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Home » सात जुमेरात : ख़ुर्शीद अकरम

सात जुमेरात : ख़ुर्शीद अकरम

ख़ुर्शीद अकरम 'आजकल' उर्दू के संपादक रहे हैं. ‘सात जुमेरात’ कहानी मूल रूप से उर्दू में लिखी गई है और लेखक द्वारा खुद उसका हिंदी रूपांतरण किया गया है. उनकी यह नई कहानी प्रस्तुत है.

by arun dev
August 2, 2024
in कथा
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सात जुमेरात : ख़ुर्शीद अकरम
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सात जुमेरात
ख़ुर्शीद अकरम

 

घाट पर भीड़ थी. भीड़ ऐसी भीड़. सिर्फ इधर नहीं उस पार वाले घाट पर भी उतनी ही भीड़ नज़र आ रही थी. लॉन्च और कश्तियाँ सब भर-भर के आ-जा रही थीं.

लॉन्च पर जाने वाली क़तार बहुत लंबी थी. क़तार भी क्या थी. एक की जगह तीन-तीन चार-चार आदमी खड़े थे. हमसे थोड़ा आगे कुछ औरतें अलग-अलग तरह के बुर्क़ों में थीं. एक बुज़ुर्ग महिला  चादर ओढ़े हुए थीं. ज़ाहिर है कि ये शायद एक ही ख़ानदान के लोग होंगे और कोई मन्नत उतारने जा रहे होंगे. औरतों की भीड़ में एक औरत गोद में एक नवजात बच्चे को लिए हुए थी. ये औरत जवान नहीं लग रही थी. बदन कुछ फैला हुआ सा था. कई बच्चों की माँ लग रही थी, शायद. शायद, मैंने सोचा. अगर ये बच्चा उसी का है तो फिर या तो ये औलाद बड़ी मिन्नतों-मुरादों के बाद, शादी के बहुत साल गुज़र जाने पर पैदा हुई होगी या यह एक के बाद एक कई लड़कियों को जन्म दे चुकी होगी. फिर  उसने लड़के की मन्नत मांगी होगी और वो पूरी हो गई होगी.

उनसे थोड़ा परे एक जवान लड़की को तीन औरतें पकड़े खड़ी थीं. एक उधेड़ उम्र की औरत ने उसको झोंटे से पकड़ रखा था. ये लड़की ज़रूर किसी प्रेत-आत्मा की चपेट में आ गई है. वह उतारने के लिए ही इसको मज़ार पर ले जाया जा रहा होगा.

इतने सारे लोग. हर एक ज़िंदगी की अपनी कोई ऐसी ही कहानी होगी. कोई मुराद मांगने जा रहा होगा, कोई मिन्नत उतारने. बेशतर फ़ैमिली वाले मन्नत के तश्त, टोकरे, चंगेरीयाँ सजा-सजा कर ले जा रहे थे जिनमें हार, फूल, चढ़ावे की चादर, शीरीनी, अगरबत्ती, मोम-बत्ती और जाने क्या-क्या कुछ था.

अतहर न, जो सिर्फ मेरा साथ देने के लिए दरिया पार चलने को तैयार हुआ था, जेटी से दाएं तरफ़ देखकर उकताए हुए लहजे में कहा. ‘डेंगी भी कोई नहीं है, वर्ना उसी से चलते.’ मैं भी उधर देखने लगा. जैसे ही एक किश्ती किनारे आई, पंद्रह बीस लोग, मर्द-औरत-बच्चे उससे उतरे और क़रीब-क़रीब उतने ही धड़ा-धड़ किश्ती पर चढ़ गए.

चार पाँच साल पहले यहाँ लॉन्च चलना शुरू हुआ है. तब से किश्ती पर लोग कम जाते हैं. मल्लाह अब इस घाट से उस घाट सवारी नहीं माल ढो कर गुज़ारा करते हैं. लॉन्च पर बैठो और पाँच मिनट में चट दरिया पार. लेकिन किश्ती पर दरिया पार करने का मज़ा ही और है. और हम लोगों ने ये मज़े ख़ूब लौटे थे. अब सवारियों को ले जाने और लाने के लिए उनके रस्से सिर्फ़ जुमेरात को खुलते थे. किश्तियों में बेशतर फ़ैमिली वाले होते, दरगाह पर जानेवाले. कई बार कोई नौ-बियाहता जोड़ा और कोई छोटा परिवार भी पूरी किश्ती रिजर्व करके उस पार जाता था. लॉन्च इंजन के शोर और डीज़ल के धुएं के मुक़ाबले अब किश्ती एक लग्जरी बन गई थी

लॉन्च आ गई और भरने में ज़रा देर नहीं लगा. हम ऊपर डैक पर जा कर बैठ गए

दरिया के इस हिस्से में दोनों तरफ़ आने और जाने वाली अनगिनत किश्तियाँ चल रही थीं. कई किश्तियाँ औरतों और मर्दों से भरी हुई थीं. जिसने पहले ना देखा हो वो इतने लोगों को एक-एक किश्ती पर सवार देखकर घबरा जाये. मगर ये यहाँ के लिए आम बात थी. और जुमेरात को तो और भी आम बात हो जाती थी.

सय्यदना बाबा के मज़ार पर सात जुमेरात हाज़िरी दे कर सच्चे दिल से जो मुराद मांगी जाती है वो ज़रूर पूरी होती है. इसलिए तो हर जुमेरात को सैकड़ों लोग सुबह से शाम तक किश्ती और लॉन्च पर सवार हो कर जाते हैं.

पिछले सात हफ़्तों से अक़ीदतमंदों के हुजूम का हिस्सा में भी हूँ. आज मेरी हाज़िरी का सातवाँ जुमेरात है. आज तो दिल की मुराद पूरी होगी ही. बाबा सबकी सुनते हैं. सबकी बिगड़ी बनाते हैं. मेरी भी बनाएंगे.

मेरी सारी तदबीर नाकाम हो रही थी. तक़दीर जो बिगड़ी है वह तदबीर के बस में नहीं आ रही थी. मैं अपनी नौकरी के लिए इतना परेशान हो गया हूँ कि इन दिनों मुझे दिन और रात अब किसी चीज़ का ख़्याल नहीं रहता है. जिस सूबी का दिल जीतने के लिए मैंने क्या-क्या ना जतन किए अब उसी से मिलने से कतराता हूँ. जब नौकरी ही नहीं तो…. नौकरी पाने के लिए मैं कितने दिनों से मेहनत कर रहा हूँ. बाज़ार में मिलने वाली बेहतरीन गाइड बुक मेरे पास हैं. मैं पूरी मेहनत कर रहा हूँ और मुझे यक़ीन है कि मैं इतना अच्छा स्कोर कर सकता हूँ कि मुझे नौकरी मिल जानी चाहिए. स्कोर करता भी हूँ, लेकिन हर बार दो-चार नंबर कम पड़ जाते हैं. में 77 फ़ीसद पाता हूँ तो कट-ऑफ 79 हो जाता है, 80 लाता हूँ तो 83 हो जाता है.

‘अबे बेटा! नौकरी सिर्फ़ सलाहियत से नहीं मिलती, क़िस्मत भी होना चाहिए समझा.’ अख़तर ने मेरे कंधे पर हाथ मार कर कहा था. वह मुझसे पहले से नौकरी पाने की कोशिश कर रहा था और मुझसे ज़्यादा मायूस हो रहा था.

‘वाक़ई यार! मैंने उसकी बात में हाँ मिलाई. आधा यक़ीन तो मुझे इस पर पहले भी था, लेकिन बहुत क़रीब पहुंच-पहुंच कर भी जब नाकामी हाथ आने लगी तो मैं ख़ुद भी अब उसी तरह सोचने लगा था.

एक दिन में बैठा अपने ज़ेहन के अंधेरे में हाथ पाँव मार रहा था कि मुझे अचानक सय्यदना बाबा के मज़ार पर हाज़िरी देने का ख़्याल आया, और बस मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी बिगड़ी अब उनकी दुआ से ही सँवर सकती है.

मुझे पक्का यक़ीन था कि मेरी बिगड़ी तो अब सँवरने ही वाली है. मगर मेरे इस बे-दीन-ईमान मित्र का क्या होगा. जानता हूँ कि साल डेढ़ साल की मेहनत के बावजूद अतहर का कारोबार लंगड़ा ही के चल रहा था. यूं समझिए कि वह भी मेरी तरह क़रीब क़रीब बेरोज़गार था. उस के बड़े भाई जो एक कंपनी में काम करते थे,  उन्होंने उसे माल सप्लाई करने के काम पर लगा तो दिया था, लेकिन इससे उस का काम नहीं चल रहा था. ठेकेदारी के लिए बहुत पैसा चाहिए और पैसा उसके पास नहीं था. पेमेंट मिलने में इतने-इतने दिन लग जाते थे कि वह पूरा-पूरा महीना आर्डर नहीं लेता था. मतलब यह कि हाल पतला था. काग़ज़ पर तो एक ट्रेडिंग कंपनी का मालिक था. लेकिन असल में क़रीब-क़रीब ठन-ठन गोपाल.

उसके दाएं हाथ की अंगूठी चमक रही थी, अगरचे अब महीना भर में वैसी नई रह गई थी. मुझे मालूम है, ये क़ीमती पत्थर जुड़ी अंगूठी उसने एक ज्योतिषी के कहने पर पहनी है,  कारोबार में तरक़्क़ी के लिए. पता नहीं ये मज़हब बेज़ार दोस्त, ज्योतिषी के चक्कर में कैसे पड़ गया. पता नहीं उसे इसमें कौन सी साईंस नज़र आ गई.

“अरे यार, कारोबार कैसा चल रहा है? इस पत्थर का कुछ असर हुआ कि नहीं ?”

“क्या कहूं. कुछ अच्छा नहीं चल रहा.” अक्सर ऐसी बातों को ज़िंदा-दिल्ली से बोलने-बताने वाले दोस्त के लहजे में कुछ निराशा थी. “यार आर्डर-स्पलाई तो सब ठीक है, लेकिन पेमेंट नदारद. जब पूछो,  तब कभी बड़ा बाबू नहीं कभी छोटा बाबू नहीं. भय्या नौकरी ही ठीक है. टाइम पर महीना मिल गया बाक़ी दुनिया जाये भाड़ में.”

“कारोबार से आदमी तरक़्क़ी करता है.”

“इसके लिए क़िस्मत भी चाहिए. “

“यार, नौकरी के लिए भी क़िस्मत चाहिए.”

फिर मुझे कुछ याद आया और मैंने अपनी बात पूरी की ”और क़िस्मत का खोट निकालने के लिए ही तो दरगाह जा रहे हैं. तुम भी अपनी मुराद मांग लेना.“

वह कुछ नहीं बोला. मगर उसके चेहरे के तास्सुरात से लग रहा था कि वो मेरी बात से सहमत  नहीं है. हो भी कैसे सकता था. मेरी मूर्खता, कि उससे मिन्नत-मुराद की बात की. डर रहा था कि अब कहीं यह अपना वाला आस्था-विरोधी लैक्चर ना शुरू कर दे. लेकिन ख़ैर, वह चुप ही रहा. शायद इसलिए कि इस वक़्त वो बाबा के अकीदतमंदों में घिरा था. यहाँ  से वहाँ तक दरगाह पर जाने वालों का अज़दहाम जो था.

एक बड़ा सा जहाज़ पानी को तेज़ी से काटता हुआ गुज़रा था, जिसकी तेज़ लहरें दोनों किनारों की तरफ़ बढ़ रही थीं. लहरों में किश्तियाँ डोल गई थीं. लेकिन इन मल्लाहों को मालूम था कि ऐसी तेज़ लहरों से अपनी किश्तियों की हिफ़ाज़त किस तरह करना है. लोग भी कौन सा डर रहे थे. ये तमाम लोग मज़ार पर हाज़िरी देने जा रहे थे, या वहाँ से आ रहे थे. अक़ीदत और ईमान से भरे थे, कि उनकी किश्ती नहीं डूबेगी. किश्तियाँ सब पार उतर रही थीं

दूर दरिया के आख़िरी सिरे पर सूरज बहुत नीचे झुक आया था और पानी का रंग सुनहरा हो गया था. हवा में नरमी थी और लॉन्च की रफ़्तार हमवार, जिसमें पानी के बीच से कटने की आवाज़ भी हल्की-हल्की सी आ रही थी. …कि अचानक एक हल्का सा धचका महसूस हुआ, जैसे गाड़ी में ब्रेक लगने पर महसूस होता है, या जैसे कोई भारी चीज़ लॉन्च के रास्ते में आ गई हो. जितनी देर में कुछ समझ में आता. इनसानी चीख़-ओ-पुकार की आवाज़ सुनाई  देने लगी. एक किश्ती लॉन्च से टकरा गई थी और एक दम से उस के टुकड़े-टुकड़े हो गए थे. दो तीन मल्लाह ख़ौफ़ज़दा से तैर रहे थे. नाव का धनुष आकार  छज्जा टूट कर उलट गया था और अब एक बड़ा सा टोकरा लग रहा था जिसमें एक भयभीत औरत अपने एक चार छा महीने के बच्चे को सँभाले रोए जा रही थी, चीख़े जा रही थी. पानी जो अभी तक धीरे बहता हुआ मालूम हो रहा था उसमें जैसे एक हलचल सी मच गई थी. औरत जिस टोकरा नुमा चीज़ पर बैठी थी वह, किश्ती के तख़्ते,  टिन के डिब्बे, एलमोनियम के छोटे-छोटे बर्तन, फूल, सर-पोश, गमछे, और बहुत सी छोटी-छोटी चीज़ें सब बही जा रही थीं. एक तरफ़ एक मर्द एक बच्चे को एक हाथ से थामे किसी सूरत से हाथ पाँव मार कर सतह पर ख़ुद को बनाए रखने की कोशिश कर रहा था. लॉन्च रुक गया था. इस पर बैठे लोग भी डरे हुए से थे और इस हड़बड़ाहट में कुछ ना कुछ बोले जा रहे थे. एक हैजान था. दरिया का वह हिस्सा चीत्कारों से भर गया था. इन आवाज़ों में एक आवाज़ मेरे इस दोस्त की भी थी और वह किस से क्या कह रहा था, तैराकों से, डूबने वालों से, या माँझियों से, या किसी और से या मुझसे? मुझे नहीं पता. मेरी ज़बान को जैसे लक़वा मार गया था,  मेरा ख़ून जैसे मेरी रगों में ठहर गया था मगर ज़ेहन में ज़बरदस्त हलचल मची हुई थी.

मेरा दिल बैठने लगा. सय्यदना बाबा से मेरी जो अक़ीदत थी वो ऐसे ही डोलने लगी जैसे ज़रा देर पहले जहाज़ के गुज़रने पर तेज़ लहरों में किश्तियाँ डोल रही थीं. मैं दिल ही दिल में दुआ कर रहा था कि किसी तौर पर ये लोग बच जाएं. मेरी आस्था किश्ती के टुकड़ों की तरह बहती लग रही थी.

मैं सोचने लगा था कि अगर ये आज मज़ार पर ना आए होते तो यूं जान जोखिम में तो ना पड़ती. मैं किसी हारे हुए वकील की तरह सोच रहा था कि मेरा दोस्त अभी मुझे इस बात के ताने देगा कि देख, बाबा को ख़ुश करके जानेवाले, ज़िंदगी और मौत के दरमियान किस तरह फंस गए हैं. कैसे ये मुसीबत में पड़ गए हैं. अगर ये डूब गए तो… इनमें से कोई एक भी डूब गया तो…?  बाक़ी ज़िंदगी-भर इस बाबा को, इस मज़ार को क्या कहेंगे. उनकी अक़ीदत किसी जज़बे में बदल जाएगी. वे इसे केवल क़िस्मत का लिखा मानेंगे या इस बात पर अफ़सोस करते रहेंगे कि अगर वे मज़ार पर ना गए होते तो, वह जो डूब गया,  डूबा ना होता. और अगर सारे बच भी गए तब भी एक दहशत अब हमेशा उनके दिलों में क़ायम रहेगी और वे शायद कभी इस मज़ार पर ना आएंगे या शायद किसी भी मज़ार पर कभी ना जाएंगे.

लॉन्च पर से एक के बाद एक तीन चार तैराक पानी में कूदे. उनके हाथ में डूबने से बचाव के लिए ट्यूब थे. जितनी देर में वे कूदें, पानी के बहाओ से औरत और बच्चा जो उस टोकरे नुमा चीज़ पर बैठी थी, वह दूर होती जा रही थी, और उसके साथ औरत की डरी-डरी चीख़ भी बढ़ रही थी. एक तैराक जैसे अपनी पूरी ताकत लगा कर तेज़-तेज़ तैरते हुए औरत के टोकरे तक पहुंच गया, और अब उसे खींच कर लॉन्च की तरफ़ ला रहा था. एक तैराक उस मर्द की तरफ़ पहुंच गया था जो एक हाथ में एक दो-तीन  साल के बच्ची को सँभाले किसी तरह अपने आप को डूबने और बहने से बचा रहा था. रक्षक तैराक ने बच्चे को सँभाल लिया था और आदमी को, जो अब भी बहुत डरा और बहुत थका हुआ लग रहा था, टयूब थमाया जिसे पहन कर तैरना अब उसके लिए कुछ आसान हो गया था. यह गोया एक छोटी सी फ़ैमिली थी जो सय्यदना बाबा की दरगाह से हाज़िरी देकर या शायद अपनी मिन्नत उतार कर वापिस इस किश्ती पर सवार ख़ुश-खुश वापिस अपने घर को लौट रही थी.

उन्हें ऊपर खींचने के लिए टायर और ट्यूब पानी में फेंक दिए गए थे, मल्लाह भी एक-एक करके लॉन्च के किनारे आकर रस्से थाम चुके थे. कुछ तैराक मियाँ बीवी के झोले वग़ैरह खींच कर ला रहे थे. फ़िक्र और चिंता  की जगह सारे लोगों के चेहरों पर खुशी लौट रही थी. अतहर उधर देखने में मगन था,जिधर से मुझे उस का चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था. और मुझे मालूम नहीं कि क्या तास्सुर था. वह क्या कहेगा, मैं क्या कहूँगा? और मेरे ख़यालों की इसी कशमकश के बीच, जब मर्द और औरत और बच्चे पानी से लॉन्च पर उठा लिए गए थे,  दोस्त मेरी तरफ़ मुड़ा. उस का चेहरा ख़ुशी से चमक रहा था. उस की आँखों ने जैसे किसी होनी को अनहोनी में बदलते देख लिया था.

फिर उसने अपना मुँह खोला और आनंदित स्वर में हाथ लहरा कर बोला “बताओ, अब इनका यक़ीन बाबा पर पक्का होगा कि नहीं.“

मैं उसको देख रहा था. अविश्वास से. शायद हवन्नक़ की तरह.

ख़ुर्शीद अकरम
मूल रूप से उर्दू में लिखते हैं.दो कहानी संग्रह, कविता और आलोचना के एक-एक संग्रह और अनुवाद सहित लगभग दस किताबें प्रकाशित.कविता और आलोचना की तीन किताबें शीघ्र प्रकाश्य. कई कहानियां उर्दू, अंग्रेज़ी और दीगर ज़बानों के एंथोलॉजी में शामिल हैं.
आजकल (उर्दू) के संपादक रहें हैं.                    

संपर्क:
52 B, पॉकेट-ए, सुखदेव विहार डी. डी. ए. फ्लैट्स, नई दिल्ली- 110025
akramkhurshid1@gmail.com 

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Comments 8

  1. ललन चतुर्वेदी says:
    10 months ago

    कहानी पढ़ी। यह हर समय के लिए प्रासंगिक है। यह विषय ही ऐसा है कि इस पर विस्तार से बहस करने के बावजूद किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचा नहीं जा सकता।कुशल कथाकार ने यथार्थ को प्रस्तुत कर दिया है। पाठक अपने-अपने हिसाब से निष्कर्ष निकाल सकते है। कहानीकार का काम भी तो यही है। कहानी में दार्शनिक निष्कर्ष देना वांछित भी नहीं है।

    Reply
  2. सच्चिदानंद सिंह says:
    10 months ago

    बहुत धन्यवाद, कहानी बहुत अच्छी लगी.

    अनुवाद कुछ कठिन लगा. अनेक शब्दों के अर्थ मैं नहीं जानता था. शब्दकोशों में देखा: सूबी, सलाहियत, मज़हब बेज़ार, तास्सुर / तास्सुरात, अज़दहाम, हमवार, हैजान, हवन्नक़. सूबी और अज़दहाम के अर्थ कहीं नहीं मिले.

    उर्दू कहानियों (चाहे अफ़साने कहिये) में रुचि है; उर्दू ऐस्थेटिक्स के प्रति जिज्ञासा भी. कई उर्दू कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद पढ़ने को मिले हैं. हर बार यही सोचता था हिंदी अनुवाद क्यों नहीं मिलते. बहुत धन्यवाद.

    Reply
    • जसवन्त सिंह says:
      10 months ago

      कहानी वैचारिक विभाजन को पुष्ट, आस्था को गहरा और वैज्ञानिकता को दृढ़ भी करती है । कहानी के आरंभ में दृष्टव्य है कि गरज़ में मनुष्य ऐसे कृत्य करने हेतु भी विवश हो जाता है , जिनमे उसका तनिक भी विश्वास नही होता । कहानीकार द्वारा मिथकों को खंडित करने हेतु सराहनीय प्रयास किया गया है ।

      Reply
  3. डॉ. रिज़वान says:
    10 months ago

    बहुत अच्छी कहानी है, विश्वास, यकीन और मेहनत के दरमियान कशमकश बहुत अच्छी है। जिस तरह हम मजहब और अंध विश्वास में हम फंसते जा रहे हैं, उस पर गहरा तंज है।

    Reply
  4. नरेश गोस्वामी says:
    10 months ago

    यह एक ऐसी कहानी है जो एक बार में पढ़/समझ लिए जाने (वन-टच) का भ्रम पैदा करती है। लेकिन, असल में यह आस्था और मनुष्य की एजेंसी के स्थायी तनाव की बेहद सुडौल और सुगठित कहानी है जिसमें शायद एक भी शब्द ज़ाया नहीं होता।
    इसमें यह बात भी ग़ौरतलब है कि कहानीकार अनावश्यक विस्तार— फैलाव के फ़ितूर को लेकर मुस्तैद रहा है। मुझे लगता है कि अगर इसमें घटना का एक भी धागा और जुड़ जाता तो कहानी कमज़ोर पड़ जाती। यानि नाप-तौल और संतुलन के लिहाज़ से भी यह एक ज़बर्दस्त कहानी है।

    Reply
  5. Khudeja khan says:
    10 months ago

    ‘सात जुमेरात ‘मन्नत,मुराद, विश्वास,अंध विश्वास से घिरा मनुष्य अपनी जिजीविषा के लिए क्या – क्या जतन नहीं करता। निराश व्यक्ति इसी तरह बाबाओं और दरगाहों की शरण में जाता है। वांछित इच्छा पूरी हो गई तो बाबा की जय- जय अन्यथा कश्ती डूबने से लेकर सड़क दुघर्टना तक कुछ भी हो सकता है।
    सब आस्था का खेल है। क्या सही,क्या ग़लत इससे परे ये खेला चलता रहेगा।
    फिर भी कहानी एक प्रश्न चिन्ह तो छोड़ जाती ही है ।
    अच्छी कहानी।

    Reply
  6. Dinesh Shrinet says:
    10 months ago

    कसी हुई कहानी, शायद पश्चिम बंगाल के परिवेश में मुस्लिम समाज का चित्रण है, जो हिंदी में कम ही पढ़ने को मिलता है। इसका अंत हमें पुरानी क्लासिक कहानियों की याद दिला देता है। स्पष्ट, संक्षिप्त मगर बहुअर्थी।

    Reply
  7. रोहिणी अग्रवाल says:
    10 months ago

    जिंदगी को सांस-सांस उकेरती कहानी। निश्छलता की हद तक सरल, प्रवाहपूर्ण और यथार्थ की परतों में गहरे धंसी।
    बहुत सरल या इकहरा नहीं होता मनुष्य का जीवन। आशा-और निराशा, संघर्ष और समर्पण, आस्था और संशय के बीच वह आजीवन तैरता रहता है। तय करके किसी एक निश्चय पर पहुंचने का माद्दा नहीं उसमें। गहन हताशा घनघोर आस्था बन कर आती है कि संकटों में घिर कर सांस भर ले सके। ऐसे में चमत्कार क्रिएट करना और उन पर विश्वास करना उसे जीने की ताकत देता है, वरना जानता वह भी है कि नौका उलटने पर बचाव कार्य ईश्वर ने नहीं, मनुष्य ने ही किया है। वह मनुष्य है, इसलिए अपने को ‘बचाए रखने‘ के लिए ईश्वर को रचता भी है, पूजता भी है और नकारता भी है। कहानी मानो मुझे मनुष्य के अंतस् में निरंतर आंदोलित इस तूफान का दीदार कराती है।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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