और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)
शाम ढलने वाली है. मोबाइल ऑन करती हूं…. मेरी कुलीग सुमन और मेरे टीम लीडर मनोज के कुल 18 मिस्ड कॉल पड़े हैं. एक मैसेज फ्लैश हो रहा…
”कल संडे को मनोज के फार्म हाउस पर पिकनिक पर जाने का प्लान है. तू चल रही है न! तुम्हारे फोन न उठाने से मनोज बहुत परेशान हैं. हम सब जा रहे. सुबह आठ बजे रेडी हो जाना… तुम्हें पिक करते हुए हम निकल चलेंगे.
टीम लीडर होकर भी मनोज इस अजनबी शहर में एक सहृदय दोस्त की तरह हैं, जिनके साथ मैं सहज महसूस करती हूँ. दिल्ली से बैंगलोर आते हुए यह चिंता लगी हुई थी कि जाने वहाँ कैसे दोस्त मिलें. मनोज से मिलकर वह चिंता जाती रही थी.
फोन किनारे रख कमरे के सभी लाइट एक साथ ऑन कर देती हूँ. इस उजाले में मन का अंधेरा भी डरकर किसी कोने में दुबक-सा गया है. सामने ड्रेसिंग टेबल में खुद को आदमक़द देखते हुए मन ही मन स्वयं को हैलो कहती हूँ. बेतरतीब बिखरे बाल समेटकर पोनी बनाती हूँ. वाश बेसिन पर जाकर चेहरे पर ठंडा पानी छपकती हूँ.
सुबह कॉलबेल में कैद झरने की आवाज़ से नींद खुलती है …
”अरे…सुबह-सुबह तुम?” राजीव को सामने देखकर मेरी हैरत का ठिकाना नहीं है. कल बात हुई और ये आज सामने…. जैसे पहली फ्लाइट पकड़कर सीधे आ रहा हो.
”दिल नहीं माना श्रेया…बस तुमसे मिलने आया हूं…”
”मगर मैं तो आज…. अच्छा तुम बैठो… मैं फ्रेश हो लेती हूं. ”
मैं बाथरूम के दरवाजे की तरफ बढ़ती ही हूँ कि डोरबोल एकबार फिर बज उठता है. राजीव से कोई पूछ रहा है….” क्या श्रेया मेहरा का घर यही है? ”
आवाज पहचानी-सी है…उफ, ये तो पल्लव की आवाज है. जिसने इतने सालों में मिलने की हिम्मत नहीं की वो आज…..
मैं बिना रुके बाथरूम में घुस जाती हूँ….
आज अपना फेवरिट जींस-टी शर्ट पहना है. मैं राजीव और पल्लव से उनकी पसंद पूछे बिना अपना पसंदीदा मसाला टी के तीन कप एक ट्रे में लेकर उनके पास आ बैठती हूँ. मेरी नज़र घड़ी पर है. मुझे खुद आश्चर्य हो रहा कि कल जिनसे बात करने के लिए बेचैन हुई जा रही थी अभी उनके पास होने के बावजूद मुझमें उनके लिए कोई उत्साह नहीं है. उनकी तरफ भर आँख देखती भी नहीं और बहुत ब्लंटली कह उठती हूँ-
”सॉरी गाइज…मुझे आज बाहर जाना है…आपलोग चाहें तो कल शाम को फिर हम चाय पर मिल सकते हैं. ”
पल्लव और राजीव हैरत से कभी मुझे देख रहे हैं तो कभी एक-दूसरे को.
गेट के बाहर से सुमन चिल्ला रही है…” श्रेया…जल्दी करो, हम ऑलरेडी देर हो चुके हैं…”
घर का डोर लॉक करने के बाद जैसे ही कार में बैठती हूँ कि व्हाट्सएप पर अंकुर का मैसेज फ्लैश करता है- “सेंड मी योर लोकेशन. रिचिंग बैंगलोर आफ्टर एन आवर. ”
मैं जल्दी से जवाब टाइप करती हूँ- “सॉरी डियर आय एम आउट ऑफ स्टेशन. ”
कार के पहिए से लगकर धूल का गुबार उठता है और मेरे पीछे सब कुछ धुंधला हो जाता है. चमकदार सड़क पर कार सर्ररर से चली जा रही है……
रश्मि शर्मा राँची, झारखंड तीन कविता-संग्रह ‘नदी को सोचने दो’, ‘ मन हुआ पलाश ‘ और ’वक्त की अलगनी पर’ प्रकाशित. तथा कहानियाँ लगभग सभी पत्रिकाओं मे प्रकाशित. सी.एस.डी.एस. का नेशनल इन्क्लूसिव मीडिया फ़ेलोशिप (2013) प्राप्त एक दशक तक सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद अब पूर्णकालिक रचनात्मक लेखन एवं स्वतंत्र पत्रकारिता. संपर्क रमा नर्सिंग होम, मेन रोड, रांची झारखंड 834001 मेल- rashmiarashmi@gmail.com |
बेहद खूबसूरत कहानी के लिए बधाई रश्मि शर्मा!
मैं सोच रहा था कि यादि पुरुष लेखक होता तो यह कहानी किस तरह लिखता । शायद वह चीज कभी नहीं मिलती पढ़ने को । रश्मि जी ने स्त्री मन के अकथ प्रदेश को कुरेदा है ।
बहुत सोचा क्या लिखूं शब्द साथ नहीं दे रहे । भावनाएं झकझोर रही हैं रश्मि जी। नारी मन की ऐसी व्याख्या… आप खूब लिखे … लिखती जाएँ… शुभकामनायें
बहुत खूबसूरत रचना ।एक लंबी कहानी का फ्लो बनाए रखने के लिए साधुवाद ।
नारी मन को बहुत अच्छी तरह उकेरा है आपने।
ढेरों बधाई और शुभकामनाएं
लिखते रहिए …..लिखते रहिए
एक आधुनिक लड़की के अकेलेपन की विश्वसनीय छवियों से विनिर्मित कहानी. हर हिस्से के आरंभ में उद्धृत शेर अकेलेपन के संदर्भित रंग और उसकी व्यंजना को और सघन करते हैं. ‘आगे क्या होगा’ की उत्सुकता कहानी में आद्योपांत बनी रहती है. कहानी में वर्णित उपकथाएँ कहानी के अंत से मिलकर आधुनिक स्त्री के अंतः और बाह्य के बीच उपस्थित फ़ासले को जिस तरह रेखांकित करती हैं, वही इस कहानी का हासिल है. आपने कहानी प्रस्तुत करते हुए अनामिका के जिस कथन को रेखांकित किया है, वह इस कहानी के मर्म से सहज ही संबद्ध है.
प्रेम में डूबी हुई अकेलेपन की रोचक कहानी ,एक ही साँस में पढ़ जाने की इच्छा आगे क्या होगा की जिजीविषा कहानी को मधुर बना देती है , अवचेतन मन में छिपा प्रेम बाहर आने को बेक़रार दिखता है , कहानी में स्त्री मन अपने में सिमटी हुई प्यार में डूबी हुई कभी संकुचित कभी उद्धेलित दिखती है !
आजकल लिखी जा रही हिन्दी कहानियों की एक प्रवृत्ति यह है कि वे बहुत अच्छे विषय को लेकर चलती हैं, काफी दूर तक सही रास्ते पर चलती हैं पर अंत में रास्ता भूल कहीं और पहुँच जाती हैं। कहानी पर अगर कोई वाद या विमर्श हावी हो,तो अक्सर वह रास्ता बदल लेती है और वही पहुँचती है जहाँ वे(विमर्श) पहुँचाना चाहते हैं। यह कहानी वहाँ तक अच्छी है जहाँ तक अलग-अलग पुरुष उसकी जिंदगी में आते हैं। श्रेया को उस हर किसी के जीवन में और व्यक्तित्व में कुछ ऐसी विसंगतियाँ दीखती हैं जो उसकी अस्मिता के विरुद्ध हैं और जो उसे सहज स्वीकार्य नहीं हो पातीं। यहाँ तक तो ठीक है पर कहानी इसके आगे स्वयं को एक हड़बड़ी में समेटती वही नाटकीय ढंग से अंत तक पहुँचकर खत्म हो जाती है। मुझे लगता है कि कहानी में विचारधारा और विमर्श का घोल चित्रकला के रंग संयोजन की बारीकियाँ लिए होना चाहिए । रश्मि शर्मा की कहानी की भाषिक संरचना आकर्षक एवं काव्यात्मक है।कथात्मक बुनावट भी दिलचस्प है।उन्हें शुभकामनाएँ।
अरे ! वाह!!! बहुत खूबसूरत कहानी बुनी है…और ये हिम्मतवर कहानी भी है…हमारे यहां महिला लेखिकाएं कम हैं…जो मन का लिखने की हिम्मत कर जाती हैं,…मुद्दत कोई बेहतरीन कहानी पढ़ी… बधाई!!!
लेकिन … आखिर में इतनी भी क्या जल्दी थी…बड़े गौर से सुन रहा था जमाना…..खैर!!! पुनः पुनः बधाई…💐😊🙏
आज के परिवेश की कहानी…बहुत बढ़िया
चिड़िया की आँख पर फ़ोकस है,लिखती रहो ।
कहानी अच्छी है लेकिन नयापन कुछ भी नहीं है।
कहानी में प्रवाह ऐसा है कि दोबारा पढ़ने के बाद भी नया सा लगा ।
आप इसी तरह लिखते रहें । असीम शुभकामनाएं !
बहुत अच्छी लगी कहानी। कथ्य के साथ साथ भाषा और शिल्प भी अनूठे लगे। कथा का प्रवाह और रोचकता पाठक को बाँधे रखती है। अंत थोड़ा अचानक सा लगा। फिर भी आज की स्त्री के मनोभावों का सफल चित्रण करने के लिए रश्मि को साधुवाद!