हजारीप्रसाद द्विवेदी और आदिकाल |
हजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी के सुदृढ़ मणि-स्तम्भ हैं. वे एक साथ उपन्यासकार, निबंधकार, आलोचक और शोधकर्ता विद्वान हैं. वे हिंदी की अकादमिक दुनिया में ‘आकाशधर्मा गुरु’ के रूप में भी समादृत हैं. उनके कई शिष्य-प्रशिष्य हिंदी साहित्य की दुनिया में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान दर्ज़ कर चुके हैं. इतना ही नहीं उनका वक्ता रूप भी अद्वितीय था.
लगभग 23 वर्ष की अवस्था (1930 ई.) में वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित ‘विश्व-भारती’ में बतौर हिंदी अध्यापक नियुक्त हुए और बीस वर्षों तक कार्यरत रहे. उस समय का ‘विश्व-भारती’ कुछ और था. अब तो धीरे-धीरे भारत के विश्वविद्यालयों का ‘विश्व’ ही बदल दिया गया है. उस समय के ‘विश्व-भारती’ का बहुत गहरा असर हजारीप्रसाद द्विवेदी के मानसिक निर्माण पर है. आगे चलकर द्विवेदी जी ने जो भी कार्य किया उन सबमें से अधिकतर के बीज ‘विश्व-भारती’ में पड़ चुके थे.
हिंदी के आदिकालीन साहित्य, नाथ पंथ और कबीर में उनकी गहरी रुचि के तार निश्चित ही ‘विश्व-भारती’ से जुड़े हैं. ख़ास कर क्षितिमोहन सेन से, जो वहाँ अध्यापक थे.1 क्षिति बाबू ने द्विवेदी जी की पहली किताब ‘सूर-साहित्य’ की भूमिका भी लिखी थी. क्षिति बाबू को वे गुरुवत् मानते थे. क्षिति बाबू की प्रेरणा से द्विवेदी जी की रुचि संत काव्य और कबीर में जागृत हुई और फिर अपनी शोध-अंतर्वृत्ति के कारण उनका ध्यान नाथ संप्रदाय पर गया और फिर आगे चलकर वे प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य आदि पर भी विचार करने लगे.
द्विवेदी जी ने अपनी कई रचनाओं में हिंदी साहित्य के आदिकाल पर विचार किया है. ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘कबीर’, ‘नाथ-सम्प्रदाय’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ जैसी पुस्तकों के साथ उनके कई स्वतंत्र लेख भी इस विषय से जुड़े मिलते हैं. इन रचनाओं को पढ़ने से द्विवेदी जी की वैचारिक स्थिति का विकास भी पता चलता है और सोचने-समझने के दायरे का विस्तार भी होता है.
हिंदी का आदिकालीन एवं भक्तिकालीन साहित्य द्विवेदी जी की आलोचना और शोध के केंद्र में है. इन दोनों में भी यदि उनके कार्यों के विस्तार की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि उनका मन संस्कृत के बाद प्राकृत-अपभ्रंश के साहित्य में अधिक रमता था. फरवरी 1940 ई. में उनकी किताब ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ प्रकाशित हुई. पहली बार यह किताब नाथूराम प्रेमी के प्रकाशन ‘हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई’ से छपी. यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि इस किताब का प्रकाशन तब होता है जब द्विवेदी जी ‘विश्व-भारती’ में बतौर अध्यापक लगभग दस वर्ष बिता चुके हैं. ये दस वर्ष रवीन्द्रनाथ और ‘विश्व-भारती’ के तत्कालीन श्रेष्ठ अध्यापकों की संगति में बीते होंगे.
रवीन्द्रनाथ विराट् उदारता और उन्मुक्त दृष्टिकोण के स्वामी ही नहीं बल्कि उसके रचयिता भी थे. यही कारण है कि द्विवेदी आम ‘हिंदी वालों’ (हालाँकि द्विवेदी जी का यह भी कहना है कि “ ‘हिन्दीवाला’ : एक विचित्र विशेषण’2 है.”) की तरह हिंदी से भारतीय भाषाओं की ओर नहीं जाते बल्कि भारतीय भाषाओं से होते हुए हिंदी तक आते हैं.
इन सारी बातों की चर्चा का उद्देश्य यह है कि ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में लिखे ‘निवेदन’ में कही गई बातों के संदर्भ में द्विवेदी जी का दृष्टिकोण स्पष्ट हो सके. ‘निवेदन’ में द्विवेदी जी ने लिखा है कि
“ ‘विश्वभारती’ के अहिन्दी-भाषी साहित्यिकों को हिंदी साहित्य का परिचय कराने के बहाने इस पुस्तक का आरंभ हुआ था…. ऐसा प्रयत्न किया गया है कि हिंदी-साहित्य को पूर्ण भारतीय साहित्य से विच्छिन्न करके न देखा जाए. मूल पुस्तक में बार-बार संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के साहित्य की चर्चा आई, इसीलिए कई लंबे परिशिष्ट छोड़कर संक्षेप में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्यों का परिचय करा देने की चेष्टा की गई है.”3
इस उद्धरण में दो बातें ध्यातव्य हैं. पहली यह कि यह किताब ‘अहिन्दी-भाषी साहित्यिकों को हिंदी साहित्य का परिचय कराने के’ लिए लिखी गई है और दूसरी यह कि इस में इस बात पर बल है कि ‘हिंदी-साहित्य को पूर्ण भारतीय साहित्य से विच्छिन्न करके न देखा जाए.’ इन दोनों बातों को मिला कर सोचने से पता चलता है कि द्विवेदी जी हिंदी साहित्य को न तो भारतीय साहित्य से कटा देखना चाहते थे और न ही वे यह अहिन्दी भाषियों के लिए हिंदी साहित्य को अरुचिकर या अत्यंत दुर्बोध बनाना चाहते थे. संभवत: इसीलिए ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ के पहले अध्याय का शीर्षक ‘हिंदी साहित्य : भारतीय चिंता का स्वाभाविक विकास’ है. शीर्षक में ‘स्वाभाविक’ शब्द ध्यान देने योग्य है. इतिहास की निरंतर प्रवहमान धारा में द्विवेदी जी का अखंड एवं अटूट भरोसा था जिस की अभिव्यक्ति यहाँ ‘स्वाभाविक’ शब्द से हो रही है. इतना सब होने के बाद भी इस किताब में प्रकाशक की ओर से कहा गया है (जिसे संभवत: नाथूराम प्रेमी जी ने लिखा होगा.) कि
“दूसरे, यह पुस्तक हिन्दी साहित्य का इतिहास नहीं है और न यह ऐसे किसी इतिहास का स्थान ही ले सकती है. आधुनिक इतिहासों को यह अधिक स्पष्ट करती है और भविष्य में लिखे जानेवाले इतिहासों की मार्गदर्शिका है.”4
‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में आदिकाल के प्रसंग में अपभ्रंश कविता पर विचार किया गया है. औपनिवेशिक काल में यूरोपीय विद्वानों का ध्यान भारतीय भाषा-साहित्य एवं हिंदी की ओर आकृष्ट हुआ था. संस्कृत, हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के साहित्य की खोज में ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल’ और उस समय की राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय शोध-संस्थाओं का भरपूर योगदान रहा है. इसलिए जब भी द्विवेदी जी आदिकाल पर ठहर कर विचार करते हैं तो अपभ्रंश साहित्य के उपलब्ध होने की ‘कहानी’ अवश्य बयान करते हैं. इस ‘कहानी’ के बयान में उनका ध्यान भाषिक प्रवृत्तियों के साथ-साथ साहित्यिक विलक्षणता पर भी है. यही कारण है कि वे साहित्य के इतिहास के लिए एकदम भिन्न काल-विभाजन प्रस्तावित करते हैं जो अपभ्रंश कविता पर आधारित है. ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में उन्होंने लिखा है कि
“आधुनिक युग आरंभ होने के पहले हिंदी कविता के प्रधानतः छ: अंग थे- डिंगल कवियों की वीर-गाथाएँ, निर्गुणिया संतों की वाणियाँ, कृष्णभक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐहिकतापरक हिंदू कवियों के रोमांस और रीति-काव्य. हम इन छहों धाराओं की आलोचना अगर अलग से करें तो देखेंगे कि ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास हैं.”5
इस विभाजन पर हम यदि ध्यान से विचार करें तो पाएंगे कि इस में द्विवेदी जी का ध्यान कविता की प्रवृत्ति के साथ-साथ उस की रूप-रचना पर भी है. ‘वीर-गाथाएँ’, ‘वाणियाँ’, ‘पद’, ‘कविताएँ’, ‘रोमांस’ और रीति-काव्य, ये छहों प्रवृत्ति-विशेष की संकेतक भी हैं और काव्य-रचना की शैलियाँ भी. इसीलिए वे यह कहते हैं कि ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास हैं. यहाँ भी ‘स्वाभाविक’ शब्द की स्वाभाविक उपस्थिति है. पर यहाँ एक सवाल भी उठता है. वह यह कि इन छहों धाराओं में आदिकालीन सिद्ध एवं नाथ साहित्य का उल्लेख नहीं है. अनुमानत: इस के दो कारण हो सकते हैं. पहला तो यह कि द्विवेदी जी के आगे के कार्यों को देखते हुए यह लगता है कि वे सिद्ध एवं नाथ साहित्य को निर्गुणिया कवियों के पूर्ववर्ती रूप में देखते होंगे और दूसरा यह कि भाषिक दृष्टि से भी सिद्ध एवं नाथ साहित्य अपभ्रंश के अधिक निकट है न कि उस का विकास.
‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में द्विवेदी जी ने समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी विचार किया है. वे भारत के पश्चिमी प्रदेशों के आर्यों और पूर्वी क्षेत्रों के आर्यों में प्रकृतिगत अंतर पाते हैं. इसलिए उनके द्वारा रचित साहित्य में भी अंतर हो गया है. द्विवेदी जी ने लिखा है कि
“अब ध्यान से देखिए तो हिंदी में दो प्रकार की भिन्न-भिन्न जातियों की दो चीजें अपभ्रंश से विकसित हुई हैं : (1) पश्चिमी अपभ्रंश से राजस्तुति, ऐहिकतामूलक शृंगारी काव्य, नीतिविषयक फुटकल रचनाएँ और लोकप्रिय कथानक. और (2) पूर्वी अपभ्रंश से निर्गुणिया संतों की शास्त्रनिरपेक्ष उग्र विचारधारा, झाड़-फटकार, अक्खड़पना, सहजशून्य की साधना, योग-पद्धति और भक्तिमूलक रचनाएँ. यह और भी लक्ष्य करने की बात है कि यद्यपि वैष्णव मतवाद उत्तर भारत में दक्षिण की ओर से आया, पर उसमें भावावेशमूलक साधना पूर्वी प्रदेशों से आई. इस प्रकार हिंदी साहित्य में दो भिन्न-भिन्न जाति की रचनाएँ दो भिन्न-भिन्न मूलों से आईं.”6
इन उदाहरणों एवं उद्धरणों से स्पष्ट है कि द्विवेदी जी चाहे आदिकाल पर विचार कर रहे हों या अपभ्रंश पर उनका ध्यान आगे आनेवाली रचनाओं के स्वरूप पर अवश्य होता है. इसीलिए वे भाषा-साहित्य के पूर्ववर्ती एवं परवर्ती रूपों को जोड़ने वाली कड़ी को कभी भी नहीं बिसराते.
जुलाई 1950 ई. में द्विवेदी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष हो कर बनारस आए.7 विद्यार्थी के रूप में बनारस से उनका जुड़ाव पुराना था. पर अब वे प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में आए थे. इस से पहले ‘विश्व-भारती’ में रहते हुए उन्होंने ‘नाथ-सम्प्रदाय’ किताब लिखी थी जिस में ‘निवेदन’ के नीचे ‘१९-१-५०’ की तारीख़ अंकित है. इस से पता चलता है कि बनारस आने के पहले ‘नाथ-सम्प्रदाय’ का प्रकाशन हो चुका होगा. ‘नाथ-सम्प्रदाय’ के बारे में द्विवेदी जी प्रमुख स्थापना यह है कि नाथ पंथ नेपाल की तराइयों में शैव और बौद्ध साधनाओं के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुआ था.8
‘नाथ-सम्प्रदाय’ से पहले ‘विश्व-भारती’ में ही वे अपनी ‘कबीर’ किताब लिख चुके थे जिस का प्रथम संस्करण मार्च 1942 ई. में प्रकाशित हुआ था. ‘कबीर’ में एक पूरा अध्याय ही ‘नाथपंथियों के सिद्धांत और कबीरदास का मत’ शीर्षक से है जिस में नाथ-पंथ के बारे में आरंभिक ज़रूरी जानकारी और कबीर की कविता के संदर्भ में उस का विवेचन प्रस्तुत किया गया है. ‘नाथ-सम्प्रदाय’ एक ऐसी किताब है जिस में भारत में इसलाम के आने से पहले की धर्म-साधनाओं का गहरा विश्लेषण है. इस के साथ आज जो समग्रता में हिंदू धर्म निर्मित हुआ है उस की प्रक्रिया भी इस पुस्तक में संकेत की गई है.
प्राचीन काल से ही भारत में धार्मिक एवं दार्शनिक रूप से दो परंपराएँ रही हैं. इन्हें ‘वैदिक’ और ‘अवैदिक’ कहा जाता रहा है. कई बार इन्हें ‘आर्य’ और ‘आर्येतर’ भी कहा जाता है. परंपरा के मूल्यांकन और विवेचन में द्विवेदी जी की सर्वग्राही दृष्टि उनके पूरे लेखन में मिलती है जिस का इस्तेमाल कर वे एक छोटी-सी बात या अत्यंत तरल तथ्य को व्याख्यायित कर पूरे संदर्भ को स्पष्ट कर देते हैं. ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’ (1952 ई.) में उन्होंने इसे बहुत ही साफ़ शब्दों में कहा है कि
“न तो हमें परम्परा से प्रचलित बातों को सहज ही अस्वीकार कर देना चाहिए और न उनकी परीक्षा किए बिना उन्हें ग्रहण ही कर लेना चाहिए. इस अन्धकार-युग को प्रकाशित करने योग्य जो भी चिनगारी मिल जाय, उसे सावधानी से जिलाये रखना कर्तव्य है; क्योंकि वह बहुत बड़े आलोक की सम्भावना लेकर आई होती है, उसके पेट में केवल उस युग के रसिक हृदय की धड़कन का ही नहीं, केवल सुशिक्षित चित्त के संयत और सुचिन्तित वाक्पाटव का ही नहीं, बल्कि उस युग के सम्पूर्ण मनुष्य को उद्भासित करने की क्षमता छिपी होती है. इस काल की कोई भी रचना अवज्ञा और उपेक्षा का पात्र नहीं हो सकती.”9
‘नाथ-सम्प्रदाय’ किताब में ऐसे विश्लेषण बहुत हैं. सब से पहली बात इस प्रसंग वे यह कहते हैं कि नाथ-पंथ एक तरह से अवैदिक मार्ग था. इस पर बौद्ध साधना का बहुत गहरा असर था. अकारण नहीं है कि गोरखनाथ के बारे में परंपरा यह कहती है कि वे पहले बौद्ध तांत्रिक थे. इसीलिए नेपाली बौद्ध लोग उन्हें बहुत ही घृणा से देखते हैं. यहाँ तक मिलता है कि गोरखनाथ का पुराना नाम ‘रमणवज्र’ था. ‘कबीर’ किताब में भी द्विवेदी जी स्पष्ट कहा था कि
“नाथपंथ में स्मार्त्त आचारों को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता. यह बात उसे स्मार्त्त हिंदू-धर्म से एकदम विरुद्ध खड़ा कर देती है.”10
द्विवेदी जी ने यह स्पष्ट किया है कि गोरखनाथ ने शैव, शाक्त, कापालिक, कौल आदि सम्प्रदायों को मिश्रित कर एक बृहत्तर योग-मार्ग की स्थापना की थी. उनका योगमार्ग ‘हठयोग’ कहलाता है. यह मार्ग भारतीय जाति-प्रथा को भी चुनौती देते हुए तथाकथित निम्न जातियों को भी साधना का अवसर प्रदान करता था इसलिए गोरखनाथ के प्रति द्विवेदी जी के मन में बहुत सम्मान है. उन्होंने लिखा है कि
“विक्रम संवत् की दसवीं शताब्दी में भारतवर्ष के महान् गुरु गोरक्षनाथ का आविर्भाव हुआ. शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ. भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैं. भक्ति-आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का योगमार्ग ही था. भारतवर्ष की ऐसी कोई भाषा नहीं है जिसमें गोरक्षनाथ संबंधी कहानियाँ न पायी जाती हों. इन कहानियों में परस्पर ऐतिहासिक विरोध बहुत अधिक है, परन्तु फिर भी इनसे एक बात अत्यंत स्पष्ट हो जाती है– गोरक्षनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे. उन्होंने जिस धातु को छुआ वही सोना हो गया.”11
द्विवेदी जी ने गोरखनाथ के युग को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि
“गोरक्षनाथ का जिस समय आविर्भाव हुआ था वह काल भारतीय धर्म-साधना में बड़े उथल-पुथल का है. एक ओर मुसलमान लोग भारत में प्रवेश कर रहे थे और दूसरी ओर बौद्ध-साधना क्रमशः मन्त्र-तन्त्र और टोने-टोटके की ओर अग्रसर हो रही थी. दसवीं शताब्दी में यद्यपि ब्राह्मणधर्म सम्पूर्ण रूप से अपना प्राधान्य स्थापित कर चुका था तथापि बौद्धों, शाक्तों और शैवों का एक बड़ा भारी समुदाय ऐसा था जो ब्राह्मण और वेद के प्राधान्य को नहीं मानता था. यद्यपि उनके परवर्ती अनुयायियों ने बहुत कोशिश की है कि उनके मार्ग को श्रुतिसम्मत मान लिया जाय, परंतु यह सत्य है कि ऐसे अनेक शैव और शाक्त सम्प्रदाय उन दिनों वर्तमान थे जो वेदाचार को अत्यंत निम्नकोटि का आचार मानते थे और ब्राह्मण-प्राधान्य एकदम नहीं स्वीकार करते थे.”12
ऊपर के उद्धरण में द्विवेदी जी एक पंक्ति यह आई है कि
“भक्ति-आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का योगमार्ग ही था.”
यह पंक्ति कई तरह के शोध-प्रश्नों को उत्पन्न करती है. जैसे, क्या वर्णाश्रम व्यवस्था को योगमार्ग द्वारा दी जा रही चुनौती की प्रतिक्रिया में भक्ति आंदोलन उत्पन्न हुआ था ? पहली नज़र में यह सवाल अत्यंत अटपटा लग सकता है क्योंकि आमतौर पर हम भक्ति आंदोलन को वर्णाश्रम व्यवस्था को चुनौती देनेवाला मानते हैं. पर यह सवाल इसलिए मन में आता है कि जिस योग मार्ग में निम्न जातियों से लेकर मुसलमानों तक की स्वीकार्यता मिलती है वह परंपरा अचानक से भक्ति आंदोलन के बाद लुप्त क्यों हो जाती है ? कहीं कबीर इस परंपरा की आख़िरी कड़ी तो नहीं जिन्हें हम वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध करने वाला आरंभिक मानने के अभ्यस्त हो चुके हैं ? इन संदर्भों में यह भी अनुमान होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कबीर में उसी अब्राह्मण समाज के पराजित होते जाने की बेचैनी और प्रतिकार एक साथ उपस्थित है ? इस अनुमान को बल रांगेय राघव के इस कथन से भी मिलता है कि
“ब्राह्मण समाज पर छाने लगा था. अब्राह्मण समाज पराजित होता जाता था. ब्राह्मण समाज के नियम को रूढ़ करता जाता था. उस समय विजयी इस्लाम उत्तर से घुसा और दक्षिण से भक्ति का उदय हुआ जिसने नए रूपों में ब्राह्मणवाद को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया.”13
इस प्रक्रिया को द्विवेदी जी ने भी स्पष्ट करते हुए लिखा है कि
“क्रमशः ब्राह्मणमत प्रबल होता गया और इसलाम के आने के बाद सारा देश जब दो प्रधान प्रतिस्पर्धी धार्मिक दलों के रूप में विभक्त हो गया तो किनारे पर पड़े हुए अनेक सम्प्रदायों को दोनों में से किसी एक को चुन लेना पड़ा. अधिकांश लोग ब्राह्मण और वेद-प्रधान हिन्दू-सम्प्रदाय में शामिल होने का प्रयत्न करने लगे. कुछ सम्प्रदाय मुसलमान भी हो गये. दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के बाद क्रमशः वेदबाह्य सम्प्रदायों की यह प्रवृत्ति बढ़ती गयी कि अपने को वेदानुयायी सिद्ध किया जाय. शैवों ने भी ऐसा किया और शाक्तों ने भी. परन्तु कुछ मार्ग इतने वेद-विरोधी थे कि उनका सामंजस्य किसी भी प्रकार इन मतों में नहीं हो सका. वे धीरे-धीरे मुसलमान होते रहे. गोरक्षनाथ ने योगमार्ग में ऐसे अनेक मार्गों का संघटन किया होगा.”14
इस संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि ‘नाथ-सम्प्रदाय’ पुस्तक कितनी अधिक महत्त्वपूर्ण और नवोन्मेषी है. इस में भारतीय धर्म-साधनाओं के परस्पर संबंध का विवेचन तो है ही साथ ही उनसे जुड़े नवीन शोध की अंतर्दृष्टि भी है. दरअसल रामचंद्र शुक्ल ने अपने द्वारा संपादित सूरदास के भ्रमरगीत संबंधी पदों के संकलन ‘भ्रमरगीतसार’ की भूमिका में जो ‘सूरसागर’ के बारे में लिखा है वही बात भारतीय धर्म-साधनाओं के बारे में भी कही जा सकती है. शुक्ल जी ने लिखा था कि
“सूरसागर वास्तव में एक महासागर है जिसमें हर प्रकार का जल आकर मिला है. जिस प्रकार उसमें मधुर अमृत है उसी प्रकार कुछ खारा, फीका और साधारण जल भी. खारे, फीके और साधारण जल से अमृत को अलग करने में विवेचकों को प्रवृत्त रहना चाहिए.”15
इसलिए भारतीय धर्म-साधनाओं पर विचार करने के प्रसंग में हमें सजग रहना चाहिए. ऐसा इसलिए भी कि कई बार सब कुछ एकसाथ मिला-जुला दिखता है तो कई बार एकदम अलग-अलग. कई बार एक ही जगह सारा कुछ केंद्रित मिलता है तो कई बार भाषा एवं क्षेत्रों को पार कर विस्तार प्राप्त होता है. यह बात आदिकालीन साहित्य के प्रसंग में सबसे सटीक महसूस होती है. इन सबको ध्यान में रखते हुए द्विवेदी जी ने भी लिखा है कि
“हमारी भाषा का पुराना साहित्य प्रांतीय सीमाओं में बँधा नहीं है. आपको अगर हिंदी साहित्य का अध्ययन करना है तो उसके पड़ोसी साहित्य- बँगला, उड़िया,मराठी,गुजराती, नेपाली आदि के पुराने साहित्य- लिखित और अलिखित- को जाने बिना घाटे में रहेंगे. यही बात बँगला, उड़िया, मराठी आदि पुराने साहित्य के बारे में भी ठीक है. हमारे देश का सांस्कृतिक इतिहास इस मजबूती के साथ अदृश्य काल-विधाता के हाथों सी दिया गया है कि उसे प्रांतीय सीमाओं में बाँधकर सोचा ही नहीं जा सकता. उसका एक टाँका यदि काशी में मिल गया तो दूसरा बंगाल में, तीसरा उड़ीसा में और चौथा महाराष्ट्र में मिलेगा और यदि पाँचवाँ मालाबार या सीलोन में मिल जाय तो आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है.”16
इस उद्धरण से भी सपष्ट है कि द्विवेदी जी भाषिक या क्षेत्रीय संकीर्णता में बँधे नहीं थे.
मार्च 1952 ई. में द्विवेदी जी ने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना में आदिकाल से संबंधित पाँच व्याख्यान दिए थे. इसी का पुस्तकाकार प्रकाशन ‘हिन्दी-साहित्य का आदिकाल’ नाम से हुआ. 1952 ई. के अंत में उनकी दूसरी किताब ‘हिन्दी साहित्य : उसका उद्भव और विकास’ प्रकाशित हुई. बाद में इस के नाम से ‘उसका’ शब्द हटा दिया गया और अभी यह किताब ‘हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास’ नाम से मिलती है. 1952 ई. तक आदिकालीन साहित्य के बारे में अनेक चर्चा और बहस ज़ारी थी. सबसे पहला मुद्दा तो आदिकाल के नामकरण को ले कर ही था. ‘हिन्दी साहित्य : उसका उद्भव और विकास’ में द्विवेदी जी ने ‘आदिकाल’ नाम के प्रति सावधानी बरतते हुए इस के पक्ष में अपना मत दिया था. तब से ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ नामक ग्रंथों में यह बात लिखी जा रही है कि ‘आदिकाल’ नाम हजारीप्रसाद द्विवेदी का दिया हुआ है.17
इंटरनेट आदि पर भी इसी तरह की भ्रामक सूचना मिलती है. ‘आदिकाल’ का उपयोग रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास (1929 ई.)’ में करते हुए स्पष्ट लिखा था कि “आदिकाल का नाम मैंने ‘वीरगाथा काल’ रखा है.”18
इस वाक्य के अति निश्चित ‘टोन’ और शुक्ल जी की शैली को ध्यान में रखते हुए साफ़ है कि शुक्ल जी के सामने यह नाम ख़ूब प्रचलित हो गया था. तब सवाल यह है कि ‘आदिकाल’ नाम आया कहाँ से ? शुक्ल जी से पहले जो ‘हिंदी साहित्य के इतिहास-ग्रंथ’ लिखे गए उनमें गार्सा द तासी और शिवसिंह सेंगर लिखित ‘इतिहासों’ में काल-विभाजन का बखेड़ा मोल लिया ही नहीं गया है. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन की किताब ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान (1889 ई.)’ में आदिकाल को ‘द बार्डिक पीरियड’19
कहा गया है जो हिंदी में ‘चारण काल’ के रूप में स्वीकृत हो गया है. ग्रियर्सन के बाद मिश्रबंधुओं ने अपनी पुस्तक ‘मिश्रबंधु-विनोद (1913 ई. में पहले तीन भाग और 1934 ई. में चौथा भाग प्रकाशित.)’ में आदिकालीन साहित्य को ‘पूर्वारंभिक काल’ और ‘उत्तरारंभिक काल’20 में विभाजित किया था. एडविन ग्रीव्ज के ‘ए स्केच ऑफ हिंदी लिटरेचर (1918 ई.)’ में आदिकालीन साहित्य को ‘द अर्ली पीरियड’21 कहा गया है. ठीक इसी प्रकार एफ. ई. के के ‘ए हिस्ट्री ऑफ हिंदी लिटरेचर (1920 ई.)’ में आदिकालीन साहित्य को ‘अर्ली बार्डिक क्रॉनिकल्स’22
कहा गया है. इस विवरण से स्पष्ट है कि 1920 ई. तक ‘आदिकाल’ नाम कहीं नहीं था. दरअसल 1893 ई. में नागरीप्रचारिणी सभा, काशी के अस्तित्त्व में आने के बाद ‘सभा’ ने यह निश्चय किया कि हिंदी का शब्दकोश, व्याकरण और हिंदी साहित्य का इतिहास लिखित रूप में तैयार हो. शब्दकोश-योजना का फलीभूत रूप ‘हिन्दी शब्द-सागर (1929 ई.)’ के रूप में प्रकाशित हुआ जिस के प्रधान संपादक बाबू श्यामसुंदरदास थे. कामता प्रसाद गुरु ने ‘हिन्दी व्याकरण (1920 ई.)’ लिखा. ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ लिखने का जिम्मा रामचंद्र शुक्ल को दिया गया था. ‘हिन्दी शब्द-सागर’ की भूमिका में यह ‘इतिहास’ ‘हिन्दी साहित्य का विकास’ नाम से दिया गया है. ‘हिन्दी शब्द-सागर’ में ‘हिन्दी भाषा का विकास’ भी दिया गया है जो श्यामसुंदरदास का लिखा है. यहीं पर बाबू श्यामसुन्दरदास और रामचंद्र शुक्ल से संबंधित विवाद भी सामने आता है.
बात यह थी कि बाबू श्यामसुन्दरदास शुक्ल जी के लिखे ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को दोनों के संयुक्त नाम से छपवाना चाहते थे. ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ के संवत् 1985 (1928 ई.) के अंक में ‘हिन्दी-साहित्य का वीरगाथा-काल’ शीर्षक लेख छपा है जिसके लेखक बाबू श्यामसुंदरदास और पंडित रामचंद्र शुक्ल हैं. यह रामचंद्र शुक्ल के ‘इतिहास’ का प्रकरण 1 से प्रकरण 3 है. इस विवाद के अन्य कई पहलू हैं जिन के विस्तार में जाना अभी संभव नहीं है. कुल मिला कर बात इतनी ही है कि ‘आदिकाल’ शब्द की कहानी अभी भी अस्पष्ट है. एक अनुमान यह होता है कि नागरीप्रचारिणी सभा, काशी की बैठकों और उस के सामान्य रोजमर्रा के व्यवहार में इस शब्द का प्रयोग होता रहा होगा. इस अनुमान का आधार यह है कि 1923 ई. में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी लिखित ‘हिन्दी साहित्य विमर्श’ किताब हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, कलकत्ता से प्रकाशित हुई थी. बख्शी जी इस समय ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक भी थे. ‘हिन्दी साहित्य विमर्श’ की प्रस्तावना में बख्शी जी ने लिखा था कि
“हिन्दी साहित्य को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं. पहला युग हिन्दी साहित्य का आदि-काल है. दूसरे युग का आरम्भ मुसलमानों के आक्रमण-काल में हुआ. तीसरे युग में हिन्दी-साहित्य की वृद्धि मुसलमानों के राजत्व काल में हुई. चौथा युग अंग्रेजों के शासन-काल से आरम्भ होता है.”23
संभवत: हिंदी साहित्य के काल-विभाजन के संदर्भ में ‘आदिकाल’ शब्द का सबसे पुराना उपयोग पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी द्वारा ही किया गया है. अत: ‘आदिकाल’ नामकरण का श्रेय यदि किसी को मिल सकता है तो वे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी हैं न कि हजारीप्रसाद द्विवेदी.
‘हिन्दी-साहित्य का आदिकाल’ किताब में द्विवेदी जी ने आदिकालीन साहित्य की महत्ता स्थापित की है. सिद्ध और नाथ साहित्य के बारे में रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में स्पष्ट लिख दिया था कि
“सिद्धों और योगियों का इतना वर्णन करके इस बात की ओर ध्यान दिलाना हम आवश्यक समझते हैं कि उनकी रचनाएँ तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं. अत: वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं. उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिए जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ.”24
अत: द्विवेदी जी को सबसे पहले यही स्पष्ट करना पड़ा कि धार्मिक रचना भी साहित्यिक रचना होती है. उन्होंने कहा कि
“कई रचनाएँ ऐसी हैं, जो धार्मिक तो हैं, किन्तु उनमें साहित्यिक सरसता बनाये रखने का पूरा प्रयास है. धर्म वहाँ कवि को केवल प्रेरणा दे रहा है. जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हों, उससे वह साहित्य निश्चित रूप से भिन्न है, जिसमें धर्म-भावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो और साथ ही जो हमारी सामान्य मनुष्यता को आन्दोलित, मथित और प्रवाहित कर रही हो. इस दृष्टि से अपभ्रंश की कई रचनाएँ, जो मूलत: जैनधर्म-भावना से प्रेरित हो कर लिखी गई हैं, निस्सन्देह उत्तम काव्य हैं और विजयपाल-रासो और हम्मीर-रासो की भाँति ही साहित्यिक इतिहास के लिए स्वीकार्य हो सकती हैं. यही बात बौद्ध सिद्धों की कुछ रचनाओं के बारे में भी कही जा सकती है.”25
आदिकालीन साहित्य के बारे में दूसरा मुद्दा प्रामाणिकता का था. सामान्य इतिहास की कसौटी लागू कर रचनाकार की कल्पना-शक्ति को नज़रअंदाज करने की स्थिति में रचनाओं में इतिहास की संगति खोजे जाने की प्रवृत्ति आदिकालीन रचनाओं के प्रसंग में ख़ूब दिखाई पड़ती है. इतिहास और साहित्य की प्रकृति और प्रक्रिया को भुला देने के कारण साहित्यिक मूल्यांकन में कई प्रकार के अतिचार देखे जाते रहे हैं. इन सबके साथ भारत में तथ्यात्मक इतिहास के स्थान पर मूल्यपरक इतिहास की संकल्पना ऐतिहासिक व्यक्ति या घटनाओं का आधार ले कर लिखी रचनाओं को एक भिन्न क़िस्म से जटिल बना देती है. इन सबका सबसे अधिक शिकार ‘पृथ्वीराजरासो’ हुआ. इसीलिए इस की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता से खिन्न हो कर द्विवेदी जी ने ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ में लिखा कि
“तब से ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ नामक ग्रंथों में रासो की ऐतिहासिकता और अनैतिहासिकता पर पन्ने रँगे जा रहे हैं. इस निरर्थक मंथन से जो दुस्तर फेनराशि तैयार हुई है, उसे पार कर ग्रन्थ के साहित्यिक रस तक पहुँचना हिंदी साहित्य के विद्यार्थी के लिए असंभव-सा व्यापार हो गया है.”26
द्विवेदी जी ने यह ध्यान दिलाया है कि ऐतिहासिक व्यक्ति या घटना को आधार बना देने मात्र से ही कोई रचना ऐतिहासिक नहीं हो जाती. उन्होंने लिखा है कि
“वस्तुतः, इस देश में इतिहास को ठीक आधुनिक अर्थ में कभी नहीं लिया गया. बराबर ही ऐतिहासिक व्यक्ति को पौराणिक या काल्पनिक कथानायक बनाने की प्रवृत्ति रही है. कुछ में दैवी शक्ति का आरोप करके पौराणिक बना दिया गया है; जैसे राम, बुद्ध, कृष्ण आदि और कुछ में काल्पनिक रोमांस का आरोप करके निजन्धरी कथाओं का आश्रय बना दिया गया है; जैसे उदयन, विक्रमादित्य और हाल. जायसी के रतनसेन, और रासो के पृथ्वीराज में तथ्य और कल्पना का- फैक्ट्स और फिक्शन- अद्भुत योग हुआ है. कर्मफल की अनिवार्यता में, दुर्भाग्य और सौभाग्य की अद्भुत शक्ति में और मनुष्य के अपूर्व शक्ति-भाण्डार होने में दृढ़ विश्वास ने इस देश के ऐतिहासिक तथ्यों को सदा काल्पनिक रंग में रँगा है. यही कारण है कि जब ऐतिहासिक व्यक्तियों का भी चरित्र लिखा जाने लगा, तब भी इतिहास का कार्य नहीं हुआ. अन्त तक ये रचनाएँ काव्य ही बन सकीं, इतिहास नहीं.”27
इसीलिए उनका स्पष्ट मानना है कि कथा का मूल्यांकन इतिहास की नज़र से नहीं बल्कि साहित्य की दृष्टि से होना चाहिए. द्विवेदी जी यह भी लक्ष्य करते हैं कि इसी काल्पनिकता एवं संभावना पक्ष पर बल देने के कारण कथानक-रूढ़ियों का प्रयोग ऐसी रचनाओं में ख़ूब मिलता है. ‘हिन्दी-साहित्य का आदिकाल’ में उन्होंने 21 तरह की कथानक-रूढ़ियों का उल्लेख किया है जिसे यथास्थान किताब में देखा जा सकता है.
‘हिन्दी-साहित्य का आदिकाल’ में पृथ्वीराजरासो पर बहुत विस्तार से विचार किया गया है. इस में उस के काव्य-सौंदर्य, प्रामाणिक अंशों की संभावना और भाषिक उपस्थिति का विश्लेषण किया गया है. इन सबके साथ दूसरे व्याख्यान में इस के उदाहरण सहित विवरण दिए गए हैं जिन से यह पता चलता है कि अपभ्रंश की कविता में छंद की रक्षा या पालन के लिए किस प्रकार के परिवर्तन किए जाते थे और आगे चलकर हिंदी में उनका किन रूपों में इस्तेमाल हुआ है. उदाहरण के लिए लघु स्वर को गुरु बना कर छंद:पूर्ति की योजना मिलती है. यह अधिकतर चरण के अंत में इस्तेमाल होता था. चौपाई छंद में इस की प्रवृत्ति बहुतायत देखी जा सकती है. द्विवेदी जी ने यह बताया है कि तुलसीदास की पंक्ति ‘हसब ठठाइ फुलाइब गालू’ में ‘गाल’ शब्द का ‘गालू’ इसी प्रवृत्ति के कारण हुआ है. छंद के बारे में द्विवेदी जी की एक प्रमुख स्थापना यह है कि
“जिस प्रकार श्लोक संस्कृत के मोड़ का सूचक है उसी प्रकार गाथा, प्राकृत की ओर के झुकाव का व्यंजक है…. जैसे श्लोक, लौकिक संस्कृत का; गाथा, प्राकृत का प्रतीक हो गया है उसी प्रकार दोहा, अपभ्रंश का.”28
दोहा के साथ नई बात यह है कि इसी से तुक मिलाने की प्रथा शुरू होती है. इस से पहले संस्कृत या प्राकृत में तुक मिलाने की पद्धति नहीं थी. पर आगे चलकर हिंदी की कोई भी छंदोबद्ध रचना ऐसी नहीं लिखी गई जिस में तुक न मिलाई जाती हो. अत: आदिकालीन दोहा काव्य की रचना-प्रक्रिया की दृष्टि से बहुत युगांतकारी परिवर्तन है. द्विवेदी जी ने यह स्पष्ट लिखा है कि नया छंद नए मनोभाव की सूचना देता है. प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक जॉर्ज लूकाच (1885-1971 ई.) ने कहा था कि साहित्य में सच में सामाजिक तत्त्व रूप है. हिंदी में छंदों के उद्भव, विकास और परिवर्तन का समाजशास्त्रीय विश्लेषण लगभग न के बराबर हुआ है. ऐसे में द्विवेदी जी का उपर्युक्त कथन “नया छंद नए मनोभाव की सूचना देता है.” नए तरीक़े से छंद पर विचार की प्रेरणा देता है.
इस प्रकार हम देखते हैं कि द्विवेदी जी आदिकाल का व्यापक और समग्र मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं जिस में उनकी ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि तथा आलोचनात्मक विवेचन संयुक्त है. वे आदिकाल के बहाने भारतीय साहित्य की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हैं. यों तो पाठ के स्तर पर आदिकालीन साहित्य में उन्हें सबसे अधिक अब्दुर्रहमान का ‘संदेश-रासक’ पसंद था जिस का उन्होंने अपने शिष्य और हिंदी के यशस्वी आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ मिल कर संपादन भी किया था परन्तु आदिकाल के बारे में द्विवेदी जी का अध्ययन, अनुमान और विश्लेषण नए दृष्टिकोण तथा नए शोध की प्रस्तावना करता है. उनकी आलोचना की भी यह विशेषता है कि ज्ञान की अथाह गहराई रहते हुए भी पाठक को कहीं भी घबराहट नहीं होती. आचार्य की ज्ञान-साधना और रसज्ञ की सहज सहृदयता उनके पूरे लेखन का आदर्श है जो आदिकाल के विवेचन में भी पग-पग पर महसूस होता है.
संदर्भ
- व्योमकेश दरवेश – विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2011 ई., पृ.- 69
- कल्पलता – हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999 ई., पृ.-125
- हिंदी साहित्य की भूमिका – हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.-5
- हिन्दी साहित्य की भूमिका – हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, प्रथम संस्करण, 1940 ई., पृ.- 6
- हिंदी साहित्य की भूमिका – हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.-39
- वही
- व्योमकेश दरवेश – विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2011 ई., पृ.- 135
- हिंदी साहित्य की भूमिका – हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014 ई., पृ.-19
- हिन्दी साहित्य का आदिकाल – हजारीप्रसाद द्विवेदी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1980 ई., पृ.-27
- कबीर – हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999 ई., पृ.-43
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली ( खंड 6 ) – सं. मुकुन्द द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007 ई., पृ.-107
- वही – पृ.-170
- गोरखनाथ और उनका युग – रांगेय राघव, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 2019 ई., पृ.- 16
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली ( खंड 6 ) – सं. मुकुन्द द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007 ई., पृ.-171
- भ्रमरगीतसार – सं. रामचंद्र शुक्ल, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, 2000 ई., पृ.- 33
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- ए स्केच ऑफ हिंदी लिटरेचर – एडविन ग्रीव्ज, क्रिश्चियन लिटरेचर सोसाइटी फॉर इंडिया, मद्रास, पृ.- 17
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- हिंदी साहित्य विमर्श – पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, कलकत्ता, 1923 ई., पृ.- 30
- हिंदी साहित्य का इतिहास – रामचंद्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2012 ई., पृ.- 12
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- हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1992 ई., पृ.- 45
- वही – पृ.- 77
- हिन्दी साहित्य का आदिकाल – हजारीप्रसाद द्विवेदी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1980 ई., पृ.-96, 97
योगेश प्रताप शेखर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया(बिहार) में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं. ‘हिंदी के रचनाकार आलोचक’ पुस्तक प्रकाशित है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन. ypshekhar000@gmail.com |
सुबह-सुबह इतना बेहतरीन शोध-आलेख पढ़ने को मिले, इसे कहते हैं दिन बन जाना।
अरसे बाद द्विवेदी जी पर एक अच्छा लेख पढ़ने को मिला। हिंदी साहित्य के उत्स की खोजबीन हमेशा हिंदी समाज के जड़ ढांचे के उत्खनन से जुड़ी रहेगी और इसका रास्ता हजारीप्रसाद द्विवेदी से ही होकर गुजरेगा। अलबत्ता द्विवेदी जी से और इस लेख में योगेश जी द्वारा किए गए उनके अवगाहन से मेरा मूल मतभेद यह है कि भारत में बुद्धिज़्म के आखिरी दौर, नवीं से बारहवीं सदी को लेकर इसमें पर्याप्त खुलापन नहीं है। द्विवेदी जी का रुख गोरखनाथ के प्रति श्रद्धा का है, सो इस संभावना की वे अनदेखी कर जाते हैं कि गुरु गोरखनाथ जाने-अनजाने नवीं सदी से ही विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कारणों के चलते देश में उभर रहे सामाजिक कट्टरपंथ और उसकी सहज बौद्ध विरोधी प्रतिक्रिया के मुख्य संवाहक बन गए थे। बौद्ध धर्म के टोने-टोटके की तरफ मुड़ जाने वाली द्विवेदी जी की बात में उसी दौर में हुए आचार्य शांतराक्षित और दीपंकर जैसे दार्शनिकों की उपेक्षा झलकती है, जिनकी गहराई की गवाही कोई भी तिब्बती दे सकता है। किताब ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ में बदलाव के कुछ प्रकट कारणों पर 50 पेज लिख चुका हूं, सो फिलहाल ब्यौरे में नहीं जाऊंगा। सिर्फ इस लेख में आए इस कयास से सहमति जताऊंगा कि कबीर भारत में जन्मना-विभेद विरोधी चेतना के प्रारंभ के नहीं, इसके अंत के ही प्रतीक हैं। पुराने अतीत को एक तरफ रखकर करीब चार सौ साल लंबी इस अधोगामी प्रक्रिया के मुख्य बिंदु चिह्नित करने हों तो सरहपा, गोरख, नामदेव और कबीर। रैदास और नानक को इसका विस्तार मान सकते हैं लेकिन वर्णाश्रमी प्रतिक्रियावाद के लिए इन्हें अपनी एक सभ्य तथा सहनीय आलोचना की तरह प्रस्तुत करना बहुत कठिन नहीं था। बहरहाल, उम्मीद है कि जल्द ही द्विवेदी जी को लेकर यहां कुछ कहने की बारी मेरी भी आएगी।
बहुत अच्छा लेख है। तथ्यपरक भी। सुगठित भी।
बहुत ही शानदार है
विद्यार्थियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण लेख हैं। कुछ पुरानी मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है तो वहीं नये शोध के लिए मार्ग भी प्रशस्त करता है।
लेखक इस शोधपरक लेख के लिए धन्यवाद के पात्र हैं।
Bahut hi sundar post sir ji 👌 please upload ramchandra shukal g & bharatendu harishchandr 🙏