प्रियंवदकविता, प्रेम और दुख की नागरिकता
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‘प्रियंवद’ नाम से कैसे लेखक का अक्स ज़ेहन में उभरता है? ज़ाहिर है कि एक सुन्दर, सुसंस्कृत, सहृदय और मृदुभाषी रचनाकार का. कोई भी व्यक्ति- जो उनके सम्पर्क में आया होगा- शायद शुरुआती तीन विशेषणों से सहमत हो जाए, मगर उन्हें मृदुभाषी तो निश्चय ही नहीं मानेगा. इसका कारण समझने के लिए एक श्लोक ग़ौरतलब है, जो परम्परा से प्रसिद्ध है :
“सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन:॥”
यानी, ‘सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, मगर अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए. प्रिय असत्य भी नहीं बोलना चाहिए; यही सनातन धर्म है.’
कानपुर शहर में नौकरी के चलते बीते तेईस बरसों की नागरिकता में मैं जितना भी प्रियंवद जी के नज़दीक रह सका, मैंने देखा कि वह ‘प्रिय असत्य’ नहीं बोल सकते, चाहे इसके लिए उन्हें ‘अप्रिय सत्य’ ही क्यों न बोलना पड़े और यह जोखिम वह लगातार उठाते हैं. अपनी इस अदा की बदौलत वह औरों के प्रिय हों या न हों, पर मुझे बहुत प्रिय हैं. इसकी वजह मेरा एक पुराना यक़ीन है कि किसी की संवाद-शैली में चीनी अधिक हो, तो समझ लो कि वह सच को तुमसे छिपा रहा है.
प्रियंवद से मैं जब भी मिला, उनके लहजे में एक क़िस्म की तल्ख़ी, बेचैनी और पीड़ा नज़र आई. एक ऐसा इनसान, जो सूरतेहाल से ख़ुश नहीं और इसीलिए उसमें रद्दोबदल चाहता है. आधुनिक और स्वाधीन भारत का संविधान अपने नागरिकों से जिस ‘पन्थ-निरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य’ का वादा करता है, प्रियंवद उन मूल्यों से प्रतिबद्ध हैं. वह निर्भय होकर सत्ता-प्रतिष्ठान के अन्यायी और दमनकारी रवैये का तीखा प्रतिवाद करते हैं और इसके लिए सभ्यता के हाशिए पर भी रहना पड़े, तो उन्हें मंज़ूर है.
जब ओहदे, पुरस्कार, प्रतिष्ठा वग़ैरह के प्रलोभन में बुद्धिजीवी अपनी निष्ठाएँ गिरवी रख आते हों, प्रियंवद पर आप भरोसा कर सकते हैं कि वह न बिकेंगे, न बदलेंगे. इसके बरअक्स फ़ासीवादी निज़ाम के चुप्पा समर्थक स्वभाव से चपल, अस्थिर, अनिश्चित, निरुद्विग्न और मसृण होते हैं. उनमें एक माधुर्य भी मिलता है, जिसका पर्यवसान यथास्थितिवाद और अन्ततः प्रतिक्रियावाद की हिमायत में होता है.
प्रियंवद से मेरा पहला परिचय आज से तक़रीबन 32-33 वर्ष पहले हुआ, जब मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. का विद्यार्थी था और साहित्य से लगाव के नाते मुझे ‘हंस’ पढ़ने का शौक़ हो गया था. उसमें उनका एक लघु उपन्यास मैंने पढ़ा: ‘वे वहाँ क़ैद हैं’ और उसकी छाप आज भी मेरे ज़ेहन में ताज़ा है. उत्तर भारतीय समाज धीरे-धीरे एक भयावह साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा की चपेट में कैसे आया- इतिहास के गहन पाठ के संदर्भ में इस प्रक्रिया का वह बहुत विचारोत्तेजक, मार्मिक और सशक्त आख्यान है. कथा-साहित्य पढ़ने की यह मेरी सीमा हो सकती है, मगर ऐसी अन्तर्वस्तु पर उससे बेहतर कृति मैंने नहीं पढ़ी है. अभाग्यवश, उनका लिखा कोई और उपन्यास मैं नहीं पढ़ पाया हूँ, लेकिन एक रचना भी इस क़दर प्रभावित कर सकती है कि हमें रचनाकार से हमेशा के लिए प्यार हो जाए. यह कुछ उस तरह हुआ मेरे साथ, जैसा कि मीर तक़ी मीर ने एक शे’र में बयान किया है कि प्यार का रिश्ता रोज़ मिलने पर निर्भर नहीं:
“रोज़ आने पे नहीं निस्बत-ए-इश्क़ी मौक़ूफ़
उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है”
प्रियंवद का लिखा पढ़कर प्यार के अलावा जो भावना जगी, वह उनके प्रति गहरे सम्मान की थी, क्योंकि उनके लेखन में रचनाकार के साथ ही एक ‘स्कॉलर’, यानी अध्येता नज़र आता है. बेशक, वह अपनी रचना के शिल्प और भाषा-शैली पर काफ़ी मेहनत करते हैं और उनके लेखन की बारीकी, नफ़ासत और संवेदनशीलता के मद्देनज़र उन पर निर्मल वर्मा का असर मालूम होता है- जिसे वह स्वयं भी स्वीकार करते हैं- मगर निर्मल की तरह वह ज़िन्दगी के सिर्फ़ कोमल, सुन्दर और सजल पहलू पर एकाग्र नहीं रहते; बल्कि आभिजात्य के उस घेरे को तोड़कर विद्रूप यथार्थ से टकराते हैं. यह सिफ़त उनकी रचना को अहम बनाती और उसमें मार्मिकता और कशिश पैदा करती है. ग़ौरतलब है कि कृष्णा सोबती ने ‘हम हशमत’ में निर्मल वर्मा के बारे में लिखते हुए उनके अध्यवसाय, संभ्रान्तता और सुरुचि की सराहना के बावजूद उनसे यही अपेक्षा की थी :
“…प्यारे दोस्त, शाम भले कॉन्सर्ट पर जाओ, बीथोविन सुनो, रविशंकर, अली अकबर ख़ाँ–मगर जो तुम्हारी गली में थुथनी उठाए सूअर घूम रहे हैं, उन्हें भी तो देखो. कुछ ग़ौर करो. तुम्हारी लाजवाब क़लम से कोई यथार्थ तो उभरे. कोई एक यथार्थ, ज़िन्दगी से ज़िन्दगी तक जुड़ा हुआ.”
प्रियंवद के लेखन से जो मेरा संवाद था, वह उनसे रूबरू होने की ख़ुशक़िस्मती में बदला, जब वर्ष 1996 में कानपुर शहर के एक महाविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में मुझे नियुक्ति मिली. उनसे पहली मुलाक़ात कब हुई, कहाँ हुई, ध्यान नहीं, क्योंकि परिचय के बाद ऐसा लगा कि अपरिचय कभी था ही नहीं. अगरचे, पहला फ़ोन ज़रूर याद है, जो शायद एक दिन देर शाम सिविल लाइंस में उनके घर के पास के किसी पीसीओ से मिलने की उत्कंठा के चलते मैंने उन्हें किया था. उन्होंने फ़ोन उठाया ज़रूर और अपरिचय के कारण कुछ औपचारिक-सी बात भी की, मगर कहा कि रात के समय मुलाक़ात मुमकिन नहीं है, दिन में कभी आइए! मेरे उत्साह पर पानी पड़ गया और मुझे लगा कि आत्मीयता के प्रदर्शन के बजाय उनमें एक ऐसी साफ़गोई है, जो दुर्लभ है. पारदर्शिता वह चीज़ है, जो उन्हें औरों से अलग करती है. आपको प्रियंवद चाहते या नापसन्द करते हैं- यह दिखने लगेगा. अगर उन्हें कुछ नागवार गुज़रता है, तो उसे जताने में वह झिझकेंगे नहीं. तब इस दुनिया में कम-से-कम एक इनसान की ओर से आप निश्चिन्त रह सकते हैं कि वह पीठ पीछे आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएगा.
पहली बार उन्हें फ़ोन करते समय मुझे मालूम नहीं था कि प्रियंवद बेहद अनुशासित हैं और दूसरे रचनाकारों की तरह रात के शैदाई नहीं. सुबह नाश्ते के बाद दोपहर का ही भोजन करते हैं और शाम ढलने के पहले शायद कुछ स्वल्पाहार. फिर सोने चले जाते हैं और सुबह तीन बजे उठते हैं. इसके बरअक्स, मुझे रतजगा प्रिय रहा, सुबहें अपनी ज़िन्दगी में बहुत कम देख पाया और जो उनके उठने का समय है, अमूमन वह मेरे सोने का. जानता हूँ कि इस तरह की दिनचर्या आत्महन्ता है, मगर रतजगों के शौक़ीन रहे शाइर नासिर काज़मी ने अपने दोस्त और अफ़सानानिगार इंतज़ार हुसैन से आख़िरी गुफ़्तगू में कहा था:
“…रात तख़लीक़ (सृजन) की अलामत है. दुनिया की हर चीज़ रात में तख़लीक़ होती है. फूलों में रस पड़ता है रात को. समन्दरों में तमव्वुज (हिल्लोल) होता है रात को. ख़ुशबूएँ रात को जन्म लेती हैं.”
इसके बावजूद सुबह का समय दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है और भारतीय परम्परा में भी. वेदों में तो लिखा है कि जो सुबह-सुबह जगते हैं, वे ही कवि होते हैं. इसलिए प्रियंवद से मुझे रश्क होता है. जो कुछ भी वह करते हैं, मेरे लिए असम्भव है या एक स्वप्न है. शायद इसीलिए एकाधिक संदर्भों में वह मेरे आदर्श हैं.
पहली बार जब उनके आवास में दाख़िल होने का सौभाग्य मिला, तो देखा कि वह कानपुर शहर के हृदय सिविल लाइंस में स्थित तिमंज़िले भवन के भूतल पर एक विशाल कक्ष था; जिसके अंदरूनी हिस्से की शीशे में जड़ी ख़ूबसूरत अलमारियों में उनकी निजी लाइब्रेरी की किताबें सजी थीं और बीचोबीच एक ऊँचे पलँग पर उनका साफ़-सुथरा बिस्तर लगा था. बाहरी हिस्से में उनकी बैठक थी, जिसमें बेंत का सादा, आरामदेह सोफ़ा और एक आकर्षक मेज़ थी. रौशनियाँ या लाइट कई तरह की थीं. मसलन पढ़ते समय प्रियंवद कुछ अधिक रौशनी जलाते होंगे, मगर अक्सर शाम को जब वह अतिथियों से बातचीत करते और उनके खाने-पीने का इन्तिज़ाम, तो एक झीनी रौशनी ही वहाँ रहती. जितनी भी देर को वह झुटपुटा नसीब होता, मुझे बहुत प्रिय था और एक स्वप्न-लोक के मानिन्द लगता, जिससे बिछुड़कर इस निष्करुण दुनिया में लौटने को मेरा कभी जी नहीं चाहता था; लेकिन अपनी यह भावना उनके समक्ष कभी ज़ाहिर नहीं कर पाया. केवल जब वह पुश्तैनी घर उन्होंने छोड़ा और पास ही, एक नए, विशाल और सुन्दर फ़्लैट में रहने लगे; तब ज़रूर मैंने उनसे कहा कि जिस आवास में रहकर अधिकांश जीवन आपने साहित्य-साधना की, उसे बेचना नहीं, बल्कि स्मारक के रूप में अक्षुण्ण रखना चाहिए. वह ऐसी बातों को महज़ भावुकता मानते हैं या शायद इसलिए कि जिस तरह की सभ्यता में हम साँस ले रहे हैं, उसकी नज़र में एक लेखक के आवास की हैसियत भला क्या है!
प्रियंवद का अतिथि-सत्कार बेजोड़ होता है. दरअसल, वह उनकी मैत्री का ही एक उत्कृष्ट रूप है. उसमें सुखद अप्रत्याशितताएँ होती हैं. मैं जब भी उनके घर गया, किसी राजनीतिज्ञ, अधिकारी, व्यापारी वग़ैरह नहीं, बल्कि उनके बचपन के दोस्तों और साहित्यकारों के साथ ही उन्हें पाया. बेशक, उन्होंने शादी नहीं की, मगर कभी-कभी सोचता हूँ कि जो रचनाकार अपने दोस्तों से इतना प्यार करता हो, उसे परिवार की क्या ज़रूरत? आख़िर परिवार भी तो प्यार ही के लिए चाहिए और यह प्रियंवद ने स्वयं स्वीकार किया है कि उनके जीवन में प्रेम का कोई अभाव नहीं रहा. अगरचे उनके साथ किसी प्रेयसी को देखने की मेरी हसरत कभी पूरी नहीं हुई या मुमकिन है कि जो लोग दिखे, उनमें ही उन्हें चाहने वाले हों.
प्रियंवद के साथ जब आप रहेंगे, तो यह ख़ुशफ़हमी हो सकती है कि बीच में कोई परदा नहीं; लेकिन सच यह है कि उनके निजी जीवन के रंगमहल में आने की किसी को इजाज़त नहीं. शुरुआती वर्षों में जब मैं उनसे मिलता था, तो एकाध बार उन्होंने मुझे विवाह कर लेने की सलाह दी. मैंने छूटते ही अपने दिल की बात कही :
‘शादी मैं क्यों करूँ? आप मेरे आदर्श हैं.’
उन्होंने जो जवाब दिया था, मार्मिकता के कारण वह मेरे लिए अविस्मरणीय है:
“मेरी बात और है. मेरा ख़याल रखने वाले बहुत लोग हैं. आपका ख़याल कौन रखेगा?”
कभी-कभार की मुलाक़ातों के बावजूद कानपुर जैसे विराट शहर में उन्होंने मेरे अकेलेपन को देख लिया था और उसकी विडम्बना को पहचान सके थे. यह एक उदाहरण ही साबित करने के लिए काफ़ी है कि एक लेखक के रूप में उनका हृदय दूसरों के प्रति किस गहन प्रेम, चिन्ता और संवेदना से सम्पन्न है.
पहले जिस तिमंज़िले भवन का ज़िक्र आया है, प्रियंवद उसके भूतल पर और ऊपरी मंज़िलों में उनके बड़े भाइयों के परिवार रहते थे. वह इसी संयुक्त परिवार के अविभाज्य अंग की तरह रहे, उसके लगाव और देखरेख की छत्रछाया में. साथ रहकर भी उन्होंने अपनी स्वतन्त्र और विशिष्ट पहचान बनाई. साहित्यिकों के बीच उन्हें रईस माना जाता है, क्योंकि वह व्यापारी परिवार से आते हैं और अपने बड़े भाई के रबर के कारख़ाने के संचालन के कामकाज से ख़ुद भी जुड़े रहे; मगर और भी अमीर होते जाने की अन्तहीन प्रतिस्पर्धा में कभी नहीं पड़े. उलटे, उससे अर्जित धन को उन्होंने साहित्यिक कामों में लगा दिया. प्रियंवद लगभग तीन दशकों से प्रति वर्ष मुख़्तलिफ़ शहरों में ‘संगमन’ शीर्षक कथाकारों-आलोचकों के सम्मेलन का संयोजन करते आ रहे हैं और अब तक ऐसे 25 आयोजन कर चुके हैं. बीते 24 वर्षों से वह निरन्तर विज्ञापन-बहुल इस ज़माने में पूरी तरह विज्ञापन-रहित साहित्यिक पत्रिका ‘अकार’ का प्रकाशन एवं सम्पादन अपने निजी साधनों से कर रहे हैं और उसके अब तक 67 अंक आए हैं.
‘अकार’ के ही बैनर से कानपुर में वर्ष 2021 से अब तक उन्होंने महत्त्वपूर्ण प्रासंगिक मुद्दों पर एकाग्र पाँच राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ आयोजित की हैं. इसके साथ-साथ अब तक उनके चार उपन्यास, चार कहानी-संग्रह, कथेतर गद्य की एक पुस्तक, अन्तरराष्ट्रीय एवं भारतीय इतिहास तथा राजनीति पर केन्द्रित तीन किताबें, साक्षात्कारों की एक पुस्तक, बाल-साहित्य की चार कृतियाँ और आठ सम्पादित पुस्तकें–यानी, कुल मिलाकर पच्चीस किताबें प्रकाशित हुई हैं. उनकी दो कहानियों पर ‘अनवर’ व ‘ख़रगोश’ फ़िल्में बनी हैं और ‘अधेड़ औरत का प्रेम‘ पर शॉर्ट फ़िल्म ‘ट्रेन क्रैश’. इनमें-से ‘ख़रगोश’ की पटकथा उन्होंने स्वयं लिखी. बहुत कुछ ऐसा भी है, जो या तो प्रकाशन की प्रक्रिया में है या जिसे वह लगातार रच रहे हैं. व्यापक साहित्यिक-सांस्कृतिक महत्त्व के उनके आयोजनों, सम्पादन और बहुआयामी रचनात्मक अवदान के मद्देनज़र मुझे लगता है कि शायद यही वह लक्ष्य था, जिस पर एकाग्र रहने के लिए उन्होंने एकाकी जीवन चुना और जो कुछ किया, वह किसी तपस्या से कम नहीं है.
1857 से 1947 के बीच के 90 बरसों के वक्फ़े को प्रियंवद आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे मूल्यवान कालखंड मानते हैं और यह कि इस दौरान महापुरुषों की एक आकाशगंगा बनी, जिसने नए भारत को गढ़ा और सँवारा. आज़ादी के बाद यह सिलसिला वर्ष 1964 तक चला और जवाहरलाल नेहरू के देहावसान से उस सपने के साकार होने की प्रक्रिया में गतिरोध और विकृतियाँ पैदा हो गईं, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने देखा था. मुझे लगता है कि प्रियंवद ने अपने काम से जो रौशनी मुमकिन की, वह 1857 से 1964 के कालखंड के उनके गहन साक्षात्कार से आती है. इसी संदर्भ में मैं कोई तुलना हरगिज़ नहीं कर रहा, लेकिन उनके विपुल एवं बहुमुखी सामाजिक-साहित्यिक अवदान और विरासत में मिली सम्पत्ति के प्रति रुख़ से मुझे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र याद आते हैं. कभी पूछा नहीं, मगर मेरा यक़ीन है कि भारतेन्दु उन्हें बहुत पसन्द होंगे. प्रियंवद सामासिक संस्कृति को भारत की सबसे बड़ी शक्ति बताते हैं और मौजूदा दौर में उसे जिस तरह तहस-नहस किया गया है, उससे बेचैन और परेशान रहते हैं. हाल में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव और 2022 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव, दोनों के पहले उन्होंने मुझसे कहा था :
“अगर यही लोग फिर से सत्ता में आ गए, तो इस देश में रहने का कोई मतलब नहीं रहेगा.”
चुनाव परिणामों के बाद मैं उनसे मिला और उनका बयान याद दिलाया, तो बोले :
“चारों ओर भयानक अराजकता है, न बेहतरीन शिक्षा है, न स्वास्थ्य की सुविधाएँ और न ही अदालतों में सुनवाई. जिसे भी बचना हो और अपने लिए सुन्दर भविष्य पाना हो, वह देश छोड़कर चला जाए. अब यही विकल्प रह गया है.”
प्रियंवद के ऐसे ख़यालात के संदर्भ में उनसे ज़रा असहमति ज़ाहिर करना मेरे लिए ‘छोटे मुँह बड़ी बात’ कही जा सकती है, मगर मैं यह जोखिम उठाऊँगा; क्योंकि वह जिस विकल्प की बात कर रहे हैं, वह हमारे देश के बेहद धनी-मानी एक-दो प्रतिशत लोगों का ही सच हो सकता है. इस वक़्त आर्थिक विषमता का आलम यह है कि पच्चीस हज़ार रुपए प्रति माह कमाने वाले भारत की आबादी के सबसे सम्पन्न दस प्रतिशत लोगों में हैं. बाक़ी नब्बे फ़ीसदी जनता की मासिक आमदनी इससे भी कम है और आधी आबादी, यानी इकहत्तर करोड़ लोग तो प्रति माह तीन से साढ़े चार हज़ार रुपयों से भी कम कमा पा रहे हैं. क्या ये आत्मरक्षा या सुनहरे भविष्य के लिए अपना मुल्क छोड़कर विदेश जा सकते हैं? प्रियंवद की विचारधारा पर ग़ौर किया जाए, तो न वह वामपंथी रहे हैं, न दक्षिणपंथी और न ही मध्यमार्गी.
पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने 1975 में जब इमरजेंसी लगाई थी, तो उन्होंने उसके ख़िलाफ़ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संचालित आंदोलन का साथ दिया था. भारतीय समाजवादी धारा के प्रति उनकी निष्ठा रही है, लेकिन जिस तरह 1977 में बनी जनता पार्टी सरकार के रूप में उसका प्रयोग विफल हुआ और बाद में धीरे-धीरे राजनीति में उसका प्रभाव क्षीण होता और बिखरता गया, उसके कारण वह बेज़ार हो गए. मौजूदा हालात में प्रचलित मध्यवर्गीय मानसिकता के विरुद्ध प्रियंवद का मन्तव्य है कि ‘फ़ासीवादियों से किसी अच्छाई की उम्मीद करना बेकार है.’ अलबत्ता वह राहुल एवं प्रियंका गांधी से ज़रूर किसी बेहतरी की आशा सँजोते हैं, क्योंकि उनका यह कथन मैंने सुना है: “भाई-बहन कभी कोई अनुचित बात नहीं कहते.” इससे लगता है कि अब वह समाजवाद की ओर झुके हुए मध्यमार्गी हैं.
प्रसंगवश, याद आता है कि कभी भारतीय समाजवाद में आस्था रखने वाले यू. आर. अनन्तमूर्ति सरीखे बड़े लेखक ने बयान दिया था कि ‘फ़ासिस्ट हुकूमत क़ायम हुई, तो वह भारत में नहीं रहना चाहेंगे.‘ फ़ासीवादी सत्ता में आए और उन्होंने–इस कथन में निहित क्षोभ और हताशा की अवज्ञा करते हुए–पाकिस्तान चले जाने के लिए लेखक को परामर्श और चिट्ठियाँ भेजीं. तब अनन्तमूर्ति ने कहा :
‘भावावेश में मैं कुछ ज़्यादा कह गया था, क्योंकि सच तो यह है कि भारत के सिवा मैं कहीं नहीं जा सकता!’
उन्होंने यह भी कहा :
‘मैं एक मज़बूत नहीं, कोमल या उदार देश का हिमायती हूँ; क्योंकि जर्मनी और जापान की तरह ‘मज़बूत’ राष्ट्रों को अतीत में हमने टूटते देखा है.’ इसके अलावा, उन्होंने अधिनायकवाद का यह कहते हुए विरोध किया कि ‘एक दबंग आदमी कायरों की जमात पैदा करता है.’ {“a bully creates cowards.”}
बीते कुछ वर्षों के घटनाक्रम से साबित होता है कि अनन्तमूर्ति ने ग़लत कुछ भी नहीं कहा था. अगरचे यह सावधानी दरकार है कि फ़ासीवादियों की सुविधा के लिए मुहावरे के तौर पर या भावावेश में भी ऐसे बयान देने नहीं चाहिए. वे तो चाहते ही यही हैं कि जो लोग वास्तव में इस देश को प्यार करते हों, इसे छोड़कर चले जाएँ या किसी बहाने से उनकी नागरिकता छीन ली जाए; जिससे कि बेखटके देश को बेचा जा सके. बेचने के बाद यही लोग अपने देश में नहीं रहना चाहेंगे. भारत के हज़ारों अरबपति हर साल चुपके से विदेशी नागरिकता लेकर दूसरे देशों में बस जाते हैं. जैसे-जैसे पूँजी बढ़ती है, देश-प्रेम घटता है. फ़ासीवाद स्वयं पूँजीवाद की सेवा में अवतरित हुए राष्ट्रवाद का साम्प्रदायिक और नस्लवादी संस्करण है.
देश को बिकने से वही बचा सकते हैं, जिनके पास अपनी ही माटी में जीने-मरने और इससे प्यार करने का कोई विकल्प नहीं है. यही अवाम–जो भारत को कॉर्पोरेट घरानों का ग़ुलाम बनाए जाने की राह में रोड़ा है–फ़ासीवादियों की आँख में खटकता हुआ देश है. आज की तारीख़ में इसका नेतृत्व भारत के आदिवासी कर रहे हैं और उनका जो जज़्बा और गीत है, वही हमारा भी होना चाहिए. मधु मंसूरी, मेघनाथ का एक गीत है:
“हम गाँव छोड़ब नहीं, हम जंगल छोड़ब नहीं, माय माटी छोड़ब नहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं…/ देश छोड़ब नहीं, शहर छोड़ब नहीं, माय माटी छोड़ब नहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं….”
मैं जानता हूँ कि प्रियंवद किसी क्षोभ या हताशा में ऐसी विरक्ति का इज़हार करते हैं, क्योंकि अपने शहर और देश से उन्हें बेइन्तिहा मुहब्बत है. वर्ष 1997 से 1999 के वक्फ़े में जब सुप्रसिद्ध कवि वीरेन डंगवाल कानपुर में ‘अमर उजाला’ के स्थानीय सम्पादक के रूप में रहे, तो एक बार शायद अपने घर पर शहर की आलोचना में उन्होंने कोई तीखी बात कही थी. मैं गवाह हूँ कि प्रियंवद से वह बर्दाश्त नहीं हुआ और उनका विरोध करते हुए कानपुर की विशेषताओं की सराहना में उन्होंने बहुत कुछ कहा. बाद में जब एक अवसर पर ‘राष्ट्रीय पुस्तक मेले’ का उद्-घाटन करने डॉ. नामवर सिंह कानपुर आए, तो वह अपने व्याख्यान में बोले : “कानपुर को जानना-समझना हो, यहाँ की गलियों, रहस्यों और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन को; तो प्रियंवद का उपन्यास ‘परछाईं नाच’ पढ़ना चाहिए.”
यहाँ ग़ौरतलब है कि प्रियंवद अगर किसी बात पर किसी से नाराज़ होंगे, विरोध और आलोचना करेंगे; तो भी उसके अवदान की अहमियत को पहचानने, उसका अभिनन्दन करने में कभी चूकेंगे नहीं. गिने-चुने लोग यह बात जानते होंगे कि वर्ष 2004 में जिस ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ शीर्षक कविता-संग्रह के उपलक्ष्य में वीरेन डंगवाल को साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई; उसे पुरस्कार के लिए विचारणीय पुस्तकों की आधार-सूची में शामिल करने, प्राथमिक चरण में उसकी संस्तुति करने वाले एक लेखक प्रियंवद भी थे.
प्रियंवद से मुझे यह भी सीखने को मिला कि अपने शहर से मुहब्बत करने का मतलब उसमें महदूद हो जाना या बँधकर रह जाना नहीं है. कानपुर में रहने के आरम्भिक वर्षों में एक मुलाक़ात के दौरान उन्होंने मुझे आगाह किया था:
“अपने काम का ध्यान रखना और ‘यहाँ’ के साहित्यकारों में लिप्त मत होना!”
बेशक, यह साहित्य-रचना के मेयार ऊँचे रखने की हिदायत थी. मैं कितना अमल कर पाया, नहीं मालूम; मगर यह पता है कि आत्म-मुग्धता, अविवेकी भावुकता और ‘परस्परं प्रशंसयन्ति’ की संस्कृति से प्रियंवद को अरुचि है. इसीलिए कानपुर सरीखे प्रायः उद्योग-प्रधान एवं व्यावसायिक महानगर की रिहाइश–जो न देश या प्रदेश की राजधानी है, न साहित्य की–के बावजूद वह लेखक के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा अर्जित कर पाए. उनके आधुनिक, वस्तुपरक एवं उदार नज़रिए और बहस-मुबाहिसे के प्रति गर्मजोशी से मुझे साहस मिला कि कभी-कभी उनकी आलोचना में उनके सम्मुख कुछ कहा, मगर मैंने हमेशा देखा कि मेरे प्रति उनके स्नेह और सौजन्य में कोई कमी नहीं आई. एक क्षण के लिए उनकी और ख़ासियतों को नज़र अन्दाज़ भी कर दिया जाए, तो यह विशेषता ही एक बड़े रचनाकार व्यक्तित्व की निशानी है.
दो) |
प्रियंवद की बेहद संयमित, विशिष्ट दिनचर्या, एकाकी, मगर समृद्ध जीवन, शानदार मेहमाननवाज़ी, व्यापक अध्ययन, बहुमुखी साहित्यिक सक्रियता- कितने ही गुण हैं, मुझ-सा कोई जिनकी कामना कर सकता है; पर उन जैसा होने के लिए उसे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा. दूसरे, उनका कार्य-क्षेत्र अधिकांशतः कथा-साहित्य है, जिसमें मेरी गति-मति बेहद सीमित है. इसके बावजूद ऐसा क्या है, जो मुझे उनकी ओर खींचता है? जब इस प्रश्न पर विचार करता हूँ, तो तीन चीज़ें नज़र आती हैं, जो मुझे उसी ‘देश’ का नागरिक बनाती हैं, जिसके कि प्रियंवद हैं : कविता, प्रेम और दुख. ‘हिन्दवी’ की ‘संगत’ शृंखला के अन्तर्गत अंजुम शर्मा को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया है कि कहानियाँ लिखने से पहले वह कवि थे और शुरुआती वर्षों में हरिवंशराय ‘बच्चन’ से प्रभावित होकर गीत लिखा करते थे. उनके एक गीत का चरण है :
“सुमुखि, तुम्हारे नयन लजीले
अधरों पर अंकित मृदु हास.
क्षण भर को फिर जी उठते हैं
ईश्वर और पूजन विश्वास..”
फिर उन्हें लगा कि शब्द, लालित्य और छन्द वग़ैरह की सीमाओं में बहुत ज़्यादा बँधकर लिखना पड़ेगा; तो उन्होंने कविता का मैदान छोड़ दिया. प्रियंवद यह भी कहते हैं कि बाद के वर्षों में फ़ैक्टरी का काम देखने के कारण जीवन और समाज की सचाइयों को बहुत क़रीब से देखा, तो कविता के बजाय गद्य में उनकी अभिव्यक्ति उन्हें ज़्यादा सहज और स्वाभाविक जान पड़ी. उनके मुताबिक़:
“हिन्दी कविता अगर समाज से कटी है, दूर है, तो इसका कारण यह है कि उसने गीत को अपने से दूर किया होगा.”
सच तो यह है कि समकालीन कविता गीत से विमुख नहीं हुई, बल्कि उसने सर्वथा अभिनव एवं कल्पनाशील ढंग से गीत को तोड़ और बदलकर अपने विन्यास में शामिल किया है. निराला और मुक्तिबोध ऐसे प्रयोग करने में अग्रगण्य हैं. प्रियंवद चाहते, तो इसी दुनिया में आगे बढ़ सकते थे, मगर उन्हें दूसरी ही पगडंडी रास आई और यह रास्ता नाकाफ़ी मालूम हुआ:
“छन्दमुक्त कविताएँ भी लिखीं, लेकिन मुझे लगा, मेरे लिए यह विधा कम पड़ रही है. मुझे बहुत कुछ कहना है. मैं इतिहास, समाज, राजनीति में गया बाद में. वह मैं नहीं कर सकता था, नहीं कर पाता. मैंने उसकी सीमा पहचान ली थी.”
इतिहास, समाज और राजनीति से जुड़े कथेतर गद्य के लिए तो यह तर्क सही है; मगर जीवन और समाज की सचाइयाँ छन्दमुक्त कविता की संरचना में उत्कृष्ट लहजे में व्यक्त नहीं की जा सकतीं, इसे मानना विगत शताब्दी की श्रेष्ठतम कविता के इतिहास को नकारने के बराबर है. मिर्ज़ा ग़ालिब ने जब ग़ज़ल के संदर्भ में रदीफ़-क़ाफ़िया वग़ैरह की बंदिशों पर अफ़सोस जताया और अपने विशद या वृहत्तर बयान के लिए शिल्प से स्वतंत्रता की कामना की; तो भी वह आधुनिक शाइरी नहीं, बल्कि ग़ज़ल की सीमाओं का ज़िक्र कर रहे थे :
“बक़द्र-ए-शौक़ नहीं ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयाँ के लिए”
प्रियंवद अगर यह कहें, तो ज़रूर न्यायसंगत है कि शुरुआती रचनात्मक दौर के बीतने के साथ ही उन्हें कविता के बजाय कथा-साहित्य अपने स्वभाव के अनुकूल लगा, इसलिए उन्होंने उसे अपनाया. मगर ख़ास बात यह है कि तब तक अपनी रचनात्मक ज़मीन और मिज़ाज उन्होंने पा लिया था और उसे बदल नहीं पाए. जैसा कि निराला के एक मशहूर गीत का मुखड़ा है:
“गीत गाने दो मुझे तो
वेदना को रोकने को”;
प्रियंवद को भी यह एहसास साहित्य-संसार की दहलीज़ पर ही हो गया था:
“गीत आप लिखेंगे ही तब, जब उदास होंगे. ख़ुश होकर गीत बहुत कम लिखे जाते हैं.”
बाद में उन्होंने जब कहानी लिखना शुरू किया, तो यही अफ़सुर्दगी उनकी हमसफ़र बन गई थी:
“कहानी लिखने के लिए एक गहरी उदासी में उतरना पड़ता है.”
दुख की इस निरन्तरता की वजह पहचानते हुए प्रियंवद एक अहम स्थापना करते हैं:
“लेखक की ‘एनॉटमी’ का यह हिस्सा है…यह यातना, यह उदासी, यह अकेलापन. यह है. जब मैं रचना में उतरता हूँ, तो यह मेरे लिए बहुत अनिवार्य होता है.”
यानी, विधा कोई भी हो, वेदना सृजन के लिए अपरिहार्य है. कहानी की दुनिया में आकर भी कविता से प्रियंवद की आत्मीयता कम नहीं हुई. सबूत है, अपनी पहली कहानी की बाबत उनका बयान, जिसके सिलसिले में उन्होंने यह भी लक्ष्य किया है कि वेदना का क्षरण होगा, तो रचना की शक्ति भी छीज जाएगी:
“कहानी भी मेरी जो पहली थी, वह गीत ही है. गीत ख़त्म होता है और हम गद्य में उतरते हैं, लेकिन बीच में कोई बहुत बड़ा ‘गैप’ नहीं होता. वह पूरी कहानी ही उदासी की है, उसके बाद की भी है, तो शायद वह मेरा हिस्सा हो और आज भी है. मैं बहुत ‘कम्फ़र्टेबल’ महसूस करता हूँ, जब इस तरह होता हूँ; बल्कि मैं आपको बताऊँ…दो-चार बार मैंने सोचा कि मैं उदास कम होता हूँ अब, तो मुझे लगता है, मैं अच्छा लिख नहीं पा रहा हूँ. मेरी कहानी में वह ताक़त कम हो गई है.”
कोई रचनाकार इस तरह का आत्म-निर्मम अवलोकन करे, तो दुर्लभ बात है. उसकी ईमानदारी और संजीदगी का साक्ष्य. बेशक, सृजन के लिए वेदना अनिवार्य शर्त है, मगर उसके स्रोत पर जब तक ग़ौर नहीं किया जाएगा; यह विश्लेषण अधूरा है. शुक्र है कि प्रियंवद अपनी पीड़ा के घटने के कारण की निशानदेही करते हैं और प्रेम की पसंदीदा ‘थीम’ पर कहानी न लिख पाने को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं:
“…कुछ लोग कहते हैं कि मैं प्रेम कहानी का ही लेखक हूँ. उसमें तो उदासी के बग़ैर मैं नहीं लिख पाता. यह निश्चित है, लेकिन अब इधर मैं नहीं लिख रहा हूँ प्रेम कहानियाँ…उसमें जो प्रेम, उदासी, रूमानियत होती है, इधर मेरी कहानियों में बहुत कम है….वह उदासी इसलिए कम हो गई कि मैं प्रेम कहानी नहीं लिखता हूँ. मेरा मन करता है कभी लिखने का, लेकिन मैं नहीं लिख पाता हूँ.”
आख़िरी पंक्ति से तो सूरदास के कृष्ण की याद आती है, जब वह ब्रज से मथुरा आ गए और गोपियों के प्रेम से हमेशा के लिए बिछुड़ गए थे:
“ऊधौ, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं….
यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं.
जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं..”
कृष्ण कह रहे हैं: ‘हालाँकि मथुरा स्वर्ण-नगरी है, जहाँ धन-धान्य, मणियों और मोतियों की मुझे कोई कमी नहीं; मगर जब ब्रज के सुख की याद आती है, तो मन में उमंग उठती है, पर तन साथ नहीं देता.’ कैसा साम्य है कि प्रियंवद का भी ‘मन करता है कभी लिखने का, लेकिन लिख नहीं पाते हैं!’ क्या यह महज़ लिखने का संकट है या बुनियादी तौर पर प्रेम की विडम्बना? प्रसंगवश, वर्ष 2020 के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमेरिकी कवयित्री लुइस ग्लुक की कविता-पंक्तियाँ हैं:
“अत्यधिक प्रेम हमेशा
शोक की ओर ले जाता है.”
इन शब्दों के मद्देनज़र प्रेम की सघनता कम होगी, तो उससे वाबस्ता विषाद भी कम होगा. वेदना संसक्ति या लगाव से स्वायत्त कोई स्थिति नहीं है. प्रियंवद के प्रिय कवि निराला–जिन्हें वह हिन्दी का सबसे बड़ा गीतकार भी मानते हैं–के एक गीत की यह टेक और अन्तरा याद आता है :
“स्नेह-निर्झर बह गया है.
रेत ज्यों तन रह गया है….
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को, निरुपमा.
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मैं अलक्षित हूँ, यही
कवि कह गया है.”
मुमकिन है, इन दिनों ऐसी ही किसी मनःस्थिति से प्रियंवद जी रूबरू हों. मैं उनके निजी जीवन के बारे में नहीं जानता, न उसमें ताक-झाँक की हरगिज़ कोई तमन्ना है; मगर उसमें प्रेम की सान्द्रता की कामना ज़रूर करता हूँ और उसकी वेदना और कशिश की बदौलत अविराम उनके रचनात्मक उत्कर्ष की भी. लिहाज़ा फ़िराक़ गोरखपुरी का यह शे’र दुआ के तौर पर उनके हुज़ूर में पेशे-ख़िदमत है, जिसमें वह कह रहे हैं: ‘मेरे दिमाग़ में अब जुनून की स्थिति भी नहीं है और दिल में महबूब की ख़्वाहिश भी नहीं. मुहब्बत से मैंने किनारा कर लिया है, मगर इश्क़ कब पलटकर आ जाए, इसका कोई ठिकाना भी नहीं’:
“सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं.”
‘निकट’ पत्रिका (संपादक: कृष्ण बिहारी) के शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे अंक में भी इसे पढ़ा जा सकता है.
पंकज चतुर्वेदी प्रकाशित कृतियाँ : ‘एक संपूर्णता के लिए’ (1998), ‘एक ही चेहरा’ (2006), ‘रक्तचाप और अन्य कविताएँ’ (2015), ‘आकाश में अर्द्धचन्द्र’ (2022) (कविता-संग्रह); ‘आत्मकथा की संस्कृति’ (2003), ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ (2013), ‘रघुवीर सहाय’ (2014, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली के लिए विनिबन्ध), ‘जीने का उदात्त आशय’ (2015) (आलोचना); ‘यही तुम थे’ (2016, वीरेन डंगवाल पर एकाग्र आलोचनात्मक संस्मरण); ‘प्रतिनिधि कविताएँ: मंगलेश डबराल’ (2017, सम्पादन), ‘प्रतिनिधि कविताएँ: वीरेन डंगवाल’ (2022, सम्पादन). इसके अतिरिक्त भर्तृहरि के इक्यावन श्लोकों की हिन्दी अनुरचनाएँ प्रकाशित. पुरस्कार: कविता के लिए वर्ष 1994 के भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और आलोचना के लिए 2003 के देवीशंकर अवस्थी सम्मान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान के रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित. 2019 में इन्हें रज़ा फ़ेलोशिप प्रदान की गयी है. प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, वी.एस.एस.डी. कॉलेज, कानपुर (उ.प्र.). |
20 वर्ष पूर्व के संगमन के पीथौरागढ़ शिविर का स्मरण हो आया। 30 से भी अधिक लेखकों का, जिसमें काशीनाथ सिंह, गिरिराज किशोर जैसे वरिष्ठ, जया जादवानी, ऋषिकेश सुलभ और मेरे जैसे-जैसे उनके उनके समकालीन लेखकों के अलावा अनेक युवा लेखक शरीक थे और प्रियंवद की उपस्थिति एक चौकन्ने अभिभावक की तरह मौजूद थी। ठहरने की व्यवस्था से लेकर खाने-पीने तक और प्रत्येक सत्र के संचालन से लेकर पीथौरागढ़ के दर्शनीय स्थलों के भ्रमण तक। सभी कुछ जैसे उन्होंने स्वयं अपने कंधों पर उठा रखा था। ऐसी क्षमता मैंने सिर्फ़ ज्ञानरंजन में देखी है।
मैं प्रियम्वद जी को वैसे ही देखना जानना चाहता हूँ जैसे उनकी कहानियों के चरित्रों, मोहल्ले की गलियों, संवाद व्यंजना और दृश्यों को देखने जीने लगता हूँ।
लेकिन यह कैसे होगा कौन कर पाएगा। मुझे प्रगाढ़ और रागात्मक एहसास के साथ लगता है कि प्रियंवद जी को जानना अधूरा ही रहेगा। उनकी सृजन-व्यक्तित्व की व्याप्ति को समेट पाना किसी महा कथाकार के लिए ही संभव हो सकता है।
मुझे इस संबंध में शिवमूर्ति जी की ही याद आती है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के फ़ादर कामिल बुल्के और नामवर सिंह पर काशीनाथ सिंह के संस्मरण की याद आती है।
पंकज चतुर्वेदी जी के इस संस्मरण की शुरुआत ने बड़ी आशा जगाई। दो पेज तक लगा हम किसी औपन्यासिक स्मरण में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन धीरे धीरे इसमें व्याख्या, आलोचना, उद्धरण, मूल्यांकन और कृतज्ञ स्व-वक्तव्य ऐसे आते गए कि लगा अब हम संस्मरण पाठक से अधिक विद्यार्थी हैं जिसे प्रियम्वद को अपने साहित्यिक भविष्य को ध्यान में रखते ध्यान से पढ़ लेना चाहिए।
फिर भी, यह संस्मरण श्रेष्ठ है और इसकी सीमा मुझे वही समझ में आई कि पंकज जी कथा साहित्य में उतने रमे नहीं हैं।
याद आ जाने के कारण मैं प्रियंवद जी को याद कर रहा हूँ, वे भोपाल में हैं। वनमाली सृजनपीठ से सम्मानित होने के बाद उनसे एक बातचीत चल रही है। सवाल पूछने वालों में कहानीकार राकेश मिश्र की याद है। उसी दिन भारत की अदालत का वो फ़ैसला आया है जिसमें मंदिर जीत गया और मस्जिद तो पहले ही ढहाई जा चुकी है। उत्सुकतावश मैंने प्रियम्वद जी से पूछा, इस फ़ैसले को राममंदिर को एक इतिहासकार की तरह आप कैसे देखते हैं? फ़ैसला ऐतिहासिक है क्या राम भी ऐतिहासिक हैं जैसे कि बुद्ध? प्रियंवद जी लगभग कोई जवाब नहीं देते हैं। वहाँ से निकलकर मैं बाहर आता हूँ। उत्पल बैनर्जी जी के साथ मिलकर हम इस फ़ैसले और भावी दुर्दशा पर विचार करते हैं।
उसके बाद मैंने पाया कि प्रियंवद जी के लिए मैं अपरिचित-सा हो चुका हूँ। वो सामने बैठे हैं और मैं उनके सामने ऐसे बोल रहा हूँ जैसे प्रियंवद जी को छोड़कर सब मुझसे परिचित हैं।
प्रियंवद जी का क़द बड़ा है। लेखक के रूप में वो मुझे बहुत प्रिय हैं। उनके जैसी उदास एकांत रचने वाली स्मृतिशील भाषा अन्यत्र कहीं नहीं है। उनके जैसे स्वालंबन की दूसरी हिंदी लेखक मिसाल दुर्लभ है।
मैं सचमुच चाहता हूँ कि प्रियंवद जी पर कोई संस्मरण आये, जो संस्मरण हो। जिसमें उन्हें एक आलोचना में ही सही वैसे देखा गया हो जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी को नामवर सिंह ने देखा। संस्मरण में काशीनाथ जी के देखने की तुलना तो ख़ैर संभव नहीं।
इतना ही। कुछ छोटा मुँह बड़ी बात हो गयी हो तो क्षमा।
बहुत शानदार लिखा गया है,प्रियंवद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर।
बेहतरीन लिखा है पंकज जी ने।
प्रियम्वद जितने गहरे रचनाकार हैं उतनी ही गहरी उनकी शख्सियत रही है .यह कहना कि वे मानवीय जीवन के उतने ही शिल्पकार हैं जितने अपनी रचनाओं में उन्होंने जीवन की गहराइयों में जाकर मानवीय अस्मिता की तलाश भी की है. उनकी कहानियां हों या उपन्यास या कथेतर गद्य उसमें जीवन की गहरी व्याख्यायें हैं. वे जो भी जैसे भी हैं उनकी एकान्तिकता बैहद अनूठी है. बधाइयां…….
कथाकार और अकार पत्रिका के संपादक प्रियंवद जी को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण लेख है। पंकज चतुर्वेदी और समालोचन को बधाई।
इस आलेख को किसी नपी-तुली या पूर्व-निर्धारित श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यह थोड़ा-थोड़ा अवलोकन, आकलन और संस्मरण होते हुए भी आख़िर तक आते-आते प्रत्याशित से अलग हो जाता है। शायद विधा की इस हुक्म-उदूली के कारण यह और पठनीय व पारदर्शी हो गया है।
मैंने प्रियंवद की बहुत कम कहानियां पढ़ी हैं। उनके शीर्षक भी ठीक से नहीं लिख सकता, लेकिन एक चीज़ जो उन्हें पढ़ने के बाद साथ रह गयी, वह शायद कुछ पूरा न हो पाने की उदासी और अधूरे के अवसान के इर्द-गिर्द बचे रह गए एकांत से वास्ता रखती है।
ख़ैर, मैं प्रियंवद के रचनाकार की तुलना में उनके कथेतर लेखन से ज़्यादा परिचित रहा हूं। इस लेख में 1857 से 1947 तक के उस कालखंड का ज़िक्र आया है जो एक तरह से प्रियंवद के सांस्कृतिक-ऐतिहासिक गद्य की आधारभूमि रही है। समकालीन विपर्यय को समझने के लिए प्रियंवद अक्सर इस कालखंड की लौटते हैं। मुझे इस संदर्भ में उनका एक लेख— ‘विभाजन पर लिखे चार उपन्यासों के बहाने कुछ बातें’ याद आ रहा है। मैं बेखटके कह सकता हूं कि हिंदी में सामुदायिक हिंसा और विद्वेष का ऐसा ऐतिहासिक, नफ़ीस, व्यवस्थित और बहुपरती विश्लेषण लगभग न के बराबर है।
बहुत आनन्द आया पढ़ने में। मैं अकार से जुड़ा पहले, फिर प्रियम्वद जी से बात हुई, फिर चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन पर पहली मुलाकात। वहीं पर कुछ विषयों पर सहमति, असहमति आदि।
संगमन हुआ था मंडी में और फासीवाद आ चुका था। मन की बात का आरम्भ ही हुआ था तब।
उसके बाद कभी बात नहीं हुई।
पंकज चतुर्वेदी जी ने बेहतर और नये ढंग से, बायोग्रेफिक स्पर्श के साथ यह आत्मीय,
समृद्ध आलेख संभव किया।
प्रियंवद जी को जन्मदिन पर
बधाई। शुभकामनाएँ!
🌹☘️
दिन में इस लेख को देखा था ;अभी पढ़ा और ठीक से से पढ़ा।प्रियंवद के लेखन की रेंज बहुत विस्तीर्ण है; न केवल लेखन बल्कि ‘अकार’ के संपादक और ‘संगमन’ जैसे महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन के सूत्रधार के रूप में वे उल्लेखनीय हैं।यह आलेख ( संस्मरण / स्केच / व्यक्तिचित्र ) हमारे समय के एक बड़े साहित्यिक व्यक्तित्व की छवि तले दबा हुआ – सा लगा और उद्धरण प्रियता का शिकार भी।
बहुत अच्छा लेख। प्रियंवद जी के बारे में लिखते हुए आपने अपनी बात , चिंताएँ भी लिख दीं। बढ़िया संस्मरण।
अपने प्रिय ,कई मायनों में अभिव्यक्ति में बेबाक और मेहमाननवाजी में तो बेजोड़ अग्रज लेखक प्रियंवद की शख्सियत को पंकज जी ने यहां बेहद आत्मीय अंदाज में उकेरने की कोशिश की है। सच कहूं तो ऐसा प्रीतिकर आलेख पढ़कर दोनों के प्रति मेरे प्यार में इजाफा हुआ है। दोनों के बारे में इससे ज्यादा और अलग कुछ कहने की न यह जगह है न ज़रूरत। दोनों की लेखकीय भूमिका से पूरा नहीं तो थोड़ा – कुछ ही परिचित हूं। दोनों ही लेखन के क्षेत्र,विषय, व्यक्ति ,समय और जगह चुनने में सधे,सयाने और संतुलित रहे हैं। दोनों के पास अपनी भाषा और विषय को कलात्मक और सुरुचिपूर्ण बनाने की कला है। हमारे सयम में कानपुर की स्थानीय सृजनात्मक ऊर्जा का अपने हक़ में समझदारी से उपयोग करने,उसे संवारने और लेखकीय विरासत को समृद्ध करने में दोनों की अपेक्षित भूमिका का हमेशा हार्दिक स्वागत तो रहेगा ही। साथ ही यह उम्मीद भी कि राजनीति ही नहीं साहित्य के भी इस पतनशील दौर में दोनों ही मानवीय मूल्यों को समर्पित रहे हैं, रहेंगे भी।
समालोचन और निकट के संपादक भाई कृष्ण बिहारी को प्रियंवद विशेषांक के प्रकाशन की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं!
हमेशा की तरह सुन्दर,
पंकज जी के लेखन में एक सच्चाई और अनोखी सुन्दरता है जो हमेशा से प्रभावित करती है. आपके हर एक शब्द में जादू है जो आपके लेखन को पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
बहुत बधाई।
‘निकट’ का ताजा अंक प्रियंवद जी पर केन्द्रित है। कृष्णबिहारी जी ने बहुत मेहनत की है। मेरे पास जल्द पहुंचने वाला है लेकिन उसमें शामिल एक आलेख पढ़ने को मिल गया। पकज चतुर्वेदी ने लिखा है। अरुणदेव जी के ‘समालोचन’ में भी प्रकाशित होने के कारण यह मुझे ‘निकट’ के आने के पहले ही मिल गया।
प्रियंवद जी का स्नेह मुझे भी मिलता रहा है। शुरुआती दिनों में मैं उनसे बतियाने, उनके पास जाने से बहुत डरता था। उनकी एक ऐसी छवि मेरे मन में बनी थी कि वे बहुत असहमत और आक्रामक अंदाज में मिलते हैं। कम पढ़ा-लिखा होने की वजह से डर लगता था कि किसी बात पर अगर बहस हुई तो मैं ऐसे लेखक से कैसे बात कर पाऊंगा। वे बाहर से देखने पर भी किसी नंगी चट्टान की तरह नजर आते थे। लेकिन मेरे प्रिय देवेन्द्र जी के यहां जब उनके साथ बैठना हुआ, तब उनके भीतर के सहज, मुलायम और उदार मन को जानना संभव हो पाया। बाद में उनके कानपुर के आवास पर भी उनके साथ एक लम्बी बैठक हुई। प्रह्लाद अग्रवाल जी भी साथ थे। उनसे नजदीकी मेरी एक उपलब्धि की तरह है।
पंकज चतुर्वेदी ने बहुत विस्तार से उनके लेखन और व्यक्तित्व को खोलने की कोशिश की है। उनके जरिये मुझे प्रियंवद जी के बारे बहुत कुछ नया जानने को मिला। पंकज बहुत महीन अंदाज में बात करते हैं। अपने लेखन में और अपने जीवन में अलग दिखने की उनकी अपनी शैली है। वे कहते हैं कि प्रियंवद जी को प्रशंसा बिलकुल पसंद नहीं है, लेकिन कई बार पंकज जी अपनी बनायी इस सरहद को लांघते भी हैं। प्रियंवद का व्यक्तित्व ऐसा है कि उनके प्रति किंचित प्रशंसा का भाव भी उसकी विशाल छाया में छिप जाता है। यह कोई अनहोनी बात नहीं है, मेरे अंदर भी प्रियंवद जी के लिए प्रशंसा भाव रहता है पर कभी मैं व्यक्त नहीं कर पाता।
पंकज जी ने उनकी जीवन चर्या, उनके दृष्टिकोण से भी कई जगह असहमतियां जतायी हैं, अपने तर्क के पक्ष में नामचीन लोगों के उद्धरण भी दिये हैं लेकिन ऐसा करते हुए वे बड़ी सफाई से प्रियंवद जी के तर्कों का औचित्य भी ढूंढ लाते हैं। कुल मिलाकर यह आलेख पढ़ा जाना चाहिए। बेशक प्रियंवद जी को और जानने के लिए ‘निकट’ का उन पर केन्द्रित अंक भी पढ़ा जाना चाहिए। कृष्णबिहारी जी को इस श्रमसाध्य काम के लिए बहुत बधाई।
एक बेबाक लेखक पर बहुत बारीकी से लिखा गया आत्मीय संस्मरण है । इसके लिए पंकज जी और समालोचन को हार्दिक बधाई💐