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Home » राहतें और भी हैं: रश्मि शर्मा

राहतें और भी हैं: रश्मि शर्मा

रश्मि शर्मा की कहानी, ‘राहतें और भी हैं’ पढ़ते हुए अनामिका का यह कथन याद आता रहा कि ‘“नई स्त्री बेतरहा अकेली है. क्योंकि उसको अपने पाये का धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत नायक अपने आसपास कहीं दिखता ही नहीं. गाली बकते, ओछी बातें करते, हल्ला मचाते, मार-पीट, खून-खराबा करते आतंकवादी या टुच्चे पुरुष से प्रेम कर पाना या उसे अपने साथ सोने के लायक समझना किसी के लिए भी असंभव है. स्त्रियों का जितना बौद्धिक और नैतिक विकास पिछले तीन दशकों में हुआ है, पुरुषों का नहीं हुआ.” कहानी प्रस्तुत है.

by arun dev
July 21, 2021
in कथा, साहित्य
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राहतें और भी हैं: रश्मि शर्मा

कृति समालोचन

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कहानी
राहतें और भी हैं

रश्मि शर्मा

उम्र -ए – दराज़ माँग के लाई थी चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
(सीमाब अकबराबादी)

 

बेहद नि‍राश और उदास ज़िंदगी लगती है इन दि‍नों.  कई बार लगता है, बेसबब बस जि‍ए जा रही हूं.  वही डेली रूटीन, ऑफि‍स और घर. बड़ी फालतू किस्म की फीलिंग आती है जब लगता है मेरी जरूरत ही नहीं कि‍सी को.  कई बार वीकेंड गुजारना मुश्किल हो जाता है. मन इस कदर उचाट होता है कि‍ सब छोड़ कहीं निकल जाने का जी चाहता है.  शायद साधु ऐसे ही लोग बनते होंगे, जिनकी ज़िंदगी में कोई रंग और उम्मीद बाकी नहीं रहती.

वैसे शादी न करने वाले का जीवन तो बड़ा मजेदार होता है.  जब जहां चाहे चले जाओ.  कोई रोकने टोकने वाला नहीं.  चाहो तो देर रात तक दोस्तों के साथ पार्टी करो या नेट्फ़्लिक्स पर मनचाही फिल्म देखो.  चाहो तो रोज किसी नए प्रेमी के साथ डेट पर हो आओ…

तो मुझे कि‍सने रोका है ऐसा करने से …? इतना आसान भी नहीं है यह सवाल…. इसका जवाब तो और भी नहीं.  यादों के चक्रव्‍यूह में घिरी मैं कभी उससे बाहर आना ही नहीं चाहती.  मैं अभिमन्यु भी नहीं जिसे चक्रव्यूह से लौटने की तरकीब नहीं मालूम.  पर कुछ है मेरे भीतर जो इससे बाहर नहीं आने देता मुझे और मैं हमेशा उलझी रहती हूं इस स्मृति व्यूह में.  निकलने की चाहत और न निकल पाने की विवशता से घुटन होती है.  इधर यह घुटन और बढ़ गई है.  प्रेम में होना, रहना और जीना एक-से लगने के बावजूद बहुत अलग-अलग स्थितियाँ हैं.  कभी लगता है प्रेम स्‍मृति‍यों में ही होता है, जीवन से जाने के बाद.

ज़िंदगी मेरे लिए वर्तमान में जीने की कोशिश है पर अतीत हमेशा मेरे साथ चलता है.  हर छह महीने में मोबाइल बदलने की आदत का नतीजा है कि पिछले महीने एपल के आई फोन का लेटेस्ट मॉडल ऑनलाइन मंगा लिया पर बीएसएनएल का लैंडलाइन आज भी मेरे घर में मौजूद है.  उदासी और घुटन के तीव्रतम क्षणों में अपने दोस्तों को मैं इसी लैंडलाइन से फोन करती हूँ.  मेरे सभी दोस्त अपनी गृहस्थी में रमे हैं.  एक मैं ही अकेली हूँ…मैंने इस अकेलेपन को हमेशा उत्सव की तरह जीया है पर अब यही अकेलापन कई बार सन्नाटे का शोर बनकर डराने भी लगता है.

टेबल लैंप का स्वीच ऑन ऑफ करती मेरी उँगलियों ने कब डायरी के पन्ने टटोलने शुरू कर दिये, पता ही नहीं चला.  हाँ, फोनबुक के जमाने में भी डायरी लिखने की मेरी आदत लगातार बनी हुई है.  वैसे भी वह आदत ही क्या जो समय के साथ चली जाये.  डायरी के पिछले पन्नों में कुछ दोस्तों, परिचितों के नंबर हाथ से लिखे होते हैं, जिन्हें हर साल की नई डायरी में जतन से उतारना कभी नहीं भूलती. साल-दर-साल जारी है यह सिलसिला.  जि‍न रि‍श्‍तों से बाहर हो जाती हूं, उनके फोन नंबर मोबाइल से डि‍लीट या ब्‍लॉक कर देती हूं, मगर उस तारीख के साथ वह नंबर अपनी डायरी में लिख लेना मैं कभी नहीं भूलती.  कई बार सोचा भी कि‍ आखि‍र जि‍नसे भविष्य में कोई संबंध नहीं रखना, उनके नंबर रखकर क्‍या होगा.  मगर आदत तो आदत ठहरी.  शायद खुद को तकलीफ देना अच्छा लगता है मुझे.

सामने की दीवार पर एक छिपकली कब से रेंग रही है.  कभी लगता है जैसे वह जड़ हो गई, कोई हरकत नहीं उसकी देह में… कभी तेजी से कुछ दूर सरक लेती है.  डायरी के पन्नों पर मेरी उँगलियाँ भी कुछ उसी तरह चल रही हैं.  कभी किसी पन्ने पर देर तक ठहर जाती हैं तो कभी कुछ पन्ने तेजी से पलटकर आगे बढ़ लेती हैं.  डायरी के पिछले पन्नों में सुरक्षित इन फोन नंबरों को आहिस्ते-आहिस्ते टटोलती हूँ. आश्वस्ति के सूरज की मीठी-सी आंच मेरे पोर-पोर में घुल-सी रही है.  जिनसे रिश्ता लगभग छूट चुका, उनके टेलीफोन नंबर पर उँगलियाँ फिराकर भी एक सुकून मिल सकता है, पहले कभी ऐसा खयाल नहीं आया.

जितने नाम उतनी ही कहानियाँ.  अतीत की हक़ीक़तें कैसे भविष्य में कहानियाँ बन जाती हैं, कब पता चलता है.  पर कहानी भर हो जाने से उन हकीकतों की तासीर कहीं गुम नहीं होती.  हर नंबर का स्पर्श मेरे भीतर सो चुके अहसासों को नए सिरे से जगा रहा है.  जाने कहाँ होंगे वो ? क्या मेरा खयाल उन्हें आता होगा कभी…?

एक नंबर उँगलियों में जैसे चिपक-सा गया है.  उदासी की यह खुशबू बहुत पहचानी-सी है.  पर उसे कैसे और कहां ढूंढ पाऊंगी, जो रोते-बि‍लखते एक बार मि‍लने की आस लि‍ए चली गई…इस दुनि‍या के मेले में कहीं खो गई.  हां, उसका नाम अनीता था., मेरे बचपन की सहेली.  जि‍सके साथ कभी दि‍न-रात गुजरते थे.  धूल-मि‍ट्टी का साथ था.  संग-संग खेलना-खाना.  उसके पापा बैंक में काम करते थे. पटना से तबादला होकर आए थे धनबाद.  उसका कुसूर बस इतना था कि‍ कि‍सी रोज उसने मेरी मां के बारे में भला-बुरा कह दि‍या, जो मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ और मैंने बातचीत बंद कर दी.  उसने कई बार कोशिश की बात करने की पर जैसे मैंने अपने मन की किवाड़ पर बड़ा-सा ताला जड़ कर उसकी चाभी किसी कुएँ में फेंक दी थी.

धनबाद से जिस दिन उसके पापा का तबादला हुआ, वह देर तक पटकती रही दरवाजा…`श्रेया..एक बार खोलो…मैं जा रही हूं यहां से. ’ मां ने भी बाहर से समझाया– ‘इतनी जिद नहीं करते.  अब अनीता यहां से हमेशा के लि‍ए जा रही.  जाने फि‍र कभी मि‍लो या नहीं. ‘मगर नौ साल की उम्र में भी इतना गुस्सा था मेरे अंदर कि‍ मैं रोती रही, पर दरवाजा नहीं खोला.

आज भी वही आदत है मेरी…पलटकर नहीं देखती किसी को, कि‍ मेरे जाने या रूक जाने के बाद उसका क्या हुआ होगा.  मगर इस जि‍द को अब तोड़ना चाहती हूं.  एक बार देखूं तो सही, क्‍या कर रहे वो लोग जो मुझसे बि‍छड़ गए थे.  मैं जानती हूँ, जिसे मैं आज बिछड़ना कह रही वह नियति से ज्यादा मेरा चयन ही था.  ज्‍यादा से ज्यादा यही होगा कि‍ कोई पहचानने से इनकार कर देगा.  पर आज एक बार उन सबसे अपने दिल की वह बात कह देना चाहती हूँ, जो तब किसी कारण से कह न सकी.

ऐसा सोचते ही आंखों से आंसू गि‍रने लगे हैं.  कि‍सलि‍ए रोती हूं ? इतनी भावुकता मेरे अंदर कहां से आ गई ? मैंने तो अपनी मर्जी का जीवन चुना है.  कोई दबाव नहीं..कोई तनाव नहीं.  फि‍र क्‍यों रोती हूं मैं…किसे याद करके.  उस माता-पि‍ता को तो हरगि‍ज नहीं जो मुझे समझा-समझा के थक चुके कि‍ घर बसा लो.  हर बार मेरा वही जवाब होता- ‘कितनी बार तो कहा मुझे शादी-ब्‍याह में कोई इंटरेस्‍ट नहीं है.  तुमलोग मेरी चिंता छोड़ दो.  अच्‍छी-सी नौकरी है…मजे का जीवन जी रही हूं….नहीं बंधना मुझे कि‍सी बंधन में. ‘

डायरी में दर्ज नामों और उनके आगे लिखे फोन नंबरों को छूने-सहलाने का सिलसिला लगातार जारी है.  ऊंगलियां कभी किसी नाम पर ठहर जाती हैं तो कभी किसी नाम पर.  उनसे जुड़ी कहानियाँ कपड़े के थान की तरह मेरे आगे खुली जा रही हैं.  आश्चर्य होता है कि इतने दिन बीत जाने के बावजूद कुछ के प्रति मन में आज भी कड़वाहट जस की तस बनी हुई है तो कुछ के लिए मन में पछतावे का भी एक भाव है.  कुछ के लिए सोचती हूँ कि कभी किसी मोड़ पर ज़िंदगी ने मिलाया तो बढ़कर उनके हाथ थाम लूँगी तो कुछ के पास अभी ही उड़कर पहुँच जाना चाहती हूँ.

काश मैं पंछी होती!

पर हाँ, फोन तो इस वक्त भी किया ही जा सकता है.  मेरी उंगलियाँ बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के चार ऐसे नामों को चुन लेती हैं जिनसे मैं अभी ही बात कर लेना चाहती हूँ.  हालांकि इनमें से तीन तो मेरे फोनबुक में भी सुरक्षित हैं, पर मैं उन सबके नंबर डायरी से देखकर नोटपैड पर नोट कर लेती हूँ.  आई फोन का लेटेस्ट मॉडल उपेक्षित टेबल पर पड़ा है और मैं लैंडलाइन की लंबी तार को खींच उसे अपनी गोद में लेकर फर्श पर बैठ जाती हूँ.  अभी-अभी नोटपैड पर लिखे गए चारों नंबर जैसे मुझे ही देख रहे हैं.  कि‍तनी अजीब बात है कि‍ चारों के चारों नंबर पुरुषों के ही हैं.  मेरा ही एक चेहरा सामने आकर मुझसे सवाल करता है- ”क्या श्रेया…तू तो हमेशा कहती रही कि‍ शादी नहीं करनी, फि‍र जब अकेलेपन के अंधेरे में घि‍री हुई छटपटा रही है तो बस मर्दों से ही बात करना चाहती है? ”

मैं अचानक ही जैसे सफाई की मुद्रा में आ गई हूँ.  अपने सामने खड़े अपने ही प्रतिरूप से अभी नज़रें मिलाना बहुत भारी पड़ रहा है- ”क्‍यों, सबसे पहले अनीता की याद नहीं आई ? वो तो लड़की है. ”

”उसे तुम याद नहीं कर रही.  यह तो तुम्‍हारी ग्लानि‍ है कि‍ तुमने एक सहेली को छोटी सी बात पर इतनी बड़ी सजा दे दी. “

मैं अचानक ही पसीने से भर गयी हूँ.  कौन है यह जिसका चेहरा जितना मुझसे मिलता है, उससे ज्यादा जिसे मेरे मन के तहख़ानों की खबर है.  मेरे जुर्मों का एक-एक हिसाब दर्ज है इसकी बही में.  अपनी ही नज़रों में अनायास खुद को नंगा देख सकपका जाने का यह अहसास मुझे परत-दर-परत छीले जा रहा है.  मुझे मेरे ही दर्पण में बहुत साफ दिखाई पड़ रहा है कि मेरी ज़िंदगी में अपोजि‍ट सेक्‍स का बड़ा दखल रहा है.

गजब की हि‍प्‍पोक्रेट हूं मैं.

पर असंतुष्टि भी आदमि‍यों से ही रही है हमेशा.  बचपन की सहेली से मुंह मोड़ने के बाद कि‍सी और लड़की का दि‍ल नहीं दुखाया मैंने कभी.  अनीता से किये व्‍यवहार का शायद यही प्रायश्चित था मेरे लिए.

 “मगर लड़कों से दूरी क्यों…?”

“दूरी कहां, बस शादी की चाव ही नहीं हुई.  कोई मन मुताबिक मि‍ला ही नहीं. ”

”कि‍तना झूठ बोलती हो श्रेया?” अपने कानों तक जैसे अपनी ही आवाज आती है.

पर मुझे अभी इस बहस में नहीं उलझना.  क्या पता कहीं फिर से मेरा मन बदल जाये और मैं….  मैंने बरजा है खुद को.  इन चारों तक एक ही समय में एक ही साथ पहुँच जाना चाहती हूँ… मेरा हलक सूख रहा है.  फ्रि‍ज से आइसक्रीम नि‍काल लाती हूँ.  कल ही फैमि‍ली पैक लेकर आई थी.  खरीदते समय हंसी भी आई कि‍ अकेले रहते हुए क्‍यों फैमि‍ली पैक ले लेती हूं अक्‍सर?  दरअसल सस्‍ता पड़ता है, बस इसलि‍ए और आइसक्रीमखोर भी हूं.  कांच का बड़ा बाउल नि‍कालकर केसर-पि‍स्‍ता फ्लेवर वाला आईसक्रीम लिए मैं फिर से लैंडलाइन के आगे हूँ.  इसी आइसक्रीम के बंटवारे पर घर में हंगामा मचा देती थी.  और आज देखो अकेले बैठकर खाते वक्‍त ख्‍याल आ रहा कि‍ कोई साथ होता, तो स्‍वाद मि‍लता खाने का.

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Tags: रश्मि शर्मा
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Comments 12

  1. Mukti Shahdeo says:
    4 years ago

    बेहद खूबसूरत कहानी के लिए बधाई रश्मि शर्मा!

    Reply
  2. प्रवीण कुमार says:
    4 years ago

    मैं सोच रहा था कि यादि पुरुष लेखक होता तो यह कहानी किस तरह लिखता । शायद वह चीज कभी नहीं मिलती पढ़ने को । रश्मि जी ने स्त्री मन के अकथ प्रदेश को कुरेदा है ।

    Reply
  3. Dr. Meeta Bhatia says:
    4 years ago

    बहुत सोचा क्या लिखूं शब्द साथ नहीं दे रहे । भावनाएं झकझोर रही हैं रश्मि जी। नारी मन की ऐसी व्याख्या… आप खूब लिखे … लिखती जाएँ… शुभकामनायें

    Reply
  4. Dr. Meeta Bhatia says:
    4 years ago

    बहुत खूबसूरत रचना ।एक लंबी कहानी का फ्लो बनाए रखने के लिए साधुवाद ।
    नारी मन को बहुत अच्छी तरह उकेरा है आपने।
    ढेरों बधाई और शुभकामनाएं
    लिखते रहिए …..लिखते रहिए

    Reply
  5. राकेश बिहारी says:
    4 years ago

    एक आधुनिक लड़की के अकेलेपन की विश्वसनीय छवियों से विनिर्मित कहानी. हर हिस्से के आरंभ में उद्धृत शेर अकेलेपन के संदर्भित रंग और उसकी व्यंजना को और सघन करते हैं. ‘आगे क्या होगा’ की उत्सुकता कहानी में आद्योपांत बनी रहती है. कहानी में वर्णित उपकथाएँ कहानी के अंत से मिलकर आधुनिक स्त्री के अंतः और बाह्य के बीच उपस्थित फ़ासले को जिस तरह रेखांकित करती हैं, वही इस कहानी का हासिल है. आपने कहानी प्रस्तुत करते हुए अनामिका के जिस कथन को रेखांकित किया है, वह इस कहानी के मर्म से सहज ही संबद्ध है.

    Reply
  6. हीरा सिंह says:
    4 years ago

    प्रेम में डूबी हुई अकेलेपन की रोचक कहानी ,एक ही साँस में पढ़ जाने की इच्छा आगे क्या होगा की जिजीविषा कहानी को मधुर बना देती है , अवचेतन मन में छिपा प्रेम बाहर आने को बेक़रार दिखता है , कहानी में स्त्री मन अपने में सिमटी हुई प्यार में डूबी हुई कभी संकुचित कभी उद्धेलित दिखती है !

    Reply
  7. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    आजकल लिखी जा रही हिन्दी कहानियों की एक प्रवृत्ति यह है कि वे बहुत अच्छे विषय को लेकर चलती हैं, काफी दूर तक सही रास्ते पर चलती हैं पर अंत में रास्ता भूल कहीं और पहुँच जाती हैं। कहानी पर अगर कोई वाद या विमर्श हावी हो,तो अक्सर वह रास्ता बदल लेती है और वही पहुँचती है जहाँ वे(विमर्श) पहुँचाना चाहते हैं। यह कहानी वहाँ तक अच्छी है जहाँ तक अलग-अलग पुरुष उसकी जिंदगी में आते हैं। श्रेया को उस हर किसी के जीवन में और व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विसंगतियाँ दीखती हैं जो उसकी अस्मिता के विरुद्ध हैं और जो उसे सहज स्वीकार्य नहीं हो पातीं। यहाँ तक तो ठीक है पर कहानी इसके आगे स्वयं को एक हड़बड़ी में समेटती वही नाटकीय ढंग से अंत तक पहुँचकर खत्म हो जाती है। मुझे लगता है कि कहानी में विचारधारा और विमर्श का घोल चित्रकला के रंग संयोजन की बारीकियाँ लिए होना चाहिए । रश्मि शर्मा की कहानी की भाषिक संरचना आकर्षक एवं काव्यात्मक है।कथात्मक बुनावट भी दिलचस्प है।उन्हें शुभकामनाएँ।

    Reply
  8. NavRatan says:
    4 years ago

    अरे ! वाह!!! बहुत खूबसूरत कहानी बुनी है…और ये हिम्मतवर कहानी भी है…हमारे यहां महिला लेखिकाएं कम हैं…जो मन का लिखने की हिम्मत कर जाती हैं,…मुद्दत कोई बेहतरीन कहानी पढ़ी… बधाई!!!
    लेकिन … आखिर में इतनी भी क्या जल्दी थी…बड़े गौर से सुन रहा था जमाना…..खैर!!! पुनः पुनः बधाई…💐😊🙏

    Reply
  9. Sangita Kujara Tak says:
    4 years ago

    आज के परिवेश की कहानी…बहुत बढ़िया
    चिड़िया की आँख पर फ़ोकस है,लिखती रहो ।

    Reply
  10. Anonymous says:
    4 years ago

    कहानी अच्छी है लेकिन नयापन कुछ भी नहीं है।

    Reply
  11. Jai mala says:
    3 years ago

    कहानी में प्रवाह ऐसा है कि दोबारा पढ़ने के बाद भी नया सा लगा ।
    आप इसी तरह लिखते रहें । असीम शुभकामनाएं !

    Reply
  12. नूपुर अशोक says:
    10 months ago

    बहुत अच्छी लगी कहानी। कथ्य के साथ साथ भाषा और शिल्प भी अनूठे लगे। कथा का प्रवाह और रोचकता पाठक को बाँधे रखती है। अंत थोड़ा अचानक सा लगा। फिर भी आज की स्त्री के मनोभावों का सफल चित्रण करने के लिए रश्मि को साधुवाद!

    Reply

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