कहानी
ज़िंदगी लावारिस
सारंग उपाध्याय
किसी का चुप रहना कभी-कभी बहुत सालता है. खासकर तब जबकि वह चुप्पी किसी सवाल के जवाब में पेश हुई हो.
जब मैंने रेलवे स्टेशन में प्रवेश किया तो उसे देखते ही हाथ हिलाया और जोर के आवाज लगाई- ‘क्या हाल है कार्तिक सब ठीक है ना?”
लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया.
मैं थोड़ा और आगे बढ़ा तो उसके शरीर में कोई हरकत नहीं थी. स्ट्रीट लाइट की बड़ी सी पीली रौशनी मेरे माथे पर थी जबकि स्टेशन के टिकट विंडो वाले हॉल में लगे 5-6 ट्यूब लाइट के दूधिया उजाले में वह साफ-साफ दिखाई दे रहा था. चुप्पी को वह ऐसे साधे था जैसे कोई ताला जड़ा हो. वह टिकट विंडो के ठीक साइड में और प्लेटफॉर्म के एंट्री गेट के पास बैठा हुआ था, बैठा क्या अधलेटा था पीठ टिका कर.
रात के साढ़े 10 बज रहे थे.
माहिम स्टेशन पर सुबह-शाम वाली भीड़ नहीं थी. आसपास कुछ थके-हारे मुरझाए चेहरे थे, जो घर लौटने के इंतजार में थे. एक शिथिलता थी. यह रात की ओर लौटती मुंबई थी, ना ज्यादा भीड़ ना एकदम खाली. माहिम छोटा स्टेशन था, लेकिन था मुंबई का दिल. दादर और बांद्रा के बीच में, बिल्कुल आजू-बाजू.
37-38 साल का कार्तिक, टिकट विंडो के साइड में लावारिस सा पड़ा था. मई का महीना उसके चेहरे पर तैर रहा था. हॉल में पंखे चल रहे थे, लेकिन उमस और चिपचिपी गर्मी से कपड़े तर थे, सामने एक धड़धड़ाती लोकल गुजर रही थी.
मैं कार्तिक साहू के पास था. “कार्तिक क्या हाल हैं. सब ठीक है ना?’ मैंने झुककर उससे पूछा..!
वह अब भी चुप था और मेरी ओर देखे जा रहा था. आवाज सुनकर उसने कोई हरकत नहीं की.
पहले सवाल का जवाब आता मैंने फिर पूछा- मिला नहीं बहुत दिनों से, कहां गया था? तबीयत ठीक है तेरी..!
वह अजनबी सा मुझे देखता रहा, शायद पहचाने की कोशिश कर रहा था.
मैं झुका और फिर उसके पैर की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘पैर ठीक है ना?” उसका पैर सूजा हुआ था और पैर में घाव था. लेटे होने कारण पैंट से घाव वाला हिस्सा झांक रहा था.
इस बार उसकी गर्दन हिली और चेहरे से ज्यादा आंखों में कुछ गहराया फिर अचानक उसने दोनों हाथ जोड़ लिए, तभी एक बदबू का भभका उसके पास से उठा और मेरे नथुनों में घुसकर मुझे पार करते हुए फैल गया. मैं कुछ समझ पाता, उसके हाथों की हरकत देख मैं ऊपर की ओर उठ गया. वह लगभग तंद्रा में था, एक गहरी नींद के इंतजार में. पूरा शरीर लस्त और निढाल होने को बेताब था. आंखें टिकती नहीं थी ना डूबती थीं, बस घूम रही थीं, कहीं दूर निकल जाने के इंतजार में.
मैं झुककर खड़ा हो चुका था. मेरी सफेद शर्ट जींस से बाहर लटक रही थी, पसीने से भीगी हुई, बदन से सुबह का परफ्यूम उड़ा नहीं था, लेकिन पसीने की गंध से मिलकर वह अलग तरह से महक रहा था. पीछे बैग लटका था और बिखरे हुए बाल पसीने और उमस के कारण गीले हो चुके थे.
मैं कार्तिक को एकटक देखे जा रहा था-
बढ़ी दाढ़ी, बिखरे हुए बाल, वह बेहद दुबला था. शरीर लकड़ी की तरह था हो रखा था. चेहरे से बुढ़ापा झलक रहा था. उसे देखते हुए मेरे कानों में एक आवाज गूंजी. यह आवाज दादर पश्चिम में रहने वाले डॉक्टर श्रीमंत विपट की थी.
इसे जहां से लाए हो वहीं छोड़ दो- डॉक्टर श्रीमंत विपट कनखियों से देखते हुए कहा था.
मैंने पूछा- क्यों?
कितने दिन इलाज कराओगे? डॉक्टर अपना फोन देख रहा था.
कितने दिन चलेगा? मैं सहमा हुआ था.
सालों लग जाएंगे, अपना टाइम कायको खोटी करते हो..!
मैं चुप था…
फिर डॉक्टर बोला- दिल दरिया है अच्छा है, लेकिन खुद ही मत डूब जाना..
मतलब..?
गर्दुल्ले लोग हैं..नशा अब इनको पी रहा है, कायको खाली फुकट दिल-दिमाग खर्च करता है.. उसके हाथ देखो..!
मैं डॉक्टर की बात सुनकर घबरा रहा था फिर मैंने कार्तिक साहू के अनगिनत सुइयों से चुभे लाल-लाल चकतों से भरे हाथ देखे.. सुस्त चमड़ी वाले बेजान हाथ.
तेरा दोस्त नशे में डूब गया है इसे बाहर निकालने का ट्राय मत कर वरना तेरी लाइफ डूब जाएगी. डॉक्टर विपट की आवाज फिर मेरे कानों में फिर गूंजी-
हाथ जरा ठीक से देख उसके..!
डॉक्टर उसके हाथ की ओर इशारा करते हुए मुझे लगभग डांटते हुए बोला- सालों प्रैक्टिस की हुई नर्स या डॉक्टर क्या कलाई में नस खोजेंगे जो ये खोज लेंगे, शरीर के अंग को छुआ भर दो नस हाथ में. शरीर में इतनी सुईं लगी है जैसे किसी ने भालों से भेद दिया है. लगता है इसको कोई रोकने वाला ही नहीं है क्या इसको..!
अचानक एक धड़धडा़ती एक लोकल ट्रेन आवाज का एक गुबार पीछे छोड़ गई. मैंने कार्तिक की तरफ देखा-
वह मेरी ओर देखने के लिए आंखें टिका रहा था, उसकी आंखें एक बार स्थिर हुई और पलकें मुंद गईं. फिर दीवार से सिर टिकाकर अधखुली आंखों से मुझे देखता हुआ मुसकुराने लगा. अब वह लगभग निढाल था, गर्दन केवल दीवार से सटी थी जबकि शरीर जमीन पर था. उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान फैली हुई थी जो मुझे कहीं दूर ले जा रही थी, एक दूसरे ही कार्तिक के पास. वही कार्तिक जो हंसता तो ऐसे लगता मानों समंदर की हर लहर हरक-हरक कर पैरों से लिपटती हो और धीरे-धीरे गालों के सुंदर गड्ढों में समा जाती हो. उसकी गोल-गोल और बड़ी-बड़ी आंखें सुबह नींद के बाद भी नींद से भरी हुई लगती.
(दो)
सीधी नाक, तराशे हुए नयन-नक्श, गालों के बीच पड़ते डिंपल, गेहुंआ रंग, खूबसूरत सिल्की बाल. सुंदर था लेकिन बेहद दुबला, लकड़ी की तरह था शरीर, एकदम कांच. ऐसा कि कोई हाथ लगा दे तो बिखर जाए, दिल भी वैसा था. खूब सिगरेट खूब पीता, चरस भी और गांजा भी. देर रात तक कविताएं सुनाता, कभी शेर पढ़ता, कभी कहानियां तो कभी म्यूजिक. थियेटर-रंगमंच फिल्मों के सपने देखता. कभी इंदौर तो कभी भोपाल, कभी जबलपुर तो कभी लखनऊ. नसरुद्दीन शाह, ओमपुरी, मनोज बाजपेयी, आशुतोष राणा की बातें थीं और एनएसडी ना पहुंचने का अफसोस. सपना था मुंबई पहुंचना और फिल्मों में काम करना. लेकिन मुझे मुंबई ही सपना लगती.
एक दिन मैंने उससे कहा था- तुम्हारे सपने पूरे नहीं होंगे..
उसने पूछा- क्यों?
सारे सपने नशे में डूब जाएंगे..!
वह मुसकुराया- अच्छा, फिर..!
एक दिन तुम भी डूब जाओगे
वह हंसा..!
तुम्हें कैंसर हो जाएगा, चरस-गांजा पागल बना देंगे. मैंने उसे चिढ़ाया।
वह खिलखिलाया- शाकाहारी खाना ठीक है, जीवन नहीं..!
तुम सठिया गए हो
नशा आदमी को ईगो लैस बनाता है..!
फ्राइड को क्यों फ्राय कर रहे हो- मैंने आंख मिचकाकर कहा।
वह बिफर गया- हंसो मत, तुम स्वप्न विहीन हो..!
तो तुम्हारी सपनों की खेती है.!
तुमने दुनिया नहीं देखी- वह शराब गटक रहा था.
तुम्हारा ईगो और बड़ा हो रहा है, सपने डूब रहे हैं.!
नशेड़ी ईगो लैस होते हैं, सुखी रहते हैं, जिंदगी की अप्रत्याशित, असंभावित नियति से दूर..!
वे कहीं कुछ नहीं होते उनकी सारी संभावनाएं खत्म हो जाती हैं- मैंने उसे ताना मारा।
अब कि बिगड़ गया- पावर, पैसे और शोहरत का नशा नहीं है दिमाग पर. मेरे सपने हरे-भरे होंगे.
और जिंदगी सूख जाएगी- मैं मुसकुराकर बोला-मैंने खिलखिलाकर उसकी बात बीच में ही काट दी।
वह झल्ला गया- बोला-नशाखोरी पर प्रवचन मत दो
ये ईगो ही है जो ज्यादा बाहर आ रहा है.. गांजा-चरस असर मार रहा है अब बंद करो..!
नशाखोरी पर ज्ञान बांट रहे हो? वह चिढ़ते हुए बोला।
हां तुमसे बेहतर कौन बता सकता है? नशा तुम करोगे और ज्ञान मैं बाटूंगा, गंगा उलटी कैसे बहेगी..!
कार्तिक उस रात भड़क गया और केवल बोलता रहा- इश्क, दौलत और शोहरत नशे से कम नहीं.
मैंने हाथ जोड़े और उसे प्रणाम किया- बाबा ये चरस बोल रही या गांजा.
वह हंसने लगा.
मैं फिर कहा- बाबा तुम सो जाओ, कल सुबह बात करेंगे.
वह नशे में बहकता नहीं था, ज्यादा संभला हुआ नजर आता था. किसी पीर फकीर टाइप. उस दिन भी संभला हुआ था लेकिन बोले जा रहा था. उसका नशा पुराण सुनकर मैं हैरान था.
उसने कहा- तुम अभी बच्चे हो साले..!
मैंने हाथ जोड़े.
वह बोला- तुम चूतिये हो.
मैंने कोई रिएक्शन नहीं दिया..!
उस रात सबकुछ ऐसे ही चलता रहा नशे में डूबता हुआ..!
उस दिन कमरे में कार्तिक साहू बोलता रहा- उसने गजनी, सिकंदर, हिटलर-मुसोलिनी को नशेड़ी घोषित कर दिया. फिर महाभारत, सेकेंड वर्ल्ड वॉर, नागासाकी-हिरोशिमा पर परमाणु हमला, दंगे, युद्ध सांप्रदायिकता, धर्म सब उठा लाया और खामोश होकर सो गया.
मैं माथा पकड़कर बैठा था, उस रात नींद नहीं आई- नशा एक सामाजिक बुराई नाम के निबंध के बारे में सोच रहा था. मैंने सरकारी स्कूल के हिंदी टीचर रमाकांत यादव को याद किया और कार्तिक साहू को देखता रहा और सोचता रहा कि नशा आखिर चीज क्या है?
कार्तिक साहू हफ्ते के आखिरी दिन ऐसे ही रंग में रहता. शनिवार को गांजे की चिलम फूंकता और देर रात तक बतियाता. नहाने के लिए बाथरूम में जाता था तो बाहर से कुंडी नहीं लगाने का शक करता और जब ऑटो में बैठता था तो अजीब सी घबराहट से भर उठता और हाथ कसकर बांध लेता या फिर हाथ के बैग को जोरों के पकड़ लेता.
(तीन)
एक दिन मुझे पता चला-
कार्तिक साहू का 6 माह का बच्चा चलते ऑटो से उसके ही हाथों छूटकर ट्रैफिक से भरी सड़क पर गिर गया था. ऑटो आगे बढ़ गया जबकि उसकी पत्नी ज्योति चीखती रही. ऑटो रुकता और कार्तिक बच्चे को उठाता तब तक पीछे से एक कार बच्चे को कुचल चुकी थी. बच्चा सड़क पर ही मर गया था. बच्चे की लाश देखकर उसकी पत्नी ज्योति बदहवास सी हो गई थी और महीनों सदमे में रही फिर एक दिन रात को कार्तिक को छोड़कर हमेशा के लिए चली गई. सुबह से लेकर रात तक कार्तिक अपनी पत्नी को ढूंढता रहा, पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई पूरा, नागपुर छान लिया लेकिन वह कहीं नहीं मिली.
सचमुच आज तक नहीं मिली क्योंकि मिलती तो कार्तिक यहां नहीं होता.
वैसे एक दिन मुझे भी कार्तिक नहीं मिला. वह मुंबई में अनायास मिला था और अचानक से खो गया. दादर वेस्ट में डॉक्टर श्रीमंत विपट के यहां गहराती शाम में जब निकला तो फिर महीनों नहीं मिला.
मुझे डॉक्टर की आवाज फिर सुनाई दी- डॉक्टर ने कार्तिक के हाथ पर झटके से मारा, एकदम सुन्न बेजान थे. फिर झुककर गर्दन की ओर देखकर कहा- देख गला और गर्दन देख इसकी. हर जगह इंजेक्शन ठोंक मारा है इसने.!
मैं कार्तिक का गला देखने लगा, दोनों कानों के नीचे कई लाल चकत्ते और छेद थे. मेरी आंखें दहशत से भर गईं. वह एक पट्टेदार हाफ टी-शर्ट, नीली गंदी सी स्काय ब्लू कलर की जींस में था. जींस की चेन खुली हुई थी और उसकी अंडरवियर दिखाई दे रही थी.
‘देख पेंट के अंदर झांक इसके, जांघ में भी लगाया होगा इसने, पेनिस भी नहीं छोड़ते ये लोग “गुप्तांग में लगा इंजेक्शन तो सीधे दिल तक पहुंचता है. यह डोज रॉकेट की तरह पहुंचती है सीधे दिल तक”. कच्चे और कमजोर दिल ज्यादा दिन झेल नहीं पाते, ये कैसे झेल गया पता नहीं. दिन में तीन बार ड्रग्स की खुराक इंजेक्शन से लेते हैं तभी डोज पूरा होता है. दिन की खुराक न मिले तो पागलपन जैसी हरकतें करने लगते हैं. बैठे-बैठे झटके लगते हैं, आंखों से पानी और नाक से पानी बहता है. बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि ब्लेड या चाकू से खुदको ही चीरे लगा लेते हैं.
इसका नहीं, सबका यही हाल है, इसलिए बोलता हूं लेके जा. संजय दत्त नहीं है ये कि कोई सुनील दत्त अमेरिका लेके जाएगा.
डॉक्टर की बात सुन मेरे अंदर से आवाज आई बी फोकस ऑन यॉर जॉब आदित्य. लीव हिम. अपना ना लेना ना देना, यह सब क्यों झेलना.
उस दिन मैं कार्तिक को नशे की लत छुड़ाने इलाज के लिए लेकर गया था, लेकिन डॉक्टर ने मेरा ही नशा उतार दिया.
मुझे डॉक्टर की आवाज सुनाई दी. ये देख इसका एक पैर भी काटना पड़ेगा. सड़ गया तो पूरी बॉडी में पॉइजन फैल जाएगा. पर तू मत कटवा, छोड़ दे इसको इसके हाल पर.
मेरा सिर चकराने लगा. कार्तिक दादर में गुम हो चुका था. वह डॉक्टर के पास से निकला तो फिर मिला नहीं. मैंने ढूंढने की कोशिश भी नहीं की. उस दिन का दिन था ना मैं कार्तिक से मिला ना डॉक्टर से. लेकिन बावजूद इसके दोनों ही मेरे दिल और दिमाग में मिलते रहे. दोनों रह-रहकर मेरी आत्मा को झंझोड़ते रहे और दिल को चीरते रहे.
नशे की लत छुड़ाने वाला वह डॉक्टर रात को सपने में आता और नशे के बाद की दुनिया की कई कहानियां सुनाता. नशे की कहानियां. नशे में प्रवेश की कहानियां. नशा लेने के तरीकों की कहानियां. पेट्रोल सूंघने से लेकर ब्रेड में आयोडेक्स लगाकर नशा करने की कहानियां. चरस, गांजा, ब्राउन शूगर, हेरोइन, पेट्रोल, आयोडेक्स, म्याऊं म्याऊं, एलएसडी जैसी ड्रग्स और ड्राइव की कहानियां.
जाने कौन सी दुनिया की कहानियां थीं ये जिसमें हर कोई गुम हो गया था. ना कोई पूछने वाला था ना और बताने वाला. एक नर्क रचा गया था और नर्क के ही किस्से हवाओं में घुले हुए थे. किसी अस्पताल के कोने में तो किसी घर के कमरे में. दुनिया एक खौफनाक रात का अंधेरा थी. जब झांका तो पता चला- मासूमियत और कोमलता से भरा बचपन मुंबई से लेकर पटना और दिल्ली से लेकर कोलकाता तक बोनफिक्स और सॉल्यूशन के नशे में था.
हर एक बच्चे की एक जैसी कहानियां थीं. झुग्गी के बच्चे, मजदूर के बच्चे, अमीर के बच्चे, गरीब के बच्चे, होटल में काम करते बच्चे या स्कूल में पढ़ते बच्चे. 12 से 18 साल के बच्चे. उनके बीच बोनफिक्स का नशा बड़ा फेमस था. वे बोनफिक्स को प्लास्टिक की पन्नी में निचोड़कर हथेली में बंद कर जोर से सूंघते और बेसुध पड़े रहते. हर जगह नशा था. अजीब और अतरंगी नशा. नशा जिसका एक डोज शरीर को सुन्न कर देता. शरीर को हल्का कर देता. सबसे मुक्त. एक रंग-बिरंगी तस्वीर नजर आती. ना किसी से बोलना ना चालना, सबसे पार और सबसे परे. यू-ट्यूब पर भरे पड़े थे ऐसे वीडियो.
ये आधुनिक सभ्यता की देह से मुक्ति की कहानियां थीं. जहां कई मनहूस किस्से थे जो किसी शहर के बस स्टैंड से लेकर कॉलेज स्कूलों तक छाए हुए थे. घर के किसी कोने में ठहरे हुए अकेलेपन में फैले हुए थे. एक अंजान गुस्से में डूबे हुए थे तो किसी डर के साये में जीते हुए थे. हर ड्रग्स के लिए मोटा पैसा और हर बार के पैसे के लिए इसी दुनिया में लौटकर अपराध की कई कहानियां थीं. कहानियां जो महानगरों से होती हुई गांव, कस्बों और पहाड़ों में फैल रही थीं.
कार्तिक नसों के कारोबार में कहीं खो गया था. मुरझाने वाली हरी-भरी नसें. टूटती, बिखरती और शरीर का साथ छोड़ देने वाली नसें. नसें जो नशे के जहर से पंक्चर हो जातीं. पंक्चर नसें जब खून का साथ छोड़ देती तो सब ठंडा हो जाता. खून यानी गर्माहट, जिंदगी की आग, जब ब्लड जाम होने लगता तो शरीर के अंग शून्य हो जाते. सबकुछ ठप्प. इंजेक्शन लगा-लगाकर शरीर में इतने घाव हो जाते की मक्खियां भिनभिनाती. घाव ज्यादा होने पर हाथ-पैर तक काटना पड़ते. सस्ते इंजेक्शन और डोज के चक्कर में एक ही सिरींज का इस्तेमाल 10 से 15 लोग करते और इन्हें एड्स तक हो जाता.
कार्तिक को एड्स था. यही बताया था उस दिन डॉक्टर ने.
कार्तिक को मैं एकटक को देख रहा था. उसकी आंखों से और नाक से पानी निकल रहा था. मेरा दिल जोरों धड़क रहा था, मानों बस धड़क कर बंद ना हो जाए. उसी तरह बंद जिस तरह से उस तारीख को एक दरवाजा मुझे बंद मिला था.
उस रात कार्तिक नहीं लौटा. दरवाजा बंद था जिसकी एक चाभी मेरे पास थी. उसका सामान भी नहीं था. एक कोने में केवल मेरा सामान दिख रहा था. बूढ़े मकान मालिक ने बताया था कि वह तकरीबन 4 बजे के आसपास नीचे ऑटो लाया और सामान रखकर चला गया, लेकिन इस महीने के पूरे पैसे देकर गया है, सो तुम्हें देने की जरूरत नहीं है, देखो कोई नया पार्टनर जल्द ही मिल जाएगा.
मैं मकान मालिक की बात सुन अवाक् था.
मैंने कार्तिक को फोन लगाया-
भाई अचानक कैसे चले गए, कम से कम बताकर तो जाते.
अरे हम मिलेंगे. मैं मुंबई जा रहा हूं एक नाटक खेलने. तुम्हें बता नहीं पाया.
ये तो अच्छी बात है, लेकिन सामान क्यों ले गए?
एक मौका मिला है, इसलिए अब नहीं लौटूंगा.
ऐसा मौका किस काम का जहां लौटना ही संभव ना हो..! मैंने उदास होकर कहा.
मैं तुमसे जरूर मिलूंगा. नंबर तो है ही, उसने हंसते हुए कहा था.
हां दुनिया में अब लोग केवल नंबर ही रह गए हैं, आज तुम भी बन गए.
उस दिन के बाद कार्तिक फिर नहीं मिला ना मैंने उसे फोन लगाया ना उसने कभी याद किया.
फिलहाल मैं स्टेशन पर था और कार्तिक को दूर से देख रहा था. एक आदमी ने टिकट काउंटर से टिकट लेते हुए उसे लात मारी. ऐ उठ रे, साला मायला, निकल यहां से गर्दुल्ले. कार्तिक के शरीर में हरकत महसूस हुई और वह उसकी लात खाकर हल्का सा सरक गया. लगता था इंजेक्शन का नशा ज्यादा था. मेरी इच्छा हुई कि उसके पास जाऊं, लेकिन कदम रुक गए. मैं उससे बहुत दूर था. दिल से भी दूर था और जीवन से भी. वह कहां था पता नहीं. वह था लेकिन होते हुए भी नहीं था.
(चार)
गहराती रात में डूब रहे उस स्टेशन पर मैं कार्तिक को देख रहा था और उसकी बातों को याद कर रहा था. 7 से 8 साल बाद वह यहां था इस हालत में था. रात गहराती जा रही थी और रह-रहकर गुजरती ट्रेनों की आवाज में मेरे कदम चल पड़ते थे. मेरे लिए तो यह सबकुछ रोजाना का था, लेकिन जानें क्यों इस रात उसे देखकर अलग महसूस हो रहा था. कहीं कुछ अटका था. सोच रहा था एक बार जाकर उसे जगाऊं और अपने साथ ले चलूं, लेकिन वह बेसुध था. नाक-आंख दोनों से लगातार पानी बह रहा था. एक अजीब सी गंध फैली हुई थी. एक पैर के पंजे पर घाव था और अब तो वैसा ही हाथ पर भी था.
मैं कार्तिक के बारे में सोच रहा था. लावारिस जीवन लावारिस लाश ही होता है. जिंदगी भर कुछ नहीं होना और कुछ ना होते हुए मरना बड़ा भयानक होता है.
पॉप अप टाइप जिंदगी. ओपन हुआ और बंद. लहर आई और फिर चली गई. बुलबुला उठा और…!
यह सब मैं बस दूर से खड़े रहकर सोच भर रहा था. लेकिन पास नहीं जा पा रहा था जबकि सबसे ज्यादा करीब मैं ही था. पता नहीं मैंने वो पिछली दो लोकल क्यों छोड़ दी और वहां से चला क्यों नहीं गया. रात के पौने ग्यारह बज रहे थे. एक मुंबई सोने की तैयारी में थी तो दूसरी जागने की. मैं उस शहर के दिल में था यानी की माहिम में. कार्तिक को इतना बेसुध मैंने पहले कभी नहीं देखा था. शरीर में कोई हरकत नहीं थी एकदम बेजान सा दिखाई देता था.
मुझे लग रहा था वह दोबारा उठेगा और मुझे बिल्कुल ना पहचानते हुए भी चाय पीने आएगा, या कुछ खिलाने के लिए कहेगा, पैसे मांगेगा, या फिर पुरानी बातों को याद करेगा, एक कहानी सुनाएगा कि जब वह अचानक चले गया तो मुंबई में बीते पांच सालों में कैसे रहा? कहां रहा? ज्योति कभी मिली की नहीं. क्या उसने उस पर कोई कहानी लिखी? कोई कविता? इस दुनिया में बिल्कुल अकेले रहते हुए उसके सपने भी क्या अकेले रह गए? उसने पृथ्वी थियेटर में किन नाटकों को खेला? कहां ऑडिशन दिए? फिल्म सिटी कैसी थी? किन कलाकारों-सितारों से मिला? लेकिन कार्तिक वैसे ही पड़ा था. आती सांस के साथ भी उतना ही जितना जाती सांस के साथ. कोई हरकत नहीं थी, कहीं कोई बेचैनी नहीं इशारा नहीं. पसरा हुआ उसका शरीर दिख रहा था.
अचानक एक पुलिस वाले ने उसे डंडे से हिलाया, पीठ पर डंडा रखकर दबाया कोई हरकत नहीं हुई और उसका का शरीर निढाल होकर गिर गया. मानों कोई लाश हो. पुलिस वाला वायरलेस पर एक संदेश दे रहा था.
मेरी आंखें पथरा सी गईं थीं. दिल बैठ रहा था क्योंकि एक दिल थमता हुआ दिखाई दे रहा था. अंदर एक हलचल मची हुई थी क्योंकि बाहर एक सन्नाटा तैर रहा था. मेरी निगाह सामने थी क्योंकि एक दृश्य भीतर था.
कार्तिक के करीब एक पुलिस वाला और पहुंचा था जबकि दो लोग एक स्ट्रेचर लेकर पहुंचे थे. सामने एक एम्बुलेंस खड़ी थी. दो लोगों ने उसे उठाया और स्ट्रेचर रखकर जाने लगे. मेरे पैरों में हरकत हुई और मैं तेजी से उनके करीब पहुंचा.
मैंने- वायरलेस पर पुलिस वाले की आवाज सुनी.
एक बॉडी है 40 के आसपास की. लावारिस है. फिर कार्तिक की लुढ़की हुई गर्दन देखी. जैसे दुनिया से मुंह मोड़ लिया हो. वह चेहरा भी देखा जो 8 साल पहले का था लेकिन उस पर वही मुस्कान थी जो कुछ देर पहले मेरे पुकारने उसके चेहरे पर फैली थी. दुनिया के दुखों के बीच उसकी कहीं अपनी जगह थी, उसकी अपनी दुनिया.
मेरी निगाह से कार्तिक ओझल हो रहा था जबकि मैं अब भी वहीं था; एक लोकल ट्रेन सामने से आ रही थी, अंधेरी स्टेशन के लिए थी. मैं वहां से तुरंत निकल जाना चाहता था दिल में एक अंधेरा लिए, लेकिन पैर जकड़ से गए थे. ट्रेन मेरे सामने आकर रुकी तो मैंने पैरों को पूरी ताकत लगाकर उठाया और दरवाजे के बीच में लगे पाइप को पकड़कर बिल्कुल अंजान बनकर वहां खड़ा हो गया.
एक झटका लगा और ट्रेन एक गति के साथ चल पड़ी, जैसे जीवन चलता है..!
मैंने पीछे पलटकर देखा
सबकुछ ओझल हो चुका था..!
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सारंग उपाध्याय
पत्रकार और लेखक, पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में.
वर्तमान में और राष्ट्रीय समाचार पत्र अमर-उजाला की वेबसाइट में डिप्टी न्यूज एडिटर.
कविताएं और कहानियां प्रकाशित.
साल 2018 में कहानियों के लिए मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘माधुरी अग्रवाल स्मृति’ ‘पुनर्नवा’ नवलेखन पुरस्कार.
sonu.upadhyay@gmail.com
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