रंजीत गुहा
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‘रंजीत गुहा का जन्म पूर्वी बंगाल के बाकरगंज के सिद्धाकटी गाँव में 1922 में हुआ था’- यह वाक्य शाहिद अमीन और गौतम भद्र के द्वारा लिखे गए एक जीवनीपरक निबंध में आता है जो सबाल्टर्न स्टडीज़ के खंड आठ में संकलित है. इस हिसाब से रंजीत गुहा पिछले वर्ष, यानी 2022 में ही सौ वर्ष के हो जाते लेकिन गुहा के एक और साथी पार्थ चटर्जी ने उनके उन लेखों, व्याख्यानों और भूमिकाओं को एकत्र कर, उनके सम्मान में ‘स्माल वॉइस ऑफ़ हिस्ट्री’ नामक एक किताब सम्पादित की और उसमें उनके जीवन परिचय को लिखते समय एक फुटनोट लगा दिया कि उनका जन्म 1922 में नहीं बल्कि 1923 में हुआ था! तो इस प्रकार एक इतिहासकार के जीवन की शताब्दी एक वर्ष आगे खिसक गई.
उसका जीवन परिचय उसके पेशे के हिसाब से फुटनोटेड हुआ, वह भी उसके जीवन काल में ही.
यह तो हुई एक हल्की-फुल्की बात लेकिन उनके जीवन की जो सबसे गंभीर बात है, वह सचाई और इतिहास के प्रति उनका समर्पण भाव है. रंजीत गुहा के पिता राधिका रंजन गुहा वकील थे और बाद में वे ढाका हाईकोर्ट के जज बने. रंजीत गुहा के दादा ने उन्हें संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेज़ी भाषा पढ़ाने में विशेष रुचि ली जिसका प्रकटीकरण उनके जीवन के उत्तरार्ध में देखने को मिला जब वह इतिहास-लेखन के अपेक्षाकृत शुष्क क्षेत्र से गुजरते हुए संस्कृत काव्यशास्त्र की तरफ़ आकर्षित हुए. उन्होंने डी. एच. लॉरेंस, दोस्तोयेव्स्की और माइकेल मधुसूदन दत्त को पढ़ा. बाद में न केवल रबीन्द्रनाथ टैगोर की तरफ गए बल्कि उन्होंने बांग्ला भाषा में लिखा भी. साहित्य का यह अनुराग उनके लेखन को एक स्थाई चमक देता है. एक इतिहासकार के रूप में उन्होंने अपनी भाषा को न केवल साहित्यिक ऊँचाइयाँ दीं बल्कि उनके एक महत्त्वपूर्ण परचे का शीर्षक ही है : the Prose of Counter-Insurgency.[1]
अभी हाल ही में, वर्ष 2019 में आनंद पब्लिशर्स ने बांग्ला में उनका काम बहुत ही सुंदरता के साथ प्रकाशित किया है. इसकी भूमिका उनके साथी बुद्धिजीवी पार्थ चटर्जी ने लिखी है. इससे हम यह भी सीख सकते हैं कि अपने वरिष्ठ विद्वानों से कैसे पेश आएं. वास्तव में, बांग्ला भाषा की तरफ़ उनका मुड़ना किसी व्यक्ति का अपनी मातृभाषा की तरफ़ मुड़ने की तरह ही नहीं लिया जाना चाहिए बल्कि उसे एक ऐसे प्रशिक्षित इतिहासकार का राजनीतिक वक्तव्य भी माना जा सकता है जो भाषा(ओं) को उसके औपनिवेशित अतीत (कोलोनाइज़्ड पास्ट) से देखता आ रहा है और अब वह इतिहास को उस भाषा में लिखना चाह रहा है.
ध्यातव्य है कि अपने शुरुआती दौर में रंजीत गुहा ने बांग्ला भाषा में लिखा था. मेदिनीपुरेर लाबान शिल्प, 1954 (मेदिनीपुर का नमक उद्योग, 1954); चिरोस्थायी बोंदोबस्तेर सूत्रोपात, 1956 (बाद में उनकी यह किताब ‘अ रूल ऑफ प्रॉपर्टी’ के नाम से प्रकाशित हुई) उनकी ऐसी ही रचनाएँ थीं[2].
रणजीत गुहा के लिए ‘भाषा की पुनर्प्राप्ति’ वास्तव में ‘इतिहास की पुनर्प्राप्ति’ है. बद्री नारायण को दिए हुए अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा भी है :
“मैंने और मेरे साथियों ने सबाल्टर्न स्टडीज़ की योजना के अन्तर्गत यह दिखाया है कि ऐसा अभिजात वर्ग दोहरे स्वरूप वाला था इसमें एक तरफ विदेशी अभिजन थे जो हमारे शासक थे और दूसरी तरफ क्षेत्रीय अभिजन थे जो भारतीय थे. अंग्रेजी भाषा में हुए इतिहास लेखन ने हमें हमारी भाषाओं से काट दिया और हमें मजबूर किया कि हम अपना इतिहास अंग्रेजी में ही लिखें. इसी प्रवृत्ति के चलते हम स्वयं ही ऐसा इतिहास लिखने लगे जिसने हमारे अपने लोगों के जीवन को इतिहास की परिधि के बाहर फेंक दिया, क्योंकि जिन भौतिक और आध्यात्मिक परिस्थितियों में भारत की जनता अपने जीवन का निर्वाह करती थी, वह अंग्रेजी में लिखे गये इतिहास का भाग बन ही नहीं सकती थी. ऐसे जीवन का चित्रण करने के लिए अंग्रेजी भाषा पर्याप्त हो ही नहीं सकती. औपनिवेशिक काल में हमारे लोगों का जीवन जिस पद्धति पर आधारित था, वह पूँजीवाद के अभ्युदय के पहले की परिस्थितियों से निकली थी. इस परिस्थिति में एक उत्पादक का अपने उत्पादन के साधनों के साथ भावनात्मक जुड़ाव था. अंग्रेजी में इस भावनात्मक सम्बन्ध को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता. यह तो केवल उसी भाषा में अभिव्यक्त हो सकता है जो कि उसकी अपनी हो, यानी कि उसकी मातृभाषा हो. यह खेतिहार उत्पादक हिन्दी या बंगाली या मराठी बोलता था, और ऐसे समय में अंग्रेजी शिक्षा और यहाँ तक कि हमारी अपनी भाषाओं में साक्षरता का स्तर ऊँचा नहीं था. इसका परिणाम यह हुआ कि सारी गतिविधियों में उत्पादन के साधनों में एक ‘भारतीयपन’ था जिसका कि एक भाषिक आधार था, एक अर्थ था जिसका अंग्रेज़ी में अनुवाद करना असम्भव है. अनुवाद में जिन्हें पकड़ा जा सकता है वो केवल तकनीकी शब्द होते हैं, जीवन से सराबोरा शब्दों के अर्थ नहीं. इसलिए हमारे अतीत की पड़ताल के लिए अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग पर्याप्त नहीं है.” [3]
(दो)
28 अप्रैल, 2023 को उन्होंने वियना में जब अंतिम साँस ली तो वह दुनिया के कुछ सबसे मशहूर एवं दक्षिण एशिया के महानतम इतिहासकारों में शुमार हो चुके थे. प्रेसिडेंसी कॉलेज से बी. ए. और कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम. ए. करते समय ही वे कम्युनिस्ट हो चुके थे और प्रेसिडेंसी कॉलेज के दिनों से ही उन्हें प्रोफ़ेसर सुशोभन सरकार जैसे दिग्गजों का स्नेह और निर्देशन मिलना शुरू हो गया था.
प्रतिभा और प्रतिबद्धता ने नौजवान रंजीत गुहा को इस समय बेचैन कर दिया. 1947 से 1953 के बीच उन्होंने यूरोप, अफ़्रीका और चीन की यात्राएँ कीं, दो समाचार पत्रों में काम किया. 1953 में कलकत्ता लौट आए, कलकत्ता के विभिन्न कॉलेजों में पढ़ाया. 1956 में हंगरी पर सोवियत आक्रमण के समय उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से इस्तीफ़ा दे दिया. इन सभी वर्षों में कोलकाता के अभिलेखागारों में भी जाते रहे. इसी बीच, 1958 में सुशोभन सरकार जादवपुर विश्वविद्यालय आ चुके थे. रंजीत गुहा भी इस विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अध्यापक होकर आए लेकिन 1959 में वे यूरोप चले गए, अगले 21 वर्षों के लिए. वह मैनचेस्टर विश्वविद्यालय और ससेक्स विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे.
1971 में अध्ययन अवकाश लेकर रंजीत गुहा भारत आए, गुजरात गए, महात्मा गाँधी पर एक किताब लिखने की योजना बनायी लेकिन उसे छोड़ दिया. उन्होंने अपने लिए ‘पीजेंट इंसरजेंसी’ विषय को चुना[4]. बाद में अपने एक इंटरव्यू में गुहा साहब ने बताया था कि उन्हें प्रकाशक ने पेशगी की रक़म भी दे दी और वे गाँधी की जीवनी 6 खंडों में लाना चाहते थे. बाद में जो हुआ, वह इतिहास है लेकिन उन्होंने जो दूसरा काम किया, वह और बड़ा इतिहास तो है ही, ज्ञानमीमांसीय एवं बौद्धिक हस्तक्षेप के नज़रिये से सबाल्टर्न स्टडीज़ ने भारत सहित दुनिया के एक बड़े हिस्से में इतिहासलेखन की प्रविधि, सुबूतों की उपस्थिति, उनकी प्रामाणिकता, इतिहासकार का उनके साथ बर्ताव को बदलकर रख दिया.
1970 के दशक में रंजीत गुहा भारत वापस आए थे, तो एक नव-स्वतंत्र देश के रूप में भारत एक तरफ़ लोकतांत्रिक राहों का निर्माण कर रहा था तो युवाओं, बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों और कुछ पत्रकारों का ध्यान न केवल जनवादी क्रांतियों की तरफ आकर्षित हो रहा था, बल्कि उनमें एक सतत आत्म संघर्ष और विक्षोभ जन्म भी ले चुका था. नक्सल आंदोलन की धमक साफ़ सुनी जा रही थी और रंजीत गुहा चारु मजूमदार से प्रभावित हुए बिना न रह सके लेकिन ससेक्स लौटने के बाद उन्होंने अपने आपको अध्ययन में पूरी तरह से झोंक दिया.
1983 में, एक पकी-पकाई उम्र में, साठ वर्ष की उम्र में रंजीत गुहा ने ‘एलीमेंट्री आस्पेक्ट्स ऑफ़ पीजेंट इंसरजेंसी इन कोलोनियल इंडिया’ का प्रकाशन किया. उनकी मृत्यु के बाद उनके एक साथी इतिहासकर दीपेश चक्रवर्ती ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा :
“वे भोजन बनाने में एक-एक चीज का ध्यान रखते थे, इसी प्रकार वे अपने लेखन में भी थे. वे कभी भी भागमभाग में नहीं रहे. वह किचेन में पूरा दिन किसी बंगाली व्यंजन के लिए बिता सकते थे…उन्होंने अपने हाथ में कभी उतने काम लिए ही नहीं, जिन्हें वह समय पर पूरा न कर सकें.”
इतिहासलेखन में यह धैर्य उनके किसी भी निबंध या मुकम्मल किताब में कोई पाठक लक्षित कर सकता है जब वह कोई बात कहने के लिए जल्दी नहीं करते हैं और निष्कर्ष के पहले परिदृश्य को स्पष्ट कर देते हैं. इससे उनके काम को पढ़ते समय पाठक उनकी इतिहासलेखन की पद्धति का भागीदार हो जाता है. यही कारण है कि शुरुआती दौर में हुई अपनी आलोचनाओं के बावजूद ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ को न केवल लंबी जिंदगी हासिल हुई बल्कि एक विचार के रूप में उसका उत्तर जीवन भारत के कमजोर तबकों के बौद्धिक जीवन, उनके तर्क और भाषा में शामिल हुआ.
आप केवल ‘subaltern’ शब्द को किसी विश्वविद्यालय या शोध संस्थान की लाइब्रेरी में खोजिए तो आपको किताबों के ऐसे शीर्षक मिलेंगे जिनके बारे में रंजीत गुहा और उनके साथियों ने सोचा भी नहीं होगा!
जिस तरह वह अपने लिए अनुशासित थे, उसी तरह एक सामुदायिक भावना से लबरेज़ भी रहे, अन्यथा सबाल्टर्न स्टडीज़ जैसा बौद्धिक समवाय संभव हो न पाता. यदि कोई इसके सभी खंडों को एक बार में, यानी पाँच-छह महीना लगाकर पढ़े तो वह पाएगा कि इसके विषयों, मुद्दों और बौद्धिक नफ़ासत में न केवल एक संगति है बल्कि उसकी एक स्पष्ट जन पक्षधरता, समाज की मुख्यधारा के प्रभुत्त्व और उससे उपजी हिंसा का एक प्रत्याख्यान सृजित किया गया.
सबाल्टर्न स्टडीज़ का पहला खंड 1982 में प्रकाशित हुआ था लेकिन उसमें ज्ञान पाण्डेय, शाहिद अमीन, डेविड हार्डीमन से लेकर बिलकुल नए उम्र के विद्वानों की एक शृंखला मौजूद थी. इन सभी विद्वानों में कुछ स्थापित नाम थे तो कुछ इस शृंखला में छपने के बाद नई राहों की तरफ़ गए. इसके कुछ विद्वानों में परियोजना के झुकावों, उसके निष्कर्षों को लेकर बहसें भी हुई, कुछ अलग हो गए.
अभी पिछले वर्ष जब रंजीत गुहा 99 वर्ष के हुए थे तो दीपेश चक्रवर्ती ने एक मार्मिक लेख आनंद बाज़ार पत्रिका में लिखा था. दीपेश लिखते हैं :
“अतीत में हम लोगों में कुछ असहमतियाँ पनपीं. एक बार के लिए मैं थोड़ा सा आवेशित हुआ, उनसे विमर्श करना बंद कर दिया … ओ माँ! एक दिन अपने हाथ में एक किताब लिए रंजीत दा मेरा दरवाज़ा किसी सामान्य आदमी की तरह खटखटा रहे थे. उन्होंने मुझे किताब थमाई और कहा कि ‘इस किताब में ऐसे बहुत से झगड़े मिलेंगे. तो इस बार तुम मान जाओ’. जॉन मोल्ने की आस्ट्रेलिया के इतिहास पर लिखी वह किताब ‘I Am Ned Kelly’ अभी भी मेरे पास है”.[5]
(तीन)
आधुनिक युग में यूरोप ने एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका का उपनिवेशन किया. मानवीय कल्पना में हिंसा की जितनी भी संभावित श्रेणियाँ हैं, वे सब उपनिवेशित समुदायों पर ढायी गईं. समूह के समूह खत्म किये गए, उनकी हत्या की गयी, बलात्कार हुए, उनके संसाधन छीने गए और उनके कच्चे माल से यूरोप को समृद्धि का द्वीप बनाया गया. इसके अतिरिक्त जो सबसे स्थायी काम हुआ, वह था उपनिवेशित देशों के निवासियों के दिमाग को उपनिवेश की सेवा में जोत दिया जाना.
भाषा, शिक्षा और संस्थान की मदद से उपनिवेश ने उपनिवेशित देशों में अपनी स्थायी उपस्थिति बना ली. इसका विश्लेषण पिछली शताब्दी में पूरी दुनिया में हुआ है. भारत में राष्ट्रवादी, मार्क्सवादी और सबाल्टर्न समुदाय के इतिहासकारों ने यह काम बख़ूबी किया है. यह सब अपने पूर्ववर्ती विद्वानों की प्रविधि, निष्कर्ष और विषयवस्तु से जुदा राय रखते थे लेकिन सबाल्टर्न इतिहासलेखन ने जितने कम समय में यूरोप, अमेरिका और भारत के विश्वविद्यालयों में पढ़-पढ़ा रहे विद्वानों को अपनी ओर खींचा था, वह अभूतपूर्व था.
रंजीत गुहा ने बाकायदा इसकी घोषणा भी कि ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ दक्षिण एशिया के इतिहास में व्याप्त ‘अभिजात्यवादी पक्षपात’ को दुरुस्त करेगा. अपने संक्षिप्त से निबंध ‘ऑन सम आस्पेक्ट्स ऑफ़ द हिस्टी रियोग्राफ़ी ऑफ़ कोलोनियल इंडिया’ में स्पष्ट किया कि दिक्कत कहाँ है और वह करने क्या जा रहे हैं. ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ का दसवाँ खंड 1999 में प्रकाशित हुआ. इसके लगभग 75 निबंध इतनी ही दुनियाओं को प्रस्तुत करते हैं. इनमें से आधे से ज्यादा में रंजीत गुहा की उपस्थिति महसूस की जा सकती है. हालाँकि उम्र में सबसे बड़े होने का अहसास उनको शुरू से ही था.
‘ऑन सम आस्पेक्ट्स… वाले निबंध के शीर्षक में उन्होंने एक फुटनोट लगाया: इस खंड में योगदान देने वाले उन सभी अन्य विद्वानों के प्रति लेखक शुक्रगुज़ार है और इसके साथ ही वह इस लेख के पूर्ववर्ती मसौदे पर गौतम भद्र, दीपेश चक्रवर्ती और राघबेंद्र चट्टोपाध्याय की टिप्पणियों के लिए भी शुक्रगुज़ार है. रंजीत गुहा में यह सामूहिकता सदैव बनी रही.
और अंत में रंजीत गुहा के गुरु के बारे में.
रंजीत गुहा और ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ का ज़िक्र आए और एंटोनियो ग्राम्शी(1891-1937) पर बात न हो, यह नामुमकिन है. ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ के पहले खंड के पहले पन्ने पर ही उन्होंने स्पष्ट किया था ‘सबाल्टर्न’ की अवधारणा उन्होंने ग्राम्शी से ली है. ग्राम्शी ने इटली के इतिहास के लिए एक छह बिंदुओं वाला कार्यक्रम घोषित किया था. गुहा ने दक्षिण एशिया के लिए उसे 16 बिंदुओं तक विस्तृत किया जिसमें वर्ग, जाति, आयु, जेंडर और दफ़्तर या ऐसी अन्य चीजों के इर्दगिर्द सबाल्टर्न को परिभाषित किया जाना था. इसमें उन्होंने अधीनस्थता (सबाल्टर्निटी) के इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र की पड़ताल करते हुए रवैये, विचारों और विश्वास प्रणालियों पर जोर देने की बात की थी. जैसाकि ‘सबाल्टर्न स्टडीज़’ का इतिहास बताता है, गुहा और उनके साथी न केवल इन मुद्दों की विवेचना करते रहे बल्कि उन्होंने इसकी परिधि का विस्तार भी किया है.
वर्ष 2007 में रोम के ग्राम्शी फ़ाउंडेशन में हुई एक संगोष्ठी में एक रंजीत गुहा का लिखा हुआ एक परचा उनकी अनुपस्थिति में पढ़ा गया. इस परचे की शुरुआत में ही उन्होंने ग्राम्शी को अपना अध्यापक माना है और परचे का शीर्षक है : “ग्राम्शी इन इंडिया: होमेज़ टू अ टीचर”. यह एक प्रकार से शताब्दियों के ओर-छोर पर खड़े अध्यापक और उसके शिष्य के बीच संवाद है जिसे अध्यापक ने किसी भौतिक कक्षा में नहीं पढ़ाया था लेकिन विचारों के तंतु उसे और उसके साथियों को आपस में जोड़ते रहे.
उपनिवेशित की गयी दुनिया में पैदा हुए, उसके अंतहीन दुखों को व्यक्त करने वाले भारत के इस महान इतिहासकार को इतिहासकारों की कई पीढ़ियों की तरफ़ से श्रद्धांजलि.
सन्दर्भ
[1] रंजीत गुहा(1983), सबाल्टर्न स्टडीज : राइटिंग्स ऑन साउथ एशियन हिस्ट्री एंड सोसाइटी, खंड 2, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली.
[2] डेविड अर्नाल्ड और डेविड हार्डीमैन (1994), सबाल्टर्न स्टडीज : एसेज़ इन द ऑनर ऑफ़ रंजीत गुहा, खंड 8, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली.
[3] बद्री नारायण(2012), प्रतिरोध की संस्कृति, नयी दिल्ली, वाणी प्रकाशन : 105 {ध्वन्यांकन, अनुवाद एवं प्रस्तुति: प्रियम अंकित}
[4] यह विवरण सबाल्टर्न स्टडीज, खंड 8, ऑक्सफ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, पृष्ठ 222-225 से तैयार किया गया है. इस खंड में रंजीत गुहा के सम्मान में उनके साथियों ने अपने पसंदीदा विषयों के साथ ही उन पर भी लिखा है.
[5]https://www.anandabazar.com/editorial/essays/historian-ranajit-guha-will-turn-100-in-this-may-23rd/cid/1345599 . खास इस लेख के लिए बंगाली से अंग्रेज़ी में इस लेख का अनुवाद सुश्री मार्टिना चक्रवर्ती ने किया है. अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद मैंने किया है.
रमाशंकर सिंह डॉ. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में एकाडमिक फ़ेलो हैं. यहाँ पर वह अभिलेखागार, पांडुलिपि और ज्ञान की संस्कृति पर काम करने के साथ ही प्रसिद्ध सबाल्टर्न इतिहासकार रणजीत गुहा पर एक लंबा निबंध लिख रहे हैं. ram81au@gmail.com |
समालोचन के माध्यम से
एक महान व्यक्तित्व को समालोचनात्मक श्रद्धांजली के स्वरूप की प्रस्तुति कही जा सकती है
लेखक की श्रद्धेय गुहा जी के संबंध में गहरी समझ भी परिलक्षित होती है ..
निश्चित रूप से श्लाघनीय ..!!
साधुवाद ..!!
अप्रतिम इतिहास कार श्री गुहा जी के बारे में अंतरंग और प्रबुद्ध करने वाले इस आलेख के लिए श्री रमा शंकर सिंह का आभार और आपको धन्यवाद
हिंदी पाठकों को रंजीत गुहा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से विस्तार से परिचित कराने के लिए लेखक को साधुवाद.
रमाशंकर ने बड़ा तथ्यात्मक और भावपूर्ण लिखा है।
इतिहास- लेखन में रणजीत गुहा ने युगान्तरकारी काम किया है, विशेष रूप से एक सैद्धांतिक स्कूल खडा किया है।
उम्मीद है, रमाशंकर उन पर काम करते हुए सबाल्टर्न स्कूल की रणजीत गुहा द्वारा ग्राम्शी के विस्तारित सूत्रों को प्रस्थान- बिन्दु मानकर समीक्षा का प्रयास करेंगे।
यह भी कि स्थानीय भाषाओं में इतिहास- लेखन के लिए गुहा की इतनी पैरोकारी के बावजूद यह सिलसिला आगे क्यों नहीं बढा। ऐतिहासिक विश्लेषण में गुहा ने साहित्यिक व सांस्कृतिक परिघटनाओं को भी समाहित करने पर जोर दिया, जो कि सबाल्टर्न इतिहासकारों ने बड़े प्रभावशाली तरीके से किया भी।
लेकिन इधर कहा जा रहा है कि उनकी भाषा ( अंग्रेजी ) रह्टोरिक से आच्छादित है और वे नये अभिजात ( इलीट ) हैं।
ये मैं रणजीत गुहा और उनके अकादमिक अभियान के प्रति पूरे आदर भाव के साथ कह रहा हूं क्योंकि मैं स्वयं उनसे बहुत अनुप्राणित रहा हूं।
इस लेख में पठनीयता और सूचनाओं का अद्भुत संयोजन है। ऐसे पाठ ही किसी लेखक के प्रति सच्ची उत्सुकता पैदा करते हैं। रमाशंकर सिंह के लेखन में उबाऊ बौद्धिकता नहीं बल्कि सरस रचनाशीलता है। यह लेख श्रद्धांजलि भी है और रंजित गुहा को पढ़ने और संवाद करने का तर्क भी निर्मित करता है।
महान इतिहासकार को रमाशंकर जी ने अपने आलेख में बहुत ही उम्दा तरीके से पूरी विद्वता के साथ याद किया है। गुहा जी के व्यक्तित्व और उनके काम के विस्तृत फलक से परिचय करवाने के लिए लेखक महोदय और समालोचना का आभार।
संवेदित करने वाली श्रद्धांजलि !
डॉ. रमाशंकर सिंह ने इतिहासकार रंजीत गुहा पर बहुत आत्मीयता से लिखा है ।
Subaltern study की परिधि अधिक है । रंजीत गुहा ने इस वर्ग को अपने अध्ययन का केंद्र बिंदु बनाया । मुझे आश्चर्य है कि वे लगातार अपनी शैक्षिक योग्यता को बढ़ाते रहे । उनकी पंक्ति ‘मैं वह काम अपने हाथ में नहीं लेता जिसे मैं पूरा न कर सकूँ । यह उनकी उदारता है । इक्कीस वर्ष तक विदेश में पढ़ाया ।
सुंदर! हिन्दी भाषा में रंजीत गुहा के बौद्धिक व्यक्तित्व से परिचित होनें के लिए सरल और तथ्यपरक आलेख।
साधुवाद! भैया…..।
अच्छा लिखा है,लंबे लेख की प्रतीक्षा है।
बहुत आत्मीयता से लिखा है। रंजीत गुहा का समग्र अभी तक हिंदी में शायद उपलब्ध नहीं है। शाहिद अमीन की निम्नवर्गीय प्रसंग ही मुझे याद है।
रमाशंकर सिंह जी को इतने सुन्दर ,समृद्ध और सूचनापरक समर्पण लेख के लिए बधाई .
इस विदाई लेख को पढ़ते वक्त आप दो अध्येताओं के बीच चल रहे संवाद को सुन सकते हैं.