पुराकथाएँशिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ |
पुराकथाएँ – 1
मंडुए की रोटी एक आख्यान है
जीवन का
जिसमें छोटी पहाड़ी गाय के दूध का दुर्लभ घी
और बहुत सहेजने पर भी
आत्मा की तरह पसीज गया थोड़ा गुड़
हमेशा साथ रहा आया
पहाड़ के शिशिर में
दुर्लभ हरे धनिये की पत्तियों
हरी मिर्ची
और लहसुन की चटनी तेज नमक वाली
यह अतिरिक्त
एक स्वाद इस कथा का
मानो किरदार में घुलता हुआ
बनाता हुआ
कुछ और मनुष्य
इसी कथा में
दुनिया ज़माने की रसाई थी
जिस दिल तक
उसकी
नौ साल बड़ी एक याद धुकधुकियों में बंधी
चली आती है
सीने में तारों की तरह टिमटिमाती है
सुदूर जंगल में मारे पकाए
सौल* का काला सुस्वादु माँस
किसी मनुष्य की याद में
प्रेम का
कोमल कोई प्रसंग भी हो सकता है
ऐसे ही एक असंभव यथार्थ में था
मेरा रहवास
अब
मैं एक कल्पना में रहता हूँ
चारों ओर से घिर गए
सौल की तरह भड़भड़ाती काँटे फेंकती है
मेरी याद
तीन दशक बीत गए
दुनिया के
जंगल के
दिल के
और
कथा के तीन दशक
कोई पूछता है मुझसे
क्या अब भी उतना ही स्वाद होता है
काला माँस
तीन दशकों के बाद अचानक
मुझे मेरी ही एक पुरानी आवाज़ आती है
बोलते-बोलते मैं ख़ामोश हो जाता हूँ
जितनी देर
मँडुवे की गर्म रोटी पर धरे घी की तरह
पिघल रही है दुनिया
उतनी भर देर वह मेरी है
उतनी भर देर देखना तुम मेरा रहना
अधिक नहीं
उतनी ही देर तुम मुझे सहना
यों ही
एक दिन यह आख्यान समूचा होगा.
* साही
पुराकथाएँ – 2
मनुष्यता की दुहाई देते रहे जो लोग
क्रूर हत्यारे निकले
उनके विरुद्ध किसी ने गवाही न दी
सिवा कविता के
जो साथ थे वे कुटिलता से भरे
सदाशयता का भरम रचते रहे
जो दूर दिखते रहे सच्चे सदाशयी मित्र थे
पुकारते न थे पर पुकारने पर देख लेते थे
जिसने प्रेम का सबसे अधिक रोना रोया
उसने प्रेम को कभी नहीं जाना
उसके सताए धोखे में डाले हुए लोग मिलते हैं
चेहरे पर कथित प्रेम की काली छाया लिए
जाना
कि प्रतिहिंसाओं से बना है संसार
उसमें कवि इच्छाओं की तरह अधूरे रह जाते हैं
टूट जाते हैं सपनों की तरह
मैं उसी अधूरेपन की एक पुराकथा हूँ
और
टूट जाने का सबसे नया उदाहरण
पहाड़ी भालू की तरह
अज्ञात उड्यारों* के अंधेरों में रहते हुए
मैंने भी कभी
हिंसालू** की कंटीली झाड़ियों में फँसे
जीवन के
एक कोमल प्रकाश के बारे में सोचा था
मोटे काले कम्बल की त्वचा से ढंकी
मेरी देह
जाने कितने जाड़े निकाल चुकी
आज भी कितनी ही बार मेरी चीख़
चीड़ के
सूँसाट-भुभाट को भेदती मेरे गाँव तक
पहुँचती हैं
कितनी ही बार डर जाता है मेरा गाँव
मेरे बिना
अस्सी बरस की मेरी बीमार ताई
आज भी पीड़ा और नींद में मेरा ही
नाम पुकारती है
और
बहुत गाढ़े एक अंधेरे की तरफ़
बढ़ जाता है मेरा हाथ
* गुफाओं
** पहाड़ी झरबेरी
(अरविंद भैजी और अरुणा भाभी के लिए, जो मेरे लिए प्रकाश जैसे हैं.)
पुराकथाएँ – 3
तेंदुए के मारे बैल के शव पर
बिलखती थी एक स्त्री
जिसने निज बालक की तरह पाला था उसे
इसी दृश्य में
एक बूढ़ा चुपचाप देखता था
जैसे देखता हो
किसी अदृश्य को
ठीक उसी जगह
उतरते थे विशाल डैने फैलाए गिद्ध
रातों में दबे पाँव
उधर ही बढ़ते छींछड़ों के लुटेरे सियार
और
उसी पिंजर में मुंह घुसाए दिख जाते
गाँव के प्रिय कुत्ते भी
कभी-कभार
भूख और भय के बारे में हमारा
हर भरम तोड़ते हुए
मरखना हुआ जाता था जोड़ी का
बचा हुआ बैल
यह दृश्य पहले अनुभव बना
फिर उस अनुभव की स्मृति
आज रहता है बहुत बड़े एक रूपक की तरह
मैं अपनी नहीं पूरे देश की
एक कथा में बार-बार कहता हूँ उसे
क्या करूँ
कि मेरी कुल नागरिकता जोड़ी का बचा हुआ
बैल है इन दिनों.
पुराकथाएँ – 4
पूर्णिमा का चाँद
बाँज के जंगल में झाँक तक नहीं पाता था
और चीड़ों पर चाँदनी
एक निर्मल प्रसंग भर था
मेरी भाषा का
तब से अब तक
पहाड़ी रीछों और तेंदुओं की केवल पीढ़ियाँ बदलीं
उन जंगलों में
आदतें नहीं
काफल के पेड़ अलबत्ता मशहूर हुए
ज़माने में
जब तक मालूम करते उनका
जीववैज्ञानिक नाम
कुछ कुरस्याव* बीते दशकों की चाँदनी में
घर के पटांगणों* में लम्बी छलाँगें लगाते
मेरे सुदूर भविष्य में कहीं
विलोप गए
पुराना कोई भय बाक़ी न बचा गाँव में
तो लोगों ने
नए का आविष्कार किया
और बिलकुल नए प्रेम के मुक़ाबिल
एक पुरानी हिंसा का
मैं सुनता हूँ रात दो बजे
छत पर आती
दुबक कर चलने की आहट
और ताक़तवर पाँवों की नसों के
चटकने की विशिष्ट एक आवाज़
वर्षों से
मेरे कुत्तों पर घात लगाए
उन्हें मारता
वह एक नर तेंदुआ है
साठ-सत्तर किलो वज़न उसका
और आग के खिलते फूलों-सा
रंग
यह
2021 का घर है
वह
1986 का तेंदुआ
यह लम्बा अन्तराल
या कि अवधि में बहुत बड़ा फ़र्क
जिसे समझ रहे लोग
वह एक बार बार दोहराया गया रूपक है
मेरी कविता का
जीवन में उसी के सहारे
बहुत-सा यथार्थ
प्रकाशित हुआ मेरा
बहुत सारी पीड़ा छुपाई
उसी की ओट में
जैसा कि आप समझ ही गए होंगे
पूर्णमासी का चाँद समकालीन एक पीड़ा है मेरी
और बाँज का जंगल
पुराकथाओं में छुपा एक सुख.
* बिज्जू की पहाड़ी प्रजाति
** पटाल यानी पत्थरों से बने आँगन
पुराकथाएँ – 5
वी पी सिंह का हेलीकॉप्टर उतरा था
चौबटाखाल
मेरे पिता के कॉलेज में
बतौर मंच संचालक
मैं समूचे क्षेत्र की ओर से माननीय मुख्यमंत्री जी का
हार्दिक स्वागत करता हूँ कहते पिता को
पहली बार माइक पर बोलते सुना था
मेरा गाँव नौगाँवखाल यह सब देखने सुनने गया था
तीन मील पैदल चलकर
वी पी सिंह के मुख्यमंत्री होने की मुझे
इतनी ही याद है
प्रधानमंत्री होने की याद
अब भी उड़ती है गाहे बगाहे तो थोड़ा आकाश
घेर लेती है
आज़ाद हिन्दुस्तान का
गाँव जो सुदूर रहा हमेशा
जीवन कठिन
जीने के तौर तरीके उलझनों से भरे
घास के नन्हें बैंजनी फूलों पर मंडराती
छोटी सफेद तितलियों के समागम गोपनीय
सुन्दर, कोमल और काम्य एक पाठ थे
प्रेम का
कुत्तों का प्रेम जगजाहिर था
तब भी समकालीन जनता से
राजनेताओं के प्रेम को समझना
मैं चाहता था
अब पाता हूँ
कि जंगल से आता धारीदार लकड़बग्घे का
कभी हँसता तो कभी बिलखता हुआ स्वर
मेरा ध्यान नहीं भटकाता
और भी एकाग्र करता है मुझे
मेरे नागरिक प्रसंगों में वह प्रेम के बारे में
कुछ बताता है
मैं ही वह महान जनता हूँ
जिसे बड़े-बड़े लोग प्यार करते रहे सदा से
ढहता रहा जिसका जीवन
बुझती रही हर लौ
महानता
विकट फड़फड़ाते ध्वज की तरह रही
मेरे देश और समाज में
होना था उसे
हथेलियों की ओट की तरह.
पुराकथाएँ – 6
चीड़ की छाल को
गहरा चीर देते थे लोग
एक घाव
रिसता हुआ अंतस से
बाहर की दुनिया में वृक्ष का वह रक्त
लीसा कहलाता
सीली लकड़ियों में
लीसे से लिपटी एक चिन्दी
भड़का देती कैसी भी आग
चूल्हे के पास ताऊ जी का चेहरा
धधकती आग का लाल उजाला
और थोड़ा धुँआ
उस यथार्थ का निर्माण करते थे
जिसे मेरे भविष्य को कहने का एक रूपक
बन जाना था
ताऊ जी के पास भी भविष्य को कहने का
यह एक रूपक ही था
कि एक दिन अपनी लाल आँखें मलते हुए
बहुत धीमे से उन्होंने कहा
इस मकान की नींव में
अब असंख्य चींटियां चलती हैं बच्चों
जितना जल्द हो सके
अपना एक मकान बना लेना
लेकिन उसमें भी होंगे ही
चींटियों के बसेरे
जब नींव तक जा पहुँचें याद करना मुझे
एक दिन ताऊ जी
उन चींटियों के साथ ही चले गए
और हमें
फिर कभी दिखाई नहीं दिए
मेरे अनुभव में
बदल गया रूपक
चले गए लोग
मुझे अक्सर मकान की नींव में मिलते हैं
किसी चींटी की पीठ पर
लदी हुई
नन्हें सफ़ेद अंडे जैसी निर्दोष और नाज़ुक होती है
उनकी याद
एक मौसम में
धरणी पर हर ओर वही
दिखाई देती है
तब से तीन दशक हुए समाज के
जीवन के
अपने वजूद पर
एक चीरा किसी ने लगाया था
वहाँ लीसे में
बहुत नन्हीं एक चींटी की तरह
चिपक मर गया था
एक सपना
मेरे लिए जो उसने देखा था
मेरी नींद में
वह चींटी आज भी छटपटाती है
बिना मुझे काटे
किसी तरह का लीसा बनाती है
मेरी भी देह
और उसे हृदय में इकट्ठा करता हूँ मैं
एक दिन
सीली होंगी लकड़ियां और मुझे
अग्नि की ज़रूरत होगी
देखता हूँ
ऊपरी परतों में चीर दिया गया है
देश
पूछता हूँ कितने हृदय खुले हैं सहेजने के लिए
उस स्राव को
उस घाव से लगातार जो बहता है
मेरे लोगों !
कितने चूल्हे जल रहे हैं आज मेरे देश में
उस घाव के नाम पर
कितने अब बुझ गए हैं ?
पुराकथाएँ – 7
देवता जो आकाश में उड़ते थे
और जो रेंगते थे पाताल में
पृथ्वी पर चलते
पानी में तैरते और अग्नि में रहते थे
देवता जो स्वयं आकाश थे
पाताल, पृथ्वी, पानी और अग्नि थे
देवता
उग आते थे मिट्टी में
राई के खेत में खर-पतवार थे देवता
गेंहूँ में घुन की तरह रहते थे
यानी स्वयं में स्वयं की तरह
अचार का मर्तबान भी एक जगह था
स्वाद और गंध भी देवता ही थे और बरसातों की फफूँद भी
संसार में देवताओं के बाद जो जगह
बच गई थी
उसमें मेरा गाँव था पहाड़ की रीढ़ पर
छोटा-सा एक उभार
एक बस्ती साधारण लोगों से भरी
देवताओं ने ठुकरायी थी जो मनुष्यता
उसी में
यज्ञ के धुँए से जूझते हुए मैंने
वृक्षों को याद किया
पक्षियों को याद किया
नक्षत्रों को याद किया
गायों और कुत्तों को याद किया
वैदिक स्मृतियों सरीखी मछलियों के पीछे
घाटियों में बहती
जलधाराओं तक गया
आँगन के सर्प उठाकर जंगल में छोड़े
मैं जो रहता हूँ समकालीन संसार में
देवताओं के बिना
कहते हैं इसमें भी देवताओं का ही हाथ है
अभी तो एक कुत्ता
मेरे द्वार पर खड़ा
किसी देवता का नहीं रोटी का इंतज़ार करता है
मैं उसे
देवत्व नहीं थोड़ी-सी मनुष्यता दे सकता हूँ
यानी आशीष नहीं थोड़ा-सा प्यार.
शिरीष कुमार मौर्य प्रोफेसर, हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग डी.एस.बी. परिसर, नैनीताल 263 001 |
निश्चय ही क्रूर हत्यारों के विरुद्ध इतिहास की अदालत में कविता ही गवाही देगी। पसीजे हुए गुड़ और तेज नमक वाली धनिए और मिर्च की चटनी से स्वाद वाली बेहतरीन कविताएँ। शिरीष भाई को हार्दिक बधाई और इन्हें प्रस्तुत करने हेतु समालोचन का धन्यवाद।
शिरीष कुमार मौर्य सर की कविताएं बड़े फलक की कविताएं हैं।उनके कविताओं की छोटी छोटी पंक्तियां अपने गहन भाव से धीरे धीरे दिल में उतरती चली जाती हैं।हमारे समय का अद्भुत कवि।
राग पूरबी और चर्यापद के बाद पुराकथाएं जैसी महत्वपूर्ण कविताएं पढ़ाने के लिए समालोचन का हार्दिक आभार।
कवि शिरीष कुमार मौर्य अपने पहाड़ को नहीं भूलते। उनकी कविता का इलाका वहां की लोक स्मृतियों से ठसा हुआ है। दुख, पीड़ा, संघर्ष विशेषकर महिलाओं का संघर्ष उनकी कविताओं की मूल संवेदना को ढंक लेती है और वे उस से बाहर नहीं निकल पाते है। उनकी पुरा कविताएं भी लोक स्मृति को भेदती हैं और नये इलाके में प्रवेश करती हैं। कवि की इन कविताओं को देखा -परखा जाना चाहिए।
भाई शिरीष की आरंभिक कविताओं और गद्य लेखन का मुझ पर असर है। इन कविताओं के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
शिरीष की कविताएं हमेशा एक ऐसा लोक रचती हैं जो बहुत परिचित होकर भी अपरिचित की तरह दरवाजा खटखटाता है और घर के छोटे-छोटे कोनों को भी अनन्त आकाश से जोड़ देता है। वे निरंतर अपने को रच रहे हैं और भाषा को भी। उनकी शुरू से अब तक की कविताएं करमशः पढ़ी जाएं तो साफ दिखाई देगा कि शब्द धीरे-धीरे किस तरह अपनी क्षमता और अर्थ वैभव को बढ़ाते रहते हैं।
इन रचनाओं को पढ़ते हुए दिखाई देता है कि कविता भी एक जगह है, जहां रहकर अमर हुआ जासकता है। बचपन भी एक जगह है, जहां बार-बार जाकर सुकून से रहा जासकता है।
– दिवा भट्ट
कुछ कुछ एकालाप की भाषा में बाँची गईं ये पुराकथाएँ कवि के समूचे जीवन का आख्यान हैं।
अपने एकांतिक अनुभवों में कवि अपने घर गाँव की इतनी कोमल और विकल स्मृतियों से बिंधे हैं कि वह पुकार एक अभेद्य दीवार तोड़ पाठकों तक भी उतनी ही तीव्रता से पहुँचती है जितनी उनके स्वयं के आत्मीय जनों तक।
जीव जंगल से जुड़े उनके चौंकाते, विस्मय में डालते अनुभवों के बिम्बात्मक सौंदर्य का पूरा दृश्य आंखों के सम्मुख इस तरह चला आता है कि चमत्कृत हुए बिन रहा नहीं जाता।
प्रिय कवि शिरीष मौर्य को इन सुंदर और ईमानदार कविताओं के लिए बधाई एवं शुभेच्छाएँ!
साथ ही इन्हें पढ़वाने के लिए समालोचन का भी ख़ूब आभार !
बहुत बढ़िया कविताएँ, कैसे इतना सुंदर संसार रचते हैं कवि,मैं अचंभित रह जाता हूँ, अपने आपको भौंचक सा पाता हूँ।
शिरीष कुमार मौर्य की कविताओं में मुझे विनोद कुमार शुक्ल की याद आ रही है । वे राजनंदगाँव में रहते हैं । शब्दों के
प्रयोग में मितव्ययी हैं । मशहूर शेफ़ कुणाल कपूर ने लिविंग फ़ूड चैनल पर थालीज़ उत्सव ऑफ़ इंडिया कार्यक्रम किया था । उन्होंने 14 राज्यों में जाकर 34 थालियों के भोजन में स्वाद चखे थे । वे गढ़वाल गये । वहाँ वे गढ़वाल गये थे । वहाँ मड़ुये की रोटी, बिच्छू बूटी की सब्ज़ी, भाँग के बीजों से बनी हुई चटनी खायी थी । उस रोटी पर घी डालकर खाया जाता है । गुड़ के टुकड़े करके मेरी बुआ गुँथे हुए गेहूँ आटे में डालकर रोटियाँ बनाती थी । हमारी बोली में भुसरी रोटी बोलते हैं । जहाँ तक लहसुन की चटनी का प्रश्न है यह सर्दियों में हरियाणा के घरों में भी बनायी जाती है । लहसुन की फाँकें और लाल मिर्चों को सिल-बट्टे पर पीसकर उसे देशी घी का तड़का लगाया जाता है । ताकि कुछ दिनों तक ख़राब न हो । स्वाद होती है और शरीर को गर्म रखती है ।
प्यार के बारे में मैं कुछ नहीं लिखूँगा । यह nostalgia है । माँस नहीं खाता । मौन रहना उचित रहेगा ।
प्राकृतिक बिंबों के साथ यथार्थ की परख चिंतन के नवीन आयाम खोलती है।बहुत बधाई
पुराकथाएँ 2
मनुष्य के रूप में भेड़िये हर कहीं दिख जाएँगे । राजनेताओें में ये बहुसंख्यकों में हैं । सत्तारूढ़ होते हैं तो शरीर नोच लेते हैं । ये गिद्ध बन जाते हैं । लिखने में ग़लती हो सकती है । किसी कवि ने लिखा था-झूठे लोग सयाने निकले, हाथ नहीं दस्ताने निकले । क्रूरता से भरी हरकतें करने वालों के हृदय में प्रेम का सदाशय भाव झूठा है । प्रेम जानने के लिए डूबना पड़ता है । स्वयं को मिटाना होता है ।
कवि को अपने अतीत की याद आ रही है । अपने गाँव और रिश्तेदारों की भी ।
यह दृश्य पहले अनुभव बना/फिर उस अनुभव की स्मृति – इसे आगे बढा कर कहूँ कि वही बना पुराकथा। आज के हालात यही है कि आदमी आज जोड़ी के बचे हुए मरखने बैल की तरह हुआ जाता है क्योंकि स्मृति पर ग्रहण लग गया है। आंखों के सामने दृश्य पर दृश्य झोंक दिये जा रहे हैं जिससे कि आदमी उन्हीं में रमा रहे। कुछ सोच विचार न करे। न अपने न दूसरे के बारे में। कविताओं में यह विडंबना भी है – (हरिमोहन शर्मा
पुराकथाएँ 3
ओहो । स्त्री के हृदय में पीड़ा है । तेंदुए ने उसका एक बैल मार दिया । यह भी चिंता है कि चिंता है कि उसके बैलों के जोड़े का एक बैल मारा गया । गिद्ध और सियार मारे गये बैल को नोचते हैं । इस कविता में दो बैलों की जोड़ी ग़रीब कृषक का प्रतिनिधित्व कर रही है । शासन की व्यवस्था ने किसान को पहले ही निर्वासित कर दिया है । स्वतंत्र भारत में कांग्रेस का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी होता था । देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु को ग़रीब किसान के खेत में हल चलाते हुए तस्वीरें देखी थीं । वे जनता के सच्चे प्रतिनिधि थे ।
निजी अनुभवों के रूपकों से सार्वजनीन यथार्थ को रच देने के सधाव का सुन्दर उदाहरण हैं ये कविताएँ। इन कविताओं के लिए शिरीष जी को साधुवाद और ‘समालोचन’ को धन्यवाद है।
मंडुए की रोटी इधर तीन महीनों से मेरे जीवन का भी आख्यान बन गयी है। मेडिकल से जुड़े भतीजे और गूगल ने बताया कि सर्वाधिक कैल्शियम की मात्रा मँडुआ में पायी जाती है – उसके बाद केले में। तो रोज़ खाता हूँ – उसी गुड़ – घी से, जिससे बचपन में चोंगा बनाकर गोजई की रोटी मां खिलाती थी। तब मँडुआ कुअन्न माना जाता था….
सो, कविता पढ़वाना शुरू तो करा दिया मँडुआ ने, लेकिन खुल गया १९८६ से २०२१ के कथित अंतराल का एक इतना बड़ा संसार – लोक का, इतिहास का, भूगोल का – जंगल-पहाड़ का, काव्यत्व का, देश- विदेश का, वेद – पुराण का …और अद्भुत रूपक् – प्रतीकों से सम्पन्न प्रांजल भाषिकता का, जिसे बार- बार पढ़ें और मन न भरे…
तीन बार तो पढ़ चुका…पर जाने कितनी बार पढ़ना पड़े अभी – कौन जाने…!! इस मेधा और सृजन को सलाम…
बहुत सुंदर कविताएं हैं। ये नाॅस्टैल्जिया की कविताएँ नहीं है, जो अंतत: खिझाऊ होती हैं। अतीत के अनुभवों को बिम्बों, रूपकों और प्रतीकों के रूप में ढालती ये कविताएं वर्तमान के विभ्राट को पुराने भयों से जोड़ती है। अत्यंत प्रभावोत्पादक शिल्प।
शिरीष उन कवियों में हैं जिनकी कविताओं की मैं प्रतीक्षा करता हूँ। भाषा का संयम और उससे अधिकतम कार्य लेने की क्षमता इन कविताओं में है। इन्हें पढ़ना एक नये काव्य अनुभव, सर्जनात्मक ख़ुशी और जीवन से गुज़रना है।
कवि को बधाई।
अतीत के आइनें में समकालीनता को देखना और बरास्ते कविता जीवन के जटिल यथार्थ तक पहुँचना एक विरल और बीहड़ यात्रा है, एक अर्थ में बकौल दुष्यंत कुमार यातनाओं के अंधेरे में सफर की तरह। बीते दिनों के विस्तृत कैनवस पर बिखरी हुई ये कविताएँ अपने टटके बिम्बों और जीवनानुभवों की ऊर्जा से दीप्त हैं। शिरीष जी को बधाई एवं शुभकामनाएँ।
वाह. बहुत मर्मस्पर्शी कविताएँ हैं. पढ़ते पढ़ते कई बार अपने गाँव भी गया और कई बार अपने देश को भी देखा. रूपकों को अपने घर की नींव में देखा और देवत्व और मनुष्यता को स्पर्श किया. बधाई शिरीष भाई.
शिरीष की कविताओं में चीजें अपना मूल स्वभाव त्याग कर सामने आती हैं. मसलन तैंदुवे से भय नहीं लगता, बांज के पेड़ों से ठंडक नहीं, देवता मनुष्यों के संगी साथी जैसे लगते है और पताका/ ध्वजा सिर्फ़ फहरती नहीं, बाकी सब करती हैं. इस तरह मानव जीवन में दुःख, हताशा के नए रूपक आविष्कृत होते हैं और रिश्तों में दुराव, लगाव के नए मिकदार भी. इस तरह
समकालीन जीवन में स्मित के पीछे का लंबा आर्तनाद और ऊष्मा की शीत तासीर हमें भौंचक्का कर जाती है.
निश्चित तौर पर बेहद असरदार और अच्छी कविताएँ हैं जो स्मृतियों की नमी से गीली होकर भी अतीतजीविता की कारा की बन्दी नहीं हैं। कवि कभी पहाड़ों में रहता रहा होगा, और अब जबकि वह पहाड़ों का वासी नहीं तो पहाड़ उसके भीतर बसने लगे हैं। अंतर्यात्रा की यह पारस्परिकता इन कविताओं की निर्मिति और उद्देश्य को बिल्कुल भिन्न अर्थ देती जहाँ वे नॉस्टेल्जिया के रूमान में गिरफ़्तार होने के बजाए ख़ुद को नई मिट्टी और नए मौसम में पुरानी जड़ों और ज़िद के साथ प्रत्यारोपित करने का दुसाध्य और चुनौतीपूर्ण काम करते हैं।
शिरीष निर्विवाद रूप से अपने शिल्प और अन्वेषण की दृष्टि से मौजूदा पीढ़ी में एक अलहदा मूल्यांकन के हक़दार हैं। उनकी काव्यचिन्ता भी विरल और अभेद्य है जो उनके लिखे गए को पढ़ने के लिए हर दफ़ा उकसाती है।
जीवन में जो कुछ भी सामान्य लगता है वह शिरीष जी की कविताओं में अपने गहनतम बोध के साथ प्रकट होता है।कविताएँ अपनी तरलता व सच्चाई से पाठक का मन इस कदर भीजो देती है..कि उनसे निकलने की राह नहीं मिलती।
शिरीष जी के सृजन-संसार से हमेशा प्रेरणा मिलती रही है…उन्हें हार्दिक मंगलकामनाएं।इतनी सुंदर,समर्थ कविताएँ पढ़वाने के लिए समालोचन का भी आभार!
सर की कविताओं को पढ़कर मुझे मेरा गांव याद आ रहा है।