सपना भट्ट की कविताएँ
1.
सुख का स्वांग
हे देव !
दुःख ही दुःख गमकता है
पुराने बासमती भात सरीखा
मेरी देह की कोठरी में.
आत्मा के रोशनदानों से
टपटप अंधेरा ही गिरता है.
शनै शनै आयु का बसंत बीत रहा है.
उधर साँसों की दुर्बोध लिपि
जीवन के पीले कागज़ पर
मंद पड़ती जाती है.
इधर मन पर लगा
सूतक समाप्त होने पर ही नहीं आता.
स्मृति दोहराव की भाषा में लौटती हैं
प्रणय बीत कर मुरझाए हुए
फूलों में बदलता है.
सच है कि
आत्मा के कारावास से कोई मुक्ति नहीं.
उस पर यह खुलना कि
प्रीत का सम्मोहन कितना ही मृदु हो
एक दिन टूट जाता है.
प्रेमी का स्पर्श कितना ही काम्य हो
एक दिन देह उसके स्मरण से मुक्त हो जाती है.
उफ़!
कितनी घनी ऊब से भरे हुए हैं ये दिन
ऐसे में यात्रा की थकान नहीं
गंतव्य की निकटता निराश करती है.
भली प्रकार जानती हूं
कि सब छल छद्म अंततः नष्ट हो जाते हैं.
कोई जादू सर पर सदा नहीं रहता.
फिर भी चाहती हूं कि
प्रेम का यह दुःख जीवन पर्यंत बना रहे
भले ही मेरे जीवन में उसका होना
तृष्णाओं का राग भर रहे
भले ही उसका साथ होना
सुख का स्वांग भर रहे.
2.
अहर्निश दुःख
घाटी की इस नीरव सांझ में
बासी स्मृतियाँ यातनाओं की तरह दाख़िल होती हैं.
अहर्निश दुःख सहना बड़ी सज़ा है,
यह जानते हुए भी
मैं जूठा मन लेकर तुम्हें याद करती हूं.
मेरी आत्मा पर इन्हीं दुःखों को सहने के सौ दाग़ हैं
नदामत से मरती हूँ कि
एक भी तुम्हारे नाम की वर्तनी से नहीं मिलता.
मुझे आजकल रात भर नींद नहीं आती.
मेरी यह सजीली देह
तुम्हारी निषिद्ध देहरी पर सर रखे ऊँघती रहती है
और मुझे अचानक
तुम्हारा द्वार खुल जाने के मीठे स्वप्न आते हैं.
मेरे निकट आते लोगों को
मुझसे तुम्हारी गन्ध आती है
हैरत है कि तुम अपनी गन्ध नहीं पहचानते.
मैं अक़ीदे वाली औरत हूँ
हर चीज़ में तुम्हें देखती हूँ.
तुमसे छूटती जाती हूँ
तुम्हारे दुखों से नहीं छूट पाती
क्या तुम्हें लगता है कि एक पखवाड़ा
एक घाव भरने के लिए काफ़ी होता है?
कल तक सावन के निरन्तर आघात से टूटा मन
आज असोज के घाम से तिड़क रहा है
तुम्हें क्या ! जो मेरे मन के निरभ्र आकाश का
दर्पण काला पड़ रहा है.
ओ रे निर्मोही ! ओ बैरागी !
वसंत की आयु यूँ ही चार दिन की है.
कहाँ तो मैं जंगली पँचरंगी फूलों को अपनी
ओढ़नी में भर लेना चाहती थी
कहाँ उदास कविताएँ लिखने में ही मेरी उम्र जा रही है.
मैं ज्यों ज्यों सब्र पर ईमान लाती जा रही हूँ
प्रतीक्षाएँ और बूढ़ी, और बूढ़ी होती जा रही हैं.
3.
प्रेम कविताएँ
तेरी ज़िद के ठंडे अलाव पर
जल तो रही हूँ.
राख नहीं, कंदील बनूँगी.
तेरे उलाहने पहनूँगी जिस्म पर
नील की तरह.
रूह पर बोहतान नहीं उजाले बरतूँगी.
तेरी बैरन चुप को उस
पुराने पीपल से बाँध रखूँगी
जिस पर तुझे एक जनम से आँछरियों का खटका है.
तू आवाज़ नहीं देता न, न दे
मैं तेरा लहज़ा ओढ़ कर
खुद को पुकारूँगी तेरे ही नाम से.
तेरे स्वर में खुद से लाड़ करूँगी.
तुझसे नहीं खुद ही से कहूँगी
कि मुँह न मोड़, दुःख न दे, सता मत.
तुझसे नहीं,
खुद से तेरी शिकायतें करूँगी.
भागीरथी में बहा दूंगी
सब तिरस्कार और समझाइशें.
तेरे दिए दुःखों के अंगार पर पग धरूँगी
जलूँगी नहीं बुरांश सी दहकूँगी.
ईश्वर तो मेरी तरह बेबस नहीं
उससे थोड़ी सी अपनी सिफारिश करूँगी
डरूँगी नहीं.
अपने ही भीतर लौटूँगी बार बार
तुझे ढूंढ़ने को.
तुझे अंततः ख़ुद में पा लूंगी
सुन लाटे !
और तो कुछ भी मेरे वश में नहीं
मगर वादा रहा
मैं तुझ पर दुनिया की सबसे सुंदर
प्रेम कविताएँ लिखूँगी.
4.
तुम कहाँ हो !
भीतर कहीं एक कोमल आश्वस्ति उमगती है
कि सुख लौट आएंगे.
उसी क्षण व्यग्रता सर उठाती है
कि आख़िर कब ?
जो कहीं नहीं रमता वह मन है,
जो प्रेम के इस असाध्य रोग
से भी नहीं छूटती वह देह.
अतृप्त रह गयी इच्छाएं
आत्मा के सहन में अस्थियों की तरह
यहां वहां बिखरी पड़ी हैं,
जिनका अन्तर्दन्द्व तलवों में नहीं
हृदय में शूल की तरह चुभता है.
अपनी देह में तुम्हारा स्पर्श
सात तालों में छिपा कर रखती हूँ.
मेरी कंचुकी के आखिरी बन्द तक आते आते
तुम्हे संकोच घेर लेता है.
हमारा संताप इतना एक सा है
ज्यों कोई जुड़वां सहोदर.
जानते हो न
बहुत मीठी और नम चीजों को
अक्सर चीटियाँ लग जाती हैं,
मेरे मन को भी धीरे धीरे
खा रही हैं तुम्हारी चुप्पी अनवरत.
प्रेम करती हूं सो भी
इस मिथ्या लोक लाज से कांपती हूँ .
जबकि जानती हूं कि
लोग घृणा करते भी नहीं लजाते.
किसी को दे सको तो अभय देना
मुझ जैसे मूढ़मति के लिए
क्षमा से अधिक उदार कोई उपहार नहीं.
पहले ही कितनी असम्भव यंत्रणाओं से
घिरा है यह जीवन.
सौ तरह की रिक्तताओं में
अन्यत्र एक स्वर उभरता है.
देखती हूँ इधर स्वप्न में कुमार गन्धर्व गा रहे हैं
उड़ जाएगा हंस अकेला.
मैं एकाएक अपने कानों में
तुम्हारी पुकार पहनकर
हर ऋतु से नंगे पांव तुम्हारा पता पूछती हूँ.
कैसी बैरन घड़ी है
किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता.
तुम कहाँ हो ?
मुझे तुम्हारे पास आना है.
5.
लौटना
चलती थमती, साँसों की तरतीब में नहीं
आत्मा में निरन्तर बजते संगीत की
अनगढ़ लय में लौटना.
किस विधि पुकारूँ तुम्हें,
कि कोई पुकार अनुत्तरित न रहे !
लौटना मुमकिन न हो, तो भी
वादी में गूंजती अपने नाम की प्रतिध्वनि में लौटना.
इस काया में नहीं हूँ मैं
न ही इस बे ढब कविता में,
भाषा में नहीं संकेतों में ढूंढना मुझे
मैं एक चुप हूँ धीरे धीरे मरती हुई
मुझमें गुम आवाज़ की सनद में लौटना.
गझिन उदासियों से उठती हुई
उस रुआँसी कौंध में लौटना
जिसकी छाया देह पर नहीं मन की भीत पर पड़ती हो.
मेरे मन में खिलती चंपा की पंखुड़ियों में लौटना.
प्रेम से मुक्त होना, साँस का चुक जाना है
और प्रेम की कामना स्मृतियों की पीठ पर
बैठी हुई एक सिरफिरी किरमिची तितली है.
जो कहीं उड़ती ही नहीं.
तुम मोक्ष की कामनाओं में नहीं
जीवन की लालसाओं में लौटना .
अभी एक जनम लगेगा
तुम्हारी इच्छाओं से पार पाने में
तुम मेरी नहीं अपनी इच्छाओं में लौटना,
मेरे प्यार !
तुम एक दिन,
अपने मन के पंचांग से मेल खाती
मेरे मन की बारामासी ऋतुओं में लौटना .
6.
भ्रम
बाहर झरझर मेह बरस रहा है
जबकि इतना पानी मेरी मिट्टी में जज़्ब है;
तब मेरे भीतर का अनमना बैसाख
नेह को क्यों तरसता है !
यह ऋतु ऐसी बैरन है
कि काले मेघ को आँख भर
देख लेने से ही ज्वर उठ आता है.
श्वास भारी और प्राण क्षीण होने लगते हैं
ताप देह को यूँ गह लेता है
जैसे अंतिम बार गहता हो अभागा प्रेमी
विदा होती प्रेयसी की बांह.
तुम्हारी दी किताबें
मेरे सिरहाने रहती हैं इन दिनों
मैं बाहर भीतर के सब मौसमों से
भागकर यहीं चली आई हूँ.
कभी कभी सोचती हूँ
जीवन के बैसाख के चुकने तक भी
खत्म न कर सकूँगी इन्हें.
छि हो !
क्यों भेजीं इतनी किताबें ?
अब भेजना तो बस एक ही पंक्ति लिख भेजना.
कि सुन पगली !
“तेरी परवाह रही, तुझसे नेह रहा”.
कभी कभी बस इतनी सी बात भी
मन को दिलासा देती है.
भ्रम कभी कभी
जान बचाने का काम भी करते हैं.
7.
मिलना
यह कहना ही कितना बड़ा संत्रास है
कि तुम्हारी अनिच्छा के बावजूद
तुमसे मिलना चाहती हूं.
अनुनय की भाषा में कहा गया प्रेम,
प्रेम कहाँ रह पाता है.
‘मिलना’ यूँ भी
मेरे भाग्य से रूठा हुआ एक ज़िद्दी शब्द है
कितने योजन तक फैली है
अपने अक्ष से बंधी यह विशाल पृथ्वी !
फिर भी एक जैसे दो मनुष्यों का साथ
बैठ सकना कितना कठिन है इस पृथ्वी पर
मुझसे कभी मिलो तो
मेरी देह की ज्यामिति से परे
मेरी छटपटाती आत्मा के तिर्यक पर मिलना
इस दुनियादारी के फजीतों से छूट पाओ
तो मेरे, तुम्हारे मन के
इस अपरिमित खाली अंतराल पर मिलना.
सुनो प्यार !
अपनी ही परछाई से मत सकुचाना.
तुम्हारी छाया से मेरी देह में खिले
असंख्य सांवले फूलों की ओट में मिलना.
मुझसे इस जन्म में न मिल सको तो
मेरे बाद
मेरी कच्ची पक्की कविताओं की
गुमशुदा पांडुलिपियों में मिलना .
8.
मैं तुम तक आई
ये जानते हुए भी
कि हर बन्धन एक बाधा है
मैं तुम तक आई.
मैं तुम तक आई
मर्यादा की लंबी दूरी तय करके
छिलते कंधों, छूटती चप्पलों के साथ.
मुझसे नहीं छूटी, उम्मीद के छोर सी
कोई ट्रेन, कोई बस तुम्हारे शहर की कभी…
मैं तुम तक आई
नदियों पुलों चुंगियों और सस्ते ढाबों से गुज़र कर
मेरी चाय में तुम्हारे क़रीब पहुंचने की सुवास
इलायची की तरह शामिल रही.
मैं आई छुट्टियों में, कामकाजी दिनों में
त्योहारों से ऐन पहले या ज़रा बाद में
तुम्हारी राह देखी, तुम्हारे ही चौखट के बंदनवार
और रंगोली की तरह
तुम्हारे सुख की कामना की मिठास
बताशों की तरह घुलती रही मेरे मन में.
मैंने नहीं देखी
कोई व्यस्तता, कोई परेशानी
घटता बीपी, बढ़ता यूरिक एसिड .
मेरी दवाइयों की थैली में
तुम्हारे चेहरे की आभा लिए
हँसता रहा वसन्त
पीली लाल गोलियों की शक़्ल में.
सबका इस जहान में
किसी न किसी मंतव्य से आना तय है
मैं इस जग में आई
कि किसी रोज़ अपने द्वार पर
एक आकुल दस्तक पाकर
तुम अपनी ऐनक उतार, मुझे देखो
और कहो , आ गयी तुम !
कब से राह देख रहा था तुम्हारी
देखो ! अब जाना मत ….
________
सपना भट्ट का जन्म कश्मीर में हुआ, शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में संपन्न हुई. वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं. विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हैं. ई-मेल cbhatt7@gmail.com |
पिछले कुछ समय में सपना भट्ट एक समर्थ कवि के रूप में सामने आयी हैं। वे इधर की हिन्दी कविता में एक नए काव्य व्यवहार की प्रस्तोता हैं। यह व्यवहार नया है पर उतना ही सहज भी। इन कविताओं में जो पुकारता हुआ प्रेम है, उसमें आप मनुष्यता का बोलना सुन सकेंगे। यह प्रेम शायद निजता नहीं, मनुष्यता के पक्ष में किया जा रहा हठ है। आधुनिक हिन्दी कविता में प्रेम और वेदना की रहस्यात्मक कविताओं की एक पुरखिन इसी हठ के कारण हमारे साथ सदा रही आयी है। जबकि दुनिया हिंसा और क्रूरता की हामी हो चली हो, प्रेम को कविता में हठ की तरह बरतना आश्वस्त करता है। मुझे इस प्रसंग में बाबुषा कोहली की भी याद आयी, उनके पास यह हठ पहले से है और यही अब उनके काव्यसामर्थ्य का एक प्रमुख पक्ष भी बन गया है।
सपना भट्ट की ये कविताएं बता रही हैं कि अपनी बात किंवा हठ को कहने के लिए कवि के पास सुन्दर और सहज भाषा है।
रसूल हमज़ातोव की प्रसिद्ध पुस्तक मेरा दागिस्तान में आता है कि किसी खेत में पहली बार हल लगाना बहुत मुश्किल कार्य है और उसी खेत में हज़ारवीं बार हल लगाना बहुत सरल। कविता में यह अनुभव विपरीत हो जाता है। किसी विषय विशेष पर पहली बार कविता लिखना सरल है लेकिन उसी विषय पर हज़ारवीं बार लिखना बहुत मुश्किल। आप नया क्या लिखेंगे, यह चुनौती पेश आएगी। प्रेम पर तो अनगिनत बार लिखा गया है, इस चुनौती को कवि ने सहजता से निभाया है।
बतौर पाठक मेरी शुभकामनाएँ कवि को।
आहा! भाषा, कहन और शिल्प।क्या कहने।
ये अतृप्त प्रेम की गहन अनुभूतियों से नि:सृत कविताएँ हैं। घनीभूत (दुःख) का द्रवण या पिघलन। ऐसी सजीव अभिव्यक्ति अनुभूत से ही संभव है।सपना भट्ट जी एवं समालोचन को बधाई !
मुझे अहसास हो रहा है कि यह कविता मेरी जीवन गाथा हो । जीवन कहूँ या शरीर यह नयी तकलीफ़ों से गुज़र रहा हूँ । कविताओं में दमकते दुख को व्यक्त करना सरल है । कभी-कभी कवि या कवयित्री अपने दुखों को अपनी रचनाओं में पिरोते हैं । मुझ में इतना भी विवेक नहीं है । लेकिन कवयित्री ने अपनी अभिव्यक्ति को ढेर सारी उदासियों और ख़ुशियों के कुछ पलों को अनूठे शब्द दिये हैं । पिछले 35 वर्षों से जिन पुस्तकों और जनसत्ता अख़बार के पन्नों को सहेजकर रखा है; वे पीले पढ़ गये हैं । परंतु सम्मोहन नहीं छूटता । अपने पहनने के लिए यहाँ के खादी आश्रम और कलकत्ता से मँगवायी गयी धोतियों के छीज गये हिस्सों को सहेजकर रखा हुआ है । बैंक में मैं धोती-कुर्ता पहनकर जाता था । राजेंद्र धोड़पकर के जनसत्ता में छपे हुए कार्टून के पन्ने पीले पड़ गये हैं मेरे शब्दकोश की शोभा बढ़ा रहे हैं । मेरे दुखों को मैं अपने सुखों की सौग़ात मानता हूँ । कवयित्री को पुराने बासमती भात में दुख दिखते हैं । यह कविता की ख़ूबसूरती है । मेरी आत्मा को शांति प्रदान कर रही है । अतृप्त होकर भी तृप्त हूँ । ‘दरिया हूँ और प्यासा हूँ । मेरे जीवन का सूतक नये नये रूप धारण करके अवतरित होते हैं । कुछ दिनों से दायीं टाँग में दर्द हो रहा था । परसों डॉक्टर को जाँच कराने के लिए गया । एक्स-रे हुआ । पता चला कि रीढ़ की हड्डी की डिस्क स्लिप हो गयी है । मानो ज़िंदगी को जीने का बहाना मिल गया । मेरी दृष्टि से आत्मा कारावास नहीं हैं अपितु फूलों से महकता हुआ अमर बाग़ीचा है । मेरे लिए रिश्तेदारों या दोस्तों के घर गंतव्य की निकटता अपने घर वापस आने की 😡 उदासियों से भर देती है । एक नामालूम शायर का शेर है
“ख़याल आता रहा रह रह के लौट जाने का
सफ़र से पहले हमें अपने घर जलाने थे”
प्रेमी के स्पर्श के काम्य पर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की दो पंक्तियाँ
“उबल पड़े हैं अज़ाब[1]सारे
मलाले-अहवाले-दोस्ताँ[2] भी
ख़ुमारे-आग़ोशे-महवशाँ[3]
1 यातनाएँ 2 दोस्तों की दशा का दुख 3 चंद्र-बदन प्रेयसियों के आलिंगन का टूटता नशा
—————————————————————-
मेरे पास iPhone है । उसमें ‘नोट’ लिखने की जगह होती है । यहीं पर पहली कविता कॉपी-पेस्ट करके टिप्पणी लिखी है । धीरे-धीरे सभी कविताओं पर टिप्पणी करूँगा ।
यह ऋतु ऐसी बैरन है
कि काले मेघ को आँख भर
देख लेने से ही ज्वर उठ आता है.
…..
अरुण जी, आप इतना सब समालोचन के पाठकों के बारे में कैसे जानते हैं? कि टैग की मर्यादा भंग नहीं करते।
सपना भट्ट की कविताएँ पढ़वाने के लिए आभार कैसे व्यक्त करूँ? शायद सपना मेरी मित्र होना स्वीकार करेंगी?
इन कविताओं की अधीरा नायिका बहुत अच्छी कवि है,उसने सपना का चुनाव किया है कि उसके मुख से विलुप्त होते हुए शब्दों,ध्वनियों, विन्यासों और प्रेम के अंधेरे स्थलों को उच्चारित कर सके।
अधीरा सपना में वास करती रहे और प्रेम की सबसे सुंदर कविताएँ सपना से लिखवाकर अपने असह्य दुख को असह्य सुख में रूपांतरित करने की सलाहियत अपने भीतर नमी की तरह बनाए रखे।
उनका फ़ोन नंबर हो तो दीजिए। पता नहीं कब बात हो लेकिन सहारा तो रहेगा। या उन्हें मेरा ईमेल दें।उनका मन हो तो मुझे लिखें।
वाह!
लेकिन उन्हें कविता के श्रम से आंख कतई नहीं चुराना है। यह कठिन मार्ग है, लेकिन भूलवश भटक भी जाया करते हैं कवि।
सपना भट्ट की कविताओं के लिए आभार ।मार्मिक एवं अपूर्व।शुभ
सपना भट्ट की कविताओं से मैं पहली बार परिचित हो रहा हूं।उनके यहां प्रेम और अवसाद जिस तरह से प्रकृति के रंगों और बिंबों के साथ प्रतिबिंबित होकर आते हैं वह उनकी कविताओं की मार्मिकता को एक नया और सघन रूप प्रदान करता है। सपना की कविताओं की करुणा में जीवन की अनंत छवियां हैं , एक व्याकुल पुकार है और अनकही वेदना के अनेक धूसर तथा उज्जवल रंग हैं । उनकी भाषा ,उनके बिंब और प्रतीक, खासकर उनका अपना मौलिक अंतर्वस्तु एवम् शिल्प एक ऐसे संसार की सृष्टि करता है जो एक संवेदनशील स्त्री का अपना मनोरम और गोपन संसार है , जहां हर किसी का प्रवेश निषिद्ध हो सकता है। सपना भट्ट को इतनी सुंदर ,मार्मिक और समकालीन हिंदी कविता के रूढ़ मुहावरे से मुक्त कविताओं के लिए बधाई । समालोचन का तो कहना ही क्या है, उसका तो जन्म ही शायद असंभव संभावनाओं को दृश्य पर रचने के लिए ही हुआ है।
सपना भट्ट को पढ़ता रहा हूँ । एक साथ कई कविताएँ पढ़ने का लाभ आपके ब्लॉग ने दिया । कविताओं में एक टीसता हुआ दुःख और कामनाओं से भरा हृदय है । कविताओं के नेपथ्य में कहीं गहरे अवसाद का राग बजता है । कहीं कहीं दुःख के प्रति अतिरिक्त आग्रह भी दिखता है । ये मूलतः संवेदना की कविताएँ हैं । कवि के लिए शुभकामनाएँ ।
पिछले दिनों सपना की अनेक कविताओं ने मन पर असर डाला है। उनके पास बात है, उसे कहने की एक स्पर्शी भाषा है और उसे बरतने का अपना अंदाज़ भी है। इसीलिए उनकी कविताओं की उत्सुक प्रतीक्षा रहती है।
कैसी सुन्दर कविताएँ और कितनी मोहक भाषा!
मैं इन कवि पर ध्यान रखूंगा। पहले कविताएं देखी हैं पर उड़ती नजर से। आपने इनके काव्य से परिचय कराया इस हेतु धन्यवाद।
बहुत लंबे अरसे बाद इतनी सुंदर प्रेम कविताएं पढ़ीं।इनका कातर भाव कुछ अतिशय लगा किन्तु अस्वाभाविक नहीं।प्रेम में पुकार और पीड़ा,प्रतीक्षा और प्यास सब मिली जुली होती हैं।मन का सूतक,अद्भुत एकांत प्रयोग है।सपना इतने उत्ताप से हमेशा लिखती रहें।समालोचन का आभार
विरह और श्रृंगार की आभा से भरी इन कविताओं से भाव और रस में डूबी चिट्ठियों की खुशबू आती है।
कुछ विन्यास हाथ थाम कर रोकते हैं।
बधाई।
-कुमार अम्बुज, भोपाल ।
2.
अकसर घाटी में उतरना ख़ौफ़नाक मंजर का सामना करने जैसा है । यह यातनाओं की नहीं अपितु एक क़त्लगाह है ।
“अज़ल तो मुफ़्त में बदनाम है ज़माने में
कुछ उनसे पूछिये जिन्हें ज़िंदगी ने मारा है”
कभी डाक विभाग का घोष वाक्य “अहर्निशं सेवामहे”
डाक विभाग ने अपना नाम बदलकर हिन्दी में पोस्ट इंडिया और अंग्रेज़ी भाषा में Indian Post कर दिया है । हाए रे ब्यूरोक्रेसी Indian Post का हिन्दी भाषा में अनुवाद करना नहीं आया । और “अहर्निशं सेवामहे” भी हटा दिया । मुझे यह दुख भी सज़ा दे रहा है । मैं आपके दुख से ए ‘तिमाद रखता हूँ । मन जूठा ही नहीं झूठ का समंदर है । बेहया लोग नदामत से नहीं मरते । यह उनका व्यापार है । और शायद मानव जाति के उद्भव से प्रारंभ हुआ हो । वर्तनियों से अपनी भी जंग ठनी रहती है । रितेश देशमुख ने अपनी पत्नी जेनेलिया से कहा था,”प्रेम करने की आदत डालनी पड़ती है” । अपनी आयु के 24वें वर्ष से मुझे नींद की आदत डालनी पड़ी । पिछले 42 वर्षों से नहीं मानी । यह निषिद्ध की अति है । मीठे स्वप्न रूठे हुए हैं । वास्तव में व्यक्ति को अपनी देह की गंध नहीं आती । और शायद सभी व्यक्तियों के शरीर की गंध एक जैसी हो । आपकी अक़ीदत का एहतिराम करता हूँ । हर पखवाड़ा सुख मिश्रित दुख से भरा होता है । आश्विन के कृष्ण पक्ष जहाँ अपने पुरखों का स्मरण करने से भरा रहता है वहीं सर्दियों की आहट से जान जाने के ख़ौफ़ से डर जाता हूँ । ज्येष्ठ मास का घाम श्रावण मास में शांत हो जाये लेकिन भाद्रपद में घाम फिर से उभर आता है । जीवनसाथी देश निर्मोही की तरह निर्मोही नहीं होता । जब तक जीवन है तब तक काम, क्रोध 😡 लोभ, मोह और अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता । उदासी की अवधि सृजनशील है और आपसे कविताएँ लिखवा लेती है ।
समालोचन..पर सपना की कविताओं को पढ़े जाने की मुझे बहुत लालसा थी,आज यह पूरी हुई।सपना मेरी प्रिय कवि हैं,उनकी कहन शैली व गहन भावाभिव्यक्ति मुझे सदैव आश्चर्य में डालती है कि एक ही विषय को लेकर वे कैसे हर बार कुछ न कुछ नया रचना-संसार प्रस्तुत कर जाती है।सपना का अपने रचना संसार को लेकर जो प्रगाढ़ विश्वास है वह सुखद है..प्रेम के इर्दगिर्द लिखी गई ये रचनाएँ आज के कठिन समय में प्रभावित करती हैं,उम्मीद बनाये रखती हैं।
एक समर्थ कवि को सार्थक-सम्मानित मंच देने हेतु समालोचन का बहुत-बहुत आभार.. प्रिय सपना को स्नेहिल बधाई व असीम मंगलकामनाएं।💐
सपना की कविताओं में लयात्मकता मिलती है साथ ही सुन्दर भाषा व प्रभावी बिम्ब का अनूठा संयोजन भी जो हृदय को स्पर्श कर जाता है । समालोचन पर आने के लिये बहुत बधाई सपना यूँही रचती रहो 🌹
3
शब्दों में अभिव्यक्त की गयी प्रेम की बारिश में भी तुम्हारे ठंडेपन भी मेरी जिजीविषा नहीं मरेगी । फ़ीनिक्स पक्षी के अपने पूर्ववर्ती की तरह राख से जीवित हो उठने की कला की तरह कवयित्री कंदील बनकर आकाश में टिकना चाहती है । न बुझने वाली आग की तरह नील को उलाहनों का बिंब बनाकर स्थायित्व बनाया है । “बोहतान” ख़ूबसूरत चयन है । निर्भीक कविता झूठे अभियोगों से नहीं डरती ।
‘वो रात का बेनवा [1] मुसाफ़िर, वो तेरा शायर, वो तेरा ‘नासिर’
तिरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो’
1 ख़ामोश
ख़ुद से शिकायत कर लूँगा । यूँ लोगों के ताने सुनकर सत्य अपना रास्ता नहीं बदल सकता । सच की अपनी भी ताक़त होती है । वह अपने पैरों पर ख़ुद खड़ा है । लहजे (ज पर नुक़्ता नहीं आता) की अजब दास्ताँ है । अपने निकटतम के लहजे और देह की भाषा से व्यक्ति प्रभाव में आकर उस जैसा हो जाता है । जीवनसाथी को ख़ुद में ढूँढना परमात्मा से साक्षात्कार करने जैसा है । यह अनुभूति अनूठी है । ‘रंग दो रंग में लाल’ है । बुरांश के फूलों का ज़िक्र पहली बार पढ़ा । यह फूल गर्मियों में अंगार की तरह दहकता है ।
“फिर दहक उट्ठी आग दिल की हाए
हमने रो रो अभी बुझायी थी” की मानिंद दिल की आग नहीं बुझ सकती ।
यह कविता ख़ूबसूरती का प्रतीक है । सपना जी भट्ट ऐसी कविताएँ ही लिखेंगीं ।
सुन्दर कविताएँ
Bahut khoob surat
4.
योगी मन को परमात्मा में रमाने का दुर्दम्य साहस करते हैं । प्रेमी भी असाध्य को साध सकता है । समुद्र में उठने वाली लहर भी मंज़िल पा सकती है । कोमलता स्त्री को प्रकृति द्वारा दिया गया अनुपम उपहार है । हमारे यहाँ शिव (शाश्वत शिव) अर्धनारीश्वर रूप की स्वयं की रचना की है और स्त्री को कोमलांगी कहा है । वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि स्त्री के 23 X गुणसूत्र और पुरुष के 23 X गुणसूत्र से शिशु कन्या का जन्म होता है । उसका शरीर कमनीय और सुडौल होता है । यही कमनीयता उसके स्वभाव में व्यक्त होती है । मैं समझता हूँ कि स्त्री पानी की सदृश होती है । यह प्रत्येक पात्र में ढल जाने की सीमा तक लचीली होती है ।
‘मेरी कंचुकी के आख़िरी बन्द तक आते आते’ में उपजे संकोच को खींचकर कविता सहोदर की उपमा दे रही है । यह रचनाकार की दूरदृष्टि है । पत्नी और पति बूढ़े होते तक सहोदर दिखायी देने लगते हैं । कभी-कभी पति अपनी पत्नी में माँ का प्रतिबिंब देखने लगता है । धीरे-धीरे यह स्थायी रूप ले लेता है । घृणा की भावना दोस्तों और राजनेताओें में होती है । ऊपरी तौर पर हाथ मिलाते हैं और भीतर नफ़रत चलती है । आपके स्वप्नों में कुमार गन्धर्व का आना सुखद आश्चर्य है । भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी को सुनते हुए मुझे सुख का अहसास होता है । फ़ेसबुक के ज़रिए मुझे भी आपके निकट आना है ।)
खुद को पुकारूंगी तेरे नाम से
तुझ से नहीं
खुद से शिकायतें करूंगी
बहुत सुंदर प्रेम कविताएं ।वाह। दिल को छू जाने वाली भाषा ।सुंदर बुनावट। पहली बार सपना को यहां पढ़ना हुआ ।समालोचन को साधुवाद।
एक अत्यंत सुहृद मित्र के दुर्निवार अनुरोध की अवहेलना न कर पाने की अत्यंत सुखद परिणीति रही अरुण देव के “समालोचन” ब्लॉग पर प्रकाशित सपना भट्ट की कविताओं की सुदीर्घ यात्रा , जिसने मुझे फौरी तौर पर कार्यालय के मंडेन दिनचर्या और कार्यालयस्थ दुर्जन सहकर्मीगण के बीच मेरी अजनबीयत और एलिएनेशन से सहसा उबारना। आभार प्रभात मिलिंदभाई! सपना भट्ट की कविताएँ पहली बार पढ़ रहा हूँ और यकीन मानिए हालिया वर्षों में इतनी बेहतरीन कविताएं मैंने बहुत कम पढ़ी हैं।मुझे अनावृत कविताएं पसंद नहीं आतीं, जिनमें सब कुछ पारदर्शी और खुला हुआ हो, जिसमें पाठकों की कल्पनाशीलता के लिए कोई स्पेस न हो, जो पाठकों की संवेदना को झकझोरता या झटके न देता हो, जिनमें कोई विचार न हो, न कोई नया जीवनानुभव ही हो। मुझे वे कविताएँ प्रिय हैं, जिनमें कवि का सबकांशस मुखर हो ,जहां मौन बोलता हो और खामोशी चीखती हो । कहना न होगा कि मैं गालिब की तरह ही कविताओं में उस लहू का तलबगार हूँ जो रगों न बहकर आँखों से टपकता है – “रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल ,जो आँख ही से न टपका वो लहू क्या है?” कुछ इसी तर्ज पर कविताओ में तैरती वो संवेदनाओं ही क्या जो हृदय रंध्र से न रिसें। वैसे भी मैं यह मानता हूं कि अच्छी कविता अवचेतन के गहरे दबाव तले ही इक्वीफर की मानिंद प्रस्फुटित होती हैं। इसीलिए ऐसी कविताओं में बिम्बों की मालाएँ होती हैं। कविता में बिंब कोई सोचकर नहीं लाता और न ला सकता है। ये बिंबमालाएँ वर्षों से हमारे अवचेतन में दफ्न एहसासों और अनुभवों की ऐंद्रिक अभिव्यक्ति होती हैं। सपना भट्ट की कविता “सुख का स्वांग” इन्हीं और ऐसे ही बिम्बों के द्वारा अभिव्यक्त की गई है जिनसे जुड़े एहसास और अनुभूतियां कवयित्री के अन्तस् में वर्षों से दबी ,सोई पड़ी थीं ।जीवन के राग-विराग के सम्मोहन और उसके टूटने के यथार्थ अनुभवों की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति है यह कविता।
कवयित्री का जीवन-सत्य का अनुभव विराट और गहरा है। वह अनुभूतियों के सागर में सतह पर नहीं तैरती बल्कि गहरे गोते लगाती है। उसके देह की कोठरी में दुख ही दुख गमकता है लेकिन यह गमक पुराने बासमती भात की तरह सुवासित है।उसे यह भान है कि शनैःशनैः आयु का वसंत बीत रहा है, साँसों की दुर्बोध लिखावट जिंदगी के पन्नों पर मंद पड़ती जाती है ,किंतु उसके मन पर लगा सूतक है कि जाने का नाम ही नही लेता। शोक और विषाद का सूतक स्थायी भाव बना हुआ रहता है। स्मृतियाँ भी खुद को दुहराने लगती हैं और प्रणय के सुखद क्षण भी मुरझाए हुए फूलों में बदल जाते हैं । आत्मा का भी एक कारावास होता है जिससे मुक्ति संभव नहीं । और यह जानते हुए भी कि प्रेम कितना ही मधुर और दुर्दम्य हो उसका सम्मोहन भी एक दिन टूट ही जाता है ,प्रेम और प्रणय कोई जादू सर पर सदा नहीं रहता है , फिर भी कवयित्री को प्रेम का यह दुख ही काम्य है । भले ही प्रेम का यह साथ, सुख का स्वांग भर रहे, भले ही जीवन में उसका होना तृष्णा का राग भर रहे फिर वह चाहती है कि प्रेम की यह पीर जीवन पर्यंत बनी रहे। प्रेम की इस पीर को इस ऊंचाई पर ले जाकर कवयित्री ने जो इसे एक अधिभौतिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है वह इन प्रेम कविताओं का हासिल है। प्रेम को शरीर के धरातल से मुक्त करती इन कविताओं का यह वैशिष्ट्य इन्हें एक नया आकाश प्रदान करता है । कहना न होगा कि कवयित्री ने कविता की एक नई ज़मीन तोड़ी है।आत्मा के कारावास से निकलती ये कविताएँ प्रेम के बंधनों और उनसे मुक्ति ,प्रेम की पीड़ा और उसके आनंद के द्वंद्व से रची गई हैं।
इन्हें पढ़ने और इनसे गुजरने का एक अपना ही आनंद है ,जो इनमें जितना डूबता है वह उतना ही ऊपर उठता है।कवयित्री को बधाई और बधाई प्रभात भाय को इसरार करके उसे पढ़वाने के लिए। आभार प्रभात मिलिंद भाय !
अनिल अनल हातु , धनबाद, झारखंड।
सपना भट्ट की कविताएँ बहुत ही पठनीय व सुंदर लगीं | बधाई व शुभकामनाएँ |
बहुत ही पठनीय व सुंदर कविताएँ | सपना जी को बधाई व शुभकामनाएँ | आपको भी |
सपना भट्ट की प्रेम कविताओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
इस पर अलग लिखना चाह रहा हूं। प्रेम की
यह व्याकुलता, तड़प, पीड़ा का अन्यन्तम
इज़हार अन्यत्र दिखाई नहीं देता। मैं खुद बहुत व्याकुल हुआ इन्हें पड़कर। अपने भीतर की समूची को निचोड़ देती हैं अपने रचे शब्दों। दुख के शब्दों को कवयित्री किसी से उधार नहीं लेतीं। प्रेम की अभिलाषा को शरीर की एक-एक बूंद से जिस खूबसूरती से रक्तरंजित करती हैं -सपना भट्ट, उसे देख मीरा की याद आती है।
बहुत सुंदर, दिल तंक उतरने वाली कविताएं !!
ढेर सारी शुभकामनाएं !!
इन कविताओं को निरव्यैक्तिक होकर पढ़ना कठिन है, किन्तु पाठकीय संयम बरतने के बाद भी यह सहज लक्षित किया जा सकता है कि सपना भट्ट जी इस जाते हुए साल में प्रेम, स्मृति और वियोग के नए स्वर के रूप में हिंदी कविता की एक विरल उपलब्धि हैं। पाब्लो नेरुदा कहते हैं : ‘Love is so short, forgetting is so long.’ ये कविताएँ इस वक्तव्य का प्रमाण हैं जिनमें प्रेम और दुःख की व्याप्ति कुछ ऐसी ही है। प्रेम और दुःख के साथ साथ इनमें स्मृति और एकांत के स्वर भी एक अवसादपूर्ण सिंफनी की तरह बजते हैं।
अपने कंटेंट में प्रेडिक्टेबल होने के बाद भी ये कविताएँ मोनोटोनी से कमोबेश मुक्त हैं। इनके बिंब और भाषा आत्मा को गोया ऐसे स्पर्श करती हैं कि निजी होकर भी ये प्रेम और विरह में मुब्तिला सभी लोगों की कविताएँ प्रतीत होती हैं। ये उन समस्त हृदयों को क्लांत कर देने की क़ुव्वत रखती हैं जिनके लिए प्रेम कभी एक चूके हुए अवसर की तरह आया था। व्यतीत प्रेम की विह्वल कर देने वाली स्निग्ध और निष्कलुष कविताएँ !
सारी कविताएं संवाद शैली में हैं। कालिदास की काव्य रचना की भांति। संवाद शैली में लिखी कविता प्रभावशाली होती ही है।भाषा भी मोहक है।मर्म को छूती हुई।
सपना की कवितायें प्रभावकारी हैं। वे बहुत दूर तक जाएंगी ।