रामचरितमानस का बालकाण्डएक प्रेम कथा
प्रवीण कुमार |
साहित्य की परिभाषा देते हुए संस्कृत के आचार्य कुंतक ने एक रोचक बात कही कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुन्दरता के लिए स्पर्धा या होड़ लग जाती है तब साहित्य की सृष्टि होने लगती है. सुन्दरता के इस दौड़ में शब्द अर्थ से आगे निकलने की कोशिश करता है और अर्थ शब्द से. ऐसे में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कौन अधिक सुन्दर है. साहित्य ठीक यहीं आकर आकार लेता है. यह सुन्दरता का संतुलन है.
भाव और भाषा को साधते हुए चलने में एक और रोचक और रचनात्मक तनाव है और वह है कि भाषाएँ बदलती रहती हैं, बदलाव के साथ वह कई तरह की नई और पुरानी (भी) मान्यताएँ स्थिर करने की कोशिश करती हैं, पर भाव तो शाश्वत ही होते हैं. कुछ भाव इतने शाश्वत शक्तिशाली होते हैं जिनको रचना-प्रक्रिया में भाषाई पूर्वाग्रहों के साथ बहुत नहीं पचाया जा सकता. भावों की विशेषता यह है कि वे अपने आदिम गठन में आधे से अधिक अपरिवर्तित होते हैं, ‘शेष’ हिस्से में युग–युगांतर के रचनाकार और दार्शनिक भले ही फेरबदल करते रहे हों. भावों की शाश्वतता के बावजूद इस शेष फेरबदल (विजन) के हिस्से में, लेखक शब्द और अर्थ की सुन्दरता की प्रतियोगिता में किसे ज्यादा छूट देता है, वही चीज उस लेखक को अमर या नश्वर बनाती है. हालाँकि अमरता और नश्वरता की कसौटियाँ कई अर्थों में युग सापेक्ष ही होती हैं. आधुनिक समय में यह लेखकीय कसौटी अब मानवीय संवेदना की पक्षधरता और लोकतांत्रिक चेतना के उद्विकास रूप में निर्विवाद ढ़ंग से निर्धारित है. उससे रगड़ खाकर ही कोई रचना कालजीवी या प्रासंगिक हो पाती है. संभवतः लेखक की ‘काव्य-सौन्दर्य’ की कुछ निजी अवधारणाएं इसी ‘शेष’ हिस्से में निर्मित होती हैं जिसको पहचानने या खोजने का काम आज की आलोचना करती है.
शब्द और अर्थ के बीच सौंदर्य-प्रतियोगिता (होड़) की दृष्टि से तुलसी और उनके ‘मानस’ को बहुत सारे किन्तु-परन्तु के बावजूद सराहा जाता रहा है. यह भी है कि उन सभी किन्तु-परन्तु का जन्म आधुनिक युग की आलोचना ने ही किया है. विमर्शों ने तो तुलसी और उनके ‘मानस’ से सबसे ताकतवर लोहा ले रखा है. आधुनिक आलोचना और विमर्श हर उस रचना और रचनाकार से टकराते हैं जहाँ जनपक्षधरता, अधिकार और लोकतान्त्रिक चेतना में कटौती के लक्षण दिखते हैं. यह भी दिलचस्प है कि तुलसी की प्रशंसा, समर्थन और विरोध सबकी वजहें जनपक्षधरता, अधिकार और लोकतान्त्रिक चेतना के संदर्भों में ही हुई हैं.
अपनी तमाम रचनात्मक उदात्तता के बावजूद तुलसीदास कई जगह लड़खड़ाए हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व पर कई जगह खरोंचे दिखती हैं. जाहिर है कि यह लड़खड़ाहट और खरोंचे उनके अपने समय-बोध की देन हैं जो एक सामंती-समाज में निर्मित हुआ था. उन ‘निर्मितियों’ की वजहें क्या रहीं , उनके मानक क्या थे, यह खोज आज की आलोचना अनवरत करती रही है. यहाँ विवेच्य संदर्भ प्रेम है जिसकी प्रकृति और ‘निर्मिति’ को समझने का एक छोटा-सा प्रयास किया गया है.
‘मानस’ के पुनर्पाठ में हम देखते हैं जिस तुलसी ने मर्यादापुरुषोत्तम राम को निखारने में अपनी सारी रचनात्मकता झोंक डाली, उस राम और सीता के भीतर एकदूसरे के लिए पलनेवाले प्रेम को लेकर मर्यादित तुलसी का रुख़ बेहद लड़खड़ाया हुआ है. यह बात कम से कम ‘बाल-काण्ड’ संदर्भ में तो कही ही जा सकती है. ‘बाल–काण्ड’ का एक दृश्य है, जहाँ पुष्प-वाटिका में राम पहली बार सीता को देखते हैं; तुलसी के मर्यादापुरुषोत्तम राम के कंठ पहली बार इसी दृश्य में सीता को लेकर फूटे हैं, राम ने लक्ष्मण से कहा –
“तात जनकतनया यह सोई| धनुषजग्य जेहि कारन होई ||
पूजन गौरी सखीं लै आईं | करत प्रकासु फिरत फुलवाई ||
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा | सहज पुनीत मोर मनु छोभा ||
सो सबु कारन जान बिधाता | फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ||
रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाऊ | मनु कुपंथ पगु धरई न काऊ ||
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी | जेहिं सपनेहुँ परनारी न हेरी ||”
(हे तात! यह वही जनक की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है. सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं. यह फुलवारी में प्रकाश करती हुई फिर रही है. जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है. वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें. किंतु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं. रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता. मुझे तो अपने मन का अत्यंत ही विश्वास है कि जिसने स्वप्न में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है.)
तुलसी के पास ‘राम’ शब्द मंत्र की तरह है जिसे वह बार-बार बुदबुदाते रहते हैं पर उनके राम के पास दो मंत्र हैं ‘तात’ और ‘जनकतनया’– लक्ष्मण और सीता. पूरा ‘मानस’ तुलसी राम के सहारे लिखते हैं और राम पूरे ‘मानस’ को लक्ष्मण और सीता के सहारे जीते हैं. ये शब्द मानस में छाये हुए हैं. राम का पूरा व्यक्तित्व अपहृत सीता को पाने में विकसित हुआ है, फुलवारी में भी लक्ष्मण राम के साथ-साथ हैं. मन की बात यहाँ राम भाई से ही कह सकते थे. जनक–वाटिका में राम सीता पर मुग्ध हो चुके हैं पर तुलसी का हस्तक्षेप देखिये ‘सो सब कारन जान बिधाता’. वे राम से सफाई तक दिलवा रहे हैं, ‘रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाऊ’, जबकि शब्द और अर्थ सुन्दरता की अपनी होड़ में चरम पर हैं. सीता प्रकाश फैलाते हुए फुलवारी में घूम रहीं हैं और राम जानकी को देखकर भीतर से इतने हिले हुए हैं कि उनका दाहिना अंग फड़क रहा है. राम का ‘मोर मनु छोभा’ कुछ और नहीं प्रेम है, जो झटके से पैदा हुआ है. तुलसी लाख लिखते रहें ‘प्रीति पुरातन लखे न कोई’ पर ‘पाठ’ में सौंदर्य की प्रतियोगिता इस अनचाहे हस्तक्षेप को रौंदते हुई अबाध है.
राम-जानकी विवाह के पीछे नियति, पूर्वग्रह, दैवीय आदेश रचना में उस तरह पुष्ट हो कर नहीं उभरते हैं जैसे कि सघन प्रेमानुभूति. प्रेम अपनी सारभौमिकता में प्रेम की तरह ही अभिव्यक्त होता है, उस पर चढ़ी काई की पहचान मुश्किल नहीं. यहाँ भी वह बिना कई के है. तुलसी लेप चढ़ाने की सफल कोशिश आद्यंत करते जा रहे हैं.
मिखाइल बाख्तिन ने अनचाहे लेखकीय हस्तक्षेप की निंदा और अंतर्विरोधी स्वरों के लोकतांत्रिकरण की प्रशंसा वाली बात हालांकि उपन्यासों के सन्दर्भ में कही थी, पर उपन्यासों को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा गया है, इस लिहाज से उपन्यास और महाकाव्य सहोदर हैं, आगे-पीछे. परस्पर विरोधी दृष्टियों पर बराबर बल डालने का आग्रह उस दौर के तुलसी से करना कुछ वांछनीय भी लग सकता है पर हम जानते हैं कि वह तुलसीदास से संभव नहीं. अंतर्विरोधी स्वरों को जगह देना आधुनिकता का आग्रह भले ही हो, पर यह भी एक सच्चाई है कि प्रेम एक ऐसा विषय है जो अपनी बुनियादी अवस्था से ही क्रान्तिकारी और लोकतांत्रिक होता है, यदि वह अपनी वास्तविक अनुभूति में रचना-प्रक्रिया में मौजूद है, तो वह किसी भी रचनाकार और युग की ‘मर्यादाओं’ का मोहताज नहीं, वह सामाजिक मान्यताओं से भी कुछ हद तक बेपरवाह होता है भले उसके सामने चाहे ‘मानस’ ही क्यों न हो !
तुलसी की लाख सावधानी के बावजूद प्रेम का बगावती रूप यहाँ छुप नहीं पाया है, तुलसी पूरे ‘बाल–काण्ड’ में मर्यादा की लाठी लेकर ‘प्रेम’ को लगातार घेरे जा रहे हैं जबकि उनके नायक और नायिका दोनों का ‘प्रेम’ तब की मान्यताओं और रूढ़ियों (सीमित अर्थों में ही सही) के कगार में दरारें डाल देते हैं, यह बोध कम से कम ‘बाल–काण्ड’ पर जरूर लागू होता है.
राम सीता की छवि निहार कर फुलवारी से लौट चुके हैं. लक्ष्मण को भी कह चुके हैं कि “मेरा अंग फड़क रहा है, लगता है कि विधाता कुछ चाहते हैं”. प्रेम राम को हुआ पर तुलसी दोष दे रहे हैं विधाता को. लौट कर आने के बाद अब रात हो गई है और
“प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा |
सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा ||
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं |
सिय बदन सम हिमकर नाहीं ||”
‘(उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चंद्रमा उदय हुआ. राम ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया. फिर मन में विचार किया कि यह चंद्रमा सीता के मुख के समान नहीं है.’
राम के भीतर सीता घुमड़ती रहती हैं, झटके से पैदा हुआ प्रेम अब गंभीर निर्णयों की ओर ले जाना चाहता है. प्रेम उत्साहित कर रहा है, प्रेम के लिए. अनायास अंतरंगता अपनी मूल प्रकृति में, चाहे वह जीवन हो या कविता, अस्थायी होती है. उसमें स्थायित्व प्रेम में पड़े इंसान के भीतरी भावों की आवृत्ति लाती है. अज्ञेय को याद करें,
‘तुम वो हँसी हो– जो न मेरे ओठ पर दिखे, मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है”, जैसे आधुनिक भावबोध की कविता तब के राम के “अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही, बैदेही मुख पटतर दीन्हे” खीझ में प्रकट हुए थे. राम द्वारा सीता-स्मरण की निरंतरता, उसमें पलता हुआ प्रेम शिव–धनुष ‘पिनाक’ को एजेंडे पर ले आता है, एक बाधा की तरह. जो कथा-क्रम में अयोध्या से चलने के समय कहीं भी एजेंडे पर नहीं था. एजेंडे पर तो था कि “निसिचरहीन करौं महीं, भुज उठाई पन कीन्ह”। पर सीता भी आ गईं.
एरिक फ्राम ने ‘आर्ट ऑफ़ लविंग’ में लिखा है
“अगर आप प्रेम को उत्साहित किए बगैर प्रेम करते हैं, या यूँ कहें कि अगर आपका प्रेम, प्रेम को पैदा नहीं करता; अगर प्रेम करने वाले व्यक्ति के रूप में और जीवन की अभिव्यक्ति के माध्यम से, आप अपने आप को ‘एक प्रेम किया जा सकने वाला व्यक्ति’ नहीं बना पाते– तो आपका प्रेम एक दुर्भाग्य है”.
धनुष-भंग भी यहाँ एक अभिव्यक्ति ही है, जो प्रेम को दुर्भाग्य (असफल) होने से बचाने की सर्वोत्तम प्रयास है. उसे पुरुषार्थ से नहीं प्रेमार्थ से जोड़कर देखने की जरूरत है, बस तुलसी इसे पुरुषार्थ की सीमा में ले आते हैं. फिर भी प्रेम की तीव्र अनुभूति में राम सामान्य प्रेमी की तरह विचलित नहीं होते, बल्कि विचलित होते-होते रह जाते हैं. राम को मर्यादित करने की तुलसी की साधना यहाँ सफल हो जाती है, पर सीता तुलसी के नियंत्रण से कई बार बाहर चली जाती हैं.
कहते हैं कि जिसे किसी चीज का ज्ञान नहीं है, वह किसी चीज से प्रेम भी नहीं कर सकता. जनक–वाटिका में सीता की एक सखी साहस बटोर कर सीता से कहती है कि “देवी-गौरा की पूजा बाद में कर लेना पहले उन दो सुन्दर राजकुमारों को देख लो”, फिर
“सकुचि सियँ तब नयन उघारे |
सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे ||
नख सिख देखि राम कै सोभा |
सुमिरि पिता मनु अति छोभा ||”
‘तब सीता ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खड़े) देखा. नख से शिखा तक राम की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया.
सीता को राम के नाख़ून से केश तक कोमलता का साक्षात्कार होता है. साथ में क्षोभ भी. यहाँ भी ‘छोभा’ है. राम में ‘मोर मनु छोभा’ मन के विचलन और अंगों के फड़कने के रूप में तुलसी पारलौकिकता को लक्ष्य कर कुछ शब्द गढ़ते हैं, पर उन शब्दों के अर्थ राम के भीतर प्रेम सहज मानवीय प्रेमानुभूति के रूप में खुलते हैं. लेकिन सीता का यह ‘क्षोभ’ उस राम को पाने में आने वाली बाधा ‘पिनाक’ को लेकर है, जिसे सीता ने पहली नजर में पसंद कर लिया है. ‘छोभा’ मध्ययुगीन काव्य–रूढ़ियों का एक हिस्सा है जो प्रेम की त्रासदी को ही रेखांकित करता है; व्यक्तिगत आज़ादी, निजता और निर्णय की स्वतंत्रता के विरुद्ध खड़ी संरचना के प्रति नफ़रत है यह क्षोभ. यह प्रश्न प्रकारांतर से स्त्री की आजादी से भी जुड़ा हुआ है. सीता के सामने चयन की गुंजाइश कम है, सामन्ती–समाज की स्त्री के सामने चयन है ही नहीं, पर प्रेम की पात्रता तो है ही. यह पात्रता ही समाज को लेकर क्षोभ के रूप में व्यक्त हुआ. सीता का क्षोभ पिता के अतार्किक धनुष–यज्ञ से है, पिनाक की गुरुता से है, एक राजा के पितृसत्तात्मक हठ से है, भयभीत सलाहकारों से है, प्रबुद्ध समाज की चुप्पी से है
“अहह तात दारुन हठ ठानी| समुझत नहीं कछु लाभ न हानी ||
सचिव सभय सिख देई न कोई| बुध समाज बड अनुचित होई ||”
‘अहो! पिता ने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं. मंत्री डर रहे हैं, इसलिए कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पंडितों की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है.’
जीवन का लाभ कहाँ है, यह सीता अब जान चुकी है, वह राम हैं. लब्ध हैं. जब तक जाना न था; था तक वह कथा में ‘साइलेंट’ हैं. कहीं कोई हलचल नहीं थी. लेकिन अब बात दूसरी है.
बेचैन सीता ‘भवानी’ को याद करती हैं, प्रार्थना के सिवाय उस दौर की लड़की कर ही क्या सकती थी ! चाहे वह राजकुमारी ही क्यों न हो? सीता की इस पूरी कसमसाहट से कई सामन्ती रूढ़ियाँ एक साथ टूटती हैं, प्रश्न खड़े करती हैं, जिसकी आवाज़ अब तक नहीं सुनी गई. जनक की दुलारी हैं सीता पर सीता का जीवन सशर्त है, उनके जीवन का निर्णय जनक-सभा में ही होना है. सच्चे अर्थ में प्रेम का प्रश्न या मनचाहे साथी के चुनाव की आज़ादी का प्रश्न इतिहास का एक दीर्घकालीन प्रश्न है.
‘तौ भगवानु सकल उर बासी, करिहि मोहि रघुबर के दासी’ में एक छटपटाती हुई लड़की है जिसे तुलसी समेत कुछ आलोचकों ने अलौकिक करके वर्णनातीत कर दिया या फिर महत्वहीन करार कर दिया.
‘लोचन जलु रह लोचन कोना, जैसे परम कृपन कर सोना’ में सदियों की स्त्रियों की सिसकियाँ और आँसू भरे हुए हैं. काव्य की भावभूमि में अलौकिकता के आरोपण से दर्द की मात्रा कम हुई दिखती है या छुपी हुई सी लगती है, पर वह अपने स्वरूप में वैसे ही है जैसा कि प्रेम होता है. प्रेम यदि अपने आप में ‘लक्ष्य’ है तो उस दाह का ‘समाधान’ प्रेमी के मिलने पर ही संभव है. मारक प्रेम यहाँ अंतिम अवस्था में है. तुलसी इस सहज प्रेम को जितना दबाते हैं, उसे लेकर डरे-डरे से लगते हैं कि मर्यादा न टूट जाए, प्रेम अपनी स्वभावगत संरचना की वजह से उतना ही उतरोत्तर पुष्ट होता चला जाता है.
क्षोभ यहाँ बग़ावत के हल्के अर्थ को लिए हुए है, यह अनुभूति चेतना और विचार के स्तर पर जैसे ही जगह बनाती है, बग़ावत हो जाता है, पहले गोत्र फिर जाति और अंततः धर्म का अतिक्रमण हो जाता है. प्रेम की आज़ादी का सवाल बदलती सामाजिक मानसिकता का भी सवाल है, उसके लेखकीय ‘ट्रीटमेंट’ से उदारता की सीमाओं का निर्धारण होता है. हालाँकि ‘रघुबर के दासी’ और ‘साथी’ का विमर्श अभी छूट ही रहा है जो एक और आधुनिक विमर्श की ओर ले जा सकता है. बहरहाल , तुलसी के यहाँ यह ‘प्रेम’ एक दी हुई स्थिति या ‘ढांचे’ के भीतर विन्यस्त करने की चेष्टा है, प्रेम का आवेग यहाँ भी उस ढाँचे होते हुए भी उसमें नहीं समाता. वह खिसकता रहता है. तुलसी उसके खिसकाव से परेशान हैं. इसलिए कुछ ज्यादा ही चौकन्ने हैं. कई अर्थों में मध्यकालीन साहित्य और समय इस भाव-तंतु का निर्वाहन नहीं कर सकते थे. इसका निर्वाह आधुनिकता को ही करना था. एरिक फ्राम ने प्रेम पर लिखते हुए कहा है कि
“प्रेम किसी एक व्यक्ति के साथ संबंधों का नाम नहीं है; यह एक दृष्टिकोण है, चारित्रिक रुझान है– जो व्यक्ति और दुनिया के संबंधों को अभिव्यक्त करता है, न कि प्रेम के सिर्फ एक ‘लक्ष्य’ के साथ उसके संबंधों को.”
‘बाल-काण्ड’ के जनक-वाटिका प्रसंग से लेकर धनुष–भंग तक का सारा काव्य ‘पाठ’ प्रेम–काण्ड है, उसमें अलौकिकता का आरोपण अनुभूति को सर के बल उलटे खड़े करने जैसा है जिसे बहुत बाद में चलकर आधुनिक कविता और साहित्य ने पैरों के बल सीधा खड़ा किया.
यहाँ अज्ञेय को फिर याद करें, उनके यहाँ आधुनिकता और आध्यात्मिकता के बीच भी एक पुल है, लेकिन शर्त जीवन ही है, मनुष्य है, और उसकी अनुभूति ही लक्ष्य है, न कि अध्यात्म. अज्ञेय का महत्व इसलिए भी है कि वह अध्यात्म की पुष्टि लौकिक प्रेम के मानदंड पर करते हैं, वह कहते हैं
“प्रेम का कोई भी स्तर मूल्यवान है, एक उन्मेष है, पर एक स्तर वह आता है, जहाँ दिख जाता है कि यह प्रेम तो इस और उस दो मानव इकाइयों के बीच नहीं, यह तो ईश्वर के एक अंश और ईश्वर के एक दूसरे अंश के बीच का आकर्षण है, जिसकी ये दो मानव इकाइयाँ मानो साक्षी भर हैं. पर कितना बड़ा सौभाग्य है यह यों साक्षी होना- ईश्वर के साक्षात्कार से कुछ कम थोड़े ही है उसके दो अंशों के मिलन का साक्षात्कार…..”
अज्ञेय के ‘क्षण भर लय हों– मैं भी, तुम भी’ का अध्यात्म ‘सीय चकित चित रामहि चाहा’ की भावभूमि से पहली नज़र में अलग नहीं, पर इन दो काव्यांशो के अलगाव की तलाश हम न केवल लेखक की रचना-प्रक्रिया के भीतर चल रहे शब्द और अर्थ की होड़ के रूप में करते हैं बल्कि मध्ययुगीन और आधुनिक अभिव्यक्ति के बीच का तात्विक-अंतर भी समझ सकते हैं. तुलसी के ‘मानस’ में ‘प्रेम’ को लेकर आत्मविश्वास में कमी और लड़खड़ाहट यही पर स्पष्ट होता है. शब्द और अर्थ की सुन्दरता की प्रतियोगिता में पूर्वाग्रहों का हस्तक्षेप बस इतना भर बताता है कि प्रेम अपनी स्वाभाविक प्रकृति में स्वतंत्र और लोकतांत्रिक होता है, उसका निर्वहन करने वाले उसे तय नहीं करते, वरन प्रेम खुद रचनाकारों की मानसिकता और युगीन स्थितियों की सीमाएं या कहें हैसियत दिखा देता है.
रुझान से इतिहास, अवधारणा और साहित्य के गंभीर शोधार्थी प्रवीण कुमार की उच्च शिक्षा हिन्दू कॉलेज और दिल्ली विश्वविद्यालय से संपन्न हुई है. पहले कहानी-संग्रह ‘ छबीला रंगबाज़ का शहर’ से चर्चित, जिसे 2017 का ‘डॉ. विजय मोहन सिंह युवा कथा-पुरस्कार’ और 2018 का ‘अमर-उजाला शब्द-सम्मान (थाप) मिला है. दूसरा कहानी संग्रह-‘ वास्को डी गामा की साइकिल’ 2020 में राजपाल से प्रकाशित हुआ है. हाल में ही में प्रकाशित उपन्यास “अमर देसवा” चर्चा में है.
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एक कथा तो आपने अपने पोस्टर से रच ही दी हैI भाई. लेख तो गजब है हीI
प्रवीण जी ने रामचरितमानस के एक बेहतर प्रसंग को उभारा है। सुंदरकांड के कुछ चौपाई में भी राम-सीता के प्रेम का उद्घाटन हुआ है। समकालीन सन्दर्भों में जाकर भी कविता को समझना एक बेहतरीन लेखकीय युक्ति है जो इस आलेख को मजबूती देता है। कुंतक से लेकर अज्ञेय-मुक्तिबोध तक का यह विस्तार सुखद है। बहुत बहुत बधाई डॉ. साब को इस आलेख के लिए।
इस तरह से राम चरित मानस का एक और पक्ष पढ़ना बहुत ही गूढ़,रोचक लगा सारगर्भित आलेख।
कुंतक से लेकर तुलसीदास, तुलसीदास से निराला, निराला से अज्ञेय तक बिखरी कड़ियों को किस सुंदरता से जोड़ा है आपने.. धन्यवाद सर इस आलेख के लिए🌿
मानस के बालकाण्ड से जुड़े इस पाठ को लेखक ने अपने समय की सौन्दर्य-अपेक्षाओं के हिसाब से आकार दिया है, जो नया भले न हो, कला के सत्य के आर-पार झाँकने की एक विश्वसनीय खिड़की तो देता ही है. इस तरह के पुनर्पाठ की, खास कर सदियों तक लोक-जड़ों में अपना पक्ष तय कर चुकी सौन्दर्याभिरुचि के सामने उजागर करना छोटी-मोटी चुनौती नहीं है. कुंतक से आरम्भ सुखद है, एरिक फ्रॉम और अज्ञेय का रास्ता भी, मगर यह रास्ता जरूरत से ज्यादा शार्टकट लगता है. हो सकता है, इसके पीछे रचनाकार के अपने तर्क हों, होंगे ही; तो भी इस तरह की चेष्टा की पहल हुई है, इसलिए भी युवा आलोचक बधाई के पात्र हैं.
तुलसी पर लिखना कठिन है। उनकी पूजा करना सरल है।
उन्हें ख़ारिज करना आसान है। उनकी निंदा करना और भी आसान हैै। जहाँ बात प्रेम की हो, उसे तुलसी की कविताई में देखने-दिखाने की हो तो आलोचक की मुश्किल समझी जा सकती है। प्रवीण कुमार ने यह हिम्मत की है। उन्हें बधाई।
अच्छा लेख है। नई दृष्टि है।
साधु, प्रवीण कुमार ने बढ़िया विवेचन किया । वैसे भी तुलसी दास्य भाव से पूरे मानस में हैं । उनका “दास” अपने स्वामी पर हावी है लिहाजा स्वामी के प्रेम प्रसंग का वर्णन करने में हाथ कांपता है। इसी बाल कांड में शुरू में हीं तुलसी ने कहा है
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा
***
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई
(लिहाजा यह भी जो प्रसंग आ गया है वह तुलसी की ढिठाई ही समझा जाय )
बहुत सुंदर । कथ्य का इतना अर्थपूर्ण विश्लेषण , बेहद आकर्षित करता है । पौराणिकता की समझ से हम लोग बहुत दूर होते जा रहे हैं । नई पीढ़ी में तो लगाव ही नहीं बचा है । तब ऐसे में इस तरह की रचनात्मकता बहुत प्रेरित करती है । आपकी बहुत धन्यवाद कि आप इन पर भी ध्यान केंद्रित किए हुए हैं ।
“राम और सीता के भीतर एकदूसरे के लिए पलनेवाले प्रेम को लेकर मर्यादित तुलसी का रुख़ बेहद लड़खड़ाया हुआ है।” इस प्रस्तावना पर पुनर्विचार किया जा सकता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि यह प्रेम बाल काण्ड के अलावा अन्यत्र भी झलकता है। सीता हरण के बाद राम की इस मनोस्थिति को देखें। वन मेन दोनों भाई अकेले हैं। बरसात हो रही है। किसी अन्य विरही प्रेमी की तरह राम भी तड़प उठते हैं — “घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।” राम को एक त्रासद प्रेमी की तरह भी देख सकते हैं, जिन्हें निराला ने अमर-वाणी दी थी — “हाय, उद्धार प्रिया का न हो सका।” और फिर, बाल काण्ड को हम त्रासदी से पहले घटित उल्लास की तरह भी पढ़ सकते हैं।