सचमुच ऋग्वेद पर रामविलास जी का काम प्रामाणिक ही नहीं, बल्कि अचरज भरा है और एक लंबे अध्यवसाय का नतीजा है. उन्होंने यह भी साबित किया है कि “ऋग्वेद का समाज आदिम साम्यवादी समाज नहीं है. वह इस व्यवस्था से बाहर निकाल आया है. व्यक्तिगत संपत्ति यहाँ दृढ़ता से स्थापित है.” (वही, पृष्ठ 11)
एक और महत्त्वपूर्ण बात रामविलास जी यह बताते हैं कि ऋग्वेदकालीन आर्यों में ‘विचारों का लोकतंत्र’ मौजूद है. उनके अनुसार,
“ऋग्वेद में वैचारिक विविधता है. देवोपासक हैं, देवोपासना के विरोधी भी. आदि तत्त्व की खोज करने वाले हैं. असत् से सत् की उत्पत्ति मानने वाले भी हैं. इस विविधता में एक धारा अद्वैतवाद की है. उसे किसी नाम से पुकारें, परमसत्ता एक ही है. यह ऋग्वेद की श्रेष्ठ दार्शनिक उपलब्धि है.”
इसी तरह ऋग्वेद की परंपरा के रूप में उपनिषदों की चर्चा करते हुए रामविलास जी एक दिलचस्प बात की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं. उपनिषदकारों में इस बात की जैसे होड़-सी लगी है या मानो वहाँ शताब्दियों लंबी एक बहस छिड़ी हुई है कि सृष्टि का मूल तत्त्व क्या है? कोई अग्नि को मूल तत्त्व बताता है, तो कोई वायु को. और कोई अन्न-जल आदि तत्त्वों को. इस बारे में छांदोग्य उपनिषद में आया श्वेतकेतु का किस्सा दिलचस्प है. श्वेतकेतु के पिता ने उन्हें पंद्रह दिन तक भूखे-प्यासे रहने के लिए कहा. उसके बाद कहा, “कुछ वेद-मंत्र सुनाओ.” श्वेतकेतु को कुछ भी याद नहीं आया. तब पिता ने कहा, “हे सौम्य, तेरी सोलह कलाओं में से एक कला बच रही है. अब खाकर आओ.” और आश्चर्य! भोजन करने के बाद उन्हें फिर से वेद स्मरण हो जाए. इससे मालूम पड़ता है कि उपनिषदकालीन सभ्यता कोई जड़ सभ्यता नहीं थी. वहाँ निरंतर प्रयोग और वैचारिक विकास हो रहा था तथा वे मूलत: तत्त्वदर्शी लोग हैं.
शंकर ने उपनिषदों के विद्वत्तापूर्ण भाष्य लिखकर वेदांत को दूर-दूर तक फैलाया. रामविलास जी उसकी विशेषता यह बताते हैं कि शंकर का वेदांत लोक की भूमि पर प्रतिष्ठित है. इसीलिए जन-जन ने उसे स्वीकार किया और शंकर को समूची भारतभूमि पर इतनी व्यापक मान्यता मिली, इतना मान-सम्मान मिला. वे कहते हैं—
“उपनिषदों की और शंकर की यह परम उपलब्धि है कि वे मनुष्य में परमेश्वर को प्रतिष्ठित करते हैं, परमेश्वर और मनुष्य की भिन्नता समाप्त कर देते हैं. जहाँ इस भिन्नता का आभास होता है, उसे वे भ्रांति कहते हैं….उपनिषद और उसके भाष्यकार शंकर मनुष्य को जैसी गरिमा प्रदान करते हैं, वैसी गरिमा संसार का कोई भी धर्म मनुष्य को प्रदान नहीं करता. संसार के धर्मों के आपसी लड़ाई-झगड़े परमसत्ता के स्वरूप को लेकर उतने नहीं होते, जितना नाम-रूप और उपाधिभेद के कारण होते हैं. इन धर्मों में नामरूप और उपाधिभेद मिटा दिए जाएँ तो जो बचेगा, वह परम सत्ता का स्वरूप होगा और उसके कारण मार-काट की नौबत न आएगी. इसलिए जब शंकर ने उपाधिभेद की आलोचना की, तब उन्होंने धार्मिक भेदभाव की जड़ पर प्रहार किया और यह उनके चिंतन का क्रांतिकारी पक्ष है.” (वही, पृष्ठ 403)
इसी तरह उपनिषदों के ब्रह्म की इस विशेषता का जिक्र रामविलास जी करते हैं कि वह जितना अलौकिक है, उतना ही लौकिक भी है और प्रकृति से एकमेक है. इसीलिए उपनिषद लोक से दूर नहीं जा सके. रामविलास जी की यह एकदम मौलिक और बड़ी महत्त्वपूर्ण स्थापना है—
“उपनिषदों का ब्रह्म जितना अलौकिक है, उतना ही लौकिक है. वह प्रकृति से इतनी गहराई से जुड़ा हुआ है कि दोनों को अलग करना प्रायः असंभव है. शंकर ब्रह्म को प्रकृति से, लोक से अलग करने के लिए जितना ही प्रयत्न करते हैं, उतना ही लोक उनका पीछा करता जाता है. कभी उपनिषदों के आधार पर और कभी सामान्य जीवन के अनुभवों के आधार पर वह इस लोकजीवन की बराबर चर्चा करते हैं.” (वही, पृष्ठ 409)
शंकर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने भारत में बौद्ध मत को निर्मूल कर दिया. पर रामविलास जी शंकर के वेदांत और बौद्ध मत में आश्चर्यजनक समता ढूँढ़ निकालते हैं. उनके अनुसार शंकर का वेदांत हो या बौद्ध मत, दोनों संसार को अनित्य और मिथ्या मानते हैं तथा दोनों का विरोध यथार्थवाद से है. रामविलास शर्मा बड़े तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात साबित करते हैं—
“शंकर के बारे में प्रसिद्ध है, उन्होंने बौद्ध मत को निर्मूल किया. बौद्ध धर्म के साथ उन्होंने भारतीय दर्शन की यथार्थवादी धारा को भी निर्मूल करने का प्रयत्न किया. 500-600 सालों तक बौद्ध मतवादियों ने भी इस धारा का विरोध किया था, पर वे इसे निर्मूल नहीं कर पाए. बौद्धों का जितना विरोध आत्मवादियों से था, उससे अधिक विरोध उनका भौतिकवादियों से था. इसी तरह शंकर का जितना विरोध बौद्धों से था, उतना ही लोकायतवादियों, सांख्य, वैशेषिक आदि के अनुयायियों से था. वास्तव में नागार्जुन की शून्यवादी और शंकर की मायावादी धाराएँ सामान्य सामाजिक अंतर्विरोधों से उत्पन्न हई थीं. संपत्तिशाली वर्गों के हित में उन्होंने दार्शनिक स्तर पर जीवन की समस्याओं को हल करने का प्रयत्न किया था. बौद्धों के लिए संसार अनित्य था, दुख का कारण था. वैसे ही शंकर के लिए संसार अनित्य था और दुख का कारण था. भारतीय दर्शन की यथार्थवादी धारा महाभारत के रचनाकाल में पूरी शक्ति से प्रवाहित थी. इसके अनेक प्रमाण उस ग्रंथ में हैं. शंकर के समय में भी वह धारा सूखी नहीं थी. उनके मायावाद को चुनौती देने के लिए वह विद्यमान थी.” (वही, पृष्ठ 429)
खास बात यह है कि प्राचीन संस्कृति की व्याख्या करते हुए भी रामविलास शर्मा यथार्थ की डोर को अपने हाथ से छूटने नहीं देते. उनके सांस्कृतिक चिंतन की यह बड़ी विशेषता है.
रामविलास जी ने महाभारतकालीन समाज की भी पुनर्व्याख्या की है और उस समाज को मूलत: गण-समाज कहा है. हालाँकि उनका यह विचार विवादों से परे नहीं है कि
“महाभारत का समाज एक ओर ऋग्वेद के समाज से, और दूसरी ओर रामायण के समाज से पिछड़ा हुआ है.”
महाभारत में राजनीति की जितनी बारीक चालें और जटिलताएँ हैं, व्यक्तित्व जितने उलझे हुए, अंतर्विरोधपूर्ण और पेचीदे हैं, कूटनीति और बौद्धिक सामर्थ्य का जो मेल है, वह रामायण की सीधी-सादी समाज-व्यवस्था को देखते हुए, कहीं अधिक बाद की, ज्यादा जटिल और बौद्धिक रूप से विकसित सभ्यता लगती है. लेकिन रामविलास जी पांडवों और कौरवों के जन्म की चमत्कारपूर्ण कथाओं के आधार पर महाभारतकालीन समाज को मातृसत्तात्मक व्यवस्था से जोड़ देते हैं. उनके अनुसार कायदे से तो पांडव और कौरव वंश कुंती और गांधारी के थे, पांडु और धृतराष्ट्र के नहीं. फिर महाभारतकालीन व्यवस्था को वे एक ऐसे संक्रमण के रूप में भी देखते हैं, जब पुरानी गण-व्यवस्था टूट रही थी और उसकी नैतिकता संकट में थी.
द्रौपदी के चीरहरण प्रसंग की लंबी व्याख्या करते हुए रामविलास जी यह सिद्ध करते हैं कि चाहे बहुमत दुर्योधन के खिलाफ था, लेकिन उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. हुआ वही, जो दुर्योधन ने चाहा. इससे वे यह साबित करते हैं कि पुरानी गण-व्यवस्था यहाँ तक आते-आते निस्तेज हो गई थीं. द्रौपदी के चरित्र, उसकी प्रतिशोध ज्वाला और तेजस्विता की भी बहुत बारीक व्याख्या रामविलास जी ने की है और कहीं-कहीं तो उनके वाक्य ‘भावमय’ होते-होते एकदम ‘काव्यमय’ हो गए हैं. वे लिखते हैं :
“महाभारत में बड़े-बड़े कुशल वक्ता हैं, पर जैसा उदात्त, मार्मिक भाषण यहाँ द्रौपदी का है, वैसा इस महाकाव्य में अन्यत्र किसी दूसरे का नहीं है. जो कुछ द्रौपदी चाहती है, उसे कार्यरूप में परिणत करने वाले कृष्ण हैं. द्रौपदी महाभारत की विराट भावशक्ति है. कृष्ण महाभारत की अपराजेय कर्मशक्ति हैं. इन दोनों के देखते अर्जुन आदि वीर वास्तव में निमित्त मात्र हैं.”
महाभारत में धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य को जिस क्रूरता के साथ मारा, अभिमन्यु को जिस बेरहमी से मारा गया, भीम ने जिस तरह दु:शासन की छाती फाड़कर उसका गरम रक्त पिया, या फिर कर्ण या दुर्योधन के वध के लिए जिस तरह धर्म और युद्ध के नियमों का परित्याग कर दिया गया, उसे देखते हुए रामविलास जी महाभारतकालीन समाज को कहीं अधिक पिछड़ा हुआ या अविकसित समाज घोषित करते हैं. उनके अनुसार,
“यह गण-समाजों का युग है. प्रतिहिंसा यहाँ का नियम है. प्रतिहिंसा की भावना को शांत करने के लिए क्रूरता की कोई सीमा निर्धारित नहीं है.”
इसी क्रूरता और बर्बरता के सर्वोच्च उदाहरण के रूप में रामविलास जी यदुवंशियों के परस्पर युद्ध और भयंकर आत्मविनाश का उदाहरण देते हैं, जो अपने ढंग का एक अलग ही उदाहरण है. वे कृष्ण के चरित्र और व्यक्तित्व की उन चमत्कारपूर्ण खूबियों की ओर भी हमारा ध्यान दिलाते हैं, जिससे महाभारत में हर नैतिक द्वंद्व और ऊहापोह के क्षण में कृष्ण हमें उपस्थित नजर आते हैं और अपनी निर्णायक भूमिका से उसे एक दिशा देते प्रतीत होते हैं. रामविलास जी के अनुसार, उस जर्जर गण-व्यवस्था को नष्ट करके एक विराट, शक्तिशाली राज्य की स्थापना करना उनका उद्देश्य था. हालाँकि वे यह कहना भी नहीं भूलते कि
“इस अति मानवीय द्वारिकावासी कृष्ण और गीता के अलौकिक ईश्वर कृष्ण में बड़ा अंतर है.”
‘महाभारत में गीता’ अध्याय में गीता की दार्शनिक पीठिका की पुनर्व्याख्या करते हुए रामविलास जी इस बात की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं कि गीता संन्यास पर नहीं, कर्म पर जोर देने वाला ग्रंथ है. गीता में योग और सांख्य को जितना महत्व मिला है, वह भी अकारण नहीं है. यह एक प्रकार से बुद्धि की ही प्रतिष्ठा है. यह बुद्धि जो नैतिक-अनैतिक तथा विवेक-अविवेक के बीच फर्क करती है.
गीता में संसार-रूपी कल्पवृक्ष का बड़े विस्तार से वर्णन है. यह ऐसा वृक्ष है जिसकी जड़ आकाश में है तथा यह नीचे धरती पर फलता-फूलता है. गीता में इसे ‘सनातन’ कहा गया है. रामविलास जी कल्पवृक्ष की इसी पूरी कल्पना की मीमांसा करते हुए कहते हैं कि यहाँ संसार को एकदम माया या मिथ्या नहीं माना गया, क्योंकि माया पर प्रहार करने का मतलब है, इस अनेक रंगों, रागों और विविधताओं वाले संसार-वृक्ष पर प्रहार करना! और पेड़ को नष्ट करना है, तो उसकी जड़ पर प्रहार करना चाहिए, शाखाओं पर नहीं. लेकिन जड़ पर कैसे प्रहार किया जाए? वह तो ब्रह्म है. इस तरह वे साबित करते हैं कि संसार-रूपी कल्पवृक्ष की पूरी अवधारणा संसार को मिथ्या साबित करने के लिए नहीं है, बल्कि संसार का महत्व प्रतिपादित करने के लिए है.
रामविलास जी का मानना है कि महाभारत और पुराणों में कई धाराओँ का मेल है. उसमें संसार को मिथ्या कहने वाली प्रवृत्ति भी है, हालाँकि यह पुराणों की मुख्य धारा नहीं है और लगता है, इसे बाद में कभी उनमें प्रविष्ट कराया गया. रामविलास जी बड़ी दृढ़ता के साथ कहते हैं—
“संसार को मिथ्या कहने वाली प्रवृत्ति पुराणों की मुख्यधारा नहीं है, परंतु वह भी पुराणों में है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता. वह शंकर के प्रभाव से उत्पन्न हुई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता. क्षीण धारा के रूप में वह गीता में है और उसका पूरा प्रवाह ब्रह्मसूत्रों में दिखाई देता है. संसार को मिथ्या कहने वाली विचारधारा के जन्मदाता शंकर नहीं थे, परंतु वह उसके पोषक अवश्य थे. उन्होंने और उनके अनुयायियों ने से अपने प्रचार से इसे व्यापक रूप दिया. महाभारत की तरह पुराणों का वेदांतीकरण हुआ. उनके आदि रूप में वेदांत बिल्कुल न रहा हो, यह बात नहीं है. वेदांत के एक विशेष रूप का उनमें प्रवेश कराया गया. यह रूप उपनिषदों की तरह ब्रहम को और प्रकति को परस्पर संबद्ध ने मानकर दोनों को अलग करता था और ब्रहम को प्रकृति से परे बताता था. महाभारत की तरह पुराणों का वैष्णवीकरण भी हुआ. महाभारत में वैष्णवीकरण की यह प्रकिया स्पष्ट देखी जा सकती है. कृष्ण का एक रूप वह है, जहाँ वे ईश्वर नहीं हैं, दूसरा वह है जहाँ वे ईश्वर के अवतार हैं. यह बहुत संभव है, राजवंशी काव्य की तरह पुराणों में वीरों के चरित्र का वर्णन किया गया हो, आगे चलकर इस वर्णन में अवतारों की कथा जोड़ी गई हो. राजवंशों का इतिहास लिखने की परंपरा, लौकिक घटनाओं का विवरण देने की परंपरा पुराणों में बराबर बनी रही. यही इनकी मूल विशेषता ज्ञात होती है.” (वही, पृष्ठ 439)
हालाँकि पुराणों की कुछ सीमाएँ ऐसी हैं, जिन्हें प्रायः सभी स्वीकार करते हैं. पुराणों की अति कल्पनाएँ कई बार अरुचिकर लगती हैं, जिससे उनका प्रभाव विरल होने लगता है. रामविलास जी इस ओर इशारा करते हुए लिखते हैं,
“परंतु पुराण अपनी अति कल्पना के लिए बदनाम हैं. हजारों साल तक जीवित रहना, हजारों पुत्र उत्पन्न करना, हजारों साल तक तपस्या करना, ऐसी असंभव घटनों का वृत्तांत भी पुराणों में है. इस यथार्थविरोधी पौराणिकता का प्रवेश भी पुराणों में कराया गया. इतिहास-तत्व कम होता गया और अतिरंजित अतिमानवाय घटनाओं की बाढ़ आ गई. इससे पुराणों का मूल चरित्र ही बदल गया.” (वही, पृष्ठ 439)
रामविलास शर्मा की आलोचनात्मक दृष्टि विभिन्न क्षेत्रों में विचरती थी । साहित्य समाज और संस्कृति में जी कुछ भी मूल्यवान है उसकी फिक्र करती है । बहुत दूर तलक हमारी संस्कृति और परंपरा में धंसकर उसक विश्लेषण करती हैं ।ऋग्वेद तक जाने का साहस करना रामविलास शर्मा के लिए ही संभव है। प्रकाश मनु और समालोचन को इस अपूर्व मेधा को पुनर्विष्कृत करने के लिए बधाई दी जानी चाहिए। बधाई
प्रकाश मनु जी ने रामविलास शर्मा का गहन अध्ययन करके जो सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है।
उन्हें साधुवाद और अरुण जी को धन्यवाद।
अत्यंत सारगर्भित लेख। राम विलास शर्मा जी के लेखन और चिंतन के संदर्भ में एक नयी दृष्टि देता हुआ। प्रकाश मनु जी को साधुवाद और समालोचन का हार्दिक धन्यवाद।
रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि का दायरा इतना विस्तृत था कि इतिहास,समाज,भाषा,संस्कृति और जातीय परंपरा के सवालों को भी उन्होंने साहित्य और आलोचना के मूल सरोकारों से जोड़ा। बहुत सी स्थापित मान्यताओं और अवधारणाओ पर उनसे सहमति असहमति हो सकती है,लेकिन उनकी प्रखर मेधा और वैचारिक चिंतन की तार्किकता और एक ईमानदार आलोचना की प्रतिबद्धता पर कोई उँगली नहीं उठा सकता। इस आलेख के लिए प्रकाश मनु को साधुवाद !
डा.शर्मा जी का मार्क्सवादी उन कठमुल्ले और छद्म माकर्सवादियों से अलग था जो उसे एक बौद्धिक संप्रदाय में समेट कर अपना मठ बनाना चाहते थे।वे किसी भी विचार की परीक्षा जीवन यथार्थ की भूमि पर करना चाहते थे।उन्हें जितना प्यार बैसवाड़ा से था उतना ही भारत और उसकी विरासतों से,ठीक मैथिल नागार्जुन की तरह।
प्रकाश मनु जी ने उन्हें सही परिप्रेक्क्ष्य मे देखा और रखा है ।मेरी अपनी जानकारी में वे विचारों की परख की प्रक्रिया में बेहद सतर्क किन्तु उन्मुक्त थे।आर्यों वाले मुद्दे पर वे दयानंद, जयशंकरप्रसाद और भगवान सिह के साथ हैं।पर तर्कसहित।
वे हिन्दी के समर्पित साधक थे जिन्हें कुछेक प्रशंसक ऋषि माना और कहा करते थे।डा. शर्मा यह भी मानते थे कि विरासत की सत्ता किसी भी व्यक्तिसत्ता और उसकी महत्वाकांक्षा से बड़ी और कालजीवी होती है।इसलिए अन्यों की तरह वे ऐसे किन्हीं मुगालतों से मुक्त रहे।
. ….. .विजय बहादुर सिंह