पुत्री का प्रेमी : सामर्थ्य और सीमा |
ओमा शर्मा की कहानियों की संश्लिष्टता मुझे हमेशा से खींचती रही है. उनकी कहानी ‘दुश्मन मेमना’ का मैं वर्षों से मुरीद हूँ. इन दिनों उनकी नई कहानी ‘पुत्री का प्रेमी’, जो बहुत हद तक ‘दुश्मन मेमना’ का अगला हिस्सा या विस्तार है, ने पाठकों को खूब उद्वेलित किया हुआ है. इस कहानी और इस पर आई प्रतिक्रियाओं को पढ़ना कथा पाठ की भिन्न प्रविधियों को विश्लेषित करनेवाली किसी कार्यशाला का हिस्सा होने जैसा ही है.
कहानी पर आई प्रतिक्रियाओं से गुजरते हुए मन में यह प्रश्न भी उठा कि क्या हम किसी कहानी का ‘अपना’ पाठ प्रस्तुत करते हुए उस पर अपने पूर्व निर्धारित निर्णयों को ही तो आरोपित नहीं कर रहे होते हैं? कहानी में निहित अंतर्ध्वनियों की अनसुनी कर सिर्फ अपने मतलब की पंक्तियों और कंडिकाओं (स्वतंत्र पद) के आधार पर कहानी का ‘अपना’ हासिल स्थापित करने के क्रम में किसी पाठक या समीक्षक का न्यायाधीश हो जाना क्या उसी का परिणाम नहीं है?
पाठक की बौद्धिक तैयारी, समझ और संवेदनात्मक सामर्थ्य का उसके पाठ की निर्मिति में योगदान होना एक बात है, पर उस पूर्व अर्जित समझ की गठरी को पीठ पर लेकर कहानी में प्रवेश करना एक दूसरी बात. इस दूसरी बात का जोखिम यह होता है कि कई बार कहानी के कुछ जरूरी सूत्र कहानी में मौजूद होने के बाद भी पाठक या समीक्षक के हाथ से छूट जाते हैं. इस कहानी के विभिन्न पाठों से गुजरते हुए कमोबेश सबका राघव तक आकर रुक जाना और लगभग यह मान लेना कि इसमें इशिका का पक्ष सिरे से गायब है, के पीछे भी कथा पाठ की उस दूसरी प्रविधि का ही हाथ है. हाँ, इस मामले में कहानी के शीर्षक ‘पुत्री का प्रेमी’ की भूमिका भी कम नहीं, जिसके लिए लेखक को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है. पाठकों के मन में उत्सुकता पैदा करना किसी कहानी के शीर्षक का एक बड़ा उद्देश्य होता है; इस दृष्टि से यह एक सफल शीर्षक है. पर जिस तरह यह शीर्षक अधिकांश पाठों की चौहद्दी भी निर्धारित कर दे रहा है, वह इसकी बड़ी सीमा होकर रहा गया है.
इस कहानी पर चल रही बहस में अबतक समय, पितृसत्ता, जेनरेशन गैप, हाथी का रूपक, पुत्री के प्रेमी के साथ एक पिता का दोस्ताना रिश्ता, अनकहे-कहे की उपस्थिति आदि की बात हो चुकी है. कमोबेश ये सारी बातें इस कहानी में हैं भी, कुछ बातें तो हिन्दी कहानी में लगभग पहली ही बार. लेकिन मेरी दृष्टि में इस कहानी की केन्द्रीय चिंता का विषय संवादहीनता और संप्रेषणीयता का संकट है. कहानी का कथ्य और इसके भिन्न पाठों के बावजूद कुछ छूट गई अर्थ-ध्वनियाँ भी बहुत हद तक इसी बात की तरफ संकेत करती हैं. इस बात को भी समझे जाने की जरूरत है कि इशिका और राघव के अलगाव के अज्ञात कारणों के प्रश्न से शुरू हुई कहानी में वर्णित प्रसंग जो कई बार लगभग असंबद्ध से दिखते हैं, का क्या अर्थ है? लगभग यह मान लिया गया है कि इशिका और राघव के अलगाव के कारण की तरफ कहानी कोई संकेत नहीं करती. क्या ऐसा सचमुच है?
कहानी के पहले ही दृश्य में आए राघव के संवाद “आँटी, आइ ट्राइड. बट फेल्ड… सो एडामेंट… गॉड.” में उपस्थित ‘सो एडामेंट’ के आधार पर कुछ लोग इस कहानी पर लैंगिक पूर्वग्रह के आरोप भी लगा रहे हैं. कहानी के कुछ संवाद ऐसे हैं भी, जो पात्र विशेष के लैंगिक पूर्वग्रह को प्रकट करते हैं. लेकिन किसी चरित्र के लैंगिक पूर्वग्रह को कहानी या कहानीकार का पूर्वग्रह मान लेना भी कहाँ तक उचित है? यह टिप्पणी इन्हीं कुछ प्रश्नों के संधान का लघु प्रयास है.
‘इशिका और राघव के अलगाव के कारण की तरफ कहानी कोई संकेत नहीं करती’ के निष्कर्ष पर सोचते हुए मुझे कहानी के एक अंश की स्मृति हो आती है. इशिका और उसकी माँ के बीच चल रहे संवाद का वह हिस्सा गौर से पढ़ा जाना चाहिए–
“कितना क्यूट है ना राघव!
हाँ. है तो.
आपने उसकी आइलैसिस देखीं?
हम्म, थोड़ी-बहुत.
कितनी चार्मिंग हैं ना… कर्ली-कर्ली.
लेकिन इंसान होना ज्यादा मायने रखता है.
इंसान का तो मैं आपको क्या बताऊं… ही इज सो कूल, सो डिफरेंट…
लेकिन तुम्हें प्यार करता है?
बहुत.
और तुम ?
ऑफ कोर्स ममा. लेकिन थोड़ी कंफ्यूज्ड हूँ, इसलिए आप से पूछ रही हूँ.
पापा से भी पूछ लेना.
पापा तो मना करने वाले हैं ही नहीं. उन्हें तो वह अच्छा लगता है. दोनों खूब बातें करते हैं. अपने बिजनेस का मुझसे ज्यादा उसने पापा को बता रखा होगा.
तुमने पूछा था?
सीधे नहीं, लेकिन बातों-बातों में.
लेकिन मेरी या पापा की राय से ज्यादा इम्पॉर्टेंट तुम्हारी अपनी राय है.
मम्मा, मुझे वह अच्छा लगता है. केयरिंग है मगर…
मगर क्या?
डर लगता है.
किस बात का?
ज्यादातर लड़के झूठ बोलते हैं, प्रिटेन्ड बहुत करते हैं आई मीन….”
राघव से संबंध विच्छेद के इशिका के निर्णय को समझने के सूत्र ऊपर उद्धृत अंश में मौजूद हैं. राघव के साथ प्रेम में है इशिका, लेकिन उसका एक ही डर है कि कहीं वह भी अन्य लड़कों की तरह झूठा तो नहीं निकलेगा. कहानी में इस स्पष्ट संकेत को देखते हुए यह क्यों नहीं माना जाय कि संबंध विच्छेद का निर्णय इशिका ने राघव के किसी झूठ के सामने आने के कारण ही लिया है? और कहानी का एक बड़ा हिस्सा उसके उसी झूठ को बेपरदा करने की रचनात्मक युक्ति है. इशिका यदि अपने लिए एक ऐसे पुरुष की कामना करती है, जो उसका ध्यान रखे और सच्चा हो, तो इसमें क्या गलत है? त्रासदी यह है कि इशिका के इस डर की याद उसकी माँ को भी नहीं आती. पिता तो उससे भी एक कदम आगे राघव की कहानी में स्वयं का अतीत थाहते हुए उससे इतना एकाकार हो चुका है कि बिना अपनी बेटी का पक्ष जाने या बेटी के ऊपर वर्णित डर का संज्ञान लिए यह सोच लेता है कि इशिका ने एकतरफा ढंग से राघव को निकाल फेंका है. यह कहानी की कमजोरी नहीं, बल्कि दो पीढ़ी के बीच संवाद और सम्प्रेषण के अभाव में उत्पन्न विडंबनाएं हैं, जिसे कहानी बिना किसी शोर के प्रकट करती है.
इशिका के पिता से मिलकर राघव अपने करियर निर्माण की करुण कहानी साझा करता है, जिसके आधार पर पाठक उसे इशिका की तुलना में ज्यादा संवेदनशील और भावुक करार दे रहे हैं. इशिका के पिता की उसके प्रति सहानुभूति और कहानी का अंत भी ऐसा ही संकेत देते दिखते हैं. इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि राघव और इशिका का संबंध लगभग डेढ़ वर्ष पुराना है और इशिका के पिता और राघव के बीच लगभग दोस्ताना साझेदारी का रिश्ता है. राघव ने विस्तार से अपने रीमिक्स मटेरियल के कारोबार के बारे में भी उसे बताया हुआ है. संबंध विच्छेद के बाद की मुलाकात में जिस क्रमबद्ध तरीके से वह अपनी सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि और वस्तुस्थिति के बारे में इशिका के पिता को बताता है, उससे यह स्पष्ट है कि उनेक बीच इस बारे में पहली बार यह बात हो रही है. जाहिर है इशिका को भी इसका पता नहीं रहा होगा, बहुत संभव है कि राघवप्रदत्त अबतक की जानकारी के आधार पर वह उसे रीमिक्स मटेरियल का कोई बड़ा कारोबारी ही समझती हो. शायद यही कारण है कि राघव, इशिका के आगे खुल चुके अपने झूठ से हुई हानि की भरपाई के लिये उसके पिता से अपने बनने की कहानी सुना रहा हो.
कहानी के पहले दृश्य में वर्णित उसकी देहभाषा ‘उसकी आँखें सामने नहीं, कहीं भीतर देख रही हैं’ को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है. सामने के बजाय भीतर देखने में भी आरोप नहीं, आत्मस्वीकार का ही भाव निहित है. इस दृष्टि से देखें तो अबतक कहानी के मूल प्रसंग से असंबद्ध दिखती सी बातें अर्थवान हो उठती हैं. इसलिए कहानी की दिक्कत यह नहीं है कि इसमें इशिका का पक्ष उद्घाटित नहीं हुआ है, या कहानीकार ने उसे अपना पक्ष रखेने का मौका नहीं दिया है, बल्कि कहानी की दिक्कत यह है कि वह एक ऐसे मोड़ पर खत्म होती है, जहाँ इशिका के पिता का मन्तव्य ही कहानी के मन्तव्य की तरह गोचर हो उठता है.
एकाध अपवाद को छोड़ दें तो लगभग सब ने कहानी के अंत में इंगित हाथी के रूपक की मुक्तकंठ से तारीफ की है. लेकिन इस बात पर किसी ने विचार नहीं किया है कि यह रूपक कितना और किस हद तक सध सका है. रूपक और प्रतीक जबतक संपूर्णता में अपने अर्थ को अभिव्यंजित नहीं करें, किसी रचना में उनके उपयोग का औचित्य मुझे नहीं समझ आता. इसलिए कहानी के अंतिम दो वाक्यों पर ठहर कर विचार किया जाना जरूरी है-
“कुछ देर वहीं रिक्त बैठे पता नहीं क्यों मुझे उसके बताए समर प्रोजेक्ट के किस्से का गड्ढे में गिरा वह बेबस हाथी कौंध उठा.
इसे किसने गिराया?”
उपर्युक्त पंक्तियों में संकेतित गड्ढे में गिरे बेबस हाथी में लोगों को निराश, जर्जर, बेरौनक और आँसू पोंछते राघव की छवि दिख रही है. और ‘इसे किसने गिराया’ के उत्तर में कोई इशिका का चेहरा देख रहा है तो किसी को नवउदारवाद और उत्तर आधुनिकता से पोषित समय की दुरभिसंधियाँ दिखाई पड़ रही हैं. इस प्रतीक योजना को डिकोड करने की मैंने कई बार कोशिश की. लेकिन इस प्रक्रिया में हर बार कुछ और उलझ गया. मेरी दृष्टि में हाथी के रूपक को समझने के लिए सिर्फ ये दो पंक्तियाँ पर्याप्त नहीं हैं. इसे ठीक-ठीक समझने के लिए कहानी के मध्य में वर्णित हाथी प्रसंग को पूर्णता में देखना चाहिए-
“गाँव के लोग हाथियों से परेशान थे क्योंकि हाथियों का झुंड जब-तब उनकी खड़ी फसल को नष्ट कर डालता. वे फितरतन आधा खाते, आधा रोंदते. पुलिस को शिकायत की तो पुलिस वाले सुनकर हंसते: कायदे-कानून सभ्यों के लिए है; जो जंगली है उसके लिए नहीं. इससे बचाव के लिए गाँव वालों ने अपना ही रास्ता निकाला- घात लगाने का. जंगल के जिस ओर से हाथी खेतों की तरफ आते, वहीं उन्होंने एक-दो बड़े गड्ढे खोद दिए और उन्हें बांस के सहारे घास से यूं ढँक दिया कि किसी को– या कम से कम हाथियों को- यह न लगे कि नीचे गड्ढा खोद रखा है. दो रोज पहले ऐसे ही एक गड्ढे में एक जबरिया हाथी गिर पड़ा था.”
उपर्युक्त प्रसंग के आलोक में, यदि कुछ देर के लिए राघव को ही हाथी मान लें, जैसा कहा-समझा जा रहा है, तो यह प्रश्न सहज ही उठता है कि उससे किसके हितों की हानि हो रही थी? जाहिर है जिसके हितों की हानि हुई होगी उसी ने वह गड्ढा खोदा होगा जिसमें वह गिर गया. क्या राघव को असभ्य कहा जा सकता है? क्या कहानी इन प्रश्नों का कोई माकूल उत्तर देती है? यदि नहीं तो फिर यह रूपक कामयाब कैसे हुआ? क्या हाथी प्रसंग के बाकी हिस्सों को छोड़कर, सिर्फ अंतिम दृश्य, जिसमें बेबस हाथी की करुण पुकार किसी ने नहीं सुनी और वह मर गया, के आधार पर ही इस रूपक को पूर्ण और प्रभावी मान लेना चाहिए? यदि हाँ, तो क्या इस कहानी में सिर्फ राघव ही बेबस है?
इशिका, जिसने कई बार की असफलताओं के बावजूद अपने जीवन में नए सिरे से निर्णय लिया और अपने उस संभावित साथी का झूठ उजागर होने के बाद एक बार फिर से अकेली हो गई, जो अपनी तकलीफ किसी से कह भी नहीं पा रही, कुछ स्पष्ट संकेतों के बावजूद जिसकी तकलीफ के कारणों तक उसके माँ-बाप भी नहीं पहुँच पा रहे और पिता मन ही मन उसे ही दोषी समझ रहा है, क्या उसकी बेबसी राघव की बेबसी से ज्यादा घनी नहीं है? 31 वर्ष की बेटी के माता-पिता जो पीढ़ी अंतराल के बीच संतान के साथ तुक तान न बिठा पाने के कारण पिछले पंद्रह-बीस वर्षों की जद्दोजहद (जिन्होंने ‘दुश्मन मेमना’ पढ़ा है, वे इसे बेहतर समझ सकते हैं) के बाद अपने ही संतान के जीवन के प्रति लगभग शिलाभाव तटस्थता को प्राप्त हो चुके हों, उनकी बेबसी को किन अर्थों में कम आँका जा सकता है?
क्या इस कहानी के चारों मुख्य पात्र अपने-अपने दायरों में बेबस होकर एक दूसरे को समझने-समझाने में असमर्थ नहीं हैं? इशिका के पिता और राघव को यह बात समझ में नहीं आई, यह बात समझी जा सकती है. लेकिन मेरी शिकायत कहानीकार से है कि उसने इसे क्यों नहीं समझा? कहानी के अंत में आरोपित रूपक भाव, जो मेरी दृष्टि में कथा-स्थिति को ठीक-ठीक व्यंजित नहीं करता है और जिसके कारण इशिका के पिता के मन्तव्य को ही कहानी का मन्तव्य समझे जाने का भ्रम हो रहा है, इसी का नतीजा है.
दो छोटी-छोटी बातें और-
हालांकि इस बात से कहानी की सेहत पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, लेकिन राघव के हवाले से कहानी में मारवाड़ी समाज में शिक्षा की स्थिति का जो चित्र खींचा गया है, वह भी तथ्यपरक न होकर मारवाड़ी समाज के प्रति सामान्य परसेप्शन पर आधारित है.
कहानी में दो जगह (एक बार पहले ही दृश्य में ‘कुछ देर बाद मैंने उठकर उनके पास जाने की कोशिश की’ और दूसरी बार ‘मेन डोर की चाबी उनके पास भी रहती है’ वाले प्रसंग में) ‘उनके’ का प्रयोग कुछ अलग तरह के तकनीकी प्रश्नों को जन्म दे सकता है. मैं उसे प्रूफ या सम्पादन की अशुद्धि मानते हुए यहीं छोड़ना चाहता हूँ.
मेरे इस ‘किन्तु-परंतुवादी पाठ’ का यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि यह एक कमजोर या अनबनी कहानी है. दो पीढ़ियों के मध्य संवादहीनता और संप्रेषणीयता के संकट के बीच हर चरित्र की बेबसी को यह कहानी जिस खामोशी के साथ बिना किसी शब्द स्फीति के वस्तु और शिल्प की अभिन्नता के रूप में अभिव्यक्त करती है, वह इसे हमारे समय की प्रतिनिधि कहानी के रूप में रेखांकित करता है.
पीढ़ी अंतराल के कारण उत्पन्न स्थितियों की समीक्षा करते हुए कई बार पाठक और समीक्षक खुद ही पीढ़ी अंतराल की उसी समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं. नई पीढ़ी के विचलन, अधैर्य और भौतिकतावादी रुझान के नाम पर इशिका के प्रति कुछ पाठकों और समीक्षकों के जजमेंटल व्यवहार को मैं इसी दृष्टि से देखता हूँ. निजी स्पेस का दावा, निर्णय की स्वतंत्रता और प्रतिकूल परिणामों की स्थिति में स्वयं को समाज-परिवार से काटकर अलग कर लेने के व्यवहार को और गहराई से समझे जाने की जरूरत है. इसके लिए मूल्य निर्णय देने की हड़बड़ी से तो बचना ही होगा, चरित्र, कहानी और कहानीकार के मंतव्यों के अंतर को समझने की सलाहियत भी अर्जित करनी होगी.
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राकेश बिहारी प्रकाशन : वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह) केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी (कथालोचना), सम्पादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन),‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’, बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित ‘अर्य संदेश’ का विशेषांक, ‘अकार- 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर |
Vishad vivechan.
Kahanikar aur vivechak ko bahut badhai!
ओमा और राकेश जी दोनों के साथ-साथ अरुण देव को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!
कहानी की कहानी अधिक सूक्ष्म व सटीक है।
विवेचना में उठाए गए प्रश्न मेरे अपने प्रश्न से मेल खा रहे हैं।
बावजूद स्त्री पाठ के कई पक्ष शेष हैं।
Rakesh Bihari राकेश जी का विश्लेषण हिंदी कथा-आलोचना और ख़ासकर व्यावहारिक समीक्षा का नया प्रतिमान पेश करता है.इस विश्लेषण को पढ़ने के बाद फिर से कहानी पढ़ने की इच्छा हुई और यह आलोचना की ताकत का सबूत है जो पाठक को रचना की ओर उन्मुख करने में समर्थ है.
मेरा ख़्याल है कि इशिका के प्रेमी /पति राघव का व्यापार में असफल हो जाना भी दोनों के बीच अलगाव का एक कारण हो सकता है. आम तौर पर जीवन में असफल स्त्री -पुरुष में उसके तथाकथित जीवन -साथी को गुण भी कलांतर में दोष नज़र आने लगते हैं.
यह ओमा शर्मा जी की एक शानदार कहानी है । आपके की प्रश्न सार्थक व सटीक हैं । जिनका आपने बहुत बारीकी से विश्लेषण किया है । ये कहानी की ताकत है और समीक्षा की भी । कुल मिला कर हम पाठकों की तर्क और भाव नदी की बहुत सुंदर यात्रा रही । सामलोचन और अरुण देव जी का आभार इस कहानी को उपलबद्ध कराने के लिए
आज फिर आपकी वैचारिकी और तार्किकता पढ़कर अच्छा लगा। आपके द्वारा उठाए गए प्रश्न कहानीकार से ज्यादा उन टिप्पणीकारों के लिए समझना जरूरी है, जो आधी रोटी पर दाल लेकर दौड़ पड़ते हैं। कहानी की व्याख्या कहानी में निहित दृश्य परिदृश्यों के मुताबिक ही होनी चाहिए, न कि अपनी ओर से जोड़ तोड़कर। प्रतीकों में कही गई बात भी कथ्य के अनुसार संज्ञान में ली जाए या ली जाती है। हर एक रचना की अंदरूनी और बाह्य दोनों धाराओं में कथ्य और किरदारों के लिए ध्वनि बुने गए प्रतीकों में व्यंजित होनी चाहिए। ओमा जी की कहानी पर आपकी विवेचना तर्कसंगत है, इसे पढ़ने वालों को रुककर समझना होगा।
खूब बधाई
ओमा शर्मा की यह कहानी निःसंदेह एक महत्वपूर्ण कहानी है, यह समीक्षा भी बेहद सारगर्भित और कहानी के पाठ को बहुआयामी बना देती है। कहानी पढ़कर अनगिनत सवाल उठते हैं, उसमें से कई के जवाब यहाँ उचित ही मिल जाते हैं, लेकिन उससे अधिक सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं। अब यह कहानी की सामर्थ्य ही है कि इस पर इतनी बहस हो रही है। जब तक इस कहानी का ‘स्त्री पाठ’ विश्लेषित नहीं हो जाता तब तक यह कहानी भी स्वयं अधूरी ही रहेगी। शीर्षक से ही यह आभास मिल जाता है कि कहानी किसके बारे में है। यहाँ पुत्री का प्रेमी केंद्र में है। पुत्री के माँ-बाप का झुकाव प्रेमी की तरफ़ है, यह भी स्पष्ट है। ज़ाहिर है कि कहानीकार ने भी प्रेमी के चरित्र को गढ़ने में अपनी ऊर्जा लगायी है, इसीलिए कहानी का अंत ऐसी जगह होता है जहां पाठक की सहानुभूति प्रेमी के पक्ष में बैठ जाती है। कहानी में कुल चार पात्र हैं, ऐसा लगता है कि तीन( प्रेमी, पुत्री की माँ और पिता) एक तरफ़ हैं और एक तरफ़ एक अकेली पुत्री। ऐसे में यदि यह मुग़ालता हो भी जाए कि लेखक भी पुत्री के विपक्ष में है खड़ा है, तो ग़लत नहीं होगा। पता नहीं क्यों मुझे मोहन राकेश का नाटक ‘आधे अधूरे’ की याद आ रही है। इतने अन्तराल कि बाद भी क्या बदल गया। प्रेम अथवा मित्रता की तलाश में निकली स्त्री के सामने तब भी अनगिनत दुश्वारियाँ थीं और आज भी हैं। यहाँ भी लड़की ने कई प्रेमी बदल लिए लेकिन उसे हमेशा प्रेम के बदले झूठ और फ़रेब ही मिला। वह एक बार फिर छली गई। इस बार तो माँ-बाप भी लड़के को इतना पसंद करने लगते हैं कि उन्हें अपनी ही बेटी क़सूरवार नज़र आने लगती है।
इन सबके बावजूद इस कहानी का एक संदेश यह भी है कि लड़कियों को ऐसा ही होना चाहिए। इशिका को कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता कि राघव अब उसकी ज़िंदगी से निकल गया है। ब्रेकअप के बाद वह अपने जीवन के ढर्रे में कोई परिवर्तन नहीं होने देती। वह आगे बढ़ चुकी है। वह मानसिक रूप से सुदृढ़ है। उसे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण है। वह रोती-बिलखती नहीं है। इसलिए पाठक को यह नागवार गुजरता है कि कैसी लड़की है। वह अपनी कलाई नहीं काटती, वह फाँसी नहीं लगाती, वह ज़हर नहीं खाती, जैसा हमें देखने और सुनने की आदत है। उसके चरित्र की दृढ़ता देखिए कि वह किसी को ब्लेम भी नहीं करती। इशिका की नज़र से भी यह कहानी पढ़ी जानी चाहिए। मैं ओमा शर्मा को इशिका जैसी पात्र रचना के लिए बधाई देना चाहूँगा।