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समालोचन

Home » शीला रोहेकर और यहूदी गाथा: नवीन जोशी

शीला रोहेकर और यहूदी गाथा: नवीन जोशी

हिंदी साहित्य में यहूदी लेखकों की संख्या गिनी चुनी रही है, वर्तमान में शीला रोहेकर एकमात्र हिंदी की यहूदी लेखिका हैं. दिनांत’ और ‘ताबीज़’ के अलावा ‘मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ शीर्षक से उनका एक उपन्यास भी प्रकाशित है. शीला रोहेकर से लेखक-पत्रकार नवीन जोशी ने बात की है और उनके इस उपन्यास पर नवीन जोशी का आलेख भी यहाँ दिया जा रहा है.

by arun dev
August 15, 2021
in आलेख, बातचीत
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शीला रोहेकर और यहूदी गाथा: नवीन जोशी
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शीला रोहेकर से नवीन जोशी का संवाद

शीला रोहेकर वर्तमान में हिंदी की एकमात्र यहूदी लेखिका हैं. उनका उपन्यास ‘मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ भारत के यहूदियों की मार्मिक कथा है. यहूदी भारत में बहुत ही कम संख्या में है, इस समय मुश्किल से पांच-छह हजार. भारतीय समाज-संस्कृति में पूरी तरह घुल मिल जाने के बावजूद उनकी पहचान एवं उपेक्षा के बहुस्तरीय संकट हैं. अधिकतर जनता तो यह भी नहीं जानती कि यहूदी कौन होते हैं.

अक्टूबर 1942 में जन्मी शीला रोहेकर (कोंकण, महाराष्ट्र के रोहा नामक जगह में बसे होने से रोहेकर कहलाए) ने 1960 के दशक से लिखना शुरू किया. पहले गुजराती में कहानी-कविताएं और फिर हिंदी में. ‘मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ (2013) से पहले उनके दो उपन्यास, ‘दिनांत’ और ‘ताबीज़’ प्रकाशित हैं. एक कथा संकलन गुजराती में ‘लाइफ लाइन नी बहार’ और एक हिंदी में ‘चौथी दीवार’ भी प्रकाशित हुए. ‘ताबीज़’ उपन्यास बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के बाद के भारतीय समाज में बढ़ती साम्प्रदायिकता से मुठभेड़ करता है. भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों का निरंतर हाशिए पर धकेला जाना उनकी रचनाओं का एक केंद्रीय तत्व रहा है.

शीला जी को उपन्यास ‘दिनांत’ के लिए यशपाल पुरस्कार और ‘यहूदी गाथा’ के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान का प्रेमचंद पुरस्कार, एवं हिंद्स्तान टाइम्स का ‘पेन ऑफ द इयर’ सम्मान प्राप्त है. उनकी कुछ कहानियां देसी-विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं. ‘यहूदी गाथा’ उपन्यास शीघ्र ही अंग्रेजी में प्रकाशित हो रहा है. वे अपने पति रवींद्र वर्मा (हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार और छोटी कहानियां लिखने के लिए चर्चित) के साथ लखनऊ में रहती हैं. प्रस्तुत है उनसे संक्षिप्त बातचीत-

शीला जी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताइए.

मेरे पिता आइजेक जेकब रोहेकर गुजरात में प्रशासनिक सेवा में थे. उन्हें अपनी यहूदी जड़ों से बहुत प्यार था. मां, एलिजाबेथ गृहिणी थीं. हम दो बहनें और दो भाई हैं. मैं सबसे बड़ी हूं. छोटी बहन बाद में इसराइल जाकर बस गई. एक भाई भी वहां गया लेकिन एडजस्ट नहीं कर पाया तो लौट आया.

साहित्य की ओर रुझान कैसे हुआ?

स्कूली दिनों से ही मैं बहुत पढ़ाकू थी. लाइब्रेरी बंद होने तक बैठी पढ़ती रहती थी. गुजराती, हिंदी अंग्रेजी की साहित्यिक पुस्तकें, पत्रिकाएं, सब. कुछ-कुछ विद्रोही-सा स्वभाव भी था. चीजों को अलग नजरिए से देखने वाला. इसी से पहले गुजराती में लिखना शुरू किया. बी.एससी. करने के समय से हिंदी में भी लिखने लगी. पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी तो हौसला बढ़ता गया.

रवींद्र जी से कैसे मुलाकात हुई?

‘धर्मयुग’ में मेरी कहानी छपी थी- ‘चौथी दीवार’. उस पर बहुत से पत्र आए थे. रवींद्र जी ने भी प्रशंसा में पत्र लिखा. तब वे मुम्बई में थे. पत्र-व्यवहार शुरू हुआ. काम के सिलसिले में अहमदाबाद आए तो मिलने आए. बस, ऐसे ही, फिर हमने विवाह कर लिया, दिसम्बर 1969 में.

‘यहूदी गाथा’ लिखने के पीछे क्या विचार था? इसमें आपकी अपनी कहानी कितनी है?

असल में भारत में इतने कम यहूदी हैं कि लोग जानते ही नहीं कि वे कौन हैं, क्या हैं. उन्हें कभी मुसलमान समझ लिया जाता है, कभी ईसाई. उनके लिए किराए का मकान ढूंढना भी मुश्किल होता है. हमारे ‘सेनेगॉग’ (पूजा स्थल) को भी रहस्य की तरह देखते हैं. यहूदियों में अपने मूल स्थान से  स्वाभाविक ही बड़ा लगाव होता है लेकिन वे लम्बे समय से यहां रहते-रहते भारतीय समाज-संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए हैं. भारतीय हैं मगर बहुत उपेक्षित. यह सब हमने बचपन से देखा-भोगा. अपने अनुभव तो रचनाओं में आते ही हैं.

यहूदी भारत में कैसे पहुंचे?

करीब दो हजार साल पहले यहूदियों का एक जहाज कोंकण तट पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था. उसमें चंद ही यहूदी बच पाए जो महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा में बस गए. दूसरे विश्व युद्ध के समय, हिटलर के आतंक से भाग कर भी कुछ यहूदी यहां आए. कुछ लोग बाद में वतन लौटे भी लेकिन बाकी यहीं के होकर रहे.

यहूदी होने के नाते कभी आपको उपेक्षा या डर जैसा अनुभव हुआ?

हाँ, कैसा लगता है और कब, इसे वही महसूस कर सकते हैं जो इस स्थिति में होते हैं. समझा पाना मुश्किल है.

हिंदी साहित्य में और कोई यहूदी लेखक हुआ?

जी, मीरा महादेवन ने मुझसे पहले भारतीय यहूदियों पर हिंदी में एक उपन्यास लिखा था- ‘अपना घर’, जो 1961 में अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था. मीरा का मूल नाम मरियम जेकब मेंड्रेकर था. शादी के बाद उन्होंने नाम बदला. उनका कम उम्र में देहांत हो गया था. उसके बाद मैंने ही लिखा. अंग्रेजी में एस्थर डेविड खूब लिखते हैं. एक और हैं कोलकाता में, नाम अभी याद नहीं आ रहा.

आप कभी इसराइल गईं?

हां, तीन-चार वर्ष पहले. वहां की साहित्य अकादमी के निमंत्रण पर भारत से लेखकों का एक प्रतिनिधि मण्डल गया था. ‘यहूदी गाथा’ के कारण मुझे भी उसमें शामिल किया गया.

कैसी अनुभूति हुई थी वहां, अपने मूल वतन आने जैसा कुछ?

नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं लगा. वहां इतने धार्मिक टकराव हैं, दमन हैं और लड़ाइयां हैं कि उनकी ओर अधिक ध्यान गया. वंचित समुदायों की तरफ मेरा ध्यान ज़्यादा जाता है.

इन दिनों आप क्या लिख रही हैं?

अभी एक उपन्यास पूरा किया है, ‘पल्ली पार’ नाम से. सेतु प्रकाशन को दिया है. भारतीय समाज के गरीब, पिछड़ी और दलित जातियां, अल्पसंख्यक, वगैरह, जो पल्ली पार यानी हाशिए पर धकेले जाते समाज हैं, राजनीति और रिश्तों का क्षरण, इसके विषय हैं.

_______________

यहूदी गाथा और हिंदुस्तानियत की चुनौतियां

नवीन जोशी

हिंदी साहित्य की आलोचना-दरिद्रता या ‘सेलेक्टिव-चर्चा’ और विचारधारा के नाम पर खेमेबाजी का परिणाम है कि कई अच्छी रचनाएं अलक्षित या अल्प-चर्चित रह जाती हैं,  या कर दी जाती हैं. यह अलग बात है कि सशक्त रचना देर सबेर अपनी जगह बना ही लेती है. अपने समय में ही उसकी खूबियों की चर्चा न हो, विश्लेषण और कमियों की चीर-फाड़ न हो तो समकालीन लेखन और लेखकों के लिए वह नई और आगे ले जाने वाली रचनात्मक लहरें कैसे पैदा करे? उसके रचनाकार को और बेहतर लेखन के लिए उत्प्रेरित कैसे करे?

मेरे पठन-पाठन की एक सीमा है तो भी सन 2013 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित शीला रोहेकर का उपन्यास ‘मिस सैम्युएल : एक यहूदी गाथा’ 2021 में पढ़ते हुए ये सवाल बार-बार मन में उठते रहे. यह सिर्फ एक यहूदी गाथा नहीं है, जैसा कि इसके नाम से आभास होता है. प्रमुखत: अत्यंत अल्पसंख्यक एवं उपेक्षित भारतीय यहूदियों की मार्मिक गाथा होने के बावजूद यह उपन्यास हमारे समकाल की चुनौतियों से रचनात्मक मुठभेड़ करता है. वह एक साथ कई धरातलों पर कई कथा-व्यथाओं को साथ लिए चलता है और अत्यंत संवेदनशीलता, गहन पीड़ा और आवेशित अंतरंगता के साथ लिखा गया है. उसमें विभिन्न धार्मिक समाजों और भिन्न-भिन्न आर्थिक पृष्ठभूमि वाली स्त्रियों के गहन जीवनानुभव हैं, उनके पारिवारिक ही नहीं, भीषण आंतरिक संघर्ष भी हैं और समाज में बढ़ते साम्प्रदायिक अलगाव एवं नफरत की उघड़ती हुई परतें हैं.

शीला रोहेकर सम्भवत: हिंदी की अकेली लेखिका हैं जो यहूदी हैं. भारत में निरंतर हाशिए पर धकेले जाते और सीमित संख्या में बचे यहूदियों की दिल को मथने देने वाली गाथा के साथ-साथ इस उपन्यास में गुजरात के दंगे हैं, वली दकनी की मज़ार का मिटाया जाना है तथा उससे उपजी पीड़ा और क्षोभ है, ‘गुजराती बेन छे’ कहकर अमीना का बचना है जबकि उसके सामने उसका पूरा परिवार मार दिया गया. पगलाई साम्प्रदायिक भीड़ ने उस बॉबी को भी मार दिया जो ‘मैं यहूदी हूं’ कहता रहा लेकिन किसने सुना! उसकी पैंट उतारी गई थी (यहूदी मुसलमानों की तरह लड़कों का खतना करते हैं, हालांकि उनका धर्म ग्रंथ बाइबिल है) जबकि उसका मुस्लिम साथी ‘हिंदू छू, पटेल’ कहकर बच निकला. लेकिन कितने दिन? एक दिन वह भी रेल पटरी पर मरा पाया गया. बॉबी की मां अपनी मृत्यु के दिन तक कलपती रही कि ‘लेकिन मेरा बॉबी तो इस्राइल था न!’

एक सैम्युएल डेविड है, अंडर सेक्रेट्री, बेटी की सहेलियों को ‘गुदगुदी करने वाला’, अपने बाप डीविड रूबेन से बहुत भिन्न नहीं, जो बेटी समान विधवा ‘लक्ष्मी’ से रातों को दरवाजा खुलवाता था, यहूदी गौरव-बोध  से भरा लेकिन इस देश में अत्यंत उपेक्षित अल्पसंख्यक होने की निरुपायता से लाचार. उनकी दो ही तमन्नाएं हैं कि वंश को आगे बढ़ाने वाला एक बेटा पैदा हो परिवार में, और लौट सकें उस पवित्र धरती पर जिसे उनके पुरखों ने दो हजार साल पहले छोड़ा था. वह अपनी बेटियों के गैर यहूदी से प्रेम करने का सख्त विरोधी है, अपने पिता डेविड रूबेन की तरह जिसने अपनी बेटी लिली को दूध में जहर पिला दिया था क्योंकि कि वह किसी गैर यहूदी से गर्भवती हो गई थी. सैम्युएल डेविड ने अपनी बेटी रेचल के गर्भवती हो जाने पर उसे किसी वहशी यहूदी से ब्याह दिया जो प्रसव में मर गई, एक मंदबुद्धि राफू को जन्म देकर. इस राफू को मां की तरह पालती रेचल की बड़ी बहन, सीमा उर्फ मिस सेम्युएल, नायिका है उपन्यास की जो 63 साल की उम्र में वृद्धाश्रम में पड़े-पड़े चार पीढ़ियों में फैली इस यहूदी गाथा को पल-पल जीती है, परदादा के समय से अपने वर्तमान तक झूले की पेंगों की तरह डोलती हुई. कहानी सीमा की यादों में किसी मोंताज़ की तरह चलती है, अतीत और वर्तमान के बीच बराबर अवाजाही करती हुई, कभी एक प्रलाप की तरह और कभी दिमाग में गूंजते संवादों के रूप में.

वृद्धाश्रम की रहवासियों के बहाने इसमें स्त्रियों के जीवन, दमन, उपेक्षा और परिवार-समर की बहुरेखीय कथाएं हैं, उनके प्रेम की और सपनों के कत्ल होने की, रिश्तों के मायाजाल और उसके विध्वंस की, स्त्री के विश्वासों के उजालों और धोखों के अंधेरों की.

‘‘स्त्रियां अपनी भरी-पूरी गृहस्थी, कुशलता, बुद्धिमत्ता और समर्पण भूल जाने का ढोंग करती, स्वजनों द्वारा छोड़े जाने के अपमान को मन ही मन जायज ठहराती रमा आज्जी, सुधा आक्का, या आशालता घोरपड़े हो जाती हैं. कुछ मिसेज चिटनीस या मैडम मैरी बनी रहती हैं जो न बीते दिनों को भूल पाती हैं न अपने बिखरे मान-सम्मान को,  और जो टूट जाती हैं वे विमला शिंदे बन जाती हैं.’’

ये कहानियां दहलाती हैं और बताती हैं कि यहूदी हो या इसाई, पारसी या मुसलमान, इस पुरुष-शासित समाज में स्त्री तरह-तरह से छली जाती है, प्रताड़ित होती रहती है.

वृद्धाश्रम में रमा आज्जी साथी रहवासियों से कहती है- ‘

‘मनुष्य योनि छोड़ दो, संसार की कौन-सी मादा याद रखती है ताउम्र अपने जायों को और झूरती है? फिर अपनों ने याद रखा या भुला दिया, इसे लेकर ऐसा बावेला क्यों? संताप किसलिए?’’ लेकिन वहां सब जानती हैं कि उनके कमरे में ‘‘छूटे हुओं की जतन से सम्भाली गई तस्वीरें हैं… यह मेरा बड़ा बेटा है और उसका यह बेटा विकास…. विसू तो मेरे बिना खाना तक नहीं खाता और… निपट खालीपन….’’

यह रमा आज्जी एक रात इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर जाती हैं. उनकी कोठरी में जो अमीना आती है, वह कभी स्कूल में सीमा की चुलबुली और जीवन से लबालब दोस्त रही थी लेकिन अब डरावनी चुप्पी से इस कदर घिरी थी कि पहचानी नहीं गई. जब पहचानी गई तो अपना अकथ दुख साझा करती है –

“पता है सीमा, सो नहीं पाती हूं. अब्बा, इकबाल, दोनों जवान बेटे, बहू, बेटी गजल और पोती सना… किसी को नहीं बचा पाई. बस, अपने खुद को बचते हुए देखती रही…. तुम या मैं, क्या कभी लगे हैं यहूदी या मुसलमान?…. पॉलिटिकल साइंस की लेक्चरर मैं कहां बता पाई उनको कि इस देश में कोई भी संस्कृति साबुत नहीं बची है, कि कोई भी चेहरा व धर्म खालिस नहीं रह गया है. पांच हजार साल पुरानी हमारी धरोहर साझी है. हम मात्र प्रवाह के बुलबुले हैं, धारा नहीं… कहां बता पाई सीमा? पांच हजार साल पुरानी इस धारा को उन्होंने पचास मिनट में मटियामेट कर दिया. सना, गजल और आयशा के नग्न, उघड़े जिस्म व मर्दों के कटे टुकड़े ही पड़े थे वहां….. गुजराती साड़ी पहने हुए थी मैं.. और गुजराती जुबान बोलती यह अमीना ‘गुजराती बेन छे…एमने जवादो’ कहते उस भीड़ के सिरों से बाहर कर दी गई थी… बचे रह जाने के लिए…..’’

अमीना की यह पीड़ा उसकी अकेली नहीं है. यह नफरत की वह बारूद है जिसके धमाकों में समय-समय पर परिवार के परिवार उड़ा दिए गए. नफरत की यह राजनैतिक फसल इन दिनों और भी बोई-काटी जा रही है. शीला जी के उपन्यास में सन 2002 के गुजरात की काली छायाएं बार-बार उमड़-घुमड़ आती हैं. वह मार-काट अमीना की डरावनी चुप्पी और अनुत्तरित सवाल बनकर यहूदी गाथा में चीखती है-

‘‘अमीना की चुप्पी, उसका एकालाप, उसका अजीब असंतुलन मुझे आशंकित करता है. वह बाहर की खुली हवा में आने से डरती है. वह चाहती है कि सब कुछ भ्रम बना रहे किंतु ऐसा होता नहीं…. वली दकनी की कब्र का ढांचा ढाई सौ वर्ष तक भ्रम में रहता है. गंगा जमनी संस्कृति….. औलिया होने का फक्र…  और फिर भ्रम रात के घटाटोप अंधेरे में डामर की सड़क बन चलने लगता है. पतझड़ की पीली, मुरझाई पत्तियां पक्की सड़क पर खड़खड़ बजती उड़ती हैं….’’

इस यहूदी परिवार के भ्रम भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी तरह-तरह से टूटते रहे और सीमा की छाती में अमीना की चुप्पी की तरह गड़ते रहे. सैम्युएल डेविड को अमदाबाद में किसी सस्ती लेकिन स्थाई जगह की तलाश थी लेकिन किसी मुसलमान को किराए पर मकान देने से भी इनकार करने वाले लोग एक यहूदी को अपने बीच बसने देते? बड़ा-सा सवाल मुंह बाए खड़ा हो जाता- ‘‘जैन, ब्राह्मण, बनियों, पटेलों, इसाइयों, शाहों के बीच वे ठौर पाएंगे?’’

हालांकि यहूदी के माने भी लोगों को ठीक से पता नहीं होता. फिर एक दिन शहर में दंगा भड़क गया. परिवार का मंझला बेटा, इतिहास का अध्येता और नई दृष्टि वाला मेखाएल सैम्युएल उर्फ बॉबी अपने दोस्त जावेद कुरैशी के साथ घर लौट रहा होता है कि दंगाई घेर लेते हैं. ‘‘हिंदू छुं भाई.. विजय नाम छे मारू, विजय पटेल…”

कहकर जावेद बच निकलता है लेकिन बॉबी की पैण्ट उतरवा ली जाती है. बॉबी फिर कभी घर नहीं लौटता. टूटते भ्रम के साथ मां जीवन भर यही पूछते रह गई कि ‘मेरा बॉबी तो इस्राइल था न!’ आठवें दिन बच्चे की सुन्नत करने वाले लेकिन बाइबिल को धर्मग्रंथ मानने वाले यहूदी किस-किस से और कहां-कहां चीखते फिरें कि हम यहूदी है, इस्राइल हैं, बिल्कुल अलग पहचान है हमारी. और, यहां सुनने वाला कौन है?

सैम्युएल डेविड के दादा रुबेन ने एक दिन अपने बेटे डेविड रुबेन को समझाया था-

‘’..और डेविड, तुम सुनो, धर्म का मतलब कट्टरता बिल्कुल नहीं होता बेटे. बड़े होने पर इस बात का फर्क समझोगे या हो सकता है कि न समझते इसमें बह जाओगे…. मेरी यह बात याद रखना कि इन दोनों के बीच पड़ा पर्दा बहुत झीना है, इसलिए इस फर्क को देखने के लिए भीतरी सजगता और धैर्य की जरूरत रहती है.’’

यहां किसके पास बचा रहने दिया गया है धैर्य? भीतरी सजगता?

किंवदंती है कि करीब दो हाजार वर्ष पूर्व सुदूर इसराइल से चलकर कुछ यहूदियों का एक जहाज कोंकण के तट पर पहुंचकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था. जो बच रहे थे चंद स्त्री-पुरूष वे भारतीय यहूदियों के पुरखे बने. इस विशाल देश की आबादी में अपनी जगह बनाते और अपनी विशिष्ट पहचान बचाए रखने का जतन करते ये यहूदी अपना इतिहास, संघर्ष और भटकन कभी नहीं भूल पाते. वापसी का स्वप्न पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी आंखों में दिपदिपाता रहता है-

“बॉम्बे आर्मी के रिटायर सूबेदार ईसाजी एलोजी ने अपने कुछ ख्वाब पोते डेविड रूबेन की आंखों में आंज दिए थे- बेटे डेविड, इच्छा ही रही कि अपनी मातृभूमि में हमारी देह दफन हो.. कि उस सुदूर देश कभी लौट सकें… लेकिन तुम और तुम्हारी पीढ़ी जरूर लौटना ताकि दो हजार सालों के विस्थापन का दंश कुछ कम हो. हम इस्राइल हैं… बेने इस्राइल यानी कि जैकब जिसे ईश्वर ने ‘इस्राइल’ नाम से नवाजा था… उसकी संतानें पता नहीं कितने छिन्न रूपों के साथ… कितनी ही तकलीफों और अवहेलनाओं के साथ इस धरती के भिन्न-भिन्न कोनों में दफन हैं.”

सपना आंखों में ही अंजा रह जाता है. बाद की पीढ़ियों को यह सच भी स्वीकार करना पड़ता है कि अब वहां लौटना शायद कभी नहीं होने वाला है.

ईसाजी एलोजी के वंशजों के यहीं मर-खप जाने और अन्य समाजों में विलीन होकर खोते जाने की  मार्मिक कहानी कहता यह उपन्यास मौजूदा भारतीय समाज के बहुस्तरीय संकटों को भी उतनी ही संवदेनशीलता से मुख्य कथानक में समेटता-उकेरता चलता है. विभिन्न समाजों से आने वाले इसके महिला पात्र अपनी-अपनी कहानियों से गम्भीर स्त्री विमर्श रचते हैं.

यहूदी पहचान बचाए रखने और कभी अपने देश लौट जाने के लिए व्याकुल रहे ईसा जी की नई पीढ़ी का यह सोचना साझी धरोहर वाली हिंदुस्तानियत की जबर्दस्त पैरवी करना है-

“प्रकृति की पूरी छह ऋतुओं वाला, हरा-भरा, स्नेह का स्पर्श करवाता, विविध त्योहारों, उत्सवों, बोलियों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, साधु-संतों, बाबाओं, गुरुओं को सिमटाता, काली विद्या से अध्यात्म को छूता, अनेक संस्कृतियों के रस में दूबा यही देश उनकी मायभूमि (मातृभूमि) है. सदियों से साथ-साथ चलते इसी देश से उनकी पहचान जुड़ी है.”

लेकिन यह इतनी सरल रेखीय बात नहीं है. होता यह है कि सीमा यानी मिस सैम्युएल तो एक दिन पहुंच गई वृद्धाश्रम और गीतांजलि सोसायटी के उनके घर में शुक्रवार शाम को की जाने वाली शब्बाथ की प्रार्थना के लिए मुकर्रर दीपों की जगह संतोषी माता की तस्वीर रख दी गई. घर के दरवाजे पर ‘जय माता दी’  के लाल अक्षर उकेर दिए गए. तब कीर्तन के लिए आई महिलाओं ने खुशी जताई-

“हवे लागे छे के आ आपणा हिंदुओंनु घर छे. आ मिया भाई कोण जाणे क्यांथी आवी गया हतां (अब यह हिंदुओं का घर लग रहा है. पता नहीं ये मियां भाई कैसे आ गए थे)”

यह गोधरा, गुजरात के नरसंहार के कुछ ही पहले की कहानी थी. अब गुजरात का प्रयोग पूरे देश में दोहराने का अभियान चल रहा है. शीला रोहेकर ने इस यहूदी कथा में हमारे आज की गम्भीर चुनौतियों को बड़ी सम्वेदनशीलता के साथ गूंथा है.

‘यहूदी गाथा’ साफ चेतावनी है कि वास्तव में, जिसके खत्म हो जाने का खतरा है वह यहूदी पहचान नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियत है, इस देश की सदियों पुरानी पहचान, जिस पर आज सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है.

अच्छी खबर यह है कि इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद शीघ्र ही स्पीकिंग टाइगर पब्लिकेशंस से प्रकाशित होने वाला है. तब शायद इसकी व्यापक चर्चा हो. शीला रोहेकर 1968 से कहानियां लिख रही हैं. गुजराती में भी उनका एक कथा संकलन प्रकाशित है. यहूदी गाथा से पहले ‘दिनांत’ और ‘ताबीज़’ नाम उनके दो उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं.

नवीन जोशी
विभिन्न समाचार पत्रों में 38 वर्ष तक पत्रकारिता करने के बाद अब स्वतंत्र पत्रकारिता एवं लेखन.

दो उपन्यास- ‘दावानल’ और ‘टिकटशुदा रुक्का,’ दो कहानी संग्रह- ‘अपने मोर्चे पर’ एवं ‘राजधानी की शिकार कथा’ के अलावा ‘मीडिया और मुद्दे’ (लेख संग्रह) ‘लखनऊ का उत्तराखण्ड’ (समाज-अध्ययन) एवं ‘छोटे जीवन की बड़ी कहानी’ (सम्पादन) प्रकाशित. ‘ये चिराग जल रहे हैं’ (संस्मरण) और उपन्यास ‘धुंध में पहाड़’ प्रकाशनाधीन.

सम्पर्क-
3/48, पत्रकारपुरम, विनय खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ-226010
ईमेल- naveengjoshi@gmail.com

Tags: यहूदीयहूदी गाथाशीला रोहेकर
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Comments 10

  1. गीता गैरोला says:
    4 years ago

    पूरा पढ़ा।नवीन जी ने बहुत सारगर्भित और संक्षिप्त।इंटरव्यू लिया है।उपन्यास पढ़ने के लिए दिल बैचेन हो गया है।में साहित्य की कितनी वंचित पाठक हूं जिसने शीला रोहेकर का नाम आज पहली बार सुना है।यहूदियों के बारे में हम उससे।भी कम जानते है जितना मुस्लिम या इस्लाम के बारे में जानते है। हिंदुस्तानियत को बचाने के लिए उसकी व्यापकता को जानना कितना जरूरी है।

    Reply
  2. Kumar Ambuj says:
    4 years ago

    इस वार्तालाप और समीक्षा का प्रकाशन एक जरूरी कार्यभार था। अरुण, आपने पूरा किया। शीला जी के लेखन पर कम ध्यान गया है जबकि अपने कथ्य में वह नितांत भिन्न और महत्वपूर्ण रहा है।

    Reply
  3. MADAN PAL SINGH says:
    4 years ago

    खोजी पत्रकारिता सिर्फ़ धत्कर्मों से पर्दा उठाने तक ही अपने आपको सिमित नहीं करती बल्कि ऐसे कलाकार, लेखकों को भी पाठकों के सामने लाती है जिनकी कला और साहित्य से हम अपने आपको वंचित किये रखते हैं। धन्यवाद जोशी जी इस पाठ के लिए। शीला जी को पढ़ना बेशक नए अनुभव और सरोकार से गुजरना होगा।

    Reply
  4. Anonymous says:
    4 years ago

    कीमती और संजोकर रखने वाला साक्षात्कार और समीक्षा।

    Reply
  5. अमिताभ मिश्र says:
    4 years ago

    बहुत जरूरी किताब की बात और जरूरी साक्षात्कार

    Reply
  6. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    शीला रोहेकर श्री नवीन जोशी की संक्षिप्त बातचीत अच्छी लगी। मुझे वर्ष 1968 का स्मरण हो आया जब शीला जी से मेरा पत्राचार प्रारंभ हुआ। उस दौर के अन्य समकालीन लेखकों के मध्य सघन वार्तालाप पत्रों के माध्यम से होता था। उन दिनों के लिखे पत्र की एक पंक्ति मुझे आज भी स्मरण है जब उन्होंने अपने नाम का उल्लेख करते हुए लिखा था कि यहूदी नामकरण के तहत उनका नाम था शलेमी। शलेमी का अर्थ होता है शांति । उस समय भी वह लेखकों की आत्ममुग्ध छवि के विपरीत व्यवहार और लेखन में सहज रही।
    उन जैसी सरल पारदर्शी और सघन संवेदनाओं से युक्त लेखक अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। उनकी सृजनशीलता और व्यक्तित्व को मेरा सलाम।

    Reply
  7. नरेश गोस्वामी says:
    4 years ago

    नवीन जी ने बड़ा काम किया है। इतना अल्पसंख्यक हो जाना कि अस्तित्व ही बेमानी हो जाए― ऐसी त्रासदी गूँगा कर देती है। साथ ही यह सवाल भी मथे जा रहा है कि हिंदी की दुनिया ने इतनी महत्त्वपूर्ण रचनाकार की चर्चा इतनी देर से क्यों की? मेरे ख़याल से यह एक शुरुआत हो सकती है हिंदी की उन तमाम लेखिकाओं (लेखक भी) का स्मरण/मूल्यांकन करने की जिन्हें गिरोहबंदी के कारण भुला दिया गया है।

    Reply
  8. Sheela Rohekar says:
    4 years ago

    सभी आत्मीय मित्रों को धन्यवाद्। लेखक की मूल जमा-पूंजी केवल यही है।।

    Reply
  9. Anonymous says:
    4 years ago

    शीला रोहेकर जी की कहानी संग्रह ‘चौथी दीवार’ को को मैंने अपने पीएच.डी. शोध के आधार ग्रंथों में शामिल किया है। यह बातचीत सामाजिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण, बहुत से नए पक्ष भी उद्घाटित करती है सर को हार्दिक बधाई।।

    Reply
  10. सत्य प्रकाश says:
    4 years ago

    शीला रोहेकर जी की कहानी संग्रह चौथी दीवार को मैंने अपने पीएच.डी. के आधार ग्रंथों में शामिल किया है। यह बातचीत नए तथ्यों को उद्घाटित करती है सर को हार्दिक बधाई।।

    Reply

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