प्रेम और त्याग जैसी मनोवृत्तियों का रंग और टैक्स्चर हमेशा एक सा नहीं होता. ‘आकाशदीप’ कहानी के पाठ के दौरान चूंकि चंपा के समानांतर ‘उसने कहा था’ का लहनासिंह निरंतर चेतना पर दस्तक देता रहा, इसलिए लगा, क्यों न रुक कर दोनों की जमीन और पावती की पड़ताल कर ली जाए पहले.
लहनासिंह की ओर मुड़ी तो देखा, कहानी में उसका प्रेम त्याग में गुंथ कर उपस्थित होता है और आत्मबलिदान के जरिए आत्मसार्थकता और आह्लाद की अनुभूति पाता है, जबकि ‘आकाशदीप’ में त्याग और बलिदान प्रेम का उदात्तीकरण अवश्य करते हैं, लेकिन अपने ही अन्तर्द्वन्द्व और मनोविकारों से जूझती चंपा को मुक्त नहीं कर पाते. बेबसी और विकलता से आविष्ट अवस्था में प्रेम और घृणा जैसे मनोभावों की सघन उपस्थिति को पहचानना, और फिर उसे एक मुखर निर्भीक स्वीकार के रूप में निर्णय तक पहुंचाना ‘सतीत्व’ के संस्कारों से ग्रस्त किसी भी औसत भारतीय स्त्री के लिए सरल नहीं.
मैं श्रद्धावनत होकर दुबारा ‘आकाशदीप’ कहानी पढ़ने बैठी तो चंपा को धकिया कर बुद्धगुप्त का प्रश्न ही यहां से वहां गूंजता सुनाई पड़ा कि ‘‘तुम किस को दीप जला कर पथ दिखलाना चाहती हो?’’ बुद्धगुप्त के सवाल की टंकार ने मेरी भावुकता को इधर-उधर बह कर बिखरने की बजाय एकाग्र विश्लेषण की संजीदगी में ढाल दिया है. चंपा के प्रति गद्गद् भावोच्छ्वासों में मुक्त हो मैंने उसे पुनः टक दृष्टि से देखा. न, अब भी वह मुझे घर-समाज में दिखलाई पडने वाली अन्य स्त्रियों से विशिष्ट ही दिखाई दी. भले ही आत्म-परिचय देते हुए वह बुद्धगुप्त से कहती रहे कि मातृहीना होने के कारण आठ बरस की आयु से ही वह अपने प्रहरी पिता के साथ समुद्री नौका में रहती रही है, लेकिन पूरी कहानी में वह हमेशा सौम्य, विवेकशील और कुलीन स्त्री के रूप में दिखाई पड़ी है. स्त्री सरीखी दीनता और हीनता-ग्रंथि चंपा का परिचय नहीं. वह पुरुष की शक्ति और प्रेरणा के रूप में जिस प्रकार विन्यस्त हुई है, उससे ‘अपना कमरा’ (1929) की लेखिका वर्जीनिया वुल्फ का यह कथन अनायास स्मरण हो आता है कि ‘‘अगर मर्दों द्वारा लिखे कथा साहित्य के अतिरिक्त औरतों का कहीं और अस्तित्व न होता तो उनकी कल्पना अत्यंत महत्वपूर्ण प्राणी के रूप में की जाती; अत्यंत विविधतापूर्ण; बहादुर और अधम; अद्भुत और घिनौनी; अनंत रूपवती और चरम विकराल, काल्पनिक रूप से उसका महत्व सर्वोच्च है; व्यावहारिक रूप से वह पूर्णतया महत्वहीन है. कविता में पृष्ठ दर पृष्ठ वह व्याप्त है, इतिहास से वह अनुपस्थित है.’’
प्रसाद जानते हैं कि जिस कालखंड में वे रचनाकर्म कर रहे हैं, वहां अनेक सामाजिक कुरीतियों की जकड़न में जकड़ी स्त्री को न स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार है, न स्थितियों पर विचार करने की क्षमता. अशिक्षा, पर्दा-प्रथा और वैचारिक जड़ता ने उसे जीवनयापन हेतु पुरुष की अनुकंपा पर निर्भर एक जैविक इकाई भर बना दिया है. इसलिए प्रसाद अपनी कहानियों को वर्तमान की विभीषिका से दूर अतीत के पट पर ले जाते हैं. राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए वे भारत के राष्ट्र-राज्य के सांस्कृतिक पुनरुत्थान की बात करते हैं. तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों को मुस्लिम आक्रांताओं के दुष्प्रभाव से जोड़ कर भारतीयों के मन में सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न ‘आर्यावर्त’ की स्मृतियां रोप देना चाहते हैं जहां स्त्रियां विदुषी थीं, आराध्या थीं और स्वतंत्र थीं. अपने नाटकों में देवसेना से लेकर धु्रवस्वामिनी तक वे स्त्री को एक सकारात्मक दिशानिर्देशक शक्ति के रूप में महिमामंडित करते रहे. चंपा की चारित्रक उद्भावना भी उनके इसी लेखकीय आग्रह का परिणाम है जिस पर सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यासों, विशेषकर ‘देवी चैधरानी’ और ‘आनंदमठ’ का प्रभाव भी देखा जा सकता है.
(एक)
‘मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूंगी. वह जहां ले जाए’ उर्फ ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’
चंपा के चरित्र की संरचना घड़ी के पैंडुलम के समान है – इधर से उधर, उधर से इधर, निरंतर दो धु्रवांतों के बीच दोलायमान. यह गति के बीच अ-गति की स्थिति है, और अपनी सीमाबद्ध नियति को स्वीकारने की त्रासदी भी. तेजोमयता, दृढ़ता और निर्णय लेने की क्षमता चंपा को विशिष्ट बनाती है. लेकिन मानो यह समुद्र में उठी एक लहर मात्र. है. एक उत्ताल वेग के साथ सिर धुनती हुई दूसरी लहर जब किनारे से टकरा कर रेत में विलीन होती है, तब उसमें द्वंद्व (निर्णय पर न पहुंच पाने की अक्षमता), कातरता (आत्मविश्वास का अभाव) और आत्म-निर्णय को स्थगित करते चलने की मलिनता दिखाई देने लगती है. तब ‘‘मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूंगी. वह जहां ले जाए ‘‘ – मणिभद्र की कैद से मुक्ति के तुरंत बाद कहा गया चंपा का यह वाक्य उसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया भर नहीं रहता, उसके व्यक्तित्व का मूलाधार बन जाता है.
दरअसल गहन पर्यवेक्षण पर ज्ञात होता है कि चंपा विलोमों का समुच्चय है. वह कर्मठ और अकर्मण्य, आत्मनिर्भर और पराश्रित एक साथ है. कहानी के प्रारंभ में कैद से मुक्त होने के लिए बुद्धगुप्त को वही प्रेरित करती है; प्रतिकूल मौसम और अपने शिथिल बंधनों का लाभ उठा कर मुक्ति की रणनीति भी वही बनाती है; और कप्तान सरीखी नेतृत्वकुशलता के साथ बुद्धगुप्त को ‘पोत से सम्बद्ध रज्जु काट’ लेने का आदेश और शस्त्र वही देती है. यदि उस दिन बुद्धगुप्त की तरह शीत से ठिठुरते हुए नींद में रात काटने की नित्यक्रमिकता चंपा में भी होती तो कहानी न चंपा-द्वीप की ओर उन्मुख हुई होती और न दीप-स्तंभ की स्थापना के इर्द-गिर्द दोनों मुख्य पात्रों की प्रेम-कहानी एक निश्चित परिणति लेती. लेकिन वही चंपा जब सागर के बीचोबीच अपने स्वतंत्र अस्तित्व को फहराते द्वीप में पांच बरस बिताने के बाद बुद्धगुप्त से कातर गुहार लगाती है कि
‘‘मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो’’, तब सवाल उठता है कि यह प्रणयिनी क्या वही जुझारु स्त्री है जो सीमा और अवरोध से डरना जानती ही नहीं थी? तो क्या अब वह अपने ही मनोवेगों से भयभीत है? बुद्धगुप्त के प्रति निरंतर गहराते प्रेमभाव ने उसे थर्रा दिया है क्योंकि स्वयं को पुत्रीभाव से विमुक्त कर अतीत और भविष्य को एक-दूसरे की संयुक्ति में पढ़़ नहीं पा रही है. जब-जब उसके भीतर प्रेम-ज्वाला प्रचंडतर होती है, वह उग्रतर होकर प्रतिशोध की बात करती है. ‘जल बिच मीन पियासी’ स्थिति को अपनी नियति की तरह उसने स्वयं अंगीकार किया है. इसलिए आत्मचिंतन के लीन क्षणों में वह अपनी शंकाओं को नुकीले सवालों की तरह नहीं उठाती, निर्णय में ढाल कर अपने को मजबूत बनाए रखने का यत्न करती है. ‘‘इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी. पी सकूंगी? नहीं! तो जैसे वेला से चोट खाकर सिंधु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूं? या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनंत जल में डूब कर मर जाऊँ?’’
प्रसाद की विशेषता है कि वे प्रकृति को वातावरण सृष्टि हेतु गौण उपादान की तरह कहानी में उपस्थित नहीं करते, बल्कि पात्रों के सूक्ष्म मनोभावों की चाक्षुष अभिव्यक्ति हेतु उन्हें बिंबों में ढाल देते हैं. यह ठीक वही कौशल है जो ‘कामायनी’ में अपने पूरे वैभव के साथ दिखाई पड़ता है. सांकेतिकता और वचन-विपर्ययता प्रसाद की एक अन्य विशिष्टता है जिसके सहारे वे स्वयं को भाषा की सीमा से मुक्त कर पात्रों के व्यक्तित्व की संश्लिष्ट अंतःपरतों को बुनने लगते हैं. चंपा का चरित्र ऐसी ही सांकेतिकताओं के जरिए पुष्ट आकार ग्रहण करता है. दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं. चंपा बुद्धगुप्त से घृणा करने के लिए दो कारण गढ़ती है. पहला यह कि बुद्धगुप्त उसके पिता का हत्यारा है, और दूसरा यह कि दस्युवृत्ति छोड़ देने के बावजूद वह अपने को परिमार्जित नहीं कर पाया है. ‘‘तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी, परंतु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है.’’
वास्तविकता यह है कि कमनीयता और औदार्य के तमाम आवरणों के नीचे स्वयं चंपा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है. प्रेम (रमणीभाव) ने उसकी कामनाओं को उद्दीप्त किया है; प्रतिशोध (पुत्रीभाव) ने कत्र्तव्यपालन को संवेदनात्मक विवेक से विच्छिन्न कर हृदयहीन बना दिया है; और इन दोनों के विपरीत प्रभावों तले वह तिल-तिल जल रही है. वस्तुतः बुद्धगुप्त ने उसे नहीं बांधा है. वह स्वयं उसके प्रेम में ‘बंध’ कर एक फरियाद की तरह उसके पैरों पर गिरा पड़ा है. चंपा स्वयं अपने मनोविकारों की जकड़न में फंसी हुई है. मुक्ति का मार्ग उसके भीतर से प्रशस्त होगा, वह जानती है, लेकिन मुक्ति के स्वरूप को आकार देने का प्रयास नहीं करती.
प्रश्न उठता है कि कहानी के आरंभ में भौतिक कैद से मुक्ति हेतु रणनीति बनाने वाली चंपा क्यों अपनी मानसिक-भावनात्मक मुक्ति की रूपरेखा नहीं बना पाती? क्या इसके लिए लेखकीय पूर्वग्रह या उनके युग की स्थितियां उत्तरदायी हैं? स्पष्ट उत्तर है, हां. सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन आदर्श भारतीय स्त्री को ममिामंडित करता हुआ पूजा-अर्ध्य के जिस उच्चतम सोपान पर स्थापित करता है, वह वस्तुस्थिति का एक सच है. लेकिन उसी के समानांतर एक दूसरा सच भी उतनी ही कुशलता से बुना गया है जो स्त्री के समग्र व्यक्तित्व को पुरुष-सापेक्ष अनेक भूमिकाओं में विभाजित कर उसे पत्नी, पुत्री, बहन और गृहिणी के रूप में पुरुष-हित की कीली पर घूमने को प्रेरित करता है.
परंपरा-अनुमेादित इन भूमिकाओं एवं परिवार की परिधि से बाहर आकार लेने वाली किसी भी भूमिका में प्रेमिका का कोई स्थान नहीं. इसलिए जिस क्षण वह बुद्धगुप्त के सान्निध्य के लिए सबसे अधिक व्यग्र होती है, अथवा आलिंगन-चुंबन के जरिए अपने स्त्री-व्यक्तित्व को समग्रता में ‘जीने’ की उत्कंठा से तड़प उठती है, ठीक उसी पल खांचों में बंटी भूमिकाएं आप्लावनकारी दबाव के साथ उसकी निजता का गला घोंटने चली आती हैं. ईश्वर और पारिवारिक संबंध उसके परित्राण के लिए चले आते हैं, और तब अपनी ही गति के विपरीत चल कर वह अपने इर्द-गिर्द वर्जना की गगनचुंबी दीवारें चिनने लगती है
‘‘तुम भगवान के नाम पर हंसी उड़ाते हो. मेरे आकाशदीप पर व्यंग्य कर रहे हो. नाविक! उस प्रचंड आंधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे. मुझे स्मरण है, मैं जब छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे – मेरी माता मिट्टी का दीपक बांस की पिटारी में भागीरथी के तट पर बांस के साथ ऊँचे टांग देती थी. उस समय वह प्रार्थना करती, ‘भगवान! मेरे पथभ्रष्ट नाविक को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना.’ और जब मेरे पिता बरसों पर लौटते तो कहते, ‘साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान ने भयानक संकटों में मेरी रक्षा की है.’ वह गद्गद् हो जाती. मेरी मां! आह नाविक! यह उसी की पुण्य स्मृति है.’’
तब प्रतीत होता है कि चंपा को स्त्री और द्वीप दो जगह रख कर प्रसाद एक ही निष्कर्ष की ओर बढ़ रहे हैं. चंपा द्वीप जीवन के प्रवाह के बीचोबीच स्थित होकर भी जीवन के स्पंदन से कटा है. उसकी उर्वर संभावनाएं न किसी प्राणी की दृष्टि में पड़ी हैं, न बुद्धगुप्त सरीखे नायकों को वह अपना निवासी बना कर एक नई सभ्यता-संस्कृति के उन्नयन का स्वप्न देख सकता है. बुद्धगुप्त की जीवन-यात्रा के उन्नयन के लिए वह द्वीप एक पड़ाव भर है; अनदेखा और अनएक्सप्लोर्ड होने के कारण आकर्षण का केंद्रबिंदु. ठीक इसी तरह चंपा के भीतर भी तमाम इंद्रधनुषी रंगों और मोहक सपनों के साथ जीवन धड़कता है, लेकिन उसे सामाजिक संघर्ष देकर वह समृद्ध नहीं करती. वर्जना के अंधेरों से निर्मित हठधर्मिता ने उसे स्थिर पात्र बना दिया है. प्रसाद की विशेषता है कि इसी स्थिर जल में डोंगी तिरा कर वे लंबी यात्रा कर आने की अनुभूति पाठक को देते हैं. इसलिए ‘आकाशदीप’ एक रोमांटिक कथा की सारी विशिष्टताओं से संपन्न है. शौर्य, प्रेम, त्याग, वीरता, ओज, दृढ़ता, अतिशय भावोछ्वास कल्पना, काव्यात्मकता और सौन्दर्य – पश्चिमी साहित्य के रोमांटिसिज्म की कतिपय विशेषताएं हैं जो गद्य में गीति-काव्य की सृष्टि करते हुए अंतः-बाह्य प्रकृति के बीच संचरण करती हैं.
बुद्धगुप्त का घुटनों के बल बैठ कर छलछलाती आंखों से प्रणय याचना करना अंग्रेजी साहित्य के सामंती लार्ड की याद दिलाता है. भावुकता विवेक द्वारा अनुशासित रहे तो संवेदनशीलता का रूप लेकर व्यक्ति के नैतिक-मानसिक व्यक्तित्व का विकास करती है, लेकिन यदि वह क्षणिक उत्तेजना में बह कर संयम से दूर निकल जाए तो व्यक्तित्व को लिजलिजा और विघटनशील बना देती है. इसलिए एक सुनियोजित क्रमिकता के साथ कहानी में उत्तरोत्तर चंपा का व्यक्तित्व विघटित होता चलता है. उसका धूप की तरह निखरा ओजपूर्ण ओजस्वी व्यक्तित्व क्रमशः ओस की तरह कुम्हलाने लगता है. अति भावुकता हठ से चल कर आत्मप्रवंचना, आत्माभिमान और पलायन तक पहुंचती है और अंततः आत्मदमन में आत्मसार्थकता तलाश कर अपने को शून्य कर लेती है. यह वह स्थल है जहां चंपा प्रेम की सिंदूरी छटा और प्रतिशोध की रक्तिम उत्कंठा को सही-सही पहचान नहीं पाती. जीवन का आलंबन बुद्धगुप्त बार-बार ‘जलदस्यु’ की छवि ग्रहण कर उसके सामने आता है, और मानो अपने घाव को नासूर बनाए रखने के लिए वह उसे ‘जलदस्यु’ नाम से ही संबोधित करती है.
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा मुदित भाव से परकीय प्रेम का चित्रण अवश्य करती है, लेकिन गार्हस्थिक प्रेम की तुलना में उसे रत्ती भर भी महत्व नहीं देती. परकीय प्रेम बिछोह में ही पूर्णता, सौन्दर्य और स्वीकृति पाता है. इसलिए कथा के उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ प्रसाद चंपा से उसके चरित्र की वे सभी मूलभूत सकारात्मकताएं छीन लेते हैं जो उसे सुदृढ़ तेजोमय ‘मनुष्य’ बनाती हैं. इसके स्थान पर धीरे-धीरे जो स्त्री उभरती है, वह निर्णयदुर्बल, द्वंद्वग्रस्त और कमजोर है. आंसू और नियतिबद्धता उसकी थाती हैं. ‘‘मैं तुम्हें घृणा करती हूं, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूं. अंधेर है जलदस्यु! तुम्हें प्यार करती हूं.’’ चंपा रो पड़ी.’’
अपने हाथों से अपने चारों ओर बाड़ाबंदी करती यह स्त्री परंपरा से चली आ रही इस मान्यता को भी पुष्ट करती है कि स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को कोई नहीं जानता; कि कुहेलिका-सी रहस्यमयी स्त्री के अंतर्मन को स्वयं विधाता भी नहीं जानता. कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रसाद ने चंपा का उपयोग स्त्री अर्थात् मनुष्य के अंतर्मन को जानने के लिए नहीं किया, बल्कि उसके जरिए आदर्श स्त्री छवि की सैद्धांतिकी को गढ़ने का प्रयास किया है. यही कारण है कि महिमामंडन के छद्म को बींध कर देखें तो चंपा न स्वतःस्फूर्त जीवन का पर्याय दिखाई पड़ती है, न विकसनशील पात्र. वह लेखक की महत्वाकांक्षाओं की शिकार एक त्रासदी मात्र है.
चंपा के व्यक्तित्व के सृजन के लिए लेखक ने ‘आकाशदीप’ प्रतीक का भी सोद्देश्यपूर्ण ढंग से उपयोग किया है, हालांकि यह प्रश्न अपनी जगह खड़ा होकर अभी भी जवाब मांग रहा है कि ‘तुम किस को दीप जला कर पथ दिखलाना चाहती हो?’ प्रसाद इस सवाल का जवाब नहीं देते. सवाल की नुकीली चुभन से कन्नी काट कर वे चंपा की ऐकांतिक साधना को ‘आकाशदीप’ के औदात्य में प्रतिष्ठित करते हैं, और पुरस्कारस्वरूप उसे ‘‘माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी’’ के रूप में जन-सामान्य में पूजित-अर्चित दिखाते हैं. मानो यहां आकर लेखक का मनोरथ पूर्ण हो गया हो और परिवार-समाज में स्त्री की महनीय भूमिका को उसने भलीभांति व्याख्यायित कर दिया हो.
मैं कहानी में चंपा के ठोस से ठस्स होते व्यक्तित्व-विघटन की क्रमिक प्रक्रिया की साक्षी हूं. चूंकि लेखकीय मंतव्यों के पीछे युगीन सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी दबावों को जानती हूं, इसलिए आदर्श भारतीय स्त्री के रूप में गढ़ी गई उस छवि को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रही हूं. कर्मठ, तेजतर्रार, संकल्पदृढ़ आत्माभिमानिनी स्त्री का यूं क्रमशः छीजते चलना मुझे भयभीत करता है. खासतौर पर तब जब आश्रयदाता मणिभद्र के घृणित प्रस्ताव को सुन कर जी भर गालियां देने और उसकी अंकशायिनी बनने की बजाय बंदिनी बनने के विकल्प को वह स्वयं स्वीकारती है. तब यह कैसे संभव है कि प्रेम और स्वाभिमान दोनों की अलग-अलग रंगत को पहचानने वाली वह स्त्री समर्पण के नाम पर पलायन को गले लगाए? चंपा के अवसाद और द्वंद्व तले मुझे उसकी दिशाहारा कातरता दीखती है जो इतनी बोदी और लिजलिजी है कि अपनी अंतःशक्तियों का संचयन करने के बावजूद दार्शनिकता के धरातल का संस्पर्श नहीं कर सकती.
लेकिन लेखक उसे एक झटके के साथ इस नश्वर संसार के व्यामोह से मुक्त कर ईश्वरावतार के किसी रूप में आविर्भूत कर देता है. स्मृति में जगत् मिथ्या के साथ ब्रह्म सत्य का सिद्धांत और ‘अहं ब्रह्मस्मि’ का उद्घोष कौंधने लगता है. द्वंद्वग्रस्त, शंकित, कातर चंपा ने एक साथ आध्यात्मिक दृढ़ता के कई सोपानों का आरोहण कर लिया है. इसलिए ‘‘सहसा चैतन्य होकर चंपा ने कहा, बुद्धगुप्त मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है, सब जल तरल है, सब पवन शीतल है. कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं. सब मिला कर मेरे लिए एक शून्य है. प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दुख की सहानुभूति और सेवा के लिए.’’ चंपा के चरित्र का यह यू-टर्न ‘गोदान’ की मालती का स्मरण कराता है. प्रेमचंद और प्रसाद चूंकि दोनों एक ही युग की संघर्ष-गाथा के गायक हैं, और अपनी भिन्न-भिन्न दृष्टियों के बावजूद युगनायक गांधी जी के प्रभाव से अछूते नहीं रहे हैं, इसलिए अस्वाभाविक नहीं कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में वे स्त्री की भागीदारी को सेवा और त्याग की मूर्ति के रूप में सुनिश्चित करें. प्रणय को समाजसेवा और राष्ट्रप्रेम की परिधि में बांध कर प्रसाद ने प्रेमचंद की तरह स्त्री को मनुष्य रूप में नहीं, स्त्रियोचित मूल्यों की धारक-शक्ति के रूप में चित्रित किया है.
भारतीय परंपरा एक उपहासात्मक स्मित के सथ स्त्री के चरित्र को न जानने की बात कह कर उस रहस्यमयी-छलिया ललना के फेर में किसी भी पुरुष को न पड़ने की सलाह देती है. बुद्धगुप्त की ओर से चंपा के विचार,
व्यवहार और कार्य-शैली को देखें तो वह भी उक्त मान्यता के समर्थन में एड़ी-चोटी का जोर लगा देगा. किंतु चंपा की ओर सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि एक असीम कत्र्तव्यनिष्ठा के साथ वह जिन स्त्री-मूल्यों का साधक-भाव से पालन किए जा रही है,
वही उसे पुरुष की इच्छा और स्थिति के दबाव के अनुरूप अपनी निष्ठाओं और प्राथमिकताओं को बदलते रहने का आदेश देते हैं. स्त्री जानती है कि जिन मूल्यों को स्त्री के जीवन की सार्थकता का नाम देकर महिमामंडित किया जाता है,
उन्हें वह आत्मप्रवंचना,
आत्मदमन और आत्मपीड़न के बिना प्राप्त नहीं कर सकती. शायद इसीलिए आदर्श भारतीय स्त्री की ओर से परंपरा-अनुमोदित इन कटाक्षों के विरोध में कभी कोई स्वर नहीं उठाया गया.
(दो)
जान-माल से लदे जहाज समुद्र की लहरों को चुनौती न दें, क्या तब भी आकाशदीप की प्रासंगिकता बनी रहेगी?
चंपा के ठीक विपरीत है बुद्धगुप्त की चारित्रिक संरचना. दुर्दांत जलदस्यु से सफल व्यापारी; संवेदनहीन क्रूर हत्यारे से संवेदनशील प्रणयी की भूमिका में उसके व्यक्तित्व का उत्तरोत्तर विकास हुआ है. कहानी में दुर्दांत जलदस्यु के रूप में उपस्थित होने के बावजूद कथा के प्रारंभिक दौर में चंपा के समक्ष वह बौना और व्यक्तित्वहीन है. ‘अपनी महिमा में अलौकिक’ वह तरुण बालिका उसके लिए श्रद्धा और विस्मय की वस्तु है. चंपा के प्रेम में उन्मत्त वह युवक प्रत्यक्षतया चंपा को पत्नी रूप में पाना चाहता है, लेकिन लेखक ने दोनों के संबंध को इस रूप में बुना है कि चंपा के सान्निध्य में वह निरंतर अपने नए-नए रूप अन्वेषित करता चलता है. ‘‘वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा. उसे एक नई वस्तु का पता चला. वह थी कोमलता.’’ हत्या-व्यवसायी दस्यु अपने भीतर ‘मनुष्य’ को साबुत पाकर आह्लादित क्यों न हो? यहां से बुद्धगुप्त के व्यक्तित्व की आरोहण-यात्रा शुरु होती है और ‘आदर्श पुरुष’ की पूर्णता को प्राप्त करती है.
बलवान, कठोर पराक्रमी, उद्यमी, प्रजापालक, वत्सल, आश्रयदाता, कत्र्ता, सृष्टि-नियंता, महत्वाकांक्षी और साथ-साथ उन्मत्त प्रणयी- बुद्धगुप्त युगीन परिस्थितियों के अनुरूप आदर्श पुरुष की अर्हताओं को सुपरिभाषित करता है. बुद्धगुप्त के चरित्र को दो विलोम युग्मों- बुद्धगुप्त-मणिभद्र एवं बुद्धगुप्त-चंपा – के जरिए अधिक स्पष्ट ढंग से समझा जा सकता है. पहला युग्म बुद्धगुप्त-मणिभद्र का है. पोताध्यक्ष मणिभद्र नाव का स्वामी एवं वणिक् है. जलदस्यु की तुलना में सम्मानजनक व्यवसायी एवं संभ्रांत कहलाया जाने वाला नागरिक. अपने जलपोत पर कितने ही कर्मचारियों को नौकरी देने के कारण वह अनेक परिवारों को भौतिक आश्रय प्रदान करता है. लेकिन उसकी मनोवृत्तियां किसी दस्यु से कम नहीं.
चंपा के सामने वासनापूरित घृणित प्रस्ताव रखना और चंपा द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाने पर उसे बंदी बनाना ताकि दबाव डाल कर जबरन अपनी मनोकांक्षा पूरी कर सके – ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जो मनुष्य के तौर पर मणिभद्र की गरिमा और विश्वसनीयता को शून्य करते हैं. प्रेम के स्थान पर वासना, और विश्वास के स्थान पर आतंक उसकी कार्यशैली के मूल तंतु हैं. फलतः वह चंपा और पाठक दोनों के हृदय में समान भाव से घृणा और क्षोभ पैदा करता है. उसके ठीक विपरीत बुद्धगुप्त है. वह भी चंपा को अपने जीवन की धुरी बनाना चाहता है, लेकिन चंपा को ‘वस्तु’ समझ कर बलपूर्वक ग्रहीत नहीं करता, उसे मनुष्य का दर्जा देकर उससे प्रेम-प्रस्ताव स्वीकार करने की याचना करता है. उसका यह कृत्य दूसरे को सम्मान देने के बड़प्पन से उभरा है. इसलिए प्रेम उसके लिए भोग का पर्याय नहीं बनता, एक-दूसरे के संदर्भ में विश्वास और हार्दिकता का प्रसार करने की प्रक्रिया बनता है.
यही कारण है कि मणिभद्र की आंखों में अपने लिए लालसा के डोरे देख चंपा गालियां बकने लगती है तो बुद्धगुप्त की आंखों में उसे अनुराग की तरल लालिमा ही दिखाई पड़ती है. अनुराग का प्रत्युत्तर गहन राग ही होता है. मणिभद्र का आचरण जहां उसके उद्धत लंपट अहं को प्रखरतर करता चलता है, वहीं बुद्धगुप्त एक गरिमामय, संवेदनशील, स्वप्नदर्शी मनुष्य के रूप में उभरता है.
बुद्धगुप्त की ये चारित्रिक विशेषताएं चंपा के साथ विलोम-युग्म में और अधिक प्रखरता से खुलती हैं. निर्जन चंपा द्वीप पर आश्रय लेकर पांच बरस की अवधि में बुद्धगुप्त ने अपने भीतर और बाहर को पूरी तरह से पुनर्सृजित किया है. वह अधिक संवेदनशील ही नहीं हुआ, विचारशील भी हुआ है और आत्मसाक्षात्कार कर ‘मनुष्य’ के रूप में अपना परिचय पाने को उत्कंठित भी हुआ है. वह स्वीकार करता है कि ‘बहकी हुई तारिका के समान’ उसके शून्य में उदित हुई चंपा ‘अ-शोक की तरह एक कोमल रेखा’ है जिसका सान्निध्य पाकर उस सरीखे ‘पशुबल और धन के उपासक के मन में किसी शांत और कांत कामना की हंसी खिलखिलाने लगी’ है. लेकिन इस स्वीकार से कहीं अधिक मूल्यवान है अपनी अज्ञानता का स्वीकार कि फिर भी ‘‘मैं न हंस सका’’. लेखक बुद्धगुप्त की इस अक्षमता के कारणों का विश्लेषण नहीं करते, उसे साधक की भूमिका में उतार का पाठक से स्वतः ही सभी संकेत समझने का आग्रह करते हैं.
बुद्धगुप्त चाहता तो निर्जन द्वीप में चंपा की देह पर आसानी से आधिपत्य जमा सकता था, लेकिन वह मणिभद्र नहीं बनना चाहता. इसलिए उसके सामने दोहरी चुनौती है – चंपा के प्रेम के साथ-साथ विश्वास को भी जीतना. एक प्रतिष्ठित धनी व्यापारी के रूप में कमाई गई लौकिक उपलब्धियां उसके बदले नजरिए की सूचक अवश्य हैं, लेकिन चंपा के बिना मानो वे अकारथ हैं. सिंधु की लहरों पर शासन करने वाला यह पराक्रमी वीर अपनी इस इकलौती पराजय पर व्यथित है कि चंपा के निगूढ़ विश्वास को क्यों अपनी एकाकी साधना के बावजूद जीत नहीं पाया.
प्रसाद की विशेषता है कि वे घटनाओं के जरिए नहीं, चरित्रों के घात-प्रतिघात से उत्पन्न नाटकीय स्थितियों के जरिए कथा को उत्कर्ष की ओर ले जाते हैं. चूंकि कहानी की संरचना पूरी तरह से नाटकीय है, अतः नाटक की कार्य अवस्थाएं यहां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. आरंभ (एक्सपोजीशन) तथा कार्यविकास (राइज आव एक्शन) के बाद कहानी में नाटक की तीसरी कार्यावस्था द्वंद्व है. नायक और नायिका दोनों ही अंतद्र्वंद्व से घिरे एक-दूसरे को समाधान की आशा में ताक रहे हैं. यह चरमोत्कर्ष का बिंदु भी है. प्रेमाकांक्षा उनके भीतर का सत्य है, लेकिन प्रेम में लय होने की साध अभी कोसों दूर है.
कहानी की भांति पाठक का कौतूहल भी चरम पर है. परिणति की अधीर प्रतीक्षा! अपने द्वंद्व को परे ठेल कर द्वीप पर ही बने रहने का चंपा का निर्णय – ‘‘प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ’’ – चैथी कार्यावस्था निगति (डेन्यूमां) के रूप में कथा में प्रविष्ट होता है. बुद्धगुप्त और चंपा की भांति पाठक भी जानता है कि दरअसल यह चंपा का ठोस निर्णय नहीं है, पहले की भांति चित्त की ढुलमुल उद्विग्न अवस्था का ही संकेतन है. लेकिन प्रसाद यहां से सूत्र उठा कर अपने नायक को उर्ध्व दिशा की ओर ले चलते हैं. चंपा – स्त्री – का द्वंद्वग्रस्त, विकल्पहीन बना रहना जितना स्वाभाविक है, बुद्धगुप्त – पुरुष – का उतना ही अस्वाभाविक और अस्वीकार्य भी. इसलिए अपनी कर्मण्यता और पराक्रम के बावजूद कुहासे में लिपटा बुद्धगुप्त का चरित्र अनायास परत-दर-परत खुलने लगता है. वह वर्तमान के क्षण पर अपनी पूरी जिंदगी न्यौछावर नहीं कर सकता. अतीत उसे पैरों तले परंपरा और इतिहास की सुदृढ़ जमीन की चेतना देता है जिस पर भविष्य के स्वर्णिम आसमान का आच्छादन उसे स्वयं करना है. इसलिए पहली बार ताम्रलिप्ति का वह क्षत्रिय अपनी मातृभूमि का अभिषेक करने के लिए विकल होता है –
‘‘स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है.’’ परंपरा से जुड़ने का यह क्षण उसे चंपा के सम्मोहन से मुक्त भी करता है. प्रेम हृदय की निजी अनुभूति न रह कर देशप्रेम के उदात्त धरातल का संस्पर्श कर लेता है. यह वही मनोभूमि है जहां प्रसाद के नायक व्यक्ति – इकाई – न रह कर राष्ट्रप्रेम के प्रतीक बन जाते हैं. ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ और ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ जैसे गीत उनकी दिशा और गति का परिचय बन जाते हैं. स्पष्ट है कि यहां बुद्धगुप्त के चरित्र में लक्ष्योन्मुख प्रखर सामाजिक दृष्टि समाविष्ट होती है जो उसके व्यक्तित्व को सूर्य-सा केन्द्रीय रूप देती है. बुद्धगुप्त के मुकाबले चंपा बेहद कमजोर है और अति भावुकता में लिया गया निर्णय उसकी नियति बन जाता है, जबकि उसके ठीक विपरीत यह वह बिंदु है जहां प्रतिकूलताओं और विडंबनात्मक स्थितियों से जूझ कर बुद्धगुप्त अपने जीवन का नियंता स्वयं बन बैठता है.
कहानी की मूल संवेदना को समझने के लिए कहानी के दो संवादों को एक-दूसरे के बरक्स रखना होगा. पहला संवाद चंपा द्वारा नियति का अवश स्वीकार है – ‘‘पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तंभ पर से आलोक जला कर अपने पिता की समाधि का इस जल में अन्वेषण करूंगी. किंतु देखती हूं, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाशदीप.’’
दूसरा संवाद बुद्धगुप्त का सवाल है – ‘‘तुम किसको दीप जला कर पथ दिखलाना चाहती हो?’’बुद्धगुप्त के संवाद में उपहास और क्षोभ की ध्वनियां बुनी जान पड़ती हैं, लेकिन कहानी का पाठ करने के बाद यह सवाल चुनौती और अवसाद की दो भिन्न प्रतीतियों के साथ कथा-पात्रों को अपनी गिरफ्त में लेता दीख पड़ता है. बुद्धगुप्त ने इसे चुनौती के रूप में ग्रहण किया है. चंपा के प्रेम, निष्ठा, समर्पण के आलोक में वह भीतर के अंधेरे बीहड़ की दूर तक यात्रा कर आया है, और उसी से प्रेम का छोटा सा दीपक लेकर भीतर का पथ आलोकित भी कर सका है. भटके हुओं को राह दिखाना बेशक महनीय कार्य है, लेकिन व्यक्ति आकाशदीप की तरह निष्प्राण स्तंभ नहीं होता. सबसे पहले उसे अपने भीतर के अंधेरे को आलोक के सहारे विनष्ट करना पड़ता है. तभी अपनी ज्योतिर्मयी दृष्टि से वह वैचारिक-मानसिक जड़ता के अंधेरे को नष्ट कर सकेगा, अन्यथा समुद्र के खारे-कुतरते जल में अविचल खड़ा रह कर उम्र के बीत जाने का इंतजार करता रहेगा.
अपने संकुचित दायित्वों के साथ बेशक आकाशदीप की भूमिका गौण नहीं, लेकिन जब व्यक्ति में असीम हो उठने की संभावनाएं हों तो अपना क्षैतिजिक विस्तार उसे करना ही चाहिए. चंपा में आत्मसाक्षात्कार करने तथा ग्रो करने की क्षमता का अभाव है. बुद्धगुप्त की हताशा और चंपा के अवसाद का यही एकमात्र कारण है. लेखक ने आकाशदीप को सेवा और त्याग के एक रूपक में केन्द्रीय महत्व दिया है, लेकिन उन्हीं का पात्र बुद्धगुप्त उसे संकुचित परिधि से मुक्त कर विस्तीर्ण दिशा और गति देना चाहता है. जाहिर है तब यह कहानी चंपा के आत्मनिर्वासन की ठहरी हुई सीलन भरी कहानी नहीं, बुद्धगुप्त के व्यक्तित्व-विकास और आत्मान्वेषण की प्रखर उर्ध्वगामी कहानी बन जाती है.
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प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग
महर्षि दयानंद विश्व विद्यालय, रोहतक, हरियाणा
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