दृश्य से दिव्यता तक रतन थियम की नाट्य-यात्रा सौरभ अनंत |
रतन थियम होना सिर्फ एक रंगनिर्देशक होना नहीं है. यह होना है एक विचार का, एक अनुशासन का, एक सौंदर्य-दृष्टि का, और हमारी सांस्कृतिक स्मृति तथा संवादों की जीवंत अभिव्यक्ति का. उनके नाटकों में सौंदर्य, एकांत, परंपरा और प्रतिरोध इस तरह एक साथ मंच पर उपस्थित होते हैं, जैसे रंगमंच कोई प्रार्थनास्थल हो और मंचित होता नाटक एक जीवंत अनुष्ठान.
‘रतन थियम’ से मेरा पहला परिचय एक मुलाक़ात नहीं, एक अनुभव था. 2006-07 के आसपास, जब रंगमंच में मेरे कदम बिल्कुल नए थे, मैंने किसी पत्रिका में पहली बार उनके नाटकों के ज़िक्र के साथ उनका नाम पढ़ा, ‘रतन थियम’. उस एक नाम ने मुझे जैसे भीतर से जकड़ लिया. नाटक तब तक देखा नहीं था, पर उनके नाटकों के बारे में पढ़ते हुए लगा कि इस व्यक्ति से मेरा कोई अंत:सूत्र जुड़ गया है. मैं फाइन आर्ट्स से आया था. रंग, रेखा, स्पेस और मौन के साथ चित्रकला पढ़ते हुए जीवन बिताया था. और जब जाना कि रतन थियम न सिर्फ एक निर्देशक, बल्कि एक चित्रकार, डिज़ाइनर और मंच पर सौंदर्य रचने वाले कवि भी हैं, तो लगा जैसे मेरी कला की दोनों धाराएँ आकर एक ही स्रोत में मिल गईं.
ख़ुशक़िस्मती से, कुछ ही समय बाद भारत भवन, भोपाल में आयोजित एक नाट्य समारोह में मुझे उनका नाटक ‘चक्रव्यूह’ देखने का सौभाग्य मिला. अंतरंग सभागार जैसे जादुई स्पेस में बैठकर रतन थियम का नाटक देखना, मेरे लिए कोई साधारण अनुभव नहीं था. वह एक दीक्षा थी. उस शाम मैंने नाटक को पहली बार ‘देखा’ नहीं, पहली बार ‘जिया’ था. ‘चक्रव्यूह’ केवल एक नाटक नहीं था. वह एक सघन, भव्य और दार्शनिक अनुभव था, जिसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया. दर्शक की सीट पर बैठा मैं कब एक युद्धरत सभ्यता के बीच जा पहुंचा, पता ही नहीं चला. रतन थियम की दृश्य-संवेदना, प्रतीकों की गूंज, और मंचीय भाषा की गहराई ने मुझे यह समझा दिया कि थिएटर महज़ कथा नहीं, वह एक जीता-जागता अनुभव होता है. ‘चक्रव्यूह’ उसी अनुभव की एक विलक्षण अभिव्यक्ति थी.

‘चक्रव्यूह’ का वह मंचन मेरे भीतर उतर गया, जैसे किसी गहरी गुफा में कोई प्राचीन मंत्र ध्वनित हो रहा हो. उस क्षण का कंपन अब तक मेरे अस्तित्व में सजीव है.
प्रदर्शन के बाद मैं हतप्रभ-सा मंच पर गया. सेट की वस्तुओं को छूना चाहा. वो झंडे, वो मंच. सब कुछ मुझे किसी जादुई यथार्थ का हिस्सा लग रहे थे. और शायद सच में, वो शाम मेरे लिए रंगमंच की दुनिया का एक नया दरवाज़ा खोल रही थी. अगर वह शाम न आई होती, तो शायद मैं आज इस नाटक की इस दुनिया में यूं डूबा न होता. रतन थियम का होना मेरे भीतर एक ऐसा द्वार खोलता है, जो मुझे उस ब्रह्मांड की ओर ले जाता है, जिसका सूर्य ‘नाटक’ है.
उस शाम मंचन के बाद मैं उनसे मिला भी. काँपते शब्दों में बस इतना कह पाया, “सर, ये नाटक मेरे भीतर बहुत गहरे उतर गया है.” उन्होंने मुस्कराते हुए मेरे हाथों से डायरी ली, ऑटोग्राफ दिया और पूछा, “क्या करते हो?”
मैंने कहा, “नाटक”
वो बोले, “तो आओ, बैठकर बात करते हैं.”
मैं आज तक उस क्षण को एक आशीर्वाद की तरह संजोए हुए हूँ. मंचन के बाद उन्होंने ‘अंतरंग सभागार’ के उसी कोने में हम कुछ युवा रंगकर्मियों से लगभग एक घंटे इत्मीनान से बात की. नाटक पर, साधना पर, और विश्वास पर. उन्होंने कहा,
“अगर तुम्हें विश्वास है कि तुम कर सकते हो, तो एक दिन तुम ज़रूर कर जाओगे.”
उस रोज़ मैंने क़रीब से जाना कि रतन थियम केवल सौंदर्य के साधक नहीं, बल्कि अनुशासन और विचार के भी मार्गदर्शक हैं. रतन थियम ने मुझे सिखाया कि मंच पर प्रस्तुत हर क्षण, हर प्रकाश, हर छाया, केवल तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि गहरी संवेदना और सौंदर्यबोध का परिणाम होता है.
“Creativity is not about freedom alone, it’s about precision within freedom.”
यह बात अब भी मेरे कानों में उनकी आवाज़ में गूँज रही है.
उस शाम यह एहसास हुआ कि उनके रंगमंच की एक विशिष्ट विशेषता है उनकी ‘शारीरिकता पर केंद्रित शैली’ और ‘कोरस’ की अद्वितीय प्रयोगधर्मिता, जो पारंपरिक और आधुनिक रंगशैलियों के बीच एक सेतु का कार्य कर रही है. उनके नाटकों में अभिनेता केवल संवाद के वाहक नहीं, बल्कि देह और भाव-भंगिमा के माध्यम से वे एक संपूर्ण दृश्य-भाषा रच रहे हैं. यह शैली उन्हें नाट्यशास्त्र के ‘अंगिक’ अभिनय से जोड़ती है, जहाँ देह, भंगिमा, हस्तमुद्राएँ, और नेत्राभिनय प्रमुख हैं. वहीं पश्चिम के physical theatre की उस परंपरा से भी संवाद करती है जिसमें शरीर को दृश्य संरचना और भाव संप्रेषण का मूल माध्यम माना जाता है.
थियम के रंगमंच में ‘कोरस’ सिर्फ़ बैकग्राउंड का हिस्सा नहीं होता, बल्कि वह भावनाओं को दृश्य रूप देने वाला एक सक्रिय माध्यम बनता है, जो कहानी के संप्रेषण को और ज़्यादा प्रभावशाली बना देता है. उनके ‘कोरस’ का मतलब सिर्फ़ एक साथ बोलने या चलने वाला समूह नहीं है, बल्कि वह लोगों की सोच और भावनाओं का एक मिलाजुला रूप है. जैसे पूरा समाज एक साथ बोल रहा हो. कभी आर्तनाद बनकर, कभी विडंबना, कभी स्मृति या प्रतिरोध.
यह कोरस ग्रीक रंगमंच की परंपरा से प्रेरणा लेता हुआ भी, पूरी तरह थियम के सौंदर्यबोध में रच-बस जाता है. थियम के प्रशिक्षित अभिनेता अपनी देह को संगीत, ताल, गति और अंतर्यात्रा से इस तरह साधते हैं कि वे सब आपस में एक अदृश्य ऊर्जा प्रवाह में बंधे लगते हैं. यही ‘देहबोध’ उनके रंगमंच को एक पारलौकिक अनुभव में बदल देता है.
जापानी रंग-निर्देशक तादाशी सुज़ुकी ऐसा मानते थे कि
“एक अभिनेता का शरीर वह स्थल है जहाँ परंपरा और तकनीक का मिलन होता है.”
यही बात रतन थियम के नाट्य-दर्शन में भी साकार होती दिखाई देती है. उनका नाटक वो स्थल बनता है जहाँ परंपरा और तकनीक मिलकर नवाचार की दिशा तय करती हैं.
उन्होंने मुझे सिखाया कि रंगमंच में कैसे हर दृश्य, हर वेशभूषा, हर मौन— अपने भीतर एक ब्रह्मांड रचता है. मंच पर घटित होता ब्रह्मांड जो समय और स्थान की सीमाओं से परे है. उनके मंच पर तमाम कलाएँ इस तरह एकत्र होती हैं, जैसे कोई टाइम मशीन, जो दर्शकों को दृश्य-जगत की सीमाओं से परे, एक अंतर-यात्रा पर ले जाती है. जहाँ स्मृति, कल्पना और अनुभूति के नाटक एक साथ मंचित होते हैं.
उनसे मुलाक़ात और उनकी उपस्थिति मेरे भीतर अब भी वैसी ही है, जैसे कोई आचार्य अपने शिष्यों के बीच विराजमान हो, और जीवन भर की पाठशाला अब भी चल रही हो.
रतन थियम होने का मतलब, परंपरा में खड़े रहकर भविष्य की ओर देखना है. उनके लिए मंच एक तपस्थली है, जहाँ अभिनय साधना बनता है, तकनीक साधन बनती है, और परंपरा एक जीवित विरासत बनकर वर्तमान से संवाद करती है. थियम का नाटक दर्शक को केवल प्रभावित नहीं करता. वह उन्हें भीतर तक विचलित करता है. जगाता है. और इस प्रश्न से जोड़ता है कि — “कला का असली उद्देश्य क्या है ?”
एक साक्षात्कार में उदयन वाजपेयी जी से बातचीत करते हुए रतन थियम कहते हैं,
“रंगमंच में ध्वनि, शरीर, वेश, पर्यावरण- सब एक गूढ़ संवाद में बंधे होते हैं. उनके लिए व्यंजन, वेशभूषा और मंच की ऊर्जा एक-दूसरे से अलग नहीं, बल्कि एक ही चेतना की तरंगें हैं. वे मानते हैं कि कलाकार का शरीर सिर्फ अभिनय का माध्यम नहीं, बल्कि ऊर्जा का वह पात्र है जिसमें पर्यावरण की ध्वनि, मौसम की गति और परंपरा की स्मृति एक साथ स्पंदित होती हैं.”
थियम एक उदाहरण देते हैं,
“केरल में पंचवाद्यम (पारंपरिक संगीत वादन) की गति इतनी तेज़ क्यों होती है? यह सिर्फ़ संगीत का सवाल नहीं है. यह समुद्र की लहरों, मछुआरों की ज़िंदगी और वहां की प्रकृति से निकला हुआ सांस्कृतिक उत्तर है. इसी तरह लद्दाख या सिक्किम के पहाड़ों में बजने वाले भोंपू, जिनकी आवाज़ घाटियों में गूंजती है, वह सिर्फ़ एक ध्वनि नहीं, बल्कि उस जगह की आत्मा का विस्तार है.”
उनके अनुसार
“मैंने यह भी समझने का प्रयास किया कि जब मंच तीन दिशाओं से दर्शकों से घिरा होता है, तब प्रदर्शन की संरचना किस प्रकार बदलती है. वह मंच मुझे मंदिर-सा प्रतीत होता है, जहाँ एक ओर देवता प्रतिष्ठित होते हैं, और शेष तीन ओर भक्तगण, जो उस अनुष्ठान को देख भी रहे होते हैं और उसे आत्मा से अनुभव भी कर रहे होते हैं. ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण अभिनय देवता की ओर उन्मुख होता है. इस अज्ञात की ओर अग्रसर अनुष्ठानात्मक यात्रा, एक आध्यात्मिक मार्ग बन जाती है. उस क्षण में अभिनय किसी देवता को समर्पण हो जाता है और मंच एक आत्मिक मंदिर में रूपांतरित हो जाता है.”
रतन थियम मानते हैं कि रंगमंच वायवीय नहीं है. वह प्रकृति के तत्त्वों में रचा-बसा एक ऐसा संसार है, जिसमें मिट्टी की गंध, जल की तरलता, ध्वनि की गूंज और आकाश की विराटता एक साथ धड़कती है.
अभिनेता का शरीर, किसी भूमि की तरह होता है. जिसमें अभिनय तभी अंकुरित होता है, जब वह अपने पर्यावरण, अपनी ध्वनियों, अपने संस्कारों से गहराई से जुड़ा हो. यही जुड़ाव उसके अभिनय को केवल सामाजिक अभिव्यक्ति नहीं रहने देता, बल्कि उसे एक आध्यात्मिक अनुभव में रूपांतरित कर देता है.
नाटक, कविता, चित्र, चुप्पी. ये सब उनके लिए एक ही भाषा की भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं.
कला केवल सौंदर्य नहीं, एक मूल्य है, एक प्रतिरोध है, एक संवाद है.
उनके नाटकों को देखने की प्यास मुझे देश के अलग-अलग शहरों तक ले गई. बाद में, जब मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग द्वारा उनके नाटकों का एक व्यापक समारोह आयोजित किया गया, और मुझे उनके पाँच-छह नाटक एक साथ देखने का अवसर मिला. वह अनुभव मेरे लिए एक संपूर्ण पाठ्यक्रम जैसा बन गया. मैंने उन दिनों उन्हें मंचन के दौरान अक्सर सभागार में पीछे की तरफ़, लाइट कंसोल के पास खड़ा देखा. नाटक की छाया में खड़ा एक चेहरा. भीतर कहीं संत-सा शांत, बाहर कहीं योद्धा-सा सजग. चिंता की लहरों में डूबा, फिर भी अपनी दृष्टि में पूर्ण. मंच पर अपने आत्मस्वप्न को साकार होते हुए देखता चेहरा.
रतन थियम ने मुझमें यह विश्वास जगाया कि रंगमंच कोई हाशिये की चीज़ नहीं, बल्कि समाज के केंद्र में स्थित एक सृजनात्मक कर्म है. जहाँ कला, समाज और आत्मा का त्रिकोण एक-दूसरे से मिलते हैं. उन्होंने न सिर्फ़ यह विश्वास दिया, बल्कि मुझे एक दिशा भी दी और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण, मेरे भीतर एक स्थायी सौंदर्यबोध का बीज बो दिया, जो आज भी चुपचाप फलता-फूलता है.
थियम का सौंदर्य कोई निष्कलुष शांति नहीं है. वह घावों से उपजा सौंदर्य है. उनके रंगमंच में सौंदर्य और प्रतिरोध एक-दूसरे से अलग नहीं, बल्कि एक ही चित्र के दो रंग हैं.
“When We Dead Awaken”, “उरूभंगम”, “Nine Hills One Valley” जैसे नाटकों में युद्ध, विस्थापन, सांस्कृतिक अपदस्थता और अस्मिता-ह्रास की जो छवियाँ हैं, वे केवल दृश्यात्मक नहीं, एक सभ्यता की अंतर्यात्रा का मानचित्र हैं. थियम युद्ध को केवल रक्त और बारूद में नहीं देखते, वे उसे उस सूक्ष्म स्तर पर पकड़ते हैं जहाँ स्मृतियाँ मिटती हैं, भाषाएँ चुप हो जाती हैं, और संस्कृतियाँ अनाथ हो जाती हैं. उनका रंगमंच असहमति की एक शांत भाषा है. जहाँ हर मौन एक आक्रोश है, और हर दृश्य एक प्रश्न. यह मंच न्याय की उस तलाश में खड़ा है, जो शोर नहीं करता, लेकिन भीतर तक हिला देता है. उनके लिए नाटक कोई क्षणिक कथन नहीं, बल्कि संस्कृति के चुप होते हुए स्वरों को वापस बुलाने का यत्न है. वे हमें यह सिखाते हैं कि प्रतिरोध सिर्फ़ आवाज़ से नहीं, दृष्टि से भी होता है. और वह दृष्टि ही थियम का रंग-दर्शन है.

इम्फाल जैसे सीमांत शहर में रतन थियम ने ‘कोरस’ को केवल एक रंगमंडली नहीं, बल्कि नाट्य साधना और सौंदर्य चेतना की एक अंतरराष्ट्रीय प्रयोगशाला में रूपांतरित कर दिया. यह एक ऐसा मंच बना, जहाँ पूर्वोत्तर की लोक परंपराएँ, शास्त्रीय रंगभाषा और वैश्विक समकालीन दृष्टिकोण एक साथ संवाद करते हैं.
रतन थियम ने भारतीय मिथकों, महाकाव्यों और ऐतिहासिक प्रसंगों को इस तरह मंचित किया कि वे केवल ‘स्थानीय कथाएँ’ न रहकर वैश्विक संवाद के माध्यम बन गए. उन्होंने यह सिद्ध किया कि भारत की पारंपरिक कथाएँ सिर्फ़ ‘लोकल’ या ‘क्षेत्रीय’ नहीं, बल्कि ‘कॉस्मिक’, ब्रह्मांडीय हैं. उनके मंच पर हर प्रतीक, हर कथा और हर आंदोलन में वह ताक़त है जो किसी भी संस्कृति के दर्शक को छू सकती है.
इम्फाल, जो वर्षों तक राष्ट्रीय मुख्यधारा से कटा रहा, रतन थियम की दृष्टि और कर्म से भारतीय ही नहीं, वैश्विक रंगमंच के मानचित्र पर एक विशिष्ट स्थान पा सका. उन्होंने जो रचा, वह केवल एक निर्देशक के लिए अनुकरणीय नहीं, बल्कि भारतीय रंगमंच की आत्मा को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित करने वाला कार्य है.
उनका रंगमंच इस बात का सशक्त उदाहरण है कि जब थिएटर एक सच्ची ‘एस्थेटिक प्रयोगशाला’ बनता है, तो वह सीमाओं, भाषाओं और संस्कृतियों के पार जाकर एक साझा मानवीय संवेदना की आवाज़ बन सकता है.
क्या युग कभी समाप्त होते हैं? नहीं. वे रूपांतरित होते हैं. वे किसी एक देह में बंधे नहीं होते, बल्कि उन विचारों, उन स्वप्नों और संघर्षों में जीवित रहते हैं. जिन्हें उन्होंने अपने कर्म, अपनी कला और अपने दर्शन से जन्म दिया होता है. युग की चेतना विचारों की धारा बनकर समय के पार बहती रहती है.
रतन थियम होने का अर्थ है. हर प्रस्तुति को एक प्रार्थना में ढाल देना.
![]() ‘विहान’ के संस्थापक, रंगमंच निर्देशक, लेखक और चित्रकार सौरभ अनंत ने ‘कनुप्रिया’, ‘सपनप्रिया’, ‘प्रेम पतंगा’ आदि नाटकों का निर्देशन किया है. |
बहुत सुंदर आलेख। उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि यही हो सकती है। रंगमंच पर हमनें उनकी जादुई आभा देखी है। सलाम उनको।
इस लेख के माध्यम से रतन थियम जी के विषय में जानने को मिला कि कैसे उन्होंने पांचवाद्यम की गति पर मंथन किया, ध्वनियों को आत्मा की संज्ञा दी।
कला के प्रति इतनी आस्था ही व्यक्ति को अमरत्व प्रदान करती है।
इस आलेख के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका। हम सभी नए रंगकर्मी जो पहले कभी रतन जी से प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिल पाए या उनके काम को अपने सामने घटते नहीं देख पाए, ये आलेख उनके करीब जाने का मौका देता है, उनसे मिलने के मौका देता है। अपने काम को एक दैवीय अनुष्ठान मान लेना, समर्पण का इससे बड़ा सूचक और क्या ही हो सकता है!
रतन थियम जी के बारे में मैंने ऊपर ही ऊपर पढ़ा था मगर इस आलेख से उनके बारे में और उनके काम को लेकर और नया जानने को मिला। शुक्रिया सर
आर्टिकल पढ़कर भीतर कुछ बहुत अलग सा महसूस हो रहा है!..”Creativity is not about freedom alone, it’s about precision within freedom” ये पढ़कर और समझने की कोशिश करते हुए लग रहा कि यह विचार हमारे लिए बहुत महत्व रखता है और रखना भी चाहिए।
सौरभ अनंत सर ने लिखा “अगर वह शाम न आई होती, तो शायद मैं आज इस नाटक की इस दुनिया में यूं डूबा न होता।” यह पढ़कर समझ आया कि एक नाटक सच में किसी का जीवन बदल सकता है। रतन थियम सर को और उनके रंगमंच को कभी देखा नहीं था..पर आज महसूस कर लिया। शुक्रिया सर इस आलेख को हम सभी तक पहुंचाने के लिए..उनको आज प्रणाम करते हुए मैं कोशिश करूंगी कि आगे जीवन में रंगमंच की बेहतर विद्यार्थी बन पाऊं।
रतन थियम जी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा और इस आलेख को पढ़कर यह जाना कि परफोर्मेंस ही हमारी कला का सही मापदंड है एक रंगमंच कलाकार होने के नाते हम उनको श्रद्धांजलि देते है रतन थियम जी जैसे बड़े रंगकर्मी को रंगमंच हमेशा याद करेगा 🙏