजाकर
बाएँ हथेली में तुम्हारी ही पांडुलिप के पन्ने पकड़े
पढ़ती रही मैं,
तुम्हीं को.
किसी झिलमिल प्रेम-कविता जैसी यह दुपहर
विश्व कविता दिवस के रोज़ जीवन में आयी थी.
कविता को शुक्रिया कहूँ,
या तुम्हें?
पंछी की पुकार
जब जब दूर ऊँचे पहाड़ों पर बर्फ पड़ती,
तब तब तराई में टिमटिमाटी उसके कमरे की खिड़की पर
एक चीख उठती
“यह कौन पंछी है
जो रात के दूसरे पहर यूँ खिड़की के पीछे से पुकारता है?”,
प्रेमी के सीने पर चेहरा टिकाये, वह धीरे से पूछती.
न प्रेम के पहले, न प्रेम के दौरान…
बल्कि ठीक रति के बाद,
हर रात, बत्ती बुझने के बाद ही पुकारता है यह पंछी…
नींद में डूबे प्रेमी के
सीने के बालों को अपनी उँगलियों में फँसा,
वह फुसफुसाती …
“जाने कौन जनम का सखा है,
या भूला हुआ शत्रु कोई?
हमारी रति से ईर्ष्या करता कोई रक़ीब है,
या दुआ भेजता बिसरा हुआ पुरखा कोई?
कौन है जो इस पंछी के भीतर बैठकर
इतनी करुण पुकार उठाता है हर रात?”
सोया प्रेमी नींद में कुनमुनाता है,
दोनों अंधेरे में सुनते हैं
पंछी की पुकार.
अम्बर गौरी
बेगम का बिगाड़ बेगू हो
या बेगू का सुधार- बेगुड़ी,
तुमने दर्जनों प्यार के नाम दिए मुझे
शुक्र है जो मोहब्बत में टंके इन नामों को
‘बाबू-शोना’ के आतंक से मुक्त भी रक्खा तुमने.
तुम्हारी भाषा में मैं
जहाँ ‘बेगूड़ी’ हूँ वहाँ ‘काँची’ भी.
‘बिबि डियरेस्ट’ हूँ तो ‘आईशा’ भी
और
कभी कभी मार्च का महकता
‘कनेर’ भी.
लेकिन सबसे पहले हूँ,
तुम्हारे उपन्यास की पात्र गोबर-गौरी को पढ़ती हुई
तुम्हारा प्रेम
अम्बर गौरी.
लेखक और पत्रकार प्रियंका दुबे बीते एक दशक से सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग करती रही हैं. जेंडर और सोशल जस्टिस पर उनकी इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले हैं जिनमें 2019 का चमेली देवी जैन राष्ट्रीय पुरस्कार, 2015 का नाइट इंटरनैशनल जर्नलिज़म अवार्ड, 2014 का कर्ट शोर्क इंटरनैशनल अवार्ड, 2013 का रेड इंक अवार्ड, 2012 का भारतीय प्रेस परिषद का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2011 का राम नाथ गोईंका पुरस्कार प्रमुख हैं. उनकी रेपोर्टें 2014 के ‘थोमसन फ़ाउंडेशन यंग जर्नलिस्ट फ़्रोम डिवेलपिंग वर्ल्ड’ और 2013 के ‘जर्मन डेवलपमेंट मीडिया अवार्ड’ में भी बतौर फ़ायनलिस्ट चयनित हुई थीं. साथ ही स्त्री मुद्दों पर उनकी सतत रिपोर्टिंग के लिए उन्हें तीन बार लाड़ली मीडिया पुरस्कार भी दिया जा चुका है. 2016 में वह लंदन की वेस्टमिनिस्टर यूनिवर्सिटी में चिवनिंग फ़ेलो रहीं हैं और 2015 की गर्मियों में भारत के संगम हाउस में राइटर-इन-रेसीडेंस. 2015 में ही सामाजिक मुद्दों पर उनके काम को इंटरनैशनल विमन मीडिया फ़ाउंडेशन का ‘होवर्ड जी बफेट ग्रांट’ घोषित हुआ था. साइमन एंड चिश्टर द्वारा 2019 में प्रकाशित ‘नो नेशन फ़ोर विमन’ उनकी पहली किताब है. 2019 में ही इस किताब को शक्ति भट्ट फ़र्स्ट बुक प्राइज़, टाटा लिटेरेचर लाइव अवार्ड और प्रभा खेतान विमेन्स वोईसे अवार्ड के लिए शॉर्ट लिस्ट लिया गया था. लम्बे समय से कविताएँ लिखकर संकोचवश छिपाती रहने वाली प्रियंका का दिल साहित्य में बसता है. इन दिनों वह शिमला में रह कर अपने पहले (हिंदी) उपन्यास पर काम कर रही हैं. उनसे priyankadubeywriting@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है. |
दिल जोड़नेवाली कविताएँ! इस दिल में दुर्लभ प्रेम के साथ दुनिया को उसी तृप्ति में देखने की चाह जो है।
शायद दोस्तोएव्स्की ने ही कहा है कि लोग अपने दुःखों के बारे में तो ख़ूब बात करते हैं पर सुख पर बोलने से कतराते हैं। इन कविताओं में सुख पर बात की गयी है। रति के पिक्चोरियल स्टेटमेंट सहज हैं, यद्यपि इन्हें और अधिक कलात्मक, सूक्ष्म और इशारियत-भरा होना चाहिए।
प्रेम सचमुच संपूर्ण होता है। रिक्तियों को संबोधित करना और उस ओर से समूचा भींग उठना, संपूर्णता ही है।
मुझसे पहले सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग !
फ़ैज़ ही लिख सकते थे। मगर वे इसे यूँ ही कह सकते थे – अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर …!
प्रियंका की इन कविताओं में प्रेम के होने, होते जाने और गहरे होते जाने के इतने इंटेंस और इतने नये बिंब और चित्र हैं कि बेहतरीन प्रेम कविता की बनक के लिए काफ़ी थे । यूँ होता तो तो ये बस प्रेम -कविताएँ होतीं, प्रियंका की प्रेम कविताएँ नहीं । प्रेम की ये कविताएँ एक काल-दुष्काल -सजग युवा स्त्री का आत्मा की सजगता की रोशनी में लिखी गई हैं।
फ़ैज़ से इतर और कुछ जटिल – प्रियंका ही लिख सकती थी यूँ !
प्रियंका, बस निःशब्द कर दिया इन कविताओं ने। मैंने ऐसे दम साधे पढ़ा इन्हें जैसा पिछले कुछ समय से कुछ भी नहीं पढ़ पायी।
फ़ैज़ तो याद आएं न आएं तुम आती हो। इन कविताओं से तुम्हारी खुशबू, इंटेंसिटी, तुम्हारी चिंगारियां… सबने घेर लिया मुझे।
वे पंछी जो रतिमग्न जोड़े को किसी दूसरे ही लोक में लिए जाता है उसे ज़रा रोको मेरे लिए…
शानदार प्रेम कविताएं 🌱 वरना पढ़ने से पहले डर लगता है कि फिर से वही लिजलिजी भावुकता! लेकिन इन कविताओं में सिकुड़े तो दिले आशिक, फैले तो ज़माना है, नज़र आता है 🌱 प्यार करना बेहद वैयक्तिक होते हुए भी ब्रह्मांड तक विस्तारित होता है 🌱शुक्रिया प्रियंका आपने यक़ीन बनाए रखा🌱
बेहतरीन कविताएँ.बधाई प्रियंका.
बहुत सुन्दर कविताएं।
सुन्दर कविताएँ।
शुक्रिया अरुण जी।
हर पंक्ति, हर लफ़्ज़ के रग रेशे को जीते हुए तुमने इन कविताओं को रचा है। रचना संसार में इस प्रेम की, ग्लानि की, इस बारिश की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इसमें दुनिया को सुंदर देखने और बनाने की चाह और अभाव की पीड़ा शामिल है। प्रकृति और साहित्य में डूबा इन कविताओं का जीवन और संवेदनाएं तमाम कोरी कल्पना, भावुकता और भौतिकता से परे है।
बहुत प्यार इस कलम और कलमकार के लिए ♥️♥️
सुन्दर प्रेम कविताएं।
इन प्रेमिल कविताओं के बीच भी जग का दुःख झांक रहा है।कवि- मन के अंतर्द्वंद्व की सघन अभिव्यक्ति इन कविताओं के माध्यम से हुई है।एक ईमानदार कवि का मन ऐसा ही होता है। बधाई बनती है।
बेबाक़ लिखी गई ये प्रेम कविताएँ अनायास लिखी गई लगती है जो कवि के मन की सरलता और विशालता दर्शाती है ।शुभेच्छा ।
जितनी सुन्दर कविताएं उतनी ही सुंदर प्रस्तुति।साधुवाद।
बहुत अच्छी प्रेम कविताएं।इन कविताओं में व्यक्त प्रेम दुख और सुख से परे अनुभूति की गहनता से उपजा है।बधाई।एक बारीक पीड़ा के बीच सुख की यह प्राप्ति अनिर्वचनीय है।बधाई प्रियंका दूबे।
प्रेम को प्रेम से कविता में प्रेम कहे बग़ैर यों भी कहा जा सकता है। इन साथ रह जाने वाली पंखुरी के स्पर्श के सुख सी कविताओं के लिए शुक्रिया 🌻
इतनी कविताएँ पढ़कर जीवन में
कुछ क्षतिपूर्ति हुई। सुख बना रहे।
बधाई।
🌺
सुन्दर कविताएं। राग, रति, प्रेम : संयोग शृंगार की उत्कट, आवेगमय छवियाँ जो सम्पूर्ण हैं लेकिन स्वायत्त नहीं क्योंकि इसी सुख के समानांतर चलने वाले दुःख के कारोबार से वे निस्पृह नहीं हो पातीं। एक संवेदनशील कविमानस उस ग्लानि से कैसे कतरा सकता है जो सुख में भी औचक, अनचाहे सिर उठाती है। इन कविताओं में सुख एक द्वंद्वात्मक तनाव में घटित होता है और यही बात इन्हें अनूठा बनाती है। इनका पसार प्रिय तक ही नहीं, प्रिय की रची हुई दुनिया, उसके कृतित्व तक भी है ।
‘दुनिया का हिंसा से मन नहीं भरता,
और हमारा एक दूसरे को चूमने से मन नहीं भरता’
Priyanka Dubey Love and compassion: so reflective of you. May your life always flower with both. Loved reading your sincere poems. ❤️
प्रियंका दुबे की ऐसी नाज़ुक कविताएँ पढ़ कर अभी तक लरज़ रही हूँ। इन्हें पढ़ते हुए अपना-अपना प्रेम याद आना स्वाभाविक ही है। और हिरोशिमा मॉन अमूर फ़िल्म का वह पहला दृश्य – जहाँ प्रेम करते दो शरीर, कभी पसीने, कभी रेत, कभी राख में बदलते हैं। क्या हम सचमुच एक खुली कब्र के मुहाने जन्मते है, क्षण भर को बिजली चमकती है और अंधेरा छा जाता है? जैसा एक पात्र ने कहा था।
विश्व की कालजयी कृतियों और प्रकृति के तमाम अवयवों के अलावा दुनिया के परितप्त लोगों को आँचल में अँकवार ले दो प्रेमियों की अंतरंग गपशप तो कविता एक बड़ा आयाम पा जाती है।
बहुत दिनों बाद कविताएं पढ़ा। और प्रेम कविता पढ़े अरसा हुआ था। ये सारी कविताएं शानदार और लाजवाब है। इसे हसीन और दिलकश कहा जा सकता है तो वह भी है। अच्छी कविताओं के बारे में मुझसे ज्यादा लिखा या बोला नही जा सकता है। फिलहाल, इतना ही। धन्यवाद।
प्रेम को प्रायः इतना सांद्र सघन संपूर्ण जाना माना गया है कि ऐन उस क्षण किसी भी अन्य का खयाल गैरवाजिब रहा आया है। लेकिन प्रियंका अपनी इन प्रेम कविताओं में दुनिया के दुख–दर्द से ही नहीं, विश्व साहित्य के कितने ही किरदारों, कितनी कौंधों से मुखा– मुखी करती हैं☘️
प्रियंका जी की ह्रदय कलम से रची बुनी इतनी खुबसूरत कविताओ के बारे मे लिखना तो इस नाचीज के सामर्थ्य की बात नहीं है….लेकिन इतना कह सकता हू कि जेसे सूखे रेगिस्तान में बारिश ने भिगो दिया हो तन मन …….
बाकी निशब्द हूं…..और प्रेम के अहसास से तृप्त भी….
बहुत सुंदर…बधाई…..
प्रेम की नैसर्गिक सुगंध से महकती मनमोहक कविताऍं पढ़कर मन गदगद हो गया ।
प्रेम के सुख और संसार में हो रहे अत्याचारों के दुःख के मध्य छटपटाता कवि का मन इन कविताओं में जस का तस अभिव्यक्त है।
बहुत बहुत बधाई प्रियंका 🌹🥰
प्रेम और फिर ग्लानि, सोने पर सुहागा !