• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » कोई समाज जनसंहार को किस तरह याद रखता है?: सुभाष गाताडे » Page 2

कोई समाज जनसंहार को किस तरह याद रखता है?: सुभाष गाताडे

‘एक व्यक्ति पूरी तरह विस्मृत तभी होता है जब उसका नाम विस्मृत होता है.’ यह कथन कितना कठोर और वास्तविक है. हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों के नामों निशाँ मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन एक अकेले ‘गुंटर डेमनिग’ ने उन नामों को फिर से जीवित कर दिया. लेखक-विचारक सुभाष गाताडे का लेख बताता है कि कैसे? और कितने प्रभावशाली ढंग से ‘गुंटर डेमनिग’ ने यह कार्य किया.

by arun dev
August 2, 2021
in आत्म, समाज
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

 

उस दिन जब सड़क पर निकले तो फिर हम जर्मन समाज के उस सत्तर-अस्सी साला विवादास्पद अतीत की एक झलक से फिर एक बार रूबरू थे.

इत्तफाक से जिस सड़क के किनारे खड़े होकर हम बस का इंतज़ार कर रहे थे वह हाउसडार्फ के नाम से बनी थी.

चौराहे का भी नाम था- Hausdarffstrasse अर्थात हाउसडार्फ मार्ग.

उम्र के जिस पड़ाव पर हम हैं उसमें स्मृतियों का और स्मृतिलोप का ऐसा विचित्र घालमेल होता रहता है कि कई बार अपने ऊपर ही हंसी आती है, लेकिन अचानक याद आया कहीं यहां महान गणितज्ञ फेलिक्स हाउसडार्फ की तो बात नहीं हो रही है, जिनके बारे में कॉलेज के दिनों में थोड़ा पता चला था.

दरअसल यहूदी परिवार में जनमे यह वही फेलिकस हाउसडार्फ थे, जिन्हें आधुनिक टोपोलॉजी के जनकों में से एक माना जाता है, जिन्होंने गणित के कई क्षेत्रों में अहम योगदान दिए थे और जिन्होंने हिटलर के उभार के दिनों में जब यहूदियों का नस्लीय सफाया चल रहा था, उन दिनों अपनी पत्नी एवं एक अन्य महिला रिश्तेदार के साथ आत्महत्या कर ली थी. जर्मन सरकार ने फरमान जारी किया था कि उन्हें एंडेनिच शिविर- जहां तमाम यहूदियों को भेजा जा रहा था- जाना होगा, और वह जानते ही थे कि एंडेनिच में उनके साथ क्या सलूक होगा. तारीख थी 26 जनवरी 1942.

हिटलर के सत्ता पर पकड़ मजबूत करने के साथ फेलिक्स हाउसडार्फ के लिए जर्मनी में रहना लगातार मुश्किल हो रहा था. वह कोशिश में थे कि अमेरिका चले जाएं, लेकिन उन्हें वहां रिसर्च फेलोशिप तक नहीं मिल सकी थी. बताया जाता है कि उनके जीवन का वह एक अहम मुक़ाम था जब नात्सी विद्यार्थियों ने उनकी कक्षा को चलने नहीं दिया था. अध्यापक समूह में हिटलर समर्थकों की कोई कमी नहीं थी और जिनकी शह इस नात्सी विद्यार्थियों को थी.

आलम यह बन गया था कि लगभग पचास साल से अधिक समय से अध्यापन एवं रिसर्च के क्षेत्र में सक्रिय रहे हाउसडार्फ के विश्वविद्यालय प्रवेश पर भी पाबंदी लगी थी, पुस्तकालय की किताबें मिलना तो और दूर रहा. उनके एक परिचित अध्यापक थे, जो उनके लिए पुस्तकालय से किताबें ले आते थे.

इस मुश्किल होते जा रहे हालात में ही हाउसडार्फ को सरकार की तरफ से वह परवाना मिल गया था कि उन्हें फलां फलां तारीख को यातना शिविर जाना होगा और फिर उन्होंने आत्महत्या कर ली थी. (26 जनवरी 1942) मरते वक्त उनकी उम्र 74 साल थी.

आत्महत्या के पहले अपने यहूदी मित्र एवं वकील को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा था:

प्रिय मित्र वोलेस्टाईन,

जब तुम इन पंक्तियों को पढ़ रहे होगे, तब हम तीनों ने इस समस्या का अलग समाधान चुना होगा- जिसके बारे में तुम लगातार हमें समझाते रहे. सुरक्षा की वह भावना जिसके बारे में तुमने भविष्यवाणी की थी जब हम जगह बदलने  के लिए तैयार थे, आज भी हमसे दूर है; एंडेनिच शिविर, जहां जाने का आदेश उन्हें जर्मन सरकार ने दिया था.

हाल के महीनों में यहूदियों के साथ जो हुआ है वह उसी डर को सही साबित करता दिखता है कि वह हमें एक सहनीय समाधान का रास्ता भी ढूंढने नहीं देंगे.

अलविदा !!

पत्र के अंत में अपने दोस्तों का शुक्रिया अदा करते हुए, बेहद गंभीरता के साथ अपने अंतिम संस्कार या मृत्यु पत्र आदि की बात करते हुए हाउसडार्फ लिखते हैं:

मुझे माफ करना कि हम लोगों ने अपनी मौत के बाद भी तुम्हें अधिक मुसीबत में डाला है और हमें यकीन है कि तुम जितना संभव है उससे भी अधिक कर रहे हो. इस तरह बीच में ही छोड़ कर जाने के लिए हमें माफ करना.

हमारी कामना है तुम और हमारे सभी दोस्त बेहतर दिन देख सकें.

यह अलग बात है कि यह कामना पूरी नहीं हो सकी. हाउसडार्फ के वकील वोलस्टाईन ऑशवित्झ में मार दिए गए. वहीं ऑशवित्झ जहां लाखों यहूदियों को यातना शिविर में भेजा गया था और उनमें से गिनेचुने ही जिंदा लौट सके थे.

हम लोग जहां बस के लिए खड़े थे, जिस सड़क को उनका नाम दिया गया था, वह वहीं पर किसी मकान में रहते थे.

अपने मन की आंखों के सामने वह समूचा नज़ारा नमूदार हो रहा था, जब अपनी जिंदगी के अंतिम दशक से अधिक वक्त इस महान गणितज्ञ ने बेबसी में गुजारा होगा, और दिन रात किसी बाहरी विश्वविद्यालय से एक अदद नौकरी की ऑफर का परवाना चाहा होगा.

कहीं आगे निकलने की जल्दी थी जिस वजह से उस सड़क पर टहलते हुए उनके मकान को ढूंढने की हमारी ख्वाहिश धरी की धरी रह गयी. इतना अंदाज़ा था कि असली मकान बदल गया होगा, मुमकिन है नए मालिक ने अपने मकान के दरवाजे पर यह पटटी भी चस्पां की होगी कि

‘यह वही मकान है जहां कभी महान गणितज्ञ हाउसडार्फ रहते थे जिन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा था.’

मन ही मन इतना ही सुकून लगा कि भले ही उनके जीते जी उन्हें नस्लीय अपमान का जबरदस्त सामना करना पड़ा हो, लेकिन 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही ऐसे तमाम अपमानों को अलविदा कहने की और अपने ही विवादास्पद अतीत से तौबा करने की मुहिम ने जर्मनी के दोनों हिस्सों में- जब जर्मनी पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी में बंटा था- अपने-अपने स्तर पर सुनियोजित कोशिश चल पड़ी.

आज की तारीख में जर्मनी में इस महान गणितज्ञ (8 नवंबर 1868 – जनवरी 26, 1942) की याद को संजोने की पूरी कोशिश की है. खुद बॉन में ही हाउसडार्फ़ सेंटर फार मेथेमेटिक्स है तथा हाउसडार्फ रिसर्च इन्स्टिटयूट फॉर मैथेमेटिक्स है तो उत्तर पूर्वी जर्मनी के ग्रिफस्वाल्ड स्थिति विश्वविद्यालय में उन्हीं की याद में अंतरराष्ट्रीय संस्थान बना है.

Page 2 of 3
Prev123Next
Tags: फेलिक्स हाउसडार्फयहूदीहिटलर
ShareTweetSend
Previous Post

डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे: जीवन और स्वप्न: रवि रंजन

Next Post

न्यू आइसलैंड: हालडोर किलयान लैक्सनेस्स: अनुवाद: मधु बी. जोशी

Related Posts

हिटलर की गिरफ़्त में निर्देशिका :  विजय शर्मा
फ़िल्म

हिटलर की गिरफ़्त में निर्देशिका : विजय शर्मा

आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा: गरिमा श्रीवास्तव
कथा

आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा: गरिमा श्रीवास्तव

भयग्रस्‍त विवेक की आज्ञाकारिता: कुमार अम्‍बुज
फ़िल्म

भयग्रस्‍त विवेक की आज्ञाकारिता: कुमार अम्‍बुज

Comments 9

  1. Rashmi Rawat says:
    4 years ago

    बेहद महत्वपूर्ण लेख ‘‘एक व्यक्ति पूरी तरह विस्मृत तभी होता है जब उसका नाम विस्मृत होता है’.” एकदम सही। सत्ता के निरंकुशता के शिकार लोगों की नाम सूची बनाने और सार्वजनिक स्थलों पर लगाने का अभियान क्यों न चला दिया जाए? जनता के संज्ञान में रहेगा कि किस अवधि में कितने लोगों के दैहिक अस्तित्व को क्रूर व्यवस्था ने मिटा डाला।

    Reply
  2. दयाशंकर शरण says:
    4 years ago

    इस आलेख से मालूम हुआ कि नाजियों को जर्मनी की आबादी के एक बहुत बड़े भाग(लगभग दसवां) का मौन या मुखर समर्थन था। मैंने भी कहीं पढ़ा था कि मार्टिन हाइडेगर भी फासीवाद का समर्थक था और खुद हिटलर की पार्टी का सदस्य था। सदस्य ही नहीं वहाँ के विश्वविद्यालय का रेक्टर भी था।कई दार्शनिकों की दृष्टि में वह उस समय का एक बड़ा दार्शनिक था। अब इसका समाजशास्त्रीय अध्ययन भी हुआ होगा कि ऐसा क्यों हुआ ? अगर नहीं हुआ तो होना चाहिए। वैसे सतही तौर पे इसका एक कारण नस्ली शुद्धता(नस्लवाद) और अंध राष्ट्रवाद का जुनून तो है ही। हमेशा की तरह सुभाष जी ने इसबार भी एक बहुत हीं मानवीय सवाल और ज्वलंत मुद्दा उठाया है।उन्हें साधुवाद !

    Reply
  3. Ravinder Goel says:
    4 years ago

    Dilchasp lekh shukriya

    Reply
  4. सौरभ राय says:
    4 years ago

    बेहतरीन आलेख। ऐसे लेख पाठकों के मन-मस्तिष्क में देर तक बने रहते हैं। इनकी अनुगूंज कायम रहती है।

    Reply
    • anoopsethee says:
      4 years ago

      यह बात गौरतलब है कि समाज अपने अतीत की गलतियों को याद रखें। यह एक बेहतर समाज रचने का तरीका है।

      Reply
  5. रवि रंजन says:
    4 years ago

    इस आलेख को पढ़ते हुए एक बार फिर शिद्दत के साथ महसूस हुआ कि मनुष्यता के भविष्य के हित में इतिहास की स्मृति कितनी ज़रूरी है।
    साधुवाद।

    Reply
  6. Yadvendra Pandey says:
    4 years ago

    अंदर से हिला कर रख देने वाला आलेख – मैं यह सोचने लगा कि यह देश भी कितनी तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है।
    स्मृतियों को मिटा देने की मुहिम रोकनी ही होगी।सुभाष जी को सलाम।
    यादवेन्द्र

    Reply
  7. subhash gatade says:
    4 years ago

    आप सभी की प्रतिक्रियाएं मन की मायूसी को थोड़ी दूर करनेवाली हैं कि इस अंधेरे समय में भी कई हमखयाल लोग मौजूद हैं …

    रविंद्र गोयलजी, दयाशंकर शरणजी एवं रश्मिजी का बहुत बहुत शुक्रिया, लेख पर अपनी राय प्रगट करने या इसी बहाने नात्सीवाद के इतिहास पर महत्वपूर्ण बात कहने के लिए या ‘सत्ता की निरंकुशता’ के शिकार लोगों को अपने ढंग से आज भी याद करने’ की जरूरत को रेखांकित करने के लिए।

    यादवेंद्रजी ने बिल्कुल सही कहा है कि ‘देश कितनी तेजी से उस दिशा में आगे बढ़ रहा है’ या रविरंजनजी या अनुप सेठीजी ने ‘इतिहास में स्म्रति’ की अहमियत या समाज द्वारा अपनी ‘गलतियों को याद रखने’ की बात कही है। सौरभजी को भी साधुवाद !

    Reply
    • राजेश प्रसाद says:
      4 years ago

      निश्चय ही यह बेहद महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विषय पर आधारित लेख है। इसके लिए लेखक को बधाई। परंतु स्टोलपेरस्टाईन जैसी परियोजनाएं सम्भवतः पूंजीवाद से प्रभावित एक राजनीतिक प्रोपेगैंडा प्रतित होती है, जो अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं को आम जनमानस के मष्तिष्क पर नगण्य कर देती है। ऐसी परियोजनाएं एक खास किस्म के स्मृतियों को महत्वपूर्ण बना कर अन्य सभी ऐतिहासिक तथ्यों को गौंड़ कर देती है।

      Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक