ईश्वर के बीज: विचार और स्वप्नशंपा शाह |
कुदरत का हाथ खुला है. वहाँ कोई हद नहीं है. एक नीम या सेमल का पेड़ हर वर्ष सैंकड़ों बीज धरती पर बिखेरता है. उसे अपने होने को लेकर कोई दुविधा नहीं होती. उसे तो अपने बीज फैला कर ख़ुद को अजर–अमर करना है. लेकिन मनुष्य आज अपने होने को लेकर तरह-तरह के संशयों से घिरा है. उसे यह बात तो सिरे से बिसूर ही गई है कि नीम– पीपल की तरह वह भी कुदरत का हिस्सा है; कि वह स्वयं प्रा–कृत है, इसलिए प्रकृति है. विनोद शाही का नया उपन्यास, – ‘ईश्वर के बीज’ मनुष्य को उसकी यह जातीय स्मृति लौटाने के लिए रचा गया एक आख्यान है. इस जातीय स्मृति का संबंध उस आदिम स्थिति, उस प्रागैतिहासिक भोर से है जब ऊंचे-ऊंचे दरख्तों और खूंखार जीवों के बीच वह भी एक जीव था.. अपने बीज को बचाने के लिए हर क्षण फिक्रमंद, हर क्षण प्रतिबद्ध!
वह बुद्धि ही तो है जो मनुष्य को इस उपन्यास के महत्वपूर्ण किरदार, बाबा रमजाणिया के अनुसार “कुदरत का एक नायाब करिश्मा” बनाती है. वह चेतना जिसके होने से, वह सिर्फ़ अपने भले के बारे में सोचने से ऊपर उठ किन्हीं मूल्यों का सृजन करता है और ख़ुद से इस तरह के प्रश्न कर पाता है कि मैं कौन हूं? क्यों हूं? लेकिन बुद्धि का यह परिष्कार, अन्य जीवों से कहीं अधिक ‘विकसित’ होना ही अंततः एक दुधारी तलवार की तरह उसके आड़े आता है. वह उसे उसके आत्म स्वरूप को जानने के लिए प्रेरित करने के बजाय उसे वाह्य प्रगति की एक रेखीय राह पर ले जाता है. इस राह पर चलते हुए, वह सजग रूप से ख़ुद को कुदरत से अलग, ऊपर और अंततः उसके विरोध में ला खड़ा करता है. विपर्यय यह कि वह बुद्धि जो उसे पशु होने से ऊपर उठाती है, वही बुद्धि उसे अपनी श्रेष्ठता, अपना वर्चस्व स्थापित करने, अपना साम्राज्य बढ़ाने (टेरिटोरियल इंस्टिंक्ट) की ओर ले जाती हैं जो कि पाशविक वृत्तियां हैं. न सिर्फ़ वह ख़ुद को कुदरत से श्रेष्ठ और उस पर काबिज़ होने के उपाय करता है बल्कि वह मनुष्य प्रजाति के भीतर ही रंग, रूप, लिंग, भौगौलिकता, आदि के आधार पर प्रजाति, जाति के अवैज्ञानिक और कृत्रिम विभेद खड़े कर, उनसे घमासान शुरू कर देता है. (उपन्यास विधा के बिलकुल युवा काल में लिखा गया डॉन किहोते इसी काल्पनिक घमासान के रूपक को केंद्र में रख कर लिखा गया था.) इन कृत्रिम विभेदों को खड़ा कर वह अपने ‘सभ्य’ हो जाने के पहले ही दिन से लड़ाइयां लड़ रहा है. दोहरी लड़ाई – एक अपनी ही मानव कौम से और दूसरी कुदरत के विरुद्ध. निर्मल वर्मा अपने बेहद विचारोत्तेजक निबंध ‘कला, मिथक और यथार्थ’ में एक बात लिखते हैं जो इस उपन्यास के संदर्भ में बहुत मौजू बैठती है. वे कहते हैं, –
“आज की सभ्यता का संकट और प्रदूषण उस ऐतिहासिक क्षण से शुरू हो गया था, जब मनुष्य प्रकृति से छिटक गया था – यह मानव सभ्यता और मनुष्य की यातना का समान स्रोत है, जो आज हमें घसीटकर ‘अणु युग’ तक ले आया है.”
विनोद शाही का यह उपन्यास इस प्राचीन मानव गाथा को, जिसका एक लंबा इतिहास है उसे हम से, ठेठ आज के संदर्भों में जोड़ कर देखने– समझने की कोशिश करता है. और इस बृहत्तर मानव गाथा से जुड़ना महत्व रखता है, क्यों कि हर जन्म लेनेवाले व्यक्ति के जीवन में एक तरह से यह मानव गाथा एक लघु रूप में ही सही, पुनः खेली जाती है. इस उपन्यास का एक क़िरदार पिंदा अपने पिता की मृत्यु के बाद अपने गाँव के समीप के जठेरे में जा कर वहाँ जतन से रखे बही खाते में उस पृष्ठ पर अपने पिता का नाम जुड़वाता है जहां उसके पितरों की १०८ पीढ़ियों के नाम दर्ज़ हैं! उपन्यास में यह वाक्य आता है,–
“यहां आकर लोगों को लगता है कि उनके दुनिया में आने का कोई खास प्रयोजन है और हर आदमी इतना महत्व रखता है कि उसकी स्मृति को हमेशा के लिए बचाया जा सकता है.”
ख़ुद का १०८ पीढ़ियों से नैरंतर्य कुछ देर को ही सही कैसा आह्ल्दाकारी अनुभव होता होगा.
पंजाब के गांवों के इन जठेरों में और देश के प्रायः हर प्रांत में पुरखों को आराध्य मानने, गाँव– परिवार के हर मंगल कार्य में उनका स्मरण कर उन्हें न्योतने का संस्कार आज भी जीवित है. इन पुरखों को लोक देवता अथवा पीर का दर्ज़ा प्राप्त है. इनके पास गाँव अपनी छोटी – बड़ी समस्याओं, मसलन किसी मवेशी के खो जाने, फ़सल अच्छी न होने, बच्चे के पैर टूट जाने से लगा कर अकाल, महामारी आदि से उबरने के लिए जाते हैं. इन स्थानों पर जानेवालों में आदिवासी भी हैं और अन्य सभी समाजों के लोग भी. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय नामक नृतत्व शास्त्रीय संस्थान में इक्कीस वर्षों तक काम करने के दौरान मुझे देश के अनेक सुदूर ग्रामीण अंचलों में काम करने का अवसर मिला और उससे मैंने भी यह ठोस रूप से अनुभव किया है कि इस देश के मानस को उसके लोक चित्त से विछिन्न कर, जाना ही नहीं जा सकता है. यह भी कि इस मानस को बड़े संगठित धर्म नहीं, अंचल विशेष के छोटे छोटे पूर्वज देव– पाबूजी, हरबुजी, काला– गोरा, गोल्य देवजू, बर्मी भगत, गुग्गा देव, ठाकुर देव, लिंगों देव, पिठोरा बावसी, बाप देव चला रहे हैं. यही इस लोक चेतना को गढ़ते और सहेजते हैं.
इस उपन्यास का लेखक हमारे देश के संदर्भ में लोक चित्त के मर्म को, उसकी आस्था कहां से जीवन– रस पाती है, उसे जानता है और हमारे बौद्धिक जगत को उससे जोड़ने का भगीरथ प्रयत्न करना चाहता है. विचार के रूप में तो इसे विद्या निवास मिश्र, अज्ञेय आदि कई लोगों ने परिभाषित किया है. लेकिन उपन्यास के कथा संसार के बीच इसे घटित करना एक बड़ी उपलब्धि है. यह हिंदी उपन्यास में एक अप्रतिम घटना है. उपन्यास में एक वाक्य आता है, –
“समाज को जठेरों से मनोवैज्ञानिक सहारा मिलता है, इसलिए धर्म के किसी न किसी रूप को तो बचाना ही पड़ेगा. उन्हीं की वजह से हम अभी तक एक मानवीय समाज बने हुए हैं.”
यह उपन्यास इसी अर्थ में एक बड़ी महत्वाकांक्षा और स्वप्न को साधने का उपक्रम है. उपन्यास एक तरह से इस चीज़ की पड़ताल भी है कि क्या भारतीय संस्कृति या समाज के पास नितांत आज की परिस्थितियों में, ( उपन्यास का कथानक 1984 के आस–पास खालिस्तान की मांग, इंदिरा गांधी की हत्या, सांप्रदायिक हिंसा आदि के दौरान घटित होता है) जीवन को जीने की कोई मानवधर्मी वैकल्पिक रीति अभी बची है? एक ऐसी जीवन दृष्टि जो हमारे जीवन को अर्थपूर्ण बनाती हो, सभ्यता की दौड़ से परे यह अहसास कराती हो कि
“ वह जब ख़ुद को जानता है, तो पाता है कि उसका कुदरती होना, उसका आदमी होना है.”
पंजाब के जिस मालवा अंचल में उपन्यास का कथानक स्थित है उसकी मिट्टी हरित क्रांति के बाद अंधाधुंध कीटनाशकों और उर्वरकों के इस्तेमाल की बदौलत जहरीली हो चुकी है. वह अत्यंत उपजाऊ इलाका आज ‘ कैंसर की राजधानी’ नाम से कुख्यात हो गया है. उपन्यास में ज़हरीली हो गई मिट्टी और उसके पलटवार के रूप में विशाल सागौन के दरख़्त की जड़ों को कृमियों द्वारा खोखला किए जाने से गिरना, “कृमियों की शक्ल में नागर सभ्यता के विकास पर सवालिया निशान लगाता है.” अमृत कौर नामक एक अन्य किरदार की कैंसर से अकाल मृत्यु को भी उपन्यास में “हमारे समय की जद्दोजहद” कह कर रेखांकित किया गया है.
यह पूरा उपन्यास लगातार आधुनिक सभ्यता के हमारे अपनाए गए मॉडल को, उससे होनेवाले पर्यावरण के और सामाजिक क्षरण जिसने मानवीय संबंधों के स्निग्ध घेरे को क्षत विक्षत कर दिया है के नुकसान को भिन्न कोणों से रेखांकित करता चलता है. उदाहरण के लिए– “ तुम जिसे विकास और प्रगति कहते हो वह कुदरत के नियमों के उलट चलना है.”
“साफ बात यह है कि हम कुदरत को जितना धोखा देते हैं, उतना ही हमें लगता है कि हम आदमी हो रहे हैं. आदमी होना सभ्य होना है और सभ्य होने का मतलब है कि आप कुदरत को धोखा देने में कितने माहिर हो गए हैं.”
“… वे ओलिंपिक जीतनेवाले लोग चाहते हैं. अच्छी सेहत दूसरी चीज़ है. बेहतर समाज वो है जो अपने कुदरती रूप के करीब हो.”
यह उपन्यास हरमन हैस्स के विलक्षण उपन्यास– ‘द ग्लास बीड गेम’ पर चर्चा से शुरू होता है. युक्ति के रूप में इन दोनों ही उपन्यासों में कथानक एक इतिहासकार द्वारा सुनाए गए वृत्तांत पर आधारित है. दोनों में ही शिक्षा, शिक्षा के केंद्र, विद्यार्थी और गुरुओं के आपसी संबंध का महत्व और उनके बीच होनेवाली बेहद विचारोत्तेजक और गंभीर बातचीतों का बृहत फलक है. ‘ग्लास बीड गेम’ में यूं तो किसी भविष्य के देश – कैस्टालिया में घटनाक्रम को रचा गया है जबकि इस उपन्यास में 1984 के आस पास के पंजाब प्रांत के वर्तमान में घूमता घटनाक्रम है. किन्तु मज़े की बात यह है कि दोनों ही उपन्यासों के पाठक को रह रह कर अहसास ऐसा होगा कि वह कोई ऐतिहासिक, प्राचीन समय में घटित वृतांत से रूबरू है. इन ऊपरी समानताओं के बावजूद ये नितांत भिन्न चिंताओं को केंद्र में रख कर लिखे गए उपन्यास हैं और इन समानताओं पर भी मेरा ध्यान पढ़ने के दौरान नहीं बल्कि बाद में उस पर लिखने के दौरान गया.
इस उपन्यास को पढ़ते हुए वृंदावन लाल वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों की सुखद याद यदि आती है तो उसका बड़ा कारण इसके किरदारों का प्रकृति से संबंध है. यहाँ भी बहुत से जानवर– गिलहरी, बिल्ली, साँप, कौआ, अन्य पक्षी, अंगूर की बेल, पीपल, सागौन और बहुत से दूसरे पेड़ों, वनस्पतियों से मनुष्य का गहरा तादात्म्य स्थापित होता है. वे परस्पर एक दूसरे से संवाद करते, संकेत देते– पढ़ते, एक दूसरे के साक्षी होते, एक व्यापकतर दुनिया को रचते हैं जिसके केंद्र में सिर्फ़ मनुष्य नहीं, मानवेत्तर दुनिया भी शामिल है.
उपन्यास में किरदारों के नाम – सिद्ध भैरव, बाबा रमजाणिया, मां कालरात्रि, पारबती, गौरी, ज्ञानी जी, चंद्रभान, स्वरूपानंद, परमानंद( इन दोनों के असल नाम वैसे स्वराजबीर और पिंदा हैं), उनकी बातचीत, उनके कुछ क्रिया कलाप, उनके सरोकार भी संभवतः एक अतीत का सा, कुछ ऐतिहासिक, कुछ जादुई यथार्थ का सा माहौल रचते हैं.
‘ईश्वर के बीज’ मूलभूत रूप से एक वैचारिक उपन्यास है जो अपने समाज के तमाम अंतर्विरोधी और साथ ही उसे जोड़ने वाले पक्षों को सचमुच देखना और खुलेपन से उस पर विचार करना चाहता है. इससे भी बढ़ कर जो बात मुझे लगती है वह यह, कि इसका लेखक जानता और मानता है कि हमारी सभ्यता के संकट का हल हमें अपने समाज के भीतर से ही निकालना होगा. ” सभ्यता का संकट और भारतीय बुद्धिजीवी ” नामक एक लेख में समाजवादी और हमारे समय के प्रखरतम विचारक किशन पटनायक लिखते हैं, –
“भारतीय संस्कृति में यह एक ज़बरदस्त अवगुण है कि आदमी को गहराई में ले जाने की प्रक्रिया में वह उसे समाज से ही अलग कर देती है. वह इतना डूब जाता है कि उसको ऊपर की दुनिया दिखाई देना बंद हो जाती है. महर्षि अरविंद, संत विनोबा, अच्युत पटवर्धन आदि के साथ ऐसा ही हुआ. किंतु गांधीजी के साथ ऐसा नहीं हुआ.…”
मुझे ख़्याल आता है की प्रसाद के नाटकों, विशेषकर स्कंदगुप्त में भी अपने शीर्ष पर पहुंच कर अचानक वैराग्य की कामना और उसके तारी हो जाने की बात आती है. विनोद शाही का बेहद सजग और कर्मठ दिमाग़ इस उपन्यास के माध्यम से सचमुच अपने समाज के लोक व्यापी आयामों को खंगालना चाहता और वहां से समाज की बेहतरी की राह, बढ़ती सांप्रदायिकता की काट ख़ोज निकालना चाहता है. इस उपन्यास का इस संकट के प्रति सजग एक पात्र कहता है,–
“तानाशाहों द्वारा सताए गए लोग कृष्ण को याद करते हुए बोले ‘संभवामि युगे युगे’ कहकर वादा किया है तो तुम कल्कि की तरह लौट जरूर आना, लेकिन हमारी कीली मत बनना. कीली मजबूत होती है तो चीजों को उसके ही इर्दगिर्द घूमते रहना पड़ता है.”
(यहां कीली का संदर्भ ईसा मसीह और उनकी मृत्यु से है)
इतने विचार केंद्रित उपन्यास के लिखे जाने में यह भय रहता है कि वहाँ विचार कथानक और पात्रों की आंतरिक ज़रूरत के भीतर से न आ कर लेखक के द्वारा बाहर से थोपे गए हों. लेकिन यह उपन्यास इस दोष से मुक्त है. कुछ घटनाएं नाटकीय और अविश्वसनीय लग सकती हैं, अतिरेकपूर्ण भी, विशेषकर उन्हें, जिन्हें एक लीक पर चलने वाले यथार्थ को ही देखने समझने की आदत है. महत्वपूर्ण बात यही है कि तमाम वैचारिक बातें जीवंत घटनाओं, संवादों के बीच से जन्म लेती हैं. मसलन, पिंदे के पिता की मृत्यु के बाद उपन्यास के पात्रों के बीच जीवन में संयोग की भूमिका, मृत्यु, अमृत, सृष्टि क्या है आदि पर बहुत सुन्दर और सार्थक बातचीत होती है, जिसकी एक बानगी उपन्यास की रोचकता का परिचय देने में सक्षम है–
“मृत्यु जब तक बीज रूप होती है हमें भ्रम होता है कि हम जीवन की तरह अंकुरित हो रहे हैं.
मृत्यु ऐसा क्यों करती है?
“मृत्यु जीवन को पकाती है ताकि उसे अपनी थाली में परोस कर खा सके.”
वैचारिक उपन्यास होने के बावजूद इसमें जो वातावरण निर्मित किया गया है वह जादुई यथार्थ या अतीत की किन्हीं लुप्त प्रविधियों को पुनर्स्थापित करने का उपक्रम न हो कर, हमारे देश के लोक चित्त, लोक व्यवहार में उतरने, उसे समझने, उसे केंद्र में लाने का उपक्रम है. वह लोकचित्त, वह लोकाचार जो शायद आज भी कहीं गहरे में इस देश के मानस को रचता है. पिछले वर्षों में संचार व प्रगति के अन्य उपादानों ने इसके ताने बाने को बहुत छिद्रित कर दिया है. इसके बावजूद कुछ है,–पारस्परिकता, मानवता में आस्था का बीज जो शायद बचा हुआ है या शायद जिसे बचाया जा सकता है या इससे भी अधिक यह कि शायद वहीं से हमारे (तथाकथित सभ्य हो चुके समाज के) बचने की राह खोजी जा सकती है.
उपन्यास की कर्मस्थली पंजाब के मालवा प्रांत का जठेरा– यानी ज्येष्ठों, अपने पूर्वजों को समर्पित लोक आस्था का केंद्र है जिससे हर धर्म, जाति, वर्ग के लोग जुड़े हुए हैं. सांप्रदायिकता की बांटनेवाली ताकतें लगातार वहाँ भी घुसपैठ करने की कोशिश कर रही हैं, पर वे ऐसा करने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाई हैं. यह उपन्यास लोक चित्त की आस्था के केंद्र में इस और इस जैसे अन्य जठेरों को ही निर्णायक रूप से स्थापित करता है. इन केंद्रों से सब जुड़े हैं– जिंदर और पिंदा जैसे दिशाहीन होने को अभिशप्त युवा जो समाज के दोगले आदर्शों से लड़ते, मार खाते हैं, समाज के कुछ सुविधा संपन्न लोग, राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले, आतंकवादी गुटों से जुड़े लोग और वे असंख्य जन जिन पर स्वार्थपरक, लालच की संस्कृति ने अभी पूरी तरह कब्जा नहीं जमाया है. जिन्हें इस बात का अहसास है कि ज़मीन से अंधाधुंध उपज सिर्फ़ ज़मीन को ही नहीं हमारी पारस्परिकता की मिट्टी को भी बाँझ करती है. जो यह जानता है कि ईश्वर या तो कहीं नहीं है अथवा बीज रूप में वह पिंदा, जिंदर में भी है. ज़रूरत है तो ऐसी मिट्टी, ऐसा पर्यावरण रचने की जिसमें ये बीज अंकुरित हो, अपनी असल और चरम परिणति को प्राप्त कर सकें.
मुझे लगता है कि विनोद शाही का यह उपन्यास हिंदी साहित्य में कुछ सर्वथा नए और मूलगामी तत्त्व जोड़ता है. यह एक समाज के रूप में हमारी कमजोरियों और हमारी शक्ति को बड़ी ईमानदारी से चिन्हित करने की कोशिश करता है. दूसरी बात, कि यह समाज की बदहाली, उसमें होते चौमुखी क्षरण के लिए सिर्फ़ सत्ता या परिस्थितियों या स्ट्रक्चर के मत्थे सारा दोष मढ़ कर अपने हाथ नहीं झाड़ लेता. मेरे लिए जो बात इस उपन्यास को अत्यंत महत्व का बनाती है वह है इस उपन्यास का यह देख पाना कि किसी समाज की व्याधियां, उसे जिन भी कारणों से लगा घुन बाहर से आयातित किन्हीं विचारों, प्रविधियों, या दवाओं से ठीक नहीं किया जा सकता. जैसा भी बदहाल, कई बार विरोधी मान्यताओं और छद्म मूल्यों की सवारी गांठता, कई समयों में एक साथ विचरता, अपनी नियति के प्रति उदासीन नज़र आता यह जो हमारा जन मानस है, उसी के बीच, उसी के अंदर से वह ‘बीज’ तलाशना होगा जो उसे सचमुच मनुष्य बना सकता है. हमारे मानस के भीतर वह बीज, सुप्त अवस्था में ही सही, कहाँ छुपा बैठा है? यह उपन्यास इसकी पहचान के लिए अपने किरदारों के जीवन में उतरता है. यूटोपियन ही सही वह ऐसी ‘ झिड़ी’, ऐसे जठेरों की कल्पना करता है जहां पढ़े लिखे लोग, तार्किक, वैज्ञानिक बुद्धि से देशज ज्ञान परंपराओं से जुड़ उन्हें पुनर्जीवित करते हों. जहाँ कुदरत के सघन सानिध्य में समाज अपने को भीतर से निरोगी कर आत्मिक बल पाता है. यूं कला या साहित्य का काम ज़रूरी तौर पर समाज की मुश्किलों के हल निकालना नहीं है. लेकिन उसका काम निश्चित ही समाज की ओर से ऐसे स्वप्न देखना तो है.
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शंपा शाह प्रसिद्ध शिल्पकार हैं, उनकी कृतियाँ देश-विदेश की अनके प्रदर्शनियों में शामिल हुईं हैं. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के सिरेमिक अनुभाग से संबद्ध रहीं हैं. लोक व आदिवासी कला तथा साहित्य आदि पर लिखती हैं. मारिओ वर्गास ल्योसा तथा चेखोव आदि का हिंदी में अनुवाद भी किया है.
shampashah@gmail.com
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बहुत शुक्रिया अरुण जी, समालोचन पर इस आलेख को प्रस्तुत करने के लिए ☘️ यह उपन्यास हमारी नितांत समसामयिक मुश्किलातों से रू– बरू होने और समाज के भीतर से उसकी काट निकालने का स्वप्न रचता उपन्यास है☘️ आशा है यह आलेख पाठकों में इस उपन्यास के प्रति उत्सुकता बढ़ाएगा☘️