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समालोचन

Home » संयोगवश: विनय कुमार

संयोगवश: विनय कुमार

‘संयोगवश’ आशुतोष दुबे का छठा कविता संग्रह है जिसे राजकमल ने प्रकाशित किया है. उनकी कुछ कविताओं के भारतीय और विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुए हैं. कविता के लिए उन्हें रज़ा पुरस्कार, केदार सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार, स्पंदन कृति सम्मान आदि मिल चुके हैं. इस संग्रह की भूमिका में वह लिखते हैं- “कवि होना चयन से अधिक एक विवशता है.” आशुतोष दुबे की कविताओं का अंतर-लोक इसका साक्ष्य है. कहन की सूक्ष्मता और सृजन के अनुशासन ने उनकी कविताओं को एक आह्लादक पाठ में बदल दिया है. उनके इस संग्रह की चर्चा कर रहे हैं कवि विनय कुमार.

by arun dev
March 18, 2024
in समीक्षा
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संयोगवश: विनय कुमार
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‘संयोगवश’ में कुछ भी संयोगवश नहीं
विनय कुमार

‘संयोगवश’ आशुतोष दुबे का नया कविता संकलन है. नाम भले इसका ‘संयोगवश’ है मगर इसमें कुछ भी संयोगवश नहीं. जीवन और जगत के दृश्य-अदृश्य व्यापार के भीतर की सूक्ष्म और अनायास चलती गतिविधियों तक पहुँचना और उन्हें मानीखेज़ बिम्ब की तरह चुनना संयोगवश नहीं हो सकता. यह उस दृष्टि की सिफ़त है जो आप में होती है या नहीं होती है. बात सिर्फ़ होने की नहीं, साधने की भी है. मटमैले पानी के भीतर तैरती मछली की आँख में अनिद्रा के निशान तक पहुँचना सिर्फ़ स्वभाव और तकनीक के बूते नहीं हो सकता. इसके लिए एक ऐसी तरल तन्मयता चाहिए जो कवि के आत्म से रिसकर जगत के रूटीन के निहितार्थों और वस्तुओं की संभावित चेतना तक जा सके.

यह काम उल्लू सीधा करने वाले महानुभाव नहीं कर सकते क्योंकि बात साधने की नहीं, साधना की है. यह कवि आशुतोष दुबे की साधना का ही कमाल है कि वे वस्तुओं और गतिविधियों के बीच हवा की बनी चिड़िया की तरह प्रवेश करते हैं और एक एक भंगिमा, एक बात या एक निहितार्थ चोंच में दबाकर निकल आते हैं. चाहे वो कुत्ते की नींद का सच हो या जूतों के भीतर के अँधेरे का. आशुतोष की कविताओं में ऐसे सारे सच एक अर्थ-गर्भित बिम्ब बनकर आते हैं और मनुष्य और उसकी सभ्यता सुखद-दुखद सच से हमारा साक्षात्कार कराते हैं.

आशुतोष की काव्य -प्रविधि में एक तटस्थ क़िस्म की समानुभूति है. यह तटस्थता आसान नहीं, और समानुभूति के साथ तो बेहद कठिन. आप तरल और तटस्थ दोनों एक साथ नहीं हो सकते. तरलता और समानुभूति का होना तो कवि के लिए अनिवार्य है मगर तटस्थता? क्या यह भी ज़रूरी है? इसका उत्तर आसान नहीं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किन से मुख़ातिब हैं और अपनी काव्य यात्रा से क्या चाहते हैं. दिनकर और फ़ैज़ की ताक़त उनकी तरलता और संलग्नता में है. वे तटस्थ होकर अपनी बात नहीं कह सकते थे. उनका समय भी अलग था. वे जब लिख रहे थे तब कई तरह के राजनीतिक विचार देह धरे घूम रहे थे और भावनाएँ उनकी जान बनी हुई थीं. मगर इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करना और जीना बीसवीं सदी में होने और बोलने से पूरी तरह जुदा है. यह चीज़ों के आधिपत्य का समय है. मनुष्य भी संसाधन की संज्ञा पा चुके हैं और किसी कमोडिटी की तरह ब्रांड बनने को बेताब हैं.

चीज़ों की वाचालता हमें न सिर्फ़ अपने प्रलाप सुनने को बाध्य किए जा रही बल्कि ‘चीज़त्व’ की सिद्धि के लिए ठेले भी जा रही. समय धन है, यह तो हम पिछली सदियों से ही सीखकर आये थे, मगर सारी ‘बातें’ वस्तुओं तक जाने के लिए ही होती हैं यह इस सदी की सीख है. ऐसे में वस्तुओं को बात में बदलना कितना अहम है, समझा जा सकता है.

आशुतोष अपनी कविताओं में इसे बख़ूबी कर रहे, और यह बात उन्हें औरों से अलग करती है. उनकी समानुभूति बेहद तरल है मगर उसमें पारे जैसी तटस्थता भी है. वे हमें वस्तुओं और क्रियाओं के चेतन स्तर तक तो ले जाते हैं मगर उनके संवाद और शोर ख़ुद नहीं सुनाते, अपनी यात्रा में पाठकों के उस ‘स्टेट’ में पहुँचा भर देते हैं कि वे भी कवि की तरह चीज़ों की बतकही और उनके पहाड़ से फूटते झरने का संगीत सुन सकें. उन्हें पढ़ते हुए मुझे एमिली डिकिंसन की याद आती है. एमिली को पढ़ते हुए आप उसके शब्दों को नहीं, उस अनुभव को पढ़ रहे होते हैं जिसने कवि को साझा करने को विवश किया है. पढ़ चुकने के बाद एमिली का अनुभव आपके अपने अनुभव में रूपांतरित होकर स्वकीय हो जाता है. एमिली की एक कविता साझा कर रहा हूँ-

‘सुबह’ क्या सचमुच होगी?
‘दिन’ जैसी कोई वस्तु होती है क्या?
क्या मैं उसे पहाड़ों से देख पाती
यदि मैं उन्हीं की तरह ऊँची होती?

क्या उसके कुमुदिनी की तरह पैर हैं?
क्या उसके पंछी की तरह पर हैं?
क्या वह उन प्रसिद्ध देशों से आयात होती है
मैंने जिनके बारे में कभी नहीं सुना?

अरे कोई विद्वान! अरे कोई नाविक!
अरे कोई जादूगर आकाश का !
छोटे-से इस तीर्थयात्री को बताएगा
वह जगह जिसे ‘सुबह’ कहते हैं, कहाँ होती है !
(अनुवाद – क्रांति कनाटे, साभार : कविता कोश )

कविता ख़त्म होते-होते एमिली ग़ायब हो जाती है और पाठक को अपने कंठ-स्वर की प्रतिध्वनि सुनाई देती है-

छोटे-से इस तीर्थयात्री को बताएगा
वह जगह जिसे ‘सुबह’ कहते हैं, कहाँ होती है !

आशुतोष दुबे को पढ़ते हुए मुझे बिलकुल वैसा ही प्रतीत होता है. इस संदर्भ में इनकी एक कविता देखी जा सकती है-

आख़िरी बात हमेशा रह जाती है और समय हो जाता है
कोई उठता है और चल देता है
हम उधर देखते रहते हैं
जहाँ पर्दा अभी तक हिल रहा है

क्या संयोग है कि इस कविता का शीर्षक भी इसकी पहली पंक्ति है, जैसा कि एमिली की शीर्षकहीन कविताओं के बारे में माना जाता है. एक और कविता दृष्टव्य है, शीर्षक है- ‘रहेगा’

उनमें से एक जाएगा पहले
और दूसरा रहेगा

रहते हुए नहीं
जाते हुए रहेगा

याद में जाते हुए साथ में रहेगा
अपने चारों तरफ़ घिर आए अकेलेपन में रहेगा

उसके जाने को देख चुकने के बाद
अपने जाने को देखने में रहेगा

जा चुकने के बाद के रहने में रहेगा!

यह कविता मृत्यु-खंडित दाम्पत्य के बाद बच गए व्यक्ति के जीवन के बारे में है. कवि कितनी तरलता और कैसी समानुभूति से एकाकी जीवन की अंतरंग पड़ताल करता करता है, मगर कैसी तटस्थता है यहाँ कि कवि का घरेलू अनुभव बिना किसी इमोशनल ओवरलोड के पाठक के अलक्षित अनुभवों से तादात्म्य बिठा लेता है.

जब से मेरी क़लम ने होश सम्भाला है हिन्दी कविता का अधिकांश रेल की पटरियों और पक्की सड़कों पर नामित ट्रेन या बस की तरह दौड़ता दिखा है. ये लौह और कंक्रीट मार्ग विमर्शों ने बनाए हैं. बहुत कम कवि हैं जो नंगे पैर चलकर पगडंडियाँ बनाते हैं. ऐसे कवि नामित ट्रेनों और बसों की तरह किसी यार्ड में या अड्डे पर पार्क नहीं हो पाते. इनके इश्तहार अन्य बसों और ट्रेनों पर चस्पाँ नहीं होते. चूँकि ये राजनीतिक विचारों और वक्तव्यों को अपना कच्चा माल और पाथेय बनाए बग़ैर अपनी पगडंडियाँ बनाते रहते हैं इसलिए अड्डेदारों की चर्चाओं में भी प्रवेश नहीं पाते. यूँ तो कविता अनकहे को कहने की ही संज्ञा है, मगर उत्सव तो कहे को कहने का ही दिखता है. ऐसे समय में आशुतोष दुबे को इस बात के लिए रेखांकित किया जाना चाहिए कि वे जगत-व्यापार के अंधड़ में बिना चश्मा घूमते हैं और सर्वथा अलक्षित पलों को चीन्हते और व्यक्त करते हैं. शायद यही वजह है कि वे संभव की जगह ‘असंभव सारांश’ के कवि हैं और उनकी कविताओं की मार्मिकता अलग तरह से मारक है.

बंद घड़ियाँ एक बदले हुए समय को
अपनी ठंडी आँखों से देखती हैं
सिर्फ़ दो बार उनके काँटों में अदृश्य सी लरजिश होती है
जब सही समय घड़ी का दरवाज़ा खटखटाता है
वरना उन्हें तो पता ही है
कि उनका समय आ गया है

तस्वीरों में दिखनेवाले सुख की उम्र
सुख से बहुत ज़्यादा है !

आशुतोष की तटस्थ तरलता का सबसे उपयोगी साइड इफ़ेक्ट तो यह है कि उनकी कविताओं में शब्द कम हैं और स्पेस अधिक. मैंने कभी उनकी ‘मृत्यु’ शीर्षक कविता में विन्यस्त स्पेस पर एक जगह लिखा था. वह कविता इस संकलन में “अंतिम मृत्यु” शीर्षक के साथ है. कविता पढ़ेंगे तो आप भी कहेंगे कि यह यक़ीनन बेहतर शीर्षक है. यह एक छोटी सी कविता है जो देश में अकेली छूट गई माँ और मुम्बई में हुई उसकी उपेक्षित-अलक्षित मृत्यु की विडम्बना सामने लाती है.

उसका फोन मर गया
उसके दरवाज़े की घंटी मर गई
उसके आसपास की तमाम आवाज़ें मर गईं
मर गई घड़ी की टिकटिक
उसी के साथ
उसका इंतज़ार मर गया
अपने चारों तरफ़ मौत से घिरी
वह तो बिल्कुल आखिर में मरी

पर जिन्हें बहुत बाद में इसका पता चला
उन्हें इस सब का कुछ पता नहीं है

इस छोटी सी कविता में शब्द भले गिनती के हों मगर आकाश कितना बड़ा. कितनी मौतें हैं यहाँ. और सब की सब बेहद मानीख़ेज़. यहाँ हर मौत का एक समाजशास्त्रीय आयाम है. शरीर का मरना तो बस एक जैविक रस्म भर है, और त्रासदी यह कि जिसे पहले की तमाम मौतों के बारे में जानना चाहिए था वह सिर्फ़ आख़िरी मौत के बारे में जान पाता है. इस जानने और न जानने के बीच कितना कुछ है जिसकी तरफ़ कविता इशारा करती है. इस तरह का स्पेस बनाने के लिए जिस संयम की आवश्यकता होती है वह सब में नहीं होती, पर आशुतोष में है. इस संग्रह की एक और छोटी-सी कविता देखी जा सकती है-

एक स्त्री की नींद के
बहुतेरे दुश्मन हैं
अलार्म की जगह
उनमें सबसे नीचे है

इतना अधिक स्पेस यह भ्रम पैदा कर सकता है कि यह एक ऑब्जरवेशन या प्लेन स्टेटमेंट है, मगर सोचने पर पता चलता है कि इस छोटी सी कविता को बीज वक्तव्य मान एक पूरे दिन की गोष्ठी हो सकती है. तात्पर्य यह कि आशुतोष की कविताएँ आशुतोष नहीं. सब कुछ प्रकट मगर फिर भी बहुत कुछ प्रच्छन्न. वे हमसे पुनर्पाठ की माँग करती हैं क्योंकि वे ऐसे कवि हैं जो कई बार सिर्फ़ दो पंक्तियों के सहारे एक बड़ा शामियाना तान देते हैं.

एक अरसे से अपने यहाँ प्रतिरोध को कविता का अनिवार्य घटक मानने का आग्रह है. अगर आपका प्रतिरोध झंडा बनकर न लहराए तो वह प्रतिरोध नहीं, और प्रखर-मुखर प्रतिरोध नहीं, तो कविता नहीं. ग़ौरतलब है कि जब राजनीति अपने वर्चस्व के लिए प्रकट और प्रच्छन्न दोनों प्रविधियाँ आज़माती हैं तो फिर कविता से यह अपेक्षा क्यों कि वह प्रकट के मार्ग पर चले. सनद रहे कि प्रकट का संवाद चेतन से होता है और प्रच्छन्न का अचेतन से. चेतन से संवाद फ़ौरी असर भले डाले मगर मनुष्य को बदलने का काम नहीं कर सकता. कोई अशोक तभी बदलता है जब कलिंग का समाप्त हो गया जीवन-संगीत उसके अचेतन के तहख़ाने में प्रेत बनकर जा बसता है. उसकी आँखों से प्रायश्चित्त के आँसू तभी निकलते हैं जब किसी घायल की चीख़ उसके अपने घाव में जा घुसती है. प्रतिरोध की आवाज़ की भूमिका है, मगर प्रतिरोध की परम्परा का सातत्य तो मनुष्य को बदलने की कोशिशों से ही सम्भव है, और कविता यह काम पाठक के अचेतन में हलचल मचाकर करती है. श्रीकान्त वर्मा की ‘रोहिताश्व’ शीर्षक कविता कि पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

जिसका रोहिताश्व मारा गया हो,
क्या तुम उसे विश्वास दिला सकते हो
कि तुम रोहिताश्व नहीं हो?

श्रीकान्त वर्मा की इनकी पंक्तियों में जो करुणा है वह कोई सामान्य सी करुणा नहीं, मर्म चीरकर रख देती है. पहली बार जब यह कविता पढ़ी थी रात जागरण और दु:स्वप्न में कटी थी, और कई सप्ताह तक मगध को छूने की हिम्मत नहीं हुई थी. लेकिन जब दुबारा उठायी तो सबसे पहले यही कविता, और इस बार ध्यान ‘रोहिताश्व मारा गया हो’ पर टिका. अब मेरे लिए करुणा की कविता नहीं थी यह. एक पुकार थी- हिंसा के विरुद्ध. सत्य पर टिके किसी व्यक्ति के (अत्याचार-जनित) शोक में शामिल होने का की चुनौती की कविता थी यह. प्रतिरोध की कविता यूँ भी लिखी जाती है. ‘संयोगवश’ में भी प्रतिरोध की कुछ कविताएँ हैं, मगर यहाँ प्रतिरोध की भाषा राजनीतिक नहीं. इन कविताओं में आशुतोष विडम्बनाओं की शिनाख़्त करते हुए कवि और पाठक के अचेतन के बीच एक संवाद-सेतु अवश्य बनाते हैं. पुरा-कथाओं के राजनीतिक उपयोग-दुरुपयोग से भरे इस समय में यह शिक्षा कि ‘कथा में जो वस्तु है वह ऐयार है’ या

वह कथा है
तुम्हारी ख़रीदी हुई बाँदी नहीं
उसे तुम्हारे सुनते-सुनते बदल जाना है

सिर्फ़ प्रतिरोध ही नहीं रचती, धूप से जलती आँखों के आगे मेघ भी परोसती है.  एक इसी मूड की मारक कविता की पंक्तियाँ हैं –

विजेताओं की विनम्रता
एक सुंदर दृश्य बनाती है
विजय में विनय
जैसे कुछ भला-भला सा अजूबा

प्रतिरोध का एक पक्ष उद्बोधन भी है और उद्बोधन इतना कमसुख़न और धीमा हो सकता है, यह देखने वाली बात है. जो भी हो, इसमें क्या संदेह कि दुविधा की विडम्बना उकेरती यह कविता बोलने को विवश करती है.

भूमिका में आशुतोष लिखते हैं-

“दुखों को हम कितनी सरलता से लिख लेते हैं… सुख को कहना हमें अचकचा देता है.”

लेकिन ‘संयोगवश’ के कवि की आसानी हर कवि की आसानी नहीं, ख़ासकर तब जब ‘अफ़वाह में सच की छाया, धुएँ में आग की सूचना और सिसकी में दुःख’ का पता ढूँढना हो. जो कवि ‘न्यूनतम के सुनसान में समूची कथा’ कहने का आग्रही हो उसकी आसानी एक दुष्कर आसानी है. इस संग्रह में जो मानवीय दुखों की मार्मिक उपस्थिति है, वह इसलिए है कि कवि उजालों की शक्ति और सीमा से परिचित है. उसे पता है कि उजाले आते हैं फिर भी अँधेरे भीतरी संदूक में टिके रहते हैं और वह उन अँधेरों की कथा और उनके निहितार्थ को न्यूनतम के सुनसान में कहता चला जाता है-

खिलने की भाषा में भी
उदास हो सकते हैं फूल

या
उसे जाने दो जो जा रहा है
अपने मन में वो पहले ही जा चुका है
और अब सिर्फ़ दरवाज़े से बाहर जा रहा है

ये पंक्तियाँ गवाह हैं कि आशुतोष मितकथन के तिनकों के सहारे हमें उन जल-क्षेत्रों में पहुँचा देते हैं जहाँ कभी स्नायु को सुन्न करती नमकीन बर्फ़ छू जाती है तो कभी मार्मिकता का भँवर अपनी गिरफ़्त में ले लेता है. लाभ और लोभ के दर्शन के ओवरडोज़ के समय में ऐसे तिनके कितने दुर्लभ और कितने पुर-शिफ़ा हैं, समझा जा सकता है.

जीवन के पानियों की अ-निवार रसाई को रेखांकित करती ये पंक्तियाँ इस संग्रह के मूड के बारे में भी एक वक्तव्य हैं. उदासियों के झेलने या उदास आत्माओं से मिलने की अनिवार्यताओं यह अर्थ नहीं कि जीवन एक त्रासदी है. वह कु. अनीता ताम्हणे का ‘वसंत’ भी है और तिगुन में बजता ‘चुम्बन राग” भी.-

कामना का पहला चुम्बन
दरवाज़े पर दस्तक की तरह है
दरमियानी तमाम चुम्बन
देह के बुख़ार के तापमान हैं
ज्वार के बाद का चुम्बन
दरअसल प्रेम का चुम्बन है
और पूर्णविराम के विरुद्ध है

रचनात्मक क्षमता-विकास की पाठशाला में विवरण का सधाव एक अनिवार्य पाठ है. कथाकारों के यहाँ इस हुनर के नमूने ख़ूब देखने को मिलते हैं, मगर बहुत कम कवि किसी दृश्य को हू ब हू चित्रित कर पाते हैं. आशुतोष इस कला के ‘मास्टर’ हैं. उनके सधे हुए कलात्मक विवरण और उसके मानीखेज़ मोड़ विस्मित कर देते हैं –

अधखुले दरवाज़े में फँसा है
भीतर का एक टुकड़ा दृश्य
यह एक घर का दृश्य है
इसमें जीवन की बेतरतीबी छितरी हुई है

आख़िरी बात भाषा के बारे में. जो आशुतोष को जानते हैं उन्हें अच्छी तरह पता है कि वे भाषा के हर रूप और हर स्तर पर खेल सकते हैं, मगर कविता में उनकी सहजता देखते बनती है. उनकी किसी कविता को समझने के लिए के लिए शब्दकोश की ज़रूरत नहीं पड़ती. ऐसा नहीं कि जो शब्दकोश उलटवा देते हैं वे कमतर या अहंकारी कवि हैं या आशुतोष की सरलता कोई दिखावा है. दरअसल, छंद और भाषा का संबंध कथ्य से है. चूँकि आशुतोष अपनी कविताएँ जीवन और जगत के दैनन्दिन से आसवित करते हैं इसलिए उन्हें उन शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती जो शब्दकोश के बाहर तभी आते हैं जब कथ्य उनका आह्वान करता है. इसका यह अर्थ नहीं कि आशुतोष जीवन के जटिल प्रसंगों से बचते हैं. उनकी काव्य-यात्रा गवाह है कि अमूमन वे जटिल प्रसंग ही चुनते हैं, मगर जब भाषा में उतारते हैं तो जटिलता के गुंजल को नहीं, उसमें फँसी बात को चुनते हैं.
__
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.  

विनय कुमार मनोचिकित्सक हैं. पटना में रहते  हैं. छह कविता संग्रहों के साथ मनोचिकित्सा पर हिंदी और अंग्रेजी में उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं. इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी के उच्च पदों पर रहें हैं. इस मेल से उनसे सम्पर्क किया जा सकता है- dr.vinaykr@gmail.com

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Comments 9

  1. विनोद कुमार श्रीवास्तव says:
    1 year ago

    पूरा लेख पढ़ा।विनय कुमार जी एक अच्छे मनोवैज्ञानिक हैं और एक मनोवैज्ञानिक का कविता-समीक्षक होना: यह साधना के साथ ही साथ ‘संयोग’ अवश्य लगा।

    आशुतोष जी अच्छे कवि हैं और एक अच्छा आलोचक एक अच्छे कवि को ढूंढ ही लेता है। यह संयोग नहीं प्रयत्नसाध्य धर्म है।

    कवि और समालोचक दोनों को बहुत-बहुत बधाई।

    Reply
  2. शचीन्द्र आर्य says:
    1 year ago

    संयोगवश की भूमिका इधर के कविता संग्रहों में सबसे शानदार है। उसे बार बार पढ़ना चाहिए।

    Reply
  3. शहंशाह आलम says:
    1 year ago

    अनुसंधान पूर्वक लिखी गई समीक्षा।

    Reply
  4. बाबुषा कोहली says:
    1 year ago

    आशुतोष सर की कविताओं पर बहुत समय से मुझे कुछ कहने का, कुछ लिखने का मन है। लेकिन विनय कुमार जी ने जिस सूक्ष्मता से इन कविताओं को पकड़ा है, वह चिमटी मेरे पास नहीं है। मेरे पास कुछ है तो केवल इन कविताओं के जीवन-बोध और मार्मिकता पर कुछ क्षणों के लिए चुप छूट जाने की कई-कई अनुभूतियों का संग्रह। शायद कभी लिख पाऊँ, कह नहीं सकती। मगर विनय कुमार जी ने ‘चीज़त्व की सिद्धि’ जैसी वृत्तियों की ओर इशारा करते हुए जिस तरह से आशुतोष सर की ‘तटस्थ तरलता’ को रेखांकित किया है, वह क़ाबिले-ग़ौर और क़ाबिले-दाद है।

    Reply
  5. Anuradha Singh says:
    1 year ago

    बहुत अच्छी समीक्षा की है विनय कुमार जी ने। यूं तो ऐसी सुंदर कविताओं का लिख लिया जाना भी पर्याप्त है तथापि जिसके पास उन्हें पढ़ने की दृष्टि और समीक्षा की सामर्थ्य है उनके शब्दों में पढ़ना, उन्हें पढ़ने के सुख को दोगुना करना है।

    Reply
  6. Teji Grover says:
    1 year ago

    विनय जी ने यह आलेख इतनी तन्मयता और शिद्दत से लिखा है कि यह पाठ एक समानांतर टेक्स्ट बन पड़ा है।
    सँग्रह मेले से मेरे साथ आया था लेकिन आंखों की तकलीफ के कारण पूरा नहीं पढ़ पायी।
    इस आलेख को भी टुकड़ों में पढ़कर ख़त्म किया है।।
    एमिली वाले प्रसंग दोबारा पढूँगी। क्योंकि कुछ ऐसा है जो मुझसे छूट गया लगता है।

    Reply
  7. अंचित says:
    1 year ago

    यह उस दृष्टि की सिफ़त है जो आप में होती है या नहीं होती है. आशुतोष जी सूक्ष्मताओं के कवि हैं और यह बिना दृष्टि संभव नहीं होता। इसलिए कवि बनाये नहीं जा सकते, वे या तो होते हैं या नहीं होते। देख पाना और महीन चीज़ों को देखकर उसे क्राफ़्ट में डाल पाना दोनों मुश्किल काम हैं। अब यह देख पाना दृश्य से लगातार कम हो रहा है इसलिए आशुतोष जी को पढ़ना ज़रूरी है। हाल ही एक मित्र ने यह संग्रह दिया है और विनय सर की लिखत उसको पढ़े जाने की उत्सुकता में बढ़ोत्तरी करती है। एक बात यह भी है कि विनय कुमार आशुतोष जी की कविता के बहाने, समकालीन हिन्दी कविता पर भी कुछ टिप्पणियाँ कर रहे हैं जो गौरतलब हैं। इस आलेख को पढ़वाने के लिए समालोचन का शुक्रिया।

    Reply
  8. Ammber Pandey says:
    1 year ago

    यह संग्रह बहुत सुंदर है और इन दो कवियों का ऐसे निकट आना आज के समय में तो दुर्लभ ही है।
    विनय कुमार जी का लेख लगता है जैसे Ashutosh जी की काव्य अंतस्तल में कोई दीपक रख गया और बात यह सच है कि यह बात साधने की नहीं साधना की है। आज जब बात सब केवल साधने की कर रहे है वहाँ उनकी केंद्र से दूर, एकांत, तन्मय साधना मेरे लिये प्रेरणा का काम करती है। न उनके कवि में और उससे बढ़कर उनकी कविता में मैंने कभी कोई हड़बड़ी देखी है, उसका परिणाम है उनका नया संग्रह संयोगवश। जैसे कोई पहाड़ी नदी तराई में आकर धीमी हो गई हो, जो बहुत गहरी हो जहाँ पानी बहुत साफ़ और असंख्य सूक्ष्म तरंगों से पूरा हो। जिसे न समुद्र से मिलने की बेचैनी है न वापस उत्स तक लौटने का दुराग्रह। जिसमें डुबकी मारनेवाला बाहर केवल हरा होकर ही नहीं निकलता बल्कि यह भी जानकर निकलता वह कितना मर्त्य कितना वेध्य है।

    Reply
  9. Shubha Maheshwari says:
    1 year ago

    ‘संयोगवश’ की समीक्षा पढ़ कर जहां संयोगवश संग्रह पढ़ने की जिज्ञासा प्रबल होती है वहीं डॉ विनय कुमार की प्रभावी भाषा और विचारों की संप्रेषणीयता उनको भी पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। समालोचन के संपादक अरुण जी को धन्यवाद।

    Reply

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