सूसन सौन्टैग एक पाठक की दुनिया में प्रियंका दुबे |
सूसन सौन्टैग के लेखन में मुझे वह सब कुछ मिला जो मुझे अपने आस पास के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश, परिवार, मित्रों, अचानक अवांछित सलाहें देने की मुद्रा में फूट जाने वाले वरिष्ठ लेखकों, अग्रजों और प्रेमियों में नहीं मिला. लगभग. पन्ने पर उनकी विद्वता और मनुष्यता ने मुझे अपने पाठकीय जीवन के सबसे उज्ज्वल क्षणों से मिलवाया है. यह ऐसे क्षण थे जिनमें आप कुर्सी से उठकर खड़े हो जाते हैं और कमरे में तेज-तेज चलते हुए सोचते है– क्या बात कही है इस लेखक ने !
अकेले में आह-वाह करते-करते हुए थक जाने के बाद ख़्याल आता है कि इसी एक अदद अनुभव के लिए तो आप सब कुछ छोड़ कर पाठ के पास आए थे! दिमाग़ घुमा देने वाला उनकी तर्क-पद्धति पढ़कर कई बार उत्तेजना और उत्साह में मेरे मुँह से गालियाँ फूट पड़ी हैं तो कई बार मैं देर तक यूं ही हँसती भी रही हूँ.
सूसन सौन्टैग के बहाने–बाइनरी से आगे की कहानी
डाउट एंड एम्बिवैलेंस/ यानी शंका, अनिश्चय और दुविधा- यह गद्य और तर्क पद्धति में मेरे प्रिय गुण रहे है. बीते सालों में सौन्टैग के गद्य का संग अनिश्चय और दुविधा पर मेरे इस विश्वास को पोषित करता रहा है. लेकिन बात सिर्फ़ यहाँ तक सीमित नहीं है.
सवाल चाहे हिंदी साहित्य में दशकों से फल-फूल रही ‘कलावाद’ और ‘जनवाद’ की पुरानी द्वैत के बीच घुटता और इन बासी खाँचो के सामने उड़ान भरने से पहले ही अपने परों को कतरा हुआ सा महसूस करते मेरे मन का हो या हमारे समय में लेखक के जीवन में राजनीति के महत्व का सवाल. रिपोर्टिंग के दौरान फ़िक्शन और फ़िक्शन के दौरान रिपोर्टिंग के लिए तरसता मेरा आत्म हो या हिंदी में लिखते समय अंग्रेज़ी में लिखने को मचलती और अंग्रेज़ी में लिखते समय हिंदी को पुकारती मेरी दोधारी भाषाई चेतना.
इम्प्रेशनिस्टिक, भावुकताप्रधान बनाम विश्लेषणात्मक लेखन की दशकों पुराने द्वैत में आज तक बंधी हमारी रूढ़िवादी आलोचना हो या उसके समक्ष नई दृष्टियों से पुराने लिखे के पुनर्पाठ को सम्भव करने का मेरा निजी द्वंद्व.
भारतीय संदर्भ में जाति, लिंग और धर्म से जुड़े सवालों की फ़िक्शन में अनिवार्यता को लेकर खुद से ही जारी बहस में उलझता मेरे भीतर का राजनीतिक-सामाजिक नागरिक हो या प्यार में रोते हुए अपने को दफ़न करने के लिए खुद ज़मीन खोदता मेरे भीतर का मजनू.
एक स्त्री के रूप में मेरे भीतर के नागरिक-पत्रकार की मेरे लेखक से जारी असहमतियाँ हों या अपनी यौनिकता को समझने के लिए जूझती मेरे भीतर की लड़की: सवालों में डूबे मेरे हर चेहरे को सूसन में एक दोस्त, शिक्षक और मार्गदर्शक मिला है.
सूसन के यहाँ मैंने पहली बार सीखा कि द्वैत में फँसना– भले ही वह राजनीतिक हो, वैचारिक या आलोचनात्मक, किसी भी लेखक के लिए आत्मघाती होने के स्तर तक सीमित करने वाली हो सकता है. जिस क्षण मुझे यह ठीक-ठीक समझ आया कि विश्व साहित्य में निबंध और आलोचना जैसी विधाओं की पुरोधा मानी गयी यह लेखक खाँचो में बंद लेखन को गद्य की उड़ान सीमित करने वाला मानती रही हैं, ठीक उसी क्षण अपने साहित्यिक पुरखों द्वारा विरासत में मिले तमाम पुराने साहित्यिक ख़ेमों के प्रति मेरी पुरानी खीझ को जैसे एक नया सृजनात्मक रास्ता मिल गया.
अपने तमाम साक्षात्कारों और लेखों में सूसन साहित्यिक जड़ो से आगे जाने की बात करती रही हैं. जो आप नहीं हैं– जो नहीं हो सके हैं, उस ‘इतर’ या ‘अदर’ को स्पर्श करने की.
सूसन ने अपने लिखाई से अपने शिल्प का आविष्कार करने और फिर उस शिल्प को तोड़ने की भी समझदारी दी है. उनके जीवनीकार बेंजामिन मोज़र ने लिखा भी है, उन्होंने अपनी लिखाई का साँचा बनाया और जीवन के आख़िर तक आते-आते उस साँचे को खुद तोड़ भी दिया.
उन्होंने एक ओर जहां जीवन में हमेशा जन पक्षधरता, नागरिक स्वतंत्रता और समावेशी राजनीति को अपनाया और पठन में साहित्य के श्रेष्ठतम मूल्यों को रेखांकित किया, वहीं अपनी लिखाई में हमेशा नवाचार और प्रयोग को आगे रखा. फिर भले ही वह लिखाई गल्प हो या आलोचनात्मक निबंध, सूसन के यहाँ तोड़-फोड़ जैसे अपने लिखे में नई दृष्टि ढूँढ पाने की किसी अदम्य आदिम इच्छा पर सवार होकर लगातार जारी रहती है.
उनकी यह तर्क पद्धति मुझे इसलिए भी ज़्यादा जँचती है क्योंकि मैं तो ‘कलवाद-जनवाद’, ‘क्रिएटिव-क्रिटिकल’ और ‘भावना प्रधान आलोचना-विश्लेषणात्मक संलिष्ट आलोचना’ जैसे तमाम पुरानी थोपी गयी बाइनरी के ऐतिहासिक बोझ तले कुचली हुई स्थिति में उनके गद्य तक पहुँची थी.
मेरे भीतर हमेशा से तय खाँचो के बाहर की दुनिया को टटोलने की प्रबल इच्छा रही है. मुझे हमेशा लगता रहा है कि हम गद्य को पढ़ने-लिखने और समझने की प्रक्रिया में हम नए प्रयोग कर तो सकते हैं– लेकिन उसके लिए देखने की पुरानी दृष्टि को चुनौती देना ज़रूरी है.
तोड़-फोड़ की यह पुरानी लत मुझे फ़ील्ड में काम करने के अपने शुरुआती बरसों में ही लग गयी थी. ज़मीन पर दुनिया को देखते समझते हुए आप रोज़ खाँचो को धुँधला होते हुए देखते हैं. ‘सच’ हमेशा स्वीकार की बनिस्बत अस्वीकार और उस अस्वीकार से जुड़े लम्बे मंथन के पीछे छिपा रहा. इसलिए मुझसे यह कभी नहीं हो सका कि मैं दुनिया में मौजूद सारी मानवता का श्रेय किसी एक विचार प्रक्रिया को दे सकूँ और सारी क्लेश का ठीकरा किसी दूसरी विचार प्रक्रिया के सर मढ़ पाऊँ. मेरे लिए दुनिया ऐसे तमाम सरलीकरणों से ज़्यादा जटिल रही हैं. दुष्कर और दुखद भी.
ऐसे में सौन्टैग के गद्य से परिचय एक ऐसे अभूतपूर्व मित्र से मिलने जैसा था- जिसके मिलने से मैं जितना चौंकी हुई थी, उतना ही अविश्वास में डूबी हुई भी.
सबसे पहले उनके निबंध, फिर डायरियाँ, साक्षात्कार और अंत में ‘सौन्टैग’ शीर्षक से प्रकाशित आठ सौ पन्नों से ऊपर की उनकी जीवनी दो बार पढ़ने के बाद मैं कई दिनों तक बर्फीले सन्नाटे में गुम रही. जीवनी और निबंध पढ़ने के दिनों का असर तो इतना गहरा था कि उन दिनों कई बार मुझे वे सपनों में दिखाई दे जातीं. उनके लिखे गद्य में मुझे वे इतनी तेजस्वी लगती थीं कि कभी-कभी मेरा मन उनका संग पाने के लिए मचल उठता. लेकिन बाद के दिनों में- लेखक को उसको गद्य और सिर्फ़ उसके गद्य से जानने-समझने का सूत्र भी मैंने उन्हीं को पढ़ते हुए सीखा.
‘मिलिटेंट स्टूडेंट’ सौन्टैग के साथ
द वेरी नेचर ओफ़ थिकिंग इज़ ‘बट’-
विचार-प्रक्रिया की शुरुआत ही ‘लेकिन’ से होती है.
अब जब भी मैं साहित्य और जीवन के किसी भी प्रश्न को देखती हूँ तो ऊपर दर्ज उनका यह वाक्य याद आता है और मेरी विचार प्रक्रिया अपने आप ‘लेकिन, यह भी तो एक पक्ष है’ के मोड़ में चला जाती है. इस तरह प्रश्न को अलग-अलग कोणों से खोलते संदर्भों के बहुवाचक पाठ मेरे सामने खुलने लगते हैं.
मैं अपने और अपने लिखे से बाहर सोच पाती हूँ. जब भी आत्ममुग्धता मुझ पर हावी होने लगती है, तो मुझे सौन्टैग का यह वाक्य याद आता है, जो यूं भी, आज मेरी मेज़ के सामने चस्पा है-
‘One of the jobs of literature is to remind us that other people do exist.’
इस प्रक्रिया में दुनिया को देखने की मेरी नज़र पहले से ज़्यादा विस्तृत और उदार हो गयी है.
इस कमाल की पढ़ाकू लेखक (सौन्टैग खुद को ‘मिलिटेंट स्टूडेंट’ कहती थीं) के दिल में कितनी गहरी विनम्रता थी और कितना साहस था, यह आप उनके निबंधों के साथ- साथ उनकी डायरी पढ़कर भी समझ सकते हैं. मैंने कई महत्वपूर्ण लेखकों की डायरियाँ पढ़ी हैं लेकिन सौन्टैग की डायरी की तरह मेरे कलेजा किसी डायरी ने नहीं चीरा. हाँ, साथ ही उनका विट, ख़ासतौर पर विवाह को लेकर उनकी टिप्पणियों में छिपा काला हास्य मुझे इतना गुदगुदाता कि मैं हंसते-हंसते बिस्तर से गिरने को हो आती.
मसलन युवा दिनों की एक इंदिराज में सौन्टैग अपने तत्कालीन पति फ़िलिप रीफ़ को ‘इमोशनल टोटालिटेरीयन’ घोषित हुए लिखती हैं–
‘marriage is based on the principle of inertia/endless duplicity.’
और भी ऐसे तमाम वाक्य जिनमें छिपी त्रासदी की टोह मिलते ही मैं बहुत देर तक हंसती रहती. जैसे उनका अपने पति के रोने को ‘ejaculation of tears’ कहकर सम्बोधित करना.
लेकिन निजी त्रासदियों से इतर, सौन्टैग का असली आकर्षण तो रवायती विचार प्रक्रिया के खिलाफ उनके विद्रोह और उनकी एकदम मौलिक सोच में है. युवा वर्षों के अपने प्रसिद्ध निबंध ‘नोट्स ऑन कैम्प’ से वह अपनी यात्रा शुरू करती हैं और पूरे अमरीकी साहित्यिक परिदृश्य में सनसनी की तरह पसर जाती हैं.
इस विस्फोटक निबंध में वे ‘लो ब्रो’ समझे जाने वाली तमाम जीवन शैलियों के पक्ष में खड़ी नज़र आती हैं. इस निबंध के लिए अख़्तियार किया गया उनका शिल्प आज तक मुझे चौंकता रहता है. साथ ही यहाँ उनका घोर सृजनात्मक ढंग से समलैंगिगता के पक्ष में खड़ा होना भी, वह भी साठ के उस दशक में जब अमरीकी परिदृश्य में लोग समलैंगिकता का ज़िक्र करने से भी डरते थे.
जीवन के तीसरे दशक में आयी उनके निबंधों की पहली किताब ‘अगेन्स्ट इंटरप्रिटेशन’ को जो सफलता मिली, आज कोई युवा लेखक उस तरह की अभूतपूर्व स्वीकार्यता की कल्पना भी नहीं कर सकता. कितने ही लेखक और आलोचक हैं, जो आज भी इस किताब की कसमें उठाते हैं.
एक प्रमुख नाम मशहूर अमरीकी क्रिटिक ए ओ स्कॉट का है. अपने छोटे से सीमित पहुँच में ही मैंने कम से कम दो लेखकों को यह कहते हुए सुना है कि इस किताब ने उन्हें ‘सोचना’ सिखाया. इस किताब में सार्त्र द्वारा ज्याँ जेने के रचना कर्म और उनके जीवन पर लिखी किताब ‘सेंट जेने’ पर भी एक आलोचनात्मक निबंध मौजूद है.
मात्र तीस साल की सौन्टैग ने तब अपनी प्रतिष्ठा के चर्म और नोबल पुरस्कार (ठुकराने) की दहलीज़ पर खड़े सार्त्र की इस किताब को अपनी आलोचना की धार पर परखते हुए तार-तार कर दिया था. इस निबंध को पढ़ते हुए मैं उनके साहस से प्रभावित हुई और उस साहस पर मुग्ध भी.
आलोचना के संदर्भ में मेरी दृष्टि को विस्तारित करने में उनके गद्य का दो अन्य परतों पर भी महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं. पहली परत तो हैरल्ड ब्लूम के ‘प्रभाव के सिद्धांत’ पर उनकी पैनी टीप- जिसमें वे मौलिक की तलाश में सृजन पर अपने पूर्वजों के प्रभाव को ‘ख़त्म’ करने वाली उस दशकों पुरानी तर्क पद्धति से इतर जाकर एक संभली हुई राह दिखाती हैं.
रोलिंग स्टोन पत्रिका को दिए अपने लम्बे साक्षात्कार में सौन्टैग कहती हैं कि यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं कि मौलिक सृजन के लिए किसी कलाकर को अपने प्रिय साहित्यिक पुरखों के प्रभाव की हत्या ही करनी पड़ पाए. उनका तर्क है कि समय के साथ बड़े से बड़ा प्रभाव रीत जाता है (यहाँ वे अंग्रेज़ी के exhaust शब्द का इस्तेमाल करती हैं) और पढ़ने की यात्रा में बढ़ते हुए हम नए प्रभावों के प्यार में आते हैं. ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि हम अपने पुरखों के प्रति अनादर से भरे हैं, बल्कि ऐसा इसलिए हैं क्योंकि साहित्य में हमें हमेशा नई प्रेरणाओं और नई ऊर्जा की तलाश रहती हैं. कम-अज़-कम सौन्टैग को तो थी ही, जो हमेशा उन तत्वों के प्रति जिज्ञासु रहीं, जो उनमें नहीं थे.
दूसरी परत साहित्य में ‘स्त्री प्रश्न’ को लेकर उनकी बहुपरतीय विचार प्रक्रिया थी. सौन्टैग ‘स्त्री प्रश्न’ को लेकर अपनी स्पष्ट वफ़ादारी के संदर्भ में काफ़ी मुखर रही हैं. लेकिन साथ ही उन्होंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया कि ‘स्त्री साहित्य’ जैसा कोई वैकल्पिक ढाँचा खड़ा करने की बजाय स्त्रियों को मुख्य धारा की शक्ति संरचना में अपना स्थान बनाना होगा.
सूसन सौन्टैग की डायरी
यूं तो सूसन बहुवाचिक भावनात्मक आवेग और बौद्धिक सतर्कता से लिखे गए ‘इलनेस एज़ अ मेटफ़र’ और ‘अगेन्स्ट इंटरप्रिटेशन’ जैसे अपने निबंध संग्रहों के लिए सबसे ज़्यादा जानी जाती हैं. लेकिन उनका विशाल सृजनात्मक आकाश उपन्यास, कहानियां, आलोचना, फ़िल्म और नाटक जैसी कई विधाओं से सजा रहा है. साथ ही, सूसन नियमित तो नहीं लेकिन बहुत ही जुनूनी, निडर और क्रूर होने की हद तक ईमानदार डायरी लेखक भी रही हैं. हालांकि उन्होंने अपने जीवन काल में कोई डायरी प्रकाशित नहीं करवाई. 2004 में कैन्सर से हुई उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे डेविड रीफ़ ने उनकी डायरी तीन खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया.
इस सिलसिले में चौदह से तीस बरस तक की उनकी डायरी की पहली किश्त ‘रीबोर्न’ नाम से 2008 में प्रकाशित हुई. और फिर तीस से छियालिस बरस तक की डायरी ‘ऐज़ कॉनशियस्नेस इज़ हारनेस्सड टू फ़्लेश’ नाम से 2012 में सामने आई.
हालाँकि डेविड द्वारा घोषित इस शृंखला की तीसरी और अंतिम कड़ी अभी तक सामने नहीं आयी है. फिर भी तक़रीबन 850 पन्नों में फैले इन पहले दो खंडों में ही सूसन के निजी व्यक्ति, उनके कलाकार, लेखक और प्रेमी की एक ऐसी दुर्लभ झलक मिलती है जिसकी सीधी-सीधी छाया तक हम उनके गल्प या कथेतर गद्य में नहीं पकड़ पाते.
इस लिहाज़ से उनकी डायरी पाठकों के लिए उनके उस स्व की ओर खुलने वाली एक खिड़की है जिसे वह अपने सृजनात्मक गद्य में छिपा ले जाने का भरसक प्रयास करती रहीं हैं. लेकिन उनकी डायरी की रौशनी सिर्फ़ इस एक बिंदु तक सीमित नहीं है. इस पाठ का विस्तार उनके सतत दुविधा में डूबे चित्त, बार-बार घायल होते उनके भीतर के प्रेमी, सेक्स और लैंगिकता से अपनी जटिल रिश्ते से साल ब साल जूझते उनके सेल्फ़, पढ़ने को लेकर उनके अनंत पैशन, समकालीन लेखकों के काम के प्रति उनकी उदारतापूर्ण जिज्ञासा और एक लेखक के तौर पर दुनिया में हो रहे तमाम बदलावों पर उनके नागरिक-बुद्धिजीवी की प्रतिक्रिया तक फैला हुआ है.
साथ ही यह डायरी उनके समय के अमरीकी-यूरोपीय लेखकों, फ़िल्मकारों और कलाकारों के सृजन संसार के खाँके भी खींचती है. इसमें सूसन के हीरो दार्शनिक-लेखक रोलां बार्थ के उनपर प्रभाव और उनके अभिन्न मित्र नोबल पुरस्कार विजेता जोसफ़ ब्रॉडस्की से उनके सम्बन्ध के बिखरे साये भी शामिल हैं.
इससे आगे भी इस पाठ में कई ऐसे बिंदु हैं जिन्हें जीवन की तरह सिर्फ़ अनुभव किया जा सकता है. लेकिन यहाँ मैं उन कुछ सीमित बिंदुओं को रेखांकित करने का प्रयास कर रही हूँ जिनसे मेरा अपना सृजन संसार भी रौशनी, समझ और सांत्वना पाता रहा है.
पीड़ा के आदर्श को सहता कलाकार
अक्सर ऐसा होता हैं कि हम लेखकों के गल्प के स्रोतों को समझने के लिए उनकी डायरी की ओर रुख़ करते हैं. लेकिन इसके ठीक उलट, सूसन की डायरी को समझने के लिए मैंने खुद को उनके निबंध और गद्य को खंगालता हुआ पाया. इसी क्रम में उनकी सबसे चर्चित किताब ‘अगेंस्ट इंटरप्रिटेशन’ में इतालवी लेखक सीज़र पावेसी पर ‘द आर्टिस्ट ऐज़ एक्ज़मप्लरी सफ़रर’ शीर्षक से लिखे उनके प्रज्ञापूर्ण निबंध में ‘लेखक की डायरी’ पर एक बहुत ही अहम बात पढ़ने को मिली.
इस निबंध में सूसन ने 45 वर्ष की आयु में आत्महत्या कर लेने वाले पावेसी की मृत्यु उपरांत प्रकाशित हुई उनकी डायरी ‘बिज़नेस ओफ़ लिविंग’ पर चर्चा करते हुए लिखा है–
‘डायरी लेखक की आत्म का कारख़ाना है. लेकिन हमें लेखक की आत्मा में इतनी रुचि आख़िर क्यों है? इसलिए नहीं क्योंकि हमें लेखकों में रुचि है, बल्कि आधुनिक चेतना में मानवीय मानस को जानने की एक सतत गहरी सनक के चलते यह हम करते हैं.’
इस भाव को ‘आत्मपरीक्षण की ईसाई परम्परा की आधुनिक विरासत’ से जोड़ते हुए सूसन आगे लिखती हैं,
‘यहाँ व्यक्ति के स्व की तलाश को कलाकार की पीड़ा में तड़पते स्व की तलाश से बदल दिया गया है. इसलिए आधुनिक चेतना में कलाकार पीड़ा को आदर्शात्मक रूप में सहता है.’
खुद को नष्ट करते हुए भी कलाकार द्वारा पीड़ा को डूब कर सहने की जिस विचार-प्रकिया का ज़िक्र सूसन इस निबंध में कर रही हैं, उनकी अपनी डायरी इसके अनगिनत उदाहरणों से भरी पड़ी है.
22 अगस्त 1964 को पैरिस से दर्ज एक प्रविष्टि में सूसन सिर्फ़ एक वाक्य लिखती हैं–
‘यह असहनीय पीड़ा वापस आ गयी है.. फिर से…फिर से….फिर से’.
चौदह से छियालीस वर्ष की उम्र में ही उन्होंने दर्जनों ऐसे छोटे बड़े दुःख सहे जिनके ब्योरे पढ़ते हुए अक्सर मेरा दिल डूब जाया करता था. छुटपन में हुई पिता की मृत्यु, माँ के साथ पूरे जीवन तक खिंच आया एक अत्यंत तनावपूर्ण सम्बन्ध, छोटी उम्र में हुए प्रेम विवाह का टूटना, एक मुश्किल तलाक़, बेटे की कस्टडी के लिए जद्दोजहद, अपनी लैंगिकता को लेकर उनका सतत भावनात्मक द्वंद्व, हैरियट, ईरेन और बाद में कैरलोटा नामक स्त्रियों के साथ उनके लम्बे, जुनूनी, दुरूह और अधूरे से प्रेम सम्बंध, अपनी यौनिक क्षमता पर उनका लगातार शक करना और इस वजह से गहरे में दुखी रहना, साथ ही गल्प लिखने को लेकर लगातार संघर्ष करने जैसे कई मुद्दों पर उन्होंने बहुत मार्मिक और लम्बी प्रविष्टियाँ लिखी हैं. कई जगह वह सारी-सारी रात रोते हुए गुज़ारती हैं तो कहीं अपने प्रेमी के किसी और के साथ होने से पैदा होने वाली जलन में जागते हुए.
लेकिन यहाँ विलक्षण बात यह है कि इस दौरान चौथी स्टेज के ब्रेस्ट कैंसर से जूझने के बाद भी सूसन ने डायरी में अपनी इस बीमारी के बारे में न के बराबर लिखा है. पैसों के सवाल ने भी इन सालों में उनका पीछा नहीं छोड़ा था लेकिन इस संकट से सम्बंधित प्रविष्टियाँ भी लगभग न के बराबर हैं.
उनकी डायरी यही बताती है कि उनके जीवन के सबसे बड़े दुःख– प्यार के दुःख ही थे.
किसी भी कलाकार के लिए इससे सुंदर बात भला क्या हो सकती है? प्यार में, प्यार से, प्यार के लिए अनंत दुःख सहने से ज़्यादा सुंदर बात ?
रीबोर्न: खुद को नए सिरे से गढ़ता एक लेखक
यूं तो सूसन सौन्टैग पूरे जीवन खुद को एक ‘प्रोजेक्ट’ मान कर परिमार्जित और परिष्कृत करने के प्रयासों में डूबी रहीं. लेकिन उनकी डायरी की पहली कड़ी ‘रीबोर्न’ के शुरुआती हिस्सों से यह पता चलता है कि मात्र 16 बरस की उम्र से ही वह कितनी गहराई, विश्वास और महत्वाकांक्षा से खुद को गढ़ने-रचने में जुटी हुई थीं. यह महत्वाकांक्षा दुनियावी यात्रा की उतनी नहीं थी जितनी उनकी अपनी भीतरी यात्रा से जुड़ी हुई थी.
स्वयं खुद को अपने ही एक ‘अन्य’ अपरिचित लेकिन प्रिय संस्करण में तब्दील करने को हर रोज़ बड़ी मेहनत से अर्जित करती उनकी विनम्र महत्वाकांक्षा.
इस परिमार्जन में जिस सबसे बड़े सवाल का सूसन को सामना करना पड़ा– वह था उनकी अपनी लैंगिकता का सवाल. उनकी शुरुआती टिप्पणियों में स्त्रियों और पुरुषों के साथ सेक्स से जुड़े उनके अनुभव और इन अनुभवों के आधार पर अपने स्व का उनका कड़ा आलोचनात्मक परीक्षण पढ़ते हुए उनके साहस और उनके कच्चे नाज़ुक संवेदनशील मन की थाह मिलती है.
यहाँ यह रेखांकित करना भी ज़रूरी है कि दो खंडों की इस डायरी को पढ़ने के बाद मैं समलैंगिक जोड़ों के मुश्किल जीवन के प्रति खुद को संवेदनात्मक रूप से पुनर्शिक्षित महसूस करती हूँ.
मई 1949 की एक इंदिराज में वह लिखती हैं,
“अब सबसे बड़ी बाधा मिट चुकी है- वह है अपने शरीर को लेकर मेरे भीतर बैठा हुआ वह शुद्धता बोध का एहसास. जबकि मैं तो हमेशा ही वासना और लालसा से ऐसी ही भरी हुई थी जैसे की अभी हूँ. लेकिन साथ ही मैं हमेशा अपने दिमाग़ में खुद ही रोड़े अटकाती रही थी. भीतर ही भीतर मुझे हमेशा से पता था कि मुझमें असीमित जुनून है लेकिन उसे बाहर लाने का कोई भी रास्ता ठीक नहीं लग रहा था. ईरेन लगातार मेरे भीतर समलैंगिक होने को लेकर मौजूद गिल्ट को मज़बूत करती रही है और एक तरह से अब मुझे अपनी ही नज़र में बदसूरत बनाकर वह मुझे बर्बाद करने के बहुत क़रीब आ गयी है. लेकिन अब मुझे सच पता है. मुझे मालूम है कि प्यार करना कितना सही और सच्चा है. अब मैंने कहीं न कहीं खुद ज़िंदा रहने की अनुमति दे दी है. सब कुछ अब यहीं से ही शुरू होता है. यह मेरा अपना पुनर्जन्म है”
एक कलाकार का जीवन
खुद को बेहतरी के लिए बदलने की इस प्रक्रिया को सूसन जीवन भर ‘सेल्फ़ ट्रांसफ़ोरमेशन’ कहती रहीं. खुद से ईमानदार बातचीत करते हुए अपने आंतरिक भय, इच्छाएं और फंतसियों का सामना करने के साथ-साथ उनकी इस ‘सेल्फ़ ट्रांसफ़ोरमेशन’ की प्रक्रिया में बहुत सारा कठिन परिश्रम भी शामिल था.
उदाहरण के लिए किशोरावस्था से लेकर उम्र के चौथे दशक तक सूसन अपनी डायरी में लगातार कई तरह की सूची बनाती रहीं थीं. मिसाल के तौर पर जो उन्हें किताबें पढ़नी और ख़रीदनी हैं, उनकी सूची. जो फ़िल्में और नाटक वह देख रहीं हैं उनकी सूची. अंग्रेज़ी के शब्दों-विशेषणों की सूची, अपनी व्यक्तिगत कमियों की सूची इत्यादि.
डायरी में जहां तहां बिखरी यह सूचियाँ सूसन के खुद को गढ़ने की कष्टप्रद प्रगाढ़ प्रक्रिया और उनकी ‘इनर वर्किंग’ में पाठक को शामिल करती हैं.
इस बीच चौदह बरस की आयु में टॉमस मान के उपन्यास और आंद्रे ज़ीद की डायरी पढ़ते हुए मैं सूसन से मिलती हूँ. और बाद के पन्नों में अपना टूटा हुआ दिल जैसे किताब के साथ ही हाथों में लेकर साल ब साल गहरे दुःख के निजी क्षणों में भी लगातार पढ़ती हुई सूज़न की कला के प्रति निष्ठा से भी परिचित होती हूँ.
‘सेल्फ़ ट्रांसफ़ोरमेशन’ की इस अवधारणा पर सूसन का विश्वास इतना गहरा था कि वह अपने कई सार्वजनिक भाषणों और साक्षात्कारों में इस ‘वर्किंग ऑन सेल्फ़’ का उल्लेख करना नहीं भूलतीं. वह अक्सर कहती थीं कि उन्हें सिर्फ़ उन्हीं लोगों में दिलचस्पी है जो खुद को बदलने, दोबारा गढ़ने और नई तरह से परिभाषित करने में जुटे हुए हैं. प्रेम भी ऐसा जो व्यक्ति के निजी परिमार्जन का द्वार बने.
खुद को जानने की उनकी जिज्ञासा इतनी प्रबल थी कि अक्सर डायरी में वह खुद से “मेरी सच्ची भावनाएँ क्या हैं? क्या मुझे पता है कि मैं क्या महसूस करती हूँ?” जैसे सवाल पूछती नज़र आती हैं.
सूसन प्रेम को ‘सेल्फ़’ के इस ‘ट्रांसफ़ोरमेशन’ का सबसे बड़ा स्रोत मानती थीं. उनका विश्वास था कि अगर कोई प्रेम आपको सिरे से नहीं बदलता तो शायद वह प्रेम है ही नहीं.
अपने ‘प्रोजेक्ट स्लेफ़’ पर उनका यह मंथन बौद्धिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर दशकों तक लगातार चलता रहा है. मसलन जून 1949 की एक एंट्री में वह जोड़ती हैं,
“मुझे यह कभी नहीं भूलना चाहिए की मैं अनंत हूँ. मुझे संवेदना और कामुकता दोनों चाहिए”.
उनकी खुद को लेकर यह बेहिसाब बेबाक़ी और साहस मुझे एक सुखद आश्चर्य से भर देता है. जैसे मैं खुद से कह रही हूँ– कोई लेखक तो था जो अपने अस्तित्व की सम्पूर्ण बहुवाचिकता में यूं खुद का सामना खुद कर पा रहा था ! निर्मम, क्रूर, ईमानदार लेकिन फिर भी करुणा से ख़ाली नहीं. बल्कि एक ऐसा कलाकार जिसने खुद को अपने दुःख से यूं माँजा कि जीवन के आघातों से अर्जित हर नए घाव के बाद उसके मन की परिधि में करुणा और हृदय की विशालता का स्थान बढ़ता ही गया.
यह विशाल-हृदयता बाद के वर्षों में सूसन के सृजन में भी लगातार झलकती रही. अमरीका के साथ-साथ यूरोप के तक़रीबन सभी महत्वपूर्ण लेखकों के काम पर उन्होंने जिस निष्ठा, उदारता और उज्ज्वल दृष्टि से लिखा है वह आज के संकुचित होते जा रहे साहित्यिक माहौल में हम सभी के एक शिक्षित करने वाला उदाहरण है.
अपने ‘अन्य’ की तलाश में
लिखने से सिवा सूसन सौन्टैग एक नागरिक बुद्धिजीवी की तरह दुनिया में हो रही घटनाओं पर लगातार हस्तक्षेप करती रही थीं. अमरीका के वियतनाम पर हमले के ख़िलाफ़ उनका खुलकर खड़ा होना उनके इस नागरिक स्वभाव का सबसे प्रमुख उदाहरण है. साथ ही, बाद के वर्षों में अपने उपन्यास ‘ऑन अमेरिका’ को बीच में ही छोड़ उनका युद्ध की त्रासदी के बीच फँसे यूरोपीय देश बोसनिया में तीन साल बिता देना, वह भी बिना किसी तात्कालिक राजनीतिक या लेखकीय कारण के, मात्र ‘लोगों की मदद’ करने के लिए.
जब उन्होंने सारिएवो के भूखे और टूटे थियेटर कलाकारों के साथ मिलकर युद्ध की उस विभीषिका के बीच ‘वेटिंग फ़ोर गोडोट’ का मंचन किया तो मानवता की वह करुण पुकार सारी दुनिया तक पहुँची. आधी दुनिया पार कर तीन साल तक एक युद्धरत देश में रहने वाली इस लेखक में मानवता को बचाने के प्रति विरल प्रतिबद्धता थी. सूसन के जीवनीकार बेंजामिन मोज़र उनकी जीवनी में बताते भी हैं कि सारिएवो में आज भी लोग सूसन को और उनके ‘साथ’ को बहुत स्नेह से याद करते हैं. यहाँ तक कि शहर के बीचो-बीच मौजूद एक चौराहे का नाम भी सूसन के नाम पर रखा गया है- सूसन सौन्टैग स्कवायर.
इन दुर्लभ अनुभवों से भरा-पूरा समृद्ध जीवन जीने के बावजूद एक लेखक के तौर पर उन्होंने हमेशा अपने ‘जिए हुए’ को सीधे अपने गल्प में लाने से परहेज़ किया. वह लिखती भी हैं कि फ़िक्शन में वह हमेशा अपने अन्य (अदर) की तलाश में रही हैं.
“Susan Sontag is the smartest woman I have ever known”
बीते सालों में सौन्टैग के संदर्भ में यह वाक्य मैं इतनी बार दोहराती रही हूँ कि परिचित अब इसे मेरा निजी तकियाकलाम कहने लगे हैं. लेकिन इस विलक्षण लेखक के संदर्भ मैंने यहाँ जो भी लिखा है और उससे भी ज़्यादा वह सब जो शायद नहीं लिख पायी– उन सभी शब्दों का स्रोत भाषा को लेकर उनके अदम्य अमिट प्रेम पर खुलता है.
जब वह चौथे स्टेज के ब्रेस्ट कैंसर से जूझ रही थीं और लगभग मृत्यु शय्या पर ही थीं तब डायरी में दर्ज एक बहुत ही मार्मिक एंट्री में उन्होंने खुद से एक सवाल पूछा है–
वह क्या चीज है जो इस वक्त मुझे ताक़त और ऊर्जा देती है?
पहले जवाब में सिर्फ़ शब्द दर्ज है– भाषा.
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लेखक और पत्रकार प्रियंका दुबे बीते एक दशक से सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग करती रही हैं. जेंडर और सोशल जस्टिस पर उनकी इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले हैं जिनमें 2019 का चमेली देवी जैन राष्ट्रीय पुरस्कार, 2015 का नाइट इंटरनैशनल जर्नलिज़म अवार्ड, 2014 का कर्ट शोर्क इंटरनैशनल अवार्ड, 2013 का रेड इंक अवार्ड, 2012 का भारतीय प्रेस परिषद का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2011 का राम नाथ गोईंका पुरस्कार प्रमुख हैं. उनकी रेपोर्टें 2014 के ‘थोमसन फ़ाउंडेशन यंग जर्नलिस्ट फ़्रोम डिवेलपिंग वर्ल्ड’ और 2013 के ‘जर्मन डेवलपमेंट मीडिया अवार्ड’ में भी बतौर फ़ायनलिस्ट चयनित हुई थीं. साथ ही स्त्री मुद्दों पर उनकी सतत रिपोर्टिंग के लिए उन्हें तीन बार लाड़ली मीडिया पुरस्कार भी दिया जा चुका है. 2016 में वह लंदन की वेस्टमिनिस्टर यूनिवर्सिटी में चिवनिंग फ़ेलो रहीं हैं और 2015 की गर्मियों में भारत के संगम हाउस में राइटर-इन-रेसीडेंस. 2015 में ही सामाजिक मुद्दों पर उनके काम को इंटरनैशनल विमन मीडिया फ़ाउंडेशन का ‘होवर्ड जी बफेट ग्रांट’ घोषित हुआ था. साइमन एंड चिश्टर द्वारा 2019 में प्रकाशित ‘नो नेशन फ़ोर विमन’ उनकी पहली किताब है. 2019 में ही इस किताब को शक्ति भट्ट फ़र्स्ट बुक प्राइज़, टाटा लिटेरेचर लाइव अवार्ड और प्रभा खेतान विमेन्स वोईसे अवार्ड के लिए शॉर्ट लिस्ट लिया गया था. लम्बे समय से कविताएँ लिखकर संकोचवश छिपाती रहने वाली प्रियंका का दिल साहित्य में बसता है. इन दिनों वह शिमला में रह कर अपने पहले (हिंदी) उपन्यास पर काम कर रही हैं. |
प्रियंका दुबे ने सुसान सोंटेग के रचनाकर्म पर बहुत डूबकर लिखा है। ऐसा वही पाठक कर सकता है जिसने अपने प्रिय लेखक को गहराई तक आत्मसात किया हो। शिमला में एक मंच से मैंने प्रियंका दुबे के रचनाकर्म और नो नेशन फॉर वीमेन की अपनी सामर्थ्यनुसार तारीफ़ की थी। इस आलेख को सामने लाने के लिए आपको साधुवाद।
अच्छा है। हिंदी में सूसन सोनटैग पर अच्छा प्रयास। जो ख़ुद को बहुत बड़ा आलोचक और समीक्षक समझते हैं उन्हें सोनटैग ज़रूर पढ़ना चाहिए। बंद दिमाग़ की अधजली बत्तियां भी रौशन होने लगेंगी। हम पांच दशक से अधिक से उन से परिचित हैं। उन्हें पढ़ कर काफ़ी कुछ जाना सीखा है। कु. प्रियंका दुबे को हार्दिक बधाई। ऐसे लेखिका/लेखक पर और लिखें। औरों का ज्ञान वर्धन करें। धन्यवाद।
मैंने सूज़न सोंटाग को ज़्यादा नहीं पढ़ा। उनके जर्नल्स ज़रूर पढ़े है और साहित्य को मात्र बौद्धिक विलास न मानकर सोंटाग उसे आस्तित्विक (existential) मानती है जिसमें भावाकुलता, बौद्धिकता (cerebral pursuits) से लेकर नितांत शारिरिकता के लिए स्थान है बल्कि वह बना ही इन सबसे है।
हिंदी का लेखक इससे बहुत कुछ सीख सकता है। आत्मतुष्टि (self righteous/smug) या ख़ुदपसन्दी से सूज़न सोंटाग आपको क़दम क़दम पर आगाह करती है। निर्णय देने की जल्दबाज़ी, मूल्यांकन का अतिउत्साह और ख़ारिज करने की वृत्ति से यदि हिंदी का आलोचक मुक्ति पाना चाहता है तो उसे इस लेख और इस लेख के बाद सोंटाग का काम पढ़ना चाहिए।
प्रियंका सजग पाठक हैं और उनके पास विश्व साहित्य/पत्रकारिता/आत्मकथाओं पर ख़ज़ाना है। अक्षय मुकुल की अज्ञेय पर प्रकाशित किताब पर उनकी समीक्षा भी अच्छी थी।
वे इस क्रम को और बढ़ाएं ।
शुभकामनाएं प्रियंका।
Sontag से पहला परिचय तब हुआ था जब अनामिका की ‘ब्रेस्ट कैंसर और पवन करण की ‘स्तन’ कविताओं पर एक आलेख लिखना था। प्रियंका दुबे के लेख से sontag की डायरी पढ़ने की ज़रुरत महसूस हुयी है।
एक सुधि पाठक द्वारा अपने प्रिय लेखक पर लिखी गई संतुलित और सारगर्भित टिप्पणी के लिए प्रियंका बधाई की पात्र हैं. एक गंभीर लेखक से परिचय कराने और जरूरी जानकारी के लिए शुक्रिया भी कहना होगा. समीक्षक को खूब-खूब साधुवाद !
सूसन सौंटेग सरीखी अद्भुत लेखिका को पढ़ने के लिए प्रेरित करता यह लेख सचमुच अभिभूत करता है
बेहद आत्मीयता से लिखे इस लेख के लिए प्रियंका दूबे जी को बहुत बधाई। इस आलेख को पढ़कर सूसन सौन्टैग को और अधिक पढ़ने-समझने की जिज्ञासा बढ़ जाना ही इस आलेख की सफलता और सार्थकता है। धन्यवाद ‘समालोचन’।
ज़बरदस्त आलेख है यह। वह जुनून जो Susan Sontag के देहात्म से प्रियंका दुबे के देहात्म में उफ़नता और मचलता चला आता है, इस यात्रा की नब्ज़ को मैं अच्छे से पहचानती हूँ। पेरिस में Montparnasse cemetery में Marguerite Duras को देखने बार बार जाते हुए मैंने Susan Sontag की कब्र को भी कई बार देखा था।
जो ज़लज़ले इन दोनों लेखकों ने अपने पाठकों के दिलोदिमाग में पैदा किये, और जिन ज़लज़लों से उत्प्रेरित लेखन को किसी आलोचक ने ट्रांस्फेरेंस का नाम दिया है, उस लेखन से मेरा स्वयं का पुराना रिश्ता है।
प्रियंका के जुनून को हिंदी के पाठक आत्मसात कर पा रहे हैं, यह मेरे लिए बड़ी घटना है।
‘अगर कोई प्रेम आपको सिरे से नहीं बदलता तो शायद वह प्रेम है ही नहीं.’
“मुझे यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि मैं अनंत हूँ. मुझे संवेदना और कामुकता दोनों चाहिए”.
बहुत सुंदर प्रियंका। किसी लेखक को इतने प्रेम, आत्मा और मस्तिष्क की गहराइयों से पढ़ने के लिए जो पाठकीय गुण और गहराई चाहिए, वो आपमें है।
आपके लेख को पढ़कर मुझे पहली बार इस लेखिका को पढ़ने की अतीव जिज्ञासा और इच्छा हुई।
बहुत शुक्रिया आपका।
शाबास लिखा तुमने प्रियंका। मुझे सबसे अच्छी बात लेखक के अंतस तक पहुंचने की तुम्हारी प्रक्रिया लगी।
‘अक्सर ऐसा होता है कि हम लेखकों के गल्प के स्रोतों को समझने के लिए उनकी डायरी की ओर रुख करते हैं। लेकिन इसके ठीक उलट सूसन की डायरी को समझने के लिए मैंने खुद को उनके निबंध और गद्य को खंघालता हुआ पाया..’
मेरे प्रारंभिक रिसर्च के दिनों में सोनटैग को पढ़ने के चुनौतियों में सबसे बड़ी चुनौती उनके रिफाइंड अंग्रेजी को समझने की थी ख़ास तौरपर मेरे जैसे विद्यार्थी के लिए जिसने अपनी प्रारम्भिक पढाई हिंदी माध्यम से की थी। सोनटैग का लिखा और उनपर लिखा सब अंग्रेजी में पढ़ा। उनपर एक आर्टिकल भी अंग्रेजी में ही लिखा। पर सोनटैग पर लिखा आपका लेख पढ़ना मुझे एक सुर्रियल अनुभूति देता है। सोनटैग पर लिखने के लिए आपके भाषा का चुनाव अविश्वसनीय है और सराहनीय भी। सराहनीय इसलिए भी क्यूंकि सोनटैग के जीवन और लेखन को हिंदी भाषी लोगों तक पहुंचाने की अपने तरह की यह पहली कोशिश आपके लेख से हुयी हैं। इसके लिए मैं आपको बहुत बहुत बधाई देती हूँ। सोनटैग के लेखन के हिंदी ट्रांसलेशन के विचार मात्र से हीं मैं उत्साह से भर गयी हूँ जो केवल आपके लेख को पढ़के उत्पन्न हुयी हैं।
प्रियंका ने अपने पाठक की ओर से एक समानांतर, दिलचस्प पाठ तैयार किया है। यह दीवार में एक खिड़की खोलने की तरह भी है। Regarding Susan Sontag, 2014 डाॅक्युमेंट्री देखते हुए भी ऐसा ख़याल आया था।
मैं इंतजार कर रही थी कि प्रियंका अपनी प्रिय लेखक के बारे में विस्तार से कब लिखेंगी.
तमाम दीवारों को तोड़ कर स्व को रचने वाली लेखिका को समझने की एक भरपूर कोशिश। दर असल प्रियंका ख़ुद भी तो एक ज़माने से वही कुछ करने में लगी हैं। शायद इसीलिए वह सोनटैग को इतनी गहराई तक पढ़ और गढ़ सकीं।
इस आलेख के शुरू से अंत तक दो पंक्तियों ने मुझे बाँधे रखा।पहली कि विचार प्रक्रिया की शुरुआत ही लेकिन से होती है और दूसरी कि साहित्य का एक काम यह भी है कि वह हमें याद दिलाता रहे कि इस संसार में और लोग भी रहते हैं। सूजन सोंटाग पर यह पठनीय आलेख।
बहुत प्रभावशाली आलेख। सादर।
इस लेख से जितना सूसन सोन्टैग को जाना, उतना ही प्रियंका जी को भी। सूसन की यश- गाथा कुछ सुनी थी, इतना व्यवस्थित, गहरा और अधिक जानने के लिए विकल करने वाला परिचय इसी लेख से मिला। प्रियंका का और लिखा पढना भी जरूरी लग रहा है।