बर्नहार्ड मार्क्स के परिवार की आपबीती के बहाने हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि किस तरह नात्सी शासन में यहूदियों, जिप्सियों तथा अन्य लोगों के साथ सलूक किया गया होगा ! कैसे उन्हें घरों से, बिजनेस प्रतिष्ठानों से, सरकारी संस्थानों से रफ्ता-रफ्ता खदेड़ा गया होगा. कैसे दशकों से तथा कहीं-कहीं पीढ़ियों से एक दूसरे के साथ रहते आए और अन्य लोगों के साथ सामंजस्य रखते हुए चलते आए यहुदी किसी अलसुबह दुश्मन घोषित किए गए होंगे, अपने ही पड़ोसी आप के दुश्मन के तौर पर आप के सामने नमूदार हुए होंगे.
आप ने ‘टॉयलैण्ड’ (Toyland, https://www.youtube.com/watch?v=PwrySjp4J9Q) नामक एक छोटी मूवी देखी है जिसे कुछ साल पहले ऑस्कर पुरस्कार मिला था ‘शार्ट फिल्म’ की श्रेणी में.
अगर न देखी हो तो जरूर देख लें.
फिल्म में 1940 के शुरुआती दिनों की जर्मनी के दो पड़ोसियों की कहानी बयां की गयी है, जिनमें से एक परिवार यहूदी है और एक परिवार क्रिश्चन. दोनों के बच्चों में- जो बमुश्किल छह सात साल के हैं- काफी दोस्ती है. यहूदी परिवार के पास सरकारी परवाना आ जाता है कि उन्हें यातना शिविर में फलां फलां दिन जाना है. यहुदी परिवार बेहद बेबस है और चाहे अनचाहे बच्चे के सामने भी कुछ फुसफुसाहट चलती रहती है. मेरीएन माइसनर- ईसाई परिवार की महिला- अपने बच्चे को यह कह कर फुसलाने की कोशिश करती है कि पड़ोसी परिवार कुछ दिनों में ‘टॉयलेण्ड’ अर्थात खिलौनों की दुनिया में जा रहे हैं. दूसरे दिन जबकि यहूदी परिवार वहां से रवाना होता है मेरीएन सुबह उठती है और देखती है कि उनका बच्चा गायब है. बच्चा रात भर इसी इंतजार में रहता है कि वह भी टॉयलेण्ड जाएगा और जब यहूदी परिवार निकल पड़ता है तब वह भी उनके साथ ट्रेन में बैठ जाता है.
फिल्म के आखरी हिस्से में मेरीएन माइसनर खुद अपने खोए बच्चे को ढूंढने निकल पड़ती है, बेतहाशा, बदहवास- जहां वह खुद नात्सी पुलिस के तानों, प्रताडना का शिकार होती है, मेरे खयाल से छोटी सी यह फिल्म भी हिटलर के जमाने में यहूदियों के साथ किस तरह की ज्यादतियां हुई थीं, उसकी कहानी बयां करती है. ‘टायलेण्ड’ महज जर्मनी में क्या हुआ इसे बयां करती फिल्म नहीं है, वह हमारे समाज का भी एक रूपक है.
और आप खुद ब खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ‘हम’ और ‘वे’ की यह सियासत इनसानियत को किस अंधकार में ढकेल रही है, कभी इस ‘वे’ में यहूदी हो सकते हैं तो कभी बौद्ध तो कभी मुसलमान, कभी सिख तो कभी हिंदू !
अगर अस्सी नब्बे साल पुराने जर्मनी की ओर फिर लौटें तो आकलन के मुताबिक 8.5 मिलियन जर्मन, जो आबादी का दसवां हिस्सा थे, वह नात्सी पार्टी का सदस्य थे, इतना ही नहीं नात्सीवाद से जुड़ी संस्थाओं की भी काफी सदस्यता थी. इसलिए हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जर्मन आबादी के बीच नात्सी कार्रवाइयों के प्रति कितनी जबरदस्त वैधता और समर्थन रहता होगा.
कुछ वक्त़ पहले अमेरिकी लेखक डैनियल गोल्डहैगन की चर्चित किताब ‘हिटलर्स विलिंग एक्जिक्युशनर्स: ऑर्डिनरी जर्मन्स एण्ड द होलोकॉस्क्ट’ (Hitler’s Willing Executioners- Ordinary Germans and the Holocaust, Daniel Jonah Goldhagen, प्रकाशन वर्ष 1996) देखने को मिली थी, जो इस परिघटना पर रौशनी डालती है कि किस तरह आम जर्मनों का बड़ा हिस्सा होलोकास्ट के दिनों में ‘विलिंग एक्जिक्यशनर्स’ बना था. अर्थात ‘स्वेच्छया से अमलकर्ता या हत्यारा’ बना था. गोल्डहैगन ने इस परिघटना की जड़ों को बीती सदियों में जर्मन राजनीतिक संस्कृति में रफ्ता-रफ्ता जड़ जमाए एक अनोखे और हिंसक ‘‘नाशवादी सामीवादविरोध’ (eliminationist antisemitism) में देखा था.
आम जनों के अपने ही पड़ोसियों या अपने ही देशवासियों के कत्लेआम में इसी संलिप्तता या ऐसे मसलों पर बरती जा रही तटस्थता की विवेचना पर केंद्रित इस किताब में उन्होंने लिखा था:
“अत्याचारियों का अध्ययन फिर इस बात की मांग करता है कि हम नात्सी काल में और उसके पहले के जर्मन समाज के स्वरूप का विश्लेषण करें, उसका नए सिरेसे तसव्वुर करें. होलोकास्ट अर्थात वह खूनी दौर जब नस्लीय सफाये की संगठित मुहिम चली थी, निश्चित ही नात्सी काल में जर्मन समाज को परिभाषित करता है, जर्मन समाज का कोई भी अहम पहलू इस यहूदी विरोधी नीति से प्रभावित होने से नहीं बचा, अर्थव्यवस्था से लेकर समाज, राजनीति, संस्कृति, जानवरों को पालने वालों से लेकर व्यापारियों तक, छोटे नगरों के संगठनों से लेकर वकीलों, डॉक्टरों, भौतिकीविदों और प्रोफेसरों तक. जर्मन समाज का कोई भी विश्लेषण, उसकी समझदारी, आदि के बारे में बात नहीं की जा सकती जब तक हम यहूदियों के सफाये के प्रसंग को केन्द्र में न रखें. इस कार्यक्रम में पहले हिस्से, जर्मन आर्थिक और सामाजिक जीवन से यहूदियों का निष्कासन, खुले में अमल में लाया गया, जबकि जर्मन समाज का बहुलांश इसे वाजिब ठहरा रहा था और वह उसमें संलिप्त था, जर्मन समाज के सभी हिस्से, कानूनी, चिकित्सकीय और अध्यापकीय पेशों में मुब्तिला लोग या कैथालिक या प्रॉटेस्टंट सभी, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समूह और संगठन सभी इसमें शामिल थे.”
हजारों-लाखों जर्मनों ने इस जनसंहार में अपना योगदान दिया था तथा अधीनीकरण की व्यापक प्रणाली को- जिसका प्रतीक यातना शिविर थे- मजबूत बनाया था. नस्लीय सफाये को छिपा कर रखने की नात्सी हुकूमत की आधे अधूरे मन से की गयी कोशिशों के बावजूद अधिकतर जर्मन इन जनसंहारों से वाकीफ थे. हिटलर ने ऐलान किया था कि युद्ध का अंत यहूदियों के सफाये में होगा और इन हत्याओं को लेकर एक आम सहमति थी. युद्ध के अलावा कोई भी अन्य नीति- जो उसी स्तर की थी- को उतनी ही तत्परता और उत्साह से और कम दिक्कतों के साथ लागू किया गया. होलोकास्ट न केवल बीसवीं सदी के मध्य में यहूदियों के इतिहास को परिभाषित करता है बल्कि जर्मनों के इतिहास को भी. जबकि होलोकास्ट ने यहूदियों को हमेशा के लिए बदला, और उसका अमल संभव हो सका क्योंकि मेरा मानना है कि जर्मन पहले ही बदल चुके थे.
नात्सीवाद को शिकस्त मिले, हिटलर का नामोनिशान तक समाप्त हुए पचहत्तर साल बीत गए तब भी जर्मन समाज अपनी स्मृतियों में उसे भूला नहीं है, यह बात निश्चित ही मामूली नहीं कही जा सकती.
वैसे यह समूचा सिलसिला जर्मन समाज में किस तरह जारी रहा है इसे हम साधारण नागरिकों के साक्षात्कारों या वक्तव्यों में भी देख सकते हैं. ब्रिटेन के मशहूर अख़बार ‘गार्डियन’ में किन्हीं ब्रूनी दे ला मोटे का संस्मरण छपा था नब्बे के पहले जर्मनी दो भागों में विभाजित था, एक था पश्चिमी जर्मनी, जो अमेरिका की अगुआईवाले खेमे का हिस्सा था जबकि पूर्वी जर्मनी सोविएत रूस की अगुआई वाले पीपुल्स डेमोक्रेसी का हिस्सा था, के अपने अनुभवों के बारे में लिखते हैं-
(The Guardian, Thu 29 Mar 2007,https://www.theguardian.com/commentisfree/2007/mar/29/comment.secondworldwar)
‘मैं जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक में पैदा हुआ. हमारी स्कूली किताबों में नात्सी काल पर काफी सामग्री थी और यह भी बताया जाता था कि उन्होंने जर्मन राष्ट्र के साथ तथा अधिकतर यूरोप को किस किस्म की तबाही में ढकेला. अपनी स्कूली शिक्षा के दिनों में हर छात्र को कम-से कम एक दफा यातना शिविर देखने के लिए जरूर ले जाया जाता था, जहां यातना शिविर में रह चुके लोग विस्तार में बताते थे कि वहां क्या-क्या होता था. पूर्वी जर्मनी में नात्सी काल के तमाम यातना शिविर एक तरह से स्मारक रूप में रखे गए थे’
जर्मन समाज की स्मृतियों में आज भी कहीं न कहीं दर्ज उस नात्सीकाल के बारे में और उससे उबरने के लिए वहां निरंतर जारी प्रक्रिया के बारे में जनाब फ्रांन्सिस्को से काफी बात हुई- वह एक बहुदेशीय कंपनी में इंजीनियर के तौर पर काम कर रहे थे.
जिस बस में हम सवार थे उसी बस में वह और उनकी जीवन संगिनी सवार थे, जो हाइडेलबर्ग जा रही थी- हां, वही हाईडेलबर्ग जहां जर्मनी का सबसे पुराना और यूरोप के सबसे विख्यात विश्वविद्यालयों में शुमार विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना 1386 हुई थी.
बॉन से लगभग 500 किलोमीटर दूर का सफर था और जर्मनी के पूर्वी भाग से वहां घूमने आए फ्रांन्सिस्को दंपति के लिए हम भारत के बारे में बता रहे थे और उन्होंने जर्मन समाज एवं अतीत का समूचा खजाना गोया हमारे सामने खोल दिया था.
उन्होंने हमें बताया कि किस तरह जर्मन समाज को नात्सीकाल के बारे में तथा उसमें उसकी संलिप्तता के बारे में बताते रहने में मीडिया ने बेहद सकारात्मक भूमिका निभायी है, स्कूली शिक्षा का अहम रोल रहा है, उन्होंने हमें यह बता कर थोड़ा आश्चर्यचकित कर दिया कि जर्मन समाज के बड़े हिस्से में आज भी आप को उस अपराधबोध की भावना का अंश मिलेगा कि तीस-चालीस के दशक में बहुत कुछ गलत हुआ था, जबकि व्यक्तिगत तौर पर उनकी उसमें कोई भूमिका नहीं रही हो, यहां तक कि उनमें से अधिकतर उस वक्त़ पैदा भी नहीं हुए होंगे.
निस्संदेह इसमें कोई दो राय नहीं कि जर्मनी के दोनों हिस्से- जो दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद पश्चिमी जर्मनी और पूर्वी जर्मनी में बंटा हुआ था, जहां अमेरिका तथा सोवियत रशिया की अगुआई में इन समाजों से नात्सीवाद के बीजों को समाज, संस्कृति, मीडिया, न्यायपालिका, राजनीति से समाप्त करने में अपने-अपने स्तर पर कोशिशें की, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि सिर्फ इन बाहरी ताकतों की वजह से ही वहां गैरनात्सीकरण/डिनाजीफिकेशन (denazification) का सिलसिला तेज हुआ, यह हक़ीकत है कि लोगों ने अपने अतीत को लेकर खुद एक आलोचनात्मक रूख अख्तियार किया.
वैसे इस संदर्भ में एक स्वीडिश व्यक्ति जो- पश्चिमी यूरोप के एक देश के दूतावास के अधिकारी थे- एक छोटीसी मुलाक़ात काफी शिक्षाप्रद रही थी.
भारत में हिटलर की आत्मकथा The Mein Kampf (मेरा संघर्ष) की व्यापक उपलब्धता पर हैरानी को प्रगट करते हुए उन्होंने बताया था कि उस विवादास्पद किताब पर भले ही यूरोप के तमाम हिस्सों में आधिकारिक तौर पर पाबंदी नहीं लगी हो, लेकिन वह अनुपलब्ध रहती है और खुद जर्मनी में तो इस किताब के पुनर्मुद्रण पर पाबन्दी लगी थी. उनके मुताबिक खुद जर्मनी के अन्दर लम्बे समय तक नात्सी दौर के तमाम प्रतीकों, याद करने लायक वस्तुओं पर पाबंदी थी, जो रफ्ता रफ्ता ढीली पड़ती गयी है. किताब की अनुपलब्धता दरअसल सरकार की तरफ से एक सचेत कदम था ताकि लोग किताब के नस्लवादी आक्षेपों से परिचित न हों.
हिटलर युग के अवसान के ठीक सत्तर साल बाद यह पाबंदी हटा दी गयी (2015) और इस किताब का नया annotated संस्करण जारी हुआ, जिसे इन्स्टिटयूट आफ कंटेपरेरी हिस्टरी नामक एक सरकार द्वारा समर्थित रिसर्च संस्थान की तरफ से छापा गया, जो मूल रचना से काफी बड़ा था,जिसमें ढेर सारे संदर्भ थे तथा अन्य जानकारियां थीं ताकि इस किताब को पढ़ कर लोग नए सिरे से दिग्भ्रमित न हों.
हाईडेलबर्ग से बॉन की वापसी की यात्रा में हम तीनों समूचे जर्मन समाज के इस अलग किस्म के पुनरुत्थान पर बात कर रहे थे.
हम इसी बात पर आपस में गुफ्तगू कर रहे थे कि क्या ऐसे सिलसिले की कल्पना दक्षिण एशिया के इस हिस्से में की जा सकती है, जहां जाति, वर्ग, लिंग, नस्ल, मजहब के नाम पर हिंसा का प्रगट एवं प्रच्छन्न सिलसिला चलता रहता है, जिसका सबसे बड़ा प्रकटीकरण एक तरह से बंटवारे के वक्त हुआ था, जब आपसी खूंरेजी में दस से बीस लाख लोग मारे गए थे, और जिसने इतिहास के सबसे बड़े मानव निर्मित माइग्रेशन को जन्म दिया था जब एक से डेढ करोड़ लोग अपने-अपने मकानों, दुकानों, अपने पुरखों के वतन को छोड़ कर बेघर कर दिए गए थे और जमीन के उस हिस्से में जाकर बस गए थे, जहां उनका अपना कोई नहीं था.
क्या सरहद पार दोनों तरफ फैले लोग कभी ऐसे ‘स्मारकों’ को अपने यहां भी बनाने का सिलसिला तेज कर सकेंगे ताकि वह न केवल खुद याद कर सकें कि क्या हुआ था और आने वाली पीढ़ियों को भी बताते रहें कि ‘ऐसी अवांछित, मनुष्य द्रोही हिंसा अब और नहीं.’
वैसे सुना है कि अमृतसार में वर्ष 2015 में पार्टिशन म्युजियम का निर्माण हुआ है.
सभी जानते हैं कि यह बंटवारा जिसने मानवीय इतिहास के सबसे बड़े मास माइग्रेशन को जन्म दिया, जिसमें लाखों की तादाद में सभी समुदायों के लोग मारे गए, उन सभी को याद करने के लिए लगभग सत्तर साल तक ऐसा कोई स्मारक न सरहद के इस पार और न उस पार मौजूद था.
जानकारों के मुताबिक इसमें बंटवारे में पलायन कर गए लोगों की यादों को सजी गयी छोटी-छोटी चीजें- बर्तन, कपड़े भी रखे गए है, बंटवारा कैसे हुआ, इससे संबंधित तमाम सामग्री भी रखी गयी है और बंटवारे की व्यापक त्रासदी को लेकर कलाकारों द्वारा बनायी गयी कुछ कालजयी किस्म की कृतियाँ भी रखी गयी हैं.
अगर हम अपने अतीत से सबक लेना चाहते हैं गैर जरूरी मानवीय हिंसा के दौर को हमेशा के लिए समाप्त करना चाहते हैं, तो क्या यह जरूरी नहीं कि अपने अतीत के ऐसे तमाम स्याह पन्नों को हम स्मृतिलोप का शिकार न होने दें हम उनके बारे में बार-बार सोचें, हम सोचें कि आखिर ऐसा कैसे होता है कि अच्छे खासे भले लगने वाले लोग- किसी अलसुबह कातिल बन कर अपने ही पड़ोसियों की हत्या कर देते हैं, और फिर सब कुछ भूल जाते हैं.
क्या किसी स्मृतिहीन व्यक्ति की, समाज की कल्पना भी की जा सकती है, जिसे कल का कुछ याद न हो, जो हर दिन नयी शुरूआत करता हो. ऐसे व्यक्ति, ऐसे लोग किसी डिस्टोपियाई उपन्यास में जरूर मिल सकते हैं.
यह स्मृतियाँ ही तो हैं- अच्छी, बुरी, खट्टी मिट्ठी- जो मनुष्य को कुछ न कुछ बेहतर करते रहने के लिए प्रेरित करती रहती हैं, वरना क्या इनके बिना किसी संस्कृति, सभ्यता, समाज और भविष्य की कल्पना भी की जा सकती है ?
सुभाष गाताडे
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बेहद महत्वपूर्ण लेख ‘‘एक व्यक्ति पूरी तरह विस्मृत तभी होता है जब उसका नाम विस्मृत होता है’.” एकदम सही। सत्ता के निरंकुशता के शिकार लोगों की नाम सूची बनाने और सार्वजनिक स्थलों पर लगाने का अभियान क्यों न चला दिया जाए? जनता के संज्ञान में रहेगा कि किस अवधि में कितने लोगों के दैहिक अस्तित्व को क्रूर व्यवस्था ने मिटा डाला।
इस आलेख से मालूम हुआ कि नाजियों को जर्मनी की आबादी के एक बहुत बड़े भाग(लगभग दसवां) का मौन या मुखर समर्थन था। मैंने भी कहीं पढ़ा था कि मार्टिन हाइडेगर भी फासीवाद का समर्थक था और खुद हिटलर की पार्टी का सदस्य था। सदस्य ही नहीं वहाँ के विश्वविद्यालय का रेक्टर भी था।कई दार्शनिकों की दृष्टि में वह उस समय का एक बड़ा दार्शनिक था। अब इसका समाजशास्त्रीय अध्ययन भी हुआ होगा कि ऐसा क्यों हुआ ? अगर नहीं हुआ तो होना चाहिए। वैसे सतही तौर पे इसका एक कारण नस्ली शुद्धता(नस्लवाद) और अंध राष्ट्रवाद का जुनून तो है ही। हमेशा की तरह सुभाष जी ने इसबार भी एक बहुत हीं मानवीय सवाल और ज्वलंत मुद्दा उठाया है।उन्हें साधुवाद !
Dilchasp lekh shukriya
बेहतरीन आलेख। ऐसे लेख पाठकों के मन-मस्तिष्क में देर तक बने रहते हैं। इनकी अनुगूंज कायम रहती है।
यह बात गौरतलब है कि समाज अपने अतीत की गलतियों को याद रखें। यह एक बेहतर समाज रचने का तरीका है।
इस आलेख को पढ़ते हुए एक बार फिर शिद्दत के साथ महसूस हुआ कि मनुष्यता के भविष्य के हित में इतिहास की स्मृति कितनी ज़रूरी है।
साधुवाद।
अंदर से हिला कर रख देने वाला आलेख – मैं यह सोचने लगा कि यह देश भी कितनी तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहा है।
स्मृतियों को मिटा देने की मुहिम रोकनी ही होगी।सुभाष जी को सलाम।
यादवेन्द्र
आप सभी की प्रतिक्रियाएं मन की मायूसी को थोड़ी दूर करनेवाली हैं कि इस अंधेरे समय में भी कई हमखयाल लोग मौजूद हैं …
रविंद्र गोयलजी, दयाशंकर शरणजी एवं रश्मिजी का बहुत बहुत शुक्रिया, लेख पर अपनी राय प्रगट करने या इसी बहाने नात्सीवाद के इतिहास पर महत्वपूर्ण बात कहने के लिए या ‘सत्ता की निरंकुशता’ के शिकार लोगों को अपने ढंग से आज भी याद करने’ की जरूरत को रेखांकित करने के लिए।
यादवेंद्रजी ने बिल्कुल सही कहा है कि ‘देश कितनी तेजी से उस दिशा में आगे बढ़ रहा है’ या रविरंजनजी या अनुप सेठीजी ने ‘इतिहास में स्म्रति’ की अहमियत या समाज द्वारा अपनी ‘गलतियों को याद रखने’ की बात कही है। सौरभजी को भी साधुवाद !
निश्चय ही यह बेहद महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विषय पर आधारित लेख है। इसके लिए लेखक को बधाई। परंतु स्टोलपेरस्टाईन जैसी परियोजनाएं सम्भवतः पूंजीवाद से प्रभावित एक राजनीतिक प्रोपेगैंडा प्रतित होती है, जो अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं को आम जनमानस के मष्तिष्क पर नगण्य कर देती है। ऐसी परियोजनाएं एक खास किस्म के स्मृतियों को महत्वपूर्ण बना कर अन्य सभी ऐतिहासिक तथ्यों को गौंड़ कर देती है।