• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सेवाग्राम में क्रिस्तान: सुरेन्द्र मनन

सेवाग्राम में क्रिस्तान: सुरेन्द्र मनन

सुरेंद्र मनन लेखक के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित फ़िल्मकार हैं. गांधी पर उनकी फ़िल्म ‘गाँधी अलाइव इन साउथ अफ्रीका’ बहुत सराही गयी है. वर्धा के सेवाग्राम में गांधीजी पर बनाई गई फ़िल्मों के प्रदर्शन के दौरान उनकी मुलाक़ात जर्मनी के युवा फ़िल्म निर्देशक क्रिस्तान से हुई जो अपनी फ़िल्म ‘रोड टू गांधी’ के साथ वहाँ उपस्थित थे जो एक उम्रदराज़ जर्मन व्यक्ति की यादों पर आधारित है. सुरेंद्र मनन ने बहुत दिलचस्प और सूक्ष्मता से क्रिस्तान के मनोभावों को इस संस्मरण में उकेरा है. गांधी सप्ताह की यह पांचवीं कड़ी प्रस्तुत है.

by arun dev
October 6, 2022
in विशेष, संस्मरण
A A
सेवाग्राम में क्रिस्तान: सुरेन्द्र मनन
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

सेवाग्राम में क्रिस्तान

सुरेन्द्र मनन

“पास मी रैख बो’ल प्लीज़!” क्रिस्तान ने खुले नल की धार के नीचे अपनी थाली घुमाते हुए कहा और उकडूं बैठ गया. मैं अपना गिलास मांज रहा था. राख का कटोरा मैंने उसके पास सरका दिया. क्रिस्तान राख की मुट्ठी भर कर बड़े मनोयोग से थाली रगड़ने लगा. उसके कुरते की बाजू भीग गई थी और लंबे बालों की लटें आगे-पीछे झूल रही थीं. थाली को एक तरफ रख कर उसने दोनों कटोरियाँ मांजी और बर्तन नल की धार के नीचे धोने लगा. बर्तन चमचमाने लगे तो उन्हें देख कर उसके चेहरे पर भी चमक आ गई. किसी उपलब्धि के-से भाव के साथ मुस्कराता हुआ वह कतार में बर्तन धो रहे बाकी लोगों की ओर देखने लगा.

“कम, लेट्स हैव अ स्ट्रॉल.” मैंने धोये हुए बर्तन बड़े टोकरे में रखते हुए कहा. हम दोनों हॉल से बाहर आ गए.
“हाउ वाज़ द फ़ूड?” चप्पल पहनते हुए मैंने पूछा.
“वेल, अनयूयुअल…” क्रिस्तान ने हंसते हुए कहा, “बट वेरी टेस्टी!”

क्रिस्तान हर वाक्य के बीच या बाद में हल्की-सी हंसी हंसता था. सायास नहीं, न ही आदतन, बल्कि जैसे बोले जा रहे वाक्य में रिक्त स्थान की पूर्ति करने के लिए. कई बार ऐसा भी लगता कि यह हंसी उस रोमांच की अभिव्यक्ति है जो वह यहाँ आकर अनुभव कर रहा था. यहाँ की हर गतिविधि, हर क्रिया-कलाप और समूचे परिवेश के प्रति उपज रही उसकी उत्सुकता ठंडी नहीं पड़ रही थी. वह रह-रह कर सिर उठाती, हर बार उसे कुछ नया दिखाती, कदम-कदम पर उसे रोमांचित करती और वह रोमांच बार-बार उसकी मुस्कराहट और अधूरी हंसी में प्रकट होता था.

मुख्य फाटक लांघ कर हम बाहर सड़क पर आ गए थे. सड़क के पार सेवाश्रम का फाटक था जिसके साथ सटे एक खंबे से लटके बल्ब की मटियाली रौशनी आसपास फैली हुई थी. सड़क का जितना हिस्सा नज़र की सीमा में था, दाएं-बाएँ खड़े दरख्तों के काले लबादों के अलावा वहाँ और कुछ नहीं था. हर तरफ सन्नाटा तना था. सन्नाटा इतना गहरा था कि चहलकदमी करते हुए हम अपनी पदचाप और बातचीत की आवाज़ को भी अलग-अलग सुन सकते थे. हौले-हौले कदम बढ़ाते और बातचीत करते हुए हम ‘नई तालीम’ की इमारत तक चले गए.

नीरवता, सेवाग्राम में रात को ही नहीं, दिन में भी छाई रहती थी. शांति, इस जगह पर समय के हर पहर के साथ एकाकार होकर व्याप्त थी. अलसुबह चारों ओर धुंध छाई हो तो शांति उसका एक अभिन्न हिस्सा लगती, नमी से बोझिल हवा हौले-हौले बह रही हो तो वह उसका ज़रूरी अंश महसूस होती, दोपहर की फीकी धूप में आश्रम के झोंपड़ों की ढलवीं, किरमची छतें जब चमचमा रही होतीं तो वह उनका हिस्सा बन जाती, शाम का झुटपुटा होने के बाद कतार में बने झोंपड़ों के कोनों में जब अँधेरा आकर दुबक जाता तो वह वहां उपस्थित रहती… और रात को तो काला लिहाफ ओढ़ कर वह हर तरफ विचरती ही थी. इस सारे समय के दौरान जो छिटपुट आवाजें उठतीं- वह अहातों पर बिछी बजरी पर किसी की पदचाप हो या झोंपड़ों में हो रही बातचीत के टुकड़े या हॉल में बर्तनों की खड़खड़ाहट… सब उस शांति को भंग करने की बजाए उसका घनत्व ही बढ़ातीं.

इस नि:शब्दता का असर ऐसा था कि आश्रम के बाहर सड़क पर घूमते कुत्ते तक नहीं भौंकते थे. वे अजनबी लोगों को निर्विकार ढंग से ताकते, ज़रूरत महसूस होती तो पूँछ हिलाते अन्यथा सूंघ-सांघ कर दबे पंजों से इधर-उधर निकल जाते. शांति सिर्फ तब भंग होती जब ऑडिटोरियम में फिल्मों की स्क्रीनिंग शुरू होती, लेकिन वे आवाजें भी हॉल की चारदीवारी तक ही महदूद रहतीं, बाहर के वातावरण पर उनका असर न हो पाता.

सेवाग्राम में आयोजित किए गए इस फिल्म समारोह में शामिल होने के लिए हम लोग अलग-अलग जगहों से आये थे. समारोह में गांधीजी पर बनाई गई देश-विदेश की फ़िल्में दिखाई जा रही थीं, जिनमें मेरी फिल्म ‘गाँधी अलाइव इन साउथ अफ्रीका’ भी शामिल थी. क्रिस्तान जर्मनी से आया युवा फिल्मकार था और उसकी फिल्म ‘रोड टू गांधी’ यहाँ दिखाई जा रही थी. यह फिल्म एक वृद्ध जर्मन के संस्मरण पर आधारित थी, जो अपनी भारत यात्रा के दौरान गांधी जी के सहयोगियों के साथ आश्रम में रहा था. उस वृद्ध से हुई अंतरंग बातचीत के बाद से ही क्रिस्तान की अंतर्यात्रा भी शुरू हो गई थी. कई तरह के चित्र उसके मस्तिष्क में एक के बाद एक बनते चले गए और फिल्म बनाने की प्रक्रिया पूरी होते-होते क्रिस्तान के समक्ष गांधी जी का एक ऐसा भव्य कायरूप खड़ा हो चुका था, जिसकी उपस्थिति हरदम वह अपने आसपास महसूस करता रहता. उस रूप से जुड़ी अनेक आश्चर्यजनक कहानियां थीं, कई विचित्र किस्से थे, कई ऐसे प्रसंग थे जो किसी भी व्यक्ति को साधारण से असाधारण बनाते थे.

वृद्ध जर्मन की आँखों से गांधी जी की शख्सियत देख लेने के बाद क्रिस्तान की उत्कट इच्छा थी कि इस विशाल धरती के उस हिस्से पर खुद जाए, जो ऐसे दुर्लभ व्यक्ति की कर्मभूमि रहा था. उसे लगता था कि भारत आकर अपनी कल्पना में रचित उस चरित्र के वह और करीब पहुंच सकता है, सेवाग्राम में रहते हुए उसे और अच्छी तरह से पहचान सकता है. यह भावना बलवती होती गई और क्रिस्तान को जब फिल्म आयोजकों की ओर से यहाँ आने का न्योता मिला, तो वह बहुत उत्साहित हो उठा था. उसे लगा जैसे कि उसका मकसद पूरा हो गया हो. अब सेगांव, यानी सेवाग्राम का सेवाश्रम वह अपनी आँखों से देख पायेगा, जहाँ गांधीजी लंबे समय तक रहे थे. आयोजकों की ओर से सिर्फ ठहराने की व्यवस्था थी लेकिन क्रिस्तान निरुत्साहित नहीं हुआ था. किसी तरह टिकट का इंतजाम करके वह समारोह के पहले दिन ही यहाँ पहुंच गया था.

 

सेवाग्राम में क्रिस्तान चूंकि अपनी कल्पना में उकेरे चित्र को साथ लिए हुए आया था, इसलिए यहाँ की हर जगह पर उस छवि को मूर्त करके देखने की कोशिश करता था. सड़क पार करके सेवाश्रम तो वह हर रोज़ ही जाता, जहाँ गांधी जी द्वारा इस्तेमाल की गई चीज़ों को सहेज-संभाल कर रखा गया था. वहाँ का एक-एक झोंपड़ा, एक-एक रास्ता उसकी उत्सुकता का विषय था. बापू कुटी में दीवार से लगा खड़ा और होंठों पर हल्की-सी मुस्कराहट लिए, वह कभी उस डेस्क और आसन को देखता रहता जहाँ बैठ कर गांधी जी काम किया करते थे, तो कभी उस लंबे तख्त को देखता जहाँ वे आराम करने के लिए लेटते थे. कुटी के बाहर लकड़ी के बने बक्से में लटके टेलीफोन के पास तो वह देर तक ऐसे ध्यानमग्न मुद्रा में खड़ा रहता मानो गांधी जी और वायसराय के बीच हो रहे वार्तालाप को सुन रहा हो. और सूत कातने का चरखा तो उसके लिए कौतुक की वस्तु थी ही. उसे वह छू तो नहीं सकता था लेकिन यह ज़रूर महसूस करने की कोशिश करता कि गांधी जी किस तरह चरखा चलाते हुए सूत कातते होंगे. फिर देर तक वह पीपल के उस पेड़ के नीचे चौकड़ी मार कर बैठा रहता जिसे खुद गांधी जी ने रोपा था और जहां वे भोर की प्रार्थना सभा किया करते थे. सबसे अधिक भावाकुल वह उस कुटिया को देख कर हुआ जहाँ गांधी जी के शिष्य और संस्कृत-विद्वान परचुरे शास्त्री रहे थे. मैंने उसे बताया था कि शास्त्री जी कुष्ठरोग से पीड़ित थे और देह त्यागने से पहले गांधी जी के दर्शन करने के लिए यहाँ आए थे. गांधी जी ने उनके लिए यहीं एक कुटिया बनवा दी और हर सुबह-शाम खुद अपने हाथों से वे उनके ज़ख्मों को साफ़ किया करते थे.

“हाउ डिड ही डू दैट… अनबिलीवेबल!” क्रिस्तान अचंभे में डूबा बड़बड़ाया था.

सेवाश्रम के सामने, सड़क पार करके ढलवीं छतों और मिट्टी की दीवारों वाले कई खूबसूरत झोंपड़े बने हुए थे, जिनमें ठहरने की व्यवस्था थी. भोजनालय भी यहीं था. दोपहर और रात के खाने का निश्चित समय था और समारोह में शामिल होने के लिए आए सब लोग समय पर भोजनालय पहुँच जाते. नीचे बिछी पट्टियों पर  बैठ कर भोजन करते और अपने-अपने बर्तन माँज कर बड़े टोकरों में रख देते. क्रिस्तान और मैं, दोनों एक ही झोंपड़े में रह रहे थे. झोंपड़े की दीवारें और फर्श मिट्टी से पुता था और हल्की-सी सोंधी महक झोंपड़े में छाई रहती थी. उसमें दो चारपाइयां थीं. दाईं तरफ क्रिस्तान की चारपाई थी, बाईं तरफ दीवार के साथ मेरी. बीच में छोटी-सी मेज़, जिस पर उन किताबों का ढेर था जो क्रिस्तान ने पुस्तकालय से खरीदी थीं. अपने-अपने परिवेश से कट कर, रोजमर्रा की खींचतान से विलग होकर और सब कुछ पीछे छोड़ कर हम दोनों ने जैसे अपने-आप को खाली हाथ इस जगह के हवाले कर दिया था. व्यस्तताओं को पीछे धकेल कर, बाहरी दुनिया की तमाम बातों से निसंग करके, स्वयं को यहाँ रख दिया था.

झोपड़े में हम दोनों का संबंध पहले दिन से ही अनायास निश्चित और स्वीकृत हो गया था. क्रिस्तान के लिए झोंपड़ा पाठशाला बन गया था और वह खुद कोई विद्यार्थी. चारपाइयों पर बैठे, लेटे, साथ ही बनी छोटी-सी रसोई में चाय बनाते, चाय की चुस्कियां लेते हुए हमारा वार्तालाप जारी रहता. क्रिस्तान के मन में सैकड़ों सवाल थे और हर सवाल का जवाब पाने की उत्सुकता थी. उसकी बच्चों की-सी जिज्ञासा कभी शांत न होती. इस संवाद के दौरान क्रिस्तान मेरे लिए जर्मनी से आया एक नवयुवक नहीं रह गया था. वह मानो एक माध्यम बन गया था और उसके सवालों के जवाब देते हुए मैं स्वयं भी उनके जवाब जान रहा था. जानता तो था, अब नए सिरे से समझ रहा था. क्रिस्तान को गांधी जी से संबंधित किसी प्रसंग या घटना के बारे में बताते हुए कई बार मैं खुद भी उसी की तरह आश्चर्य करता कि इस बात की ऐसी व्याख्या के बारे में तो मैंने पहले नहीं सोचा था. दरअसल बहुत सी ऐसी बातें जो पहले सिर्फ सूचना के तौर पर मेरे पास थीं, अब उन्हें क्रिस्तान के नज़रिये से देखते हुए मैं महसूस भी कर पा रहा था. अब उन्हें मैं सिर्फ सतह से ही नहीं देख रहा था, उनके भीतर उतर रहा था.

क्रिस्तान ने जब सवाल किया तो मुझे भी इस बात पर आश्चर्य हुआ कि नागपुर से वर्धा और वर्धा से भी आठ-नौ किलोमीटर की दूरी पर सेगांव नाम की एक उजाड़-अनजान जगह पर गांधी जी ने रहने का निर्णय कैसे लिया? वह भी सन 1936 में, जब देश भर में उथल-पुथुल का दौर था, राजनीतिक सरगर्मियां चरम पर थीं और स्वयं गांधी जी देश के शीर्ष नेता थे. इस जगह पर बनाए गये दो-तीन झोंपड़ों में रहते हुए गांधी जी कैसे देश की राजनीतिक गतिविधियों से न सिर्फ सक्रियता से जुड़े रहे, बल्कि उन्हें चालित भी किया करते थे? … और तब तो सेगांव तक पहुंचने के लिए कोई सड़क तक नहीं थी, न ही दूर-दूर तक कोई मकान, दुकान, दवाखाना या डाकघर. कैसे उन्होंने यह फैसला लिया कि इस उजाड़ जगह पर आकर अछूतों की सेवा करेंगे, क्योंकि उनकी सेवा करके वे आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं, आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं ?

क्रिस्तान अविश्वास से सिर हिलाने लगा था. वह चारपाइयों के बीच की जगह पर टहल रहा था, एकाएक ठिठक कर उसने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में फंसाईं और आँखें सिकोड़ते हुए मुझे देखने लगा.

“यू मीन सेल्फ रियलाइज़ेशन!” वह जैसे किसी गुत्थी को सुलझाते हुए बुदबुदाया ,“ सेल्फ-नॉलेज…ऑर मे बि सेल्फ्लेसनेस..!”

“गाँधी जी का मानना था कि मनुष्य का अंतिम उद्देश्य ईश्वर से साक्षात्कार करना है” मैंने उसे बताया, “उनका कहना था कि मनुष्य के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक… सभी काम इसी अंतिम उद्देश्य को ध्यान में रख कर किए जाने चाहिए और मानव-सेवा इस कोशिश का एक ज़रूरी हिस्सा है. सेगांव वे इसी मकसद से आए थे. उन लोगों की सेवा करने के लिए, जिनसे मानव होने का दर्जा छीन लिया गया था, जिन्हें मानव के दर्जे से गिरा दिया गया था. सेगाँव को उन्होंने सेवाग्राम नाम दे दिया था.”

क्रिस्तान टकटकी लगाए देख रहा था, सुन रहा था, सोच रहा था. कुछ समझ रहा था, कुछ समझने की कोशिश कर रहा था. अचानक मुझे कुछ याद आया तो मैं मुस्करा दिया.

“जानते हो जब बाहर से कोई व्यक्ति आश्रम में सेवा करने या रहने के लिए आता, तो गांधी जी सबसे पहले उसे क्या काम सौंपते थे?” मैंने क्रिस्तान से पूछा.

क्रिस्तान उत्सुकता से मेरी ओर ताकने लगा जैसे कि कोई और नई चीज उसके हाथ लगने वाली हो.
“सबसे पहले वे उससे शौचालय साफ़ करवाते थे.”
“व्हाट?” क्रिस्तान ने कंधे उचका कर अपने हाथ फैला दिए. उसके माथे की त्योरियां देर तक सिकुड़ी रहीं.

“मैं ठीक कह रहा हूँ.” मैंने स्पष्ट करते हुए कहा, “ दरअसल वे आश्वस्त हो जाना चाहते थे कि आश्रम में जो व्यक्ति सेवा करने के लिए आया है, उसके मन में सेवाभाव है भी या नहीं ? सेवा करने का अर्थ क्या वह सचमुच समझता है? अपने अहम, अपने स्वार्थ भाव से वह मुक्त हुआ है या नहीं?… किसी दुखी, किसी बीमार या समाज की सेवा तो तभी की जा सकती है जब ‘मैं’ का अभिमान त्याग दिया जाए !”
क्रिस्तान भावविह्वल हो कर सिर हिलाने लगा.

“व्हाट वाज़ यो’र एक्सपीरियंस वाइल मेकिंग फिल्म इन साउथ अफ्रीका?” उसने कुछ देर बाद पूछा.

Pietermaritzburg station (Credit: Kalpana Sunder): courtesy bbc.com

उसका सवाल सुनकर अचानक मुझे वह दिन और वे पल याद आये जब मैं पीटरमरित्ज़बर्ग स्टेशन की बेंच पर बैठा हुआ था. बेंच पर अकेला बैठा प्लेटफ़ॉर्म के पार बिछी पटरी को टकटकी लगाए देख रहा था. स्टेशन सुनसान था और हर तरफ़ चुप्पी छायी थी. मैं जाने क्या-क्या सोच रहा था. मैं भी क्रिस्तान की तरह ही गांधी को जानना चाहता था, लेकिन महात्मा की छवि से बाहर निकाल कर. जिस बेंच पर में बैठा हुआ था, उसी बेंच पर 7 जून, 1893 की रात को युवा बैरिस्टर मोहनदास बैठा ठंड में काँप रहा था. कुछ तारीखें गुज़रती नहीं, स्थिर हो जाती हैं. समय उनके ऊपर से बहता हुआ निकल जाता है, वे वहीं अटकी रहती हैं. 7 जून भी ऐसी ही एक तारीख़ थी, जब डरबन से जोहानिस्बर्ग जा रही गाड़ी से मोहनदास को इस स्टेशन पर धक्के देकर निकाल दिया गया था. बेंच पर बैठा कल्पना में मैं सामने प्लेटफ़ॉर्म पर गिरे पड़े मोहन दास को देख रहा था.

मोहन दास को उठते हुए देख रहा था. अपना सामान संभालते हुए उसे बेंच की ओर आते हुए देख रहा था, जिस पर मैं बैठा हुआ था. लेकिन जब वह बेंच पर बैठा, तो मैंने देखा कि वह बैरिस्टर मोहनदास नहीं था. वह तो कोई और ही व्यक्ति था. वह सिर्फ़ भारतीय नहीं रहा था, न ही दक्षिण अफ्रीका में नौकरी करने आया बैरिस्टर मोहनदास. निजता, अपमान, मानभंग, डर, संशय की सीमा का अतिक्रमण करके वह एक दक्षिण-अफ्रीकी भारतीय में बदल चुका था. पीटरमरित्ज़बर्ग स्टेशन का यह प्लेटफ़ॉर्म उसके इस नये रूप का मानो अवतरण मंच था. 7 जून की तारीख के बाद इस नये व्यक्ति ने दक्षिण अफ्रीका का इतिहास बदलना था. इस भूमि पर अब उसने रंगभेद और हर तरह के मानवीय शोषण के खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़नी थी.

“क्रिस्तान तुम जानते हो कि गाँधी जी सिर्फ एक साल के लिए दक्षिण अफ्रीका गये थे” मैंने कहा, “लेकिन उस एक रात की घटना ने सब कुछ बदल दिया और वे इक्कीस साल तक वहां रहे?”
“आई डिडंट नो दैट!”
“पीटरमरित्ज़बर्ग स्टेशन की उस बेंच पर बैठे और बग़ल में मोहनदास की उपस्थिति को महसूस करते हुए, यह समझ पाने

में मुझे दिक़्क़त नहीं हुई थी कि मानवीय न्याय और बराबरी के लक्ष्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने का फैसला उस दिन मोहनदास ने क्यों लिया.” मैंने क्रिस्तान को बताया, “ तभी मैं यह भी जान गया कि युवक मोहनदास उस घटना के बाद इक्कीस साल तक दक्षिण अफ़्रीका क्यों रहा था.”
“आई सी!” क्रिस्तान सिर हिलाने लगा.
“यू मस्ट हैव विज़िटेड फ़ीनिक्स ऑल्सो, इन डरबन?” उसने फिर पूछा.
“वह एक अलग तरह का अनुभव था” मैंने कहा, “डरबन में वह भी सेवाग्राम या सेगाँव जैसा ही दूर-दराज का एक वीरान इलाक़ा था, जहां गांधी जी ने फ़ीनिक्स आश्रम बनाया था”.

मैंने उसे बताया कि कैसे उस दिन हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी जब मैं फ़ीनिक्स सेटेलमेंट पहुँचा था. घने पेड़ों से घिरा ढलवाँ रास्ता पार करके जब गेट के पास पहुँचा तो लंबे-चौड़े लॉन के पार खड़ी सफ़ेद इमारत के माथे पार अंकित ‘इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस’ दिखाई दिया था. उत्साहित होकर मैं अंदर जा पहुँचा. एक बड़े हॉल में संग्रहालय बना हुआ था लेकिन वहाँ जाने की बजाए पहले मैं साथ के कमरे में गया जहां प्रिंटिंग प्रेस रखी हुई थी. यह वही प्रिंटिंग प्रेस थी जिस पर ‘इंडियन ओपीनियन’ अख़बार छपता था, जो गांधी जी ने १९०३ में शुरू किया था. कमरे में उस समय कोई नहीं था. चुप्पी छाई हुई थी. मशीन भी मासूम-सी बनी चुपचाप खड़ी थी. लेकिन मशीन को एकटक देखते हुए मेरे कानों में खट खटाक खट खटाक की आवाज़ें निरंतर गूंज रही थीं. बार-बार मैं उस मशीन को छू कर देखता रहा था. उसकी ताक़त को महसूस करता रहा था. मैं जानता था कि उसने क्या-क्या कारनामे किए थे. इसी मशीन पर अंग्रेज़ी, हिंदी, गुजराती और तमिल, चार भाषाओं में ‘इंडियन ओपीनियन’ एक साथ प्रकाशित होता था जो दक्षिण अफ़्रीका में पैसिव रेज़िसटेंस मूवमेंट की ज़ोरदार और बहुत असरदार आवाज़ बना.

शाम का समय था और परिसर में फिल्मकार और दर्शक इधर-उधर टोलियाँ बना कर बैठे बातें कर रहे थे. दिन में दिखाई गई फिल्मों के बारे में और गांधी दर्शन पर शाम के समय अक्सर बातचीत होती थी. क्रिस्तान और मैं झोपड़ों के बाहर बने चौड़े रास्ते पर टहल रहे थे. क्रिस्तान फिल्म बनाने के अपने अनुभवों के बारे में बात कर रहा था.

“तुमने एक व्यक्ति से गांधीजी के बारे में सुना, उनके जीवन और उनके दर्शन से प्रभावित हुए, इसलिए उस जगह को भी देखना चाहते थे जहां वे रहे, जो उनका कार्यक्षेत्र रहा. तुम्हारे यहाँ आने की बस यही एक वजह थी या इसके अलावा भी कोई आकर्षण था ?”
मैंने पूछा.
“नहीं, सिर्फ इतना नहीं” क्रिस्तान अपनी आदत मुताबिक हल्का-सा हंसा फिर उसने मुस्कराते हुए कहा, “दरअसल फिल्म बनाते समय गांधी की जो छवि मेरे मन में बन चुकी थी, मैं वहां, अपने देश में ऐसे ही किसी व्यक्ति, ऐसे किसी नेता की कल्पना करने लगा था.”

“इंटरेस्टिंग” मैंने कहा, “तो मिला कोई ऐसा व्यक्ति?”

“नहीं. न ही मुझे ऐसे व्यक्ति, ऐसे किसी चरित्र की वहाँ होने की कोई संभावना दिखी” चलते-चलते वह रुक गया था और उसकी नज़र परिसर में इधर-उधर भटक रही थी. फिर मेरी ओर देखते हुए उसने कहा, “ऐसा व्यक्ति मुझे बिलकुल किसी दूसरी दुनिया का वासी लग रहा था. इसलिए मैं यहाँ आया, उस छवि को साथ लेकर…उस छवि को और अच्छी तरह जानने के लिए, पहचानने के लिए कि क्या सचमुच ऐसा कोई व्यक्ति हो सकता है?”

“तो कुछ हासिल हुआ या नहीं ?” मैंने हंसते हुए पूछा.

“ज़रूर. मैंने जान और मान लिया कि हाँ, ऐसा व्यक्ति था.” क्रिस्तान ने मुस्कराते हुए कहा, “मैंने उस व्यक्ति को यहाँ हर जगह, हर कोने में उठते-बैठते-टहलते, अलग-अलग काम करते हुए देखा. मेरे लिए वह छवि यहाँ आश्रम में आकर मूर्तिमान हो गयी. लेकिन…” उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.
“लेकिन क्या?” मैंने उसे और टटोला.

“अजीब बात है कि अब वह व्यक्ति और उसकी छवि दोनों अलग-अलग हो गये हैं” क्रिस्तान ने हाथों की उँगलियों को गोल-गोल घुमाते हुए कहा, “मुझे लगता है कि वह व्यक्ति इस आश्रम के भीतर ही है. छवि स्वतंत्र होकर अब बाहर हवा में घूम रही है, बार-बार मुझसे सवाल कर रही है .”
“मतलब?”

“मतलब, मुझे लगता है कि शायद वे चीज़ें हमें ज्यादा आकर्षित करती हैं, ज्यादा प्रभावित करती हैं जो गुज़र चुकी होती हैं. गुज़र कर किसी निर्णय तक पहुंच चुकी होती हैं. इसी तरह व्यक्ति भी. हम उनके बारे में पढ़ सकते हैं, उनकी कहानियां सुन-सुना सकते हैं, कल्पनाएँ करके रोमांचित हो सकते हैं… लेकिन वर्तमान में वे कहीं मौजूद नहीं होते ”.

मुझे लगा कि उसकी उधेड़बुन उस छवि को लेकर है जो उसके सिर पर सवार है, जो संभवतः अब उसे छलावा लगने लगी है.
“मेरी एक और परेशानी भी है.” उसने फिर कहा.
“क्या?”

“वह छवि जो मैंने उस बूढ़े का संस्मरण सुन कर बनाई और जिसे मैं अपने देश में भी ढूंढता रहा था, जिस छवि को मैंने इस आश्रम में मूर्तिमान होते हुए देखा, क्या वैसा कोई व्यक्ति इस समय में भी हो सकता है जिसमें हम रह रहे हैं?” उसने पूछा, “ यहाँ, या मेरे देश में, या कहीं और? क्या ऐसा होने की कोई संभावना बची हुई है? संभावना की छोड़ दें, आज की दुनिया में ऐसे व्यक्ति की कोई प्रासंगिकता रह गई है? उसके आइडियलज़ की आज के समय में क्या सचमुच कोई जगह बची है?”

“अगर ऐसा है, तब तो तुम्हारी यात्रा पूरी हुई.” मैंने कुछ देर बाद कहा, “उस बूढ़े जर्मन के संस्मरण से शुरू होकर तुम्हारे अपने संस्मरण तक. अब तुम संतुष्ट, या असंतुष्ट होकर लौट सकते हो. उस छवि को यहीं छोड़ कर, उससे मुक्त होकर !” मेरी आवाज़ ऐसी थी मानो किसी वज़नी चीज़ के नीचे दबा हुआ हूँ.

उस रात क्रिस्तान न तो झोंपड़े में था न ही मुझे किसी टोली में या आसपास दिखाई दिया. खाना खाने के समय मैं भोजनालय पहुंचा तो वह वहाँ भी नहीं था. खाना खाकर मैं आदत मुताबिक टहलने के लिए बाहर फाटक की ओर बढ़ा तो ख्याल आया कि एक बार फिर झोंपड़े में देख लूं कि वह लौटा है या नहीं. वह वहीं था, चुपचाप चारपाई पर लेटा हुआ. मेरी संगत में वह अक्सर उत्साहित ही रहता था लेकिन यह

जानते हुए भी कि मैं दरवाज़े पर खड़ा हूँ, वह उसी तरह लेटा रहा.
“क्रिस्तान तुमने भोजन कर लिया?” मैंने पूछा.
“नहीं, मेरी इच्छा नहीं है” उसने धीमे से जवाब दिया.
“तो आओ, थोड़ा टहल आयें?”
“नहीं, मेरी इच्छा नहीं.” उसने फिर उसी तरह कहा.
मैं बाहर चला आया. अँधेरी सड़क पर चहलकदमी करते हुए मैं क्रिस्तान और उसकी कही बातों के बारे में सोचता रहा. जब तक मैं वापिस झोंपड़े में लौटा, वह सो चुका था.

सुबह मेरी नींद खुली तो देखा, क्रिस्तान की चारपाई ख़ाली थी. बिस्तर अच्छी तरह से लपेट कर रखा हुआ था. मैं बाहर आया. बाहर हर तरफ़ हल्की-सी धूप फैली थी. हवा में तरह-तरह के ताज़ा फूलों की महक घुली हुई थी. लम्बी साँसें लेता हुआ मैं कुछ देर तक वहीं खड़ा रहा, फिर टहलता हुआ फाटक तक चला गया. सड़क के पार आश्रम के झोंपड़ों की किरमिची रंग की छतों पर सुनहरी धूप छितरी हुई थी. मैं आश्रम के परिसर में जा पहुँचा. परिसर की परिक्रमा करते हुए बा कुटी के पास से गुज़रा तो क्रिस्तान पर नज़र पड़ी. वह कुटी के लम्बे बरामदे में ज़मीन पर बिछी चटाई पर चरखे के सामने पालथी मारे बैठा था. पास ही एक छ्न्ने में रुई की मुड्डियाँ रखी हुई थीं. दरवाज़े में बैठी जानकी बेन मुस्कराती हुई उसे देख रही थी. जानकी बेन हर सुबह कुटी में सूत काता करती थीं. क्रिस्तान ने सूत कातते हुए गांधीजी की कई फ़ोटो देखीं थीं, मैं उसे पहले दिन यहाँ यह दिखाने लाया था कि सूत काता कैसे जाता है.

चरखे का हत्था चलाते हुए क्रिस्तान सूत का धागा निकालने की कोशिश करता लेकिन बार-बार उसका हाथ अटक जाता. हर बार रुई की पूनी घूमती हुई तकली में उलझ कर रह जाती.

सुरेंद्र मनन

चर्चित कथाकार और ‘बहस’ पत्रिका के संपादक रहे सुरेंद्र मनन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित फ़िल्मकार हैं. ‘उठो लच्छमीनारायण’(कहानी संग्रह), ‘सीढ़ी’(उपन्यास), ‘साहित्य और क्रांति’(लू-शुन के लेखन पर केन्द्रित), ‘अहमद अल-हलो, कहाँ हो?’ और ‘हिल्लोल’(संस्मरण) उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं. उन्होंने विविध सामयिक विषयों पर महत्वपूर्ण फ़िल्में बनाई हैं जिन्हें भारत में आयोजित विभिन्न फिल्म समारोहों के अतिरिक्त एशिया, अफ्रीका और यूरोप के अनेक देशों के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित किया जा चुका है. ‘इंडियन डाक्यूमेंट्री प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन’ द्वारा ‘गोल्ड अवार्ड’ और ‘सिल्वर अवार्ड’ से सम्मानित किये जाने के अतिरिक्त उन्हें ‘रोड्स अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव’, ग्रीस का विशेष जूरी अवार्ड, ‘सी.एम.एस.वातावरण अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह’ का ‘वाटर फॉर ऑल’ और ‘वाटर फॉर लाइफ’ अवार्ड, ‘स्क्रिप्ट इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ का विशेष जूरी अवार्ड भी प्राप्त हो चुके हैं.  

संपर्क: surmanan@gmail.com/ (मो०) 9868146477

Tags: 20222022 विशेषगांधीगाँधी और सिनेमागांधी सप्ताहसुरेन्द्र मननसेवाग्राम
ShareTweetSend
Previous Post

डॉ. स्वांते पैबो: 2022 का चिकित्सा/ शरीरक्रियाविज्ञान का नोबेल पुरस्कार: शरद कोकास

Next Post

सदानंद शाही की कविताएँ

Related Posts

गांधी और सरलादेवी चौधरानी:  प्रीति चौधरी
समीक्षा

गांधी और सरलादेवी चौधरानी: प्रीति चौधरी

गांधीजी का पुन: पदार्पण: जयप्रकाश चौकसे
विशेष

गांधीजी का पुन: पदार्पण: जयप्रकाश चौकसे

गांधी और ब्रह्मचर्य: रुबल से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत
विशेष

गांधी और ब्रह्मचर्य: रुबल से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

Comments 7

  1. नवल शुक्ल says:
    6 months ago

    सचमुच।अद्वितीय बारीकी।मनोभावों तक का सूक्ष्म विवरण।एकाकार और तादात्म्य शब्द की याद आ रही है।

    Reply
  2. राजेन्द्र दानी says:
    6 months ago

    सुरेंद्र मनन संस्मरण लिखने में बिलकुल अलग हैं और अपनी रचनात्मकता में बिलकुल अनोखे हैं । यह औपचारिकता में नहीं कह रहा हूं ।उनकी रचनात्मक यात्रा का अपरिचय होने के बाद भी मैं साक्षी रहा हूं । हमारी दृष्टि से विलुप्त रहकर उन्होंने अनूठे काम किए जिनका पता अब चल रहा है ।
    अफ्रीका के जिस स्टेशन का गांधी के संदर्भ और जिस बेंच का वे जिक्र कर रहे हैं वह इतिहास में पहले भी आया है पर वैसे नहीं जैसा यहां है । अक्सर यात्राओं में बार बार घर लौटने की इच्छा सिर उठाती है पर सुरेंद्र मनन की नहीं । संस्मरण ही उनका सुकून है इसलिए वह उस बेंच पर इतने सुकून से हैं की लगता है यात्रा रुक गई है । पर देखिए उनकी यात्रा पुरसुकून है । फिल्मकार krishtan के बहाने गांधी को परस्पर संवादों से समझना पाठक के मन में नया रसायन पैदा करना है और यकीन बढ़ता है ।

    Reply
  3. सुशील मानव says:
    6 months ago

    बहुत ही मानीखेज़ संस्मरण है……पढ़कर मन को तसल्ली हुई कि भारत में भले गांधी को गरियाने वालों की बाढ़ आई हुई हो पर दुनिया में गांधी के मूल्य को समझने वाली नई पीढ़ी तैयार हो रही है,जो अपने कला के माध्यम से गांधी को हिटलर के देश में भी स्थापित कर रहा है.

    Reply
  4. कुमार अम्बुज says:
    6 months ago

    सुरेंद्र मनन इस एक वर्ष में मेरे प्रिय लेखक हो गए हैं। ख़ासकर संस्मरणात्मक लेखन में नवोन्मेषी सृजन के लिए। यह आलेख उसी शृंखला की एक पुष्टि है।

    Reply
  5. अशोक अग्रवाल says:
    6 months ago

    सुरेंद्र मनन का एक और यादगार संस्मरण, या यह कहें कि अपनी दृष्टि से गांधीजी की तलाश। वर्ष 2004 की अपनी सेवाग्राम आश्रम की यात्रा और उस बड़े चिमटे का भी स्मरण हो आया जिसे उन दिनों आश्रम में सर्प निकलने पर प्रयोग में लाया जाता था, जिसके लिए गांधी जी का आश्रम वासियों को सख़्त निर्देश था कि उन्हें कुछ भी हानि पहुंचाए बिना दूर अरण्य में छोड़ देना है। सुरेंद्र मनन ने इस मार्मिक स्मरण के साथ इस बात को रेखांकित किया है कि गांधी जी क्यों इतने बरस बाद भी पूरे विश्व के लिए प्रासंगिक और मूल्यवान बने हुए हैं। सुरेंद्र मनन के लिखे की प्रतीक्षा रहती है।

    Reply
  6. धनंजय वर्मा says:
    6 months ago

    अभिभूत कर देने वाले इस संस्मरण के लिए सुरेंद्र मनन को धन्यवाद और आपका आभार

    Reply
  7. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    6 months ago

    गांधी को समझने के लिए एक नई दृष्टि प्रदान करने वाला यह संस्मरण बहुत महत्वपूर्ण है| इस का कसाव और सधाव पढ़ते हुए बहुत सहायक सिद्ध होता है| सुरेन्द्र मनन जी को धन्यवाद

    Reply

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक