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Home » रामविलास शर्मा और ऋग्वेद: प्रकाश मनु » Page 3

रामविलास शर्मा और ऋग्वेद: प्रकाश मनु

प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा बाद में ऋग्वेद के अध्ययन की ओर उन्मुख हुए, इसे कई आलोचक विचलन की तरह देखते हैं, जबकि इसे मूल से भारतीय संस्कृति को समझने के उपक्रम की तरह भी देखा जा सकता है. एक प्रश्न के उत्तर में आलोचक मैनेजर पाण्डेय कहते हैं- “ऋग्वेद पर लिखने और बोलने का एकाधिकार इस देश के पंडितों, पुरोहितों और संतो को ही नहीं है. ऋग्वेद एक ग्रंथ है उसका एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व और मूल्य है, इसे हर आदमी जानता है. तब उस पर बात करने और विचार करने का अधिकार रामविलास शर्मा या किसी को क्यों नहीं है. हाँ, रामविलास जी ने वहां क्या देखा और उस पर क्या लिखा इस पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए. केवल उनके उधर जाने की आलोचना का कोई मतलब नहीं है. “ इस आलेख में प्रकाश मनु ने विस्तार से रामविलास शर्मा के सांस्कृतिक अध्ययन और ऋग्वेद से सम्बन्धित उनके निष्कर्षों को प्रस्तुत किया है.

by arun dev
October 11, 2021
in आलेख
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भारत में भक्ति की परंपरा बहुत प्राचीन काल से रही है, वेद-पुराणों से चली उसकी भावधारा हजारों बरसों से भारतीय समाज को आप्लावित करती रही है. यहाँ तक कि लोकभाषाओं में भी वह भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुई और उसने पढ़े-लिखे हों या अनपढ़, लाखों लोगों के दिलों को निमज्जित किया. रामविलास जी इस निर्मल भक्तिधारा की गहनता से पड़ताल करते हैं.

‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ पुस्तक का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है, ‘वेद, पुराण और धर्मशास्त्र: भक्ति और सदाचार’. इसमें रामविलास जी ने भक्ति की प्रगतिशील भूमिका को रेखांकित किया है. इस भक्ति के तीव्र प्रवाह में धर्म के अनेक अंधविश्वास और कर्मकांड टूटने लगते हैं. छोटे-बड़े का भेद खत्म होता है और स्त्रियों को भी एक तरह से बराबरी का दर्जा मिलता है. वे अपने पतियों से अलग भी निर्णय ले सकती हैं. इस संदर्भ में रामविलास जी भागवत के दसवें स्कंध की एक रोचक कथा की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं. एक बार यमुना किनारे कृष्ण ग्वालों के साथ गायें चरा रहे थे. ग्वालों को भूख लगी. कृष्ण ने उनसे कहा,

“यहाँ से थोड़ी दूर पर कुछ वेदपाठी ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से आंगिरस नाम का यज्ञ कर रहे हैं. तुम उनसे मेरा और मेरे भाई बलराम का नाम लेकर भात माँग लाओ.”

ग्वाले गए, लेकिन वहाँ अन्न न पाकर भूखे ही कृष्ण के पास लौट आए. तब कृष्ण ने उनसे कहा, “इस बार तुम लोग उनकी पत्नियों के पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आए हैं. तुम जितना चाहोगे, उतना भोजन तुम्हें देंगी. वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं. उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है.”

और सचमुच ग्वालों के वहाँ जाकर भोजन माँगने पर ब्राह्मण पत्नियों ने उन्हें भोजन तो दिया ही, उनके साथ चलने के लिए भी तैयार हो गईं. पुरुषों ने रोका, पर वे किसी की बात सुनने को तैयार नहीं हुईं.

रामविलास जी बाइबिल के ‘न्यू टेस्टामेंट’ यानी ‘नया धर्म नियम’ की भजन-संहिता  के कुछ उदाहरण देते हैं, श्रीमद्भागवत से जिनका सादृश्य चकित करने वाला है. उन्हीं के शब्दों में :

“निष्कर्ष यह है कि भक्ति की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है. आधुनिक भाषाओं में जिस भक्ति साहित्य का विकास हुआ, उसमें और ईसाई भक्ति साहित्य में अनेक समानताएँ अवश्य हैं….प्राचीन अभिलेखों से भारतीय आर्य सामंतों का अस्तित्व पश्चिम एशिया में प्रमाणित है. इसलिए यह निष्कर्ष तर्कसंगत है कि ऋग्वेद और बाइबिल के पुराने अंश में जो समानताएँ दिखाई देती हैं, वे वैदिक संस्कृति के प्रभाव का परिणाम हैं. यह प्रभाव यहूदी संस्कृति के माध्यम से उत्तरकालीन ईसाई भक्ति में भी चला आया है.” (वही, पृष्ठ 454)

चरकसंहिता चिकित्सा का ग्रंथ है, पर उसमें ऐसा बहुत कुछ है जिससे उस काल के समाज के साथ-साथ प्रकृति और संसार को देखने की एक अलग और यथार्थवादी दृष्टि भी है. नदियों का जल लाभकारी है. पर किस नदी का जल कितना लाभकारी है, चरकसंहिता में बताया गया है. रामविलास जी चरकसंहिता की वैज्ञानिक दृष्टि की एक झलक प्रस्तुत करते हैं—

“चरकसंहिता में जो बातें नदियों के जल के बारे में कही गई हैं, वे बहुत रोचक हैं. उनसे पता चलता है कि देश का कौन-सा भाग, मुख्य रूप से चरक संहिता के निर्माता या निर्माताओं के सामने था. जो नदियाँ हिमालय से निकलती हैं, उनका जल पत्थरों से टकराकर आगे बढ़ता है. इन नदियों का जल सभी प्राणियों के लिए पथ्य होता है. मलयाचल से निकली नदी का जल स्वच्छ और अमृत के समान मीठा होता है….यहाँ सिद्धांत यह मालूम होता है कि नदी तेजी से बहे तो उसका जल हितकारी होगा और धीमे बहे तो उसका जल भारी होगा, किंतु गंगा हरिद्वार तक एक ढंग से बहती है, हरिद्वार से प्रयाग तक दूसरे ढंग से और प्रयाग से बंगसागर तक तीसरे ढंग से. उसके समांतर बहने वाली और प्रयाग में उससे मिल जाने वाली यमुना का जल भारी होता है और उसकी तुलना में गंगा का जल बहुत ही लाभकारी है, ऐसा लोग कहते हैं.” (वही, पृष्ठ 541)

इसी तरह रामविलास जी भारतीय दार्शनिक यथार्थवाद की आधारपीठिका की बहुत गंभीरता से व्यापक चर्चा करते हैं. उनका कहना है कि भक्ति, योग, वैराग्य आदि के बावजूद भारतीय समाज यथार्थ से कटा हुआ समाज नहीं है, बल्कि मूलतः यथार्थवादी ही है. इसी तरह संन्यास को वे भारतीय परंपरा नहीं मानते. उनका कहना है कि हमारे यहाँ गृहस्थ आश्रम पर बहुत जोर दिया गया है और उसे ही सबका मूल माना गया है, जिसके जरिए धर्म और पुरुषार्थ दोनों ही अच्छी तरह किए जा सकते हैं और उसी से यह संसार भी टिका है.

‘दार्शनिक यथार्थवाद और चरक’, ‘योग, वैराग्य और गौतम बुद्ध’ तथा ‘दार्शनिक यथार्थवाद, कौटिल्य, और कालिदास’ अध्यायों में रामविलास जी यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि माया, अध्यात्म और संन्यास की प्रचुर चर्चा के बावजूद भारतीय संस्कृति की मूलधारा यथार्थवादी है, जिसमें जीवन का व्यापक स्वीकार है. इसीलिए चिकित्सा विज्ञान की हमारे यहाँ एक अत्यंत प्राचीन और समुन्नत परंपरा है, जहाँ शरीर के अवयवों का वस्तुपरक वर्णन नहीं हुआ, बल्कि वृक्षों और औषधियों के बारे में भी बहुत विस्तृत वर्णन मिलते हैं. वे सिद्ध करते हैं कि यह चिकित्सा विज्ञान के प्रादुर्भाव का नहीं, बल्कि चिकित्सा विज्ञान के ‘विशेषीकरण’ का दौर था.

ऐसे ही गौतम बुद्ध के बारे में रामविलास जी का मानना है कि वे केवल धर्म और संन्यास के बारे में ही नहीं सोचते, बल्कि वे गरीबी के दुख और मानवीय करुणा से भीतर तक आप्लावित होते हैं. उनका संन्यास भी कर्महीन संन्यास न होकर इस जीवन से कहीं गहरे जुड़ा है. और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बौद्ध दर्शन बुद्धि और विवेक का रास्ता नहीं छोड़ता, बल्कि उसी को अंतत: निर्णायक भी मानता है.

रामविलास जी इस बात के लिए बौद्ध धर्म की खुलकर प्रशंसा करते हैं. उनके शब्दों में—

“बुद्ध की सबसे शानदार घोषणा यह है कि किसी ने कहा, इसलिए मान लिया, किसी पुस्तक में लिखा है, इसलिए मान लिया, श्रद्धावश मान लिया, ऐसा न करना चाहिए. अपने विवेक से काम लेना चाहिए और विवेक से बढ़कर अपने अनुभव से देखना चाहिए कि यह बात सही है या गलत.”

इसी तरह बुद्ध का महत्व प्रतिपादित करने के लिए गढ़ी गई अनेक कथाओं का वर्णन करने के बाद रामविलास जी लिखते हैं,

“चमत्कारों से भरी इन बौद्ध कहानियों में एक यथार्थवाद की अंतर्धारा है, जिससे उस समय के समाज के बारे में बहुत सी बातें जानी जा सकती हैं.”

कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ तो खैर, बहुत अधिक यथार्थवादी तथा जीवन को ठोस तर्कणा के आधार पर परखने वाली कृति है ही. पर रामविलास जी घोर रोमांटिक भावबोध के कवि समझे जाने वाले कालिदास की रचनाओं की भी यथार्थवादी व्याख्या कर दिखाते हैं. उनके इस मत का आधार यह है कि कालिदास की रचनाओं में अनेक विविधताओं से भरे इस देश की प्रकृति और सौंदर्य के अत्यंत सजीव चित्र, सजीव भाषा में ढलकर सामने आते हैं.

यही परंपरा आगे चलकर हिंदी साहित्य में ढलती दिखाई देती है. हिंदी के भक्तिकालीन कवियों के संबंध में रामविलास जी की यह स्थापना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि भक्तिकालीन कवियों ने ऊपर से अनगढ़ नजर आती लोकभाषा और लोक-शैलियों का सहारा जात-पाँत तोड़ने और समाज-सुधार की जो मुहिम शुरू की, उसका हिंदी पट्टी पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा. इससे बहुत से अंधविश्वासों और रूढ़ियों की दीवारें हिल गईं और भारतीय समाज बहुत तरह की संकीर्णताओं से बाहर निकलकर मानव-समता के आदर्श की ओर बढ़ा. लिहाजा धर्म और अध्यात्म का संदेश देने के बावजूद, अपने समय में भक्तिकालीन कवियों की भूमिका प्रगतिशील ही कही जाएगी.

भक्तिकाल से पहले का समय रीतिकाल का है, जब सामंतवाद का प्रभुत्व था. हर जगह भक्तिकाल से पहले का दौर रीतिकाव्य का रहा है, जिसमें सामंतों की वीरता और वैभव आदि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाता था. सामंतवाद की बहुत सी सीमाएँ हैं. रामविलास जी उनकी ओर इशारा करते हुए कहते हैं,

“भारत के विभिन्न प्रदेशों में सामंतवाद का विकास एक ही गति से नहीं हुआ और एक ही समय में नहीं हुआ. दक्षिण भारत में ही कर्णाटक, आंध्र प्रदेश की परिस्थितियों में तथा तमिलनाडु की परिस्थितियों में यथेष्ट अंतर था. महाभारत को आधार बनाकर वीर काव्य रचने की जैसी आवश्यकता कर्णाटक और आंध्रप्रदेश के राजकवियों के लिए थी, वैसी आवश्यकता तमिलनाडु के राजकवियों के लिए नहीं थी. परंतु तीनों ही प्रदेशों में भक्तिकाव्य से पहले रीतिकाव्य रचा गया था, यह निश्चित है.” (वही, पृष्ठ 66)

साहित्य में वीरगाथाकाल सामंती युद्धों का समय है जबकि चारण-काव्य बहुलता से लिखा गया, जिनमें सामंतों की वीरता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है. रामविलास जी संस्कृति और साहित्य के विकास का काल इसे नहीं मानते. उनका कहना है—

“वीरगाथाकाल का संबंध सामंतों के आपसी युद्धों से है. इन युद्धों के बिना उनके वीर रस की कल्पना नहीं की जा सकती है, परंतु यह वीर रस भाषा और साहित्य के विकास के लिए घातक भी था. जहाँ सामंत छोटे-छोटे राज्यों में बँटे रहेंगे, आपस में युद्ध करते रहेंगे, वहाँ जनपदीय बोलियों के क्षेत्र भी एक-दूसरे से अलग रहेंगे, मंडियाँ आबाद न होंगी, व्यापारिक संबंधों का विकास न होगा, साहित्य में मानक भाषा की प्रतिष्ठा दुष्कर होगी. हर प्रदेश के साहित्य के प्रारंभिक दौर में भाषा और बोलियों की विविधता दिखाई देती है, इसी से लोग पुरानी बांग्ला, पुरानी मराठी, पुरानी हिंदी जैसे शब्दबंधों का प्रयोग करते हैं.” (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, दूसरा खंड, पृष्ठ 67)

बाद में मुसलिम इस देश में आए. वे आक्रांता बनकर आए थे, पर इस देश और समाज की मुख्य धारा में घुल-मिल गए. इससे भारतीयों का रहन-सहन और संस्कृति दोनों की प्रभावित हुए. हिंदू और मुसलमानों की साझी विरासत को लेकर रामविलास जी की दृष्टि समावेशी रही है. इसलिए भारत में इस्लाम के प्रवेश को वे अन्य संस्कृति-चिंतकों की तरह सारे अनर्थ की जड़ नहीं मानते और हिंदी तथा मुसलिम संस्कृति के मेल से जन्म लेने वाली साझा हिंदुस्तानी संस्कृति को वे बहुत आशा भरी दृष्टि से देखते हैं तथा उसके बहुत से प्रगतिवादी तत्वों को रेखांकित करते हैं—

“कुछ इतिहासकार भारत में इस्लाम के प्रवेश को सारे अनिष्ट की जड़ मानते हैं. इनके अनुसार शताब्दियों से हिंदू समाज वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत फल-फूल रहा था. इस्लाम के साथ नई जीवनपद्धति आई और इससे हिंदू संस्कृति को भारी धक्का लगा….जिन ग्रंथों में मुसलमानों के शासनकाल को अंधकार युग कहा जाता है, उन्हीं में इस अंधकार के भीतर से नई भाषाओं और साहित्य का प्रकाश भी फैलता दिखाया जाता है. प्रारंभिक लूटमार के बाद यहाँ का आर्थिक जीवन निर्बाध गति से चलता रहा. इसी से यहाँ जातीय संस्कृतियों के विकास का ठोस भौतिक आधार मिला, इसी से तुर्क आक्रमणकारी अपना तुर्कपन खोकर यहाँ की प्रादेशिक जातियों में घुल-मिल गए.” (वही, पृष्ठ 5-6)

बाद में अंग्रेजों का काल आया, जिन्होंने छल-छद्म से यहाँ की जनता को लूटा और यहाँ के फलते-फूलते उद्योग-धंधों को चौपट किया. भारत के दम पर इंग्लैंड फलता-फूलता गया और भारत भूख, गरीबी और दैन्य की हालत में आ गया. जनता उनके उत्पीड़न और अत्याचारों से दुखी थी. हालाँकि ऐसे समय में भी समाज में जागृति का शंखनाद करने वाले तेजस्वी महानायकों ने इस देश में जन्म लिया. उन्हीं में बंकिम, रवींद्रनाथ ठाकुर और विवेकानंद भी थे. उन्होंने जागृति का की लहर पैदा करके सोई हुई भारतीय जनता को जगाया. उन्हें अपने गौरवपूर्ण अतीत और सांस्कृतिक परंपराओं पर गर्व करना सिखाया.

देउस्कर ने अपनी पुस्तक में अंग्रेजी राज के उत्पीड़न की जो तसवीर खींची है, रामविलास जी उसे पूरी तरह सही मानते हैं. उनका कहना है,

“देउस्कर की इस आलोचना की कुछ विशेषताएँ ध्यान देने योग्य हैं. अंग्रेजी राज में भारत का पैसा कैसे विलायत जाता है, और यह देश दिन-पर-दिन निर्धन होता जाता है, कैसे यहाँ के उदयोग-व्यापार का नाश अंग्रेजों ने किया, इसका विस्तार से वर्णन किया गया है. इस तरह के विवेचन से सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है, कि जब तक भारत आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा न होगा, तब तक वह स्वाधीन नहीं हो सकता. देउस्कर ने स्वदेशी आंदोलन का जोरों से समर्थन किया है. वे बंगाल की जातीय एकता के भी प्रबल समर्थक थे. बंगाल का विभाजन होने पर उसे खत्म करने के लिए जो आंदोलन चला, उसका भी वे समर्थन करते थे. उनका रास्ता मध्यवर्गीय क्रातिकारियों का रास्ता नहीं है. कुछ लोग वीरता के काम करके, शस्त्रों का इस्तेमाल करके, अंग्रेजी राज खत्म कर देंगे, यह धारणा उनकी पुस्तक में कहीं भी नहीं है….”

देउस्कर के पाँव यथार्थ की जमीन पर हैं और वे जोर देकर यह बात कहते हैं कि नौजवानों को गाँवों में जाकर काम करना चाहिए. रामविलास जी देउस्कर के इस विचार का पूरी तरह समर्थन करते हैं. उनका कहना है कि “वास्तव में 19वीं सदी में बंगाल में कुछ ऐसे बुद्धिजीवी भी थे जो गाँवों में जाकर किसानों को उनकी दशा के बारे में बताते थे. बंकिमचंद्र और उनके समकालीन बुद्धिजावियों ने यह जमीन तैयार कर ली थी कि लोगों को बंगाली जातीयता का बोध हो. यदि उनके जातीय प्रदेश का विभाजन हो तो उनके हृदय को ठेस लगे और वे उसके विरुद्ध लड़ने-मरने को तैयार हो जाएँ.” (वही, पृष्ठ 329)

बंकिमचंद्र चटर्जी की तरह ही रामविलास जी स्वामी विवेकानंद के देशभक्तिपूर्ण तेजस्वी व्यक्तित्व की चर्चा भी बड़े आदर से करते हैं, जिसने पूरे देश को झकझोर डाला. उन्होंने भारतवासियों को अपने महान देश और महान संस्कृति पर गर्व करना सिखाया. रामविलास जी बड़े भावपूर्ण ढंग से विवेकानंद के ओजस्वी व्यक्तित्व और वैचारिक ऊर्जा का स्मरण करते हुए, देश के सांस्कृतिक जागरण में उनकी भूमिका को रेखांकित करते हैं—

“बंगाल के विचारकों में बहुत ऊँचा स्थान विवेकानंद का है. उन्होंने बंगाल में और बंगाल के बाहर अपने समय में और उसके बाद भी, जितने नौजवानों को प्रभावित किया, उतने लोगों को बंगाल के किसी और विचारक ने प्रभावित नहीं किया. ब्राह्म समाज में बहुत से जमींदार थे, लेकिन रामकृष्ण मिशन और स्वामी विवेकानंद से जुड़े हुए लोग अधिकतर मध्यवर्ग के थे. स्वामी विवेकानंद को अंग्रेजी राज की देन कैसे कहा जा सकता है? उनकी प्रेरणा के समस्त स्रोत भारतीय हैं. इस देश के दर्शन और यहाँ की संस्कृति में लोगों को जगाने की क्षमता थी. यह स्वामी विवेकानंद के उदाहरण से स्पष्ट होता है. सुशोभन सरकार सही कहते हैं, सामान्य जातीय उभार निस्संदेह राजनीतिक चेतना और आंदोलन तक सीमित नहीं था. जातीय शक्ति, आत्मविश्वास, ऊर्जा और अभिमान स्वामी विवेकानंद में साकार दिखाई देते हैं.”

बंगाल के चिंतक और इतिहासकार सुशोभन सरकार विवेकानंद समेत उस दौर की समूची चिंतनधारा पर अंग्रेजी संस्कृति की छाप देखते हैं. रामविलास जी इसका सख्ती से खंडन करते हुए कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद में अपार तेजस्विता, देशभक्ति और जातीय अभिमान था, पर वह उन्हें भारत और भारतीय वेदांत से प्राप्त हुआ था, अंग्रेजों से नहीं. वे थोड़ा आवेग भरे स्वर में पूछते हैं—

“क्या उसे स्वामी विवेकानंद ने अंग्रेजों से प्राप्त किया था? क्या उन्होंने अपनी देशभक्ति अंग्रेजों से सीखी थी? क्या उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस अंग्रेजी राज की देन थे? अपने निबंध के आरंभ में सुशोभन सरकार ने जो स्थापना की है, वह स्वामी विवेकानंद का नाम लेते ही ध्वस्त हो जाती है.” (वही, पृष्ठ 320)

रामविलास जी भारतीय संस्कृति पर विचार करते हुए भाषा और संस्कृति के गहरे संबंध की भी व्याख्या करते हैं. उनका कहना है,

“जातीय चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम प्रादेशिक भाषा होती है. रवींद्रनाथ ठाकुर, सुब्रह्मण्य भारती, निराला के साहित्य में बांग्ला, तमिल और हिंदी के प्रति उत्कट प्रेम देखा जा सकता है. ये भाषाएँ ही उनके राष्ट्रवाद और मानवतावाद की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं. जातीय चेतना वह उत्स है जिससे देशप्रेम और मानवप्रेम की धाराएँ फूटती हैं. बंगभंग के विरोध ने जातीय चेतना को, उसके साथ राष्ट्रीय चेतना को समृद्ध किया. जातीय चेतना केवल भाषागत, प्रदेशगत चेतना नहीं है. उसमें साम्राज्य-विरोध, सामंती रूढ़ियों का विरोध तथा समाज को पुनर्गठित करने की धारणाएँ शामिल हैं.” (वही, पृष्ठ 7)

उस समय के प्रायः सभी चिंतकों ने राष्ट्र-रचना में हिंदी की बड़ी भूमिका की चर्चा की है. बंकिमचंद्र चटर्जी भी हिंदी के महत्त्व को बड़े आदर के साथ स्वीकार करते हैं. साथ ही लोगों का आह्वान करते हैं कि वे हिंदी बोलें और हिंदी में जनता को संबोधित करें, क्योंकि हिंदी के जरिए समूचे देश की जनता से संवाद हो सकता है. बंग-दर्शन में बंकिम हिंदी के महत्त्व पर एक लंबा लेख लिखकर उसे अपनाने का आह्वान करते हैं. बांग्ला में लिखे गए अपने लेख के अंत में उन्होंने देवनागरी अक्षरों में लिखकर अपना यह संदेश प्रचारित किया—

“अंग्रेजी भाषा द्वारा जो भी हो जाए, किंतु हिंदी शिक्षा न पाने पर काम बनेगा नहीं. हिंदी भाषा में पुस्तकें और वक्तृता द्वारा वे भारत के अधिकांश स्थानों का मंगल-साधन करेंगे, केवल बांग्ला और अंग्रेजी की चर्चा से काम न चलेगा. पूरे भारत की जनसंख्या को देखते हुए बांग्ला और अंग्रेजी बोलने और समझने वाले कितने लोग हैं. बांग्ला की तरह हिंदी की उन्नति नहीं होती, यह देश का दुर्भाग्य है. (बांग्लार न्याय जे हिंदीर उन्नति होइतेछे ना, इहा देशेर दुर्भाग्येर विषय.) हिंदी भाषा की सहायता से भारत वर्ष के विभिन्न प्रदेशों के बीच जो ऐक्य-बंधन स्थापित कर सकेंगे, वही लोग वास्तविक भारत-बंधु नाम के अधिकारी होंगे. सभी लोग चेष्टा करें, यत्न करें, जितने भी दिन लगें, मनोरथ पूर्ण होगा.” (वही, पृष्ठ 340)

भाषा और संस्कृति परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. एक को दूसरे से काटकर नहीं देखा जा सकता. रामविलास जी स्वीकार करते हैं कि भाषा और संस्कृति के इस अन्योन्याश्रित संबंध के कारण ही उनके मन में ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ पुस्तक लिखने का खयाल आया. बरसों पहले धीरेंद्र वर्मा की पुस्तक ‘हिंदी राष्ट्र और सूबा हिंदुस्तान’ आई थी. उसमें उन्होंने भाषा, राष्ट्र और संस्कृति के अविच्छिन्न आपसी संबंध की ओर इशारा करते हुए हिंदी राष्ट्र के विशाल इतिहास के लेखन की जरूरत को रेखांकित किया. उनका कहना था, “हिंदी में हिंदी राष्ट्र के विशाल इतिहास की अभी कल्पना भी नहीं हो पाई है.”

रामविलास जी की महत्वाकांक्षी कृति ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ मानो उसी का मुकम्मल जवाब है. हालाँकि पुस्तक की भूमिका में वे बहुत विनम्रता से कहते हैं, “मेरी यह किताब उस कल्पना को साकार करने का प्रारंभिक प्रयास मात्र है.” (वही, पृष्ठ

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Comments 5

  1. रमेश अनुपम says:
    1 year ago

    रामविलास शर्मा की आलोचनात्मक दृष्टि विभिन्न क्षेत्रों में विचरती थी । साहित्य समाज और संस्कृति में जी कुछ भी मूल्यवान है उसकी फिक्र करती है । बहुत दूर तलक हमारी संस्कृति और परंपरा में धंसकर उसक विश्लेषण करती हैं ।ऋग्वेद तक जाने का साहस करना रामविलास शर्मा के लिए ही संभव है। प्रकाश मनु और समालोचन को इस अपूर्व मेधा को पुनर्विष्कृत करने के लिए बधाई दी जानी चाहिए। बधाई

    Reply
  2. रवि रंजन says:
    1 year ago

    प्रकाश मनु जी ने रामविलास शर्मा का गहन अध्ययन करके जो सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है।
    उन्हें साधुवाद और अरुण जी को धन्यवाद।

    Reply
  3. श्रीविलास सिंह says:
    1 year ago

    अत्यंत सारगर्भित लेख। राम विलास शर्मा जी के लेखन और चिंतन के संदर्भ में एक नयी दृष्टि देता हुआ। प्रकाश मनु जी को साधुवाद और समालोचन का हार्दिक धन्यवाद।

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    1 year ago

    रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि का दायरा इतना विस्तृत था कि इतिहास,समाज,भाषा,संस्कृति और जातीय परंपरा के सवालों को भी उन्होंने साहित्य और आलोचना के मूल सरोकारों से जोड़ा। बहुत सी स्थापित मान्यताओं और अवधारणाओ पर उनसे सहमति असहमति हो सकती है,लेकिन उनकी प्रखर मेधा और वैचारिक चिंतन की तार्किकता और एक ईमानदार आलोचना की प्रतिबद्धता पर कोई उँगली नहीं उठा सकता। इस आलेख के लिए प्रकाश मनु को साधुवाद !

    Reply
  5. Vijaybahadursingh says:
    1 year ago

    डा.शर्मा जी का मार्क्सवादी उन कठमुल्ले और छद्म माकर्सवादियों से अलग था जो उसे एक बौद्धिक संप्रदाय में समेट कर अपना मठ बनाना चाहते थे।वे किसी भी विचार की परीक्षा जीवन यथार्थ की भूमि पर करना चाहते थे।उन्हें जितना प्यार बैसवाड़ा से था उतना ही भारत और उसकी विरासतों से,ठीक मैथिल नागार्जुन की तरह।
    प्रकाश मनु जी ने उन्हें सही परिप्रेक्क्ष्य मे देखा और रखा है ।मेरी अपनी जानकारी में वे विचारों की परख की प्रक्रिया में बेहद सतर्क किन्तु उन्मुक्त थे।आर्यों वाले मुद्दे पर वे दयानंद, जयशंकरप्रसाद और भगवान सिह के साथ हैं।पर तर्कसहित।
    वे हिन्दी के समर्पित साधक थे जिन्हें कुछेक प्रशंसक ऋषि माना और कहा करते थे।डा. शर्मा यह भी मानते थे कि विरासत की सत्ता किसी भी व्यक्तिसत्ता और उसकी महत्वाकांक्षा से बड़ी और कालजीवी होती है।इसलिए अन्यों की तरह वे ऐसे किन्हीं मुगालतों से मुक्त रहे।
    . ….. .विजय बहादुर सिंह

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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