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Home » राहतें और भी हैं: रश्मि शर्मा » Page 3

राहतें और भी हैं: रश्मि शर्मा

रश्मि शर्मा की कहानी, ‘राहतें और भी हैं’ पढ़ते हुए अनामिका का यह कथन याद आता रहा कि ‘“नई स्त्री बेतरहा अकेली है. क्योंकि उसको अपने पाये का धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत नायक अपने आसपास कहीं दिखता ही नहीं. गाली बकते, ओछी बातें करते, हल्ला मचाते, मार-पीट, खून-खराबा करते आतंकवादी या टुच्चे पुरुष से प्रेम कर पाना या उसे अपने साथ सोने के लायक समझना किसी के लिए भी असंभव है. स्त्रियों का जितना बौद्धिक और नैतिक विकास पिछले तीन दशकों में हुआ है, पुरुषों का नहीं हुआ.” कहानी प्रस्तुत है.

by arun dev
July 21, 2021
in कथा, साहित्य
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तू शाहीन है परवाज़ है काम तेरा
ति‍रे सामने आसमाँ और भी हैं
(अल्लामा इक़बाल)

 

राजीव कुछ सालों के लिए मेरा कुलीग था.  हम आफि‍स में क्यूबिकल शेयर करते-करते टि‍फि‍न भी शेयर करने लगे थे.  हम दोनों की यह पहली जॉब थी.  बड़ी डैशिंग पर्सनालि‍टी थी उसकी.  हमारी टयूनिंग अच्‍छी थी.  घर से दूर शहर में मैं अकेली रहती थी.  वह उसी शहर का था.  वह घर से खाना लाता था.  मैंने ऑफिस में डब्बा लगवा लिया था.  डब्बे की रोटियाँ अक्सर चीमड़ हो जाती थीं, जिसे इधर-उधर से कुतर कर मैं आधे-अधूरे खाया करती थी.  दो-चार दिन ही बीते होंगे कि उसकी टिफिन में मेरे लिए अतिरिक्त रोटियाँ आने लगी थीं. दफ्तर की बातें और टिफिन साझा करते-करते कब हम करीब हो गए पता ही नहीं चला.  बाद के दिनों में जब वह मेरे आगे अपनी टिफिन की रोटियाँ बढ़ाता मेरी आँखों में एक साझी रसोई का सपना झिलमिलाने लगता.  मैं बरजती खुद को… ‘कितनी अपोर्चुनिस्ट हूँ मैं, सुविधाओं के सहारे जिंदगी का सपना देख रही हूँ. ’

मगर सच कहूँ तो शादी मेरा सपना कभी नहीं रहा.  मुझे अपना करि‍यर बनाना था.  कंप्‍यूटर इंजनि‍यरिंग की पढ़ाई मैंने इसलि‍ए नहीं की कि घर-परिवार के झमेले में उलझ जाऊँ .  मुझे उस फलक तक पहुंचना था, जहां खुद पर ही गर्व हो और यह संतोष भी कि जो चाहा, वो कि‍या.

एक बार आफि‍स टूअर पर हमलोग कोलकाता गये थे.  काम फर्स्‍ट हाफ में ही निबटाकर लंच के बाद घूमने नि‍कल जाते.  दक्षि‍णेश्‍वर काली मंदि‍र के बाद शाम को हावड़ा ब्रि‍ज में बि‍ताया वक्‍त कभी नहीं भूल पाती.  नदी से आती ठंडी हवा और पुल के नीचे से गुजरती नावें और जहाज मन को मोह रहे थे.  चार खंभों वाला वह अनोखा पुल, जिसे रवीन्द्र सेतु भी कहा जाता है, ने उस दिन हम दोनों के बीच भी नेह का एक नया पुल बांध दिया था.  वि‍क्‍टोरि‍या पर हमने बग्घी की सवारी की तो ताल के कि‍नारे बैठकर हल्‍की फुहारों में भीगते रहे. अलग-अलग कमरा होने के बावजूद दोनों ही रात हम साथ थे.  ग्रैंड ओबेरॉय के पाँच सितारा सूट का वह रोमांच जैसे मेरी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत अनुभव हो चुका था.

राजीव के परिणय-प्रस्ताव को मैं बार-बार अस्वीकार करती रही थी, पर कोलकाता से लौटते हुए मैंने मन ही मन मान लि‍या था कि‍ अब राजीव के साथ घर बसा के मां की इच्‍छा पूर्ण कर ही दूं.  उसके बारे में तो मैं नहीं कह सकती पर अपने बारे में मुझे ठीक-ठीक पता था कि हमारे बीच प्‍यार जैसा कुछ जरूर था, पर मैं उससे प्यार नहीं करती थी.  प्‍यार और प्‍यार जैसा होने में कि‍तना बड़ा अंतर होता है, यह अब जाकर समझी हूं.  सात फेरों के बाद किसी अजनबी के साथ सुहाग कक्ष में धकेल दिये जाने के बजाय मेरे लिए यह ज्यादा बेहतर आप्‍शन था.  राजीव और मैं एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे.

उन्‍हीं दि‍नों कभी मैं राजीव के साथ उसके घर गई थी.  घर सुंदर और बड़ा था.  उसकी मां स्वभाव से काफी खुशमिजाज़ थीं.  खाने में कई तरह के आइटम बना रखे थे.  खाने के बाद राजीव जब कि‍सी काम से बाहर गया तो मैं ड्राइंगरूम में जाकर उनके पास बैठ गई थी…

 ‘देखो तो, राजू के लि‍ए रि‍श्‍ता आया है.  कैसी है लड़की?’

हमने अभी उन्हें अपने रिश्ते के बारे में कुछ भी नहीं बताया था.  मैं चौंक पड़ी.  एक अजीब-सा भाव उमड़ा मेरे भीतर – कुछ तकलीफ, कुछ जलन या फिर दोनों का मिलाजुला अहसास.  मैंने किसी तरह संयत किया खुद को- ‘बहुत सुंदर लड़की है, आंटी. ‘

‘मुझे भी पसंद आई है.  बस एक दि‍क्‍कत है कि‍ यह नौकरी करती है. ‘

‘तो क्‍या हुआ? आजकल सभी लड़कि‍यां नौकरी करती हैं. ‘

‘पर मुझे तो राजू के लि‍ए एकदम घरेलू लड़की चाहिए.  अगर यह लड़की नौकरी छोड़ने को तैयार हो जाए तो ही राजू को फोटो दिखाऊंगी. ’

‘अगर राजीव चाहेगा कि‍ यह नौकरी करती रहे तो…?’

‘हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं…’ उनकी आवाज खुरदुरी हो गई थी… ‘बहू घर आकर मुझे जि‍म्‍मेदारी से मुक्‍त करे, पोते का मुंह दि‍खाए, इससे ज्‍यादा कुछ नहीं चाहि‍ए मुझे.’

राजीव की माँ थोड़ी देर को चुप हो गई थीं.  पर जाने क्यों मुझे उनकी चुप्पियों में कुछ और ही सुनाई पड़ रहा था… ‘राजीव के साथ शादी करनी है तो यह नौकरी छोड़नी पड़ेगी.’

मैं हैरान थी कि‍ राजीव का परि‍वार इतना ऑर्थोडॉक्‍स है.  यह राजीव के व्‍यवहार से कभी झलका नहीं था.  उस दि‍न तो मैं घर चली आई, मगर बाद में राजीव से पूछा – ‘मां को तुम्हारे लिए घरेलू लड़की ही चाहिए, यह बताया नहीं कभी तुमने?’

‘हां यार! वो हमेशा ही यह बात कहती हैं.  तुम चिंता मत करो, मैं मना लूंगा. ’

‘अगर वो नहीं मानीं तो?’

‘तो तुम शादी के बाद कुछ साल नौकरी मत करना.  धीरे-धीरे मां को मना लेंगे. ’ मैं स्तब्ध थी और राजीव अपनी धुन में कहता जा रहा था… ‘मैं जानता हूँ तुम बहुत जल्दी उनका दिल जीत लोगी…. वैसे भी तब तक तो मैं और बेहतर पोजीशन पर रहूँगा, पैसों की कमी नहीं होगी.  तुम्हारी मर्जी हो तो नौकरी करना और नहीं हो तो मत करना. ’

मुझे आश्‍चर्य हो रहा था कि‍ यह वही राजीव है, जिसे यह भली भांति मालूम है कि‍ मेरे लिए मेरा करि‍यर कि‍तना इंपोर्टेंट है.  यानी यह केवल राजीव के मां के मन की बात नहीं.  वह भी यही चाहता है.  मैं राजीव से शादी का अर्थ अच्छी तरह समझ गई थी.  अपने वजूद, अपनी आइडेंटि‍टी का जो ख्वाब लिए मैं घर से दूर इस दिल्ली शहर में आई थी, उसे इस तरह  नहीं छोड़ सकती थी.  लोग ज़िंदगी को सौदा कहते हैं पर मुझे ज़िंदगी का यह सौदा कतई मंजूर नहीं था.

बहुत कठि‍न था, मगर मुझे कहना पड़ा कि‍ मैं शादी का ख्याल छोड़ सकती हूं, नौकरी नहीं.  प्रैक्‍टि‍कल और स्‍वार्थी संबोधन सुनकर भी पीछे नहीं हटी.  महीनों तक राजीव मनाने की कोशि‍श करता रहा.  कई बार कोलकाता की याद दि‍लाकर इमोशनली भी मजबूर करता. लेकिन माँ, चाची, बुआ और आसपास की जाने कितनी औरतों के जीवन की आंखों देखी ने मुझे कभी कमजोर नहीं होने दिया.

एक ही दफ्तर में काम करते उससे दूरी बरतना मेरे लि‍ए आसान नहीं था.  साथ काम करते हुए कोई एक अनायास स्‍पर्श भी मेरी कामनाओं को जगा देता.  उसकी देहगंध और साथ की चाहत कई बार बहुत बेचैन कर देती.  खुद से लड़ने का वह अनुभव सचमुच बहुत तकलीफदेह था मेरे लिए.  हर पल जैसे मैं खुद से ही कोई रस्साकसी का खेल खेल रही थी.  कभी लगता अब गिरी तब गिरी पर दूसरे ही पल मेरे सपने मेरी मुट्ठियों की ताकत बन जाते.  हमारे बीच की रस्सी तन जाती और मैं खुद को संभाले अडिग खड़ी रहती. कदम मजबूती से खड़े होते पर मन लहूलुहान होता रहता.  खुद से लड़ना इतना आसान नहीं था.

मैंने अपना तबादला दूसरे शहर करा लि‍या.  खबर मि‍ली थी कि‍ दो साल बाद उसकी शादी हो गई.  एक कसक-सी उठी थी उस वक्‍त मेरे भीतर.  वह मेरे जीवन का पहला पुरूष था, जि‍सके साथ रहने की कामना की थी मैंने.  पर खुद को बचा लेने का एक संतोष भी उभरा था कहीं मन में.  अपनी तरफ से मैंने उससे सारे संपर्क तोड़ लिए थे.  कभी छठे-छमाही उसका कॉल आता, मैं न चाहते हुए भी उठा लेती.  वह मेरा हाल पूछता और हमेशा ही यह कहना नहीं भूलता कि‍ मुझे बेहद मि‍स करता है.

मुझे आश्चर्य है कि‍ पीछे कई सालों से मैंने उसे जन्मदिन पर भी कॉल नहीं किया.  जबकि वह मुझे जन्मदिन पर विश करना कभी नहीं भूला.  तो क्या वह ठीक कहता था कि मैं बहुत प्रैक्‍टि‍कल हूं…? नोटपैड पर लिखे उसके नंबर को बार-बार अपनी उँगलियों के पोर से टटोलती हूँ.  ग्रैंडओबेरॉय कोलकाता के उस सूट में तैरती वह गंध बहुत दिनों के बाद एक बार फिर मेरे नासपुटों में भर-सी गई है.  मेरी उंगलिया अब उसका नंबर डायल कर रही हैं…

आवाज सुनते ही उसने कहा- ” तुम्‍हें याद ही कर रहा था.  देखो, इसका तुम्‍हें पता चल गया.  यानी हममें अब भी कोई कनेक्‍शन बाकी है.”

मैं हंस पड़ती हूँ.  ”अब तो तुम्‍हारी फैमि‍ली भी बड़ी हो गई है.  आंटी को खेलने के लिए पोता मिल गया है.  पूरे घर का खयाल रखनेवाली इतनी सुंदर पत्नी है…और तुम हो कि अभी तक मुझसे ही कनेक्‍शन जोड़े रखने में लगे हुए हो. ”

मेरे तंज़ को समझकर भी वह उससे अंजान बना रहता है – ”तुम नहीं जानती श्रेया, तुम आज भी मेरे भीतर उसी तरह जिंदा हो… मेरे ख्वाबों पर आज भी तुम्हारा ही नाम लिखा है. ”

”तुम्हारे ख्वाबों पर मेरा नाम! मज़ाक करने की आदत आज भी नहीं गई ?”

”तुम्हारे साथ बीता एक-एक लम्हा मेरे अवचेतन में अब भी वैसे ही सांसें लेता है. “

जब ख्वाब देखने और पूरा करने के दिन थे तब तो ममाज बॉय बना हुआ था, पर आज जब हम दोनों की ज़िंदगी में अपनी-अपनी राह पर बहुत आगे नि‍कल चुके हैं तो ख़्वाहिशों की बात कर रहा है.  मन के भीतरी तहों में जमी उदासी की परतें किसी पुराने जख्म-सी टीसती हैं, पर प्रकटतः मैं पूछती हूँ –

”और चेतन में क्‍या होता है, राजीव?”

” घर-परि‍वार, बच्‍चे, जि‍म्‍मेदारि‍यां…कैसे बीवी को खुश रखूं, कैसे बॉस का चहेता बना रहूं…बच्चों की खुशी के लिए क्या करूँ…”

“इस चेतना-व्यापार से कभी फुर्सत भी मिलती है तुम्हें? याद भी है कि कितने बरस गुजर गए?” पता नहीं ऐसा पूछ कर मैं उसे नीचा दिखाना चाहती हूँ या उसके साथ बिताए उन साझा पलों को मन ही मन फिर से दुहराना चाहती हूँ.

”हां श्रेया, सब याद है मुझे, आठ साल बीत गए, पर कोलकाता के वे दिन आज भी मेरे जेहन में उसी तरह ताज़ा हैं.  दफ्तर में टिफिन का डब्बा खोलते ही आज भी सबसे पहले तुम्हारी ही याद आती है. ”

फ़्लर्टिंग की उसकी पुरानी आदत है.  पर ऐसा कुछ नहीं सोचना चाहती अभी.  उसके सच-झूठ पर निमिष भर भी विचार नहीं करना चाहती मैं.  उसकी बातें मुझे भली लग रही हैं.  जिसे मैं छोड़ आई थी कभी वह अब भी दिन-रात मेरी कामनाओं के साथ जीता है, यह सोचकर ही एक अजीब किस्म का सुख मिल रहा है मुझे.

वह अब भी बोले जा रहा है – “तुम्‍हारे संग बिताए उन दिनों की स्मृतियाँ हर पल मेरे साथ साये की तरह रहती हैं.  तुम मुझसे दूर चली गई, मगर आज भी मैं तुममें ही जीता हूं श्रेया.  क्या एक बार हम और नहीं मिल सकते? तुम जब भी बोलो, जहां बोलो, जि‍स वक्‍त बोलो..मैं आ जाऊंगा. ”

इस वक्त उसके स्वर में जाने क्या है,ललक…तड़प… आवेग या इन सबका कोई मिलाजुला भाव… मैं कुछ बोल नहीं पाती.  बस हौले से कहती हूँ…. ”राजीव!” एक पल को मुझे अपनी ही आवाज़ भीगी सी महसूस हो रही है.  मगर नहीं, जि‍स मोड़ को छोड़कर इतना आगे नि‍कल चुकी हूँ मुझे फिर से उन्हीं गुंजलकों में नहीं फंसना है.  अपनी नम आवाज़ की ओट से खुद की संभावित कमजोरी को पहचानते हुए मैं स्वयं को वहीं रोक देती हूँ – “दफ्तर से एक जरूरी कॉल आ रहा है.  मैं फोन रखती हूँ.  फिर बात होगी.  अपना ध्यान रखना. “

फोन रखने के बाद कुछ देर बेआवाज हो जाती हूँ मैं.  राजीव के शब्द जैसे मेरे कानों में ठहर से गए हैं.  जीवन और चाहत से भरी उसकी आवाज़ ने मुझे इस वक्त कुछ और अकेला कर दिया है.  ज़िंदगी में सब कुछ मनचाहा करने के बावजूद उम्र के इस मोड़ पर अकेले रह जाने का यह भाव एक अपरिचित सी रिक्ति लेकर उपस्थित हुआ है, जिससे मैं तुरंत ही बाहर आ जाना चाहती हूँ.  खुद को नियंत्रित करने का यही एक रास्ता है अभी.  बचपन में पढ़ी शिबमंगल सिंह सुमन की एक कविता की पंक्तियाँ याद करने की कोशिश करती हूँ- “कहीं भली है कटुक निबौड़ी कनक-कटोरी की मैदा से…

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Tags: रश्मि शर्मा
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Comments 12

  1. Mukti Shahdeo says:
    4 years ago

    बेहद खूबसूरत कहानी के लिए बधाई रश्मि शर्मा!

    Reply
  2. प्रवीण कुमार says:
    4 years ago

    मैं सोच रहा था कि यादि पुरुष लेखक होता तो यह कहानी किस तरह लिखता । शायद वह चीज कभी नहीं मिलती पढ़ने को । रश्मि जी ने स्त्री मन के अकथ प्रदेश को कुरेदा है ।

    Reply
  3. Dr. Meeta Bhatia says:
    4 years ago

    बहुत सोचा क्या लिखूं शब्द साथ नहीं दे रहे । भावनाएं झकझोर रही हैं रश्मि जी। नारी मन की ऐसी व्याख्या… आप खूब लिखे … लिखती जाएँ… शुभकामनायें

    Reply
  4. Dr. Meeta Bhatia says:
    4 years ago

    बहुत खूबसूरत रचना ।एक लंबी कहानी का फ्लो बनाए रखने के लिए साधुवाद ।
    नारी मन को बहुत अच्छी तरह उकेरा है आपने।
    ढेरों बधाई और शुभकामनाएं
    लिखते रहिए …..लिखते रहिए

    Reply
  5. राकेश बिहारी says:
    4 years ago

    एक आधुनिक लड़की के अकेलेपन की विश्वसनीय छवियों से विनिर्मित कहानी. हर हिस्से के आरंभ में उद्धृत शेर अकेलेपन के संदर्भित रंग और उसकी व्यंजना को और सघन करते हैं. ‘आगे क्या होगा’ की उत्सुकता कहानी में आद्योपांत बनी रहती है. कहानी में वर्णित उपकथाएँ कहानी के अंत से मिलकर आधुनिक स्त्री के अंतः और बाह्य के बीच उपस्थित फ़ासले को जिस तरह रेखांकित करती हैं, वही इस कहानी का हासिल है. आपने कहानी प्रस्तुत करते हुए अनामिका के जिस कथन को रेखांकित किया है, वह इस कहानी के मर्म से सहज ही संबद्ध है.

    Reply
  6. हीरा सिंह says:
    4 years ago

    प्रेम में डूबी हुई अकेलेपन की रोचक कहानी ,एक ही साँस में पढ़ जाने की इच्छा आगे क्या होगा की जिजीविषा कहानी को मधुर बना देती है , अवचेतन मन में छिपा प्रेम बाहर आने को बेक़रार दिखता है , कहानी में स्त्री मन अपने में सिमटी हुई प्यार में डूबी हुई कभी संकुचित कभी उद्धेलित दिखती है !

    Reply
  7. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    आजकल लिखी जा रही हिन्दी कहानियों की एक प्रवृत्ति यह है कि वे बहुत अच्छे विषय को लेकर चलती हैं, काफी दूर तक सही रास्ते पर चलती हैं पर अंत में रास्ता भूल कहीं और पहुँच जाती हैं। कहानी पर अगर कोई वाद या विमर्श हावी हो,तो अक्सर वह रास्ता बदल लेती है और वही पहुँचती है जहाँ वे(विमर्श) पहुँचाना चाहते हैं। यह कहानी वहाँ तक अच्छी है जहाँ तक अलग-अलग पुरुष उसकी जिंदगी में आते हैं। श्रेया को उस हर किसी के जीवन में और व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विसंगतियाँ दीखती हैं जो उसकी अस्मिता के विरुद्ध हैं और जो उसे सहज स्वीकार्य नहीं हो पातीं। यहाँ तक तो ठीक है पर कहानी इसके आगे स्वयं को एक हड़बड़ी में समेटती वही नाटकीय ढंग से अंत तक पहुँचकर खत्म हो जाती है। मुझे लगता है कि कहानी में विचारधारा और विमर्श का घोल चित्रकला के रंग संयोजन की बारीकियाँ लिए होना चाहिए । रश्मि शर्मा की कहानी की भाषिक संरचना आकर्षक एवं काव्यात्मक है।कथात्मक बुनावट भी दिलचस्प है।उन्हें शुभकामनाएँ।

    Reply
  8. NavRatan says:
    4 years ago

    अरे ! वाह!!! बहुत खूबसूरत कहानी बुनी है…और ये हिम्मतवर कहानी भी है…हमारे यहां महिला लेखिकाएं कम हैं…जो मन का लिखने की हिम्मत कर जाती हैं,…मुद्दत कोई बेहतरीन कहानी पढ़ी… बधाई!!!
    लेकिन … आखिर में इतनी भी क्या जल्दी थी…बड़े गौर से सुन रहा था जमाना…..खैर!!! पुनः पुनः बधाई…💐😊🙏

    Reply
  9. Sangita Kujara Tak says:
    4 years ago

    आज के परिवेश की कहानी…बहुत बढ़िया
    चिड़िया की आँख पर फ़ोकस है,लिखती रहो ।

    Reply
  10. Anonymous says:
    4 years ago

    कहानी अच्छी है लेकिन नयापन कुछ भी नहीं है।

    Reply
  11. Jai mala says:
    3 years ago

    कहानी में प्रवाह ऐसा है कि दोबारा पढ़ने के बाद भी नया सा लगा ।
    आप इसी तरह लिखते रहें । असीम शुभकामनाएं !

    Reply
  12. नूपुर अशोक says:
    12 months ago

    बहुत अच्छी लगी कहानी। कथ्य के साथ साथ भाषा और शिल्प भी अनूठे लगे। कथा का प्रवाह और रोचकता पाठक को बाँधे रखती है। अंत थोड़ा अचानक सा लगा। फिर भी आज की स्त्री के मनोभावों का सफल चित्रण करने के लिए रश्मि को साधुवाद!

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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