रामविलास शर्मा और ऋग्वेदप्रकाश मनु
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डॉ. रामविलास शर्मा हमारी सदी के एक दिग्गज आलोचक तो हैं ही, अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने आलोचना-कर्म का विस्तार करके उसे अपने समय और समाज की ‘सभ्यता समीक्षा’ से भी जोड़ दिया. इस लिहाज से उन्होंने भारतीय संस्कृति के उन सवालों को गंभीरता से उठाया है, जिन्हें छूने का साहस ज्यादातर लोग कर ही नहीं पाते. इसलिए संस्कृति की जटिलताओं और अंतर्विरोधों से आँख मिलाने का साहस किए बगैर कुछ सरलीकृत निष्कर्षों के जरिए इनसे निजात पा ली जाती है. दुर्भाग्य से प्रगतिशील आलोचना में भी तात्कालिकता के दबाव में संस्कृति के प्रश्न न सिर्फ हाशिए पर चले गए हैं, बल्कि संस्कृति पर विचार करने का अर्थ सांप्रदायिक और पुराणपंथी हो जाना समझ लिया गया.
हालाँकि इस बात को नकारना आसान नहीं है कि कोई भी समाज अपनी संस्कृति के प्रश्नों और हर काल में उनका जवाब देने की चुनौतियों से ही आत्मिक बल और एक तरह की गतिमानता प्राप्त करता है. संस्कृति पर विचार किए बिना न हम सामाजिक समस्याओं को व्यापक संदर्भों में देख और परख सकते हैं और न कला और साहित्य से जुड़े सवालों पर गंभीरता से बात हो सकती है. लेकिन हमारे समाज और खासकर साहित्यिकों में संस्कृति के प्रश्नों को लेकर जिस तरह की उपेक्षा नजर आती है, वह हैरानी पैदा करती है. गौर से देखा जाए तो शायद अपनी वैचारिक अक्षमता को ही हमने हिकारत का रूप दे दिया है. असल में तो हम संस्कृति-चिंता के खतरों से भागते हैं.
इसमें एक खतरा तो यही है कि अपनी संस्कृति में हमें कुछ भी मूल्यवान नजर आएगा और हम उसकी तारीफ करेंगे, तो झट से ‘पुरातनपंथियों’ में हमारी गिनती होने लगेगी. दूसरा खतरा यह है कि संस्कृति के प्रश्नों की गहराई में उतरने के लिए बहुत समय, बहुत ऊर्जा, बहुत गंभीर अध्ययन तथा निरंतर चिंतन और अध्यवसाय की दरकार है. यह काम कम से कम सुविधाजनक दायरों में रहने वाले ऐसे आलोचकों के बस का नहीं है जो टुकड़ों-टुकड़ों में सोचते और किसी व्यापक सोच के तहत हिम्मत से अपनी बात कहने से डरते हैं.
ऐसे आलोचक संस्कृति के प्रश्नों से दो-चार होने के बजाय, समूची सांस्कृतिक चिंता को ही पिछड़ा मान लें, तो इसमें ताज्जुब क्या? लेकिन यह बात अपनी जगह सच है कि जब तक मार्क्सवाद या कोई भी अन्य वाद भारतीय दर्शन और संस्कृति के प्रश्नों से ईमानदारी से जूझता नहीं है या संस्कृति की पुनर्व्याख्या की चुनौती को स्वीकार नहीं करता, तब तक वह पूरी तरह भारतीय जमीन और लोगों से नहीं जुड़ सकता.
बहरहाल यह बात खुद में कम रोमांचक नहीं है कि इन दोहरी-तिहरी चुनौतियों को स्वीकार करने का साहस सत्तासी वर्ष की अवस्था में मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने किया. उनकी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ (1999) अपने ढंग की एक अभूतपूर्व पुस्तक है, जिसके पीछे रामविलास जी का लंबा श्रम और मेहनत साफ नजर आती है.
यह पुस्तक दो खंडों में संयोजित है. पहले खंड में ऋग्वेद से कालिदास तक और दूसरे खंड में विद्यापति से निराला तक के सांस्कृतिक इतिहास तथा उसके जटिल प्रश्नों की व्याख्या है. इससे पता चलता है कि रामविलास जी की दृष्टि कितनी व्यापक रही है तथा प्राचीन काल से लेकर मौजूदा समय तक तमाम परिवर्तनों और गहरी उथल-पुथल के बावजूद वे भारतीय संस्कृति की एक अविच्छिन्न धारा देख पा रहे हैं. इतना ही नहीं, भारतीय संस्कृति को वे निरंतर विकासात्मक दिशा में बढ़ते और उत्तरोत्तर अधिक यथार्थवादी रूप ग्रहण करते देखते हैं.
पुस्तक का पहला खंड ऋग्वेद की पुनर्व्याख्या से प्रारंभ होता है और उपनिषद, महाभारत, भागवद् गीता, श्रीमद्भागवत तथा कालिदास के काव्य-संसार, खासकर उसके सांस्कृतिक पहलुओं को समेटकर आगे चलता है. इनमें जाहिर है, रामविलास जी ऋग्वेद को सर्वाधिक महत्व देते हैं. इसलिए कि यह संसार का प्राचीनतम ग्रंथ है और इसके बगैर भारतीय संस्कृति के मूल प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया जा सकता. उपनिषदों ही नहीं, आगे चलकर रामायण, महाभारत पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ा. और कुल मिलाकर यह परंपरा कालिदास और निराला से होती हुई अब तक चली आती है. रामविलास जी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने ऋग्वेद को महज धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांड वाले घेरे से बाहर निकालकर एक विराट सांस्कृतिक पीठिका पर स्थापित किया है. इस मामले में वे कहीं न कहीं स्वामी दयानंद के काम को ही अधिक तर्कसंगत ढंग से आगे बढ़ा रहे प्रतीत होते हैं. पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है :
“संसार का प्राचीनतम ग्रंथ हमारे देश का ऋग्वेद है. ऋग्वेद से पहले काव्य, दर्शन और इतिहास की एक सुदीर्घ परंपरा थी. इसके प्रमाण ऋग्वेद में ही मिल जाते हैं. रामायण और महाभारत- इन प्रसिद्ध महाकाव्यों का संबंध ऋग्वेद से है. उपनिषदों की विचारधारा ऋग्वेद की स्थापनाओं को आधार बनाकर ही आगे बढ़ती है. कालिदास और भवभूति जैसे महाकवि रामायण और महाभारत से सामग्री लेकर उसे नया रूप देते हैं. काव्य और दर्शन की इस सुदीर्घ परंपरा से रवींद्रनाथ ठाकुर, सुब्रह्मण्य भारती, निराला जैसे समर्थ कवि जुड़े हुए हैं. कोई भी विद्वान इस प्राचीन संस्कृति की उपेक्षा करके इन महाकवियों का अध्ययन पूरा नहीं कर सकता.” (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, पहला खंड, पृष्ठ 5)
रामविलास जी ऋग्वेद के बारे में फैले हुए बहुत से अंधविश्वासों, रूढ़ियों और गलत धारणाओं का भी दृढ़ता से खंडन करते हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि ऋग्वेदकालीन आर्य घुमंतू जीवन बिताते थे. वे मुख्य रूप से कबीलाई जीवन जीते थे तथा उनका मुख्य धंधा पशुपालन था. रामविलास जी बहुत दृढ़ता से तथा तर्कसंगत ढंग से इस तरह की धारणाओं का खंडन करते हैं. वे ऋग्वेद की ऋचाओं का उदाहरण देते हुए साबित करते हैं कि ऋग्वेदकालीन आर्य बहुत उन्नत सभ्यता के लोग थे. वे खेती करते थे, हलों के फाल बनाना जानते थे. बढ़िया कारीगर थे. विज्ञान और चिकित्सा के बारे में उनका ज्ञान अद्भुत था. वे पारिवारिक जीवन जीते थे. गृह-निर्माण कौशल की उन्हें अच्छी जानकारी थी और वे सुंदर, सुव्यवस्थित घरों में रहते थे. उनके जीवन और कल्पनाओं में एक तरह की ऊँचाई और पूर्णता है.
ऋग्वेद की ऋचाओं की भाषा, विचार और कल्पनाओं की बड़ी सूक्ष्म और विशद व्याख्या करते हुए रामविलास शर्मा यह दिखाते हैं कि ये ‘गड़रियों के गीत’ नहीं हैं, जैसा कि कुछ पश्चिमी विद्वान इन्हें बहुत दंभ और हिकारत भरी दृष्टि से साबित करने की कोशिश करते हैं. और अनेक भारतीय विज्ञान भी उनका अनुसरण करते हैं. इसके बजाय यहाँ काव्य का ऐसा सहज स्फुरण, पूर्णता और ऊँचाई है और उसके पीछे एक ऐसी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा है कि उन्हें पढ़ने के बाद आज हम स्वयं चकित होते हैं कि हजारों साल पहले लिखे गए इस काव्य में कैसी ताजगी है. उसमें अनूठी कल्पना और विचारों की समृद्धि है. इसके पीछे एक समुन्नत सभ्यता का होना सहज ही सिद्ध है, जिस कारण ऋग्वेद का प्रभाव हमारी सभ्यता पर इतनी दूर तक पड़ा कि आज भी वह कहीं न कहीं हमारे चिंतन और विचारों को प्रभावित और संयोजित करता नजर आता है.
मैकडनल और कीथ सरीखे वेदों के अधिकारी विद्वानों ने इस दिशा में बहुत काम किया है. उन्होंने ‘वेदिक इंडेक्स’ पुस्तक निकाली, जिसमें वेदों में प्रयुक्त हुए शब्दों को समझाया गया है. उस पुस्तक में उन्होंने ऋग्वेद में ऐसे कई सूक्त ढूँढ़ निकाले, जिनमें शरीर के अंगों का बहुत सही, वैज्ञानिक और सांगोपांग वर्णन है. और यह परंपरा ऋग्वेद से यजुर्वेद होती हुई अथर्ववेद तक पहुँची और आगे चरक और सुश्रुत में देखी जा सकती है. शरीर के अंगों और उनसे जुड़ी ओषधियों के नाम इन ग्रंथों में बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं. इससे प्राचीन भारत में ज्ञान के निरंतर प्रवाह का पता चलता है और यह भी कि समय के साथ वह निरंतर विकासमान था. रामविलास जी ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ पुस्तक के पहले खंड की भूमिका में इस बात की काफी विस्तार से चर्चा करते हैं—
“ऋग्वेद में एक पूरा सूक्त शरीर के अंगों पर है और वह अथर्ववेद के कवियों को इतना प्रिय था कि उन्होंने थोड़े-से परिवर्तन के साथ उसे एक से अधिक बार दोहराया है. एक संहिता में शिष्य ने गुरु से पूछा—वैद्यों का वेद कौन-सा है? गुरु ने उत्तर दिया—हमारा वेद अथर्ववेद है. चिकित्सा विज्ञान की परंपरा अथर्ववेद से चली आ रही है. इस वेद के प्रति पुराने लोग सचेत थे. अथर्ववेद और चरकसंहिता में बहुत से अंगों के नाम, बहुत से रोगों के नाम, इनके साथ बहुत सी औषधियों के नाम सामान्य है. इनमें अनेक नाम ऋग्वेद और अथर्ववेद में सामान्य हैं. रस, रक्त और ओज सब शरीर में प्रवहमान है. प्रवाह का माध्यम धमनी, स्रोत और सिरा हैं.” (वही, पृष्ठ 6)
रामविलास शर्मा पूछते हैं कि शरीर का इस तरह का सांगोपांग वर्णन करने वाले लोग भला संसार को मिथ्या कैसे समझेंगे? बल्कि यह तो भारत की प्राचीनतम वैज्ञानिक परंपरा की गवाही देता है. यहाँ किसी किस्म का मिथ्यावाद या मायावाद नहीं है. यह कल्पना-विलास नहीं, जीवन का यथार्थ ज्ञान है. रामविलास जी उचित ही अपनी तर्क-सरणियों से भारत की इस प्राचीन यथार्थवादी चेतना की पुष्टि करते हैं,
“यदि संसार मिथ्या है, तो शरीर मिथ्या है, उसके रोग मिथ्या हैं. रोगों के उपचार के लिए जिस धरती से जड़ी-बूटियाँ एकत्र की जाती हैं, वह धरती मिथ्या है और जड़ी-बूटियाँ भी मिथ्या हैं. ऐसा मिथ्यावाद ऋग्वेद और अथर्ववेद में नहीं है, यह निश्चित है.” (वही, पृष्ठ 6)
इसके अलावा रामविलास जी भारतीय संस्कृति को ठीक-ठीक समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूत्र और देते हैं. उनका कहना है कि ज्ञान-विज्ञान, परंपरा और संस्कृति का विकास इकहरा नहीं, बल्कि हमेशा द्वंद्वात्मक रीति से होता है. भारतीय संस्कृति की गहराई से पड़ताल करें तो वहाँ भी प्रगतिशील और प्रगति-विरोधी या रूढ़िवादी धारणाओं का गहरा द्वंद्व नजर आएगा. हालाँकि लोक से गहरी संपृक्ति के कारण वह हमेशा विकासात्मक राह पर ही आगे बढ़ती रही. रामविलास जी मानो भारतीय संस्कृति के बहुत से उलझावों की गाँठें खोलते हुए कहते हैं,
“भारतीय संस्कृति का इतिहास लोकविरोधी रूढ़ियों और प्रगतिशील विचारधाराओं के सतत संघर्ष का इतिहास है. उस इतिहास का अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि हम लोकविरोधी रूढ़ियों को भारतीय संस्कृति का सारतत्व न समझ लें, वरन् प्रगतिशील विचारधाराओं से कुछ सीखकर उनके आधार पर, नई संस्कृति का विकास करें.”
फिर एक प्रश्न यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के बारे में वैज्ञानिक ढंग से निष्कर्ष निकालने के लिए भला हमारे पास आवश्यक साक्ष्य कहाँ हैं, जो देश-काल के निर्धारण में सहायक हों? इस पर भी गंभीरता से विचार करते हुए, रामविलास जी सरस्वती नदी को भारत का सर्वाधिक प्राचीन प्राकृतिक साक्ष्य मानते हैं. उनका कहना हैं—
“भारतीय संस्कृति का विकास देशकाल की सीमाओं के भीतर हुआ है. इन सीमाओं को निर्धारित करने के लिए हमारे यहाँ मिस्र के मंदिरों और समाधिस्थानों जैसे प्राचीन स्मारक नहीं हैं. परंतु हमारे यहाँ एक अत्यंत प्राचीन प्राकृतिक स्मारक सरस्वती के रूप में है. इसी नदी के तट पर अधिकांश वेदों की रचना हुई. फिर यह नदी जल विहीन हो गई. कुरुक्षेत्र से पूर्वी पंजाब और राजस्थान की सीमाओं को छूता हुआ, सिंधु प्रदेश की पूर्वी सीमा निर्धारित करता हुआ, इसका मार्ग समुद्र तक पहुँचता है. कालनिर्धारण के लिए यही हमारा प्राकृतिक स्मारक है. ऋग्वेद में यही नदी जल से भरी हुई थी. यजुर्वेद में भी यह वैसे ही जल से भरी हुई थी. हड़प्पा सभ्यता के ह्रासकाल में, 1700 ईसा-पूर्व के आसपास वह जलहीन हो गई थी. इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋग्वेद और यजुर्वेद की रचना हड़प्पा सभ्यता के ह्रासकाल से पहले हुई थी. उस सभ्यता के अवशेष सरस्वती के तटवर्ती प्रदेश में आज भी बने हुए हैं. हड़प्पा सभ्यता की घनी बस्तियाँ कुरुक्षेत्र में हैं, उस प्रदेश में हैं जहाँ भरतजन रहते थे….इसलिए कुछ विद्वानों ने सरस्वती की तटवर्ती बस्तियों के विचार से हड़प्पा सभ्यता को सारस्वत सभ्यता कहा है. वास्तव में इस सभ्यता के विकास में जितना योगदान सिंधु नदी का है, उससे कहीं अधिक सरस्वती का है.” (वही, पृष्ठ 8-9)
ऋग्वैदिक आर्यों के बारे में राहुल सांकृत्यायन का मानना है कि
“मोएञ्जोदड़ो और हड़प्पा तथा ऐसे कितने नगरों के संहार के बाद सप्तसिंधु की विजित भूमि को पशुपाल आर्यजनों ने बाँटकर उसे गोचर भूमि में परिणत कर दिया.” (वही, पृष्ठ 17)
यानी राहुल जी मोएञ्जोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता को बहुत उन्नत सभ्यता मानते हैं, जबकि उनका कहना है कि आर्य कबीलाई जीवन जीते थे, बर्बर और असभ्य लोग थे. इन बर्बर और असभ्य आर्यों ने मोएञ्जोदड़ो और हड़प्पा की विकसित सभ्यता का संहार किया. उनकी जमीन को आपस में बाँट लिया तथा वहाँ पशु चराने लगे, क्योंकि यही काम उन्हें आता था. इसके पीछे मूल धारणा यही है कि आर्य बाहर से आए थे, आक्रमणकारी थे और उन्होंने यहाँ की मूल सभ्यता को नष्ट किया….
रामविलास जी बहुत स्पष्टता और दृढ़ता से इन मिथ्या धारणाओं का खंडन करते हुए यह साबित करते हैं कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए थे, वे यहीं के मूल निवासी थे. उन्होंने किसी विकसित सभ्यता को नहीं उजाड़ा था. बल्कि मोएञ्जोदड़ो और हड़प्पा की जिस विकसित सभ्यता की बात की जाती है, वह मूलत: आर्य सभ्यता ही थी. वे अनेक प्रमाणों से यह साबित करते हैं कि मोएञ्जोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता ही मुख्य रूप से आर्य सभ्यता है. यह इसलिए कि ये दोनों बहुत ही उन्नत सभ्यताएँ हैं, एक ही कालखंड की हैं और उन्हें आपस में जोड़ने वाले तमाम संबंध-सूत्र अब प्रकट हो चुके हैं.
यही नहीं, रामविलास जी ऋग्वेद के समय तथा परवर्ती काल में भारत के स्थापत्य और भवन-निर्माण कला से भी अभिभूत हैं. उस कालखंड में नगरों के विकास और बहुत समृद्ध स्थापत्य की एक झलक प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं—
“ऋग्वेद के ऋषि घर बनाते हैं, पुर बसाते हैं, वे खेत नापते हैं और उनके देवता पृथ्वी और आकाश नापते हैं. नापने का काम ज्यामिति के प्रारंभिक विकास के बिना संभव नहीं है. जहाँ तक हड़प्पा और मोएञ्जोदड़ो के अवशेषों का संबंध है, इन नगरों का नपा-तुला परिमाण ज्यामिति के विकास का स्पष्ट प्रमाण है. दूर-दूर तक एक ही नाप की ईंटों का प्रयोग, दूर-दूर तक एक ही तौल के बाँटों का उपयोग, गणित और ज्यामिति के साथ हड़प्पावासियों की योजनाबद्ध विकास क्षमता का परिचायक है. महाभारत और रामायण में सभागारों और बड़े-बड़े भवनों का वर्णन है. वे हड़प्पा सभ्यता के अवशेषों में प्रत्यक्ष हैं. पाटलिपुत्र एक बड़े साम्राज्य की राजधानी बना. वहाँ के भवन चीनी यात्री फाहियान ने देखे तो उसने सोचा, ये मनुष्यों के नहीं, देवों के बनाए हुए होंगे. पाटलिपुत्र, काशी, मथुरा और उज्जयिनी, ये भारत के प्राचीन नगर हैं जिनका इतिहास अब तक अटूट चला आ रहा है. भारतीय संस्कृति का बहुत गहरा संबंध इन चार महानगरों से है. इन नगरों पर ध्यान देते ही यह प्रचलित धारणा खंडित हो जाती है कि भारत ग्राम-समाजों का देश है, यहाँ के लोग कला-कौशल में पिछड़े हुए थे और हमें उन्हीं ग्राम-समाजों की ओर लौट जाना चाहिए. ये चारों महानगर विभिन्न युगों से व्यापारिक संबंधों से परस्पर जुड़े रहे हैं….इन नगरों के द्वारा हिंदी प्रदेश के जनपद प्राचीन काल से परस्पर संबद्ध हुए और दक्षिण भारत से उन्होंने अपना संबंध जोड़ा. इसलिए भारत राष्ट्र के निर्माण में और भारतीय संस्कृति के विकास में हिंदी प्रदेश की निर्णायक भूमिका स्वीकार करनी चाहिए.” (वही, पृष्ठ 9)
ऋग्वेद की सभ्यता कृषि सभ्यता थी, लिहाजा इसमें खेती का भी बड़ा सुंदर वर्णन है. खेती के तरीके और उपकरणों की तो प्रामाणिक जानकारी वहाँ है ही, साथ ही खेती से जुड़े उपमानों और कल्पनाओं का वहाँ बाहुल्य है. इससे ऋग्वेद काल के लोगों की सांस्कृतिक समृद्धि को समझने की सही राह मिलती है. पर दुर्भाग्य से हुआ उलटा ही. यह मान लिया गया कि आर्यों के आक्रमण से पहले हड़प्पा सभ्यता उन्नत थी. वे लोग खेती करना जानते थे. पर आर्यों के आक्रमण के बाद सब कुछ चौपट हो गया….
ऐसा मानने वालों में दामोदर धर्मानंद कोसांबी भी हैं. वे आर्यों की सांस्कृतिक समृद्धि नहीं, उनके क्रूर आक्रांता होने का जिक्र करते हैं. रामविलास जी बड़ी कुशलता से उनके तर्कों का खंडन करते हुए कहते हैं—
“दामोदर धर्मानंद कोसांबी ने अपनी पुस्तक ‘इंट्रोडक्शन टु द स्टडी ऑव इंडियन हिस्ट्री’ में आर्यों को घुमंतू और बर्बर मानकर कल्पना की है कि भारत पर उनके आक्रमण से पहले हड़प्पा सभ्यता में लोग नदियों पर बाँध बनाकर खेती करते थे. तरीका उनकी समझ में यह था कि अस्थायी बाँध बना देने से नदियों में जल भर जाता था और किनारे की जमीन पर फैल जाता था. उस उपजाऊ जमीन पर वे बीज फैला देते थे और फसल काटते थे. आर्यों ने इस बाँध-व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया और इस तरह सारे प्रदेश की कृषि का नाश कर दिया. अब नगरों का आबाद बना रहना असंभव हो गया….विडंबना यह है कि जो लोग उत्तर भारत में कृषि का विकास कर रहे थे, उन्हें कोसांबी ने उसका विनाशक मान लिया है. खेतों के जोतने, बोने, फसल काटने, देवों को जौ, पुए आदि की भेंट चढ़ाने की तरफ वे ध्यान देते तो खेती का महत्व आसानी से समझ आ जाता. खेती के जितने प्रमाण ऋग्वेद में हैं, उनको एक तरफ हटा दिया है. हड़प्पा सभ्यता ऋग्वेद से पहले है, आर्यों ने आकर उसका विनाश किया, यह आत्मगत कल्पना उन्होंने तथ्यों पर आरोपित कर दी है.” (वही, पृष्ठ 25)
रामविलास शर्मा की आलोचनात्मक दृष्टि विभिन्न क्षेत्रों में विचरती थी । साहित्य समाज और संस्कृति में जी कुछ भी मूल्यवान है उसकी फिक्र करती है । बहुत दूर तलक हमारी संस्कृति और परंपरा में धंसकर उसक विश्लेषण करती हैं ।ऋग्वेद तक जाने का साहस करना रामविलास शर्मा के लिए ही संभव है। प्रकाश मनु और समालोचन को इस अपूर्व मेधा को पुनर्विष्कृत करने के लिए बधाई दी जानी चाहिए। बधाई
प्रकाश मनु जी ने रामविलास शर्मा का गहन अध्ययन करके जो सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है।
उन्हें साधुवाद और अरुण जी को धन्यवाद।
अत्यंत सारगर्भित लेख। राम विलास शर्मा जी के लेखन और चिंतन के संदर्भ में एक नयी दृष्टि देता हुआ। प्रकाश मनु जी को साधुवाद और समालोचन का हार्दिक धन्यवाद।
रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि का दायरा इतना विस्तृत था कि इतिहास,समाज,भाषा,संस्कृति और जातीय परंपरा के सवालों को भी उन्होंने साहित्य और आलोचना के मूल सरोकारों से जोड़ा। बहुत सी स्थापित मान्यताओं और अवधारणाओ पर उनसे सहमति असहमति हो सकती है,लेकिन उनकी प्रखर मेधा और वैचारिक चिंतन की तार्किकता और एक ईमानदार आलोचना की प्रतिबद्धता पर कोई उँगली नहीं उठा सकता। इस आलेख के लिए प्रकाश मनु को साधुवाद !
डा.शर्मा जी का मार्क्सवादी उन कठमुल्ले और छद्म माकर्सवादियों से अलग था जो उसे एक बौद्धिक संप्रदाय में समेट कर अपना मठ बनाना चाहते थे।वे किसी भी विचार की परीक्षा जीवन यथार्थ की भूमि पर करना चाहते थे।उन्हें जितना प्यार बैसवाड़ा से था उतना ही भारत और उसकी विरासतों से,ठीक मैथिल नागार्जुन की तरह।
प्रकाश मनु जी ने उन्हें सही परिप्रेक्क्ष्य मे देखा और रखा है ।मेरी अपनी जानकारी में वे विचारों की परख की प्रक्रिया में बेहद सतर्क किन्तु उन्मुक्त थे।आर्यों वाले मुद्दे पर वे दयानंद, जयशंकरप्रसाद और भगवान सिह के साथ हैं।पर तर्कसहित।
वे हिन्दी के समर्पित साधक थे जिन्हें कुछेक प्रशंसक ऋषि माना और कहा करते थे।डा. शर्मा यह भी मानते थे कि विरासत की सत्ता किसी भी व्यक्तिसत्ता और उसकी महत्वाकांक्षा से बड़ी और कालजीवी होती है।इसलिए अन्यों की तरह वे ऐसे किन्हीं मुगालतों से मुक्त रहे।
. ….. .विजय बहादुर सिंह