बेशक रामविलास जी के संस्कृति चिंतन को लेकर मन में बहुत सवाल भी उठ सकते हैं. उठने चाहिए भी. इस तरह के सवाल और शंकाएँ अपनी जगह हैं लेकिन उसके बावजूद अपनी उम्र की नवीं दहाई में ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ किताब लिखने में रामविलास जी ने जितना श्रम किया है, वह खुद में एक इतिहास है. इस बड़े और दस्तावेजी काम के पीछे उनकी जो प्रखर मेधा और अध्यवसाय है और संस्कृति के कठिन प्रश्नों और चुनौतियों से उलझने का जो साहस उन्होंने किया है, उसके आगे नतमस्तक होना पड़ता है.
अपने अंतिम समय तक संस्कृति के क्षेत्र में रामविलास जी की यह शोध-यात्रा जारी रही. अपनी घोर अस्वस्थता के क्षणों में भी अपने अधूरे काम को पूरा करने के लिए वे किस कदर विकल थे, इसका गवाह मैं ही नहीं, बहुत से लेखक होंगे. मुझसे वे कहा करते थे कि “चारपाई पर पड़ा-पड़ा मैं तुलसीदास वाली किताब को पूरा करने के लिए नक्शा बनाया करता हूँ!…”
ऐसी लगन रोमांच पैदा करती है.
डा. रामविलास शर्मा के निधन से कुछ समय पहले हुई लंबी बातचीत में भी उनके सांस्कृतिक चिंतन को लेकर बहुत बातें हुईं और रामविलास जी ने मेरी शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की. उन्होंने भारतीय संस्कृति को लेकर अपनी स्थापनाओं और उनके पीछे के तर्क और विचार-सरणियों को स्पष्ट करने की कोशिश की.
मेरे इस सवाल पर कि कहीं वृद्धावस्था में वे धार्मिकता की छाया में तो नहीं आ गए, रामविलास जी का जवाब है,
“मुझे लगता है, इतिहास और राजनीति ही नहीं, संस्कृति के प्रश्न भी जरूरी हैं, जिनकी तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए. बुढ़ापे या उम्र वगैरह के असर की कोई बात नहीं है.”
मैंने कहा, “पर डॉक्टर साहब, धर्म की बुराइयों या बुरे अंश पर उस तरह की चोट मुझे यहाँ नहीं मिली, जिस तरह की मैं अपेक्षा करता था. शायद आपकी नजर भारतीय संस्कृति के मूल रूप पर ही रही, बाद में उसमें आए प्रदूषणों और विकारों पर इतनी नहीं?”
इस पर रामविलास जी का कहना था कि विकार तो आगे चलकर क्रिश्चिएनिटी में भी आए. गाँधी दर्शन का लोगों ने आगे चलकर क्या हाल बना दिया? कौन-सी चीज है, जो आगे चलकर अपने उसी शुद्ध रूप में रही. लेकिन इस पुस्तक में उनका प्रयत्न भारतीय संस्कृति के मूल उत्स की खोज ही रहा और बहुत से चिंतकों के विचारों को उन्होंने बीच-बीच में उद्धृत करके अपनी बात को आगे बढ़ाया है. काणे ने पाँच खंडों में जो धर्मशास्त्र का इतिहास लिखा है, उसमें मठों और मठाधीशों की तीव्र आलोचना है. रामविलास जी ने कई स्थलों पर उनकी स्थापनाओं को उद्धृत किया है. वे कहते हैं—
“जिन लोगों ने पहले से काम किया है, उनके विचारों को उद्धृत कर देने से मेरी बहुत सी मेहनत बच गई. इस तरह जहाँ तक स्वामी दयानंद के विचारों या अंधविश्वासों के खंडन की है, मैं स्वयं दयानंद का समर्थक हूँ और मानता हूँ कि वे अस्सी प्रतिशत सही थे.”
रामविलास जी दयानंद के विचार और कामों से किस कदर प्रभावित थे, इसका उल्लेख भी उन्होंने इस बातचीत में किया है. वे कहते हैं,
“अपनी नई पुस्तक शूद्र, मुसलमान और भारत की जातीय समस्या में मैं एक अध्याय लिखने (या बोलने) जा रहा हूँ ‘संस्कृति का पुनर्मूल्यांकन और संन्यासी दयानंद की परंपरा’. मेरा यह मानना है कि धार्मिक अंधविश्वासों और रूढ़ियों को जैसा धक्का स्वामी दयानंद ने दिया, वैसा सारे सुधारक मिलकर नहीं दे पाए. वैसे भी आर्यसमाजियों का चिंतन तर्क पर आधारित है. इसी कारण मार्क्सवाद की स्थापनाएँ उन्हें समझाई जा सकती हैं. हमारे स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में लीजिए, लाला लाजपतराय आर्य समाज के प्रभाव में थे; श्रद्धानंद, जो आर्य समाज के प्रमुख स्तंभ हैं, पहले मुंशीराम थे और बाद में संन्यासी हुए तो उनका नाम श्रद्धानंद पड़ गया. भगतसिंह के परिवार में भी आर्य समाजी प्रभाव था और वे आर्य समाज की जमीन से ही मार्क्सवाद तक पहुँचे….”
यही नहीं, रामविलास जी की पुस्तक ‘स्वाधीनता संग्राम के बदलते परिप्रेक्ष्य’ में भी संन्यासियों के संघर्ष को लेकर पूरा एक अध्याय है. उनका कहना है कि ‘आनंदमठ’ उस हिसाब से कोई कल्पित कृति नहीं है. इसके पीछे सच्ची घटना है. संन्यासियों ने अंगेजों के खिलाफ हथियारबंद लड़ाई लड़ी थी और यह लड़ाई काफी लंबी चली थी. उसी परंपरा पर बंकिम ने ‘आनंदमठ’ की रचना की. उसी में ‘वंदेमातरम्’ गीत है, जिस पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी थी.
आगे वे इस लड़ाई के दूसरे चरण की चर्चा करते हैं, जिसमें दयानंद ने भी भाग लिया था—
“फिर इस लड़ाई का दूसरा चरण…! कहा जाता है कि 1857 में स्वामी दयानंद ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में भाग लिया. एक विद्वान की पुस्तक है, ‘सन् 1857 में स्वामी विरजानंद’. विरजानंद दयानंद के गुरु थे. इनके बारे में आपको पता होगा, ये मथुरा के थे और अद्भुत आदमी थे. उनके पेट में भयानक दर्द रहता था. आँखों से दिखाई नहीं देता था. लेकिन 1857 में विद्रोहियों की एक सभा हुई थी, उसमें उन्होंने व्याख्यान दिया था, किसी मुसलमान ने उसे नोट कर लिया और उसके द्वारा नोट किया गया भाषण बाद में छापा गया.”
दयानंद के अंग्रेजी राज के बारे में क्या विचार थे और किस तरह उन्होंने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा देने वाले गुजरात के आदिवासियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है, इसका जिक्र करते हुए रामविलास शर्मा कहते हैं—
“फिर जहाँ तक दयानंद की बात है, ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए उन्होंने गुजरात के आदिवासियों का जिक्र किया. उन्होंने कहा कि आपकी मूर्ति तो मक्खी की टाँग भी नहीं तोड़ सकी जबकि उन लोगों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए. इतना तो ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा हुआ प्रमाण मिलता है जिससे अंग्रेजों के प्रति उनकी विद्रोही भावना पता चलती है. वैसे ऐसा बहुत लोगों का मानना है कि 1857-58 में स्वामी दयानंद गुप्त रूप से कहीं काम कर रहे थे. वे कहाँ थे, इसका कुछ ठीक-ठीक पता नहीं है लेकिन बहुत लोगों का मानना है कि 1857 के स्वाधीनता संग्राम में उनका योगदान रहा है और उसमें भाग लेने के लिए ही वे कहीं छिप गए थे.”
रामविलास जी बरसों से ऋग्वेद और भारतीय संस्कृति के प्रश्नों पर विचार कर रहे थे. ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ वे अपने चिंतन के शिखर पर दिखाई देते हैं. हालाँकि दुर्भाग्य से उनके चिंतन और कामों पर जान-बूझकर धूल डालने और उस पर फब्तियाँ कसने की कोशिशें भी हुईं. इसकी एक छोटी-सी मिसाल देना अप्रासंगिक न होगा.
रामविलास जी के आखिरी वर्षों में उनसे लिए गए इंटरव्यूज में एक इंटरव्यू ऐसा भी है, जिसमें नामवर सिंह तथा कुछ और प्रगतिशील विचारक युगीन प्रश्नों को लेकर उनसे बात करने पहुँचे. उसी इंटरव्यू में नामवर सिंह एक सवाल रामविलास जी से पूछते हैं. यह सवाल वेदों के बारे में है. नामवर सिंह पूछते हैं कि “…आपने वेद के बारे में लिखा और लिख रहे हैं. लेकिन स्वयं उस वेद को हमने उनके हवाले कर दिया कि वे लोग ‘वेद अध्ययन मंडल’ उसकी चीजें कायम करेंगे, लेकिन हम मान बैठे हैं कि वेद का नाम लेना एक तरह से…”
इस पर रामविलास जी नामवर सिंह को बड़ा मजेदार जवाब देते हैं, जिसमें बड़ा तीखा व्यंग्य भी है. वे कहते हैं,
“नामवर सिंह, तुम एक ‘अध्ययन मंडल’ कायम करो वेद का और मैं उसका पहला सदस्य बनूँगा…!” और यह जवाब सुनने वालों को भौचक कर जाता है. इसलिए कि रामविलास जी सिर्फ सवालों के ही जवाब नहीं देते, यह भी जान लेते हैं कि सामने वाले की नीयत क्या है और वे सवाल क्या सचमुच ईमानदारी से पूछे जा रहे हैं?
नामवर जी का वह सवाल लगता है, ईमानदार नीयत से नहीं किया गया था. इसी का सबूत यह है कि रामविलास जी के निधन के बाद वे भारतीय संस्कृति के प्रश्नों का सामना करने के बजाय, उलटे अपने लेख में रामविलास जी पर कटाक्ष करते नजर आते हैं कि देखिए, रामविलास जी कहाँ से चलकर कहाँ पहुँचे…? नामवर जी को यह विचारों के शीर्षासन सरीखा लगता है.
आश्चर्य, रामविलास जी के कामों के महत्त्व को समझने के बजाय, उलटा उन्हें अवमूल्यित करने की कोशिशें बहुत हुईं. पर इसके बावजूद एक बड़े संस्कृति-चिंतक के रूप में रामविलास जी का कद निरंतर बढ़ता ही जा रहा है. वे मानो देखते ही देखते पूरी हिंदी जाति के गौरव और अभिमान के प्रतीक बन गए. उनसे बहुतों ने रोशनी ली और उसे कुछ और आगे फैलाया. उनसे दिशा और वैचारिक ऊर्जा लेकर काम करने वालों का भी एक बड़ा कारवाँ है. यों अपने उदात्त सांस्कृतिक चिंतन के कारण रामविलास जी रोशनी की एक ऐसी भव्य मीनार बन गए हैं, जिससे आगे आने वाली सदियाँ भी प्रेरणा लेंगी.
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रामविलास शर्मा की आलोचनात्मक दृष्टि विभिन्न क्षेत्रों में विचरती थी । साहित्य समाज और संस्कृति में जी कुछ भी मूल्यवान है उसकी फिक्र करती है । बहुत दूर तलक हमारी संस्कृति और परंपरा में धंसकर उसक विश्लेषण करती हैं ।ऋग्वेद तक जाने का साहस करना रामविलास शर्मा के लिए ही संभव है। प्रकाश मनु और समालोचन को इस अपूर्व मेधा को पुनर्विष्कृत करने के लिए बधाई दी जानी चाहिए। बधाई
प्रकाश मनु जी ने रामविलास शर्मा का गहन अध्ययन करके जो सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है।
उन्हें साधुवाद और अरुण जी को धन्यवाद।
अत्यंत सारगर्भित लेख। राम विलास शर्मा जी के लेखन और चिंतन के संदर्भ में एक नयी दृष्टि देता हुआ। प्रकाश मनु जी को साधुवाद और समालोचन का हार्दिक धन्यवाद।
रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि का दायरा इतना विस्तृत था कि इतिहास,समाज,भाषा,संस्कृति और जातीय परंपरा के सवालों को भी उन्होंने साहित्य और आलोचना के मूल सरोकारों से जोड़ा। बहुत सी स्थापित मान्यताओं और अवधारणाओ पर उनसे सहमति असहमति हो सकती है,लेकिन उनकी प्रखर मेधा और वैचारिक चिंतन की तार्किकता और एक ईमानदार आलोचना की प्रतिबद्धता पर कोई उँगली नहीं उठा सकता। इस आलेख के लिए प्रकाश मनु को साधुवाद !
डा.शर्मा जी का मार्क्सवादी उन कठमुल्ले और छद्म माकर्सवादियों से अलग था जो उसे एक बौद्धिक संप्रदाय में समेट कर अपना मठ बनाना चाहते थे।वे किसी भी विचार की परीक्षा जीवन यथार्थ की भूमि पर करना चाहते थे।उन्हें जितना प्यार बैसवाड़ा से था उतना ही भारत और उसकी विरासतों से,ठीक मैथिल नागार्जुन की तरह।
प्रकाश मनु जी ने उन्हें सही परिप्रेक्क्ष्य मे देखा और रखा है ।मेरी अपनी जानकारी में वे विचारों की परख की प्रक्रिया में बेहद सतर्क किन्तु उन्मुक्त थे।आर्यों वाले मुद्दे पर वे दयानंद, जयशंकरप्रसाद और भगवान सिह के साथ हैं।पर तर्कसहित।
वे हिन्दी के समर्पित साधक थे जिन्हें कुछेक प्रशंसक ऋषि माना और कहा करते थे।डा. शर्मा यह भी मानते थे कि विरासत की सत्ता किसी भी व्यक्तिसत्ता और उसकी महत्वाकांक्षा से बड़ी और कालजीवी होती है।इसलिए अन्यों की तरह वे ऐसे किन्हीं मुगालतों से मुक्त रहे।
. ….. .विजय बहादुर सिंह