आनंदमठ
हिंदू राष्ट्रवाद का पहला भाववादी ड्राफ्टरोहिणी अग्रवाल
“संतान व्रतधारी गांव-गांव में खुफिया भेजने लगे. वे खुफिया गांवों में जाकर जहाँ भी हिंदू देखते, उनसे कहते- ‘भाई, विष्णु की पूजा करोगे?‘ इस तरह बीस-पच्चीस आदमियों को इकट्ठा करने के बाद वे मुसलमानों के गांव में जाकर उनके घरों को आग लगा देते. मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े होते. संतान व्रतधारी उनका सब कुछ लूटकर नए विष्णु-भक्तों में बांट देते. लूट का हिस्सा पाकर गांव के लोग खुश होते तो उन्हें विष्णु-मंदिर में लाकर मूर्ति के चरण छुला कर संतान बनाया जाता.”
(आनंदमठ‘, पृ० 108)
“भाई, वह दिन कब आएगा जब मस्जिद तोड़ राधा-माधव का मंदिर बनवाएंगे?”
(आनंदमठ‘, पृ० 133)
“दल के दल संतान व्रतधारी उच्च स्वर में ‘वंदे मातरम्’ या ‘जगदीश हरे‘ गाते हुए इधर-उधर घूमने लगे. कोई शत्रु-सैनिक का हथियार छीनने लगा तो कोई उसके कपड़े. कोई शत्रु-सैनिक के शव के मुंह पर लात मारने लगा तो कोई और किसी तरह से उपद्रव करने लगा. कोई गांव की तरफ तो कोई नगर की तरफ दौड़ पड़ा और पथिक या गृहस्थ को पड़कर कहने लगा – ‘बोलो वंदे मातरम्. नहीं तो मार डालूंगा.”
(आनंदमठ‘, पृ० 152)
“अंग्रेज इस समय वणिक हैं. धनोपाजर्न की तरफ उनका ध्यान है. वे राज्य-शासन का भर लेना नहीं चाहते. इस संतान-विद्रोह के कारण वे राज्य-शासन का उत्तरदायित्व लेने के लिए विवश होंगे क्योंकि राज्य-शासन के बिना धनोपाजर्न नहीं होगा. अंग्रेजी-राज्य स्थापित हो, इसीलिए संतान विद्रोह हुआ है… अंग्रेजों से युद्ध में अंत तक विजयी हो, ऐसी शक्ति किसी में नहीं है.”
(आनंदमठ, पृ०179)
1882 में रचित बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंदमठ‘ का भारतीय साहित्य में ही अप्रतिम स्थान नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद की वैचारिक संकल्पना को समझने के लिए भी वह एक जरूरी कैनन ग्रंथ बन गया है. लिहाजा एक सामान्य औपन्यासिक कृति की तरह इसका मूल्यांकन करना उन तमाम सवालों, सरोकारों, संशयों और ऊहापोह को दरकिनार करना होगा जो एक स्तर पर अपने युग से खाद-पानी लेकर लेखक के रचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं, तो दूसरे स्तर पर संस्कृति की सघन संश्लिष्ट विकास-यात्रा में से सुविधानुसार महज एक धागा उठाकर ‘मनुष्य‘, ‘समाज‘ और ‘राष्ट्र-राज्य‘ को नए सिरे से परिभाषित करने का जतन करते हैं.
तब विश्लेषण का कोण बदलते ही वे तमाम सवाल बेमानी हो जाते हैं जो टेक्स्ट की पहली रीडिंग के दौरान ज़ेहन में कौंधते रहे कि ऐतिहासिक उपन्यासकार न होते हुए भी क्यों बंकिमचंद्र अपने समय के सवालों को एड्रेस करने के लिए सौ बरस पीछे ‘संन्यासी विद्रोह‘ तक गए? 1770 से 1774 तक फैले अकाल-पीड़ित उस कालखंड में जो भूख, बदहाली, लूटपाट और मौत के तांडव में घिरकर दम तोड़ रहा था, लेकिन फिर भी राज्य की ओर से जनता के लिए कोई राहत-योजना शुरू नहीं की गई थी. लगान बदस्तूर जारी था, प्रशासन व्यवस्था चरमरा गई थी, और शासनाधिपति नीरो की तरह बांसुरी बजाने में मस्त था. यह वह दौर था जब 1764 की बक्सर की लड़ाई के बाद बंगाल, बिहार, अवध के तमाम दीवानी अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ चले गए थे. दिल्ली की मुगल सल्तनत का सूरज डूब चुका था, लेकिन फिर भी अपने-अपने सूबों की गद्दी पर बैठकर वे बीते वक्तों की शानोशौकत को जीने का वृथा प्रयास कर रहे थे. जनता से किसी को कोई मतलब न था. न ईस्ट इंडिया कंपनी के गोरे प्रशासकों को, न मुस्लिम शासकों को.
एक मिली-जुली फौज जरूर थी जो मुस्तैदी से कंगाल काश्तकारों से भी लगान वसूलती थी और यहाँ-वहाँ उठने वाली हर छोटा-बड़ी बगावत को बेदर्दी से कुचलती थी. ठीक इसी तरह यह सवाल भी बेमानी हो जाता है कि क्यों बंकिमचंद्र ने संन्यासी विद्रोह की जगह अपने समय के बिल्कुल निकटवर्ती सिपाही विद्रोह (जिसे आज भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है) या बंगाल के नील-किसानों के विद्रोह (1859-1860) को रचना की आधारभूमि नहीं बनाया? 1857 का संग्राम धर्म, जाति, वर्ग के भेद भुलाकर भारतीय अस्मिता के लिए लड़ी जाने वाली पहली साझा लड़ाई थी. इस लड़ाई का महत्व इस तथ्य में निहित है कि हिंदू-मुसलमान को ऑपोजिट बाइनरी के रूप में विभक्त न करके इसने भारतीय संस्कृति की सामासिक प्रवृत्ति को रेखांकित किया, और बाहरी शत्रु के रूप में अंग्रेजी हस्तक्षेप को चीन्ह कर राजनीतिक-आर्थिक स्वतंत्रता के लिए मोर्चा खोला.
उपन्यास को साहित्य की जमीन से खींच बृहत्तर युगीन परिदृश्य से जोड़ देने के बाद पाती हूँ कि मेरे ये दोनों सवाल सवाल न रह कर पाठकीय अपेक्षाओं के दबाव का चमकीला पुंज बन कर रह गये हैं जो रोमानी भावुकता और आदर्शवाद की कोख से उत्पन्न होते हैं. लेकिन यह भी तय है कि इन अपेक्षाओं के मूल में ‘साम्य‘ निबंध के रचयिता उस बंकिमचंद्र से स्वयं को संवेदनात्मक-वैचारिक रूप से संबद्ध कर लेने का प्रबल आग्रह है जो गहन संवेदना, तार्किकता और रचनात्मक विजन के साथ बंगाल के रुग्ण समकाल का चित्र ही नहीं खींचते, बल्कि समस्या के निदान के लिए भारतीय समाज, धर्मशास्त्र एवं व्यवस्था का गंभीर विश्लेषण करते हुए एक प्रबुद्ध स्वप्नदर्शी चिंतक के रूप में उभरते हैं.फिर भी पाठक के तौर पर मुझे अपनी हदबंदियों को समझना होगा और धैर्यपूर्वक लेखक को सुनना-गुनना होगा. लेकिन रचना अधिनायकवादी राज्य तो नहीं कि पाठक अपनी अधिकारविहीन सत्ता एवं बौद्धिक अंधत्व के साथ लेखक के इंगित पर ‘देख‘ और ‘अ-देख‘ की क्रिया को संपन्न करता चले? मैं ‘चुप‘ होने से पूर्व एक सवाल तो कर ही डालना चाहती हूँ कि यदि बंकिमचंद्र को अतीतजीवी होना ही था तो कथा-चरित्र के रूप में उन्होंने संन्यासी विद्रोह के उन संन्यासियों को क्यों चुना जो वस्तुत: ‘दस्यु‘ हैं? आपत्ति कड़ी जानी पड़ती है, लेकिन इस अभियोग की पुष्टि उपन्यास में दो स्तरों पर हुई है. पहले, उपन्यास के परिशिष्ट में 1770 से 1774 के दौरान वारेन हेस्टिंग्स द्वारा लिखे गए पत्रों से[1];
और दूसरे, स्वयं लेखक द्वारा संन्यासियों को ‘बच्चा चोर‘, ‘राजद्रोही‘, ‘शाही राजस्व लूटने वाले लुटेरे‘ कहा गया है.[2] क्या अराजक तत्वों के सहारे किसी सुसंस्कृत समाज का स्वप्न देखा जा सकता है?
बेशक लेखक को अपनी रचना की आधारभूमि के रूप में किसी भी घटना, कालखंड, चरित्र या स्वप्न का चयन करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, लेकिन यह भी तय है कि यह चयन यूं ही अनायास नहीं हो जाता. इसके पीछे दो महत्वपूर्ण कारक निरंतर सक्रिय रहते हैं- अभिरुचियों और अंतर्दृष्टि.अभिरुचियां लेखक की प्राथमिकताओं को तय करती हैं और दैनंदिन क्रिया-व्यापारों के रूप में प्रकट होती हैं. इन क्रिया-व्यापारों के प्रमुख घटक हैं- आवेश (प्रतिक्रियात्मक व्यवहार), संयम (विचारशीलता), चिंतन (तर्कपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण) और संवेदना (विवेकपूर्ण आचरण) जो क्रमशः विकसित होकर भावुकता, व्यवहारिकता, बौद्धिकता और एंपैथी का गुण बन कर व्यक्तित्व-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
व्यक्तित्व युगीन परिवेश से निरंतर अंतर्क्रिया करते हुए उसके दबाव, प्रभाव, प्रतिघात से स्वयं को मांजता है और समय-समाज-यथार्थ को देखने की विशिष्ट दृष्टि अर्जित करता है जिसकी निर्मित में परंपरा, अनुभव, स्मृति और स्वप्न का विशेष योगदान रहता है.अंतर्दृष्टि अपनी बुनियादी संरचना में भविष्य का स्वप्न-दर्शन है जिसमें प्रतिरोध और आकांक्षा का गत्यात्मक आलोड़न निहित है.
फलत: बंकिमचंद्र के राष्ट्रवाद को तीन दृष्टियों से समझना अनिवार्य हो जाता है.
पहला
उन्नीसवीं सदी के बंगला नवजागरण के राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवेश ने बंकिमचंद्र की चेतना को किस प्रकार निर्मित किया? दूसरे, इस निर्मिति को वैचारिक और संवेदनात्मक विजन का रूप देकर उन्होंने जिस हिंदू राष्ट्रवाद की संकल्पना की, उसकी मूल स्थापनाएं और स्वप्न क्या हैं? तीसरे, इक्कीसवीं सदी के लोकतांत्रिक भारत में क्यों यह वैचारिक दर्शन लोकप्रिय होता जा रहा है? स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज वैज्ञानिक चेतना, तर्क-बुद्धि, मानवतावादी संवेदन के कारण उत्तरोत्तर आधुनिक और उदार होता रहा है. ऐसे में यदि ‘आनंदमठ‘ के कुछ चरित्र, घटनाएं, भाषा, भाव-भंगिमाएं वर्तमान के दिशानिर्देशक तत्व बन जाएं, तब चिंता होना स्वाभाविक है.
प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र के रूप में 1856 में 18 वर्षीय बंकिम जब कलकत्ता आए, तब बंगाल का हिंदू समाज एक बड़ी वैचारिक उथल-पुथल से गुजर रहा था. इस परिदृश्य को संपूर्णता में समझने के लिए तीन महत्वपूर्ण पड़ावों का उल्लेख अपेक्षित है. एक, राजा राममोहन राय की मृत्यु और ईश्वरचंद्र विद्यासागर के अकेले पड़ जाने की विडंबना के कारण उनकी वैज्ञानिक चेतना, मानवतावादी दृष्टि, व्यक्ति-मानव की प्रतिष्ठा और हिंदू धर्म को अंदरूनी जकड़बंदी से मुक्त कर आधुनिक बनाने की मुहिम क्रमशः क्षीण हो रही थी. यह वह दौर नहीं रहा था जब विधवा विवाह के विरोध में जुटाए गए 36763 हस्ताक्षरों के मुकाबले समर्थन में मिले महज 987 हस्ताक्षरों के आधार पर विधवा-विवाह को कानूनी वैधता दी जा सके.
दूसरा
दूसरे, अपने रेडिकल सुधारवादी दृष्टिकोण के कारण राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जिस प्रकार हिंदू धर्म के बुनियादी स्वरूप पर चोट करते जा रहे थे, उसी की प्रतिक्रियास्वरूप रूढ़िवादी राधाकांत देव कट्टरपंथी संभ्रांत सवर्ण हिंदू समाज के अंग्रेजी शिक्षित युवा वर्ग की भावनाओं को उद्वेलित कर उनसे हिंदू धर्म के झंडे तले संगठित होने की अपील कर रहे थे. जमींदार होने के नाते राधाकांत देव के पास सामाजिक प्रतिष्ठा, ब्रिटिश उच्चाधिकारियों तक पहुंच और पर्याप्त आर्थिक संसाधन थे. वे स्वयं अंग्रेजी पढ़े-लिखे थे और वक्त की नब्ज पर उंगली रखना जानते थे. उन्होंने देखा था, उनके वैचारिक प्रतिद्वंदी दिरोजियो की मृत्यु (1831) के बाद उनका बुद्धिवाद व्यक्तिवाद की चेतना से स्पंदित होने की बजाय भाववाद की आत्मपरकता में रिड्यूस हो गया था. दिरोजियो राष्ट्रीय स्वाधीनता के पक्षधर थे, लेकिन अतीत के प्रति रोमानी गर्व उनकी तार्किकता और वैज्ञानिकता को धुंधला देता था. उदाहरणार्थ भावोच्छ्वासों से बुनी उनकी यह कविता –
“मेरे देश
गौरवमय अतीत के दिनों में
तेरे मस्तक को सुशोभित करता था एक सुंदर प्रभामंडल
और देवों की तरह तुझे पूजा जाता था
कहाँ गया वह वैभव?
कहाँ है अब वह सम्मान?
तेरे विशाल पंखों को बांध दिया गया है
और तू मुंह के बल धूल में पड़ा है”. [3]
इस कविता ने रूढ़िवादियों की धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना को पहले राष्ट्रप्रेम की राजनीतिक विचारधारा से जोड़ा और फिर भावपरक राष्ट्रवाद की ओर ले जाने में बड़ा काम किया. ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन (1851) की स्थापना कर राधाकांत देव ने राष्ट्रवाद के इस नए सेंटीमेंट के विकास के लिए दो काम किये. एक, अंग्रेजी शिक्षित वर्ग को ‘आधुनिक‘ और ‘बुद्धिवादी‘ होने का ‘भ्रम‘ देने के लिए अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजपरस्ती का समर्थन किया और इस प्रक्रिया में आधुनिकता और आधुनिकीकरण, विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के बीच पाए जाने वाले महीन फर्क को धुंधला कर दिया. उनकी मान्यता थी कि पश्चिम से वही ज्ञान-विज्ञान गृहीत किया जाए जो सांसारिक दृष्टि से उपयोगी हो, उन्हें सुसभ्य और आधुनिक बनाता हो. लेकिन चूंकि हिंदू धर्म एवं संस्कृति विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं, अतः दर्शन एवं आध्यात्म का ज्ञान हिंदू धर्मशास्त्रों से ही लिया जाए और हिंदू समाज का आंतरिक गठन परंपरागत ढंग से यथावत रहे. यह मान्यता प्रकारांतर से युवा पीढ़ी को हिंदू धर्म एवं समाज की उन तमाम विकृतियों और रुग्णताओं पर गर्व करना सिखा रही थी जिसकी मुखालफत राजा राममोहन राय स्पष्ट एवं कड़े शब्दों में कर चुके थे.[4]
अधिकांश दिरोजियोवादियों को अपनी संस्था के झंडे तले लाकर उन्होंने राष्ट्र-प्रेम की भाववादी अमूर्त अवधारणा को वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा से जोड़ा. जाहिर है, इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति और समाज को लेकर विवेकवादी दृष्टि से पुनर्विचार की वह परंपरा क्षीण हो गई थी जो अमूर्तन को ठोस यथार्थ में प्रत्यक्ष करती थी और मनुष्य की भाववादी परिकल्पना की बजाय व्यक्ति की निजी सत्ता को उसकी अस्मिता, गरिमा, अधिकार और गतिशीलता में प्रतिष्ठित करना चाहती थी. फलस्वरुप देवेंद्रनाथ टैगोर और राजनारायण बोस के समय में ‘आदि ब्रह्म समाज‘ सामाजिक सुधार की अपेक्षा मूर्ति-पूजा, योग और आचरण की शुद्धता पर बल देने लगा था.[5]
तीसरा
तीसरा पड़ाव था विलियम जोन्स (1746-1794) की परंपरा में ब्रिटिश प्राच्यविदों एवं इतिहासकारों द्वारा भारत के गौरवमय अतीत की अवधारणा प्रस्तुत किया जाना. इस प्रक्रिया में भारतीय इतिहास को मुख्यतः तीन कालखंडों में विभक्त किया गया- हिंदू सभ्यता अर्थात भारतीय इतिहास का उत्कर्ष काल जो बाहर से आए ‘श्रेष्ठ‘ आर्यों की देन थी; मुस्लिम सभ्यता अर्थात भारतीय इतिहास का जड़, परंपरावादी, अंधकार युग; एवं ब्रिटिश काल. मोहित हालदार के अनुसार सबसे पहले ‘विलियम जोन्स ने हिंदूओं की महान प्राचीन सभ्यता के पतन का कारण मुस्लिम विजय को बताया‘.[6] मिली-जुली साझा संस्कृति की लंबी परंपरा के बावजूद हिंदूओं के मन में मुस्लिम समुदाय के लिए घृणा का भाव मौजूद था. इसे धीरे-धीरे हवा देने का काम ब्रिटिश अधिकारियों, इतिहासकारों और स्वयं समाज सुधारकों ने भी किया. [7]
यहाँ आकर मानो अधूरी तस्वीर पूरी हो जाती है. हिंदू धर्म-चेतना और राष्ट्रप्रेम का ध्रुवीकरण चूंकि स्वतंत्रता आंदोलन के बिना संभव न था, अतः मुस्लिम साम्राज्य को शत्रु के रूप में चीन्ह कर हिंदू-अस्मिता को ‘मुक्त‘ करने का वैचारिक आग्रह भावनात्मक उन्माद बनकर सतह पर फैलने लगा था.
जाहिर है बंकिमचंद्र के अभ्युदय के लिए रंगमंच सज चुका था. अब उन्हें अपने प्राथमिकताओं को तय करना था. साथ ही स्वयं को उस द्वंद्वात्मक स्थिति से भी मुक्त करना था जो एक ओर उनके बहुपठित व्यक्तित्व को स्वप्नदर्शी और आधुनिक बनती थी तो दूसरी ओर भावुकता के अवैज्ञानिक अविवेकवाद में धकेलती थी. बंकिमचंद्र जानते थे भीड़ के साथ चलकर आसान और सुरक्षित जीवन जिया जा सकता है, जबकि कंफर्ट जोन छोड़कर बाहर आना चुनौतियों और खतरों से जूझने में ही सारी ऊर्जा का क्षय कर देता है. दरअसल बंकिमचंद्र एक लंबे समय तक द्वंद्व के दोराहे पर खड़े रहे. 1873 में ‘विषवृक्ष‘ उपन्यास में विधवा की उपस्थिति को परिवार के लिए घातक मानते हैं तो 1876 में ‘साम्य‘ निबंध में विधवा विवाह का पुरजोर समर्थन करते हैं :
“यदि कोई विधवा, चाहे वह हिंदू जाति की हो या किसी और जाति की, पति के लोकांतर के बाद पुनः परिणय की इच्छुक है तो उसे इसका अधिकार अवश्य. यदि पति के वियोग के बाद पुरुष को पुनर्विवाह का अधिकार है तो साम्यनीति के अनुसार स्त्री को भी पति-वियोग के बाद पुन: पतिग्रहण का अधिकार है.” [8]
बौद्ध धर्म का नास्तिकवाद, समानतावादी दर्शन और अहिंसा-करुणा उन्हें आकृष्ट करते हैं जिस कारण वे समन्वयवादी भारतीय राष्ट्रवाद का स्वप्न देखने लगते हैं, लेकिन युगीन प्रभाव की आप्लावनकारी लहर उन्हें सूडो राष्ट्रप्रेम के दुर्ग में खींच ले जाती है.‘आनंदमठ‘ की रचना का क्षण निर्णय की अंतिम मुहर का क्षण है जिसके एक ओर ‘साम्य‘ निबंध है तो दूसरी ओर ‘धर्म तत्व‘ निबंध.
पाँच उपखंडों में विभाजित ‘साम्य‘ निबंध पतनशील हिंदू समाज की नि:संग पड़ताल का वैचारिक उपक्रम है जो धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक तीनों मोर्चों पर विषमतामूलक विभाजनकारी व्यवस्था के कारण निरंतर विघटित होता जा रहा है. ब्राह्मण-शूद्र, जमींदार-किसान, पुरुष-स्त्री की बाइनरी बना कर लेखक अमानवीय शोषण-तंत्र पर चोट करते हैं, और फिर गहरी सलंग्नता के साथ हाशियाग्रस्त अस्मिताओं के समान मानवीय अधिकारों की बात करते हैं. कहीं कर्मकांडी ब्राह्मणों और धर्म-ग्रंथों की अमूर्तताओं का मजाक उड़ाते हैं[9] और शूद्रों के उत्थान के लिए शिक्षा की अनिवार्यता पर बल देते हैं, तो कहीं प्राण मंडल के रूप में गरीब किसान की कल्पना कर जमींदारी प्रथा के दुर्दांत अमानुषिक चरित्र को उजागर करते हैं जो हर करवट किसान के शरीर से रक्त की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेना चाहता है. स्त्रियों की पराधीन स्थितियों को लेकर तो वे इतने क्षुब्ध हैं कि राजा राममोहन राय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर को प्रेरणा-स्रोत मानते हुए स्त्री के लिए शिक्षा से लेकर आर्थिक स्वावलंबन और पैतृक संपत्ति में अधिकार की भी मांग करते हैं. साथ ही विवाह-संस्था के स्वरूप को विकृत करने वाली तमाम रूढ़ियों के विरोध में खड़े होकर विधवा-विवाह का समर्थन भी करते हैं.
शाक्य मुनि गौतम बुद्ध और ईसा मसीह के अतिरिक्त वे जिन अन्य दो विभूतियों के योगदान को श्रद्धापूर्वक स्वीकारते हैं, वे हैं रूसो और जॉन स्टुअर्ट मिल जिन्होंने करुणा, अहिंसा, समानता और स्वतंत्रता के साथ-साथ व्यक्ति की स्वायत्तता और मानवीय अस्मिता को समझने का भाव भी दिया. वे इन चारों के ऋणी है क्योंकि ये चिंतक मनुष्य को तमाम संकीर्ण और विभाजनकारी विषमताओं से मुक्त कर ‘विश्वात्मा‘ का गरिमामय रूप देते हैं.
स्पष्ट है कि ‘साम्य‘ सामाजिक और आर्थिक न्याय का एक विज़नरी डॉक्युमेंट है. लेकिन तर्क और आस्था, बुद्धि और आकांक्षा, विविज्ञान और धर्म की लड़ाई में बंकिमचंद्र आस्था, आकांक्षा और धर्म की ओर झुक जाते हैं.फलत: ‘साम्य‘ के विपरीत ‘हिंदू धर्म के सिद्धांत‘ में वे लिखते हैं – “वैदिक धर्म में तीन अवस्थाएं हैं :
(१) देवों की प्रार्थना यानी भौतिक वस्तु पर चेतन को आरोपित करना और इसकी पूजा;
(२) देवों सहित ईश्वर (सनातन चेतना) की पूजा;
(३) ईश्वर और देवों की पूजा का समाहार ईश्वर में.
बाद में भक्तिपरक शास्त्रों के प्रकाश में आने पर सत्य, चेतना, और आनंद की इस पूजा को सर्वाधिक महत्व दिया गया. केवल तभी हिंदू धर्म ने संपूर्ण स्वरूप प्राप्त किया. सभी धर्मों में यह अत्यंत सुंदर धर्म है, और विश्व के धर्मों में हिंदू धर्म सर्वश्रेष्ठ है. स्वरूपों के अर्थ में निर्गुण ब्रह्म की कल्पना और भक्ति की तन्मयता से गुणात्मक ईश्वर की पूजा अपने शुद्ध स्वरूप में हिंदुत्व है. यही सभी मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए. किंतु अत्यंत खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिंदू यह सब भूल गए हैं और इसके स्थान पर वे केवल धर्म-शास्त्रों के नियम और स्थानीय रीतियां ओढ़े हुए हैं. यही हिंदुत्व और हिंदुओं के पतन का कारण है.” [10]
बंकिमचंद्र हिंदू धर्म की श्रेष्ठता को एक अन्य कोण से भी प्रतिपादित करते हैं. उनके अनुसार अन्य धर्मों का सरोकार केवल ईश्वर और परलोक से है; लेकिन हिंदू धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है जिसकी व्याप्ति जीवन, इहलोक, मनुष्य, मनुष्येतर प्राणियों और संपूर्ण चराचर सृष्टि का समाहार करने के दर्शन में है. “क्या कोई दूसरा धर्म इतना उदार, इतना आनंदमय, और इतना पवित्र है?” [11] वे गद्गद् हैं और श्रद्धावनत भी. लेकिन यह लेखक की कोरी सैद्धांतिक अवधारणा है. उपन्यास ‘आनंदमठ‘ अपनी मूल संकल्पना में हिंदू राष्ट्रवाद का मुखपत्र है, लेकिन धर्म और ईश्वर के गढ़े गए स्वरूप के अतिरिक्त उसमें न इहलोक के क्रंदन को सुनने का धैर्य है, न मनुष्य को उसकी समग्रता में देखने का वैचारिक औदात्य. तब संपूर्ण सृष्टि के साथ समन्वयात्मक संवादपरक संबंध बनाने की कौन कहे?
2
‘साम्य‘ में जहाँ तर्कपूर्ण रीज़निंग के साथ स्वायत्त वैयक्तिक इकाई के रूप में मनुष्य, उसकी मानवीय अस्मिता और अधिकारों को वरीयता दी गई है, और इस प्रकार एक प्रगतिशील समाज की संरचना का स्वप्न संजोया गया है, वहीं ‘आनंदमठ‘ में भाववादी अप्रोच स्थितियों और निष्कर्षों को पूरी तरह से धुंधला (मिस्टिफाई) और प्रतिगामी बना देती है. समतामूलक नवीन उद्भावनाओं और बहुलतावादी सेकुलर उदार चरित्र के लिए ‘आनंदमठ‘ में कोई जगह नहीं है. लिहाजा यहाँ व्यक्ति को अपदस्थ कर समुदाय (वर्णाश्रम व्यवस्था), कर्म (संघर्ष) को अपदस्थ कर कर्मवाद (पूर्वजन्म एवं नियति), तथा विचार को अपदस्थ कर आइडिया (ईश्वर) को केंद्रीय जगह दी जाती है जो जरूर मुताबिक शुक्रनीति और मनुस्मृति का अनुसरण करते हुए व्यक्ति की चेतन को निरंतर रौंदते रहते हैं.‘आनंदमठ‘ में जिस हिंदू राष्ट्रवाद की संकल्पना की गई है, उसके गर्भ में तीन बीज शब्द छिपे हैं – हिंदू, हिंसा और हिंदू राष्ट्र. ये तीनों बीज
शब्द आगे चलकर तीन विपरीत शब्द-युग्म (अपोजिट बाइनरी) बनाते हैं – हिंदू-मुसलमान, हिंसा-अहिंसा और हिंदू राष्ट्र बनाम अंग्रेजी शासन.उल्लेखनीय है कि प्रत्येक शब्द-युग्म ‘शत्रु‘ के रूप में मुसलमान (जिसे उपन्यास में यवन कहा गया है) को संकल्पित कर उसका शिरोच्छेद कर देने की आक्रामकता से बिंधा हुआ है. गंगा-जमुनी तहजीब को भुला कर मजहबी नफरत के एक सूत्र के सहारे स्थापित किया जाता है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिंदू संस्कृति को नष्ट किया है और धीरे-धीरे उत्पीड़न एवं दमन के सहारे हिंदुओं में पराजय, आत्महीनता और असुरक्षा बोध को इतना गहरा दिया है कि अपने ही देश में वे दूसरे दर्जे के नागरिक हो गए हैं.
“हमारे मुसलमान राजा कहाँ हमारी रक्षा करते हैं? धर्म गया, जाति गई, मान गया, कुल गया. अब तो प्राण भी जा रहे हैं. इन नशाखोर दढ़ियलों को भगाए बिना क्या हिंदुओं का हिंदुत्व बचा रहेगा?”
उपन्यास का केंद्रीय सरोकार है यह सवाल जो आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर एक नए तरह के आतंक की सृष्टि कर रहा है. यह जानना दिलचस्प होगा कि बंकिम ने ‘हिंदुत्व‘ शब्द का इस्तेमाल सनातन धर्म के पर्याय के रूप में किया है या ऐसी हिंदू संस्कृति के संदर्भ में जो भारत की सामासिक संस्कृति, परंपरा और परिवेशगत प्रभावों से कट कर पूरी तरह से कट्टर हिंदू धर्म की प्रतिष्ठा पर अवलंबित है. इसलिए स्थूल स्तर पर ‘हिंदू‘ के हिंदुत्व को चिन्हित करने के लिए यदि उसकी कंठी-माला, रुद्राक्ष और चंदन-तिलक को रेखांकित किया जाता है, तो यवन की पहचान अलगाने के लिए उसकी पगड़ी-टोपी और दाढ़ी का जिक्र किया जाता है.
यह विडंबना ही है कि बंकिमचंद्र स्थूलताओं में इतना अधिक उलझे रहे कि धर्म को मनुष्य के संदर्भ में देखने का जतन ही नहीं कर पाए. वे धर्म को केंद्रीय सत्ता का रूप देते हैं जो अपने निहित मंतव्यों के लिए ‘ईश्वर‘ और ‘मनुष्य‘ की मनमानी प्रतिमाएं गढ़ती है. फिर इन प्रतिमाओं के लिए ‘स्तोत्र‘ या ‘आचार-संहिताओं‘ का निर्माण किया जाता है और एक ऐसी जटिल समाज-व्यवस्था बनाई जाती है जो पग-पग पर असमानता और ऊंच-नीच को धर्मसम्मत सिद्ध करते हुए मनुष्य को निमित्त मात्र मानती है.
लिहाज़ा बंकिमचंद्र की हिंदुत्व की अवधारणा में पूजा-उपासना का प्रमुख स्थान है जो ईश्वर की सर्व शक्तिमान सत्ता-संकल्पना के समक्ष भक्त के नि:प्रश्न समर्पण, दैन्य और विश्वास की परिकल्पना कर उसकी मानवीय इयत्ता को संकुचित करती चलती है. यहाँ भक्त ‘मनुष्य‘ नहीं है जो विवेक, तर्क, विचार, संवेदना, गतिशीलता और निर्णय-स्वतंत्र भास्वर सत्ता का समुच्चय है. भक्ति में आराध्य के वर्चस्व की संपूर्ण स्वीकृति है और उसके व्यक्तित्व में लय (नि:शेष) हो जाने की तत्परता. भक्ति (जो अधिनायकवादी लौकिक शासन की शक्तियों को अचुनौती पूर्ण बनाए रखने का धर्म-षड्यंत्र भी है) ईश्वरीय विधान को बनाए रखने की आवश्यक मशीनरी है.इसलिए यहाँ एक खास तरह की निरंकुशता है और मठ के सर्वेसर्वा सत्यानंद महाराज के पास तमाम निर्णय लेने के अकूत अधिकार हैं.
यह निर्णय सरकारी खजाने की लूट से भी जुड़े हैं और मुसलमान बस्तियों का संहार कर भगवा ध्वज फहराने के आदेश से भी. कब और कहाँ अंग्रेजों से मुकाबला करना है, कब उनसे संधि करनी है, और किन जमींदारों/रसूख वाले लोगों को फुसला कर अपने दल में शामिल करना है – सत्यानंद महाराज की मर्जी के बिना मठ में पत्ता भी नहीं हिलता. यहाँ व्यक्ति को उसकी समग्रता और मनुष्यता में चीन्हने का चलन नहीं है. उसे धर्म के आधार पर सीधे-सीधे दो पालों में बांट दिया जाता है. जो स्वधर्मी हैं, वे शिष्ट हैं; जो विधर्मी हैं, वे दुष्ट हैं.अत: आचार-संहिता में दर्ज कर दिया जाता है कि “दुष्टों का दमन जैसे संतानों का धर्म है, वैसे शिष्टों का पालन भी.” संतान व्रतधारी पर केंद्रीय सत्ता के वर्चस्व का इतना अधिक आतंक है कि टीम के रूप में काम करने वाले संतान व्रतधारी संन्यासी-सैनिक भी एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते. उनकी छठी इंद्रिय निरंतर चेताती रहती है कि कहीं दूसरा व्यक्ति महाराज द्वारा तैनात किया गया मुखबिर तो नहीं[12]
जो अपराध की शिनाख्त या हत्या के लिए भेजा गया है. जहाँ तक स्त्री का संबंध है, हिंदुत्व का मिसोजिनिस्ट चरित्र मनुस्मृति से निरंतर खाद-पानी पाता है.वहाँ स्त्री मनुष्य या वैयक्तिक इकाई न होकर देवी है, अथवा संतान-सेनानियों को पैदा करने का जरिया. इसलिए प्रत्येक संतान को हिदायत दी जाती है कि धर्म-संघर्ष का हिस्सा बनने के लिए वह पत्नी, मां, बेटी के रूप में स्त्री का परित्याग करे. स्त्री की बुद्धि, विवेक और नीयत पर विश्वास संतान के लिए घातक है. लिहाज़ा चोरी-चोरी अपनी पत्नी से मिलने गए स्वामी जीवानंद जानते हैं कि इस पाप के प्रायश्चित के लिए उन्हें सत्यानंद महाराज के आदेश पर कभी भी प्राण विसर्जन करना होगा. मुसलमान के प्रति घृणा का मुख्य कारण उसका विधर्मी होना तो है ही, लेकिन यह भी तय है कि उसके अस्तित्व के बिना वे हिंदुओं की तुलनात्मक श्रेष्ठता साबित करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं.
मुसलमान मानो उनके लिए कसौटी का पत्थर हैं जिस पर परखे बिना हिंदुओं का हिंदुत्व सिद्ध ही नहीं किया जा सकता. इसलिए हिंदुओं को सदाचारी साबित करने के लिए ढिंढोरा पीट-पीट कर मुसलमान के नैतिक पतन और मूल्यहीनता के प्रवाद फैलाए जाते हैं. लेकिन वह जिस तथाकथित सदाचार की बात करते हैं, वह अपनी बुनियादी प्रवृत्ति में कदाचार ही है. बानगी के लिए दो उदाहरण पर्याप्त हैं. एक, पदचिन्ह गांव के जमींदार महेंद्र को छल और मनुहार से दबाव बना कर सिर्फ इसलिए मठ में दीक्षित किया जाता है ताकि उसकी बड़ी-सी हवेली और गांव को बंदूक-बारूद बनाने का कारखाना और किले में तब्दील कर अंग्रेज सेना से लोहा लिया जा सके.
दूसरा उदाहरण कार्य-कारण की लंबी श्रृंखला के रूप में आता है – पति महेंद्र के संन्यास लेने पर हताश कल्याणी का जहर खाकर आत्महत्या करने का प्रयास … स्वामी भवानंद द्वारा बचाकर किसी गुप्त ठिकाने पर ले जाना … कल्याणी के स्वस्थ हो जाने पर प्रणय निवेदन … और यह मांग कि “ मैंने जो जीवन तुम्हें दिया है, क्या वह तुम मुझे नहीं दे सकतीं?” वह कामार्त्त संन्यासी वासना के वशीभूत हो इहलोक, परलोक, संतान-धर्म सब कुछ अतल जल में डुबो देने को भी तैयार है. कल्याणी (एवं पाठक) की नजर में ‘व्रतच्युत अधर्मी‘ होने के बावजूद संतान-सेनानियों की नैतिक चेतना चोरी और हेराफेरी को कहीं से गलत नहीं मानती. बावजूद इसके ढोल पीटा जाता है कि कठोर आचार-संहिता और मूल्य-प्रतिष्ठा हिंदुत्व की पहचान है, लेकिन वास्तव में इसकी तमाम धाराएं इतनी लचीली हैं कि निहित मंतव्य की पूर्ति हेतु सरलता से उनका मनमाना दुरुपयोग किया जा सके.
बंकिमचंद्र चटर्जी वैष्णव भक्ति को हिंदू धर्म का सार मानते हैं और उपास्य देव के रूप में विष्णु भगवान की चतुर्भुज दिव्य मूर्ति की उपासना करते हैं. इसके पीछे दो वजहें हैं. एक, मुसलमान की निराकार आराधना पद्धति के बरक्स मूर्तिपूजक के रूप में अलगा कर हिंदुओं को महिमामंडित करना. दूसरे, आस्तिक और नास्तिक विचारधाराओं के सहमेल से बने भारतीय षड्दर्शन को खारिज करते हुए औसत भारतीय को हिंदू में और हिंदू को मूर्तिपूजक सनातनी में रिड्यूस करना. चूंकि निराकार आराधना पद्धति की तुलना में मूर्ति पूजा अधिक ठोस, प्रत्यक्ष, कर्मकांडी और भावनात्मक होती है, अतः उसे प्रतीकों और चिन्हों के माध्यम से महिमामंडित करना भी सरल हो जाता है. चप्पे-चप्पे पर मूर्तियों में विराजित ईश्वर की प्राण-प्रतिष्ठा यदि एक स्तर पर अनीश्वरवादियों की सत्ता को कुचलने की भावनात्मक राजनीति है, तो दूसरे स्तर पर अपने लौकिक मंतव्यों की सिद्धि के लिए ईश्वर की इन अलौकिक मूर्तियों को मनमाना आकार देने की स्वतंत्रता भी रहती है. यहीं से तीसरा कारण सिर उठाता दिखाई पड़ता है, और वह है – उपासना पद्धति में हिंसा को सर्वोपरि स्थान देकर वैष्णव धर्म की पुनर्व्याख्या करना. उपन्यास में यह परिकल्पना दो स्तरों पर प्रत्यक्ष हुई है – प्रबोधन द्वारा और मूर्ति निर्माण प्रक्रिया द्वारा.
वैष्णव भक्ति में हिंसा को सान कर बंकिमचंद्र उपन्यास में जिस सनातन धर्म की प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाते हैं, वह सामान्य व्यक्ति का ब्रेन-ड्रेन किए बिना संभव नहीं क्योंकि औसत व्यक्ति अनेक मिथकों, पौराणिक कथाओं, संतों को सुन-गुन कर स्वयं इस पर निश्चय पर पहुंच चुका होता है कि हिंदू होने का अर्थ है अहिंसा, शांति, प्रेम और सह-अस्तित्व में विश्वास करने वाली परंपरा का संवर्धन करना. “हिंसा करके सनातन व्रतधारी वैष्णव कैसे हुए? अहिंसा ही तो वैष्णव का परम धर्म है.” बंकिमचंद्र जानते हैं, यह शंका जमींदार महेंद्र की ही नहीं, तमाम भारतीयों की भी है.इसलिए गुरु-शिष्य-संवाद शैली में वे शुक्रनीति का सहारा लेकर सत्यानंद महाराज के जरिए तमाम शंकाओं का समाधान करते हैं. वे प्रतिपादित करते हैं –
(१) नास्तिक बौद्ध धर्म के अनुकरण में जो अयथार्थ वैष्णवता उत्पन्न हुई (और जिसे चैतन्य महाप्रभु ने आगे बढ़ाया), सिर्फ वही वैष्णव संप्रदाय अहिंसा को सर्वोपरि मानता है;
(२) जबकि यथार्थ वैष्णव धर्म का लक्ष्य दुष्टों का दमन करके संसार का उद्धार करना है. विष्णु के दशावतार इसका प्रमाण हैं;
(३) चूंकि ईश्वर मूलतः त्रिगुणात्मक है, इसलिए उसके तीनों गुणों – सत्व, रज, तम – की स्वीकार्यता अनिवार्य है. तम गुण से वे अवतार रूप में आविर्भूत होते हैं तो सत्गुण से प्रजापालक रूप में प्रकट होते हैं. लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण है – रजोगुण जिससे “ईश्वर की शक्ति का उदय होता है. इस शक्ति की उपासना युद्ध में ‘देवताद्रोहियों और देव-द्वेषियों का संहार‘ करके करनी पड़ती है. जाहिर है मुसलमान इस कसौटी पर खरा नहीं उतरते. इसलिए इनका “स-वंश संहार करना” हिंदू का पुनीत कर्तव्य बन जाता है.
तब हिंदुत्व की इसी वैचारिक अवधारणा के पल्लवन हेतु बंकिमचंद्र चतुर्भुज विष्णु की जिस मूर्ति को केंद्र में लाते हैं, वह बुनियादी तौर पर शंख-चक्र-गदा और पद्म से अलंकृत सृष्टि पालनकर्त्ता की प्रेममयी परंपरागत मूर्ति है, लेकिन निरंतर घूमते सुदर्शन चक्र के संहारक प्रभाव को दिखाने के लिए इस मनोरम मूर्ति के सामने मधु एवं कैटभ दैत्यों की छिन्नमस्तक रक्तरंजित दो मूर्तियां भी बनाई जाती हैं ताकि वे अधिक प्रभावशाली ढंग से ईश्वर के असुर-संहारक दुर्दांत रूप को रेखांकित कर सकें. दृश्य की भयावहता को और अधिक प्रगाढ़ करने के लिए पार्श्व में मनोहारिणी लक्ष्मी की नहीं, ‘आतंकित-सी लक्ष्मी‘ की मूर्ति भी स्थापित की जाती है.[13]
लेकिन बंकिमचंद्र चटर्जी का लक्ष्य धर्म की अंदरूनी विकृतियों और पाखंडों को देखकर मानव मात्र की प्रतिष्ठा के लिए धर्म-संस्था के स्वरूप का पुनर्संस्कार करना नहीं है. धर्म उनकी राजनीतिक चेतना को आधार देता है जो विद्वेष, घृणा और उन्माद से बिंधी हुई है. उनका लक्ष्य है निष्कंटक हिंदू राष्ट्र की स्थापना. इसलिए अंध राष्ट्रवाद की भावाकुल अवधारणा की जमीन तैयार करने की प्रक्रिया में वे राष्ट्र को माता के रूप में परिकल्पित करते हैं. ‘मां कैसी हो‘ – इस सवाल पर आत्म-मंथन करते हुए पहले वे हिंदू देवियों की पौराणिक कथाओं का स्मरण करते हैं, और फिर उनका अनुसरण करते हुए भारतमाता की परिकल्पना को तीन मूर्तियों में ढाला जाता है.
पहली मूर्ति बाल-सूर्य के समान स्निग्ध और तमाम ऐश्वर्यों की अधिकारिणी स्त्री की है जिसने कुंजर-केसरी आदि बनैले जानवरों को रौंद कर वन्य जंतुओं के आवास-स्थल पर अपना पद्मासन स्थापित किया है. यह भारतमाता का अतीत है – गौरवशाली, उदात्त और अपराजेय. भक्त को इस पर गर्व करना सिखाया जाता है.
दूसरी मूर्ति ‘खेटक-खर्परधारी, कंकालमालिनी और विवस्त्र‘ देवी काली की है. वर्तमान की दुराशापूर्ण स्थितियों के प्रभाव तले यह इतनी करुण, हताश, पराभूत और अवसन्न है कि नहीं जानती “अपने शिव को ही पैरों तले रौंद रही है.” भक्त के भीतर हाहाकार उत्पन्न करने के लिए बताया जाता है कि जब संतान स्वार्थपरता या कायरता के कारण मां को छोड़ देता है, तब मां इतनी ही जर्जर दीन-मालिन हो जाती है.
तीसरी मूर्ति नवारुण की किरणों से निर्मित ज्योतिर्मयी शक्ति है – भविष्य की भारतमाता जो अपनी कोटिश: संतानों का शौर्यपूर्ण संबल प्रकार संकट से बाहर आ गई है और पुन: वैभवशालिनी हो गई है. उसकी दसों भुजाओं में ‘अमोघ आयुध‘ हैं, ‘पैरों के नीचे शत्रु विमर्दित हो रहा है‘ और ‘चरणाश्रित वीर केसरी भी शत्रु का पीड़न‘ कर रहा है.
अवांतर होने का खतरा उठाकर भी यहाँ इस तथ्य का उल्लेख करना अनिवार्य है कि बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा प्रस्तावित भारतमाता की छवि को कालांतर में सिंह, गैरिक ध्वज और कमल दल के साथ गैरिक वस्त्रधारिणी के रूप में चित्रित करके राष्ट्र-सेनानियों की आराध्या के रूप में प्रस्तुत किया गया. यह सिंहवाहिनी छवि 1904-05 में अबनींद्रनाथ टैगोर द्वारा उकेरी गई भारतमाता की छवि को अपदस्थ करने के लिए जनमानस के बीच युद्ध स्तर पर प्रचारित की गई. अबनींद्रनाथ टैगोर की भारतमाता की छवि अधिक सौम्य, समावेशी और अर्थव्यंजक है. गैरिक वस्त्रधारिणी इस भारतमाता की चार भुजाएं हैं जो अपने प्रतीक रूप में चारों दिशाओं में फैले भारत-भूभाग और उसके निवासियों को अंकवार करना चाहती है. इन चार में से एक हाथ में पुस्तक है जो सरस्वती अथवा चेतना के कपाट खोलते ज्ञान का प्रतीक है. दूसरे हाथ में धन है जो लक्ष्मी अथवा प्रत्येक नागरिक के लिए समृद्धि की कामना है. तीसरे हाथ में माला है जो निजी आस्था के अनुरूप प्रत्येक नागरिक के लिए स्वतंत्र पूजा पद्धति की सुविधा का प्रतीक है. चौथे हाथ में सफेद वस्त्र है जो शांति, सह-अस्तित्व एवं सद्भाव का विश्वास है.
बंकिमचंद्र का विश्वास था कि दैत्य-संहारक ईश्वर की तरह ‘शत्रुमर्दिनी‘ भारतमाता की प्रतिष्ठा भी स्तुति गान के बिना संभव नहीं. इसलिए ‘वंदेमातरम्‘ गीत की रचना की जाती है और महिमामंडन के साथ देशभक्ति की उच्छल भाव-लहरियों को आवर्ती टेक के साथ इस तरह गूंथा जाता है कि समूचे गीत से कट कर ‘वंदे मातरम्‘ स्वयं में राष्ट्रवाद से भरी उत्प्रेरक हुंकार बन जाता है. उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता-सेनानियों के बीच यह नारा खूब लोकप्रिय रहा है. नारे को हिंदू राष्ट्रवाद का ‘वन लाइनर मेनिफेस्टो‘ कहा जाए तो भी कोई अत्युक्ति न होगी. आज ‘वंदे मातरम्‘ के समानांतर दूनी मजबूती के साथ ‘जय श्रीराम‘ नारा प्रतिष्ठित किया जा चुका है.‘जय सियाराम‘ के लोक-प्रचलित सौम्य अभिवादन का ‘जय श्रीराम‘ की आक्रामक हुंकार में बदल जाना बंकिमचंद्र के राष्ट्रवाद का गहरी धमक के साथ इक्कीसवीं सदी में चले आना है. सबसे पहले यह नारा (लौकिक) ईश्वर की ‘अकेली‘ और ‘अ-चुनौतीपूर्ण‘ अलौकिक सत्ता को प्रतिष्ठित करता है जिसमें हिस्सा बंटाने के लिए उसके परिवारजन ( पत्नी सीता और लक्ष्मण आदि भाई) या प्रियजन (हनुमान-सुग्रीव आदि) कोई दावा पेश न कर सकें. दूसरे, राम के साथ सिया की अविभाज्य सत्ता को अस्वीकार कर यह नारा स्त्रीद्वेषी दृष्टि को भी दर्शाता है जिस कारण घनघोर मूक सहमति के साथ आज भी संगठन, मठ और मंदिर में स्त्री की सर्वोच्च निर्णय-संपन्न स्थिति का विरोध किया जाता है.
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यहाँ आकर यह सवाल महत्वपूर्ण हो उठता है कि हिंदू-राष्ट्र की स्थापना के लिए बंकिमचंद्र चटर्जी भगवद्भक्ति और हिंसा के जिस ‘मॉडल‘ का महिमामंडन करते हैं, वह किस प्रकार के समाज की रचना करेगा? यह तय है कि किसी भी लक्ष्य की पूर्ति हेतु हिंसा की पैरवी के बावजूद हिंसा को स्थायी मूल्य नहीं बनाया जा सकता. युद्ध विजय के लिए लड़े जाते हैं, लेकिन लाशों से पटा साम्राज्य पाकर विजय का कोई अर्थ नहीं रह जाता. महाभारत के युद्ध से लेकर कलिंग युद्ध तक का भारतीय इतिहास शांति, अहिंसा, सौहार्द और समन्वय के गवाक्षों को खुला रखने का हिमायती रहा है. दरअसल युद्ध किसी भी रणनीति का अंतिम लक्ष्य नहीं कहा जा सकता. वह मात्र एक उपादान है. लक्ष्य है मनुष्य, समय और समाज की रक्षा; शांति, प्रेम और सहमेल के विकास की सतत साधना. चूंकि शांतिकालीन समाज की प्राथमिकताएं और कार्यशैली युद्धकालीन समाज की प्राथमिकताओं और कार्यशैली से अलहदा होती हैं, लिहाज़ा पाठक के तौर पर बहुत से सवालों के साथ मैं लेखक और उनके प्रवक्ता सेनाधिपति सत्यानंद महाराज की ओर उन्मुख होती हूँ ताकि उनके विजन डॉक्यूमेंट का विश्लेषण कर भविष्य के हिंदू-राष्ट्र की रूपरेखा समझ सकूं.
पहला सवाल, युद्ध, हिंसा, लूटपाट और आगजनी से झुलसते राज्य में शांति-व्यवस्था, समन्वय और सौहार्द की बहाली के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? साथ ही, सूखा एवं अकाल से विनष्ट हुई अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए क्या प्रयास किए जाएंगे?
दूसरे, पूर्ववर्ती सत्ता की जिन दमनकारी नीतियों के विरोध में उन्होंने विद्रोह और तख्तापलट की कवायद की है, वे क्या हैं? और उनके स्थान पर जन-कल्याण की कौन सी नई नीतियां और कार्य-योजनाएं प्रारंभ की जाएंगी? चूंकि ‘हिंदू राष्ट्र‘ का स्वप्न ‘विशिष्ट‘ और ‘सर्वश्रेष्ठ‘ होना है, इसलिए उसे ‘मुस्लिम राष्ट्र‘ से भिन्न होना ही होगा. पूर्ववर्ती शासन-परंपरा का कॉन्टिन्यूम होकर वह ‘नए‘ मूल्यों की प्रतिष्ठा नहीं कर सकेगा.
तीसरे, हिंसात्मक उन्माद को लंबे अरसे तक मूल्य बनकर जीने वाले संतान-सेनानियों के रोजगार और समाज में पुनर्वास के लिए उन्होंने क्या सोचा है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि लुम्पेन तत्व को सुसंस्कृत नागरिक में तब्दील करना टेढ़ी खीर है. संतान-सैनिक तालिबानियों की तरह राजनीतिक मंतव्यों की शह पर खड़े किए गए भस्मासुर हैं जो शांति-काल में अपने ही सरमायेदारों का संहार करने लगते हैं.
चौथे, शत्रु के रूप में संकल्पित यवनों के साथ क्या व्यवहार किया जाएगा? क्या पूर्व-संकल्प के अनुरूप उनका सामूहिक संहार करके निष्कंटक हिंदू राष्ट्र बनाया जाएगा? क्या यह संभव है? नहीं, तो क्या उनका हिंदू-राष्ट्र से निष्कासन किया जाएगा? यदि हाँ, तो कहाँ? निष्कासन खामख्याली में नहीं होता. उसके लिए ठोस जमीन, संसाधनों और समानंतर व्यवस्था की जरूरत पड़ती है, जहाँ प्रत्येक अस्मिता अपने घनत्व के अनुरूप जगह घेरती है. तो क्या निष्कंटक हिंदू-राष्ट्र का ख्याल ही अपने आप में निकृष्ट किस्म का यूटोपिया या शेखचिल्ली का सपना नहीं जो आत्मप्रवंचना और अराजकता को बढ़ाने में मददगार है?
पाँचवें, यवन-मुक्त हिंदू राष्ट्र की स्थापना करके क्या वे वास्तव में ‘शुद्ध हिंदू राष्ट्र‘ स्थापित कर पाएंगे? सत्यानंद महाराज पहले ही उपन्यास में गौतम बुद्ध के अनीश्वरवादी धर्म और वैष्णव भक्ति के चैतन्य संप्रदाय के प्रति अनास्था प्रकट कर चुके हैं. यवन-मुक्त साम्राज्य स्थापित होने पर हो सकता है उन्हें सनातन धर्म से इतर अन्य धार्मिक आस्थाओं के साथ जीने वाले जैन-सिख धर्मावलंबियों से भी समस्या होने लगे. यह अस्वीकार्यता कालांतर में शिव-शाक्त संप्रदायों, नाथपंथियों, शक-पारसीक-राजपूत आदि जातीय-समूहों के लिए भी हो सकती है. दरअसल उन्हें स्वयं स्पष्ट होना होगा कि हिंदुत्व के नाम पर क्या वे एक ही पंथ और एक ही समुदाय की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं? यदि समन्वयवादी संस्कृति उनका अभीष्ट है तो सिर्फ मुस्लिमों के प्रति घृणा क्यों?
छठे, क्या इस हिंदू-राष्ट्र में स्त्रियों, दलितों और अन्य हाशियाग्रस्त अस्मिताओं को स्वतंत्र नागरिक की हैसियत से मानवीय अधिकार प्राप्त होंगे? या दूसरे शब्दों में कहें तो हिंदू राष्ट्र का मॉडल क्या होगा? क्या वह पौराणिक राम-राज्य के अनुरूप होगा? यदि हाँ, तो इसे प्रत्येक हिंदू मात्र के लिए कैसे श्रेयस्कर माना जा सकेगा क्योंकि शंबूक के रूप में दलित-आदिवासी अस्मिता और सीता के रूप में स्त्री-अस्मिता का दलन करके वह विभाजनकारी वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक ही सिद्ध होता है? यदि वह 320-550 ईस्वी तक फैले गुप्त साम्राज्य को मॉडल बनाने का आकांक्षी है तो क्या वहाँ भी यही दोष नहीं?
उपन्यास में महेंद्र और पुरुषवेशधारी शांति को दीक्षित करते हुए सत्यानंद महाराज कहते हैं -”तुम्हें अपनी-अपनी जाति छोड़नी होगी. सभी संतान व्रतधारी एक जाति के हैं.इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र का भेद नहीं है.” मठ जैसी संस्थाओं के संकुचित घेरे में प्रतिबंध लगाना और उसका पालन करवाना अपेक्षाकृत सरल होता है. लेकिन वास्तविकता यह है कि हिंदू-मानस में जाति-व्यवस्था इस कदर घर कर चुकी है कि वह उसकी आइडेंटी का अभिन्न हिस्सा बन गई है. ऐसे में पूरे राष्ट्र में जाति सेंटीमेंट के खिलाफ प्रशासनिक स्तर पर लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी?
सातवें, हिंदू-राष्ट्र को किस शासन-प्रणाली के तहत चलाया जाएगा – राजतंत्र या लोकतंत्र? यह सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ‘साम्य‘ निबंध के आलोक में बंकिमचंद्र चटर्जी सेकुलर, प्रगतिशील, विचारवान और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर व्यक्ति दिखाई देते हैं. ‘साम्य‘ में वे लिंग, वर्ग, वर्णगत वैषम्य में के अलावा जातिगत वैषम्य की बात भी करते हैं- “हम जिस जातिगत वैषम्य की बात कर रहे हैं, वह विजयी और विजित के मध्य है. जो जाति राजा है एवं जो जाति प्रजा, उनके मध्य इस देश में अधिकारगत वैषम्य है.”
राजतंत्र विजयी और विजित, शासक और शासित के बीच समतामूलक संबंध पनपने नहीं देता. वहाँ सारे अधिकार शासक के पास और सारे कर्तव्य शासित के पास होते हैं. इसलिए वहाँ व्यक्ति ‘मनुष्य इकाई‘ नहीं, भीड़ अथवा प्रजा है – कृपाकांक्षी और फरमाबदार सेवक. लोकतंत्र में अधिकारों और कर्तव्यों का एकतरफा विभाजन न कर व्यक्ति की निजता, अस्मिता और स्वायत्तता को सम्मान दिया जाता है. यहाँ वह शासित नहीं, शासन-कार्य का चेतन सहभागी है.
फ्रांसीसी क्रांति की बात करते हुए बंकिमचंद्र जिस श्रद्धा भाव से रूसो को याद करते हैं, उससे लोकतंत्र के प्रति उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है. ‘साम्य‘ में उन्होंने दो छोटी-छोटी टिप्पणियां भी की हैं. एक, “जहाँ बुद्धि, मानसिक शक्ति, शिक्षा, बल जैसे स्वाभाविक अंतर हैं, वहाँ अवस्था का अंतर भी अवश्य होगा – इसे कोई नहीं रोक सकता. लेकिन अधिकार का साम्य आवश्यक है.” दूसरे, “सबकी उन्नति का पथ मुक्त होना चाहिए.” यदि हम यह मानें कि ‘साम्य‘ को वापस लेते ही बंकिम अपनी प्रतिबद्धताओं से मुकर गए हैं, तो क्या इसका यह आशय हुआ कि उनका हिंदू-राष्ट्र पुरानी लीक पर चलने वाला कट्टर, जड़, बंद सोच का विषमतामूलक हिंसक समाज होगा?
जानती हूँ, इन तमाम सवालों की भाषा उन्नीसवीं शताब्दी के भाव-बोध से बिल्कुल मेल नहीं खाती. वह अपनी बुनावट में खांटी 21वीं शताब्दी की नागरिक चेतना है. लेकिन इतना तय है कि शताब्दियों के उलट-फेर के बावजूद समय के बुनियादी सवाल कभी नहीं बदलते. हर शासक को अपनी सीमाओं की सुरक्षा से लेकर जनकल्याण की नीतियों और कार्यक्रमों को क्रियान्वित करते रहना होता है.
दुर्भाग्यवश बंकिमचंद्र चटर्जी के पास इन सवालों का जवाब नहीं है. एक नये ‘राजनीतिक दर्शन‘ के लिए जिस प्रखर अंतर्दृष्टि, समग्र सोच, संवेदनशील वैचारिक उदारता, और सृजनात्मक सरोकारों से लबरेज स्वप्नदर्शी भास्वरता की आवश्यकता होती है, वह भी उनके पास नहीं है. लिहाज़ा इस मोड़ पर आकर वे खुद को किंकर्तव्यविमूढ़ पाते हैं. यह किंकर्तव्यविमूढ़ता परस्पर गड्डमड्ड दो रूपों में अभिव्यक्त हुई है- आत्म-प्रवंचना (लफ़्फाज़ी) और पलायन (अतीतोन्मुखता). बंकिमचंद्र की हिंदू-राष्ट्र की वैचारिक संकल्पना परत-दर-परत उलझे जटिल पदानुक्रम और अनुशासन (आचार-संहिता एवं दंड-विधान) को तरजीह देते हुए राष्ट्र-प्रमुख के रूप में ‘अवतारी पुरुष‘ [14] की कल्पना करती है.
इससे तीन विकृतियों का समायोजन स्वयंमेव हो जाता है.
एक, सत्ता का निरंकुश एवं अपारदर्शी रहस्यमय चरित्र.
दूसरे, आम जन को भीड़ की आउटलाइंस में चित्रित कर उसकी जरूरत, जान, निजी राय और भविष्य के सवालों को बेमानी बना दिया जाना.
तीसरे, ऐसे फरमाबदार अधीनस्थों की फौज तैयार करना जो विवेक, विचार, करुणा और प्रश्नाकुलता को अपदस्थ कर रिमोट कंट्रोल रोबो की तरह यांत्रिक आचरण करे.
व्यवस्था में अंतर्निहित ये विकृतियां दरअसल वैचारिक दारिद्रय रूपी दीमक हैं. इसलिए जन और जमीन से जुड़े हर जेनुइन सवाल को अमूर्तन, अलौकिक, और रहस्यमय बनाने के लिए महिमामंडन का आश्रय लिया जाता है जो पूरी तरह भावाकुल आवेश और लफ़्फाज़ी पर टिका हुआ है. स्वयं सत्यानंद महाराज इस कला में सिद्धहस्त हैं. वे नहीं जानते, संयोगवश या बहादुरीपूर्वक अंग्रेज सेना को हरा कर नगर पर अधिकार करने के बाद नव-निर्मित ‘हिंदू-राज्य‘ का संचालन कैसे करें. परंपरागत प्रशिक्षण ने उन्हें लूट और युद्ध का पाठ पढ़ाया है. फलत: आदेश की प्रतीक्षा में खड़े उत्कंठित संतान-सेनानियों को वे यही आदेश देते हैं, और स्वयं ‘महान‘ ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की महिमा में ‘राजा‘ बनने समेत संसार की तमाम निधियों को अस्वीकार करते हैं. यह प्रवृत्ति तत्काल एड्रेस किए जाने योग्य जरूरी सवालों से कतरा कर निकल जाने की वैचारिक नपुंसकता है जो क्षतिपूर्ति हेतु बार-बार धुंध और शून्य के ‘रेटोरिक लूप‘ की सृष्टि करती है – ”शत्रु-शोणित से सिक्त कर धरतीमाता को शस्यशालिनी बनाऊंगा.”
किसी एक रचना (साम्य) को वापस लेना दरअसल लेखक द्वारा अपनी पूर्ववर्ती वैचारिक प्रपत्तियों के प्रति असहमति व्यक्त करना है. फलत: वे तमाम स्वप्न एक-एक कर ‘आनंदमठ‘ के औपन्यासिक क्षितिज से खिसकने लगते हैं जो ‘साम्य‘ निबंध को मनुष्य-अस्मिता की चेतना बनाते हैं. ये स्वप्न हैं- लोकतंत्र के प्रति आस्था, तर्कशील वैज्ञानिक चेतना, मानवीय मूल्यों के प्रति पक्षधरता और समतामूलक समाज का संकल्प. इनकी जगह लेखक के पास एक ही अवलंब बचा है- भक्ति – संपूर्ण समर्पण एवं दैन्य की स्थिति. इसलिए जटिलतर पदानुक्रम की भीतरी तहों से चामत्कारिक दिव्यपुरुष के रूप में हिंदुत्व के एक और आर्किटेक्ट को अवतरित किया जाता है जो देववाणी की तरह गंभीर स्वर में हिंदुओं की उपासना पद्धति से लेकर ज्ञान परंपरा में क्रमशः प्रविष्ट होने वाली विघटनशीलता को रेखांकित करता है. लंबा होने के बावजूद उद्धरण देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ –
“तैंतीस करोड़ देवताओं की पूजा सनातन धर्म नहीं. वह तो अपकृष्ट लौकिक धर्म है. उसके प्रभाव से सच्चा सनातन धर्म, म्लेच्छ जिसे हिंदू धर्म कहते हैं, लुप्त हो चुका है. सच्चा हिंदू धर्म ज्ञानात्मक है, कर्मात्मक नहीं. वह ज्ञान दो प्रकार का है. बहिर्विषक और अंतर्विषयक. जो ज्ञान अंतर्विषयक है, वही सनातन धर्म का प्रधान अंग है. लेकिन बहिर्विषयक ज्ञान पहले न आने पर अंतर्विषयक ज्ञान आने की संभावना नहीं है. … अभी इस देश में बहुत दिनों से बहिर्विषयक ज्ञान लुप्त हो चुका है. फलस्वरुप सच्चे सनातन धर्म का भी लोप हुआ है. सनातन धर्म के पुनरुद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान का प्रचार आवश्यक है. अभी इस देश में बहिर्विषयक ज्ञान नहीं है. सिखाएं, ऐसे लोग भी नहीं हैं. हम लोक शिक्षा में निपुण नहीं हैं. इसलिए अन्य देश से बहिर्विषयक ज्ञान लाना होगा.”
एक बार फिर लफ़्फाज़ी का सम्मोहक संजाल! दिव्यपुरुष ‘भी‘ पाते हैं कि हिंदुत्व वैचारिकता का संकीर्ण घेरा ही है. इसलिए गाय की पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने के संस्कार की तरह इस अनिश्चयात्मक स्थिति से उबरने लिए वे भी किसी की ‘पूंछ‘ तलाशते हैं. “अंग्रेजों से युद्ध में अंत तक विजयी हो, ऐसी शक्ति किसी में नहीं है.” वे इस तथ्य को जानते हैं, इसलिए तुरंत घुटनों पर बैठ कर उद्घोष करते हैं [15]:
“अंग्रेज बहिर्विषयक ज्ञान के अच्छे ज्ञाता और लोक शिक्षा में बड़े निपुण हैं. इसलिए अंग्रेज को राजा बनाएंगे. अंग्रेजी शिक्षा के कारण इस देश के लोग बहिस्तत्व में सुशिक्षित होकर अंतस्तत्व को समझने में समर्थ होंगे. तब सनातन धर्म के प्रचार में बाधा नहीं रहेगी. तब सच्चा धर्म अपने आप पुनरूद्दीप्त होगा. जब तक वैसा नहीं होगा, तब तक हिंदू फिर ज्ञानवान, गुणवान और बलवान नहीं होंगे, तब तक अंग्रेजी राज्य अक्षय रहेगा.… अंग्रेजी राज्य में प्रजा जन सुखी होंगे, निष्कंटक होकर धर्माचरण कर सकेंगे.”
वैचारिक विपन्नता, विवेकहीनता, अतीतजीविता, उत्तरदायित्वहीनता और आपदा को अवसर बनाकर घात की तैयारी में अपनी तमाम बौद्धिक, नैतिक, व्यावहारिक ऊर्जा का संकेंद्रीकरण करना – यह न राष्ट्र-राज्य की वैचारिक संकल्पना का मार्ग है, न भविष्य का स्वप्न-दर्शन. अधिक से अधिक इसे मनोहरी आत्म-प्रवंचना का नाम दिया जा सकता है जो निरंतर आगे बढ़ने के दंभ के साथ अपनी ही अंतर्शक्तियों का क्षय करती चलती है. जब-जब समाज बुद्धि, विवेक, करुणा, वैज्ञानिक चेतना और मनुष्य-गरिमा के प्रति सम्मान भाव को तिलांजलि दे अतीत, धर्म और आइडिया की अमूर्तता में उलझता है, तब-तब उसकी राष्ट्रवाद की संकल्पना धर्म की आत्मभक्षी उग्र आक्रामकता में विघटित हो जाती है. यहीं अपने तमाम जवाबों के साथ विश्लेषण का तीसरा बिंदु उपस्थित हो जाता है कि आज क्यों सेकुलर कहे जाने वाले भारत में हिंदू राष्ट्रवाद लोकप्रिय हो रहा है.
फिर भी ‘आनंदमठ‘ के महत्व को खारिज करना आसान नहीं. अपने समग्र प्रभाव में वह किसी भी तरह की कट्टरता और अलगाववाद के विरुद्ध वैचारिक चेतावनी है. खासतौर पर आज जब नाज़ीवादी आहटों के साथ समय को अतीत की गुफाओं में कैद करने का उन्मादी नर्तन तमाम बहुलतावादी आवाजों और पहचान को नष्ट करने पर आमादा है. ‘आनंदमठ‘ महज एक साहित्यिक कृति नहीं, एक सघन सामासिक सांस्कृतिक यात्रा का आह्वान भी है जहाँ हिंदू-राष्ट्रवाद गौरवशाली उपलब्धि के तौर पर नहीं, वरन् ‘हिंदू‘ बनाम ‘भारतीय‘ संस्कृति की बाइनरी में चिंतन और चेतना के गवाक्षों को खुला रखने की मांग करता है.
इस विचार-यात्रा के एक छोर पर यदि दामोदर विनायक सावरकर द्वारा 1925 में लिखित पुस्तक ‘हिंदुत्व‘ है जो बंकिमचंद्र के राष्ट्रवादी सरोकारों को अपेक्षाकृत अधिक ठोस वैचारिकता और तार्किकता के साथ सामने लाती है तो दूसरे छोर पर रवींद्रनाथ टैगोर का उपन्यास ‘गोरा‘ और जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया‘ है जो राष्ट्रवाद की संकल्पना को अमूर्त भावनात्मक सेंटीमेंट में विघटित करने की बजाय आधुनिक वैज्ञानिक चेतना से जोड़ती है. आधुनिकता चूंकि प्रश्न की निरंतरता और आत्म-परिष्करण की सतत साधना का नाम है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि विवेकपूर्ण वैज्ञानिक चेतना के साथ अस्तित्व, मनुष्य-अस्मिता, मनुष्यता और सांस्कृतिक समन्वय जैसे आधारभूत मुद्दों पर विचार कर बेहतर समय का विजन डॉक्यूमेंट तैयार किया जाए.
संदर्भ:
[1] बंकिमचंद्र चटर्जी, आनंदमठ, पृ०181-184
[2] उपन्यास में ऐसे दो स्थलों को चिन्हित किया जा सकता है. एक जगह वे लिखते हैं – “उस समय अकालपीड़ित प्रदेश में असली संन्यासी नहीं के बराबर थे.… जब जनसाधारण को खाना नहीं मिल रहा था, तब संन्यासियों को कौन भिक्षा देता? इसलिए जो सच्चे संन्यासी थे, वे सब पेट के लिए वाराणसी और प्रयाग आदि अंचलों में भाग गए थे. केवल संतान लोग थे जो अपनी इच्छा से संन्यासी का वेश धारण करते थे और आवश्यकता पड़ने पर उसे उतार फेंकते थे.” अन्यत्र इन संन्यासियों का रूप-गुण वर्णन करते हुए बंकिमचंद्र चटर्जी लिखते हैं – “उन दिनों के संन्यासी आज के संन्यासियों की तरह नहीं थे. वे संगठित, शिक्षित, बलवान रण-निपुण और अन्य अनेक गुणों के धनी होते थे. वे प्रायः एक तरह के राजद्रोही थे जो राजा का राजस्व लूटकर रहते थे. बलिष्ठ बालक पाते ही वे उनको चुरा लेते थे. फिर वे उन बालकों को प्रशिक्षित कर अपने संप्रदाय में सम्मिलित कर लेते थे.”
[3] मोहित हालदार, भारतीय नवजागरण और पुनरुत्थानवादी चेतना, पृष्ठ 40
[4] “ मेरे देश के निवासी मूर्ति-पूजा की दुर्भाग्यपूर्ण व्यवस्था का अंधानुकरण करते हैं और अपने देवों को प्रसन्न करने के लिए वे प्रत्येक मानवीय और सामाजिक भावना का उल्लंघन कर जाते हैं. अपने पवित्र धार्मिक कर्मकांड के अनुरूप कार्य करने के क्रम में वे आत्म-बलिदान और अपने निकट संबंधी की आहुति देने जैसे वीभत्स कार्यों का संपादन करते हैं. मैं फिर दोहराता हूँ कि मैं इन कुप्रथाओं को लेकर अत्यंत खेदपूर्ण ढंग से सोचता रहा हूँ. मैं उनके पालन में एक जाति का पतन निरंतर देख रहा हूँ.ऐसी जाति जो अपनी संवेदनशीलता, धैर्य और चरित्र की कोमलता से एक अच्छे जीवन स्तर को प्राप्त कर सकती है.” मोहित हालदार, भारतीय नवजागरण और पुनरुत्थानवादी चेतना, पृ० 90
[5] “हिंदुओं में अध्यात्मवाद का प्रचार करने के लिए ‘आदि समाज‘ ने हिंदू प्रारूप को अपनाया है जिसमें केवल हिंदू शास्त्रों से उद्धृत अवतरण हैं, धर्म-ग्रंथों के अंश है और ऐसी शास्त्र-विधि को ग्रहण किया गया है जो प्राचीन काल के अपने रूप के अत्यंत निकट है. यह समाज-सुधार के कार्यों को इसके सदस्यों की रुचि और निर्णयों पर छोड़ता है और समाज-सुधार की अपेक्षा मूर्ति-पूजा के योग और आचरण की शुद्धता पर अधिक बल देता है.…यह केवल उन प्रगतिशील ब्रह्मवादियों को अपना सदस्य मानता है जो न केवल जाति वरन् धर्म की दृष्टि से (कि आस्तिकवादी ही सच्चा हिंदू है) अपने को हिंदू कहते हैं. यदि इस तरह का प्रश्न किया जाता है कि जाति जैसे सामाजिक विभेद को माना ही क्यों जाए तो इसका उत्तर यही होगा कि सामाजिक भिन्नताओं को हटाने वाले समाजवादियों के सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप से ग्रहण करने के लिए विश्व अभी तैयार नहीं है.” मोहित हालदार, भारतीय नवजागरण और पुनरुत्थानवादी चेतना, पृ० 65
[6] मोहित हालदार, भारतीय नवजागरण और पुनरुत्थानवादी चेतना, पृ० 88
[7] दिरोजियो की कविता में हिंदुओं के हृदय में पलते मुस्लिम-विद्वेष का चित्रण इस प्रकार हुआ है –
“मुस्लिम देश को तबाह करने आया है
हिंदू आगे बढ़ा है, उसे पीछे धकेलने
अपने तीर्थों के अधर्मी लुटेरे को
अपने चैन को तबाह करने वाले वहशी को.”
मोहित हालदार, भारतीय नवजागरण और पुनरुत्थानवादी चेतना, पृष्ठ 94
[8] बंकिमचंद्र चटर्जी, साम्य (विवेक देबरॉय द्वारा अनूदित), पृ०59
[9] “देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियां गढ़ते चलो. आलंकारिक संस्कृत भाषा में उनका महिमामंडन करते चलो. आम भारतीय को अज्ञान की खंदक में ज्यादा से ज्यादा धकेलते चलो. दर्शन, विज्ञान और साहित्य की उन्हें क्या जरूरत? सिर्फ ब्राह्मणों की संख्या में महावृद्धि करते चलो. नए-नए उपनिषद लिखो …एक के बाद एक कई-कई ब्राह्मण ग्रंथ … आरण्यक के बाद आरण्यक …सूत्र के बाद सूत्र … फिर उन पर भाष्य लिखो …भाष्यों पर टीका करो … अनगिनत टीकाएं! ऐसा अनवरत क्रम बनाए रखो कि वेदों पर आधारित धार्मिक टीकाओं से देश का वातावरण बोझिल हो जाए. ज्ञान? उसकी बात मत करो. उसे भारत से खदेड़ दो.” बंकिमचंद्र चटर्जी, साम्य निबंध, पृष्ठ 17
[10] मोहित हालदार, भारतीय नवजागरण और पुनरुत्थानवादी चेतना, पृष्ठ 70
[11] वही, पृष्ठ 71
[12] देखें स्वामी भवानंद और धीरानंद का संवाद, आनंदमठ, पृ०126-128
[13] परंपरागत मूर्तियों को मनमाना रूप देने की परंपरा अब भी विद्यमान है. इस संदर्भ में हाल ही में स्थापित की गई दो मूर्तियों का उल्लेख करना चाहूँगी. पहली मूर्ति अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की मूर्ति है. इस मूर्ति में ईश्वर के बालक रूप की स्वाभाविक कोमलता, सौम्यता और मासूमियत के स्थान पर क्रोध, अहम्मन्यता और उद्धतता दिखाई देती है जिसे यहाँ-वहाँ कैलेंडर के रूप में प्रकाशित होने वाली राम और हनुमान की मूर्तियों में भी देखा जा सकता है. धनुर्धारी राम अब सृष्टि में वात्सल्य एवं अभय का प्रसार करते जननायक नहीं हैं, धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर किसी अदृश्य शत्रु का संहार करते क्रुद्ध उन्मत्त योद्धा हैं. दूसरी मूर्ति नए संसद भवन में स्थापित शेरों की है जो अशोक स्तंभ के परंपरागत चार सौम्य शेरों की अपेक्षा वीभत्स ढंग से जबड़ा खोलकर दांत किटकिटाती खूंखार वृत्ति का आभास देती है. यह धार्मिक-सांस्कृतिक प्राथमिकताओं के अधीन परंपरागत रूढ़ छवियों और चिन्हों का यादृच्छिक रूपांतरण है.
[14] उपन्यास में ‘अवतार‘ के रूप में दो महापुरुषों को अवतरित किया गया है. पहले हैं, ‘विष्णु के अवतार‘ (पृ०76) सत्यानंद महाराज जो अचानक रहस्यमय ढंग से गायब हो जाते हैं और जब ‘प्रकट‘ होते हैं तो बताया जाता है कि ‘संतानों के कल्याण के लिए हिमालय में तपस्या करने गए हैं‘. दूसरे अवतार अमोघ शक्तियों से संपन्न दिव्यपुरुष है जो रणक्षेत्र में लाशों के ढेर में दबी जीवानंद की लाश को निकाल कर उसमें प्राणों का संचार करते हैं. ये वही अवतारी पुरुष हैं जो घोषणा करते हैं कि ‘अंग्रेजी राज्य स्थापित हो, इसीलिए संतान-विद्रोह हुआ है.‘
[15] उपन्यास में दिव्यपुरुष की इस देववाणी को सुनती हूँ तो फ़रवरी 2023 में विदेश मंत्री एस. जयशंकर द्वारा दिए गए वक्तव्य का स्मरण हो आता है वे बेहद विवश भाव से भारत की तुलना में कहीं ‘अधिक बड़ी‘ अर्थशक्ति चीन के सामने घुटने टेकने में ‘ समझदारी‘ देखते हैं – “Look, they (China) are a bigger economy. What am I going to do? As a smaller economy, am I going to pick up a fight with the bigger economy? It is not a question of being a reactionary; it is a question of common sense.”
रोहिणी अग्रवाल आलोचना पुस्तकें : हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला, एक नज़र कृष्णा सोबती पर, इतिवृत्त की संरचना और स्वरूप, समकालीन कथा साहित्य: सरहदें और सरोकार, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, साहित्य की ज़मीन और स्त्री मन के उच्छवास, हिंदी कहानी: वक़्त की शिनाख्त और सृजन का राग, हिंदी उपन्यास का स्त्री पाठ, साहित्य का स्त्री स्वर, हिंदी उपन्यास: समय से संवाद, कथालोचना के प्रतिमान, कहानी का स्त्री- समय. आदि कहानी संग्रह : घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ सम्मान एवं पुरस्कार : हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पर तीन बार, स्पंदन आलोचना सम्मान, वनमाली कथा आलोचना सम्मान, रेवांत मुक्तिबोध सम्मान, डॉक्टर शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान, डॉक्टर रामविलास शर्मा स्मृति सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, श्रेष्ठ महिला सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी rohini1959@gmail.com |
बचपन में पहली बार आनंदमठ पढ़ते समय मेरे मन में यही विचार आए थे, जिन्हें रोहिणी जी सत्य ही पाठक के विचार कहती है और आनंदमठ पर आलोचनात्मक दृष्टि डालतीं है। आम पाठक आनंदमठ को पढ़ते और समझते हुए आश्चर्यचकित होता है कि आखिर कैसे और कहाँ यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को बौद्धिक आधार देने वाला माना जाता रहा है, खासकर बंग-भंग के समय। मुझे यह भारत विभाजन की नींव की पहली ईंट महसूस होता है, शायद
1957 के बाद भारत में सांप्रदायिक द्वेष का पहला महत्वपूर्ण संकेत अंग्रेजों ने यहाँ से ही लिया होगा।
वंदे मातरम को तो खैर प्रश्न करने का उचित आधार भले ही हो, उचित समय नहीं महसूस होता। रोहिणी जी ने भी उसे नहीं छेड़ा है।
आनंदमठ न सिर्फ धर्म और आदर्श की ढुलमुल जमीन पर खड़े सन्यासी विद्रोह को आगे बढ़ाता है और वर्तमान के हिन्दुत्व की जमीन तैयार करता है जो अन्य धर्म और राष्ट्र के विरोध के आधार पर ही परिभाषित हो पाती है। बंकिम की तरह ही राष्ट्र अभी द्वंद में है और जल्दी ही उस से उबरेगा।
आनंदमठ का अध्ययन जरूरी था। इसके समांतर ही फुले के गुलामगिरी का पाठ होना चाहिए। बंकिम मुसलमानों के पतन से खुश हैं फूले ब्राह्मणों के।
रोहिणी जी हमारे समय की गंभीर आलोचक है.
वे विपुल अध्ययन के बाद लिखती है. आनंद मठ पर उन्होंने माकूल समय पर विचार किया है. इतने विस्तृत लेख पर उन्हें बधाई
‘उपन्यास ‘आनंदमठ‘ अपनी मूल संकल्पना में हिंदू राष्ट्रवाद का मुखपत्र है’,
इसके आगे और कुछ कहना आज के सन्दर्भ में शेष नहीं रह जाता…निश्चित रूप से शानदार गहन विवेचना है…सचेत लोगों को बार-बार इतिहास का पुनर्पाठ करते रहना चाहिए…विडम्बना है कि हमने अपनी ‘आज़ादी’ के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन के जिन प्रतीकों को अपनाया उसकी निरंतरता आज भी दृश्य है…
कोई गांव की तरफ तो कोई नगर की तरफ दौड़ पड़ा और पथिक या गृहस्थ को पड़कर कहने लगा – ‘बोलो वंदे मातरम्. नहीं तो मार डालूंगा.”
(आनंदमठ‘, पृ० 152)
इसी ‘वन्दे मातरम’ को राष्ट्र गीत के रूप में चुनना अनायास नहीं है…और दाढ़ी के बाल नोच कर ‘जय श्रीराम’ बुलवाना उसी का विकास और निरंतरता है…
एक छोटी सी भूल की और इशारा है- बक्सर का युद्ध 17६४ में हुआ था…न कि 1761 में…
कहने के लिए बहुत सी बाते हैं, पर अभी के लिए इतना ही…
भूल-सुधार के लिए शुक्रिया अमिता जी।
जब-जब समाज बुद्धि, विवेक, करुणा, वैज्ञानिक चेतना और मनुष्य-गरिमा के प्रति सम्मान भाव को तिलांजलि दे अतीत, धर्म और आइडिया की अमूर्तता में उलझता है, तब-तब उसकी राष्ट्रवाद की संकल्पना धर्म की आत्मभक्षी उग्र आक्रामकता में विघटित हो जाती है. यहीं अपने तमाम जवाबों के साथ विश्लेषण का तीसरा बिंदु उपस्थित हो जाता है कि आज क्यों सेकुलर कहे जाने वाले भारत में हिंदू राष्ट्रवाद लोकप्रिय हो रहा हैl इतने सारे सन्दर्भ से इस लेख को जोड़कर समय से पहले लिखे गए इस किताब पर लिखा यह आलेख अत्यन्त संग्रहणीय है l इससे Rohini Aggarwal जी की आलोचना की दृष्टि का पूरा आकाश एक झलक में देखा जा सकता है l बधाई समालोचन को ऐसे समृद्ध करने वाले लेख को प्रकशित करने के लिए l
भारत के आधुनिकता विमर्श की महत्वपूर्ण कृति। रोहिणी जी की दृष्टि सराहनीय है। सुदीप्तो कविराज एवम पार्थ चटर्जी के यहां इस कृति की बेहद गंभीर स्वीकृति है।
बहुत अच्छा आलेख है, हिंदी में ऐसे श्रमसाध्य और मौलिक आलेखों का बहुत अभाव है, बहुत समय बाद साहित्य से संदर्भित एक सुचिंतित राजनीतिक सांस्कृतिक विमर्श पढ़ने को मिला है।
आनंदमठ की बखिया उधेड़ते हुए वामपंथी विद्वानों के सैकड़ों निबंध अंग्रेज़ी में प्रकाशित हैं. उनमें से कुछ पठनीय भी हैं.रोहिणी अग्रवाल ने अपने तई हिंदी में उस कमी को पूरा किया है.
किन्तु, भारत के अनेक बड़े समाजवैज्ञानिकों तथा साहित्य के आलोचकों ने बंकिम सिरे से खारिज करने के बजाय उनकी रचना पर द्वन्द्वात्मक दृष्टि से विचार किया है. इनमें से एक प्रोफ़ेसर हरीश त्रिवेदी का आलेख बेहद पठनीय है जिसका अनुवाद समालोचन को प्रकाशित करना ही चाहिए.
De-Demonising ‘Anandamath’: Why We Must Read Bankim Chandra Chattopadhyay in 2017 – https://swarajyamag.com/culture/de-demonising-anandamath-why-we-must-read-bankim-chandra-chattopadhyay-in-2017
विचित्र बात है कि टिप्पणी करते हुए आज के हिन्दू सम्प्रदायवादियों की हरकतों को कुछ लोग आनंदमठ के संवाद से जोड़कर देख-दिखा रहे हैं. यह अपने पाप का ठीकड़ा अतीत के माथे पर फोडने जैसा है. इतिहास-बोध की जगह इसे इतिहास का बोझ कहना उचित होगा.
इस तरह की कृतियों को पढ़ते हुए यह सब विचार आते रहे हैं, यहां तक कि प्रसाद के नाटकों को पढ़कर भी भावों का उजला उद्वेलन नहीं हुआ । इस तरह तटस्थ और सम्यक् होने के लिए, लेखक या पाठक रूप में,जिस उदारता की दरकार होती है वह पहले ही कम थी अब तो बहुत छीज गई है। मैं इस आलेख को पढ़ते सतत् वर्तमान को देखती रही। रोहिणी जी का यह आलेख अतीत को पढ़ने की दिशा है तो अतीत के आईने में वर्तमान का यथार्थ! यह आलेख अत्यंत महत्वपूर्ण, जरूरी और व्यक्तिगत रूप से मेरे भीतर को अभिव्यक्त करता है।
उनके चिंतन में सत्य है,शिवत्व है ।
बंकिम के चिंतन के समूचे अंतर्विरोधों और स्त्री धर्म और मुसलमानों के प्रति उनकी दृष्टि का सम्यक विवेचन रोहिणी जी ने किया है . लेख बहुत श्रम से विभिन्न संदर्भों के हवाले से तैयार किया गया है. रोहिणी जी ने थेरीगाथाओं के बाद बंकिम के चिंतन के दो विपरीत ध्रुवों की पड़ताल ही नहीं की वर्तमान राष्ट्रवाद के लिए बंकिम का चिंतन किस तरह सहयोगी है इस पक्ष को भी उभारा है .एक बिंदु पर रूसो बंकिम और मनुस्मृति का स्त्रीविरोध उजागर होता भी लगता है. रोहिणी जी को बधाई.