मैं सच कहूँगी फिर भी हार जाऊँगी
वह झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा
(परवीन शाकिर)
नोट पैड पर लिखा आखिरी नंबर पल्लव का है. दो वर्ष पहले मैंने उसे मोबाइल, व्हाट्सऐप, फेसबुक, इन्स्ट्राग्राम हर जगह ब्लॉक कर दिया था. इस दौरान कभी उससे बात करने की जरूरत मैंने महसूस नहीं की. पर जाने आज क्या हुआ कि उसके नंबर तक जाकर मैं ठिठक गई. जीवन के चालीस बरस मैंने खुद को इश्क-मुहब्बत के चक्कर में फँसने नहीं दिया. मेरी नजर हमेशा मछली की आँख की तरह, अपने करियर पर ही रही. दोस्तों की कमी तो कभी नहीं थी, पर किसी प्रलोभन के आगे कभी समर्पण नहीं किया. पुरुषों की दोस्ती से कभी परहेज नहीं था, पर सामान्यता अतीत, रिलेशनशिप, शादी, सेक्स के बारे में सब कुछ जान लेने की हड़बड़ी के कारण मेरे मन में पुरुषों के प्रति एक खास तरह की तल्खी भी रही है. शायद इसी कारण पुरुषों के साथ एक खास दूरी तक जाने के बाद मैं खुद को सायास रोक लेती हूँ.
लेकिन पल्लव इस मामले में औरों से अलग था. उसने कभी मेरे परिवार और अतीत के बारे में मुझसे कुछ नहीं जानना चाहा. सुबह जागने से लेकर देर रात तक मेरे साथ रहता. फेसबुक के लाइक कमेन्ट से शुरू हुई एक औपचारिक सी दोस्ती कब एक आत्मीय अंतरंगता में बदल गई मुझे भी नहीं पता चला. वह उम्र में मुझसे छोटा था. उसके पास दिलचस्प बातों का जखीरा हुआ करता था. किस्से-कहानियां, गॉसिप, फूल, पेड़, मौसम, फिल्म… उसकी बातें कभी खत्म ही नहीं होती. मुझे उसके साथ की आदत हो चली थी. जब भी वक्त होता, एक-दूसरे को नॉक करते. हमारी बात अक्सर मेसेंजर और व्हाट्सएप पर ही होती. शाम को दफ्तर से लौटते हुए कई बार वह फोन करता. यदि उस वक्त मैं फ्री होती तो बात कर लेती. कुछ दिनों बाद मैंने खुद को उस वक्त फ्री रखना शुरू कर दिया था. कुछ महीनों बाद एक दिन जो कहा था उसने, मुझे अक्षरशः याद है –
“आना है मुझे आपके पास. बस कुछ दूर चलूंगा आपके संग-संग. किसी हरे-भरे और शांत रास्ते में…. आपको छूकर गुजरती हवा को भर लूंगा अपनी सांसों के अंदर. ढह जाऊंगा कटे दरख़्त की तरह आपकी कदमों में और आपका अक्स अपनी आंखों में भर आपसे दूर चला जाऊंगा… इस चाह को खुद में समेटे कि काश मेरी आंखें अब न खुले कभी. ”
मैं समझ नहीं सकी यह प्रेम निवेदन था या किसी बौराए इंसान का स्वगत कथन. इसके पहले ऐसी भाषा सिर्फ साहित्य की किताबों में ही पढ़ी थी. मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वास्तविक जीवन में भी कोई इस तरह बोल सकता है. पर यह मेरे ही साथ घटित हो रहा था और मैं निःशब्द सुन रही थी उसे. जाने यह सिलसिला कैसे चल निकला और मैं उसकी शहद-सी बातों के गिरफ्त में आती चली गई. वह इस हौले से मेरे भीतर उतर आया था जैसे थकान के बाद आंखों में नींद उतरती है… हल्की नींद में जैसे सपने अंखुआते हैं.
वक्त पंख लगाकर बीत रहे थे और मैं सातवें आसमान पर थी. बातों-बातों में ही उसने एक दिन बताया था कि वो परिवारिक जिम्मेदारियों में फंसा है, विवश है…उसे कुछ वक्त चाहिए ताकि दो बहनों की शादी की जिम्मेवारी निभा ले उसके बाद फिर हम साथ होंगे.
पर उसने जो कहा वह आधा सच था. एक दिन किसी अंजान नंबर से आए किसी स्त्री के कॉल ने जब पूरे सच से पर्दा उठाया, मेरे पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई थी. मैंने कभी नहीं चाहा था कि किसी का घोंसला उजाड़कर अपने नीड़ का निर्माण करूँ. मैंने उस अंजान स्त्री से कहा था वह निश्चिंत रहे, खुद को पल्लव से अलग कर लूँगी.
मेरे लिए यह बहुत मुश्किल था, पर झूठ की आशा में जिंदा रहने से बेहतर था सच का सामना करना. पल्लव के शब्द मुझे सच से ज्यादा पवित्र लगते थे. आश्चर्य हुआ था कोई इतनी पवित्रता से भी झूठ बोल सकता है. वह दोहरी ज़िंदगी जी रहा था, यह बात तकलीफदेह तो थी पर मुझे इस बात का दुख ज्यादा था कि उसने मुझसे सच नहीं बताया था. मैंने खुद को झटके में उससे पूरी तरह अलग कर लिया. तब महीनों मेरी हालत अचानक ही धूम्रपान छोड़ देने वाले चेन स्मोकर की तरह हो गई थी.
जिस नंबर को अनगिनत बार डायल कर चुकी थी, उसे आज डायल करते हुए मेरी उंगलियाँ कांप रही थी. जब उसके फोन की घंटी बजी, एक बार मन हुआ काट दूँ फोन. पर तीसरे रिंग में ही उसने फोन उठा लिया था. उसकी आवाज सुन मेरी आवाज गले में ही अटक गई. लगा जैसे कई युगों की दूरी से बोल रहा था वह…
”हलो…हलो…”
मैं हिम्मत सहेज रही थी कि हलो बोलूं, उसके पहले उधर से आवाज आई – ” श्री..ये तुम हो न?”
याद नहीं कि मैंने पहले कभी उसे लैंड लाइन से फोन किया हो. मुझे हैरानी होती है कि उसने मुझे कैसे पहचान लिया. क्या अब भी उसे मेरी साँसों की गति याद है? मुझे सुलाए बिना कभी नहीं सोता था वह. रोज रात जब तक मैं नींद में गाफ़िल नहीं हो जाती, दूसरी तरफ फोन पर रहता वो. जब नींद में डूबी मेरी सांसे शिथिल होने लगतीं, वह हौले से फोन काट देता था.
”कैसे हो पल्लव?” अपनी आवाज सम पर रखने की पुरजोर कोशिश करती हूँ मैं.
”तुम्हारे बिन कैसा हो सकता हूं श्री? जब तुम नहीं तो और क्या रह गया है मेरी ज़िंदगी में?” पूरे दो साल के बाद उसकी आवाज सुन रही हूँ. अनचाहे ही बेआवाज रो पड़ती हूँ…जिसे महसूस कर लेता है वो.
”न…न… रोओ नहीं…मेरे पास आओ….प्लीज श्री…कुछ भी नहीं बदला है….मैं तुमसे उतना ही बल्कि पहले से ज्यादा प्यार करता हूं…हर दिन तुम्हारा इंतजार करता हूं. श्री…मैं मर-मर के जी रहा हूं. ”
वह उसी पवित्रता से एक बार फिर झूठ बोल रहा है. मैं आँसू पोंछती हूँ- ”तुम जानते हो, मैं तुमसे नफरत करती हूं. ”
”जानता हूं…मैंने बहुत बड़ी गलती की है… सब भूल जाओ श्री…बस इतना याद रखो, मैंने इतना प्यार किया है तुमको, जितना किसी ने तुम्हें नहीं किया होगा, न करेगा. मैं सब ठीक कर दूंगा. थोड़ा वक्त दो मुझे. ”
उसके शब्दों पर मैंने ईश्वर से ज्यादा यकीन किया था. उसकी पत्नी का फोन आने के बाद उससे कोई बात नहीं की थी मैंने इसलिए उन शब्दों की याद कहीं भीतर जिंदा थी. दो वर्षों से उससे बात मैंने भले नहीं की पर उसके रिश्ते का अवशेष कहीं मेरे भीतर दबा हुआ था.
”तुम भी जानते हो पल्लव…मैंने सिर्फ तुम्हें प्यार किया था और तुम्हारे लिए सब छोड़ने को तैयार थी, पर वह पल्लव कोई और था, जिसकी आवाज़ और शब्द मेरे लिए जीवन के पर्याय थे… आज मैं उस आवाज़ और उस आवाज़ में बसे ईश्वर की मृत्यु की घोषणा करती हूँ. हाँ, जिस प्यार को मैंने तब साझे का समझा था वह नितांत मेरी पूंजी है और उसके साथ मुझे क्या सुलूक करना है यह सिर्फ और सिर्फ मैं तय करूंगी…. ”
”श्री….श्री….” उसकी आवाज डूबने-सी लगी है, पर मैं अब कोई और झूठ नहीं सुनना चाहती. मैंने फोन काट दिया है.
बेहद खूबसूरत कहानी के लिए बधाई रश्मि शर्मा!
मैं सोच रहा था कि यादि पुरुष लेखक होता तो यह कहानी किस तरह लिखता । शायद वह चीज कभी नहीं मिलती पढ़ने को । रश्मि जी ने स्त्री मन के अकथ प्रदेश को कुरेदा है ।
बहुत सोचा क्या लिखूं शब्द साथ नहीं दे रहे । भावनाएं झकझोर रही हैं रश्मि जी। नारी मन की ऐसी व्याख्या… आप खूब लिखे … लिखती जाएँ… शुभकामनायें
बहुत खूबसूरत रचना ।एक लंबी कहानी का फ्लो बनाए रखने के लिए साधुवाद ।
नारी मन को बहुत अच्छी तरह उकेरा है आपने।
ढेरों बधाई और शुभकामनाएं
लिखते रहिए …..लिखते रहिए
एक आधुनिक लड़की के अकेलेपन की विश्वसनीय छवियों से विनिर्मित कहानी. हर हिस्से के आरंभ में उद्धृत शेर अकेलेपन के संदर्भित रंग और उसकी व्यंजना को और सघन करते हैं. ‘आगे क्या होगा’ की उत्सुकता कहानी में आद्योपांत बनी रहती है. कहानी में वर्णित उपकथाएँ कहानी के अंत से मिलकर आधुनिक स्त्री के अंतः और बाह्य के बीच उपस्थित फ़ासले को जिस तरह रेखांकित करती हैं, वही इस कहानी का हासिल है. आपने कहानी प्रस्तुत करते हुए अनामिका के जिस कथन को रेखांकित किया है, वह इस कहानी के मर्म से सहज ही संबद्ध है.
प्रेम में डूबी हुई अकेलेपन की रोचक कहानी ,एक ही साँस में पढ़ जाने की इच्छा आगे क्या होगा की जिजीविषा कहानी को मधुर बना देती है , अवचेतन मन में छिपा प्रेम बाहर आने को बेक़रार दिखता है , कहानी में स्त्री मन अपने में सिमटी हुई प्यार में डूबी हुई कभी संकुचित कभी उद्धेलित दिखती है !
आजकल लिखी जा रही हिन्दी कहानियों की एक प्रवृत्ति यह है कि वे बहुत अच्छे विषय को लेकर चलती हैं, काफी दूर तक सही रास्ते पर चलती हैं पर अंत में रास्ता भूल कहीं और पहुँच जाती हैं। कहानी पर अगर कोई वाद या विमर्श हावी हो,तो अक्सर वह रास्ता बदल लेती है और वही पहुँचती है जहाँ वे(विमर्श) पहुँचाना चाहते हैं। यह कहानी वहाँ तक अच्छी है जहाँ तक अलग-अलग पुरुष उसकी जिंदगी में आते हैं। श्रेया को उस हर किसी के जीवन में और व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विसंगतियाँ दीखती हैं जो उसकी अस्मिता के विरुद्ध हैं और जो उसे सहज स्वीकार्य नहीं हो पातीं। यहाँ तक तो ठीक है पर कहानी इसके आगे स्वयं को एक हड़बड़ी में समेटती वही नाटकीय ढंग से अंत तक पहुँचकर खत्म हो जाती है। मुझे लगता है कि कहानी में विचारधारा और विमर्श का घोल चित्रकला के रंग संयोजन की बारीकियाँ लिए होना चाहिए । रश्मि शर्मा की कहानी की भाषिक संरचना आकर्षक एवं काव्यात्मक है।कथात्मक बुनावट भी दिलचस्प है।उन्हें शुभकामनाएँ।
अरे ! वाह!!! बहुत खूबसूरत कहानी बुनी है…और ये हिम्मतवर कहानी भी है…हमारे यहां महिला लेखिकाएं कम हैं…जो मन का लिखने की हिम्मत कर जाती हैं,…मुद्दत कोई बेहतरीन कहानी पढ़ी… बधाई!!!
लेकिन … आखिर में इतनी भी क्या जल्दी थी…बड़े गौर से सुन रहा था जमाना…..खैर!!! पुनः पुनः बधाई…💐😊🙏
आज के परिवेश की कहानी…बहुत बढ़िया
चिड़िया की आँख पर फ़ोकस है,लिखती रहो ।
कहानी अच्छी है लेकिन नयापन कुछ भी नहीं है।
कहानी में प्रवाह ऐसा है कि दोबारा पढ़ने के बाद भी नया सा लगा ।
आप इसी तरह लिखते रहें । असीम शुभकामनाएं !
बहुत अच्छी लगी कहानी। कथ्य के साथ साथ भाषा और शिल्प भी अनूठे लगे। कथा का प्रवाह और रोचकता पाठक को बाँधे रखती है। अंत थोड़ा अचानक सा लगा। फिर भी आज की स्त्री के मनोभावों का सफल चित्रण करने के लिए रश्मि को साधुवाद!