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समालोचन

Home » टर्मिनल-1: राहुल श्रीवास्तव

टर्मिनल-1: राहुल श्रीवास्तव

राहुल श्रीवास्तव तिग्मांशु धूलिया की कई फिल्मों के संपादक रहे हैं, सैकड़ों की संख्या में विज्ञापन फिल्में (कमर्शियल) बना चुके हैं. पिछले दिनों उनके द्वारा निर्देशित लघु फिल्म ‘इतवार’ चर्चा में रही, इस फिल्म के लिए अभिनेता कुमुद मिश्रा को लघु फिल्मों की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिल चुका है. राहुल श्रीवास्तव की कहानियां कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं, उनकी नई कहानी ‘टर्मिनल-1’ ख़ास आपके लिए प्रस्तुत है. कहानी में एक पात्र रफ़्तार भी है जो न होते हुए भी हर जगह है, सबकुछ तेजी से पाने की दौड़ में कितना कुछ छूटता जा रहा है, मनुष्यता भी. कहानी आपको पसंद आएगी.

by arun dev
January 22, 2023
in कथा
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टर्मिनल-1: राहुल श्रीवास्तव
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टर्मिनल-1
राहुल श्रीवास्तव

अनुराग 120 की स्पीड पकड़ चुका था. मैं उसको दो बार बोल चुका था कि कोई जल्दी नहीं है क्योंकि मेरी फ्लाइट 6 घंटे बाद है. पर मुझे शक था कि उसे मेरी बात सुनाई दे भी रही थी या नहीं. कार में म्यूजिक बहुत तेज बज रहा था. मुझे खुद नींद के झोंके आ रहे थे पर मैं उसकी बातों को सुनने की पूरी ईमानदार कोशिश कर रहा था कि शायद वो कुछ बोलना चाह रहा हो और मैं सुन न पाऊँ. मैं बहुत तेज चिल्लाया- चुप रहो यार और कार आराम से चलाओ.

मैंने शायद ये सोचा भर था वरना वह जवाब देता. मैंने सुनिश्चित होने के लिए उसकी तरफ देखा. वह गाना गुनगुनाते हुए कार चला रहा था. मैंने हाथ बढ़ाकर कार का म्यूजिक सिस्टम बन्द करना चाहा फिर ये देखने के लिए रुक गया कि आखिर बज क्या रहा है. गाने के साथ अनुराग की आवाज़ मिलकर आ रही थी. मुझे उन दो आवाज़ों में अन्तर करके ये समझने में थोड़ा समय लगा कि कौन ज्यादा बेहूदा गा रहा था.

अनुराग- तुम साले बढ़िया कर रहे हो पर मेरा भी ठीक ही है, क्यों ?

मुझे उसकी हर बात का जवाब नहीं देना था क्योंकि पिछले 4 घंटे हम सारे दोस्त सिर्फ बातें ही करते रहे थे. इस के आगे अब और कुछ सुनने या बताने को बचा नहीं था पर अनुराग कुछ बात करने का बहाना ढूँढ़ रहा था और इसी प्रयास में उसने एक ही लाइन को कई अलग-अलग तरीके से बोलकर मेरी प्रतिक्रिया देखनी चाही पर मैं समान भाव से मुसकुराता रहा. मैं यही दिखाने की कोशिश कर रहा था कि मैं बहुत थका हुआ हूँ और वो अगर चाहे तो बिना बात किए भी कार चला सकता है.

अनुराग- कहाँ रहते हो बैंगलोर में ?

-वाइट्फ़ील्ड में

अनुराग- फ्लैट लिया है कि पूरा बँगला ?

फ्लैट तो ऑफिस के पास लिया है और बँगला क्या एक रो हाउस जैसा है, जो खरीद के रख दिया है पर वह शहर से थोड़ा दूर है.

अनुराग- मतलब कोठी खड़ी कर ली ?

-तुम बँगला-कोठी बोलो या महल, जो भी है, प्लॉट लेकर बनवाया है, पर शहर से काफी दूर है सरजापुर रोड.

अनुराग- वहाँ जोमाटो की डिलीवरी होती है ?

मुझे गाने पसन्द हैं पर जिस तरह के गानों से अनुराग की प्ले लिस्ट भरी हुई थी उससे चिढ़ थी. साँस खींच-खींच कर गाने को गाना, बोल भी ठीक से न बोल पाना और हिन्दी गानों के बोल बोलते वक्त इस प्रकार से शब्दों का उच्चारण करना जैसे श्रोता को एहसास दिला रहे हों कि गाना बनाने वालों ने ग़लती से हिन्दी में बना दिया वरना अंग्रेजी में ये बेहतर सुनाई देता. कवर के नाम पर गानों का चीरहरण चल रहा है. जो बात असली गानों में होती है वह उसकी कॉपी में कभी नहीं आ सकती. आज के सिंगर क्या गा पाएंगे. आप आजकल किसी से भी पूछ लीजिए- कैसी लगी फिल्म या कैसा लगा गाना, जवाब मिलेगा, ‘वन टाइम सी है’. मतलब अच्छा है कि बुरा, नहीं पता! क्योंकि बता पाने की हिम्मत ही नहीं है और जो सोशल मीडिया कह देगा उससे अलग राय रखने की तो बुद्धि भी नहीं है. खुद की भी समझ होती है, सही या गलत की, पर ये रिस्क किसको लेना है. अगर सब कह रहे हैं बढ़िया है तो वही कह दो ठीक रहेगा. बिना रीढ़ की ये पीढ़ी है, इस पीढ़ी का क्या बोलूँ, लगभग सभी का हाल यही है, अपना दिमाग, अपना विवेक छोड़ दिया है मछली बाजार जैसे न्यूज चैनलों पर.

-जोमाटो? मतलब ?

अनुराग- अबे हम जहाँ रहते हैं वहाँ जोमाटो वाले डिलीवरी करने से मना कर देते हैं.

– क्यों? दिल्ली में ही रहते हो न ?

अनुराग- सैनिक फार्म.

– सैनिक फार्म, दूर है शहर से? मतलब आइ हैव नो आइडिया….

अनुराग- नहीं  ‘झोपड़ी’ के, बहुत पॉश इलाका है पर मेरा घर वहाँ से 300 मीटर अन्दर देवली लगता है, वहाँ रहता हूँ.

(सुजॉय और अनुराग की हर बात में दो से तीन गालियाँ जरूर होती हैं इसलिए मैंने पहले से ही उन शब्दों की आवृत्ति को ध्यान में रखते हुए ‘झोपड़ीवाले’ को चुन लिया था वरना पढ़नी मुश्किल हो जाती यह कहानी)

– स्ट्रेंज

अनुराग ने खिड़की खोलकर सिगरेट जला ली. उसके एक हाथ से सिगरेट जलाने के करतब में मेरी घिग्घी  बँध गई थी.

– मैं ड्राइव करूँ?

अनुराग- चुप बैठो बे. दिल्ली में हो, और दिल्ली है हम दिलवालों की. भाई आया है बैंगलोर से, खुद छोड़ कर आऊँगा और बोलो तो घर तक ले लूँ, वाइट्फ़ील्ड तक, कल ही टैंक फुल करवाया था.

– गूगल मैप लगा दूँ टी-1 का?

अनुराग- कोई भी मैप लगाओ, प्लेन के अन्दर तक छोड़कर आऊँगा, दिल्ली में टी-1, टी-2, टी-3 सब एक ही हैं, कहीं भी छोड़ दूँगा बे.

अनुराग फिर बहुत कुछ बोलने लगा. मुझे पता था कि वह आज नॉर्मल नहीं था. जब से मिला है अजीब-सी हरकतें कर रहा है. हम लोग पिछले एक साल से सोशल मीडिया के चलते एक दूसरे के सम्पर्क में आए थे. ये कमाल किया था फैजल ने. हम सबको जोड़ा, फिर सबसे नम्बर लिए और फिर सबको व्हाटसऐप ग्रुप बनाकर जोड़ दिया. ग्रुप में उसने पहले ही दिन लिख दिया था कि हिन्दू-मुस्लिम, मोदी-पप्पू नहीं होगा, लेकिन उम्र का सम्बन्ध समझदारी से कभी नहीं रहा. यह पेट में अपेंडिक्स की तरह होती है और जैसे किसी भी उम्र में अपेंडिक्स का दर्द उठता है वैसे ही समझदारी भी किसी भी उम्र में जाग सकती है. ये भी गौरतलब है कि कुछ लोगों को जीवन भर अपेंडिक्स का दर्द नहीं उठता. बस व्हाटसऐप ग्रुप क्या बना, आज़ादी का त्योहार शुरू हो गया जो कि 2014 में ही मिली थी. उस ग्रुप में पता चला कि लगभग 95% लोगों को अभी तक अपेंडिक्स का दर्द नहीं उठा था. फिर एक-एक करके लोग याद आना शुरू हुए, जिनके चेहरे अब धुँधले ही सही पर दिमाग में थे.

अनुराग बहुत तेज था पढ़ने में, आईआईटी की तैयारी करता रहता था, ब्रिल्यंट ट्युटोरियल के नोट छुपा-छुपाकर पढ़ता था, क्लास में फिजिक्स, केमिस्ट्री और गणित के हर सवाल पर जवाब का हाथ खड़ा कर देता. मेरे घर में माँ-बाप समझाते कि क्लास के सबसे तेज लड़के से दोस्ती करो पर वह साला पास फटकने न दे. मुझे उस समय अपनी बुद्धि पर बहुत तरस आता था और बहुत कोशिशों के बाद, उसकी नकल करने की कोशिश के बाद भी कभी उसकी तरह नहीं पढ़ पाया.

न्यूटन के तीन लॉ थे, पर तीनों को क्लास में समझाकर जब अनुराग ठुड्डी को सीने से सटाकर कुछ सोचने लगता तो मुझे यकीन हो जाता कि इसको न्यूटन का चौथा लॉ भी पता है पर बताना नहीं चाहता कि कहीं किसी और का आईआईटी में न हो जाए. वह जब अपने गले को सीने से चिपकाकर बोलता तो लगता कि टोड टर्राने की जगह इनसानी आवाज़ में बोल रहा है. जरूरत हो न हो वह हर वाक्य के बाद हाथ में पकड़ी पेन या पेंसिल इस तरह ऊपर नीचे करता जैसे वह किसी तरल पदार्थ की श्यानता को तोड़ते हुए धीरे-धीरे उसकी तली तक जा रहा है. फिर अचानक से उसका सोचना रुक जाता और वह बैठ जाता और मैं तब तक मुँह बाए उसके बोलने का इन्तजार करता रह जाता.

ऐसा नहीं है कि मैंने कोशिश नहीं की थी उससे दोस्ती करने कि पर अनुराग ने तो साथ में टिफिन खाने से भी मना कर दिया था. उस दिन के बाद से इतने करीब से अनुराग से आज जाकर मिला था. अनुराग की आवाज़ आज भी वैसी ही थी, बस समय और सिगरेट के साथ भारी हो गई थी.

अनुराग- मैं भी डिलीवरी वालों को उल्लू बनाता हूँ, सैनिक फार्म का पता दे देता हूँ. एक बँगला है जो खाली पड़ा रहता है, जब डिलीवरी वाला फोन करता है वहाँ पहुँचकर तो बोलता हूँ- रुक वहीं! मैं सब्जी लेने बाहर निकला हूँ, बस जाकर खाना ले लेता हूँ उससे, और सीधे घर.

इस बकवास का क्या मतलब था, मैंने 5 बीयर पी थी और लगा था सँभाल लूँगा पर सिर दर्द से फट रहा था, दिन भर काम की थकान और उस पर 28 साल के बाद मिलने का दबाव, सब यही दिखाना चाहते हैं कि जवानी उतरी नहीं है और कौन कितनी दारू पीकर भी खड़ा रहता है. अगर 94 में 6 जोड़ें तो 2000 हुआ और अभी चल रहा है 2022, मतलब 28 साल हो गए थे. अच्छा हुआ व्हिस्की या रम नहीं पी थी वरना अब तक उलटी कर रहा होता. मुझे कोई अफसोस नहीं होता अगर मैं अनुराग की कार में उल्टी कर देता. शायद इसी बहाने वह कार रोक कर मुझे बाहर निकाल देता और मैं ऊबर-ओला करके एयरपोर्ट चला जाता. वैसे भी इस छोटी-सी कार में बैठने में तकलीफ ज्यादा थी.

अनुराग- मुझे, मेरी बीवी और बच्चों को पिज्जा बहुत पसन्द है. हम लोग एक साथ ३ हजार का पिज्जा मँगाते हैं और उसके बाद एक-एक बोतल कोक बस. पहले तो हफ्ते में एक बार मँगाते थे पर अब बेटियाँ बड़ी हो गई हैं तो 15 दिन में एक बार, तुमको कहाँ का पिज्जा पसन्द है? मैंने सोचा कि अगर नहीं बोलूँगा तो ये कोई नई बात ले बैठेगा इस से बढ़िया था कि ऐसे सवालों का जवाब देता चलूँ.

– इंडिगो डेली या फिर स्मोक डेली… उनका थिन क्रस्ट पसन्द है.

अनुराग- हम लोगों को डोमिनोज बहुत पसन्द है. क्या पिज्जा बनाते हैं साले, मैंने बहुत जगह खाया, और कोई इतना बढ़िया बना ही नहीं सकता. बाकी सब साले बस दिखावे का पैसा लेते हैं. तुम खाए हो कभी डोमिनोज?

मैं नहीं चाहता था कि इंडिगो डेली का नाम लूँ पर जैसे अन्दर से कोई बुलवा रहा हो, कोई दबा गुस्सा था या अनुराग को नीचा दिखाना था, क्योंकि उसके चलते पूरे क्लास में कभी सिर उठाकर नहीं जी पाया, पर क्या फायदा होगा अब? कुछ नहीं होगा पर मेरे बस में नहीं था यह सब, उस पर वह क्या बोले जा रहा था, उसे दिखाना क्या था, मैंने तो कुछ भी नहीं बताया कि मैं कहाँ खाता हूँ, क्या खाता हूँ. शाम को भी ऐसा ही लगा था.

28 साल बाद सिर्फ एक दो चेहरे याद थे पर कोई यह दिखाना नहीं चाह रहा था कि वे एक दूसरे को पहचान नहीं पाए थे. मैं बैंगलोर से सिर्फ दो दिन के लिए दिल्ली आया था और काम खत्म करते ही प्लानिंग हो गई. विकास ने पहुँचने में सबसे देर की थी और तब तक बाकी ने दबी आवाज़ में बता दिया था कि यह विकास की तीसरी शादी थी और किसी को नहीं पता था कि पहली दोनों कहाँ हैं.

अब बात यहाँ तक हो गई कि अगर बाकी दोनों बीवियों को छोड़ दिया है तो पता तो चले कि वे कहाँ हैं? भाई ने छोड़ दिया है तो दोस्तों का ट्राई करना बनता है. सबको खूब हँसी आई पर विकास के आते ही अचानक से माहौल बदल गया. विकास अंग्रेजी माध्यम से ट्रांसफर होकर आया था हमारे स्कूल में. उससे पता चला था सेलिन डीयोन और अंग्रेजी गानों के बारे में, वह अक्सर वही गाने गुनगुनाता.

सबसे अद्भुत लगता था उसका अंग्रेजी में उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद की इंटर की परीक्षा देने की योजना. विश्वास ही नहीं होता था कि जिसे हम लोग गुप्त ऊष्मा समझते थे वो लेटेंट हीट थी. उस समय अंग्रेजी को लेकर एक भय था. मतलब अगर कोई यदि अचानक, जैसे साइकिल चलाते वक्त या क्रिकेट खेलते वक्त पूछ ले कि “मैं जाता हूँ” का अंग्रेजी में अनुवाद करो तो ‘आइ ऐम गोइंग’ और ‘आइ विल गो’ निकल आता पर यदि कोई शान्त अवस्था में पूछता तो निश्चित था कि ‘आइ कैन गो’ निकलेगा दरअसल ‘आइ गो’ का खयाल दिमाग में आ ही नहीं सकता था. कारण-कर्ता और कर्म के बीच किसी क्रिया का न होना सन्देहास्पद था. वैसे आज की शाम का पूरा कर्ता-धर्ता फैजल था. उसने सबको मिलाने का बहुत बड़ा काम किया था. आज शाम को भी उसी ने सबको अपने रेस्त्राँ में खाने पर बुलाया था जहाँ हम आपस में मिले.

हम लोगों की पहली खुसर-पुसर वहीं हुई- मुसलमान है न, घर नहीं बुलाएगा कि कहीं बीवी से कोई मिल न ले. फैजल की बीवी बहुत सुन्दर है पर किसी ने आज तक देखी नहीं, साला फेसबुक पर भी कोई फोटो नहीं डालता. मैं इस सारे मजाक का हिस्सा बन गया था क्योंकि दोस्त बहुत दिनों बाद मिले थे. विकास था भी वैसा ही, हर समय लड़कियों के पीछे रहता था और फैजल कभी किसी को घर नहीं बुलाता था. ईद में सेवईं स्कूल ले आता पर कभी कोई उसके घर नहीं गया. वैसे भी फैजल सिर्फ क्रिकेट खेलने स्कूल आता था, बैट-बॉल स्कूल में ही छुपाकर रखता था पर कहाँ और कैसे, उसका हुनर था. चौक में उसकी कपड़ों की बहुत बड़ी दुकान थी. वो क्लास के हर टीचर से ट्यूशन पढ़ता था मतलब कि हिन्दी और इतिहास के टीचर तक को पैसे देता था पर पढ़ने कभी नहीं जाता था. हिन्दी के टीचर पाठक साब तो फैजल को देखते ही द्रवित हो जाते थे. उनके जीवन का ये एक विस्मयकारी अनुभव था कि किसी ने हिन्दी के ट्यूशन के लिए उन्हें पैसे दिए थे.

पाठक सर पूरी क्लास के सामने फैजल की उपलब्धियाँ गिनाते हुए बताते कि फैजल जीवन्त उदाहरण है, इस बात का कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का विकास हो सकता है. मैंने और विश्वविजय ने एक दिन चिढ़कर ब्लैकबोर्ड पर फैजल की जीवनी लिख डाली, वो भी ठीक पाठक सर की क्लास शुरू होने से पहले. पाठक सर क्लास में आए, पूरी जीवनी पढ़ी और फिर क्लास से बिना पढ़ाए चले गए. हम दोनों ने जो लिखा था वह कुछ यूँ था –

“फैजल कुरैशी का जन्म इलाहाबाद के गरीब परिवार में हुआ था, उनके पिता रिज़वान कुरैशी संगीत प्रेमी थे और दिन भर रेडियो सुनते रहते थे, उनके पितामह वयोवृद्ध आरिफ कुरैशी न मांसाहार करते थे और न जीवन में कभी एक भी बकरा काट पाए अतः उन्होंने कपड़े काटकर बेचने का काम शुरू किया. फैजल के माता पिता का देहान्त अल्पायु में ही हो गया था और उन्होंने स्वाध्याय एवं अपने गुरु पाठक सर से क्रिकेट, फुटबाल, गेंद-तड़ी इत्यादि खेलों का गम्भीर अध्ययन किया. ऐसी मान्यता है कि उनका जन्म क्रिकेट के मैदान में हुआ था किन्तु इतिहासविदों का मानना है कि उनके असली पिता पाठक जी ही हैं. फैजल की पारियाँ मात्र इलाहाबाद में ही नहीं अपितु लखनऊ, कानपुर, मेरठ इत्यादि शहरों में भी जानी व मानी जाती हैं.“

चलती कार में चेहरे पर हल्की ठंडी हवा अच्छी लग रही थी, ठंड की शुरुआत हुई थी दिल्ली में और मन कर रहा था कि कुछ दिन रुककर दिल्ली के खाने के मजे ले लिए जाएँ पर कल सुबह ऑफिस भी सीधे एयरपोर्ट से ही जाना था.

अनुराग- क्या हुआ? क्या सोचकर हँस रहे हो?

– विश्वविजय याद आ गया और फैजल की जीवनी भी…

अनुराग ने कार अचानक से दाएँ मोड़ ली.

-ये क्या? तुमने लेफ्ट मिस कर दिया. अब देखो मैप पर 42 मिनट दिखाने लगा पहले 32 में पहुँच रहे थे.

अनुराग- अबे तुम बैठे रहो बस, बहुत साइंस मत बताओ, हमसे ज्यादा रास्ते जानते हो? ये गूगल गली में घुसेड़ देगा अभी, ज्यादा गूगल-पूगल मत किया करो. हम रास्ता याद रखते हैं.

मैं खिसियाकर चुप बैठ गया. अनुराग में हर बात पर धौंस जमाने की अजब जिद थी उससे कोई सीधी बात करना मुश्किल हो रहा था. रेस्त्राँ में बैठा था तो बिलकुल चुप रहा, सबने बात की पर अनुराग ने सिर्फ गर्दन हिलाकर वहाँ रहने की जरूरत पूरी की थी पर वो लगातार मुझे घूरे जा रहा था. पहले मुझे लगा पीकर आया है, फिर फैजल ने बोला कि ये उसकी हर शाम की कहानी है, अनुराग की बोतल शाम 7 बजे के बाद खुल जाती है. आज सब फैजल के रेस्त्राँ में ही मिले थे. फैजल ने ‘प्लांट बेस्ड मीट’ का रेस्त्राँ खोला था. फैजल मुस्लिम होकर नकली मीट की दुकान खोलेगा ! ठीक है कि नया ट्रेंड आया है इस मीट का, पर फैजल मुस्लिम है और तो वह मांस आराम से बेच ही सकता था, ऐसा कुछ खोलेगा अन्दाजा नहीं था. पर फैजल के अलावा ये कर भी कौन सकता था. बिजनेस उसके खून में था और वो धन्धा समझता था. मैंने और फैजल ने स्कूल में पढ़ाई कम और साथ क्रिकेट बहुत खेला था. मैंने फैजल से कभी प्रतियोगिता नहीं की, वह अपने खेल में अच्छा था.

-अच्छा! ये तो नई बात पता चली और वैसे भी तुमने कभी किसी को घर बुलाया कहाँ जो पता चलता. अच्छा हुआ तुम्हारे घर नहीं आया वरना लौकी खिला देते.

फैजल- सिर्फ लौकी नहीं यार, साथ में रोटी दाल चावल और उबला अंडा भी.

-तुम्हारा नाम फैजल शुक्ला होना चाहिए था. रेस्त्राँ का नाम भी बढ़िया रखा है.

फैजल दिल खोलकर हँसा था.

फैजल- वैसे ग्रुप में तो तुम्हारे नाम के आगे सिद्दीकी, अहमद सब लग चुका है, तुमको भी कम खुजली नहीं है, हर बात का जवाब देना है.

-फैजल, क्रिकेट क्यूँ छोड़ दिया यार?

फैजल- भाई, रणजी तक गया पर फिर आगे टीम में नहीं हुआ, एयर इंडिया में नौकरी मिल गई और साथ में ये धन्धा जमा लिया.

-अबे कोई विश्वास करेगा कि एक मुसलमान गोश्त नहीं बेच रहा?

फैजल- कुछ नया करना था यार और वैसे भी मेरे दादाजी के भाई हिन्दू हैं. मानोगे नहीं पर हमारे घर में तो अंडा अब जाकर बनना शुरू हुआ, वो भी मेरी शादी के बाद. शमा के यहाँ तो खतरनाक खाऊ हैं.

-तुमको डर लगता होगा मुसलमान होकर… पर हम जैसे लोग अगर चुप रहे तो… देश सबका है, मुसलमान नहीं सुधरेंगे, पाकिस्तान भेजो, ये क्या है?

फैजल- भाई… भाई… तुम्हारे जितना पढ़ा लिखा नहीं हूँ. तुम तो ये बताओ कि इसमें बिलकुल मीट वाला फील है कि नहीं?

-सच बोलूँ फैजल, मुझे लगा था कि बकवास होगा पर खाकर मुझे कोई अन्तर नहीं पता चला.

विकास- क्या बोल रहे हो बे? तुमको अन्तर नहीं पता चला? ये ठीक है पर मटन के टेस्ट के आगे यह नकली मीट?

-अगर ये चल गया तो बढ़िया है, जानवर नहीं मारेंगे. वैसे भी लोग नॉन-वेज छोड़ रहे हैं.

विकास- एक बात बताएँ, बस एक महीने के लिए देश में आलू भिंडी पालक का दाम 600 रुपए किलो कर दो और मटन-चिकन 80 रुपए किलो, फिर देखता हूँ कितने पंडित, कितने जैन और कितने वेजेटेरीयन.

-देखो यार, मैंने भी नान-वेज छोड़ दिया 8 महीने पहले. हो सकता है मेरा जजमेंट गलत हो पर ये चीज कमाल लगी. मीट वाला ही टेक्स्चर दाँतों में आता है.

फैजल- पैक कर दें? भाभी और बच्चों के लिए भी ले जाना.

-नहीं यार दस घंटे बाद है फ्लाइट और फिर तब तक ठंडा हो जाएगा, यहीं लाकर खिलाऊँगा अपने दोस्त की दुकान पर.

विकास- फैजल हमको तो कभी पैक नहीं करवाए.

फैजल- तुम बगल में हो यार, जब हो आ जाओ भाभी को लेकर, गरम-गरम खाकर जाओ.

विकास – मतलब अकेले आऊँगा तो नहीं खिलाओगे? तुम्हारी दुकान है इसलिए बुरा मत मानना पर चिकन और मटन की कोई काट नहीं है. मेरे घर पर तो नानवेज बनता भी नहीं इसलिए जब खाऊँगा तो असली वाला ही खाऊँगा. वैसे वेज बिरयानी का श्राप कम  था जो अब ये नकली वेज आ गया.

फैजल- बिना मुँह में डाले बुराई मत करो यार. नई चीज है, इसमें सोया, दालें, कटहल, गेहूँ मतलब बहुत सी हेल्दी चीजें हैं.

विकास- मेरी जान, बस हड्डी की कमी है.

विकास ने ऐसे मुँह बनाकर बोला कि हम सबकी हँसी निकल गई पर फैजल नहीं हँसा.

सुजॉय- दोस्त की दुकान खुली है, पेल कर खाओ. पैसा देना नहीं है, काहे लड़ रहे हो बे?

सुजॉय को पता चल जाता था कि कब और कहाँ लड़ाई शुरू हो सकती है, हम सबमें शायद सबसे समझदार वही था. मुझे भी आश्चर्य हुआ था जानकर कि उसने सब-इन्स्पेक्टर की नौकरी कर ली थी और बड़ा खुश था अपनी नौकरी में. मतलब उसके पास उम्र थी कि वो आईपीएस की तैयारी करता पर बहुत जल्दी सरेंडर कर दिया. मैंने पूछा तो बोला, खुशी है स्वीकार कर लेने में जीवन को, जो मिला है उसके लिए शुक्रगुजार हूँ, शायद मैं आईपीएस भी बन जाता पर उस समय घर में कुछ ऐसी जरूरतें थीं कि मेरा एक ढंग की नौकरी में होना बहुत जरूरी था. मैंने जब जानने की कोशिश की तो टाल गया- भाई, बहुत ही दुखभरी है कहानी, तू रो देगा.

यह बोलकर वह बहुत तेज हँसा. सुजॉय हमेशा से ऐसा ही मस्त था. स्कूल में उस से सब दोस्ती रखते थे, दुर्गा पूजा में बंगाली लड़कियों से मिलने का वही एक जरिया था पर सुजॉय बता देता था कि कौन हमारी भाभी है और कौन उसकी बहन, फिर छूट दे देता था हम लोगों को लड़कियों के पीछे जाने की. और वह पूरे क्लास का दोस्त था

सुजॉय- अबे ‘झोपड़ी’ के बहुत बड़ा आदमी हो गया है तू. साला सब तेरे से मिलने आ रहे हैं, मैं साला इधर माने कितने साल से पड़ा हूँ पर ‘झोपड़ी’ का कोई इकट्ठा नहीं हुआ. विश्वविजय नहीं दिख रहा ?

-बड़े आदमी तुम हो बे, पुलिसवाले हो, डर लगता है, लॉ एंड ऑर्डर का दिखाकर कहीं अन्दर न करवा दो, विश्वविजय ने तुमसे डर के ट्रांसफर ले लिया चंडीगढ़.

सुजॉय- भाई पुलिस में हैं, कोई छू नहीं सकता अपने दोस्तों को. चाहे चंडीगढ़ हो या बैंगलोर.

-भाई, बचपन से सुना है, पुलिसवालों की न दोस्ती भली न दुश्मनी, तुमसे दोस्ती तोड़ नहीं सकते और दुश्मनी लेगा कौन बे!

इस बात पर सभी हँसे थे पर अनुराग एक कोने में बैठा फ़ोन पर किसी से बातें कर रहा था.

-ये अनुराग इतना चुप क्यूँ बैठा है, याद है कैसे नोट्स छुपाकर पढ़ता था कि कहीं हम लोग न देख लें और क्या फ़ायदा हुआ बे, जिसका सिलेक्शन होना होता है हो जाता है.

अनुराग फोन पर था पर पता नहीं था कि वह हमारी बातें सुन रहा होगा, मुझे अन्दाजा नहीं था कि उसको यह बात इतनी चुभ जाएगी.

अनुराग- अपना कमाकर खाता हूँ, तुमसे माँगने नहीं आता. नहीं हुआ क्योंकि रेजर्वेशन था.

सुजॉय- कसम से, 28 साल बाद भी वही लौंडे हो. कुछ नहीं बदला, अभी कहो तो साले कट्टा बम लेकर लड़ लें.

अनुराग- मैंने लड़ाई की? कौन बोला सिलेक्शन की बात? 28 साल पुरानी बात है….

-भाई, गलती हो गई. मतलब था कि तुम हमेशा फर्स्ट आते थे. हम लोगों को लगता था कि तुम्हारा तो हो ही जाएगा. नहीं हुआ, इस पर विश्वास करना मुश्किल था.

अनुराग- ‘झोपड़ी’ के तू बड़ा तुर्रम खाँ बन गया, इंजीनियरिंग, एमबीए सब कर लिया, फिर भी तू चूतिया था और हमेशा चूतिया रहेगा, सुजॉय ओल्ड मौंक मँगा.

फैजल- यार! यहाँ पीना नहीं हो पाएगा.

अनुराग- तुमको कौन बोला पीने को ?

फैजल- अबे रेस्त्राँ को लाइसेंस नहीं है, नया-नया है कोई देख लेगा तो बवाल….

अनुराग- नाटक मत सुना तू अब, तुम लोगों का यही प्रॉब्लम है, हम कहीं भी हलाल खा लेंगे पर तुम को दारू सुनते ही न!

अनुराग उठकर रेस्त्राँ से बाहर चला गया.

फैजल ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया. शायद वह अपने होटल पर ऐसी बहस में नहीं पड़ना चाहता था.

विकास- तुम्हारी सिलेक्शन की बात पर उखड़ गया है. क्यूँ कर रहे हो यार? इतने साल बाद किसका हुआ या किसका नहीं क्या फर्क़ पड़ता है?

-यार मैं ऐसे ही बोल रहा था, कोई नीचा नहीं दिखा रहा उसे.

विकास- उसको चढ़ जाती है तो बड़बड़ाने लगता है. चलो सामने पब में जाकर बैठा है. वहीं चलते हैं, थोड़ा पी ली जाए वरना बोलोगे दोस्त को सूखा-सूखा प्लेन में बैठा दिया.

-फैजल आओ, तुम जूस पी लेना.

हम सब फैजल के रेस्त्राँ से निकलकर उसी मॉल में स्थित एक पब में आ गए. बैंगलोर में पब जाने की आदत थी पर यहाँ नॉएडा में म्यूजिक कुछ ज्यादा ही तेज था और उस पर पंजाबी गाने एक के बाद एक बजे जा रहे थे. बात करने के लिए चिल्लाना पड़े तो बड़ी खीज होती है. ऑफिस पार्टी हो तो ठीक भी है, ऐसे भी बॉस को कौन सुनना चाहता है पर दोस्तों से इतने सालों बाद मिले हैं. मुझे अचानक से याद आया और मैंने विकास को अपने पास खींचकर कहा.

-भाई याद रखना कि एयरपोर्ट छुड़वाना है, यहाँ नॉएडा से रात को टैक्सी नहीं मिलती.

विकास- तुम आदमी हो की पजामा, जबसे मिले हो चौवालीस बार बोल चुके हो. पहुँचा देंगे.

फैजल- आराम से पियो. हम लोग हैं, तुम्हारी फ्लाइट नहीं छूटेगी.

-यहाँ इतना शोर है पता भी नहीं चलता कि बात सुनाई पड़ भी रही है कि नहीं!

दो

इतने तेज संगीत से सिर फट रहा था पर बियर ने सँभाल रखा था. नशा हल्का-हल्का सा था और नींद भी हल्की. अचानक से अनुराग ने ब्रेक मारा और मैं हड़बड़ाकर उठ गया, मेरा दिमाग बार-बार शाम की पार्टी में चला जा रहा था, मुझे हर एक दोस्त अलग-अलग समय पर दिख रहा था.

अनुराग- मूत लेते हैं बे! बियर पी है तो सू-सू बहुत आ रही है. सो गए क्या?

-नहीं वो सोच रहा था.

अनुराग- ज्यादा सोचो मत, मूत लो ‘झोपड़ी’ के.

अनुराग हल्का-सा लड़खड़ाता हुआ बाएँ हाथ की दीवार के पास पहुँचा, वैसे तो जगह लग नहीं रही थी पेशाब करने की, पर तब तक अनुराग दीवार के ऊपर धार बना चुका था और मैं धीरे-धीरे चलता उसके बाद पहुँचा, मुझे उस दीवार के पीछे किसी स्टेशन का आभास हुआ.

– यहाँ… ये कोई मेट्रो है क्या?

उसने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने थोड़ी देर उसके जवाब का इन्तजार किया फिर मुझे लगा कि सू-सू कर ही लेनी चाहिए. जब तक मैं खत्म करता अनुराग ने जनेऊ कान से उतारा और उसे फिर एक मौका मिल गया यह बताने का कि वो कितना जमीन से जुड़ा हुआ था.

अनुराग – मूतते समय बात नहीं करते बे.

फिर अनुराग चेन बन्द करने के प्रयास में मेरी तरफ ज्यादा झुक गया और लगभग मेरे कान से सटकर बोला- हाँ! ये सीलमपुर मेट्रो है और इसी के आगे सब साले मोड़ पे बैठे थे. एनआरसी और सीएए वाले जाम लगा कर.

अनुराग ने मेरे पास आकर बहुत तेज चिल्लाकर बोला था. मुझे फिर से बड़ी तेज उलझन हुई और मन किया कि घूमकर उसी पर मूत दूँ. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इतना चिल्लाकर क्यूँ बोल रहा है मुझसे.

-कान में क्यूँ चिल्ला रहे हो बे ‘झोपड़ी’ के.

अनुराग- तुम जैसों को सुनाना जरूरी है जो साले फेसबुक पर गंगा-जमुनी तहजीब बूकते रहते हो.

-अनुराग बहुत हुआ.

अनुराग- बहुत हुआ इन सुअरों का, यहीं मूतूँगा सालों पर. ये पूरा एरिया देख रहे हो ये सब मुसलमानों का है. सालों के पास कोई काम नहीं था. बस रोज यहाँ इकट्ठा होकर मनमर्जी करवा ली.

-यही मोड़ था? बहुत देखा था न्यूज में पर आज सामने से देखा.

अनुराग- माथा टेक लो.

-ऐसा करो तुम मेरा सामान दे दो, मैं ओला कर लूँगा.

अनुराग- हिम्मत हो तो उतार के दिखा दो, छोड़ूँगा तो मैं ही.

मुझे पता चल गया था कि अनुराग में बहुत कुछ भरा हुआ है और इस समय उसे छेड़ना छत्ते में हाथ डालना होगा और तरीका था उस से प्यार से बात करना.

-यहाँ? तुम्हारा घर यहाँ से दूर है ?

अनुराग- हाँ, पर आना तो पड़ता ही था, रोज की रिपोर्ट करने.

-तुम कोई टीवी चैनल क्यों नहीं ज्वाइन करते?

अनुराग- हमको इसी में मजा आता है, लिखने में, प्रिंट मीडिया….

-लिखने का शौक तो नहीं था तब.

अनुराग- तुम भी तो शाकाहारी नहीं थे तब?

-यार तुम तो पकड़ कर ही बैठ गए.

अनुराग- क्यूँ तुम फैजल के सामने इतना क्यों चिपक रहे थे? स्कूल में तो टिफिन में अंडा, आमलेट, चिकन सब लाते थे.

-उस बात को तीस साल हो गए.

अनुराग- हाँ तो मेरा इंजीनियरिंग में नहीं हुआ उस बात के भी तो 28 साल हो गए.

-गलती हो गई भाई.

अनुराग- किस-किस बात के लिए माफी माँगोगे तुम जैसे लोग? तुम लोगों के चलते ही इनकी इतनी हिम्मत हो गई है कि….

-अरे यार नहीं मन करता किसी जानवर को मार कर खाने का तो बस नहीं मन करता.

अनुराग- और जो गाय काट कर खाते हैं उनके लिए तुमको बहुत प्यार उमड़ता है.

-अब ये बात कहाँ से निकाली?

अनुराग- तुमको बड़ी मिर्ची लग जाती है, जब मैं ग्रुप में कोई वीडियो डालता हूँ.

-वो सही नहीं है, सबकी भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए.

अनुराग- भावनाएँ? वाह गुरू! जिनका देश है उनकी भावनाओं का क्या?

-फैजल ने कुछ कहा?

अनुराग- उसने भी लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सहीं नहीं था अयोध्या का.

-उसने नहीं कहा था, सिर्फ एक आर्टिकल शेयर किया था.

अनुराग- मतलब कहना तो यही चाह रहा था न.

-फैजल भी हम में से एक ही है. सुना नहीं, उसके दादा जी के भाई आज भी हिन्दू हैं.

अनुराग- वही तो कह रहा हूँ, सब कन्वर्टेड हैं पर मानेंगे नहीं, बाबर की औलाद बताते हैं अपने आप को.

-यार फैजल तो साथ का है, उसको इन सबमें क्यूँ खींच रहे हो?

अनुराग- और जब कोई कोशिश करे देश के दुश्मनों को बाहर निकालने की तो तुम और तुम्हारे जैसा यहाँ का चीफ मिनिस्टर सब साले लट्ठ लेकर खड़े हो जाते हो.

अगर इसके आगे बात बढ़ाता तो शायद आज एयरपोर्ट नहीं पहुँच पाता इसलिए मैंने ऐसा मुँह बनाया जैसे कि मैं कुछ हद तक अनुराग से सहमत था. मैं पहले कार में आकर बैठ गया और अनुराग को समझने के लिए उसकी कार का अन्दर से मुआयना करने लगा. बहुत सारे कागज, अखबार तौलिया, सिगरेट, दो तीन पानी की बोतल, मतलब बहुत ही बेतरतीब-सा था सब कुछ जैसे किसी ने साफ ही नहीं किया हो महीनों से. न जाने कितनी किताबें और पत्रिकाएँ और पुराने अखबार जिनका रंग भी उड़ चुका था, सब पीछे की सीट पर पड़ी थीं. फिर अनुराग भी कुछ देर तक चुपचाप कार चलाता रहा पर जाने क्यूँ मुझे लगने लगा था कि शायद मैं दूसरे शहर से हूँ इसलिए जमीनी हकीकत न पता हो और न चाहते हुए भी मैंने पूछ ही लिया.

-काम तो हुआ है वरना ऐसे ही एमसीडी इलेक्शन नहीं जीत जाता.

अनुराग- अबे उल्लू बना रहा है खुजलीवाल तुम जैसों को. एक स्कूल नहीं बनवाया है, सब पुराने को चूना पुतवा दिया है और तुमको लगता है वो देश बदल रहा है. जहाँ गरीब थे वहाँ सब पहुँचा दिया और तुम तो जानते ही हो पढ़ा-लिखा और अमीर आदमी लाइन लगाकर वोट डालने जाएगा कि अपना काम देखेगा? उसको सब  पता है और उस पर से फोकट की बिजली और फोकट का पानी, बदले में वोट.

-एनआरसी और सीएए में कमी न होती तो सरकार ऐसे पीछे न हटती.

अनुराग- तुम लेफ्टी लोग न, किसी के सगे नहीं हो सकते, भक साले. देश के दुश्मनों के लिए सालों ने महीने भर रास्ता ब्लॉक करके रखा? बच्चे कितना लेट आते थे स्कूल से, मन करता था एक-एक को गोली मार दूँ.

-तुम तो अखबार में हो. तुम्हारे हिसाब से सही था या गलत ?

अनुराग- बिलकुल चूतियापा था, सब खुजलीवाल का चढ़ाया हुआ था. टलवा दिया एनआरसी और सीएए. और गद्दार पैदा होंगे अब.

-खुजलीवाल? मैं अभी हिटलर बोल दूँगा तो भड़क जाओगे.

अनुराग- तुम लोग क्या सोचते हो इतने लोगों को बिना किसी सपोर्ट के ही हिम्मत आ जाएगी ऐसे बैठने की? हिटलर क्या मुसोलिनी या इदी अमीन बोल दो. डरते हैं क्या?

अनुराग की सिगरेट से निकालने वाली चिनगारी उड़कर अन्दर ही आ रही थी और अनुराग बेफिकर कार चला रहा था.

अनुराग- तुम तो दिल्ली पहले भी आए थे?

-हाँ, आता रहता हूँ पर पता नहीं था कि तुम सब यहीं हो.

अनुराग ने गाने का वॉल्यूम बढ़ा दिया और कार को गाने की बीट के साथ लहराने लगा, मुझे उसका नशा साफ दिख रहा था. अब मुझे फैजल पर चिढ़ आ रही थी, उसने वादा किया था कि वो खुद छोड़ेगा पर ऐन मौके पर अनुराग जिद कर बैठा और फैजल भी मान गया क्योंकि अनुराग का घर रास्ते में पड़ता था. मुझे कुछ आभास हुआ था पर यह नहीं पता था कि अनुराग ओल्ड मोंक के दो क्वॉर्टर खत्म कर चुका था. वो भी विकास ने तब बताया जब मैं और अनुराग निकल चुके थे. मैंने बड़बड़ाते हुए समय चेक किया.

अनुराग- डर मत, तू किसी भी पार्टी का हो अर्बन नक्सल साले, एयरपोर्ट छोड़ूँगा मैं ही.

अचानक से अनुराग ने youtube से ढूँढ़कर गाना चला दिया और साथ में तेज तेज गाने लगा और उसने यह सब कार चलाते हुए किया.

अनुराग- बैंगलोर से आया मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो. रात भर पियो-पियो दिन में फिर से पियो.

-सच बोल रहे हैं अनुराग, हम तुम्हारे जीजा तो लगते नहीं कि एयरपोर्ट तक जाओगे. तुम आराम से सो जाओ घर जाकर, मुझे बैठा दो ओला में.

अनुराग वही सुनता था वो उसका मन करता था. मुझे पता था कि व्हाटसऐप ग्रुप जैसी हालत वापस यहाँ नहीं करनी है और वैसे भी अगली बार मैं अनुराग से नहीं मिलूँगा पर अभी वो बात बढ़ाना चाहता है और समझदारी इसी में है कि चुपचाप निकल लूँ.

-बच्चे किस क्लास में हैं?

अनुराग- बड़ी वाली आठवीं और छोटी दूसरी में.

मैं- 6 साल का अन्तर गजब, तीन हैं न?

अनुराग- अबे अम्माँ पीछे पड़ गईं कि हम लोग सँभाल लेंगे पर एक लड़का तो होना ही चाहिए. तुम तो जानते हो पंडितों के यहाँ कैसा रहता है.

-तुम पंडितों को पता कैसे चलता है कि इस बार लड़का ही होगा?

अनुराग- भक ‘झोपड़ी’ के! 2 बार गिराया है तब जाकर हुआ.

मैं- आंटी खुश ?

अनुराग- बीना की जिन्दगी आसान हो गई वरना लड़का नहीं पैदा किया तो बहुत सुनना पड़ता है. बेचारी ने बहुत झेला लड़के के लिए. बहुत प्यारी बीवी मिली है.

मेरे चेहरे की समस्या रही होगी कि अनुराग ने पढ़ लिया मेरे चेहरे पर उभरा हुआ व्यंग्य.

अनुराग- पता है तुम्हारे मन में क्या चल रहा होगा. फैजल के एक ही लड़की है, है न?

फेसबुक पर अनुराग कई बार मुझसे भिड़ चुका था और वो जानता था कि मैं किस तरह सोचता हूँ.

-मतलब… तुम्हारा पर्सनल मुद्दा है पर पॉप्युलेशन तो बढ़ ही रही है.

अनुराग- और वो सब जो दर्जन भर पैदा करते हैं? मेरे तीन हो गए तो देश में जनसंख्या बढ़ गई? वो साला फैजल….

-फैजल बेचारे ने सबको बुलाकर फ़्री में खाना खिलाया और उसी को गरिया रहे हो.

अनुराग– फ़्री! तुम लोगों को सब फ़्री में चाहिए. उसके पीछे की साजिश नहीं समझ पाते.

-अब कौन सी साजिश?

अनुराग- फैजल अगर इतना ही सच्चा था तो रेस्त्राँ के नाम ‘भोजनमंत्र’ क्यूँ रखा?

 

वाकई में मेरे पास अब कोई जवाब नहीं था पर अनुराग से हारने का मन नहीं था, व्हाटसऐप पर तो न जाने क्या-क्या लिखता रहता है पर आज नहीं जाने दूँगा. फिर खयाल आया कि जाने देते हैं. इतने साल बाद की यादों को बर्बाद करने का क्या मतलब. लड़ाई हो जाएगी, फिर कभी शायद मिलने का भी न हो. जिस दिन बारहवीं का आखिरी पेपर था किसी ने अन्दाजा भी नहीं लगाया था कि जिन्दगी यूँ स्पीड पकड़ेगी कि दुबारा कभी मिलना नहीं हो पाएगा. जैसा हर पेपर में होता था वैसा केमिस्ट्री के आखिरी पेपर के दिन भी हुआ. सुबह 7 से 10 एग्ज़ाम दिया फिर सब घर भागे क्योंकि किसी को एहसास ही नहीं था कि वह आखिरी दिन दुनिया का वह दरवाजा खोलेगा जिसके अन्दर घुसते ही समय प्रकाशवर्ष की गति से चलेगा. अखबार में रिजल्ट छपा तब तक सब इंजीनियरिंग और डॉक्टरी की तैयारी में लग चुके थे. जिनका चयन हो गया वे आपस में मिले और जिनका नहीं हुआ वे घर से नहीं निकले. फिर कितनी बार हुआ कि शहर वापस गए पर जिनका खानदानी गल्ला था वे धन्धे पर लग गए थे और मिलने से कतराते. जो सिविल की तैयारी में थे उनके अन्दर प्रतिशोध था कि जब कुछ बन जाएँगे तब लाल-नीली बत्ती के साथ ही मिलेंगे.

अनुराग- हम तुमसे बात किए जा रहे हैं और तुम सोए जा रहे हो आगे बैठकर, हमको भी आँख लग जाएगी.

-सारी यार, वो इतनी बियर एक साथ हो गई और फिर कल से सोया भी नहीं ठीक से, ऑफिस का काम था.

अनुराग- एक बात बोलें, घर चलकर आराम से सो जाओ. कल शाम की फ्लाइट पकड़ लेना.

-अबे नहीं भाई, कल ऑफिस में प्रेजेंटेशन है. नौकरी चली जाएगी बे.

अनुराग ऐसे मुस्कुराया जैसे मेरी मजबूरी पर उसको मजा आया था. मैंने देखा तो वैसा ही गाना फिर बज रहा था और अनुराग ने अपनी स्पीड और बढ़ा दी थी.

-भाई, कोई जल्दी नहीं है, जितना लेट पहुँचूँ उतना बेहतर है. रात है तुम आराम से….

अनुराग- ‘झोपड़ी’ के तुम हमको मत सिखाओ.

-यार, मैं ये कह रहा था कि तुम भी दिन भर के थके हो, ओला ऊबर करवा दो.

अनुराग ने फिर नहीं सुना. उसके सामने मेरे सारे तर्क खत्म हो चुके थे पर मैंने एक और कोशिश की.

– कहीं रास्ते में चाय पीते हैं फिर हम निकल जाएँगे.

अनुराग- पहली बार कोई सही बात बोली है, अभी लो.

और उसने गुड़गाँव जा रहे हाइवे पर अचानक से सर्विस रोड की तरफ स्टीयरिंग मोड़ दी. उसने जैसे ही कार मोड़ी कि अचानक से तेज आवाज के साथ कोई चीज हमसे टकराई. टक्कर इतनी तेज थी कि थोड़ी देर के लिए हम दोनों स्तब्ध रह गए. हाइवे था और अनुराग ने अचानक से कार मोड़ दी थी. बाएँ हाथ में चल रही बाइक फुल स्पीड में कार से टकराई और फिर फ्लाइओवर की शुरुआत की जगह पर सर्विस रोड और फ्लाइओवर के बीच की दीवार से टकराकर उछली. ढेरों चिनगारियाँ बाइक और सड़क के बीच से निकल रही थीं. बाइक चलानेवाले ने हेलमेट लगा रखा था इसलिए उसका चेहरा नहीं दिख रहा था. वह फ्लाइओवर की साइड न गिरकर सर्विस रोड की तरफ गिरा. टक्कर इतनी तेज थी कि कार के पीछे का दरवाजा अन्दर धँस चुका था पर मेरा लैप्टॉप बैग सुरक्षित था. मैं उतरकर भागा तो देखा कि किस्मत से हमारे पीछे कोई गाड़ी नहीं थी और सर्विस रोड देर रात के चलते सुनसान पड़ी थी.

बाइक सवार घिसटते हुए सर्विस रोड के किनारे झाड़ियों में फँसा पड़ा था. बाइक का अगला हिस्सा बुरी तरह चकनाचूर हो चुका था फिर भी बाइक का इंडिकेटर जल रहा था. समझ नहीं आ रहा था कि वो जिन्दा था या मर चुका था. अनुराग कार से बाहर ही नहीं निकला था. मुझे लगा शायद अनुराग को चोट लगी होगी इसीलिए वह अब तक बाहर नहीं निकला था. अनुराग स्टीयरिंग पकड़े बैठा था और उसके हाथ काँप रहे थे. मैंने जैसे ही उसको छुआ, वह गले को सीने से चिपकाए उसी टोड जैसी आवाज में रोने लगा.

अनुराग- भाई निकल चलते हैं, वरना फँस जाएँगे.

-अनुराग एक बार देख तो लूँ, वो आदमी शायद जिन्दा हो.

अनुराग- चूतिए हो ‘झोपड़ी’ के? मैंने पी रखी है और तुमने भी. दोनों अन्दर जाएँगे.

-यार ये तो हिट एंड रन हुआ.

अनुराग- अंग्रेजी में बोलने से हरियाणा और दिल्ली पुलिस माफ नहीं करती.

अचानक से अनुराग को कुछ सूझा और वह काँपते हुए हाथों और पैरों के साथ कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकला. अनुराग पागलों की तरह चारों तरफ देखने लगा फिर भागकर मेरे पास आया.

अनुराग- कोई सीसी टीवी नहीं है आस-पास, मैंने चेक कर लिया. इससे पहले कोई आए, निकल लेते हैं.

अनुराग मुझे कार की तरफ धकेलते हुए बोला और खुद अन्दर जाकर ड्राइविंग सीट पर बैठ गया. मैं भाग कर झाड़ियों की तरफ गया, बाइक सवार घिसटकर सड़क के किनारे तक तो आ गया था पर उसके हेलमेट से खून बहुत बह रहा था. हेलमेट के बाद भी ऐसी चोट? वह पूरी तरह शान्त पड़ा था. अगर मैं उसे हॉस्पिटल ले जाता तो अनुराग का जेल जाना तय था. मैं उस आदमी को जानता तक नहीं था, न ही उसका चेहरा देखा था. ऐसे अनजान आदमी के लिए क्या अपने दोस्त और उसके परिवार को बर्बाद कर देना ठीक होगा? मैं भारी कदमों से कार में आ बैठा. अनुराग ने तब तक सुजॉय को फोन लगा दिया था. मुझे देखते ही उसने फोन मुझे पकड़ा दिया.

-भाई, एयरपोर्ट के रास्ते में थे, एक बाइक वाले को टक्कर लग गई.

सुजॉय- फोन दे बात करता हूँ, समझ जाएगा. जाट होगा, ज्यादा गरमी दिखा रहा होगा.

-नहीं यार उसकी गलती नहीं है. वह शायद मर गया है. बहुत तेज टक्कर लगी है कार की.

सुजॉय- क्या! पागल हो क्या! गाड़ी कौन चला रहा था.

-अनुराग.

सुजॉय- साला कितना पिया था. मना कर रहा था पर बियर के साथ रम भी पी गया, ‘झोपड़ी’ का.

-करना क्या है?

सुजॉय- पुलिस तो दोनों को अन्दर लेगी. दारू तो एक बियर में डाउन दिखा देती है.

-फिर?

सुजॉय- अनुराग को फोन दे, तू तो यहाँ का है भी नहीं.

अनुराग के हाथ अभी भी काँप रहे थे. मैंने फोन देकर सिगरेट जला ली. अनुराग बात करता और सिर हिलाता जा रहा था. अनुराग ने फोन वापस दिया.

-हाँ सुजॉय!

सुजॉय- सुन भाई, मेरे रहते तुम दोनों को कुछ नहीं होगा. अनुराग को बोल दिया है, तुम लोग यू-टर्न लो, मैं रास्ते में मिलता हूँ. तुरन्त निकलो, फ्लाइट कितने बजे है?

-बहुत टाइम है.

अनुराग ने कार आगे बढ़ाई और फ्लाइओवर के नीचे से यू-टर्न लिया. हम दोनों चुप थे और कार में अब कोई गाना भी नहीं बज रहा था. अगर अनुराग बजाने की कोशिश भी करता तो शायद मैं लात मारकर उसका सिस्टम तोड़ देता. मेरे पास कुछ कहने को नहीं था पर इतना ज्यादा अपराध बोध लग रहा था कि मैं खुद से बड़बड़ाने लगा.

-मेरा मन था कि उस आदमी की मदद करूँ, न जाने किसका बेटा या पति रहा होगा, पर तुम हमेशा के लिए अन्दर जाते.

अनुराग का चेहरा स्तब्ध था. वो बस गाड़ी चलाने पर ध्यान दे रहा था. उसने एक बार भी मुड़कर नहीं देखा. मुझे लग रहा थे कि उसको बता दूँ कि मैं वहाँ से क्यूँ निकला. मैं भगोड़ा था पर सिर्फ अनुराग के लिए.

-तीनों बच्चों और भाभी का खयाल आ रहा है, वरना उसको हॉस्पिटल ले जाना बनता था. तुमने ठीक से चेक किया था सीसी टीवी?

अनुराग- हाँ.

-और हुआ तो?

अनुराग- तो जो होगा कल देखेंगे.

 

तीन

गाड़ी चल रही थी और मैं अपने आप को समझा रहा था कि ऐसे मौकों पर दिल नहीं दिमाग से काम लेना चाहिए. मैं तो उस आदमी को जानता भी नहीं था जो वहाँ पड़ा मर रहा था या शायद अब तक मर चुका होगा. और उस हिसाब से जिस दोस्त को जानता था उसके परिवार का जीवन बर्बाद करने का हक नहीं था मुझे. मैं अगर उसको अस्पताल लेकर जाता तो निश्चित था कि अनुराग पकड़ा जाता. फिर केस चलता, शायद जेल होती. जेल तब होती जब वो लड़का मरा होता पर अगर अनुराग को कुछ होता भी तो क्या हम सब दोस्त उसके परिवार को अकेला छोड़ देते? नहीं! सब मिलकर उसका खर्चा उठाते, उसके बच्चों की पढ़ाई का. पर अगर बाइकवाला आदमी जिन्दा रह गया और उसे गाड़ी का नम्बर याद रहा तो? तब तक तो मैं शायद बैंगलोर में रहूँगा और वापस नहीं आना यह दोस्ती-वोस्ती निभाने.

अच्छा-खासा ओला से निकल जाता पर यह दोस्ती का राग आज भारी पड़ गया. वैसे भी कोई मैच नहीं रह गया इन लोगों से मेरा. मैं जिस पोस्ट पर हूँ, वहाँ तक इनमें से कोई कभी पहुँच भी नहीं सकता. अनुराग का यही प्रॉब्लम था, वो मेरी सफलता देख नहीं पा रहा था. मैंने मोबाइल निकाला और सारे दोस्तों, जिनसे आज मिला था, को फेसबुक से अनफ्रेंड कर दिया. मुझे ये भी लग रहा था कि कहीं ग्रुप में बात न छिड़ जाए इसलिए व्हाटसऐप ग्रुप भी छोड़ दिया. मैं उस शाम की फोटो भी नहीं रखना चाहता था, पर मेरे मोबाइल से हटाने का क्या फायदा, बाकी लोगों के पास तो होगी ही. फिर भी ये अच्छा है कि मेरी अनुराग के साथ कोई सेल्फी नहीं थी. अनुराग ने अचानक से ब्रेक मारा.

-एक एक्सिडेंट कर चुके हो अब एक और मत कर देना.

अनुराग- चुप ‘झोपड़ी’ के, तेरे ही चक्कर में सब हुआ है. सोचा था तुमको रास्ते में थोड़ी बुद्धि दूँगा लिब्रांडू….

-औकात में रहकर बात कर अन्धभक्त साला.

अनुराग- भक्त किसको बोला बे, बाहर निकल मेरी कार से.

अनुराग तेजी से अपना दरवाजा खोलकर बाहर निकला और तब तक मैं भी बाहर आ चुका था. मेरा बिलकुल भी मन नहीं था पर तब तक अनुराग और मैं एक दूसरे का कॉलर पकड़ चुके थे. मैं पहले हाथ नहीं उठाना चाहता था पर अगर उसाने शुरू किया तो सोच लिया था कि इस पूरी भसड़ के लिए उसको सबक जरूर दूँगा. हम थोड़ी देर तक एक दूसरे की आँखों में देखते रहे और फिर खुद ही एक दूसरे से अलग हो गए.

-सुजॉय आएगा कि हमारा चूतिया काट रहा है!

अनुराग-‘ झोपड़ी’ के तुम्हारी फ्लाइट नहीं छूटेगी बस, तुम साले बहुत सेल्फिश हो.

-सेल्फिश होता तो अब तक ओला करके एयरपोर्ट निकल गया होता, यहाँ तक आया हूँ क्योंकि तुम्हारी और बच्चों की चिन्ता है.

अनुराग- भाई तुझको जो करना हो कर पर मेरे बच्चों की चिन्ता मत कर, भूखे मर जाएँगे पर तुम जैसे के सामने हाथ नहीं फैलाएँगे.

इससे पहले कि बात आगे बढ़ती, सुजॉय अपनी बुलेट पर आ गया था. सुजॉय पूरी वर्दी में था.

सुजॉय- तुम लोग ठीक हो?

-हाँ यार पर उस आदमी का सोचकर खराब लग रहा है, किसी का भाई-बाप होगा.

सुजॉय- होगा लेकिन अभी इमोशनल मत हो. अनुराग कार की चाभी दो और तुम ऑटो से घर निकलो. मैकेनिक बुलाया है, वह आएगा और एक हफ्ते में गाड़ी बनाकर घर पहुँचा देगा. तुम्हारी फ्लाइट कितने बजे है?

-भाई, ओला बुला रहा हूँ, मैं निकल जाऊँगा पर हो सके तो तुम किसी को इन्फॉर्म कर दो और उस आदमी को हॉस्पिटल पहुँचा दो.

सुजॉय- तुम निकलो अब…. तुम साले कम ‘झोपड़ी’ वाले नहीं हो. इतनी ही चिन्ता थी तो रुक जाते वहाँ और अनुराग को निकाल देते. बोल देते कि रास्ते से जा रहा था और बाइक वाला गिरा मिला. अभी दिमाग मत खाओ मैं सँभाल लूँगा और अब इस बारे में कोई बात नहीं होगी.

मेरी टैक्सी आ गई और गले मिलने की किसी भी औपचारिकता से दूर सब अपने-अपने रास्ते हो लिए. मेरा रास्ता उसी तरफ से जा रहा था जहाँ पर दुर्घटना हुई थी. मैंने बैठते ही कार में ड्राइवर से बोल दिया कि जल्दी नहीं है और अगर वह 60 के ऊपर कार चलाएगा तो मैं उतर जाऊँगा. पंजाबी गानों से दिमाग इतना भर चुका था कि मैंने गाना चलाने से ही मना कर दिया था. मैं पूरी यात्रा के दौरान उस तरफ देखता रहा जहाँ ऐक्सिडेंट हुआ था. इतना कुछ हो जाएगा एक शाम में विश्वास नहीं हो रहा था. एक बार लगा कि पत्नी को फोन करके सब बता दूँ पर रिस्क था कि ड्राइवर भी सब सुन लेगा और फिर इतनी रात को वह भी घबरा जाएगी. शायद वह मोड़ आकर निकल गया या फिर मैं देख नहीं पाया इसलिए मैंने मान लिया कि किसी ने उस बाइकवाले को अस्पताल पहुँचा दिया. इस बात के एहसास से अच्छा लग रहा था कि शायद वो आदमी अब बच जाएगा.

एयरपोर्ट पर मैं बहुत तेजी से अन्दर चले जाना चाहता था. मैं कहीं और रुकने की सोचना भी नहीं चाहता था. रह-रहकर लग रहा था कि शायद पीछे से कुछ पुलिसवाले दौड़ते हुए आएंगे और पकड़ लेंगे. मुझे लग रहा था कि किसी कोने में छुप जाऊँ. हाँ! लाउंज में जाकर बैठता हूँ, भीड़ से अलग रहना बेहतर होगा. ऐसे समय में लाउंज ऐक्सेस बहुत काम की थी. मैंने वही क्रेडिट कार्ड लिए हैं जिनसे लाउंज मिलता हो. वैसे भी भीड़ के साथ बैठना पसन्द नहीं था और उस पर आज का दिन. बहुत तेज भूख लग गई थी और मैं लगभग दौड़ता हुआ लाउंज पहुँचा. सबसे पहले हाथ-मुँह धोया और शीशे में अपने आप को चेक किया कि कहीं कोई खून तो नहीं लगा है. वह मेरा वहम था फिर भी मैंने पूरे कपड़े बदले. मुझे जाने क्यूँ अभी भी लग रहा था कि जब तक प्लेन उड़ न जाए कुछ भी नहीं कहा जा सकता. वाशरूम से मैं बहुत सँभलकर बाहर निकला. सब मेरी तरफ देख रहे थे. मुझे कुछ समझ नहीं आया. मैं नजरें चुराते हुए एक सीट पर आकर बैठ गया. थोड़ी देर बाद नजर उठाकर देखा तो सब अपने आप में व्यस्त थे. अब कोई मेरी तरफ नहीं देख रहा था. भूख इतनी बढ़ गई थी कि पेट अन्दर से खौल रहा था. मेरे जबड़ों में अजीब-सी कनकनाहट हो रही थी. मैं भागकर बुफे की तरफ पहुँचा. फैजल के यहाँ जो भी खाया था वो पता नहीं कहाँ चला गया था.

मेरी समस्या यह है कि जब तक मेरे जबड़ों को मेहनत न करनी पड़े, मुझे लगता ही नहीं कि मैंने खाना खाया है. मैं कुछ चबाना चाहता था, जिससे पता चले कि मैंने कुछ खाया है. मैंने ‘चिकन विद लेमन इन बटर सॉस’ से कुछ ज्यादा ही प्लेट भर ली थी. जब मैं अपनी सीट की तरफ चला तो सब मुझे ऐसे घूरकर देख रहे थे जैसे मैं इतनी रात को खाना खानेवाला अकेला हूँ जबकि और भी कई लोग खा रहे थे. सबको खाता देखकर मुझे लगा कि कहीं ‘मटन बिरयानी’ खत्म न हो जाए इसलिए मैंने एक वेटर को बुलाकर अलग से बिरयानी लाने को बोल दिया. इतनी भूख शायद ही कभी लगी होगी. मैं खाता गया. खाते-खाते एहसास हुआ कि ‘प्लांट बेस्ड मीट’ का स्वाद कभी भी असली चिकन और मटन के साथ बराबरी नहीं कर सकता. मैंने एक बार मोबाइल खोलकर देखा, कहीं से कुछ नहीं आया था. मैंने फोन एरोप्लेन मोड़ पर डाल दिया.

राहुल श्रीवास्तव
ई-मेल : rahuldadda@gmail.com
मो. 9820747716

 

Tags: 2023२०२३ कहानीराहुल श्रीवास्तव
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Comments 37

  1. ममता कालिया says:
    2 weeks ago

    terminal 1,राहुल श्रीवास्तव की बड़ी तेज़ रफ़्तार की कहानी है जो मौजूदा युवा पीढ़ी की आत्मकेंद्रित ज़िन्दगी का दस्तावेज़ मानी जा सकती है।

    Reply
  2. कबीर संजय says:
    2 weeks ago

    बचपन में टूटे धागों को जब जोड़ने की कोशिश की जाती है, तब पता चलता है कि अब उसका मूल ही समाप्त हो चुका है। बहुत अच्छी कहानी।

    Reply
  3. Vishal Verma says:
    2 weeks ago

    राहुल जी अभी टर्मिनल 1 कहानी पढ़ी, अट्ठाइस साल बाद दोस्तों का मिलना, वो सारी पुरानी यादें, वो स्कूल के दिन, इन सब ने मुझे एक नॉस्टैल्जिया ट्रीप में धकेल दिया। कहानी सिर्फ मात्र चार पांच दोस्तों के मिलने की नहीं है, बल्कि जीवन की कठिन राह पर चलने से एक भीतरी कड़वाहट और एक अदृश्य नफ़रत की भी है, अनुराग जैसे मित्र मेरे भी हैं जो मुझे लिब्रांडू घोषित कर चुके हैं। कहानी के अंत में वो ऐक्सिडेंट होना भी मेरे लिए शॉकिंग था, बाकी कहानियों की तरह ये भी अपने आप में एक सिनेमा है जो आज के वर्तमान समय की वास्तविकता और एक रंजिश को दर्शाता है। कहानी पढ़ के मुझे बहुत पर्सनल लगी और बंगलौर में रहने वाला शख्स मुझे खुद जैसा ही लगा। वो इंसान जो समय के खेल में बहुत आगे बढ़ चुका है और बहुत कुछ पीछे छोड़ चुका है। कहानी शेयर करने के लिए धन्यवाद। आपकी कहानियां मुझे हमेशा ही झिंझोड़ के रख देती हैं और ये आपकी बहुत ही बेहतरीन खूबी है। 😊🙏🏼❤️

    Reply
  4. Anonymous says:
    2 weeks ago

    बहुत सुंदर, कुछ अपने दोस्तों के जैसी

    Reply
  5. शेषनाथ पाण्डेय says:
    2 weeks ago

    पढ़ लिया बहुत बढियाँ कहानी बन गई है। यह जब्बर बात है कि 2014 के बाद की राजनीति ने अपनी नफरती चालों से जो दोस्तियां बिखराई है , उसको लेकर आपने कहानी बना दिया। और कहानी अपनी बात कहने के साथ रुचिकर भी लगती गई।

    Reply
  6. Anonymous says:
    2 weeks ago

    हमेशा की तरह लाजवाब और हतप्रभ कर देने वाली कहानी
    आज जाकर पूरी पढ़ी।
    आप मे अपार संभावनाएं हैं….. पूरा का पूरा पैकेज हैं आप।

    अनंत शुभकामनाएं और हज़ारों आशीर्वाद।

    डॉ मुकेश चित्रवंशी।

    Reply
    • Pallavi says:
      2 weeks ago

      कबीर संजय जी की बता से सहमत हूँ। एक लम्बे समय अंतराल के बाद शायद दोस्तों में पहले सा कुछ नहीं रह जाता शेष रह जाती है केवल औपचारिकता। जिसमे पढ़कर आदमी कुछ इस तरह ही एक समय अवधि के बाद भाग जाना चाहता है।
      एक और बढ़िया कहानी के लिए शुभकामनायें आपको 🙏🏼

      Reply
  7. O P Srivastava says:
    2 weeks ago

    Kya baat hai Rahulji 🌼🌼

    Reply
  8. bhupendra singh says:
    2 weeks ago

    अतिसुन्दर …..

    Reply
  9. R K Singh says:
    2 weeks ago

    Excellent, Heart touching,

    Reply
  10. Ratna Srivastava says:
    2 weeks ago

    समय हमेशा बदलता रहा है ..पर ‘पहले’ लोग इतना नही बदले थे.. अब जो खाईयां बन गई हैं वे बात बात पर तलवारें खिंचवा देती हैं। परिवार और दोस्त विचारों से सहमत न हों यह ‘पहले’ भी होता था लेकिन रिश्तों और दोस्ती के आड़े यह असहमति नही आती थी।
    बदलती चिंताजनक परिस्थितियों पर एक रचनाकार की गहरी सोच और सरोकार दिखाती एक बहुत अच्छी कहानी।

    आजकल लोग एक्सीडेंट कर के कई बार चाहते हुए भी नही रुकते क्योंकि लोगों के लिए ‘लिंचिंग’ अब बहुत आसान सा ,रोजमर्रा के खेल जैसा हो गया है।
    एक्सीडेंट वाला प्रसंग तार तार होती संवेदनाओं का झकझोरता हुआ चित्रण है।
    राहुल जी की कहानियों में गज़ब की दृश्यात्मकता है…लगता है आँखों के सामने कोई सही गति और जल्दी जल्दी बदलते दृश्यों वाली कोई पिक्चर चल रही है,जिसे दम साध कर देखते रहना है नही तो कुछ महत्वपूर्ण छूट जाने का डर है।

    एक बार फिर समय के प्रश्नों को सामने रखती एक बहुत अच्छी और जरूरी कहानी के लिए साधुवाद

    Reply
  11. Deepa Gupta says:
    2 weeks ago

    जैसे सबकुछ सामने चल रहा हो..संवेदनाओ का सजीव चित्रण

    Reply
  12. Dr Alka Prakash says:
    2 weeks ago

    आज के समय को रेखांकित करती अच्छी कहानी है।कालजयी सिद्ध होगी।

    Reply
  13. Atulesh Kumar Kulshrestha says:
    2 weeks ago

    एक कहानी जिसके प्रत्येक वाक्य में ज़िन्दगी दिख रही है मानो एक चलचित्र चल रहा हो

    Reply
  14. Kamlnand Jha says:
    2 weeks ago

    राहुल श्रीवास्तव की कहानी ‘टर्मिनल-1’ आज के माहौल की भयावहता का यथार्थ अंकन है। कहानी में यथार्थ निपट नग्न होकर आया है। रेखांकित करनेवाली बात यह कि कहानी की सर्जनात्मकता अक्षुण्ण। कथाकार कहानी बुनने और संवाद सिरजने की कला में दक्ष हैं। राहुल श्रीवास्तव जी को सरोकार सम्पन्न और बेहतरीन कहानी लिखने के लिए बहुत-बहुत बधाई और अरुण देव जी को इतनी अच्छी कहानी पाठकों तक पहुंचाने के लिए साधुवाद।

    Reply
  15. md arif says:
    2 weeks ago

    achhi kahani….shaandar visuals.story of the moment!

    Reply
  16. Anonymous says:
    2 weeks ago

    …sarpat dhaudati kahani, sab kuchh batate chali, aur apni flight pakad li…Bahut achchhi lagi… dhanyawad

    Reply
  17. Mukesh Chitravanshi says:
    2 weeks ago

    बाबू आज आपकी कहानी पूरी पढ़ी।

    हमेशा की तरह लाजवाब और झकझोर देने वाली।

    अपार संभावनाएं हैं आपमें,,, अपने आप में पूरा का पूरा समर्थ पैकेज हैं आप।

    अनंत शुभकामनाएं और हज़ारों आशीर्वाद।

    हम सब को आप पर गर्व है।

    🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

    Reply
  18. Nimish Gour says:
    2 weeks ago

    इस कहानी को पढ़ कर कुछ देर तक तो सुन्न हो गया | ऐसा लगा कि जैसे इसके हर चरित्र को मैं जानता हूँ | इन चरित्रों की भांति हम भी अपनी कायरता के आंगन में बैठे हमेशा भगत सिंह होने का दम भरते रहते हैं , लेकिन जब सच में बहादुरी दिखाने का वक़्त आता है तो घिग्गी बंद जाती है |
    और आज के नफ़रतपूर्ण माहौल में मित्रता और सूझबूझ की जिस तरह बलि चढ़ रही है, उसका बेहद सटीक चित्रण ये कहानी करती है |

    इस प्रयास के लिए लेखक का साधुवाद और दिली इस्तेक़बाल |

    Reply
  19. Anonymous says:
    2 weeks ago

    अच्छी प्रस्तुति अनुभव को लेखन में डालना ही कला है।

    Reply
  20. Anonymous says:
    2 weeks ago

    राहुल की लेखनी की सुन्दर बात है ये हैं की पढ़ते पढ़ते कब वो शब्द तस्वीरें बन जाती हैं मालूम ही नहीं पड़ता सब पात्र जिवंत हो यहीं कहीं होंगे ऐसे जान पड़ता है।

    वो काल्पनिक है वो अपवाद की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं की क्या पता ऐसा हुआ हो क्या पता किसी की सच्ची घटना राहुल ने अपने शब्दों में रच डाली हो !

    राहुल आपको पुनः अनेको शुभकामनायें !!!

    Reply
  21. Rohit Karidhal says:
    2 weeks ago

    Zabardast Rahul, padh ke maza aa gaya, bahut sateek chitran kiya hai tumne purane dosto se milne pe hone wala anubhav ka, many congrats on writing such a lovely and heart touching story.

    Reply
  22. Gaurav Srivastava says:
    2 weeks ago

    बहुत ही सुंदर कहानी जो आज कल कर परिप्रेक्ष्य से बिल्कुल मेल खाती हुई और सच बिलकुल सच कहती हुई कहानी।।।👍👍

    Reply
    • Bhaskar says:
      2 weeks ago

      बदलते समय के साथ इस क़दर ज़िन्दगी के मानी बदल गए हैं कि बचपन में जो बात कहते हम सब डरते थें या जिसे कहने में भी लोगों को संकोच होता था, वो आज का सत्य बनकर हमारे सामने खड़ा है। समाज मे प्रेम से ज़्यादा खिन्नता हावी है, जिनके कारण खोजने से आसान है किसी एक पक्ष का चुनाव, ‘हम बनाम वो’ की बाइनरी। और अंततः पलायनवाद का रास्ता ही ठीक लगने लगता है।
      आपको बहुत बधाई!

      Reply
  23. Rao Munishwer says:
    2 weeks ago

    राहुल की लेखनी की सुन्दर बात है ये हैं की पढ़ते पढ़ते कब वो शब्द तस्वीरें बन जाती हैं मालूम ही नहीं पड़ता सब पात्र जिवंत हो यहीं कहीं होंगे ऐसे जान पड़ता है।

    वो काल्पनिक है वो अपवाद की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं की क्या पता ऐसा हुआ हो क्या पता किसी की सच्ची घटना राहुल ने अपने शब्दों में रच डाली हो !

    राहुल आपको पुनः अनेको शुभकामनायें !!!

    Reply
  24. अनंत says:
    2 weeks ago

    बहुत ही सुंदर कहानी लिखने के लिए लेखक राहुल श्रीवास्तव को बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ।

    Reply
  25. Rizwan Siddiqui says:
    2 weeks ago

    ये कहानी पढते पढते माथे पे कुछ लकीरे उभर आई
    ज़रूर राहुल किसी रोज इन लकीरों से भी कोई कहानी लिख डालेगे… इस खत (kahani) का मजमून मुझ से वबस्ता है बस पता किसी और का लिखा है इसमे… और मुझे लगता है इसको पढ़ने वाला हर शक्स शायद यही कहना चाहे

    Reply
  26. Shri Krishna says:
    2 weeks ago

    सुंदर कहानी ! बहुत बहुत शुभकामनाएं

    Reply
  27. पंकज मिश्र says:
    2 weeks ago

    मैने राहुल की बहुतसी कहानियां पड़ी है हर एक कहानी यथार्थ का बोध कराती हैं मानी वो सब कही न कही अपनी कहानी है

    Reply
  28. Yuvraj सिंह says:
    2 weeks ago

    बहुत सुंदर 🙏🥰

    Reply
  29. सुजीत अस्थाना says:
    2 weeks ago

    बहुत कम शब्दों में बहुत अच्छी बात कह दी आप ने

    Reply
  30. Alokk Nair says:
    2 weeks ago

    ये कहानी आपको अपने अतीत की सैर तो कराती ही है साथ ही वर्तमान समय से साक्षात्कार भी….बहुत बधाई राहुल भाई को… ऐसे ही रचते रहें…👍

    Reply
  31. MANISH KUMAR SRIVASTAVA says:
    2 weeks ago

    कहानी की जगह घटनाक्रम का वर्णन ज्यादा है, रोचक है, लेखन चित्रात्मक है, घटनाक्रम आँखों के सामने चलने लगता है।अंत तक पढ़ने की इच्छा बनी रहती है ।

    Reply
  32. अतुल चतुर्वेदी says:
    2 weeks ago

    कहानी पढ़ी
    बहुत अच्छा लिखा है,लीक से हटकर👍

    Reply
  33. Bhaskar says:
    1 week ago

    बदलते समय के साथ इस क़दर ज़िन्दगी के मानी बदल गए हैं कि बचपन में जो बात कहते हम सब डरते थें या जिसे कहने में भी लोगों को संकोच होता था, वो आज का सत्य बनकर हमारे सामने खड़ा है। समाज मे प्रेम से ज़्यादा खिन्नता हावी है, जिनके कारण खोजने से आसान है किसी एक पक्ष का चुनाव, ‘हम बनाम वो’ की बाइनरी। और अंततः पलायनवाद का रास्ता ही ठीक लगने लगता है।
    बहुत बधाई आपको…

    Reply
  34. Anuj Singh says:
    1 week ago

    Aisa laga sb aankhon ke saamne ghattit ho raha hai aur Mai jyadatar characters ko jaanta hu. Ek flow mei chalti hui yaadon ko saheje aur yaadon evem Vartmaan paristhitiyon ke aapsi antardwand ko acche se ukerti hui kahani. Shubhkamnayen Rahul ❤

    Reply
  35. Dr. Manu Bhatt says:
    1 week ago

    वर्तमान सामाजिक ताने बाने से अभिसिंचित कहानी।शानदार कहानी और कहानीकार भी। मेरा दोस्त जो ठहरा। लगे रहो दोस्त

    Reply

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