उस दिन जब सड़क पर निकले तो फिर हम जर्मन समाज के उस सत्तर-अस्सी साला विवादास्पद अतीत की एक झलक से फिर एक बार रूबरू थे.
इत्तफाक से जिस सड़क के किनारे खड़े होकर हम बस का इंतज़ार कर रहे थे वह हाउसडार्फ के नाम से बनी थी.
चौराहे का भी नाम था- Hausdarffstrasse अर्थात हाउसडार्फ मार्ग.
उम्र के जिस पड़ाव पर हम हैं उसमें स्मृतियों का और स्मृतिलोप का ऐसा विचित्र घालमेल होता रहता है कि कई बार अपने ऊपर ही हंसी आती है, लेकिन अचानक याद आया कहीं यहां महान गणितज्ञ फेलिक्स हाउसडार्फ की तो बात नहीं हो रही है, जिनके बारे में कॉलेज के दिनों में थोड़ा पता चला था.
दरअसल यहूदी परिवार में जनमे यह वही फेलिकस हाउसडार्फ थे, जिन्हें आधुनिक टोपोलॉजी के जनकों में से एक माना जाता है, जिन्होंने गणित के कई क्षेत्रों में अहम योगदान दिए थे और जिन्होंने हिटलर के उभार के दिनों में जब यहूदियों का नस्लीय सफाया चल रहा था, उन दिनों अपनी पत्नी एवं एक अन्य महिला रिश्तेदार के साथ आत्महत्या कर ली थी. जर्मन सरकार ने फरमान जारी किया था कि उन्हें एंडेनिच शिविर- जहां तमाम यहूदियों को भेजा जा रहा था- जाना होगा, और वह जानते ही थे कि एंडेनिच में उनके साथ क्या सलूक होगा. तारीख थी 26 जनवरी 1942.
हिटलर के सत्ता पर पकड़ मजबूत करने के साथ फेलिक्स हाउसडार्फ के लिए जर्मनी में रहना लगातार मुश्किल हो रहा था. वह कोशिश में थे कि अमेरिका चले जाएं, लेकिन उन्हें वहां रिसर्च फेलोशिप तक नहीं मिल सकी थी. बताया जाता है कि उनके जीवन का वह एक अहम मुक़ाम था जब नात्सी विद्यार्थियों ने उनकी कक्षा को चलने नहीं दिया था. अध्यापक समूह में हिटलर समर्थकों की कोई कमी नहीं थी और जिनकी शह इस नात्सी विद्यार्थियों को थी.
आलम यह बन गया था कि लगभग पचास साल से अधिक समय से अध्यापन एवं रिसर्च के क्षेत्र में सक्रिय रहे हाउसडार्फ के विश्वविद्यालय प्रवेश पर भी पाबंदी लगी थी, पुस्तकालय की किताबें मिलना तो और दूर रहा. उनके एक परिचित अध्यापक थे, जो उनके लिए पुस्तकालय से किताबें ले आते थे.
इस मुश्किल होते जा रहे हालात में ही हाउसडार्फ को सरकार की तरफ से वह परवाना मिल गया था कि उन्हें फलां फलां तारीख को यातना शिविर जाना होगा और फिर उन्होंने आत्महत्या कर ली थी. (26 जनवरी 1942) मरते वक्त उनकी उम्र 74 साल थी.
आत्महत्या के पहले अपने यहूदी मित्र एवं वकील को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा था:
प्रिय मित्र वोलेस्टाईन,
जब तुम इन पंक्तियों को पढ़ रहे होगे, तब हम तीनों ने इस समस्या का अलग समाधान चुना होगा- जिसके बारे में तुम लगातार हमें समझाते रहे. सुरक्षा की वह भावना जिसके बारे में तुमने भविष्यवाणी की थी जब हम जगह बदलने के लिए तैयार थे, आज भी हमसे दूर है; एंडेनिच शिविर, जहां जाने का आदेश उन्हें जर्मन सरकार ने दिया था.
हाल के महीनों में यहूदियों के साथ जो हुआ है वह उसी डर को सही साबित करता दिखता है कि वह हमें एक सहनीय समाधान का रास्ता भी ढूंढने नहीं देंगे.
अलविदा !!
पत्र के अंत में अपने दोस्तों का शुक्रिया अदा करते हुए, बेहद गंभीरता के साथ अपने अंतिम संस्कार या मृत्यु पत्र आदि की बात करते हुए हाउसडार्फ लिखते हैं:
मुझे माफ करना कि हम लोगों ने अपनी मौत के बाद भी तुम्हें अधिक मुसीबत में डाला है और हमें यकीन है कि तुम जितना संभव है उससे भी अधिक कर रहे हो. इस तरह बीच में ही छोड़ कर जाने के लिए हमें माफ करना.
हमारी कामना है तुम और हमारे सभी दोस्त बेहतर दिन देख सकें.
यह अलग बात है कि यह कामना पूरी नहीं हो सकी. हाउसडार्फ के वकील वोलस्टाईन ऑशवित्झ में मार दिए गए. वहीं ऑशवित्झ जहां लाखों यहूदियों को यातना शिविर में भेजा गया था और उनमें से गिनेचुने ही जिंदा लौट सके थे.
हम लोग जहां बस के लिए खड़े थे, जिस सड़क को उनका नाम दिया गया था, वह वहीं पर किसी मकान में रहते थे.
अपने मन की आंखों के सामने वह समूचा नज़ारा नमूदार हो रहा था, जब अपनी जिंदगी के अंतिम दशक से अधिक वक्त इस महान गणितज्ञ ने बेबसी में गुजारा होगा, और दिन रात किसी बाहरी विश्वविद्यालय से एक अदद नौकरी की ऑफर का परवाना चाहा होगा.
कहीं आगे निकलने की जल्दी थी जिस वजह से उस सड़क पर टहलते हुए उनके मकान को ढूंढने की हमारी ख्वाहिश धरी की धरी रह गयी. इतना अंदाज़ा था कि असली मकान बदल गया होगा, मुमकिन है नए मालिक ने अपने मकान के दरवाजे पर यह पटटी भी चस्पां की होगी कि
‘यह वही मकान है जहां कभी महान गणितज्ञ हाउसडार्फ रहते थे जिन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा था.’
मन ही मन इतना ही सुकून लगा कि भले ही उनके जीते जी उन्हें नस्लीय अपमान का जबरदस्त सामना करना पड़ा हो, लेकिन 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही ऐसे तमाम अपमानों को अलविदा कहने की और अपने ही विवादास्पद अतीत से तौबा करने की मुहिम ने जर्मनी के दोनों हिस्सों में- जब जर्मनी पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी में बंटा था- अपने-अपने स्तर पर सुनियोजित कोशिश चल पड़ी.
आज की तारीख में जर्मनी में इस महान गणितज्ञ (8 नवंबर 1868 – जनवरी 26, 1942) की याद को संजोने की पूरी कोशिश की है. खुद बॉन में ही हाउसडार्फ़ सेंटर फार मेथेमेटिक्स है तथा हाउसडार्फ रिसर्च इन्स्टिटयूट फॉर मैथेमेटिक्स है तो उत्तर पूर्वी जर्मनी के ग्रिफस्वाल्ड स्थिति विश्वविद्यालय में उन्हीं की याद में अंतरराष्ट्रीय संस्थान बना है.
बेहद महत्वपूर्ण लेख ‘‘एक व्यक्ति पूरी तरह विस्मृत तभी होता है जब उसका नाम विस्मृत होता है’.” एकदम सही। सत्ता के निरंकुशता के शिकार लोगों की नाम सूची बनाने और सार्वजनिक स्थलों पर लगाने का अभियान क्यों न चला दिया जाए? जनता के संज्ञान में रहेगा कि किस अवधि में कितने लोगों के दैहिक अस्तित्व को क्रूर व्यवस्था ने मिटा डाला।
इस आलेख से मालूम हुआ कि नाजियों को जर्मनी की आबादी के एक बहुत बड़े भाग(लगभग दसवां) का मौन या मुखर समर्थन था। मैंने भी कहीं पढ़ा था कि मार्टिन हाइडेगर भी फासीवाद का समर्थक था और खुद हिटलर की पार्टी का सदस्य था। सदस्य ही नहीं वहाँ के विश्वविद्यालय का रेक्टर भी था।कई दार्शनिकों की दृष्टि में वह उस समय का एक बड़ा दार्शनिक था। अब इसका समाजशास्त्रीय अध्ययन भी हुआ होगा कि ऐसा क्यों हुआ ? अगर नहीं हुआ तो होना चाहिए। वैसे सतही तौर पे इसका एक कारण नस्ली शुद्धता(नस्लवाद) और अंध राष्ट्रवाद का जुनून तो है ही। हमेशा की तरह सुभाष जी ने इसबार भी एक बहुत हीं मानवीय सवाल और ज्वलंत मुद्दा उठाया है।उन्हें साधुवाद !
Dilchasp lekh shukriya
बेहतरीन आलेख। ऐसे लेख पाठकों के मन-मस्तिष्क में देर तक बने रहते हैं। इनकी अनुगूंज कायम रहती है।
यह बात गौरतलब है कि समाज अपने अतीत की गलतियों को याद रखें। यह एक बेहतर समाज रचने का तरीका है।
इस आलेख को पढ़ते हुए एक बार फिर शिद्दत के साथ महसूस हुआ कि मनुष्यता के भविष्य के हित में इतिहास की स्मृति कितनी ज़रूरी है।
साधुवाद।
अंदर से हिला कर रख देने वाला आलेख – मैं यह सोचने लगा कि यह देश भी कितनी तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है।
स्मृतियों को मिटा देने की मुहिम रोकनी ही होगी।सुभाष जी को सलाम।
यादवेन्द्र
आप सभी की प्रतिक्रियाएं मन की मायूसी को थोड़ी दूर करनेवाली हैं कि इस अंधेरे समय में भी कई हमखयाल लोग मौजूद हैं …
रविंद्र गोयलजी, दयाशंकर शरणजी एवं रश्मिजी का बहुत बहुत शुक्रिया, लेख पर अपनी राय प्रगट करने या इसी बहाने नात्सीवाद के इतिहास पर महत्वपूर्ण बात कहने के लिए या ‘सत्ता की निरंकुशता’ के शिकार लोगों को अपने ढंग से आज भी याद करने’ की जरूरत को रेखांकित करने के लिए।
यादवेंद्रजी ने बिल्कुल सही कहा है कि ‘देश कितनी तेजी से उस दिशा में आगे बढ़ रहा है’ या रविरंजनजी या अनुप सेठीजी ने ‘इतिहास में स्म्रति’ की अहमियत या समाज द्वारा अपनी ‘गलतियों को याद रखने’ की बात कही है। सौरभजी को भी साधुवाद !
निश्चय ही यह बेहद महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विषय पर आधारित लेख है। इसके लिए लेखक को बधाई। परंतु स्टोलपेरस्टाईन जैसी परियोजनाएं सम्भवतः पूंजीवाद से प्रभावित एक राजनीतिक प्रोपेगैंडा प्रतित होती है, जो अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं को आम जनमानस के मष्तिष्क पर नगण्य कर देती है। ऐसी परियोजनाएं एक खास किस्म के स्मृतियों को महत्वपूर्ण बना कर अन्य सभी ऐतिहासिक तथ्यों को गौंड़ कर देती है।