पल्लीपार राकेश बिहारी |
“मैं कहानियाँ बुनती हूँ
मेरी कहानियाँ जीवन को ही प्रतिबिम्बित करती हैं.
कहानियों की चाल सीधी-सरल नहीं होती. न वह अपनी बात क्रमबद्ध अथवा लयबद्ध ढंग से कर पाती हैं.
भटकती, छितराती, बेसुरी या वक्र होती वे अपनी मन-मरजी से आगे बढ़ती हैं, अक्सर ऐसा भी होता है कि खड़ी हो जाती हैं बीच में और आगे बढ़ने को नकार देती हैं, लेकिन कोई मुकम्मल राह तो ढूँढ़नी ही पड़ती है कहानी को आगे कहने के लिए.
कहानियों के किरदारों की भी अपनी अलग दुनिया है. कभी वे उत्साहपूर्वक भागने लगते हैं तो कभी हर व्यवधान या टेढ़े रास्ते पर रुक जाते हैं, कई बार पात्र अपनी ही कहानी बताते हुए थक जाते हैं…निराश हो जाते हैं और चुप हो जाते हैं.
पुकारने, पुचकारने या समझाने से भी वे लौटाते नहीं.
ऐसी कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं. तब दूसरे-दूसरे पात्र आकर उस रिक्त जगह को भरने की कोशिश करते हैं. किन्तु मैं जानती हूँ वह पैदा हुई खाली जगह कभी नहीं भरती. यह भी मुझे स्वीकारना चाहिए कि मेरे सृजन से उपजी ये कहानियाँ, किरदार मेरे वर्चस्व के दायरे के बाहर छलांग लगा देते हैं और अराजकता फैलाते मेरा विरोध करते हैं, मेरी लानत-मलामत करते हैं और छिटकते दूर चले जाते हैं!
ऐसी रूठी, रुकी, ठसरी या फसकी कहानियों मेरे साथ संवाद करती हैं; अपने होने या न होने की वजहें बताती हैं और मेरा निर्णय सुने बगैर अपने निर्णयों को मेरे पर चस्पाँ करती चली जाती हैं.”
उद्धृत अंश वरिष्ठ कथाकार शीला रोहेकर के चौथे उपन्यास ‘पल्लीपार’ की शुरुआत है. जब इस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया तभी इन पंक्तियों ने मुझे प्रभावित किया था, लेकिन तब उपन्यास में इसके होने का विशेष औचित्य नहीं समझ आया था.
साराह जैकब इस उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र है. उसके जीवन प्रसंग और उसके द्वारा उठाए गए प्रश्न उपन्यास पढ़ने के क्रम में मुझे कदम-दर-कदम परेशान और प्रभावित करते रहे. उपन्यास के अंत तक आते-आते साराह जैकब उर्फ सारा ने मुझे एक अनाम सी बेचैनी के सागर में धकेल दिया. अपने पाठकीय अनुभवों के आधार पर मेरी यह धारणा लगातार दृढ़ हुई है कि किसी बड़ी और मजबूत कृति को समझने के सूत्र अमूमन उसके भीतर ही छुपे होते हैं. इसलिए किसी कृति या रचना के विवेचन-विश्लेषण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त उपकरण कहीं बाहर से नहीं, बल्कि रचना के अंदर से ही निकल कर आते हैं. यही कारण है कि साराह जैकब उर्फ सारा की नियति और उससे उठे प्रश्नों, जिज्ञासाओं के जिस बवंडर ने मुझे बेचैन किया था, उससे निकलने या बाहर आने की छटपटाहट में मैं उपन्यास के कई अंशों से पुनः-पुनः गुजरता रहा. इसी क्रम में उपन्यास का ऊपर उद्धृत अंश अपनी विशेष अर्थवत्ता के साथ न सिर्फ मेरे भीतर दर्ज हुआ, बल्कि उपन्यास पढ़ते हुए मेरे भीतर नियोजित हो रही इस समीक्षा की संभावित शुरुआत को लगभग धकेल कर अचानक ही यहाँ आ बैठा है.
उद्धरण की दृष्टि से इस किंचित लंबे अंश के साथ समीक्षा शुरू करने के दो कारण हैं. एक तो यह कि 446 पृष्ठों में फैले इस उपन्यास की शैली और रचना विधान को समझने के कई महत्वपूर्ण सूत्र इसमें उपलब्ध हैं.
दूसरा कारण यह कि इस हिस्से को इस उपन्यास से इतर किसी भी कथाकृति की संरचना को जानने-समझने के लिए जरूरी उपकरण की तरह सहेज कर रखा जा सकता है. मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं कि पल्लीपार के इस अंश को किसी कथा कार्यशाला के हासिल की तरह भी देखा जा सकता है. इससे पहले कि इस उद्धरण में संकेतित उन सूत्रों का उल्लेख करूँ, जिनसे गुजरकर पल्लीपार को समझने के कुछ सूत्र हस्तगत होते हैं, मैं इस अंश में निहित उन दो हासिलों को भी सूत्रबद्ध कर लेना चाहता हूँ जो किसी भी कथाकृति की संरचना को समझने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं.
एक यह कि कहानियाँ (इसमें उपन्यास को भी शामिल समझें) यथार्थ का प्रतिबिंब होते हुए भी उसका पुन: प्रस्तुतीकरण नहीं होतीं, उसमें बुनावट यानी गढ़ंत का होना जरूरी है. दूसरी बात है- कथा-चरित्रों पर कहानीकार का नहीं कहानी का नियंत्रण होना चाहिए.
अब बात उन संकेतों की, जिनमें ‘पल्लीपार’ की संरचना को समझने के सूत्र निहित हैं. कुल पंद्रह अध्यायों में नियोजित इस उपन्यास का पहला वाक्य है-
‘मैं कहानियाँ बुनती हूँ.’
प्रथम पुरुष नैरेशन की तरह आए इस वाक्य से एक बार ऐसा लगता है कि खुद लेखिका ही उपन्यास की नैरेटर होगी. लेकिन जैसे-जैसे उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है, ‘मैं’ के पीछे छुपे नैरेटर का चेहरा लगभग हर अध्याय के साथ बदलने लगता है. ‘मैं’ के कायांतरण की इस शृंखला से गुजरते हुए जब आप उपन्यास के पहले पन्ने को याद करते हैं तो किरदारों के स्वभाव व उनकी चारित्रिक विशेषताओं को बताते हुए उनके थकने, चुप हो जाने या फिर एक किरदार की चुप्पी से उत्पन्न रिक्ति को दूसरे पात्र द्वारा पूरा करने और उसके बाद भी उस चरित्र की कथा के अधूरे रह जाने की नियति में साराह जैकब सहित उपन्यास के तमाम पात्रों के जीवन में फैली रिक्तियों और परस्पर एक दूसरे की कथा कहने के बावजूद उन सबकी जीवन-कथा के अधूरी रह जाने के निहितार्थ सम्पूर्ण विडंबना बोध के साथ खुलने-खिलने लगते हैं.
और तब जाकर पता चलता है कि शीला रोहेकर एक स्वाभाविक किस्सागो के साथ-साथ एक कुशल कथा शिल्पी भी हैं.
सन 1968-69 में प्रकाशित अपनी पहली कहानी से कथा यात्रा शुरू करनेवाली शीला रोहेकर के तीन उपन्यास ‘दिनांत’, ‘ताबीज़’ और ‘मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं. ‘पल्लीपार’ उनका चौथा उपन्यास है. इनके अतिरिक्त ‘चौथी दीवार’ शीर्षक उनका एक कहानी-संग्रह भी प्रकाशित है. इसके समानांतर वे गुजराती में भी लिखती रही हैं.
परिमाण में कम लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रचनाएँ देनेवाली शीला रोहेकर वर्तमान समय में हिन्दी की अकेली यहूदी लेखक हैं. यहूदी समाज की चिंताएँ उनकी रचनाओं में पहले भी आते रहे हैं. जीवन और संबंध के अधूरेपन तथा अकेलेपन की त्रासदी को रेखांकित करते इस उपन्यास में यहूदी पहचान और अति अल्पसंख्यक होने के नाते उनके भीतर पलनेवाले असुरक्षाबोध की अन्तः कथाएँ इस उपन्यास में आद्योपांत एक अन्तः सलिला की तरह विद्यमान हैं.
शीला रोहेकर ने न सिर्फ अपनी उस धार्मिक और अल्पसंख्यक पहचान और उपेक्षा भाव के अनुभवों को मनुष्यता और रचनात्मकता की साझा जमीन पर हमेशा से स्वीकार किया है बल्कि अपनी कथाकृतियों में उनकी पुनर्रचना भी की है. लेखक नवीन जोशी को दिये गए एक साक्षात्कार में वे कहती हैं :
“असल में भारत में इतने कम यहूदी हैं कि लोग जानते ही नहीं कि वे कौन हैं, क्या हैं. उन्हें कभी मुसलमान समझ लिया जाता है, कभी ईसाई. उनके लिए किराए का मकान ढूंढना भी मुश्किल होता है. हमारे ‘सेनेगॉग’ (पूजा स्थल) को भी रहस्य की तरह देखते हैं. यहूदियों में अपने मूल स्थान से स्वाभाविक ही बड़ा लगाव होता है लेकिन वे लम्बे समय से यहाँ रहते-रहते भारतीय समाज-संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए हैं. भारतीय हैं मगर बहुत उपेक्षित. यह सब हमने बचपन से देखा-भोगा. अपने अनुभव तो रचनाओं में आते ही हैं.”
विदित है कि यहूदी धर्म भारत में आनेवाला पहला विदेशी धर्म रहा है. कहा जाता है कि करीब दो हजार साल पहले यहूदियों का एक जहाज कोंकण तट पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था. उसमें चंद ही यहूदी बच पाए जो महाराष्ट्र, गुजरात गोवा में बस गए. दूसरे विश्व युद्ध के समय, हिटलर के आतंक से भाग कर भी कुछ यहूदी यहाँ आए. कुछ लोग बाद में वतन लौटे भी लेकिन बाकी यहीं के होकर रह गए.
उपलब्ध जानकारियों के अनुसार स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत में यहूदियों की संख्या लगभग 60000 थी जो अब घट कर 5000 के आसपास रह गई है. इसलिए भारत में उन्हें अति अल्पसंख्यक कहा जाना ही बेहतर होगा. बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की राजनीति चूंकि भारत में हिन्दी-मुस्लिम की बायनरी में ही देखी-समझी जाती रही है, अतः उनके प्रति लगातार एक उपेक्षा का भाव रहा है.
भारत में यहूदियों के प्रति उपेक्षा भाव का यह आलम है कि उनके समाज में खतना की प्रथा होने के कारण बहुत सारे लोग उन्हें मुस्लिम समझ बैठते हैं और भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से को यह भी नहीं मालूम है कि उनका धर्मग्रंथ बाइबल है पर वे ईसाई नहीं हैं.
शीला रोहेकर की रचनाओं में सामूहिक उपेक्षा से उपजी वह तकलीफ बार-बार उभर कर आती है. जिन लोगों ने इनका उपन्यास ‘मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ पढ़ा है, वे ‘पल्लीपार’ और उस उपन्यास के जुड़ाव को सहज ही समझ सकते हैं. लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि ‘पल्लीपार’ को समझने के लिए ‘मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ को पढ़ा जाना जरूरी है या ‘पल्लीपार’ उसका विस्तारित स्वरूप है.
दोनों उपन्यासों के अन्तः सूत्रों की आबद्धता को रेखांकित करने का मेरा उद्देश्य लेखिका की रचनात्मक चिंताओं के विस्तृत आकाश की तरफ इशारा करना भर ही है. वरना ‘पल्लीपार’ पूरी तरह एक स्वतंत्र कृति है, जिसे शीला रोहेकर की ऊर्ध्वगामी रचना यात्रा के नए सोपान की तरह दर्ज किया जाना चाहिए. शीला रोहेकर की रचनाओं में अमूमन दृष्टिगत होनीवाली यह चिंता, जो इस उपन्यास में भी बार-बार सामने आती है, के आधार पर ‘पल्लीपार’ को अति अल्पसंख्यक समुदाय के उपेक्षाबोध के प्रकटीकरण का उपन्यास भर कह दिया जाना इसके साथ नाइंसाफी होगी.
व्यक्ति का अकेलापन और संबंधों का अधूरापन इस उपन्यास के प्रतिपाद्य का बहुत जरूरी हिस्सा है, जिससे इसका शायद कोई भी पात्र अछूता नहीं. उपन्यास की केन्द्रीय पात्र सारा हो या उसके पिता जैकब नवगांवकर या माँ एस्थर, उसका भाई मोजस हो या बेन्यामिन जैकब, उसकी बचपन की दोस्त रेवती हो या जैब, उसका बॉस सह प्रेमी सलिल हो या सलिल का बेटा कबीर, या फिर सारा का दोस्त अशफाक… जीवन और संबंधों को भरपूर जीने के बावजूद एक बिंदु पर आकर ये सभी अकेले और अधूरे हैं. कथा चरित्रों की इस एक जैसी नियतियों, जिसका बहुत ही बारीक और विश्वसनीय चित्रण उपन्यास में उपलब्ध है, के आधार पर ‘पल्लीपार’ को अधूरी जिंदगी और अकेलेपन के संत्रास का उपन्यास कहने का मन करता है.
लेकिन ऐसा सोचते हुए वर्तमान समय और समाज की पहचान तथा वर्तमान की ऐतिहासिकता के विविध आयामों के परीक्षण का वह कलात्मक कौशल सामने आ खड़ा होता है, जो उपन्यास के हर्फ़-हर्फ़ में दर्ज है इस तरह किसी एकरैखिक और पारंपरिक वर्गीकरण या खतौनी में नहीं अट पाना इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है.
इसके साथ दो और बातें जोड़ी जानी चाहिए, एक कला और यथार्थ की परस्पर आबद्धता और दूसरी मंच और पार्श्व की रचनात्मक समझ. ये दो ऐसी विशेषताएँ हैं जो इधर के अधिकांश उपन्यासों में सिरे से गायब मिलते हैं. कला और यथार्थ को अमूमन परस्पर विरोधी मान लिया जाता है. यह उपन्यास हिन्दी आलोचना परिदृश्य में लगभग मिथ की तरह स्थापित हो चुकी इस मान्यता को झुठलाते हुए जिस सूक्ष्मता से कला और यथार्थ की पारस्परिकता को रेखांकित करता है, वह इसकी दूसरी बड़ी विशेषता है. जैसा कि मैंने ऊपर संकेत किया है, ‘पल्लीपार’ वर्तमान की खुरदरी जमीन पर खड़ी रचना है.
वर्तमान की बात करते हुए अनायास ही हमारे समय का तथाकथित राजनीतिक-सांस्कृतिक यथार्थ निर्वसन होकर हमारे सामने आ खड़ा होता है. बहुधा चर्चित और प्रशंसित समकालीन उपन्यासों में समकाल और समकालीन राजनीति की ऐसी ही मुखर, वाचाल और अभिधात्मक छवियाँ देखने को मिलती हैं. रचना में परिस्थितियों की अभिधात्मक उपस्थिति उसके संवेदना पक्ष को सामान्यता कमजोर करती है. ‘पल्लीपार’ ऐसी रचनात्मकताओं का एक सुखद प्रतिलोम है. अधिकांश समकालीन उपन्यासों में जो अमूमन लाउड होकर आता है, यहाँ वह बहुत सूक्ष्मता से उपस्थित है. लेकिन यह सूक्ष्मता अदृश्य नहीं है, बल्कि तानपूरे की अनिवार्य धुन की तरह रचना के सुर-ताल को संतुलित और संयमित रखता चलता है.
मतलब यह कि किसी रचना में किस पक्ष को मंच पर होना चाहिए और किस पक्ष को पार्श्व में, इसकी कलात्मक समझ इस उपन्यास की तीसरी बड़ी विशेषता है, जिसे अवश्य रेखांकित किया जाना चाहिए. अल्पसंख्यकों के प्रति दैनंदिन बढ़ती असहिष्णुता हो या मीडिया की जगजाहिर और निर्लज्ज पक्षधरताएँ, बिना किसी अतिरिक्त शोर-सराबे के ये सब जिस तरह उपन्यास के कथानक में हर कदम पर अनुस्यूत हैं, वह इसे एक महत्त्वपूर्ण कृति बनाता है.
इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि इस उपन्यास का हर अध्याय कहानी की एक नई परिभाषा या नई विशेषता के उल्लेख के साथ शुरू होता है, जो स्वयं में उस अध्याय की कुंजी सरीखा है. कहानी की परिभाषाओं के शिल्प में रचित उपन्यास के संदर्भित अध्याय की ये खिड़कियां अपनी संपूर्णता में उद्धृत और विश्लेषित किए जाने का सामर्थ्य रखती हैं. लेकिन एक समीक्षा की सीमा में यह संभव नहीं. प्रथम अध्याय का वह अंश तो वैसे भी इस आलेख के शुरू में उद्धृत किया जा चुका है. पर छठे अध्याय के शुरुआती हिस्से का वह टुकड़ा मुझे उद्धृत करना इसलिए जरूरी लग रहा है कि उससे इस उपन्यास के एक बहुत ही अनिवार्य पाठ का रास्ता खुलता है-
“कहानियाँ मानव के मन और उसमें भी स्त्री मनःस्थितियों की खास पहचान हैं. उन्हीं कहानियों के जरिये हम संसार रचते हैं. सारा जैकब ऐसा कहती थी.
“साहिल, यदि हमारे जीवन से कहानियाँ निकल गयीं तो हम बेजान कठपुतलियाँ बन रह जाएंगे और भूल जाएंगे कि हमारे हिस्से का कौन सा किरदार हमें निभाना है! क्योंकि यही कहानियाँ गढ़ती हैं मन, और ले जाती हैं विविध रंगों के भीतरी कोर तक हमें डुबोने के लिए.
और हमारी संवेदनाएं होती हैं सूत्रधार!”
यह उपन्यास, जो प्रकटतः एक यहूदी परिवार के बनने और बनते-बनते बिखर जाने की कहानी है, अपने समानांतर और साथ कई-कई कहानियाँ लिए चलता है. यहाँ हर चरित्र की अपनी कथा है तो हर चरित्र परस्पर एक दूसरे की कथा भी सुनाता है. स्त्री केंद्रित होते हुए भी उपन्यास में आए पुरुष चरित्रों की उपस्थिति कथानक के मूल्य संवर्धन के लिए अपरिहार्य है. लेकिन एक सीमा के बाद अपनी नियतियों में वे भी स्त्री चरित्रों की कहानियों के संप्रेषण का माध्यम ही बन जाते हैं. इस तरह मुख्यतः सारा की कहानी होते हुए भी कहानियों का यह गुच्छा कई अर्थों में स्त्री संवेदना की ही कहानी है. ये संवेदनाएं ही यहाँ कथ्य भी हैं और सूत्रधार भी. कहानियों की यह शृंखला अपने हर पड़ाव पर बाइबिल की किसी कहानी का संदर्भ प्राप्त कर एक नए कोण पर मुकम्मल होते हुए एक और कोण को रिक्त कर जाती है. कहानियों की संपूर्णता और अधूरेपन की इस आवाजाही में ही इस उपन्यास का मर्म छिपा हुआ है.
साराह जीवन पर्यंत एक साथी पुरुष की तलाश में भटकती रही. जीवन में आए हर नए पुरुष में उसने एक साथी की संभावना को देखकर उस पर भरोसा किया लेकिन लगभग हर बार छली गई या निराश हुई. भरोसे और निराशा की इस शृंखला से ऊबकर एक दिन वह खो जाती है. वह चाहती थी कि उसे स्त्री के रूप में एक बराबर दर्जे का नागरिक या मनुष्य समझा जाए. वह इव नहीं लिलिथ होना चाहती थी. लिलिथ, बाइबिल के प्रथम प्रकरण ‘उत्पत्ति–एक’ के अनुसार सृष्टि की वह पहली स्त्री जिसने आदम को सर्वस्व मानने की ईश्वरीय आज्ञा को चुनौती देते हुए कहा था
“मैं भी ‘वह’ हूँ. कमतर नहीं, चाहे किसी भी सोच निर्णय, अगुआई कार्य या यौनिक संबंध हों! मेरा स्वतंत्र व्यक्तित्व है.”
लिलिथ ने ईश्वर की आज्ञा की अवहेलना की थी इसलिए उसे उनके अभिशाप का शिकार होना पड़ा. साराह जैकब भी लिलिथ की तरह बराबरी का दावा पेश करती है और पितृसत्ता की हकीकतों को देख निराश हो उठती है. साराह की नियति उपन्यास में एक त्रासदी की तरह सामने आती है. पितृसत्ता तो स्त्रियों के साथ यही करती रही है. लेकिन यह त्रासदी तब एक बड़ी विडंबना में बदल जाती है जब इसी पितृसत्ता से अनुकूलित कोई स्त्री लिलिथ के जीवन दर्शन को नहीं समझ पाती तथा अनुकूलन और ईर्ष्यावश उसे ही अपना सबसे बड़ा शत्रु मान बैठती है. साराह को अपना दुश्मन मान बैठी उसके बचपन की दोस्त रेवती का खंडित मनोदशा का शिकार होकर साराह को फांसी पर चढ़ाने की कल्पना करना उसी विडंबना का मार्मिक आख्यान है.
साराह की माँ एस्थर की चिड़िया दोस्त श्यामा के उल्लेख के बिना यह आलेख अधूरा होगा. अपने एकाकीपन से जूझती एस्थर ने श्यामा को दोस्त बना लिया है, अपना हर सुख-दुख उसी से बांटती है. दुख की साझेदारी के किसी ऐसे ही सघन पल में श्यामा उससे कहती है-
“साराह खो नहीं गई.
एक दिन वह लौटेगी. मुझे यह तो नहीं पता कि तब तुम्हारा चैतन्य बचा रहेगा या नहीं किन्तु वह लौटेगी जरूर…जब ,वह अपने भीतर उमड़ते तूफान मचाते, उसे डूबते तैराते और भीतर के गहनतम में खींचकर ले जाती लहरों से मुकाबला करती, अपने सारे व्यर्थ और खोखले लगावों…संबंधों और जुड़ावों के दलदलों को पाटती किनारे पर लौटेगी…तब नया सूरज उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा और भोर का पंछी उसे उसकी बनायी हुई दुनिया में स्थापित करेगा, उसके पाँवों के निशान रेत पर बने रहेंगे.”
अधूरी ज़िंदगियों की दास्तान, साराह की त्रासदी और रेवती की विडंबना के बीच श्यामा चिड़िया की यह उम्मीद इस उपन्यास का बड़ा हासिल है, जिसे बचा रहना चाहिए. ‘पल्लीपार’ का फलक बहुत बड़ा है. बाल यौन शोषण और समलैंगिकता से लेकर मीडिया, सांप्रदायिकता और प्रेम की बहुस्तरीय कथा में सबकुछ को समेटने के प्रयास में लेखिका बहुत हद तक सफल हुई है. पर सब कुछ साधने में कुछ चीजों का फिसल या छूट जाना अस्वाभाविक नहीं है. क्या ही अच्छा होता सबकुछ समेट लेने के लेखकीय लोभ से यह उपन्यास बच गया होता! बावजूद इसके एकरैखिक लंबी कहानियों को ही उपन्यास की तरह दर्ज करते समय में सचमुच का उपन्यास पढ़ना एक सुखद और आश्वस्तकारी अनुभव है.
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राकेश बिहारी (अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार) कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय. |
उल्लेखनीय उपन्यास है। उनके पहले उपन्यास ‘मिस सैमुएल-एक यहूदी गाथा’ से आगे का।
धन्यवाद नवीन जी। आपकी समीक्षा भी बहुत महत्वपूर्ण है। ।
उपन्यास के महत्व व मर्म को उद्घाटित करता यह जरुरी आलेख है। शीला जी को बधाई और राकेश जी का शुक्रिया।
मैं भी ‘वह’ हूँ. कमतर नहीं, चाहे किसी भी सोच निर्णय, अगुआई कार्य या यौनिक संबंध हों! मेरा स्वतंत्र व्यक्तित्व है। महत्वपूर्ण लेख। शुक्रिया सर👍
शीला रोहेकर के इस उपन्यास को पढ़ने की मेरी गहरी उत्सुकता बनी रहेगी। उनका पहला उपन्यास दिनांत संभावना प्रकाशन से छपा था। लेखन के प्रारंभ से उनसे गहरी मित्रता रही है। इस उपन्यास के लिए उन्हें बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
बहुत धन्यवाद अरुण जी।राकेश बिहारी जी की समीक्षा पढ़ी। जब किसी भी रचनाकार की अनुभूति और संवेदना के साथ पाठक ऐसा एकाकार होता मिलमिला जाए कि उसकी ही लेखनी रचनाकार को अपनी रचना का विस्तार लगने लगे तब रचना की सार्थकता है। राकेश जी ने उपन्यास के मर्म को बहुत गंभीर,कलात्मक, गहराई और बारीकी से उकेरा है। समीक्षा के शीर्षक व शुरुआत से लेकर पृष्ठ दर पृष्ठ खोला है ,इसके लिए मैं उनका धन्यवाद करती हूं ।
पुनः आप दोनों को धन्यवाद ।