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Home » रुस्तम की बीस नयी कविताएँ

रुस्तम की बीस नयी कविताएँ

शब्द की साधना में ऐसी अवस्था आती है जब शब्द पिघलने लगते हैं, अर्थ उनका अभीष्ट नहीं रह जाता, वे कुछ और ही आकार ले लेते हैं, ऐसे अनुभव जो शब्दों में नहीं कहे जा सकते, मूर्त होने लगते हैं. कवि रुस्तम ने ऐसा लगता है इधर कदम बढ़ा लिए हैं. यथार्थ और आभास की दूरी मिट गयी है, होने न होने के बीच खड़ा कवि केवल देख भर रहा है. ये अंतिम लगाव की कविताएँ हैं जो वैराग्य के किनारे खड़ी हैं.

by arun dev
January 20, 2022
in कविता
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रुस्तम की बीस नयी कविताएँ
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रुस्तम की बीस नयी कविताएँ

1.

एक जानवर मेरी ओर बढ़ा.
वह मेरे पास आ पहुँचा-
फिर वह मेरे साथ लगकर खड़ा हो गया.
उसकी आँखों में जो भाव था उसे मैंने नहीं पढ़ा.
मुझे बस इतना पता था कि वह मेरे साथ लगकर खड़ा था.

 

2.

तुम मुझे विचलित करती हो.
सोचता रहता हूँ तुम्हारे बारे में.
ओ साध्वी,
कैसे तुम्हारी देह
इच्छा से भरी है-
इच्छा ने उसे
भारी कर दिया है.
उठ नहीं पा रहे तुम्हारे पाँव.
तुम धीरे-धीरे चल रही हो.
एक तीव्र गन्ध
तुममें से फूट रही है
और तुम्हारे चहूँ ओर फैली है.

 

3.

जाने से भी ज़्यादा अजब था वहाँ आना.
मैं क्यों वहाँ आया, किसने मुझे भेजा, यह तक मैं जान नहीं पाया,
न यह ही कि मैं कौन था.

 

4.

मैं ख़ुद ही को याद करता हूँ.
मैंने खो दिया है अपने-आपको पिछले वर्षों में
और मैं ख़ुद को ढूँढ नहीं पा रहा.
शायद मैं वहाँ हूँ जहाँ कोई वैरागिनी है
या फिर उसका साया.

 

5.

चूल्हे की रोशनी
तुम्हारे चेहरे, तुम्हारे बालों, तुम्हारे बाज़ुओं,
तुम्हारे घाघरे पर पड़ रही है.
तुम्हारे बाल खुले हुए हैं.
तुम अपनी उँगलियों से थोड़े-से बालों को चोटी में गूँथ रही हो.
तुम्हारा चेहरा ज़रा-सा मेरी ओर मुड़ा है.
आँखें मुझे देख रही हैं.
होंठ खुले हुए हैं, हिल रहे हैं, तुम मुझे कुछ कह रही हो.
तुम वही हो जिसे मैं मिलना चाहता था.
तुम वास्तविक हो, या कि कोई माया?

 

6.

तुम सारे वस्त्र उतार देती हो
और अपनी तस्वीर खींचती हो.
श्वेत और श्याम इस तस्वीर में
तुम कोई और लगती हो.
एक दिन तुम नहीं,
यह तस्वीर मेरे पास होगी
और मैं तुम्हें
पहचानूँगा नहीं.

 

7.

यह राह कितनी सुन्दर है!!
बायीं ओर एक पेड़ है. उसके पीछे, ज़रा दूर, कुछ घर हैं, कुछ जानवर.
दाहिनी ओर एक झोपड़ी, एक झाड़ी.
एक फूल वहाँ पड़ा है.
इस राह पर मैं चलना चाहूँगा,
और फिर
कहीं
रुकूँगा नहीं.

 

8.

श्वेत और काली,
ऊबड़-खाबड़ गली में मैं चढ़ रहा था.
दाहिनी तरफ़ से दीवारों पर सूर्य पड़ रहा था.
आधा छाया में, आधा धूप में मैं चढ़ तो रहा था
लेकिन मैं हिल नहीं रहा था.
मेरा एक पाँव ज़मीन पर था,
दूसरा हवा में लटका था.
गली खड़ी हुई थी,
उस में मैं भी.

 

9.

स्वप्न में
मैं तुम्हारे पास था.
स्वप्न में एक रेखा तुम्हारे चहूँ ओर खिंची हुई थी.
मैं उसे लांघ लेना चाहता था.
कितनी बार मैंने पाँव उठाया, फिर वापिस खींच लिया.

 

10.

उस कालखण्ड में मैंने
तस्वीरों से प्रेम किया,
उन्हें चाहा,
उनकी इच्छा की.

शब्द
जो पर्दों पर उभरते थे,
उन्हें पढ़ा
और मिटा दिया.

आवाज़ें
जो हवा में से आती थीं,
उन्हें सुना और भुला दिया —

उस कालखण्ड में मैंने
छायाओं से प्रेम किया,
छवियों से,
अनुगूंजों से.

 

11.

जो भी तुम चुरा लेते हो मुझसे
वह अपनी जगह पर ही पड़ा हुआ मिलता है.
जो भी तुम मुझसे छीनते हो
वह दुगुना होकर वापिस लौट आता है.
तुम जितना भी इस घड़े में से लेते हो
उतना ही वह भरता जाता है.
स्थित-प्रज्ञ मैं यहाँ बैठा हूँ.

 

12.

उस दिन
जब घोड़े आये थे मेरे कमरे में
किसी प्राचीन शती में से,
उस पहाड़ी पर
तुमने
एक पत्थर को छुआ
और मैंने तुम्हें फिर नहीं देखा.
तुम किन शतियों में गये,
क्या-क्या रूप धरे,
कितनी क्रान्तियाँ कीं,
कितने युद्ध लड़े,
कितने मरे, कितने घायल हुए
तुम्हारी कटार, तुम्हारी तलवार से,
कितने घाव तुम्हारी देह पर सूख गये-
मुझे नहीं पता.
घोड़े लौटकर चले गये अपनी प्राचीन शती को.
मैं सोचता था तुम भी लौट आओगे
किसी घोड़े पर सवार
या फिर पैरों पर ही चलते हुए
किसी जंगल या मरू या दलदल में से
अचानक प्रकट हो जाओगे.

 

13.

अँधेरे में मुझे सुनो.
अँधेरे में मेरे पास आओ.
अँधेरे में हम जुगनुओं की तरह टिमटिमाएंगे,
चमगादड़ों की तरह चीखेंगे,
उल्लुओं की तरह उड़ेंगे, पंख फड़फड़ाएंगे.
अँधेरे में हमारी आँखें चमकेंगी,
जिज्ञासा से हम देखेंगे अपनी आँखों की रोशनी में जगमगाती हुई वस्तुएँ,
दिन की दीवार के
उस तरफ़
के विस्मयकारी
संसार में.

 

14.

तुमने मुझे मुक्त किया.
इस तरह
तुमने मुझे प्रेम का अर्थ समझाया.
मैं जहाँ भी था मुझे पता था कि तुम्हारा प्रेम मेरे साथ था,
मेरे साथ-साथ चलता था तुम्हारा साया.
मैं अकेला था, दुनिया से जूझ रहा था, लेकिन तुम्हारा प्रेम मेरे पास था.
तुमने मुझे मुक्त किया,
तुमने मुझे उड़ना सिखाया.

 

15.

कड़क जाड़े में
बंजर भूमि को
हमने खोदा
और उसमें
नागकनी के कुछ बीज बो दिये.
वे उगेंगे या नहीं, हमें नहीं पता था,
न ही हमने सोचा.
यदि उगे तो
उनका हरा-भूरा रंग किसी को अच्छा लगेगा
या उनके काँटे
किसी को चुभेंगे.

 

16.

पेड़ों पर,
छतों पर,
सड़क पर
बर्फ़ पड़ी है.
एक महिला
अपने घर के आगे खड़ी
पक्षियों को दाना डाल रही है.
ईश्वर उन्हें भूल गया है,
पर वह नहीं भूली.

 

17.

एक मत्स्या ने मुझे पानी के भीतर खींच लिया.
आह वह बलशाली थी!!
उसने मुझे भींच लिया.
उसकी देह की सुगन्ध मेरे नथुनों में चढ़ रही थी- उसने मेरे मस्तिष्क को भर दिया,
इस तरह कि वहाँ
न मैं था,
न पानी था,
न मत्स्या थी;
केवल एक देह थी.

 

18.

अपनी ही छाया से मैं डर गया.
मैं भागा.
वह मेरे पीछे नहीं आयी,
वहीं खड़ी रही
उस खण्डहर में.
पर सपने में
वह अब भी आती है
और आकर
मेरे साथ जुड़ जाती है.
सपने में
मैं छिप-छिप कर उस खण्डहर को लौटता हूँ,
दीवार के पीछे से उसे देखता हूँ.

 

19.

स्वप्न में
हम एक नहर के साथ-साथ चल रहे थे.
महिलाएँ कपड़े धो रही थीं, बच्चे नहा रहे थे.
“जीवन का क्या अर्थ है?” मैंने पूछा.
“कोई अर्थ नहीं,” उसने कहा.
फिर हम मुड़ गये, नहर के किनारे वाले बाँध से नीचे उतर गये.
अब हम खेतों में थे. कहीं-कहीं पेड़ थे. पक्षी उड़ रहे थे, चहचहा रहे थे.
दूर एक मध्यकालीन मस्जिद के खण्डहर नज़र आ रहे थे.
“एक अच्छा जीवन कैसे जी सकते हैं हम,” मैंने पूछा.
“दयालु बनो,” उसने कहा.
हम चलते गये.
कुछ देर वह मेरे साथ रहा. फिर तेज़-तेज़ कदमों से आगे निकल गया.

 

20.

अभी बिस्तर से मत निकलो,
दिन में
रात अभी शेष है.
सूरज की तपिश में
ठण्ड दनदना रही है;
चिड़ियाँ चुप हैं;
कदम्ब के पेड़ पर उल्लू और चमगादड़ चिल्ला रहे हैं
जैसे कि यह दिन नहीं, आधी रात हो.
पूरी गली में मुर्दिनी छायी है.
घड़ी पौने-एक का समय दिखा रही है.
पर दिन ने ख़ुद को छोड़ दिया है.
दोपहर को ही रात वापिस आ रही है.

 

कवि और दार्शनिक, रुस्तम (जन्म, अक्तूबर 1955) के सात कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए कविताएँ हैं. हाल ही में उनकी “चुनी हुई कविताएँ” (2021) सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर, से प्रकाशित हुई हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी, इस्टोनी तथा स्पेनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम सिंह नाम से अंग्रेज़ी में भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं. इन में प्रमुख हैं: Violence and Marxism: Marx to Mao (2015) तथा “Weeping” and Other Essays on Being and Writing (2010). इसी नाम से अंग्रेज़ी में उनके पर्चे कई राष्ट्रीय व अन्तर-राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. उन्होंने नॉर्वे के प्रसिद्ध कवियों उलाव हाउगे तथा लार्श अमुन्द वोगे की कविताओं का हिन्दी में पुस्तकाकार अनुवाद किया. ये पुस्तकें सात हवाएँ (2008) तथा शब्द के पीछे छाया है (2014) शीर्षकों से वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, से प्रकाशित हुईं.
रुस्तम, Economic and Political Weekly, Bombay, में सहायक सम्पादक रहे. वे Centre for the Study of Developing Societies, Delhi, तथा Indian Institute of Advanced Study, Shimla, में फेलो तथा Jawaharlal Nehru University, New Delhi, में विज़िटिंग फेलो रहे. वे श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, की अंग्रेजी पत्रिका “Hindi: Language, Discourse, Writing”, के संस्थापक सम्पादक रहे. बाद में वे एकलव्य फाउंडेशन, भोपाल, में सीनियर फेलो तथा वरिष्ठ सम्पादक रहे. 1978 से 1983 के दौरान वे भारतीय सेना में अफ़सर रहे. जब वे कैप्टन थे तो उन्होंने सेना से त्यागपत्र दे दिया.

ईमेल: rustamsingh1@gmail.com

 

Tags: 20222022 कविताएँरुस्तम
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Comments 13

  1. तेजी ग्रोवर says:
    3 years ago

    कभी कभी यकीन नहीं होता मैं हूँ यहाँ, इस स्पेस में, जहाँ ये कविताएँ लिखी जा रही होती हैं।

    इन कविताओं के वुजूद में आने से जो तरंगें उठती हैं, मन्द सा जो ताप और प्रकाश महसूस होने लगता है, उसके बारे में बोलना अजीब लगता है, लेकिन मन करता है उसे कभी बहुत गहन विस्तार से कह पाऊँ।

    Reply
  2. Madhu B Joshi says:
    3 years ago

    Is space mein ve shayad hamesha rahe hain.

    Reply
  3. शिवनारायण गौर says:
    3 years ago

    रुस्‍तमजी की कविताओं में खूब गहराई होती है। उनसे कविताऍं सुनना भी सुखद अनुभव होता है। चूँकि वे भोपाल में रहते हैं इसलिए गाहे बगाहे उनसे गुफ्तगूँ का मौका मिलता है। वे कम बोलते हैं पर उनकी बातचीत भी कविताओं की तरह ही गहरी होती है।

    Reply
    • M P Haridev says:
      3 years ago

      रुस्तम जी की कविताओं तक पहुँचने से पूर्व प्रोफ़ेसर अरुण देव जी की भूमिका से पता चल रहा था कि हवा का रुख़ किस दिशा में बहेगा । रुस्तम जी की कविताएँ अयस्कों को टकसाल में गलाकर नया मूर्त रूप लेने की तरह पाठकों के बीच मूर्त और अमूर्त का भेद मिटा देंगी । 1. Saint Francisco प्रेमपूर्ण थे । नदी के किनारे खड़े हो जाते । मछलियों तक गंध पहुँच जाती । मछलियाँ बेफ़िक्री से अंदर से उछलकर संत से मिलने आतीं । बेख़ौफ़ और निश्चिंत । इस कविता में मैंने इस भावनात्मक लगाव को पहचाना । 2. साध्वी होना आभामंडल की तरह है । अर्मेनियाई वंश के रूपी आविष्कारक और शोधकर्ता किर्लियन ने अपनी अध्यापिका और पत्रकार पत्नी के साथ मिलकर किर्लियन फ़ोटोग्राफ़ी को खोजा और विकास किया था । उस हाई फ़्रीक्वेंसी कैमरे से उन्होंने एक व्यक्ति के हाथ का फ़ोटो खींचा । महाराष्ट्र में फ़ोटो खींचना को फ़ोटो निकालना कहते हैं । जब कैमरे का विकास हो रहा था तब उसका एक हिस्सा काले रंग के कपड़े से ढँका हुआ होता । उसमें से फ़ोटो निकाला जाता था । बहरहाल, हाथ से निकलने वाली ऊष्मा से पता चल सकता था कि उस व्यक्ति की मन: स्थिति क्या होती होगी । दो संभावनाएँ हो सकती थीं । पहली-अव्यवस्थित, अस्त-व्यस्त । दूसरी-लयबद्ध । रुस्तम जी की साध्वी कविता का रूपात्मक भाव ठोसपन लिये होने के बावजूद भी गैसीय अवस्था में है । साध्वी की धरती पर मौजूदगी रुस्तम जी को विचलित कर रही है । साध्वी अविचलित है । साध्वी की आवाजाही ठोसपन और गैसीय अवस्था के बीच झूलती है । मेहदी हसन झूलने की अवस्था को आंदोलन कहते थे । साध्वी अपनी, दुनिया कहें या व्यक्तित्व में कहें, विराजमान है । उसे किसी रुस्तम की ख़बर नहीं है । साध्वी के चहुँओर होने का कारक भारी है । रुस्तम जी के अनुसार साध्वी की देह इच्छा से भरी है और उससे तीव्र गंध फूट रही है । परंतु साध्वी बेख़बर है । रुस्तम साहब कहीं और विचलन कर जाओ । iPhone में आ गयी ख़राबी के कारण ज़िला केंद्र हिसार में एप्पल विक्रय केंद्र पर गया था । पास में ही McDonald’s Eatery Renovate हो रहा था । लेकिन उसके बाहर छपे QR को स्कैन करके पेमेंट देकर अपनी पसंद का खाना मँगाया जा सकता था । और मैंने QR पेमेंट का सिस्टम अख़्तियार नहीं किया हुआ था । एप्पल के मालिक से कहकर दो बार कॉफ़ी पी ली । फ़ोन ठीक करवाने के बाद बाहर निकाला तब McDonald’s की एक सीनियर स्टाफ़ सदस्य बाहर मिल गयीं । उन्होंने मुझे कॉफ़ी पिला दी । इतनी देर में वहाँ के एक मैनेजर मोहित जुनेजा आ गये । उनकी शिफ़्ट का वक़्त हो रहा था । मेरे अज़ीज़ हैं । यह लिखना भूल गया कि मैं गर्म कॉफ़ी पीता हूँ । McDonald’s स्टाफ़ सदस्य मुझसे वाक़िफ़ हैं । हिसार के बाज़ार में भी एक काम था । वहाँ दो घंटे लग गये । दो बार वहाँ कॉफ़ी पी ली । रात पौने नौ बजे घर पहुँचा । टिप्पणी करना साढ़े ग्यारह बजे शुरू किया और अब रात के सवा एक बजे हैं । यानि अगली सुबह में हूँ । अधिक कॉफ़ी पीने से नींद नहीं आ रही । मगर मन-शरीर थक गये हैं । बाक़ी बची हुई कविताओं पर टिप्पणी करने में आनंद नहीं उठा पाऊँगा । यह भी डर है कि इतनी बड़ी टिप्पणी पोस्ट भी हो सकेगी । I do copy and paste it to make my post as toto.

      Reply
  4. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    3 years ago

    रूस्तम की कविताओं की संवेदना और कहन अलग है । वे भीतरी दुनिया की कविताएं हैं ।

    Reply
  5. सुदीप सोहनी says:
    3 years ago

    रुस्तम जी उन कुछ लोगों में हैं जिनके लिखे को पढ़ना अपने आप में कई सारी सीखें हैं। मैं उनकी उपस्थिति से खुद को समृद्ध पाता हूँ।

    Reply
  6. कमलेश वर्मा says:
    3 years ago

    कवि रूस्तम की कविताऐं मानो अन्य दुनिया में ले जाती हैं। एक विस्तृत संसार और कई रास्ते मगर वास्तविकता ये है कि वे हमारे आस पास ही होते हैं और हम बिना टकराए निकल जाते है पर कवि रूस्तम उन्हें जीते है ।उनके पास भावों का अथाह संसार है, अपना चिन्तन है। अद्भुत बिम्ब संयोजन, सरल सहज भाषा से वे अद्भुत रचना संसार रचते हैं ।में इन कविताओं को कई बार पढ़ती हूँ। साधुवाद🙏🙏 कवि रूस्तम को और समालोचन को ।

    Reply
  7. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    चूँकि अर्थ नहीं, भाव संप्रेषण ही कला का आधारभूत सिद्धांत है, इसलिए कविता का संबंध भी भाव से है।कला की तरह कविता भी कभी मौन नहीं होती।दोनों एक दृश्य भाषा हैं। सच तो यह है कि ये हमारे सुनेपन को भरती हैं,वे हमेशा हमसे संवाद करती हैं। इन कविताओ को भी एक भावक की नजर से देखने की जरूरत है।तभी इनसे हमारा एक सार्थक संवाद बन सकता है। कवि एवं समालोचन को साधुवाद !

    Reply
  8. अमिताभ चौधरी says:
    3 years ago

    रुस्तम अपनी तरह के और अपनी संवेदनात्मक धुन के अकेले कवि हैं, जिनकी कविताओं के सरल दृश्यों के भीतर निगूढ़ प्राण इतने सहज हैं कि उनकी विशिष्टता का अन्दाजा नहीं लगता।
    कभी-कभी उनकी संवेदना उस सीमा को छू जाती है जहाँ जड़-चेतन का भेद पीछे छूट जाता है और वह सब प्रेम और करुणा के अधिकारी हो जाते हैं। यह स्थिति उनके वस्तुजगत् के भीतर रागात्मकता की सीमा है। (अर्थात् कवि के वैराग्य को उसकी रागात्मकता का उत्कर्ष समझना चाहिए।) यह सीमा पूर्ण मनोयोग से ही सिद्ध होती है।

    Reply
  9. Vinod Padraj says:
    3 years ago

    इन कविताओं को महसूस करने के लिए आपको प्रचलित तथाकथित मुख्य धारा से परे जाना होगा, ये सामान्य से दिखते दृश्य बंध सामान्य नहीं हैं भीतर गहरी बेकली है और जीव मात्र से एक मेक हो जाने की उदात्तता
    जीवन के गहरे अर्थ तलाशने की धीर गम्भीर कोशिश है इनमें

    Reply
  10. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    चित्र से खींचती कविताएँ। एक नई दुनिया जो दूर कहीं समय के अनंत में हो कर भी हमारे भीतर ही समाई हुई है। एक अलग भावलोक से परिचय कराती जो हमारे भीतर हो कर भी हमारी दृष्टि से ओझल है। प्रस्तुत करने हेतु समालोचन का आभार।

    Reply
  11. M P Haridev says:
    3 years ago

    अर्मेनियाई वंश के रूसी लिखना था । रूपी चला गया । ग़ुस्ताख़ी माफ़ ।

    Reply
  12. उदय प्रकाश सिंह says:
    3 years ago

    मुझे जरा विलम्ब हुआ आपकी इन कविताओं को पढ़ने में… सभी साथियों ने इन रचनाओं की सरलता, सादगी , शब्द विन्यास, प्रयुक्त बिम्बों और उनमें सन्निहित भावप्रवणता की जिसप्रकार से भूरि भूरि प्रशंसा की है , उनमें मेरा नाम भी बेहिचक शामिल करना चाहेंगे । मेरी दृष्टि में यद्यपि कि आपकी सभी कविताएं व्यक्तिनिष्ठ एवं आत्मकेन्द्रित है किंतु वे जिस ढंग से अपने पाठकों के मन को छूती है तत्काल एक सार्वजनिन और सर्वव्यापक प्रभाव छोड़ती है । आपकी सभी रचनाएं अद्भुत स्वप्निल आभा से दीप्त है । शुक्रिया ।

    Reply

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