शतरंज के खिलाड़ी: विलासिता और पतन
|
‘शतरंज के खिलाड़ी’ ऐतिहासिक कहानी नहीं है और न यह अवध के अंतिम नवाब वाज़िद अली शाह (30.7.1822-1.9.1887) के जीवन पर लिखी गयी कहानी है. कहानी का पहला वाक्य है- ‘‘वाज़िद अली शाह का समय था.’’
प्रेमचन्द के यहाँ व्यक्ति नहीं, चाहे वह शासक ही क्यों न हो, महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण है समय. राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में, 1924 में उन्होंने नवाब वाज़िद अली शाह के समय की कहानी क्यों लिखी?
वाज़िद अली शाह अवध के ग्यारहवें नवाब थे, अंतिम भी, जिन्होंने 13 फरवरी 1847 से 11 फरवरी 1856 तक अवध पर राज किया था. यह समय कहानी के रचनाकाल से 77 वर्ष पहले से 68 वर्ष पहले का समय है. इतिहास प्रेमचन्द का प्रिय विषय था. बी.ए. में उनके तीन विषय थे- अंग्रेजी साहित्य, फ़ारसी और इतिहास.
‘‘मुंशी जी के लिए इतिहास कोरा इतिहास यानी अतीत की वार्ता नहीं है. होगा, जिसके लिए होगा. बहुतों के लिए होता है… लेकिन उसका महत्व भी इसी में है कि उससे वर्तमान के लिए कुछ रोशनी मिलती है.’’
(अमृत राय, प्रेमचन्द:कलम का सिपाही, 1976, पृष्ठ- 336).
अवध में नवाबों की हुकूमत 139 वर्ष रही है. 1732 में, मुगल साम्राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुगल सल्तनत के अधीन अवध में एक आनुवंशिक राजतंत्र की स्थापना की थी. सादत अली खान प्रथम अवध के पहले राजा थे. सातवें नवाब गाजीउद्दीन हैदर के समय से, 8 अक्टूबर, 1819 से शासकों ने ‘बादशाह’ की उपाधि स्वयं ग्रहण की, जो एक प्रकार से ‘स्वाधीनता की घोषणा’ थी. पहले अवध की राजधानी फैजाबाद थी. आसफउद्दौला अवध के चौथे नवाब थे. 26 जनवरी, 1775 से 21 सितम्बर, 1797 तक उन्होंने 1775 में अवध की राजधानी को फैजाबाद से हटाकर लखनऊ को बनाया.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में वाज़िद अली शाह के समय के लखनऊ का जिक्र है-
‘‘लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था. छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे… जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था. शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी… सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था. संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी.’’
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में क्या पाठकों-आलोचकों का ध्यान ‘वाज़िद अली शाह का समय’ पर ही केन्द्रित करना चाहिए या इसके साथ कहानी के रचना-समय पर भी? इस कहानी के साथ तीन समय-पाठ आवश्यक है. नवाब वाज़िद अली शाह और कहानी के रचना-समय के साथ-साथ पाठक-आलोचक का अपना समय भी. इस तीन समय-पाठ में हम एक साथ 19वीं शताब्दी के अवध, बीसवीं सदी के 1920-24 का समय और इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक के समय को भी रख सकते हैं. प्रेमचन्द में राजनीतिक चेतना उनके लेखन के आरंभिक समय से, 1901-02 से ही दिखाई देती है. ‘सोजे़ वतन’ (1908) की भूमिका में केवल बंग-भंग का ही उल्लेख नहीं है, इसे ‘लोगों के दिलों में विद्रोह के विचार जगाने वाला’ कहा गया है.
सुमित सरकार जैसे इतिहासकार ने प्रेमचन्द के ‘राजनीतिक स्वर’ की पहचान की थी –
‘‘उनके आरंभिक लेखन में ही स्पष्ट राजनीतिक स्वर मिलता है.’’
(आधुनिक भारत, 1992, पृष्ठ-194)
जिस समय यह कहानी लिखी गयी, उस समय को, 1917-1927 के दशक को, सुमित सरकार ‘जन राष्ट्रवाद’ का दौर कहते हैं और उसके उद्भव एवं समस्याओं पर विचार करते हैं. (आधुनिक भारत, अध्याय 5) केवल नवाब वाज़िद अली शाह के समय पर ही ध्यान केन्द्रित कर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी पर विचार करना न्याय संगत नहीं है.
प्रेमचन्द ने आरंभ में राजा-रानी एवं तिलस्म-ऐयारी के किस्से पढ़े थे, पर उनका लेखक अपने समय से, वर्तमान से जुड़ा था. उनके यहाँ अतीत की उपस्थिति भी वर्तमान से जुड़ी है. 1901 से उन्होंने ‘लिटररी जिन्दगी’ शुरू की थी और लगभग उसी समय से उनकी राजनीतिक समझ साफ थी. 1905 के ‘जमाना’ पत्र में उन्होंने ‘नेशनल कांग्रेस’ की ‘पोलिटिकल बहसों’ को ‘विद्यार्थियों के जैसी’ कहा था.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी की रचना के चार-पाँच वर्ष पहले के समय और भारत को देखना-जानना इसलिए जरूरी है कि प्रेमचन्द ने 1924 में ऐसी कहानी क्यों लिखी, जिसमें वाज़िद अली शाह के समय के लखनऊ का विस्तार से जिक्र ही नहीं, उसी समय के शतरंज के दो खिलाड़ी भी कहानी के केन्द्र में हैं. 1919 के आरंभ में हिन्दू-मुसलमानों में जो अद्भुत एकता थी, वह तीन-चार वर्ष बाद ही, चौरी चौरा घटना और गांधी द्वारा असहयोग आन्दोलन वापस ले लेने के बाद, समाप्त होने लगी. 1922-27 के समय को सुमित सरकार ने ‘पतन और विघटन’ का समय कहा है-
‘‘1921-22 की हिन्दू-मुस्लिम एकता का स्थान अभूतपूर्व स्तर पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगे लेते जा रहे थे.’’
(आधुनिक भारत, वही, पृष्ठ – 263)
इस दौर में कांग्रेस में आंतरिक कलह भी थी. 1920 में गांधी ने एक वर्ष के भीतर स्वराज लाने की बात कही थी.
“1922 का वर्ष इंडियन नेशनल कांग्रेस के संकट का वर्ष था. आन्दोलन बन्द कर देने की वजह से उसकी इज्जत तेजी के साथ गिरी. 1921 में उसकी सदस्य-संख्या एक करोड़ तक पहुंच गई थी, लेकिन 1923 में वह सिर्फ कुछ लाख रह गई.’’
(वही, पृष्ठ 452 पर उद्धृत)
मार्च 1923 में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने ‘स्वराज पार्टी’ की स्थापना की.
‘‘1920 के दशक में जन सामान्य के जीवन की परिस्थितियों में कोई सुधार नहीं हुआ.’’
(वही पृष्ठ 276)
गांधी ने सरकार के खिलाफ 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन आरंभ किया था. कलकत्ता के विशेष कांग्रेस अधिवेशन (4-9 सितम्बर 1920) में उपाधियों को त्यागने और विद्यालयों, न्यायालयों और कौंसिलों के ‘तिहरे बहिष्कार’ को स्वीकारा गया था. प्रेमचन्द ने फरवरी, 1921 में गोरखपुर के एक सरकारी विद्यालय में अपने पद से त्याग पत्र दिया, जिससे वे राष्ट्रवादी अखबार और काशी विद्यापीठ के लिए कार्य कर सकें. गोरखपुर जिला के चौरी चौरा में 4 फरवरी, 1922 को किसानों के एक समूह ने पुलिस थाने में आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिस कर्मी मारे गये. इस घटना के बाद गांधी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया. 12 फरवरी, 1922 को राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग आन्दोलन रोक दिया गया. 1919-22 के दिनों में जो हिन्दू-मुस्लिम भाई चारा चरम पर था, उसे असहयोग आन्दोलन की वापसी के बाद ‘‘साम्राजियों ने बड़ी चतुराई से अपने दलालों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम दंगों की तरफ मोड़ दिया.’’ (अयोध्या सिंह, भारत का मुक्ति-संग्राम, 1977, पृष्ठ 448).
1923 में अमृतसर, मुल्तान, मेरठ, मुरादाबाद, रायबरेली, सहारनपुर और अन्य शहरों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए. 1924 में दिल्ली, कोहाट, गुलबर्ग, जबलपुर, नागपुर, लाहौर, लखनऊ और इलाहाबाद में दंगे हुए. (वही, पृष्ठ – 449)
इसी के अगले वर्ष 1925 में दो भिन्न विचारधाराओं वाली पार्टी और संगठन की स्थापना हुई. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 26 दिसम्बर, 1925 को कानपुर में हुई और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन 27 सितम्बर, 1925 को नागपुर में हुआ. भगत सिंह ने मार्च, 1926 में नौजवान भारत सभा की स्थापना की. चन्द्रशेखर और अन्य लोगों के साथ हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) का गठन दिल्ली के फ़ीरोजशाह कोटला में 1928 में किया और इसी वर्ष सोहन सिंह जोश के साथ मिलकर ‘कार्यकर्ता और किसान पार्टी’ की स्थापना की.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी के सजग पाठक-आलोचक यह सवाल कर सकते हैं कि कहानी की आलोचना में इन सारे तथ्यों की क्या आवश्यकता है? आवश्यकता इसलिए है कि प्रेमचन्द केवल वाज़िद अली शाह के समय और लखनऊ का ही चित्र प्रस्तुत नहीं करते. वे राज्य की हालत का भी वर्णन करते हैं. कथा-सौन्दर्य घटित से अधिक अघटित में, कथित से अधिक अकथित में है. निश्चय ही, नवाब वाज़िद अली शाह के समय में उन्हें जाने की आवश्यकता अपने समय के कारण ही पड़ी. अमृत राय ने लिखा है-
‘‘अगर वह युग (वाज़िद अली शाह का) सचमुच बीत गया होता, तो शायद उसकी कहानी का ख्याल भी न आता. कम-से-कम मुंशी जी को- बीता नहीं है, इसलिए यह कहानी कही जा रही है और इसी में उसकी अन्योक्ति है.’’
(कलम का सिपाही, 1976, पृष्ठ – 336)
‘शतरंज के खिलाड़ी’ के रचना-काल के दो-ढाई वर्ष पहले साम्प्रदायिक चेतना फैल रही थी. राजनीतिक चेतना के रहने पर क्या साम्प्रदायिक चेतना कायम रह सकती है?
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी अक्टूबर, 1924 को ‘माधुरी’ में प्रकाशित हुई थी. इसके कुछ पहले प्रेमचंद ने ‘कर्बला’ नाटक लिखा था. मकसद क्या था? ‘‘मकसद है पोलिटिकल-बाहमी (आपसी) इत्तहाद को बढ़ाना, और कुछ नहीं.’’ (17 फरवरी, 1924 को दया नारायण निगम को लिखा गया पत्र)
इस कहानी में प्रेमचन्द ने शतरंज के हाथों बादशाहत के तबाह होने की बात कही है. क्या वे अपने समय में साम्प्रदायिकता के कारण देश की एकता को खंडित होते नहीं देख रहे थे और इस समय, कहानी के सौ वर्ष बाद, 2024 में हम देश को धर्मान्धों और फंडामेंटलिस्टों के द्वारा बर्बाद होते नहीं देख रहे हैं. यह कहानी वाज़िद अली शाह के समय की, अवध की राजधानी लखनऊ की ही नहीं है. कहानी का यह पाठ सीमित पाठ है? जिससे कहानीकार का अपने समय के प्रति गहरे ‘कंसर्न’ का हमें पता नहीं चलता.
यह स्थान प्रेमचन्द के युग-बोध और इतिहास-बोध पर विचार करने का नहीं है.
‘‘मुंशी जी इतिहास के विद्यार्थी थे, समाज शास्त्र के विद्यार्थी थे, राजनीति की अच्छी सूझ-बूझ रखते थे.’’
(कलम का सिपाही, वही, पृष्ठ – 251)
यह प्रेमचन्द का समय है, जिसने उन्हें पैंसठ-सत्तर वर्ष पहले के, वाज़िद अली शाह के समय पर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी लिखने को विवश किया और यह हमारा समय है, जिससे बाध्य होकर इस कहानी पर विचार करना आवश्यक लग रहा है. एक साथ तीन समय. इस तीन समय को कमोबेश एक साथ रखने के कारण यह कहानी कहीं अधिक अर्थवान और विशिष्ट हो जाती है, इसका अर्थ-विस्तार हो जाता है. प्रेमचन्द ने यह कहानी लखनऊ में रहकर लिखी थी.
‘‘यह लखनऊ मुंशी जी का जाना-पहचाना है. इसके पहले वह यहाँ कभी आये नहीं, लेकिन इसका कोना-कोना, गली-गली, उनकी देखी हुई है. सरशार (रतन नाथ सरशार, 1846-21.1.1903, ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ के लेखक, जिसका प्रेमचन्द ने हिन्दी अनुवाद ‘आजाद कथा’ शीर्षक से प्रकाशित किया) के साथ उन्होंने जी भर के सैर की है. यहाँ की बोल-चाल, यहाँ का रहन-सहन, यहाँ के रीति-रिवाज- कुछ भी उनके लिए अनजाना नहीं है… जो बात सरशार ने अनकही छोड़ दी थी, या जिसे कह सकना सरशार के अपने वक्त में मुमकिन न था, उसे मुंशी जी ने लखनऊ में कदम रखते ही अपनी इस कहानी में कहा- शतरंज के हाथों बादशाहत के तबाह होने की कहानी… उसी पतन के युग का एक सुन्दर मार्मिक चित्र है यह, अपने आप में सम्पूर्ण, देशकालातीत अपने मनोवैज्ञानिक चित्रण में…’’
(वही, पृष्ठ 335-36)
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी न तो किसी नवाब की कहानी है और न केवल लखनऊ की. वह एक समय-कथा है. कहानी में ‘विलासिता’ की कई बार चर्चा है– ‘लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था’, ‘सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था’, ‘जीवन के प्रत्येक विभाग में…. विलासिता व्याप्त हो रही थी’, ‘दोनों विलासी थे, पर कायर न थे’, ‘अवध के पतन का मुख्य कारण नवाबों की विलासिता थी’. अंग्रेजों ने अवध पर 1856 में कब्जा कर लिया था. 1764 में बक्सर की लड़ाई में ब्रिटिश सेना ने अवध के नवाब, बंगाल के नवाब और मुगल शासक शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना को पराजित किया था. अवध के ग्यारह नवाबों में वाज़िद अली शाह सबसे भिन्न थे. वे औपचारिक रूप से मई, 1842 में अवध की गद्दी के युवराज नियुक्त हुए थे. नवाब वाज़िद अली शाह के कार्यकाल 13 फरवरी, 1847 से 11 फरवरी, 1856 तक था. 1847 में पिता की मृत्यु के बाद बादशाह बन जाने के बाद से ही ब्रिटिश रेजीमेंट से उनकी खटपट होने लगी थी. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के दूसरे अध्याय में अवध राज्य की कुव्यवस्था और दुर्व्यवस्था का वर्णन है-
“देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह वेश्याओं में, भाँड़ों में और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी… रेजीडेण्ट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे, किसी के कानों पर जूँ न रेंगती थी.’’
‘विलासिता’ मात्र एक शब्द नहीं, एक प्रवृत्ति है. शासक के विलासी होने पर राज्य अथवा देश की समस्याएँ और विकराल हो जाती हैं.
‘‘राज्य में हाहाकार मचा हुआ था. प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी. कोई फ़रियाद सुनने वाला न था… अंग्रेज कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था. कमली दिन-दिन भीग कर भारी होती जाती थी. देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी वसूल न होता था.’’
यह सब नवाब की विलासिता के कारण था.
अंग्रेजी और आधुनिक यूरोपीय भाषाओं की प्रोफेसर फातिमा रिज़वी ने जामिया मिल्लिया, दिल्ली के एक अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार में बारह वर्ष पहले (28-30 नवम्बर, 2012) ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर पढ़े अपने पेपर को परिवर्तित-परिवर्धित कर एक लेख लिखा-
‘‘पॉलिटिक्स ऑफ लैंग्वेज़ एंड कल्चरल रीप्रेजेंटेशन : प्रेमचन्दस शतरंज के खिलाड़ी इन ट्रांसलेशन’. (2013, प्रकाशक- डिपार्टमेंट ऑफ लैंग्वेजेज एंड कल्चर्स ऑफ एशिया, यूडब्ल्यू- मैडीसन)
उन्होंने कहानी में ‘विलासिता’ शब्द के बार-बार प्रयोग को लेकर इसके लिए उर्दू शब्द ‘ऐश-ओ-इशरत’, ‘रंगरलियाँ’ का उल्लेख किया है. उनका ध्यान शब्द विशेष पर है. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी प्रेमचन्द ने पहले हिन्दी में लिखी थी, बाद में इसका उर्दू में अनुवाद किया. उर्दू में प्रेमचन्द ने इस कहानी का दूसरा शीर्षक दिया- ‘शतरंज की बाजी’. इसी शीर्षक से 1928 के पहले उनकी कहानियों का संकलन आया. कई प्रति-सांस्कृतिक अनुवाद आये पर अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं में भी यह कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ शीर्षक से ही प्रकाशित हुई. ‘शतरंज की बाजी’ में अर्थ सीमित है और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में व्यापक.
‘खिलाड़ी’ में पात्र है, कर्ता है, जो महत्वपूर्ण है. ‘बाजी’ में ‘शतरंज’ पर ध्यान है और ‘खिलाड़ी’ में पात्र पर. ‘खिलाड़ी’ की अपनी अर्थ-व्यंजना भी है. फ़ातिमा रिज़वी का भाषा पर विशेष ध्यान है. ‘शतरंज की बाज़ी’ कहानी उर्दू में लिखी जाने के कारण उसकी भाषा उर्दू है जो ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की नहीं है. यह कहानी भाषा के कारण महत्वपूर्ण नहीं है, फिर भी आलोचना में कथा-भाषा पर विचार किया जाना चाहिए.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ के उर्दू अनुवाद, अंग्रेजी अनुवाद, कहानी पर बनी फिल्म और कहानी पर एक साथ विचार किसी सुदीर्घ निबंध या स्वतंत्र पुस्तक में ही संभव है. महत्वपूर्ण यह जानना भी है कि सत्यजीत रे ने हिन्दी फिल्म के लिए इसी कहानी का चयन क्यों किया?
दो)
यह फिल्म इंदिरा गांधी के आपात काल के समय में निर्मित हुई थी, जिसमें अभिनय संजीव कुमार, शबाना आज़मी, सईद जाफ़री, फरीदा जलाल और अमजद खान का था. संवाद सत्यजीत रे के अलावा शमा जैदी और जावेद सिद्दीकी के थे. संगीत सत्यजीत रे का और सम्पादन दलाल दत्ता का था. फिल्म निर्माता सुरेश जिंदल थे. 1977 में बनी यह फिल्म बड़े बजट की हिन्दी फिल्म थी. सत्यजीत रे ने कहानी का रूपान्तरण किया था. सुरेश जिंदल इस फिल्म के पहले ‘रजनीगंधा’ (1974) के निर्माता थे. उन्होंने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फिल्म के निर्माण पर एक पुस्तक लिखी- ‘माई एडवेंचर विद सत्यजीत रे : द मेकिंग ऑफ शतरंज के खिलाड़ी’ (2017, हार्पर कॉलिन्स)
प्रेमचन्द की कहानी और सत्यजीत रे की फिल्म पर संभवतः अभी एक साथ सभी दृष्टियों से विचार नहीं हुआ है. केवल प्रिचेट ने इस पर थोड़ा विचार किया है.
इस कहानी में ऐसा क्या है, जो अनुवादकों, लेखकों और समीक्षकों को भी बार-बार आकृष्ट करता है.
सामंती समाज की पतनशीलता?
उच्च सामंती वर्ग की विलासिता?
सामंती संस्कृति?
कला, साहित्य, संस्कृति का मूल्यांकन?
विलासिता की, उपभोग की संस्कृति या राष्ट्रीय संकट?
मध्यपूर्व दक्षिण एशियाई एवं अफ्रीकन स्टडीज की कोलम्बिया यूनवर्सिटी में एमेरिटस प्रोफेसर फ्रांसिस डब्ल्यू प्रिचेट में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फिल्म के निर्माण के नौ वर्ष बाद एक लेख लिखा- ‘द चेस प्लेयर्स : फ्रॉम प्रेमचन्द टू सत्यजीत रे’ (जर्नल ऑफ साउथ एशियन लिटरेचर, 22,2 समर फॉल 1986, पृष्ठ 65-78)
प्रिचेट ने लिखा कि कहानी में विलासितापूर्ण गतिविधियों की संक्षिप्त सूची है-
‘‘संगीत, नृत्य, अफ़ीम-धूम्रपान, कविता, कपड़े, सौन्दर्य-प्रसाधन, व्यंजन, बटेर, लड़ाई, खेल-एक आकस्मिक और सहज तरीके से दी गयी है.’’
प्रिचेट कहानी में जो कुछ है, उसका उल्लेख करती हैं पर आश्चर्य की बात यह है कि यह कहानी जिस कारण से काल की सीमा लाँघती है, उधर उनका ध्यान नहीं जाता. अन्य किसी का भी नहीं. कहानी में लखनवी संस्कृति जो ऐश-मौज और विलासिता की है, प्रेमचन्द ने सांकेतिक रूप में निन्दा की है. यह उपभोग की संस्कृति है. ऐसा नहीं है कि जो उत्पादक वर्ग है, वह कहानी से गायब है. चार अध्यायों की इस कहानी के पहले अध्याय के आरंभ में जहाँ लखनऊ की विलासिता का चित्रण है, वहाँ दूसरे अध्याय में पूरे राज्य के हालात का चित्र है–
‘‘राज्य में हाहाकार मचा हुआ था. प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी. कोई फरियाद सुनने वाला न था.’’
इस कथन में प्रशासन की विफलता और न्याय देने वालों की निष्क्रियता है, जिसे हम आज न्यायपालिका भी कह सकते हैं. स्पष्ट है कि एक ओर राजधानी में विलासिता है और दूसरी ओर राज्य और देहात की गंभीर हालत है. राजधानी और राज्य का यह भेद महत्वपूर्ण है. एक समय था, जब अवध को ‘भारत का उद्यान, अन्न भंडार और रानी-प्रान्त’ कहा जाता था. कहानी में लखनऊ और ‘राज्य’ में अंतर क्या उसी प्रकार नहीं है, जिस प्रकार आज दिल्ली और मणिपुर, लद्दाख, कश्मीर सहित देश के अन्य भू-भाग में है? ‘बादशाह’ को हटाकर आज राज्य-प्रमुख कर दें, जागीरदार को हटाकर अफसर कर दें, फिर यह कहानी क्या वाज़िद अली शाह के समय की ही रहती है या हमारे-आपके समय की भी?
‘शतरंज के खिलाड़ी’ ‘राजनीतिक भावों के चरम अध:पतन’ की कहानी है. कहानी के तीसरे और चौथे अध्याय में इसका उल्लेख है. मीर और मिर्ज़ा ‘एक पुरानी वीरान मसिजद में’ जाकर शतरंज खेलते हैं. उनके सामने गोरों की फौज नवाब वाज़िद अली शाह को पकड़ कर ले जा रही है. प्रेमचन्द लिखते हैं –
‘‘शहर में न कोई हलचल थी, न मारकाट. एक बूँद भी खून नहीं गिरा था. आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी. यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं. यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं. अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था. यह राजनीतिक अध:पतन की चरम सीमा थी”
और फिर कहानी के चौथे, अन्तिम अध्याय के अंत में, जब मीर और मिर्ज़ा कमर से तलवारें निकाल कर एक दूसरे को जान से मार डालते हैं –
‘‘दोनों विलासी थे, पर कायर न थे, उनमें राजनीतिक भावों का अध:पतन हो गया था – बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरें; पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था.’’
क्या ‘व्यक्तिगत वीरता’ का कोई अर्थ है? शासक जैसा होता है, जनता भी वैसी हो जाती है. ‘यथा राजा तथा प्रजा’. शासक अगर पुजारी और धर्मान्ध है तो जनता भी पहले से अधिक पूजा-पाठ धर्म आदि में शामिल हो जाती है. ‘राजनीतिक भावों के अध:पतन’ को समझे बिना ‘शतरंज के खिलाड़ी’ को नहीं समझा जा सकता. कहानी के दो प्रमुख पात्र-मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली जागीरदार हैं.
‘‘दोनों के पास मौरूसी जागीरें थीं; जीविका की कोई चिन्ता न थी; घर में बैठे चखौतियाँ करते थे. आखिर और करते ही क्या?’’
जागीरदारी प्रणाली का आरंभ दिल्ली सल्तनत (1206-1526 ई.) द्वारा किया गया था. यह व्यवस्था मुगल साम्राज्य के दौर में भी जारी रही. मुगल काल में जागीरदार कर एकत्र करता था, जिससे उसके वेतन का भुगतान होता था और शेष राशि मुगल खजाने में जाती थी. यह व्यवस्था बाद में भी जारी रही. राजपूत, जाट और सिख जाट राज्यों में भी यह प्रथा कायम रही, जिसे बाद में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भी जारी रखा. तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में जागीदार प्रणाली विकसित हुई, जिसमें राज्य द्वारा नियुक्त व्यक्ति के पास कर एकत्र करने की शक्तियाँ थीं. और सम्पत्ति पर शासन करने का अधिकार था. फ़ारसी शब्द ‘जागीर’ का अर्थ ‘भूमि धारण करना’ है और ‘दार’ का अर्थ आधिकारिक है अर्थात् जागीरदार वह है, जो आधिकारिक रूप से भूमि धारण करे.
राजस्व एकत्र करने के उद्देश्य से नकद वेतन के बदले भूमि का अनुदान भारत में प्रचलित रहा है. दिल्ली सल्तनत काल में ‘जागीर’ को ‘इकता’ कहा जाता था और जागीरदार ‘इक्तादार’ कहलाते थे. सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इसे समाप्त किया, पर बाद में सुल्तान फिरोज़ शाह तुगलक ने इसे पुनर्जीवित किया. जागीर दो प्रकार की थी – शर्त सहित (सशर्त) और शर्त रहित. सशर्त जागीर के लिए शासक परिवार को सेना बनाये रखना और पूछे जाने पर राज्य को अपनी सेवा प्रदान करने की आवश्यकता होती थी. वेतन के बदले में दी गयी जागीर को ‘जागीर तन्खा’ कहते थे; सेनाओं का दायित्व न होने और जो रैक से स्वतंत्र होते थे, वे ‘इनाम जागीर’ कहलाते थे और अपनी मातृभूमि में दी जाने वाली जागीर ‘वतन जागीर’ कहलाती थी. समय के साथ जागीरें वंशानुगत हो गयीं और जागीरदारों के पुरुष उत्तराधिकारी को हस्तान्तरित कर दी गयीं.
जागीरदारी प्रथा मनसबदारी प्रथा का अभिन्न हिस्सा था, जिसे अकबर के समय में विकसित किया गया था. अकबर के समय में सभी राज्य मोटे तौर पर दो हिस्सों में विभाजित थे. सम्राट से जुड़ा प्रादेशिक क्षेत्र (क्राउन लैंड) और जागीर (आबंटित भूमि).
‘शतरंज के खिलाड़ी, कहानी के मीर और मिर्ज़ा के पास अर्जित कुछ भी नहीं था. उनके पास विरासत में मिली हुई जागीर थी, पैतृक सम्पत्ति थी. जागीदारी व्यवस्था भूमि-स्वामित्व की सामंती व्यवस्था थी, जिसे भारत सरकार ने 1951 में समाप्त किया. कहानी में वाज़िद अली शाह का आरंभ में नामोल्लेख भर है. प्रेमचन्द के यहाँ बादशाह और बादशाहत का कोई महत्व नहीं है. उन्होंने मीर और मिर्ज़ा की जिस ‘मौरूसी जागीरें’ की बात कही है, उसका इतिहास बहुत पुराना नहीं है. 17वीं सदी में जागीर व्यवस्था वंशानुगत स्वामित्व की प्रणाली के रूप में विकसित होने लगी थी, जो 18वीं सदी में अस्तित्व में आई. मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली की दुनिया शतरंज में सिमट चुकी है. इन दोनों को अपनी-अपनी बेगम की भी चिन्ता नहीं है. इनका जीवन शतरंज में सिमट चुका है. शतरंज एक अन्तःकक्ष (इन डोर) खेल है. यहाँ सब कुछ नकली है बादशाह, वजीर, सिपाही, घोड़ा, प्यादा-सब. सब गोटियाँ हैं. जिनके जीवन में गोटियाँ ही सबकुछ है, वे भी गोटी के मानिन्द हैं- निर्जीव और जड़. इसकी मुख्य वजह इनकी जागीर के साथ लखनऊ का विलासी माहौल है. कहानी विलासिता और विलास प्रियता के विरूद्ध है.
‘कामायनी’ की रचना इस कहानी के दस-बारह वर्ष बाद हुई, जिसके प्रथम सर्ग ‘चिन्ता’ में देव-सृष्टि का ध्वंस है. यह ध्वंस विलासिता के कारण हुआ था. प्रेमचन्द के पहले क्या हिन्दी के किसी लेखक ने (भारतीय लेखक ने भी!) विलासिता के विरोध में ऐसा कुछ लिखा है? प्रेमचन्द के यहाँ व्यक्ति नहीं, समाज महत्वपूर्ण है. उन्होंने वाज़िद अली शाह के समय का एक चित्र प्रस्तुत किया है, जो अचानक नहीं बना है. इसमें मुख्य भूमिका वाज़िद अली शाह की है.
वाज़िद अली शाह का शासन-काल नौ वर्ष का था. उसके अधीन 24 हजार वर्ग मील का अवध राज्य था. बादशाह बनने के पहले भी उसके संबंध में तत्कालीन ब्रिटिश रेजीडेंट ने गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग से शिकायत की थी.
‘‘वर्तमान राज्य का भविष्य वास्तव में विषाद-युक्त लगता है… वली अहद के चरित्र से अच्छाई की कोई आशा नहीं है… उसकी मनःस्थिति चंचल और ढुलमुल है. उसके दिन और रात स्त्रियों के आवासों में गुजरते हैं और प्रतीत होता है कि उसने दुर्व्यसनों, दुराचरण और दुष्कृत्यों के सामने समर्पण कर लिया है.’’
(रोजी लिवेलन जोंस, भारत में आखिरी बादशाह वाज़िद अली शाह, संवाद प्रकाशन, 2018, पृष्ठ 63 पर उद्धृत)
लखनऊ को उसके बहार और यौवन में ‘पूरब का पेरिस’ और ‘भारत को बेबीलोन’; कहा जाता था. नवाब वाज़िद अली शाह के बारे में जानने के लिए, उन पर और उस दौर के अवध और लखनऊ के बारे में विस्तार से परिचित होने के लिए; उन पर और अवध पर लिखी गयी पुस्तकों से अधिक महत्वपूर्ण पुस्तक रोजी लिवेलन जोंस की है (अनुवाद : सुधीर निगम). उन्होंने अपनी इस पुस्तक में वाज़िद अली शाह की फिजूलखर्ची के साथ उनके जीवन से जुड़ी सभी घटनाओं का उल्लेख किया है. वे लिखती हैं-
‘‘अगर वे एक शताब्दी बाद पैदा हुए होते तो निस्संदेह उन्होंने फिल्म जगत में अपना कैरियर बनाया होता और लखनऊ में उनके द्वारा निर्देशित नाट्य-प्रस्तुतियाँ भव्य स्तर पर हुई होतीं.”
(पृष्ठ-19)
अंग्रेज उसे ‘भ्रष्ट शासक’ मानते थे,
‘‘जो अपना राज्य चलाने के स्थान पर सारंगी वादकों, हिजड़ों और हसीन लड़कियों के साथ समय गुजारता था.’’
(पृष्ठ -11)
ग्रामीण क्षेत्रों के उसके दौरे और प्रशासन में उसके द्वारा किये गये सुधारों का कोई विवरण उपलब्ध नहीं है.
‘‘उसकी तृष्णा जनाना की विषयासक्ति से ही तृप्त होती थी.’’
(पृष्ठ 140) ‘‘
“अपने जीवन के अंत काल तक उसने 375 के लगभग स्त्रियों से विवाह किए थे, वर्ष के प्रत्येक दिन के लिए एक से अधिक’’
(पृष्ठ 118)
‘इश्कनामा’ उसकी आत्मकथा है. ‘अख्तर’ उपनाम से उसने पचास पुस्तकें लिखीं. वाज़िद अली शाह की दुनिया अवध के पहले नवाबों से एकदम भिन्न थी. ‘दरिया-ए-तअश्शुक’ का नाट्य-रूपान्तर उसने ‘रास’ के रूप में प्रस्तुत किया था. इसके एक कालिक प्रदर्शन पर उस समय 1 लाख 20 हजार रुपये खर्च हुए थे और इसे तैयार करने में एक वर्ष लगा था. वह ठुमरी का जनक था और कत्थक नृत्य का उसने विकास किया था. वाज़िद अली शाह का राजनीतिक अधःपतन हो चुका था. वह शासक के रूप में अयोग्य था और उसे अपनी जनता की कोई चिन्ता नहीं थी.
प्रेमचन्द ने कहानी के आरंभ में लखनऊ की विलासिता और बाद में राज्य की दशा का वर्णन किया है. संघर्ष की बात दूर रही, उसने ब्रिटिश सेना के सामने प्रतिरोध तक नहीं किया. वाज़िद अली शाह के साथ उसकी दूसरी बेगम हजरत महल (1820-7.4.1879) को देखने पर दोनों विपरीत ध्रुवों की तरह दिखाई देते हैं. वाज़िद अली शाह ने कैद से छूटने के बाद कैनिंग (गवर्नर जनरल) को लिखे पत्र में बेगम हजरत महल को ‘एक द्रोही शत्रु’, ‘एक दुष्कर्मी’, ‘एक मूढ़ औरत’ और बहुत कुछ कहा था.
(पृष्ठ 256)
हजरत महल ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. प्रेमचन्द ऐसे बादशाह के बारे में पूरी कहानी में एक शब्द तक नहीं कहते. कहानी विलासिता, विलासी जीवन और उपभोग के विरोध में है. वे दो जागीरदारों- मीर और मिर्ज़ा के जरिये उस समय का एक चित्र उपस्थित करते हैं. शतरंज के खेल के संबंध में मिर्ज़ा के घर वाले ही नहीं, मुहल्ले वाले और घर के नौकर-चाकर भी ‘नित्य द्वेष पूर्ण टिप्पणियाँ’ करते थे. प्रेमचन्द ने इस कहानी में शतरंज खेल के समर्थकों और विरोधियों का उल्लेख किया है. इस खेल के समर्थकों-प्रशंसकों के अपने तर्क हैं-
‘‘शतरंज, ताश, गंजीफा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है. ये दलीलें जोरों के साथ पेश की जाती थी (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है)”.
यह कथन ‘नैरेटर’ (कथावाचक) का है. कोष्ठक में आजकल के लोगों का भी जिक्र है. स्पष्ट है, प्रेमचन्द के सामने उनका अपना समय और वर्तमान है, जिसे वे कभी नहीं भूलते. एक ओर शतरंज के खेल के प्रशंसक है और दूसरे ओर उसके निन्दक और आलोचक भी.
“बड़ा मनहूस खेल है, घर को तबाह कर देता है. खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन-दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का. बुरा रोग है”.
इस कथन की पुष्टि कहानी में बाद में होती है, जब मीर और मिर्ज़ा एक दूसरे का कत्ल करते हैं. दोनों को अपने-अपने घरों की, बेगम की भी चिन्ता नहीं है. मिर्ज़ा के नौकर भी इसे लेकर आपस में ‘कानाफूसी’ करते हैं.
‘‘वे बेगम साहबा से जा जाकर कहते- हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गयी. दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये. यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम कर दी. घड़ी-आध घड़ी दिल बहलाव के लिए खेल खेलना बहुत है. खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लायेंगे; मगर यह खेल मनहूस है. इसका खेलनेवाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई-न-कोई आफत जरूर आती है. यहाँ तक कि एक के पीछे मुहल्ले-के-मुहल्ले तबाह होते देखे गये हैं.”
केवल नौकर-चाकर और मुहल्ले वाले ही नहीं, मिर्ज़ा और मीर का बेगमें भी इस खेल को पसन्द नहीं करतीं. मिर्ज़ा की बेगम अपने शौहर से कहती हैं –
‘‘तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है? चाहे कोई मर ही जाये, पर उठने का नाम नहीं लेते… इतनी लौ खुदा से लगाते, तो वली हो जाते!’’
मीर की बेगम साहबा भी इस खेल को पसन्द नहीं करतीं. नौकरों से कहती हैं –
‘‘वह किसी की सुनते ही नहीं, क्या किया जाये.”
जागीरदारों का हर समय शतरंज खेलना उन लोगों को अच्छा नहीं लगता, जो जीवन से और कर्म से जुड़े हुए हैं. इस खेल के संबंध में पुराने जमाने के लोग ‘आपस में भांति-भांति की अमंगल कल्पनाएं’ करते हैं.
प्रेमचन्द इस खेल के खिलाफ हैं. कहानी के शीर्षक में ‘खिलाड़ी’ बाद में है, आरंभ में ‘शतरंज’ है. अगर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के स्थान पर आज ‘क्रिकेट के खिलाड़ी’ जैसी कोई कहानी लिखी जाये, तो वह क्या इस कहानी से एकदम भिन्न होगी! क्या क्रिकेट के खिलाड़ियों में ‘राजनीतिक भावों का अधःपतन’ नहीं है. इक्कीसवीं सदी के इस तीसरे दशक में भी देश में भीतर से हिला देने वाली, बेचैन कर देने वाली अनेक घटनायें हुई हैं. क्या उनमें से किसी एक घटना-विशेष पर भी किसी खिलाड़ी ने भी कोई प्रतिक्रिया दी है? इसके पहले भी क्या किसी क्रिकेट खिलाड़ी ने देश के हालात पर क्या कभी मुँह खोला है?
सरकार ने जिस खिलाड़ी को ‘भारत रत्न’ दिया है, लोगों की एक जमात जिस अभिनेता को ‘सदी का महानायक’ कहती है, देश के राजनीतिक घटना-चक्र पर इनकी क्या कुछ प्रतिक्रियाएँ भी हैं?
बिशन सिंह बेदी अकेले क्रिकेटर थे, जिन्होंने ‘खिलाड़ियों’ को ‘व्यवसायियों, राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों की कठपुतली’ कहा था. मैंने 2007 और 2013 के अपने दो स्तंभ-लेख ‘क्रिकेट, सिनेमा और राजनीति’ के अन्तःसंबंध पर लिखे थे, जिनमें इन तीनों की अर्थासक्ति और आपसी संबंध पर विचार किया था. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ ऐतिहासिक पात्र की उपस्थिति के बावजूद ऐतिहासिक कहानी नहीं है. यह कहानी कमोबेश आज के समय की भी कहानी है. क्या आज देश में अशान्ति नहीं है, ‘हाहाकार’ न सही? प्रजा भले ‘दिन-दहाड़े लूटी’ नहीं जा रही हो, पर उसके साथ कब क्या हो जाएगा, कब बुलडोजर चल जाएगा, कब सम्मन आ जाएगा, उसे पता नहीं है. क्या आज सचमुच हमारी ‘फरियाद’ सुनने वाला कोई है? थाना, कोर्ट-कचहरी, न्यायालय, कहीं भी फरियाद सचमुच सुनी जा रही है? देश में सुव्यवस्था है या अव्यवस्था? क्या मीर और मिर्ज़ा का वंश बढ़ा नहीं है?
क्या कई सांसदों-विधायकों, नेताओं-राजनेताओं, धणाढ्यों-धनपतियों और अन्य लोगों की अपनी विलासी दुनिया नहीं है? क्या देश में एक और मौज-मस्ती और दूसरी ओर समस्याएँ-परेशानियाँ नहीं हैं? शतरंज के खिलाड़ी की प्रासंगिकता प्रेमचन्द के समय से आज कहीं अधिक है.
प्रेमचन्द इस कहानी में ‘विलासिता’ और ‘राजनीतिक भावों के अधःपतन’ के खिलाफ हैं. कहानी के आरंभ में वे विस्तार से विलासिता और विलासी जीवन का उल्लेख करते हैं-
‘‘राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे.’’
प्रेमचन्द मस्ती और भोग, विलास के साथ नहीं हैं. कहानी में एक ओर बादशाह है, विलासिता है और दूसरी ओर ‘राज्य’ की दशा है, जिससे एक वर्ग-भेद भी दिखता है. यहाँ कहानी का सौन्दर्य अकथित (अनटोल्ड) है. प्रिचेट ने इस कहानी पर लिखे अपने महत्वपूर्ण लेख के आरंभ में प्रेमचन्द के अंतिम दिनों में उनके द्वारा कहे गये कहानी-संबंधी विचारों को उद्धृत किया है. प्रेमचन्द ने कहा है कि वे किसी घटना का वर्णन करने के लिए कहानी नहीं लिखते. वे कहानी में कुछ दार्शनिक (वैचारिक) और भाव प्रवण सत्य चित्रित करना चाहते हैं, जिसके लिए पहले एक आधार निर्मित करते हैं और उसके बाद चरित्र के निर्मिति. जब तक उनके दिमाग में कहानी आरंभ से अंत तक अपने विकसित रूप में आकार ग्रहण नहीं कर लेती, वे कहानी नहीं लिखते. प्रेमचन्द ने कहानी में चरमोत्कर्ष (क्लाइमैक्स) की बात कही है. कहानी-संबंधी उनके विचारों के आधार पर उनकी कहानियाँ खरी उतरती हैं. यह कहानी कुछ और अधिक. बड़ी बात कहानी का समुचित सर्वांगीण पाठ है, जिसके बिना कहानी का न तो अर्थान्वेषण संभव है और न कहानी के मर्म की पकड़.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में ‘विलासिता’ की संस्कृति से जुड़ी काहिली का भी विरोध है. कहानी में विलासिता के परिणाम सुस्पष्ट हैं- वाज़िद अली शाह की गिरफ़्तारी. इस ‘विलासिता’ के कारण परिवार, समाज, राष्ट्र सब गौण हैं. कहानी के आरंभ का वर्णन विलासिता से उत्पन्न मानसिक दशा से भी जुड़ा है. कहानी बादशाह, जो ऐश मौज में डूबा हुआ है के खिलाफ है. यह कहानी केवल वाज़िद अली शाह के समय की होकर भी आज के समय की भी है. क्योंकि आज विलासिता बढ़ रही है. प्रेमचन्द विलासिता से मानस-निर्माण को भी जोड़ते हैं. इधर एक शादी में की गयी शाहखर्ची और उस अवसर पर समाज के ‘गणमान्यों’ की उपस्थिति का क्या अर्थ और संदेश है!
कहानी के बहुआयामी पाठ से ही यह ज्ञात होगा कि ‘सभी की आँखों में विलासिता का मद’ क्यों छाया हुआ है? अपने में सिमटा हुआ तबका समाज के लिए विघ्नकारी है.
‘‘संसार में क्या हो रहा है इसकी किसी को खबर न थी.’’
तीन
प्रेमचन्द को समूचे संसार की खबर रहती थी. वे 1924 में और उसके पहले ‘ज़माना’ सहित जिन पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे थे, उन्हें देखने से ही यह पता चलेगा कि उनकी चिंताएँ क्या थीं? विश्व की सभी प्रमुख घटनाओं से वे न केवल अवगत थे, बल्कि उस पर अपनी प्रतिक्रियाएँ भी प्रकट करते थे. प्रेमचन्द ने कहानी के आरंभ में जिन कई क्षेत्रों, विभागों- ‘शासन, साहित्य, कला-कौशल, उद्योग-धंधे, सामाजिक अवस्था, आहार-व्यवहार की बात कही है, वे सब जीवन में अधिक अर्थ रखते हैं. जहाँ फकीर भीख के पैसों से ‘रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते हों’, वह समाज और समय कहीं अधिक घातक और संहारक भी है. इन सबके पीछे वाज़िद अली शाह है, जिसने ऐसा माहौल ही नहीं सबका इसके अनुकूल स्वभाव भी बना डाला है.
वाज़िद अली शाह के संबंध में कहानीकार ने पूरी कहानी में एक शब्द भी नहीं कहा है. एक शब्द भी न कहना उसकी उपेक्षा भी है. कहानी में ‘समय’ विशेष महत्वपूर्ण है. प्रेमचन्द ने इस समय के जरिये जैसे एक नये और भावी समय की रचना का भी संकेत किया है, जिसमें न तो ‘विलासिता’ हो और न ‘राजनैतिक भावों का अध:पतन’. प्रश्न ऐसे समय से जुड़ने और न जुड़ने का भी है. जो लेखक एक खास समय में बेचैन है वही ऐसी कहानी की रचना कर सकता है. ‘विलासिता, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी का बीज-शब्द (की वर्ड) है, जिस पर टिके बिना हम कहानी के अंत: संसार में प्रवेश नहीं कर सकते और जिसे समझे बिना कहानी का मर्मोद्घाटन भी नहीं हो सकता.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में ‘नैरेटर’ आरंभ से अंत तक मौजूद है. कहानी केवल पात्रों और घटनाओं के जरिये ही आगे नहीं बढ़ती. उसके विकास में, कथा-विस्तार में कथावाचक की मौजूदगी अनिवार्य है. नैरेटर लेखक से स्वतंत्र भी होता है, पर अधिकांश में वह लेखक के रूप में ही उपस्थित होता है. इस कहानी में नैरेटर की भूमिका प्रमुख है. लखनऊ और ‘राज्य’ के संबंध में नैरेटर ही कहता है, जिसमें हम प्रेमचन्द की आवाज़ सुनते हैं. कहानी में कथा-वाचक की बड़ी भूमिका है. वह एक ‘फिक्शनल’ चरित्र है, लेखक द्वारा निर्मित जो कहानी को उसके ‘पर्सपेक्टिव’ से कहता है. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी में नैरेटर के रूप में स्वयं प्रेमचन्द उपस्थित हैं. मीर और मिर्ज़ा की जीवनशैलियों के लिए प्रेमचन्द ने नैरेटर की टिप्पणी में नाटकीय एवं संवादशैली का उपयोग किया है. नैरेटर यहाँ लेखक का ‘माउथ पीस’ (प्रवक्ता, प्रतिनिधि) है.
संभवतः इस कहानी की भाषा और कुछ शब्द-प्रयोगों को लेकर प्रिचेट ने ही लिखा है. उनकी बारीक निगाह कहानी में प्रयुक्त ‘लिप्त’ और ‘भाँति; शब्द पर जाती है, जिसे उन्होंने ‘मशरूफ’ और ‘तरह’ की तुलना में कम ‘सामान्य’ कहा है. उनके अनुसार नैरेटर ने संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है और पात्रों ने उर्दू-फ़ारसी लफ़्ज़ों का.
कहानी में शतरंज खेलने की तीन जगहें हैं- जिनमें दो मिर्ज़ा और मीर का घर है, और अंत में ‘गोमती पार की एक पुरानी वीरान मसज़िद’ है. स्थानों का बदलना महत्वपूर्ण है. पहला स्थान मिर्ज़ा साहब का घर है, जहाँ सुबह से ही
‘‘दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछाकर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते. फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम!’’
‘दोनों मित्र’ का प्रयोग कहानी में कई बार है, जो अंत में एक दूसरे के शत्रु बन जाते हैं. कारण वही शतरंज का खेल. मीर और मिर्ज़ा खाना और खेलना साथ-साथ करते हैं. मिर्ज़ा सज्जाद अली के दीवानखाने में शतरंज की बाज़ियाँ होती हैं. उनकी बेगम इस खेल के कारण उन्हें लताड़ती हैं, जिसका उनपर कोई असर नहीं होता. असर के न होने से पति-पत्नी के बीच के संबंध का पता चलता है, जो शतरंज से संबंध की तुलना में शून्य है. प्रेमचन्द ने इन दो खिलाड़ियों के माध्यम इनके दाम्पत्य-संबंध की ओर भी संकेत किया है. शतरंज की गोटियाँ नकली हैं. बादशाह हो या प्यादा, सभी गोटियाँ हैं. विडम्बना यह है कि इन दो खिलाड़ियों ने नकली को असली समझ लिया है. वे जो जीवन जी रहे हैं, उसका अंत ऐसा ही होना था. एक प्रच्छन्न अर्थ यह भी है कि ऐसे लोगों के जीवन का कोई अर्थ नहीं है, जो न परिवार के लिए उपयोगी है, न समाज के लिए. मिर्ज़ा की पत्नी पति पर कम, नौकरों पर अधिक गुस्सा करती है क्योंकि वह आर्थिक तौर पर पति के अधीन है और आर्थिक तौर पर नौकर उनके अधीन है. मिर्ज़ा जागीरदार है– आर्थिक रूप से सम्पन्न, पर उसकी पत्नी और नौकर उस पर निर्भर है.
कहानी में अवध की अधीनता ज्ञात है और स्त्री की अधीनता सांकेतिक है. बेगम के सो जाने पर मिर्ज़ा घर के अंदर आते हैं. कहानी में मिर्ज़ा और उनकी बेगम के बीच संवाद है, पर मीर और उनकी बेगम के बीच संवाद हीनता है. मिर्ज़ा अपनी बेगम के सामने सारा दोष मीर रोशन अली पर मढ़ते हैं –
‘‘बड़ा लती आदमी है. जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना पड़ता है.’’
मिर्ज़ा की पत्नी दीवानखाने में जाकर बाजी उलट देती है और मुहरे तख़्त के नीचे फेंक देती है, जिससे उसका क्रोध प्रकट होता है. मीर रोशन अली की बेगम के साथ ऐसा कुछ नहीं है.
‘‘मीर साहब की बेगम किसी अज्ञात कारण से मीर साहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं. इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थी बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती तो याद दिला देती थीं.”
मीर साहब अपनी बेगम को नहीं समझ पाते. वे इस भ्रम में रहते हैं कि
‘‘मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गंभीर है.’’
मिर्ज़ा के घर के बाद शतरंज खेलने की दूसरी जगह मीर का घर है. दोनों की बेगमों को घर पर शतरंज खेलने से एतराज़ है, पर इसकी वजहें भिन्न हैं. मीर के यहाँ
‘‘जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो बेगम साहब को बड़ा कष्ट होने लगा. उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी. दिन-भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जातीं.’’
मीर के घर ‘घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर’ के पहुँचने की सूचना और नौकर को कहे गये उसके इस कथन से
‘‘हुजूर में तलबी है. शायद फौज के लिए सिपाही माँगे गये हैं. जागीरदार हैं कि दिल्लगी!’’
यह ज्ञात होता है कि उन्हें सशर्त जागीर प्राप्त है. जो सवार आया है, वह नकली है. मीर साहब की बेगम ने उस सवार से कहा-
‘‘तुमने खूब धता बताया.’’
सवार का जवाब भी सुना जाना चाहिए –
‘‘ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ. इनकी सारी अक्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली. अब भूलकर भी घर पर न रहेंगे.’’
आज भी समकालीन अनेक कहानीकारों को प्रेमचन्द से बहुत कुछ सीखने-समझने की जरूरत है कि बिना विस्तार अथवा अति कथन से कलात्मक ढंग से सब कुछ किस तरह कहा जाता है.
अभी हिन्दी में जो माहौल है, उसमें कोई भी मीर और मिर्ज़ा की पत्नी को केन्द्र में रखकर उनके दाम्पत्य-संबंधों पर विचार कर सकता है. मिर्ज़ा की बेगम और मीर की बेगम का अंतर स्पष्ट है. मिर्ज़ा की बेगम अपने पति से कहती है- ‘‘अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खडे़ निकलवा दूंगी…. आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ! जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है.’’
मिर्ज़ा की बेगम मिर्ज़ा से बराबरी के स्तर पर बात करती हैं. वह मुखर हैं और मीर की बेगम मौन. मिर्ज़ा की बेगम का किसी पर-पुरुष से संबंध नहीं है. कहानी में सर्वाधिक संवाद दो खिलाड़ियों- मिर्ज़ा और मीर के बीच है, फिर मिर्ज़ा और बेगम के बीच और थोड़ा ही सही, सवार और नौकर के बीच. यह संवाद एक प्रकार का स्थिर संवाद है, समान्य और मतलब का है. दो व्यक्तियों के बीच के संवाद में जो कुछ संबंध-आत्मीय भाव आदि होता है, वह यहाँ नहीं है. स्त्री के प्रति मीर रोशन अली की धारणा मिर्ज़ा को उनकी बेगम के बारे में कहे गये उसके इस कथन से स्पष्ट है –
‘‘बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं. मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है. यह मुनासिब नहीं. उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं. घर का इन्तज़ाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?’’
क्या मीर को इससे कोई मतलब नहीं है कि उनकी बेगम घर के भीतर क्या करती हैं. घर के भीतर और घर के बाहर जो हो रहा है, वह कहानी में एक साथ अनुल्लिखित और लिखित है. मीर डरपोक है. बादशाही फौज के अफ़सर (नकली) के आ धमकने के बाद उसके होश उड़ जाते हैं-
‘‘यह क्या बला सिर पर आयी! यह तलबी किसलिए हुई है. अब खैरियत नहीं नज़र आती. घर के दरवाजे बन्द कर लिये. नौकरों से बोले – कह दो, घर में नहीं हैं.’’
मीर जागीरदार हैं और शतरंज के खेल ने उन्हें इस मुकाम तक पहुँचा दिया है.
कहानी में शतरंज खेलने की तीसरी जगह का एक विशेष अर्थ है. ‘गोमती पार की एक पुरानी वीरान मसज़िद’ नैरेटर के अनुसार ‘शायद नवाब आसफ़उद्दौला’ का बनवाया हुआ था. आसफ़उद्दौला (1748-1797) अवध का चौथा नवाब था जिसका शासन-काल 26 जनवरी 1775 से 21 सितम्बर 1797 तक कुल बाईस वर्षों का था. सौ वर्ष से भी कम की मसज़िद खंडहर हो चुकी है. क्या इससे हम यह संकेत नहीं निकाल सकते कि प्रेमचन्द के यहाँ धार्मिक स्थलों का अधिक महत्व नहीं है- मंदिर हों या मस्जिद. जहाँ पहले कभी नमाज़ पढ़ी जाती रही होगी, वह अब खंडहर है, जहाँ मीर और मिर्ज़ा शतरंज खेलने पहुँचते हैं. क्या मीर और मिर्ज़ा खंडहरों की तरह नहीं है? कहानी के अंत में ये दोनों जीवित नहीं रहते. प्रेमचन्द ने कहानी के इस तीसरे अध्याय में, जब दोनों मित्र शतरंज खेलने पुरानी मसजिद में जाते हैं, देश की राजनीतिक दशा का वर्णन किया है –
‘‘इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी. कम्पनी की फौज़ें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं. शहर में हलचल मची हुई थी. लोग बाल-बच्चों को लेकर देहातों में भाग रहे थे. पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इनकी जरा भी फिक्र नहीं थी. वे घर से आते तो गलियों में होकर”
कहानी में कई बार ‘राजनीतिक दशा’ और ‘राजनीतिक भावों का अधःपतन’ का उल्लेख है. प्रेमचन्द का समय स्वाधीनता-आन्दोलन का समय था. 1924 में देश की राजनीतिक दशा बहुत अच्छी नहीं थी. वह सौ वर्ष बाद 2024 में भी बहुत अच्छी नहीं है. मीर और मिर्ज़ा को कोई चिंता नहीं है. क्या हमारे समय में भी देश के राजनीतिक हालात की चिंता सबको है? क्या दिल्ली सहित राज्य की राजधानियों में मॉल, होटल, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, रेस्त्राँ, गीत-नृत्य कम है.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कुछ ही अर्थों में सही हमारे समय की भी कहानी हो जाती है. यह कहानी ‘विलासिता’ और ‘राजनीतिक अधःपतन’ के विरूद्ध लिखी गयी है.
मसजिद के खंडहर में बैठ कर मिर्ज़ा और मीर शतरंज खेलते हैं. उनके सामने से सैनिक गुजर रहे हैं –
“वह गोरों की फौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थीं.”
इस अंग्रेज फौज की चिन्ता दोनों खिलाड़ियों में से किसी को नहीं है. मीर मिर्ज़ा को फौज के बारे में बताता है कि तोपखाना है, पाँच हजार जवान हैं, पर मिर्ज़ा उन्हें ‘किश्त’ पर ‘किश्त’ दिये जा रहे हैं. शहर पर आयी आफत को लेकर मिर्ज़ा चिंतित नहीं हैं. मिर्ज़ा जब जीत रहा होता है, मीर उसका ध्यान फौज की ओर बँटाता है और जब वह हार रहा होता है, मीर को कहता है-
‘‘नवाब साहिब को जालिमों ने कैद कर लिया है.”
अवध राज्य का अधिग्रहण बिना किसी रक्तपात के 7 फरवरी 1856 को हुआ था. वाज़िद अली शाह ने आत्मसमर्पण किया था. उस समय, 1856 में जेम्स आउटरम (ऑटरम, 22.1.1803-11.3.1865) ब्रिटिश रेजिडेंट था. फौज वाज़िद अली शाह को पकड़ कर लौटती है और इस बार हार रही बाजी के कारण मिर्ज़ा मीर से बादशाह के बारे में चिंता प्रकट करते हैं वाज़िद अली शाह का इन दोनों के लिए कोई अर्थ नहीं है. शतरंज के बादशाह को बचाने के लिए दोनों द्वारा ध्यान बँटाने की इस कोशिश को उनके आपसी संवाद के जरिये अच्छी तरह समझाया गया है.
कहानी के अंतिम अध्याय में शाम के समय खंडहरों में चमगादड़ों के चीखने और अबाबीलों के अपने घोंसलों में सिमटने का भी इन दो खिलाड़ियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.
‘‘दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों.’’
शतरंज के खेल में इन दोनों खिलाड़ियों का आपसी संवाद केवल खेल के संबंध में है. ध्यान बँटाने के लिए ये दोनों फौज के आने और जाने की बात करते हैं. मीर और मिर्ज़ा जीवन से कटे हुए पात्र हैं. बिना काम के आदमी के ऐसे हश्र को दिखाने का एक अर्थ-संदेश भी है. इन दोनों के लिए शतरंज का वज़ीर सब कुछ है, लखनऊ का बादशाह नहीं.
‘‘अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूंद आँसू न निकला, उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिये.’’
कहानी के अंत में मिर्ज़ा और मीर के संवाद में एक दूसरे को अपने से छोटा सिद्ध करने का प्रयास है. शब्द-प्रयोग और भाषा भी उसी तरह है. दोनों अपने को पुराना ‘रईस’ सिद्ध करने की होड़ में है. मिर्ज़ा ने मीर से कहा- ‘जागीर मिल जाने से कोई रईस नहीं हो जाता… रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं है.’’ मीर के लिए बड़ी बात यह है ‘‘यहाँ तो हमेशा बादशाह के दस्तरख़्वान पर खाना खाते चले आये हैं.’’
अपने को दूसरे से बड़ा करने के लिए उस बादशाह की बात की जाती है, जिससे इन्हें अब कोई मतलब नहीं. कहानी के अंत में दोनों दोस्त एक दूसरे के शत्रु बन जाते हैं और तलवार से एक दूसरे को मार डालते हैं. कारण? कारण अपने को दूसरे से बड़ा सिद्ध करना है और वह भी अपने-अपने खानदान का हवाला देकर. कहानी का अंत इन पंक्तियों से होता है –
‘‘चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था. खंडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूलि-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखती और सिर धुनती थीं.’’
भाषा, शिल्प, कथ्य, कंसर्न, संकेत, संदेश- सभी दृष्टियों से ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी एक क्लैसिक कहानी है. कहानी में आलसी, पाखंडी नौकर है. मिर्ज़ा की आत्मकेन्द्रित ओर मीर की व्यभिचारी पत्नी है, मीर की पत्नी का प्रेमी है, मीर और मिर्ज़ा जैसे पात्र है और है विलासिता में डूबा हुआ लखनऊ. कहानी के आरंभ में सब प्रकार के लोगों की विलासिता है और अंत में खंडहर. कहानी के आरंभ और अंत दोनों एक दूसरे से संबद्ध है.
पूरी कहानी ‘विलासिता’ और ‘राजनीतिक भावों के अधःपतन’ के विरूद्ध है. प्रेमचन्द की यहाँ एक राजनीतिक दृष्टि है. उनके युग-बोध और इतिहास-बोध के साथ ही जीवन-बोध भी यहाँ मौजूद है. नैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि भी यहाँ है. इस कहानी के जरिये हम केवल इतिहास से, एक काल-विशेष से ही परिचित नहीं होते, वर्तमान से भी अवगत होते हैं और भविष्य के प्रति चिंतित भी क्योंकि देश में मिर्ज़ा और मीर की संतानों की संख्या आज कहीं अधिक है.
पहली बार प्रेमचन्द की कहानी में कोई शहर इस प्रकार उपस्थित है. वे लखनऊ पर नहीं, उसकी भोगवादी संस्कृति पर लिख रहे थे. ‘समय’ केन्द्र में है. पहली पंक्ति ‘वाज़िद अली शाह का समय था’ सामान्य पंक्ति नहीं है. समय का निर्माता कभी-कभार ही सही शासक भी होता है. वाज़िद अली शाह ने भोग विलास की संस्कृति विकसित की. उसके पहले अवध के दस नवाब थे, पर किसी भी नवाब का जीवन उसकी तरह नहीं था.
वाज़िद अली शाह की जीवनशैली और उनके पूर्वजों की जीवनशैली में कोई साम्य नहीं था. क्या आज के भारत को ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी के जरिये देखने की एक कोशिश नहीं की जानी चाहिए? ‘कश्मीर ऑब्जर्वर’ में एक अतिथि लेखक इनायतुल्लाह दीन ने 1 अक्टूबर 2021 को एक लेख लिखा था. ‘अंडरस्टैंडिंग इंडिया थ्रो शतरंज के खिलाड़ी’. क्या इस कहानी से हमें भारत की गुलामी को समझने में कोई मदद नहीं मिलती है? प्रेमचन्द इस कहानी के द्वारा राजनीतिक भावों के उन्नयन का जैसे एक संकेत भी दे रहे हैं. ‘राजनीतिक भावों का अधःपतन’ और ‘विलासिता’ भी गुलामी का एक बड़ा कारण है.
‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी का राजनीतिक और भोगवादी पक्ष के अतिरिक्त एक नैतिक-सांस्कृतिक पक्ष भी है. यह कहानी आज 1924 की तुलना में 100 वर्ष बाद कहीं अधिक प्रासंगिक है. विचारणीय यह है कि हमारे राजनीतिक भावों का अधःपतन हुआ है या नहीं? आज उपभोक्तावाद चरम पर है और विलासिता में डूबे लोग भी कम नहीं हैं.
1924 में लिखी जाने के बाद भी यह कहानी हमारे समय की है- 2024 की. केवल पात्र, स्थान और समय बदल दें.
____________
17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन. ‘फ़ासीवाद की दस्तक’, ‘बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी’ ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें आदि अभी तक ९ पुस्तकें प्रकाशित. |
वाज़िद अली शाह की जीवनशैली और उनके पूर्वजों की जीवनशैली में कोई साम्य नहीं था. क्या आज के भारत को ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी के जरिये देखने की एक कोशिश नहीं की जानी चाहिए? ‘कश्मीर ऑब्जर्वर’ में एक अतिथि लेखक इनायतुल्लाह दीन ने 1 अक्टूबर 2021 को एक लेख लिखा था. ‘अंडरस्टैंडिंग इंडिया थ्रो शतरंज के खिलाड़ी’. क्या इस कहानी से हमें भारत की गुलामी को समझने में कोई मदद नहीं मिलती है? प्रेमचन्द इस कहानी के द्वारा राजनीतिक भावों के उन्नयन का जैसे एक संकेत भी दे रहे हैं. ‘राजनीतिक भावों का अधःपतन’ और ‘विलासिता’ भी गुलामी का एक बड़ा कारण है।
ये सारगर्भित पंक्तियाँ बेहद महत्त्वपूर्ण है,
आलोचक के ज्ञान-विस्तार में कथालोचना खो गई-सी लगती है।
प्रेमचंद की प्रासंगिकता दिन ब दिन बढ़ती जा रही। प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों का पुनर्पाठ और समकालीन विश्लेषण एक जरुरी काम है। तब जब वर्तमान को इतिहास में घुसकर बदला जा रहा हो, इतिहास से वर्तमान को परखना बहुत जरूरी हो जाता है। उम्दा लेख।
यह समीक्षा बहुत ही मार्मिक और सटीक है । शतरंज के खिलाड़ी अभी भी प्रासंगिक है। जो रचना अपने कालखंड,स्थान,और पात्र से बहुत अधिक प्रसारित हो जाता है , वह रचना अमर हो जाती । आपको मेरा शत शत नमन ।
प्रेमचन्द की चर्चित कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के मार्फ़त
इतिहास के त्रिस्तरीय धरातल का उद्घाटन करती बेहतरीन टिप्पणी।यह हमें बताती है कि किसी रचना को उसके कितने आयामों में पढ़ा जाना चाहिए।