उपशीर्षक
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जब समय अफवाह बन रहा हो और सच को झूठ बनाने पर आमादा हो. जब मंशाएं कुटिल व हिंसक हों, विवेक लकवाग्रस्त और विचार ध्वनियों में शोर की तरह भिनभिना रहा हो, जब प्रश्न हकला रहे हों और जवाब गायब हों, जब इस दौर और समय पर सवाल उठाने वाले शीर्षक योजनाबद्ध तरीके से छिपा लिए गए हों, गायब किए जा रहे हों और सारा संबोधन उपशीर्षक से हो रहा हो तब कविताएं ही शीर्षक होंगी, वे प्रश्न बन जाएंगी, सवाल करेंगी और समय को कटघरे में खड़ा कर झूठ को बेनकाब करेंगी.
वे उन सवालों को उठाएंगी जिनके जवाब शोर में दबा दिए गए हैं, उन जवाबों को तलाश करेंगी जिन्हें इतिहास में दफन करने की साजिशें चल रही हैं.
कविताएं न्याय और सच की तलाश में सुदूर भविष्य में झांकेंगी ताकि अपने वर्तमान को ठीक से संबोधित कर सकें.
वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज के नये कविता संग्रह “उपशीर्षक” के लिए उन्हें खूब सारी बधाई, शुभकामनाएं और इस बात की भी कामना कि यह कविता संग्रह अपने शीर्षक के मार्फत उन उपशीर्षकों की पड़ताल कर सके और उन्हें बखूबी बेनकाब भी कर पाए जिन्हें गढ़ने में यह समय, यह व्यवस्था और राजनीति लंबे समय से जुटे हैं और जिनकी वजह से इस समय में प्रश्न के उत्तर में प्रति प्रश्न का चक्रव्यूह खड़ा करने की साजिशें बदस्तूर जारी हैं.
फिलहाल इस काव्य संग्रह में प्रवेश से पूर्व आपसे नीचे दी गई तीन बातों को साथ लिए चलने की गुजारिश, क्योंकि ये तीनों ही बातें अपने समय/अपने दौर के सवालों और जीवन को महसूस करने से जुड़ी हैं और इन तीनों ही बातों को सहेजना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यह बातें इस संग्रह से गुजरते हुए कविताओं के लिए एक जरूरी मानस को तैयार करेंगी और इन कविताओं में घट रहे समय को एक गवाह के रूप में दर्ज करेंगी.
1-तो पहली बात जिसे कभी वाल्तेयर ने कहा था- Judge a man by his questions rather than by his answers.”
2-दूसरी बात जिसे कुमार अंबुज एक बातचीत में कहते हैं- हर समय में केवल प्रश्न और उत्तर ही होते हैं. जब सवाल खत्म हो जाते हैं तो उत्तर आना बंद हो जाते हैं. फिर संवाद विहीनता पैदा होती है और हम एक खामोशी में फंस जाते हैं, जिसका कोई भविष्य नहीं है. सवाल के खत्म होने और जवाबों का आना बंद हो जाने से हम एक ऐसे वर्तमान को संबोधित करने लगते हैं जिसके भविष्य के बारे में राजनीति के पास कोई जवाब नहीं होता है.
3-और तीसरी बात- जिसका ऊपर दर्ज बातों से कोई खास लेना-देना नहीं है और वह सिर्फ कुमार अंबुज की इन सारी कविताओं को पाठकों तक पहुंचाने का ध्येय मात्र है जिसे आप चाहें तो स्वीकार करें अथवा नहीं और जो इस कविता संग्रह के प्रथम पृष्ठ पर दो लाइनों में पोलिश-ब्रिटिश लेखक जोसेफ कर्नाड के उस कथन के रूप में चिपकी हैं जिससे कविताओं से गुजरते हुए हम उस ताप, रौशनी और संवदेना को महसूस कर सकें जो इस काव्ययात्रा के भीतर प्रवाहित हो रही है-
वह कथन जो जोसेफ कर्नाड के लिखे से कुमार अंबुज कह रहे हैं-
“मेरा काम है कि मैं आपको सुनने, कुछ महसूस करने और सबसे ज्यादा कुछ देखने के लिए तैयार कर सकूं. बस यही, और यही सबकुछ है.”
बतौर पाठक यदि आप थोड़े संवेदनशील और जागरूक हैं, आप अपनी आसपास की दुनिया से लगातार सवाल पूछते हैं और आपके भीतर कविताओं के प्रति कोमल, प्रेममय और सात्विक भावुकता के साथ ही विवेक और विचार की धार, हल्की सी भी कुंद नहीं पड़ी है तो फिर कुमार अंबुज का नया कविता संग्रह “उपशीर्षक” आपसे बहुत कुछ कहना चाह रहा है. कविताओं के जरिए सवाल उठाना और सवाल पूछना चाह रहा है. यह कविता संग्रह बीते एक से डेढ़ दशक में हुए बदलावों को दर्ज करता वह दस्तावेज है जहां एक पूरा समय, दौर और दुनिया कटघरे में है और इसमें मौजूद कविताएं इस समय के तीखे और ज्वलंत सवालों से अपने पाठकों को भी कटघरे में खड़ा करती हैं.
इस कविता संग्रह में साल 2010 और उससे पहले से लेकर 2021 तक की कविताएं हैं. संख्या में तकरीबन 80 से ज्यादा इन कविताओं में एक समय की राजनीति, समाज, संस्कृति, जीवन और बदलते मानवीय मूल्यों की पड़ताल है. इन कविताओं से बीते डेढ़ दशक में हुए सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सभ्यतागत् और विशेष रूप से राजनीतिक परिवर्तनों के बीच हुई उथल-पुथल झांक रही है. यहां भीड़ में बदलते मनुष्यों की चेतना के पतन की करवटें हैं, व्यवस्था के बीच अस्तित्व के संकट से जूझते और हाशिए पर धकेले जा रहे मनुष्यों की वेदना और त्रासदियां बोल रही हैं. इन कविताओं में घर-परिवार, नाते-रिश्तों में आईं उलझनें दर्ज हैं, टूटते घर हैं और तबाह होती छोटी-छोटी दुनिया हैं, यह कविताएं अन्याय, शोषण और संघर्षों की घुटन, बेचैनियों, जीवन की कठिनाइयों और संकटग्रस्त समय में फंसी वेदना का चित्रण है.
एक गहन नागरिकता बोध से भरी यह कविताएं गहरी अंतर्दृष्टि समेटे हुए है जो राजनीति, व्यवस्था के बीच पिस रही मनुष्यता के साथ खड़ी मिलती हैं. यह काव्य संग्रह अंधड़, अबूझ और विवेकहीन होते दौर में मनुष्यता के बचे रहने और दुनिया की नये सिरे से तलाश करने की काव्य यात्रा है.
जिस पहलक़दमी के लिए हमें
एक मिनट भी इंतजार नहीं करना चाहिए
हम उसके लिए एक साल, पांच साल, बीस साल
ना जानें कितने वर्षों तक प्रतीक्षा करते चले जाते हैं
जैसे प्रतीक्षा करना भी जीवन बिताने का कोई उपाय है
जब ऋतुओं के अंतराल में पतझर आता है
हम आदतन करने लगते हैं अगले मौसम का इंतज़ार
लेकिन देखते हैं यह तो पलटकर वापस आ गया है पतझर
तब नष्ट होते चले जाने के दृश्य
चारों तरफ़ चित्रावली की तरह दिखने लगते हैं
मुड़कर देखने पर दूर तक कोई दिखाई नहीं देता
ना किसी के साथ चलने की आवाज़ें आती हैं
तभी अचानक प्रकट होती हैं कुछ इच्छाएं
कहती हैं हम अंतिम हैं
हमें एक पुराना नीला फूल खिलते हुए देखने दो
देर रात तक बैठने दो गली के लैम्पोस्ट के नीचे
दोस्त के साथ बचपन के शहर में रात का चक्कर लगाओ
यह जानते हुए कि उस पौधे की प्रजाति खत्म हो चुकी है
लैम्पपोस्ट का क़स्बा कब का डूब में आ गया है
और दोस्त को गुज़रे बीत गया है एक ज़माना
इच्छाओं से कहता हूं तुम अंतिम नहीं हो
असंभव हो
आगे चलते हुए वह अकेला बच्चा मिलता है
जो रास्ते में मरी हुई चिड़िया देखकर
इस तरह रोने बैठ जाता है
जैसे जिंदगी में पहली बार अनाथ हुआ हो
प्रतीक्षा-भरी इस अनिश्चित दुनिया में
वह भोर के तारे को उगता हुआ देखता है
फिर उसे अस्त होते हुए
सभ्यता की राह में आगे दिखती हैं वे दीवारें
जिन पर लगाए पोस्टर फाड़ दिए गए हैं
चलते-चलते हम आ गए हैं उस जगह
जहां पोस्टर तक का जीवन ख़तरे में है
और सबको अंदाज़ा हो जाता है कि अब
मनुष्यों का जीवन और ज्यादा खतरे में पड़ चुका है.
(जब एक पोस्टर का जीवन)
संग्रह की प्रथम कविता को ही केंद्र मानें तो यह वह कविता है जो शेष कविताओं के समय और दिशा को तय करती है, जहां समकालीन समाज और उसके केंद्र में सांसे ले रही मनुष्यता पलटकर देख सकती है कि वह दरअसल कहां आ पहुंची है.
कुमार अंबुज की ये कविताएं राजनीति और व्यवस्था के बीच फंसे एक आम निम्न-मध्यवर्गीय मनुष्य जीवन का विलाप है, इन कविताओं में इस व्यवस्था में न्याय की आस में चप्पलें घिसती, ठगी हुई मनुष्यता का रुदन है. एक शोक है, निरे, कोरे, अंधड़, विवेकहीन, मतिशून्य भावनाओं के सैलाब में फंसी मनुष्यता का, एक रोष और गुस्सा है उस राजनीति, व्यवस्था की विषमताओं, शोषण और उग्र राष्ट्रवाद के खिलाफ जिसके शोर में सच की आवाज गुम हो रही है, जहां मनुष्य को मनुष्य नहीं समझा जा रहा और जीवन को जीवन.
तुम नहीं मांगोगे न्याय जैसी कविताएं इस क्रूर होती व्यवस्था से एक मोर्चे पर सीधे मुठभेड़ करती दिखाई देती हैं, तो दूसरे पर सवाल उठाती हैं और तीसरे छोर पर उस दुख, एकांत, टूटन, त्रासदी और पीड़ा को सामने लाती है जिससे समाज के अंतिम हिस्से में खड़ी मानवता लहुलुहान है-
बाक़ी अंग बरामद नहीं हुए
लेकिन वे मेरे पिता ही थे जो मारे गए
यह उनके एक पांव के जूते से तय हुआ
राजकीय सम्मान के साथ जूते की अन्त्येष्टि करते हुए
जयकारों के बीच उन्हें बार-बार कहा गया शहीद
जूते की तस्वीर हमने नहीं उतारी
वह उस दिन के किसी अख़बार में हो सकती है
तीन चार दिन भीड़-भाड़ रही, अब हम अपने अकेलेपन में
पिता की नौकरी पर जाने से पहले की वह तस्वीर देखते हैं
जिसमें शहीद होने की कोई कामना नहीं दिखती
परिवार पालने का स्वप्न टिमटिमाता है.
(सच्ची तस्वीर)
उपशीर्षक संग्रह की सारी ही कविताएं सजग नागरिकता बोध की कविताएं हैं. एक जागरूक और सवाल उठाने वाले व्यक्ति की डायरी जहां वह सबकुछ है जो एक व्यवस्था के अंतिम सिरे पर सतत् दर्ज हो रहा है. जीवन में होते अप्रत्याशित, अनैच्छिक बदलाव, आपदाएं, व्यवस्था की उपेक्षा, विस्थापन/पलायन और भटकाव से उपजा संकट, शोषण, टूटी हुई भावनाएं, कुंठाएं और वह सबकुछ जिसे एक कवि अपनी संवदेनशीलता में दर्ज करता चलता है.
इस रूप में कुमार अंबुज के भीतर का कवि सजग नागरिक भी है. एक जागरूक और सतर्क लेखक, जिसकी दृष्टि सत्ता के हर कार्य, गतिविधि और हर उस फैसले पर रहती है जिसका सीधा प्रभाव जनता पर पड़ता है, मनुष्यता पर पड़ता है और पूरा समाज उससे प्रभावित होता है. उनकी कविता राजनीति से दूर होकर नहीं अपितु उसके केंद्र में आकर सीधी बात करती है. उनका वैचारिक दृष्टिकोण उस जनपक्षधरता के साथ खड़ा मिलता है जहां हाशिए पर और तकरीबन पीछे धकेल दिया गया समाज मुख्यधारा से अलग अलग-थलग दुनिया में संघर्षरत् है. अपने अधिकारों के लिए लड़ता-भिड़ता, घायल होता और न्याय की आस में लगातार मुठभेड़ करता.
कुमार अंबुज की कविताओं से झांकती उनकी काव्य दृष्टि बेहद तार्किक और पैनी है. उनकी कविताएं अपने आसपास घट रहे बारीक और सूक्ष्म बदलावों को ना केवल रेखांकित करती है, बल्कि परिणाम पर नजर रखती है और उसके पीछे के कारणों को भी सामने लाती है.
वे असहाय, शोषित, ठगे और छले हुए आदमी के खिलाफ धोखे से काम कर रहे सिस्टम को एक झटके में नंगा कर देते हैं. खरी, सीधी बात और बिना किसी लाग-लपेट के उनकी कविताएं सीधे वहां हाथ धरती हैं जहां मनुष्यता की संवेदनाएं धड़क रही हैं, जहां मनुष्य का आत्माभिमान सांसे लेता है.
आखिर कहां हैं इनकी जमीन, कितना है इनका रकबा
क्या ये इस घर में, इस पेड़ के नीचे, इस नदी किनारे
इस तलहटी में जीवन भर रह सकते हैं
या तुम्हारे द्वारा खींच दिए गए घेरे के बाहर
एक कदम भी रख देंगे तो हो जाएंगे निर्वासित
(एक अधूरी कहानी)
कविता के भीतर एक कहानी रचती यह कविता हाशिए पर पड़े, विस्थापित, शोषित, भुला दिए गए और पिछड़ चुके मानव समुदाय का रुदन है. यह कविता बेहद मार्मिक और संवदेनशील कविता है.
दरअसल, उपशीर्षक संग्रह की सारी ही कविताएं अपनी भाषा, तेवर और संवेदना व अनूभूति के स्तर पर इस समय को दर्ज करती हैं, व्यवस्था की विषमता, शोषण और अन्याय पर सीधा प्रहार करती हैं. बाजारवाद और सरमायादारी में प्रवेश कर चुके भारतीय समाज के प्रभावों की पड़ताल करती है, जरूरी सवाल उठाती है और प्रत्येक उस पक्ष को कटघरे में खड़ा करती है जो जिम्मेदार है और नीति नियंता बना हुआ है.
कुमार अंबुज कविताओं के माध्यम से सीधा सवाल उठाते हैं. कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं और ना ही किसी काव्यात्मक सौंदर्य और शिल्प में फंसकर वे किसी यथार्थ को औचक तरीके से उजागर कर चमत्कार खड़ा करने की कोशिश में रहते हैं अपितु इसके इतर वे सीधी और दो टूक बात करने में विश्वास करते हैं. सपाट और सीधा सवाल उठाने वाली भाषा. इस तरह देखें तो उनकी कविताएं एक अनूठे खुरदुरे कलात्मक सौंदर्य से भरी हुई हैं. यथार्थ इन कविताओं में मानों अपने उबड़-खाबड़ किंतु सत्य के सौंदर्य में भीगा हुआ है. इन कविताओं में रचते-बसते शब्द, कविता कर्म में शब्दों को बरतने की खूबसूरत बानगी हैं. ये कविताएं शब्दों की ताकत पहचानती हैं. वे शब्दों से सवाल भी उठाती हैं और सवाल पूछना भी जानती हैं. वे इन्हीं शब्दों की कोमलता से एक ओर संवेदना और सहानुभूति का स्पर्श करती हैं तो वहीं उन्हीं शब्दों से चोट भी करती हैं. यही शब्द मिलकर उनकी कविताओं की स्पष्ट आवाज बन जाते हैं, ऐसी आवाज जहां गहरे अर्थबोध, समाज की प्रचलित धारणाओं, मान्यताओं को ढहा देते हैं.
जिस थाली में खाता है उसी को मारता है ठोकर
जिस घर में रहता है उसी में लगाता है सेंध
याद करो
तुमने उसकी थाली में वर्षों तक कितना कम खाना दिया
याद करो तुमने घर में उसे उतनी जगह भी नहीं दी
जितने तिलचट्टे , चूहे, छिपकलियां
या कुत्ते घेर लेते हैं
(नमक हराम)
दरअसल, कुमार अंबुज का काव्य संसार शब्दों, बिम्बों, अर्थों और वाक्य संरचना में निहित निरा, कोरा लिजलिजा भावुक रसायन नहीं है और ना वाहवाही के लिए खड़ी की गई भाषा की आकर्षित करने वाली मरीचिका, जहां बहुत कुछ कह चुकने के बाद ना हासिल कुछ है ना हाथ कुछ आया है.
सबसे ज्यादा ताकतवर होती है निराशा
सबसे अधिक दुस्साहस कर सकती है नाउम्मीदी
यह भी एक आशा है
कि चारों तरफ बढ़ती जा रही है निराशा
दरअसल, वे भाषा में भाषा नहीं रचते अपितु सरल भाषा में गहरे अर्थों का संसार खड़ा करते हैं. उनकी कविताएं गहरी और सघन अनुभूतियों का संसार है, जहां भाषा अपनी सीमा में अपने सत्य से सुंदर बन पड़ी है. इन कविताओं की काव्य भाषा इस समय, समाज और व्यवस्था के पार देखती है, वह भेदना जानती है और सच को पहचानना भी. उनकी कविताओं में शब्दों और भाषा की तिजारत नहीं मिलती अपितु वे अपने पाठक से तकरीबन सामान्य, सरल प्रवाह में बातचीत भर करते हैं और फिर बातचीत के बीच एक ऐसे यथार्थ में प्रवेश कराते हैं जहां एक कवि अचूक, कठोर, सीधी, सधी, मारक और तकरीबन कार्रवाई के अंदाज में सीमित शब्दों में कविता गढ़ता मिलता है, ऐसी कविता जो अपने जायके में कड़वी है लेकिन रोगी समाज, बिगड़ैल सत्ता प्रतिष्ठानों को होश में लाने के लिए पर्याप्त है और सड़ रही व्यवस्था का इलाज कर सकती है. उनकी कविताएं सीधे शब्दों की चोट करती हैं- बातों-बातों में चोट करते ये शब्द इतने मारक और भेदी हैं की तिलमिलाना स्वाभाविक है-
कविता ‘रोटी, कम्बल और पैरासिटामॉल’ जो साल 2017 में लिखी गई है, लेकिन 2019 के अंत तक आते-आते कोरोना जैसी महामारी में, जब हर आम और खास अकाल मृत्यु की गोद में समा रहा था, दौर कठिन था और व्यवस्था की चाल, चरित्र सभी उजागर हो रहा था, लाखों करोड़ों के बैल आउट पैकेज का तिलिस्म सामने था, दवा, इलाज और अस्पतालों के बीच सांस-सांस के लिए आदमी मोहताज था, भूखे, प्यासे, सैंकड़ो मील चलकर प्रतिस्थापन को मजबूर हुए लोग, चिलचिलाती धूप, बारिश के बीच काफिलों में पैदल बढ़ रहे थे ऐसे में यह कविता मानो हर आदमी की पुकार बन गई. मानो समय को भेदती और मनुष्यता के पक्ष में खड़ी आवाज, ऐसी आवाज जो सत्ता के गलियारों में बैठे हुक्मरानों से हर नागरिक का हक मांग रही हो-
कई बार रखी गई मांगों को फिर रखता हूं
कि दो वक्त की चाय और तीन वक्त की रोटी चाहिए
दो जोड़ी कपड़े और रोशनीवाला हवादार कमरा चाहिए
वित्त मंत्री भला करें रिजर्व बैंक का या ना करें
मगर मुझे चटनी के लिए थोड़ा सा हरा धनिया चाहिए
ठेले-खोमचेवालों से भी छोटी-मोटी चीजों का
करना पड़ता है मोल-भाव जो बिल्कुल सुहाता नहीं
लेकिन टैक्स और महंगाई इतनी है कि करना पड़ता है
आप कम कर दें भले ही सचिवालय का स्टाफ
या बंद ही हो जाए बिना काम का कोई मंत्रालय
मगर मुझे दाल, चावल, कम्बल और कैल्शियम चाहिए
अनगिनत मुश्किलें हो गईं हैं चारों तरफ
देशव्यापी वीरताओं की नृशंसताओं से पटे हैं अखबार
मुझे सिरदर्द हो रहा है, दुख रहा है बदन, चढ़ आया है बुखार
इस हालत में मुझ नागरिक को
किसी का वक्तव्य नहीं चाहिए, पैरासिटामॉल चाहिए.
(‘रोटी, कम्बल और पैरासिटामॉल’)
दरअसल, यह कविताएं देश, काल से पार हर उस वक्त की कविताएं हैं जहां मनुष्यता के साथ अन्याय हो रहा हो. इन कविताओं में शोषण के खिलाफ द्रोह है, सवाल उठाने की सीधी ताकत है. कुमार अंबुज की कविताएं केवल परिस्थिति विशेष में उपजे संकट के प्रति द्रोह करती कविताएं नहीं हैं बल्कि हर दौर में जब-जब मनुष्यता शोषण, अत्याचार और व्यवस्था के पैरों तले कुचली जाएगी वहां यह कविताएं हक मांगती खड़ी मिलेंगी. इन कविताओं की ताकत हर समय में लगातार तीक्ष्ण होती इनकी सार्थकता है.
भविष्य के आसन्न संकट को देखती, अपने समय को भेदती और निरंतर खतरों के प्रति आगाह करती कुमार अंबुज की काव्य दृष्टि व्यवस्था के हर कोने पर है. ऐसी मानो सैटेलाइट के रूप में वे एक सच्ची नजर रखे हुए हैं. ना उनसे कुछ छिपा है और ना किसी मनुष्य विरोधी विचारधारा को वे बख्शेंगे. इस संदर्भ में वे बीते एक दशकों के बदलावों पर पूरी नजर रखे हुए हैं, आज जबकि यह समय और ज्यादा संवेदना शून्य हुआ है, जहां धर्मांधता का बोलबाला है, लोग हत्यारी भीड़ में तबदील हो रहे हैं, जहां मनुष्य को एक जाति, धर्म और समूह की पहचान में समेट दिया गया है और एक व्यक्ति की नागरिकता और अस्तित्व संकट में है, जहां उग्र राष्ट्रवाद की अंधी आंधी ने राष्ट्र को ही दांव पर लगा दिया है, जहां सभ्यतामूलक प्रश्नों के साथ मनुष्य की पहचान उसके अस्तित्व से ज्यादा बड़ी हो गई है, जहां धर्म, जाति, और चंद प्रतीकों में संपूर्ण मनुष्यता परिभाषित हो रही है, वहां कुमार अंबुज की कविताएं सवालों के साथ इस समय में प्रवेश करती हैं और परत-दर-परत इस व्यवस्था, समय और समाज के सच को उघाड़ती चलती है.
संग्रह की अंतिम कविता शोक सभा जो कि एक लंबी कविता है एक पूरे कालखंड के भीतर दर्ज उथल-पुथल को, विघटन, विस्थापन, विषमताओं, शोषण और अन्याय को दर्ज करती है. अपने कई उपशीर्षकों के बीच इस कविता में बीते केवल एक दशक ही नहीं बल्कि सालों का वह शोक दर्ज है जो दुख, दर्द और वेदना के रूप में उस अंतिम मनुष्य के हद्य में धड़क रहा है जिसकी सांसों को तक सुना नहीं गया- जो बेदखल है और तकरीबन गायब है. इस लंबी कविता की खूबसूरती इनके वह उपशीर्षक हैं जो दरअसल इस समय के असली शीर्षक हैं और वह संबोधन है जिसे वास्तव सवालों के रूप में रखा जा रहा है.
इस कविता का शीर्षक उस दुख की शोकसभा के रूप में दर्ज हुआ है जिसके दुख में डूबे आंसुओं को ना पहचाना गया ना समझा गया. यह कविता विस्थापन, उजाड़ होते गांवों, कस्बों के जीवन संघर्ष, उपभोक्ता संस्कृति के बीच मची मारकाट में अस्तित्व के प्रश्न, क्रूर और हिंसक होती व्यवस्था और उसकी नीयत, सत्ता की दुरभिसंधियां, छल, छद्म और प्रपंच के बीच अनवरत् जारी युद्ध, बेगुनाहों की हत्याओं, राजनीति के दुष्चक्र में संकटग्रस्त मनुष्यता, आपदाओं, अनिश्चित और अंधकार में डूबे भविष्य, अनिर्णय में टूटती बिखरती पीढ़ियां, पलायन के बीच टूटते मरते-खपते लोगों की हताशा, कुण्ठा, बेचैनी, संत्रास, घुटन के बीच उपजे शोक की कविता है.
मृत्यु हमेशा की तरह यशस्वी है
कोई मर जाता है भीड़ में फंसकर
कोई बंद कमरे में निर्विकार और तटस्थ
अकाल मृत्यु किसी का यश नहीं
चिंतक दृष्टि, जनपक्षधरता, शोषण और अन्याय के खिलाफ खड़े होने के इरादे, सत्ता से प्रश्नों के जरिए टकराने की ताकत और हाशिये पर खड़े अंतिम व्यक्ति को संबोधित कर व्यवस्था के बरक्स उसके जीवन मूल्य और उसके अस्तित्व के प्रति चिंता जाहिर करती कुमार अंबुज की इन कविताओं का मूल तत्व मनुष्यता के खिलाफ उन साजिशों का पर्दाफाश करना है जो बीते एक दशक में एक शोर के समानांतर खड़ी की गई हैं. सत्ता की फूहड़ महत्वाकांक्षाएं, व्यर्थ के शक्ति-प्रदर्शन, झूठ के शोर में सत्य को कुचलने के षड्यंत्र और तकरीबन पूरे समाज की मानसिकता को गुलाम बनाने की कवायद के बीच में कुमार अंबुज की ये कविताएं दरअसल, उपशीर्षक के रूप में सीधे शीर्षक बनकर सत्ता से सवाल कर रही हैं. ऐसे सवाल जिनके जवाब भी एक सवाल बनाकर लगातार फेंके जा रहे हैं.
इधर, इन कविताओं के बीच ही संग्रह की कुछ ऐसी कविताएं हैं जहां कुमार अंबुज जीवन और अस्तित्व के उस एकांत और नीरवता में भी प्रवेश करते हैं, जहां एक मनुष्य की भावनाएं, प्रेम, जीवन सौंदर्य, एकाकीपन और रिश्ते नाते, पारिवारिक जीवन और उसके अपने सुख-दुख घट रहे हैं. ये कविताएं एक व्यक्ति के जीवन और जीजिविषा के बीच सहानुभूति, चिंता, आत्मवेदना और स्वाभिमान से भरी हुई हैं. जीवन में गहरी धंसी, जीवन के ताप से दमकती, अपनी विराटता में सघन, सधी, संश्लेषित और गहरे मानवीय बोध से भरी हुईं कुछ कविताएं तो आत्मा को स्पर्श करती हैं. इन कविताओं में कुमार अंबुज का कवि मन जीवन के अर्थ तलाशता हुआ बेहद कोमलता से अपने पाठकों तक पहुंचता है. अतीत का संसार, बीत चुके गांव और कस्बे, बदलती दुनिया और लगातार परिवर्तन के दौर में प्रवेश करती मनुष्यता के अवकाश से संवाद करती यह कविताएं मनुष्य के एकांत का गान हैं.
एक घर था मां-पिता का
उसे याद करना कई लोगों को याद करना है
जैसे पूर्वजन्म के स्वप्न से गुजरना है
अब कहीं ऐसा घर नहीं जो करता हो मेरी प्रतीक्षा
जहां कोई सांकल, खिड़की का पल्ला
मकड़ी का जाला भी तकता हो मेरी राह
इधर सड़कों, गलियों को पार करते हुए
दिख जाती है कभी कोई टूटी दीवार
जिसे देखकर यही आता है याद
किसी का घर नहीं रहा
ऐसे ही यह कविता कुछ लाइनें देखें-
कई जगहों में कई मकानों में रहा
जो घर ना बन सके
लेकिन स्मृति में बने हुए हैं
जिस मकान में रहता हूं अभी
लगता है वह मेरी स्मृति में ही कहीं है
अनेक परिजन जिनके साथ गुजारा जीवन
स्मृति में हैं कुछ इस तरह कि
अभी रहता हूं जिन चार लोगों के संग
तो लगता है उनके साथ नहीं
उनकी स्मृति के साथ रहता हूं
कुमार अंबुज की कविताओं में जीवन के शाश्वत और अंतहीन सुख-दुख के चक्र में एक जीवन दृष्टि भी दिखाई देती है जो जीवन की नश्वर होती धारा को अलग तरह से दर्ज करती है- वे दुखों के बीच जीवन की मद्धिम होती उजास को बेहद कोमलता के साथ स्पर्श करते हैं. कुमार अंबुज के भीतर का कवि छूटे, अधूरे और नियति के चक्र में दर्ज उतार-चढ़ावों में घूम रही मनुष्यता को भी सहेजता है.
पिताओं के बारे में कुछ और पंक्तियां स्मृति का जीवन/कीमत सहित कई कविताएं इस विराट जीवन में छूटी हुई चीजों का
गान है. कुछ रुका, थमा और टूटा हुआ समय का वह किस्सा जहां मनुष्य अपनी स्मृतियों में ठहरा हुआ है. उनकी इन कविताओं में छूटा हुआ और एकाकी जीवन है, कुछ अर्थ हैं और कुछ निरर्थकताओं के बीच जीवन को समेटने की बेचैनी दिखाई पड़ती है. अपने एकांत
में खुलती यह कविताएं इस संग्रह की सबसे सुंदर सुखद कविताएं हैं जो हर मन की स्मृति की गांठों को खोलती है.
अंत में शेष इतना ही कि उपशीर्षकों के मार्फत अपने दौर के सही शीर्षकों को सामने लाता यह कविता संग्रह लंबे समय तक हिंदी कविता साहित्य का महत्वपूर्ण “शीर्षक” बना रहेगा. खासतौर पर उन बदलावों के साक्षी के रूप में जिसे दुनिया अक्सर दशकों तक अतीत के एक खंड में सुरक्षित रखती है और फिर बाद में इतिहास के उस आखिरी हिस्से में दफन कर
देती है जहां से हर दौर के वर्तमान को चुनौतियां मिलती रही हैं.
सारंग उपाध्याय
पत्रकार और लेखक, पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में.
वर्तमान में और राष्ट्रीय समाचार पत्र अमर-उजाला की वेबसाइट में डिप्टी न्यूज एडिटर.
कविताएं और कहानियां प्रकाशित.
साल 2018 में कहानियों के लिए मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘माधुरी अग्रवाल स्मृति’ ‘पुनर्नवा’ नवलेखन पुरस्कार.
sonu.upadhyay@gmail.com
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यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं कि कुमार अंबुज हमारी भाषा के महत्वपूर्ण कवि हैं । उनका नया कविता-संग्रह ‘उपशीर्षक’ इन-दिनों में चर्चा में है । अभी मैंने पढ़ा नहीं यह संग्रह, आने वाला है । सारंग उपाध्याय ने किताब का अच्छा परिचय दिया है या कह लीजिए समीक्षा की है । मेरा कहना है कि यह एकांगी समीक्षा है । इसे पढ़कर लगता है जैसे इस समय में केवल कुमार अंबुज अकेले कवि हैं । तुलनात्मक अध्ययन के बिना आलोचना तो हो ही नहीं सकती समीक्षा भी नहीं लिखी जा सकती । कुमार अंबुज के समकालीन कौन हैं ? उनसे कुमार अंबुज की कविता कैसे अलग और विशिष्ट है ? यह कौन बताएगा । पिछले दिनों राजेश जोशी, सविता सिंह जैसे वरिष्ठ कवियों के और दरवेश जैसे युवा कवियों के कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं उनसे और उनकी कविताओं से कुमार अंबुज की कविता का कोई रिश्ता बनता है या नहीं ? समकालीन कविता परिदृश्य में इन कविताओं को कहाँ रखा जा सकता है ? कुमार अंबुज की लंबी कविता-यात्रा में यह नया संग्रह क्या जोड़ रहा है ? कुमार अंबुज अपने पिछले संग्रह से आगे बढ़े हैं या नहीं ?
इन सवालों से टकराये बिना कुछ भी लिखना लिखने के लिए लिखना है । आलोचना तो बरसों से विलुप्त है अब समीक्षा भी सिकुड़/सिमट रही है । अख़बारी हो रही है । तुलनात्मक अध्ययन के बग़ैर समीक्षा या आलोचना अभिनन्दन बन जाती है ।
बहुत महत्वपूर्ण संग्रह है। हमें एक बड़ी बहस में ले जाता है। नीमरोशनी में चलते हुए हम एक बड़े उजाले को भूल रहे हैं, यह तथ्य इस किताब की मूल संवेदना का हिस्सा है।
मुझे उम्मीद थी कि इस सघन अँधेरे, रोटी है लिये भूखे पेट बिलखते बच्चों के असहाय माता-पिता किसी चमत्कार के होने का इंतज़ार कर रहे हों । इस संवेदनहीन समय में कुमार अंबुज चुप रहने वाले व्यक्ति नहीं हैं । पहले ये संवेदनशील नागरिक हैं । इसी जागरूकता से इनकी क़लम से कविताएँ निकलती हैं । लैम्पपोस्ट के नीचे सन्नाटा पसरा हुआ है । बालक मरी हुई चिड़िया को देखकर बेचैन है । उसे नहीं सूझ रहा कि वह क्या करे । पिछले दो दशकों में सत्य को झूठा करार दिया गया है । यह अभियान निरंतर जारी है । “रोटी, कम्बल और पैरासिटामॉल” समय की कड़वी सच्चाई है । कोरोनावायरस ने सब मटियामेट कर दिया है । सरकारी दावे खोखले साबित हो चुके हैं । शासन सच पर मिट्टी डाल रहा है । ऐसे निराश समय में कुमार अंबुज का ‘उपशीर्षक’ काव्य-संग्रह आशान्वित करता है । यह पहली बार नहीं हुआ है कि कुमार जी विकट समय में चुप रहे हों । किवाड़, क्रूरता और अतिक्रमण इनके तीन कविता संग्रह हैं । सारंग उपाध्याय को दारुण समय समीक्षा लिखने की बधाई । मैं इनसे संग्रह मँगवा लूँगा ।
कुमार अंबुज के नये काव्य संग्रह-उपशीर्षक, पर सारंग उपाध्याय की समीक्षा अच्छी लगी। कु. अंबुज हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ कवि,कथाकार और फिल्म समीक्षक होने के साथ-साथ हमारे समय के एक सजग विचार संपन्न चिंतक भी हैं। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उनकी कविताओ से प्रभावित होकर ही मैंने कविताएँ लिखनी शुरू कीं। उनकी शैली, कथन भंगिमा और उनके काव्य की अंतर्वस्तु का मैं प्रारंभ से कायल रहा हूँ। इस संग्रह के लिए उन्हें बधाई !