मृत लेकिन जीवित
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कई बार बेहद छोटे से लगने वाले प्रसंग अतीत के स्याह झरोखों में झांकने का अचानक मौका देते हैं.
दो साल पहले ऐसे ही अनुभव से हम रूबरू थे.
जर्मनी के बॉन शहर की सुनसान सड़क पर एक दुकान के पास मुड़ते हुए सपने में भी नहीं सोचा था कि सड़क पर एक मकान के बिल्कुल सामने करीने से ठोंकी गयीं पीतल की चौकोर प्लेटें- जिन पर कुछ लोगों के विवरण अंकित थे- हमें अचानक लगभग अस्सी साल पहले उसी मकान के चार निवासियों के साथ क्या हुआ था, इसकी दास्तां से रूबरू करवाएंगी.
दरअसल हम लोग अचानक पीतल की उन प्लेटों से टकराए थे, जो उस मकान के सामने दरवाजे के पास ही फुटपाथ पर ठोंकी गयीं थीं.
आप समझ सकते हैं कि मकान का दरवाज़ा फुटपाथ पर ही खुलता था और दरवाजे के दोनों तरह कुछ दुकानें थीं, जैसा दृश्य दुनिया के किसी भी शहर, नगर में देखा जा सकता है.
फुटपाथ में ठोंकी गयीं इन प्लेटों की संख्या चार थी, जिनमें से बायीं तरफ पर शायद परिवार के मुखिया का नाम अंकित था ‘बर्नहार्ड मार्क्स’ जबकि दाहिनी तरफ की प्लेटों में परिवार के अन्य सदस्यों- एरना मार्क्स (जन्म: 1899), हेलेना (जन्म: 1929) और जुली (जन्म: 1938) दर्ज थी और बाकी विवरण वही थे.
जैसा कि विवरण से ही स्पष्ट था कि इन चार प्लेटों का संबंध- जिनका क्षेत्रफल अधिक से अधिक 9 वर्गइंच था- जर्मनी के इतिहास के उस डरावने दौर से था जब लाखों की तादाद में निरपराध लोग- यहुदी, रोमा, जेहोवाज विटनेसेसे सम्प्रदाय से जुड़े लोग, समलैंगिक यहां तक कि राजनीतिक विरोधी भी- सफाये का शिकार हुए थे, जब उन्हें यातना शिविरों में गैस चेम्बर्स में भेज कर मारा गया था और यातना शिविरों के अपने सीमित आवास के दौरान उन पर तरह-तरह के खतरनाक प्रयोग भी चले थे.
उस स्थान के निवासी मार्क्स परिवार को- बर्नहार्ड, उनकी पत्नी एरना और दो बेटियां हेलेना और जुली, चारों को मिन्स्क के यातना शिविर में भेजा गया था और जैसे कि प्लेट पर अंकित तारीख बता रही थी कि वहां पहुंचने के महज चार दिन के अन्दर उनकी हत्या कर दी गयी थी. मिन्स्क यातना शिविर में कितने लोग मारे गए थे, इसका प्रत्यक्ष विवरण तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन दो साल के अंदर वहां कम से कम 65,000 यहूदियों का नस्लीय सफाया कर दिया गया था.
जाहिर है कि इतने बड़े पैमाने पर आयोजित इस जनसंहार में बर्नहार्ड मार्क्स, उनकी पत्नी एरना, और बेटियां हेलेना और जुली, महज एक संख्या के तौर पर गिने जा रहे थे.
हम महज कल्पना ही कर सकते हैं कि उस दुर्भाग्य पूर्ण दिन क्या हुआ होगा.
हो सकता है कि जर्मन सेना के चन्द नुमाइन्दे या नात्सी तूफानी दस्तों के लोग बर्नहार्ड के घर पहुंचे होंगे और उन्होंने उन सभी को साथ में लाए गए किसी ट्रक में या वाहन में ढकेला होगा, जबकि उनके तमाम मोहल्ले वाले बर्नहार्ड के मकान के इर्दगिर्द इकट्ठे हुए होंगे और जश्न की मुद्रा बना रहे होंगे. जर्मन सेना के उन नुमाइन्दों की हौसला अफजाई कर रहे होंगे.
मुमकिन है सबकुछ इतना ‘व्यवस्थित’ नहीं भी हुआ हो, सैकड़ों की तादाद में भीड़ वहां जमा हुई हो जो ‘हेल हिटलर’ अर्थात ‘हिटलर की जय हो’ के नारे लगा रही हो और उन्होंने पलक झपकते ही बर्नहार्ड, एरना, हेलेना आदि को पीटना शुरू किया हो, जबकि छोटी जुली अपनी मां के पहलू में अपने आप को छिपाने का असफल प्रयास कर रही हो.
और फिर हो सकता है कि पीटते-पीटते ही उन्हें हिटलर के नात्सी सिपाहियों के सुपुर्द किया गया हो और फिर किसी ट्रेन में या ट्रक में उनकी रवानगी मिन्स्क हुई हो !
चीज़ें जैसे घटित हुईं होंगी इसका विवरण पता नहीं कहीं मिलेगा या नहीं, लेकिन पीतल की प्लेटे- जो बर्नहार्ड मार्क्स परिवार के उस भूतपूर्व मकान के सामने ही फुटपाथ पर ठोंकी गयी थी, इस बात की ताईद जरूर कर रहीं थीं कि 20 जुलाई 1942 का वह दिन उनके लिए मौत का वारंट लेकर आया था.
उन पीतल की प्लेटों को बारीकी से निहारते हुए हमें देख कर हमारे साथ चल रही उर्मि- हमारी बेटी- जो उन दिनों वहां रिसर्च के काम में मुब्तिला थी, रूक गयी थी.
फुटपाथ पर अचानक रूक कर, जहां लोग आ जा भी रहे थे, उन प्लेटों को देख रहे अपने माता पिता के चेहरे पर एकत्रित आश्चर्य और चिंता की लकीरों को देखते हुए वह चुपचाप वहां खड़ी रह गयी थी. और फिर जब हमने उसकी तरफ देखा तो अपने मौन को तोड़ कर उसने उन अलग किस्म के ‘स्मारकों’ के बारे में बताया था, जो उस स्याह दौर की याद दिलाने के लिए जगह बने हैं.
उसने हमें धीरे से बताया कि इन्हें स्टोलपेरस्टाईन कहते हैं.
जर्मन भाषा में स्टोलपेर का मतलब होता है ‘स्टम्बल अर्थात ठोकर लगना’ और ‘स्टाईन’ का अर्थ होता है पत्थर.
मोटा मोटी समझें कि फुटपाथ या सड़क पर हल्की सी ठोकर लग कर जब आप रूक जाएं और फिर सोचें कि किस तरह एक ऐसा वक्त था जब इसी सरजमीन पर सात-आठ दशक पहले हाड मांस के इनसानों के साथ बाकियों ने वहशी सलूक किया था, महज इस वजह से कि वह इस मामले में अलग थे कि वह किसी अलग मत को माननेवाले थे, जिस समाज पर जिसके इतिहास पर हम गर्व करते हैं उसका एक स्याह पन्ना यह भी है.
जानकारों के मुताबिक पूरे यूरोप में जगह-जगह ऐसे ‘स्मारकों’ को आप पाएंगे.
उसने हमें बताया कि इन पीतल की प्लेटों के अलग-अलग जगह-जगह जहां ऐसे वाकये हुए थे- लगाने का मकसद है कि आज की पीढ़ी को इस बात के लिए लगातार जागरूक करते रहा जाए कि तीस के दशक के उत्तरार्द्ध में या चालीस के दशक के पूर्वार्ध में आखिर क्या घटित हुआ था और इस पर लगातार विचार करते रहा जाए कि क्यों और किस तरह अपने समाज का ही एक बड़ा हिस्सा उन दिनों बर्बरों को भी शरमा देनेवाले हिंसाचारियों, दंगाइयों में तबदील हुआ था.
यूं तो दुनिया भर में फैले नामी-अनाम लोगों के स्मारकों के विवरण किसी एक स्थान पर एकत्रित नहीं होंगे, लेकिन अनाम लोगों के नाम बने स्मारकों के तौर पर देखें तो हजारों की तादाद में बने यह स्मारक संख्या के मामले में दुनिया भर में नंबर एक पर आ सकते हैं.
अगर दुनिया के पैमाने पर किसी खास मुद्दे को लेकर स्मारकों की कभी गिनती होने लगे तो शायद स्टोलपेरस्टाईन अव्वल नंबर पर आएंगे.
वैसे कब बना था पहला स्टोलपेरस्टाईन ?
थोड़ा इंटरनेट पर खोजने पर कुछ दिलचस्प जानकारियां मिलीं !
दरअसल यह प्रोजेक्ट एक अकेले कलाकार गुंटर डेमनिग (http://www.stolpersteine.eu/en/faq/) की कोशिशों का नतीजा है, और जिन्होंने पहला ऐसा स्मारक 1992 में कायम किया था जब आशवित्ज हुक्मनामा के पचास साल पूरे हुए थे जिसके तहत हिटलर के अनन्य सहयोगी हाइनरिच हिमलर ने यहूदियों और अन्य ‘अवांछितों’ के निष्कासन के लिए तथा उनके सामूहिक संहार के लिए इस आदेश पर दस्तखत किए थे (1942). डेमनिग ने उस रास्ते को चिन्हित करते हुए कि उनके अपने शहर कोलोन के यहूदियों ने उस दिन ट्रेन स्टेशन पहुंचने के लिए कौनसा रास्ता अख्तियार किया था और सिटी हॉल- जहां उन सभी को एकत्रित किया गया था- वहीं पर पहला स्टोलपेरस्टाइन कायम किया.
(https://theculturetrip.com/europe/germany/articles/stumbling-upon-europes-stolpersteine)
डेमनिग जो खुद एक यहूदी हैं और आस्तिक हैं, यहूदी धर्म के एक पवित्र कहे जाने वाले ग्रंथ ‘तालमुड’ (Talmud) की एक उक्ति को उद्धृत करते बताते हैं कि
‘‘एक व्यक्ति पूरी तरह विस्मृत तभी होता है जब उसका नाम विस्मृत होता है’.”
गौरतलब है कि पहला स्टोलपेरस्टाईन कायम करने का एक मकसद यह भी था कि उन दिनों जर्मनी में इस बात को लेकर बहस जारी थी कि रोमा लोगों को- जिन्हें उन दिनों युगोस्लाविया से खदेड़ा जा रहा था- क्या जर्मनी में रहने की अनुमति दी जाय या नहीं. आम भाषा में जिप्सी कहलानेवाले यह लोग होलोकास्ट के दिनों में अर्थात यहूदियों के जननिष्कासन एवं उनके नस्लीय शुद्धिकरण के दिनों में भी उसी तरह प्रताडना का शिकार हुए थे.
कुछ साल पहले की रिपोर्ट के मुताबिक यूरोप के 20 से अधिक मुल्कों के 1,200 से अधिक शहरों में 56,000 से अधिक ऐसे स्मारक बनाए गए हैं. यूं तो पीड़ितों के रिश्तेदार दरअसल इसके विस्तार के पीछे मुख्य तौर पर हैं, जिनके जरिए इन नस्लीय सफाये की मुहिम में मारे गए तमाम अनामों को कुछ पहचान, मानवता प्रदान की जा सके.
हर स्टोलपेरस्टाईन को डेमनिग अपने हाथों से ही बनाते हैं. एक साक्षात्कार के दौरान 70 साल के हो चुके डेमनिग ने इसके पीछे की उनकी समझदारी बयां की थी:
‘दरअसल जब आप ऐसे किसी पत्थर के पास रूक जाते हैं तो वह आप के अंदर की इनसानियत की भावना को पैदा कर सकता है और दूसरे से जुड़ने के लिए आप को प्रेरित कर सकता है. यह बात बेहद जरूरी है ताकि भविष्य में ऐसा कोई जनसंहार न हो.’ (वही)
दिलचस्प बात है कि स्टोलपेरस्टाईन का कायम किया जाना बमुश्किल तीस साल पुराना सिलसिला है.
यह पूछा जाना लाजिमी है कि आखिर डेमनिग जैसे एक जुनूनी कहे जा सकने वाले कलाकार, संवेदनशील इनसान की यह परियोजना कैसे मुमकिन हुई है जहां वह बताते हैं कि युवा लोग उनसे तथा उनकी टीम से संपर्क करते हैं और अपने-अपने शहरों में स्टोलपेरस्टाईन लगाने की बात करते हैं ? आखिर यह युवा- जिन्होंने न नात्सीकाल देखा, न उसकी प्रताडनाएं झेलीं आखिर क्यों ऐसे स्मारकों को कायम करना चाहते हैं कि नात्सीवाद के पीड़ितों की स्मृतियाँ जिन्दा रखी जा सकें.
निस्संदेह, डेमनिग से संपर्क करनेवालों में हो सकता है यहूदी युवाओं का बहुलांश हो, या उन जिप्सी, रोमा या विद्रोही किस्म के जनतंत्रवादियों के रिश्तेदार हों जो इस नस्लीय सफाये में मारे गए. लेकिन इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि आखिर आज जब यहूदियों की तादाद खुद जर्मनी में भी काफी घट गयी है, ऐसे स्मारकों को लेकर आम स्वीकार्यता क्यों है ?
इसे संयोग कह सकते हैं कि स्टोलपेरस्टाईन के बारे में पहली दफा पता लगने के दो दिन बाद बॉन शहर के एक दूसरे हिस्से में- जहां एशियाई लोग तुलना में ज्यादा हैं- किसी होटल में बैठे हुए जिसका संयोग से इसका संचालन कोई अफगानी परिवार ही कर रहा था, बेटी की एक सहपाठी एवं उसके अफगानी युवा मित्र से मुलाकात हुई, जो वहां इंजीनियर के तौर पर काम कर रहा था. गपशप के दौरान हम ने स्टोलपेरस्टाईन को लेकर अपने आश्चर्यजनित भावों को उसके साथ साझा किया. उसके लिए भी उन ‘स्मारकों’ का होना एक सामान्य घटना थी, बॉन से थोड़ा दूर किसी गांवनुमा जगह में उसकी रिहायश थी और उसने हमें यह बता कर और अचंभित कर दिया कि जहां वह रहता था, उस इलाके में भी कई जगह पर ऐसे स्टोलपेरस्टाईन लगे हैं. उससे जब पूछा गया कि क्या गांव में या आसपास के इलाके में कोई यहूदी परिवार अभी बचे हैं.
‘नहीं’! अधिकतर तो उन्हीं दिनों यातना शिविरों में ही भेजे गए, बाकी बचे दो तीन परिवार वहां से निकल ही गए.
यह बेहद असामान्य घटना लगी कि अतीत की अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने के लिए समाज कितना प्रतिबद्ध है, समर्पित है.
बरबस, अपनी आंखों के सामने बीसवीं सदी में या इक्कीसवीं सदी के इन दो दहाइयों में देश-दुनिया में हुए तमाम जन संहारों की तस्वीरों का एक कोलाज उभरा और यह सोचने लगा कि क्या किसी अलसुबह इस बात की कल्पना की जा सकती है कि इन तमाम जगहों, स्थानों पर जहां किसी को मजहब के नाम पर, किसी को नस्ल के नाम पर, किसी को वर्गीय या जातीय नफरत के तहत सामूहिक कत्लेआम का शिकार बनाया गया हो, वहां ऐसे स्मारक बन सकेंगे ताकि इंसानियत एक दूसरे को याद दिला सके कि ऐसी हिंसा अब और नहीं !
बेहद महत्वपूर्ण लेख ‘‘एक व्यक्ति पूरी तरह विस्मृत तभी होता है जब उसका नाम विस्मृत होता है’.” एकदम सही। सत्ता के निरंकुशता के शिकार लोगों की नाम सूची बनाने और सार्वजनिक स्थलों पर लगाने का अभियान क्यों न चला दिया जाए? जनता के संज्ञान में रहेगा कि किस अवधि में कितने लोगों के दैहिक अस्तित्व को क्रूर व्यवस्था ने मिटा डाला।
इस आलेख से मालूम हुआ कि नाजियों को जर्मनी की आबादी के एक बहुत बड़े भाग(लगभग दसवां) का मौन या मुखर समर्थन था। मैंने भी कहीं पढ़ा था कि मार्टिन हाइडेगर भी फासीवाद का समर्थक था और खुद हिटलर की पार्टी का सदस्य था। सदस्य ही नहीं वहाँ के विश्वविद्यालय का रेक्टर भी था।कई दार्शनिकों की दृष्टि में वह उस समय का एक बड़ा दार्शनिक था। अब इसका समाजशास्त्रीय अध्ययन भी हुआ होगा कि ऐसा क्यों हुआ ? अगर नहीं हुआ तो होना चाहिए। वैसे सतही तौर पे इसका एक कारण नस्ली शुद्धता(नस्लवाद) और अंध राष्ट्रवाद का जुनून तो है ही। हमेशा की तरह सुभाष जी ने इसबार भी एक बहुत हीं मानवीय सवाल और ज्वलंत मुद्दा उठाया है।उन्हें साधुवाद !
Dilchasp lekh shukriya
बेहतरीन आलेख। ऐसे लेख पाठकों के मन-मस्तिष्क में देर तक बने रहते हैं। इनकी अनुगूंज कायम रहती है।
यह बात गौरतलब है कि समाज अपने अतीत की गलतियों को याद रखें। यह एक बेहतर समाज रचने का तरीका है।
इस आलेख को पढ़ते हुए एक बार फिर शिद्दत के साथ महसूस हुआ कि मनुष्यता के भविष्य के हित में इतिहास की स्मृति कितनी ज़रूरी है।
साधुवाद।
अंदर से हिला कर रख देने वाला आलेख – मैं यह सोचने लगा कि यह देश भी कितनी तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है।
स्मृतियों को मिटा देने की मुहिम रोकनी ही होगी।सुभाष जी को सलाम।
यादवेन्द्र
आप सभी की प्रतिक्रियाएं मन की मायूसी को थोड़ी दूर करनेवाली हैं कि इस अंधेरे समय में भी कई हमखयाल लोग मौजूद हैं …
रविंद्र गोयलजी, दयाशंकर शरणजी एवं रश्मिजी का बहुत बहुत शुक्रिया, लेख पर अपनी राय प्रगट करने या इसी बहाने नात्सीवाद के इतिहास पर महत्वपूर्ण बात कहने के लिए या ‘सत्ता की निरंकुशता’ के शिकार लोगों को अपने ढंग से आज भी याद करने’ की जरूरत को रेखांकित करने के लिए।
यादवेंद्रजी ने बिल्कुल सही कहा है कि ‘देश कितनी तेजी से उस दिशा में आगे बढ़ रहा है’ या रविरंजनजी या अनुप सेठीजी ने ‘इतिहास में स्म्रति’ की अहमियत या समाज द्वारा अपनी ‘गलतियों को याद रखने’ की बात कही है। सौरभजी को भी साधुवाद !
निश्चय ही यह बेहद महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विषय पर आधारित लेख है। इसके लिए लेखक को बधाई। परंतु स्टोलपेरस्टाईन जैसी परियोजनाएं सम्भवतः पूंजीवाद से प्रभावित एक राजनीतिक प्रोपेगैंडा प्रतित होती है, जो अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं को आम जनमानस के मष्तिष्क पर नगण्य कर देती है। ऐसी परियोजनाएं एक खास किस्म के स्मृतियों को महत्वपूर्ण बना कर अन्य सभी ऐतिहासिक तथ्यों को गौंड़ कर देती है।