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Home » अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ के दोहे: दीपा गुप्ता

अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ के दोहे: दीपा गुप्ता

रहीम (17 दिसम्बर, 1556 - 1 अक्तूबर, 1627) मध्यकाल के दुर्लभ सांसारिक कवि हैं, इस अर्थ में आधुनिक भी. उनकी नीति के दोहे आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि में न उलझकर इसी जीवन को कैसे नैतिक और बेहतर करें इस ध्येय से रचे गये हैं. वह कवि के साथ राजनीतिक व्यक्ति भी थे. महान अकबर तो नहीं पर उनके बाद उस दरबार के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति तो थे ही. उन्होंने संस्कृत में भी लिखा है और अपने समय के लगभग सभी बड़े कवियों, संतों से उनके व्यक्तिगत सम्बन्ध बताये जाते हैं. हरीश त्रिवेदी ने अपने एक लेख में उनके महत्व पर प्रकाश डाला है. दीपा गुप्ता रहीम की गम्भीर अध्येता हैं, एक टिप्पणी के साथ रहीम के पच्चीस दोहों का अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है.

by arun dev
February 3, 2023
in शोध
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अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ के दोहे: दीपा गुप्ता
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अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ के दोहे

दीपा गुप्ता

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने “भक्ति काल की फुटकल रचनाएँ” शीर्षक में छीहल, लालचदास, कृपाराम, महापात्र नरहरि बंदीजन, नरोत्तमदास, आलम, टोडरमल, बीरबल, कवि गंग, मनोहर कवि, बालभद्र मिश्र, जमाल, केशव दास, होलराय, अब्दुर्रहीम खा़नेख़ाना, कादिर, मुबारक, बनारसीदास, सेनापति, पुहकर कवि, सुन्दर, लालचंद या लक्षोदय जैसे बाईस कवियों को रखा है.

इन बाईस कवियों में से अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ को छोड़कर बाकी सारे कवि दरबारी कवि थे. अब्दुर्रहीम खा़नेख़ाना को क्यों छोड़ा जाए? इसके लिए हमें इतिहास की ओर मुड़कर देखना होगा.

रहीम शूरवीर बैरम खां के पुत्र थे. मुगल बादशाह हुमायूँ ने जमींदार जमाल खान मेवाती की बड़ी मेव कन्या से खुद विवाह किया और छोटी कन्या से बैरम खां का विवाह कराया. यहीं से मुगलों से रहीम के पारिवारिक संबंधों की शुरुआत हुई.

बैरम खाँ की हत्या के बाद अकबर ने रहीम की सौतेली मां सुल्ताना बेगम से विवाह कर लिया और रहीम को धर्मपुत्र के रूप में पाला. (यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि सुल्ताना बेगम रहीम की मां नहीं थीं. सुल्ताना बेगम बैरम खां की दूसरी पत्नी थीं जो आजीवन नि:संतान रहीं. बहुत सी किताबों यहाँ तक की पाठ्य पुस्तकों तक में सुल्ताना बेगम को रहीम की मां के रूप में चित्रित किया गया है) बादशाह अकबर ने रहीम का विवाह महाबानो बेगम से कराया जिसकी मां माहम अनगा का दूध अकबर ने भी पिया था.

इस तरह रहीम की पत्नी अकबर की बहन समान हुईं. इसके अलावा रहीम की प्रिय पुत्री जाना बेगम का विवाह अकबर ने स्वयं अपने प्रिय पुत्र शाहजदा दानियाल से कराया था.

इस तरह रहीम और मुगल वंश के बीच गहरे पारिवारिक संबंध थे. अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ भले ही मुगल बादशाह नहीं बने हो, मगर इनका रुतबा और शानोशौकत किसी मुगल बादशाह से कम न थी. श्री माया शंकर ने रहीम रत्नावली के पृष्ठ नौ पर लिखा है कि

“यह विद्वानों और कवियों का ऐसा आदर करते थे कि लोग दांतो तले अंगुली दबा कर रह जाते थे. हिंदी और अनेकानेक कवि इनके आश्रित थे. यदि यह स्वयं कवि या लेखक न होकर केवल कलाकारों के आश्रयदाता मात्र ही रहते तो भी इनका नाम साहित्य संसार में सदा के लिए स्मरणीय बना रहता.”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें अपने समय का कर्ण कहा था. इनकी दानशीलता हृदय की सच्ची प्रेरणा के रूप में थी, कीर्ति की कामना से उसका कोई संपर्क नहीं था, तो फिर अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ को फुटकल दरबारी कवियों में रखने का औचित्य समझ से परे है. दरअसल ईमानदारी यह कहती है कि अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ तुलसीदास, सूर, कबीर के समसामयिक होते हुए भी भक्तों की श्रेणी में पूर्ण रूप से नहीं आ रहे हैं तो भक्तिकाल की सगुण भक्ति धारा का फुटकल के अलावा एक और विभाजन होना चाहिए था जहां अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ को रखा जाता. जहाँ वह पूर्ण संत नहीं, दरबारी नहीं, स्वयं दरबार थे. इन्होंने सत्ता का सर्वोच्च सुख भोगा तो अपार दु:ख भी देखा था. दु:खों ने इन्हें रचा था, इसीलिए इनके दोहे थोथे उपदेश नहीं, मन की आह और आंखों देखी हकीकत से बने संवरे हैं तभी हम सबके इतने करीब हैं.

इनके दोहे कामधेनु हैं. न वक्त ने रहीम को समझा है और न तख्त ने, अगर वक्त और तख्त अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ को समझते तो कोई युद्ध न होता. नेक नियति से एक इंसान कितना बड़ा हो सकता है इसका प्रमाण अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ हैं.

दोहे
अनुवाद: दीपा गुप्ता

1.

असमय परे रहीम कहि, मांगि जात तजि लाज l
ज्यों लछमन मांगन गए, पारासर के नाज ll

रहीम कहते हैं कि लज्जा एक शाश्वत भाव है और प्रत्येक मनुष्य के भीतर लज्जा या शर्म का भाव होना चाहिए, लेकिन बुरे वक्त में भी अगर हम शर्म नहीं छोड़ेंगे तो हमारा जीवन भारी कठिनाइयों से घिर जाएगा. एक उदाहरण देते हुए वह अपनी बात स्पष्ट करते हैं कि लक्ष्मण जैसा धनुषधारी और अयोध्या का राजकुमार विपत्ति के समय अनाज मांगने के लिए जब महर्षि पराशर के द्वार जा सकता है तो साधारण मनुष्य को सोच विचार करने की आवश्यकता नहीं है, सच तो यह है कि विपत्ति के समय लज्जा का त्याग करके याचना करना ही उचित है.

2.

रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन की फेर I
जब नीके दिन आइ हैं, बनत न लगि है देर II

जब परिस्थितियाँ आपके प्रतिकूल हो तो शांत बैठने में ही भलाई है क्योंकि विपरीत परिस्थितियाँ आपको गलत निर्णय लेने के लिए विवश कर सकती हैं. रहीम कहते हैं कि जो मनुष्य विपरीत परिस्थितियों में शांत रहकर अनुकूल परिस्थितियों का इंतजार करता है उसको सकारात्मक परिणाम मिलते हैं क्योंकि समय सदैव एक सा नहीं रहता है. जब अच्छा समय आएगा तो सारे काम आपकी इच्छा के अनुरूप होंगे.

3.

अनुचित वचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि I
है रहीम रघुनाथ तें, सुजस भरत को बाढ़ि II

रहीम कहते हैं कि गुरु के मुख से निकली अनुचित बात को हमें नहीं मानना चाहिए चाहे वह अनुचित बात गुरु ने कितनी भी गंभीरता से कही हो. जैसे राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया और वनवास को चुना, उन्होंने स्वयं कष्ट भोगा और परिवार को कष्ट दिया. पिता दशरथ भी इस गहरे दु:ख से परलोक सिधार गए. इसके विपरीत भरत ने अपनी माता कैकेयी की अनुचित आज्ञा का पालन न करते हुए अयोध्या का राज्य त्याग दिया और यश के भागी बने, इसलिए माता, पिता, गुरु अथवा किसी वरिष्ठ व्यक्ति की बात मानने से पहले खुद अवलोकन कर लेना चाहिए कि गंभीरतापूर्वक कही बात को मानना उचित है या अनुचित.

4.

अब रहीम मुसकिल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम l
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ll

रहीम कहते हैं कि इस संसार में रहना अब कठिन हो गया है क्योंकि सच कहने वालों को यह दुनिया अपनाती नहीं है और झूठ बोलो तो ईश्वर का आश्रय प्राप्त नहीं होता है. अर्थात अगर इस सांसारिक जीवन में कोई केवल सच ही बोलेगा तो यह सारी दुनिया उसकी दुश्मन बन जाएगी क्योंकि कढ़वा सच कोई सुनना नहीं चाहता है और अगर झूठ बोलेगा तो ईश्वर से दूर जाने का भय सदैव मन में बना रहेगा.

5.

कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीति I
विपत्ति कसौटी जे कसे, ते ही सांचे मीत ll

रहीम कहते हैं कि जब तक आपके पास धन-दौलत, ऐशो आराम के सारे साधन उपलब्ध रहेंगे तब तक बहुत सारे लोग आपके आसपास इकट्ठा होते रहेंगे और अनेक प्रकार से अपने मित्र होने का दम्भ भरते रहेंगे, लेकिन विपत्ति के आने और धन-दौलत का साथ छोड़ते ही यह मित्र भी साथ छोड़ने लगते हैं. विपत्ति के समय साथ छोड़ने वाले सच्चे मित्र थे ही नहीं, सच्चे मित्र तो वह हैं जो विपत्ति के समय भी आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं. तो विपत्ति वह कसौटी है जिस पर सही और गलत मित्र की पहचान की जा सकती है.

6.

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग l
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ll

मित्रता समान स्वभाव वालों के साथ करनी चाहिए क्योंकि विपरीत स्वभाव वाला मित्र कब आप को चोट पहुंचा दे कहा नहीं जा सकता है. रहीम बेर और केले के प्रचलित उदाहरण द्वारा अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अगर बेर की झाड़ी और केले का पेड़ आस-पास हों तो केले के पत्तों की क्षति होना तय है, क्योंकि हवा चलने पर स्वभाविक रूप से केले के पत्ते बेर की झाड़ियों से टकराएंगे तो बेर के कांटों से केले के पत्तों का फट जाना तय है, इसीलिए कहा गया है कि विपरीत स्वभाव के व्यक्तियों में समुचित दूरी का होना उचित है.

7.

कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प वृच्छ की छाँह I
रहिमन दाख सुहावनो, जो गल पीतम बाँह ll

रहीम कहते हैं कि अपने प्रियतम से सच्चा स्नेह रखने वाली प्रिया के लिए स्वर्ग का अर्थ है प्रियतम का साथ, प्रियतम के बिना कल्पवृक्ष की छाँव और बैकुंठ धाम प्रिया के लिए व्यर्थ है, प्रिया ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहती है कि हे प्रभु! तुम मुझे किसी भी हाल में रखना परंतु मेरे प्रियतम का साथ सदैव मेरे साथ बनाए रखना क्योंकि प्रियतम की बांहें जब मेरे गले में होती है तो जंगली वृक्ष भी मेरे लिए कल्पवृक्ष हो जाता है और यह मेरी टूटी फूटी झोपड़ी भी बैकुंठधाम हो जाती है.

8.

कुटिलन संग रहीम कहि, साधु बचते नाहिं I
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहिं ll

रहीम कहते हैं कि सज्जन व्यक्ति भी अगर चालाक और बुरे लोगों की संगति में बैठने लगे तो कुसंगति के प्रहार से बच नहीं सकते, उन्हें भी बराबर सजा भुगतनी पड़ती है क्योंकि कुसंगति का असर जरूर होता है. एक उदाहरण देते हुए रहीम कहते हैं कि प्रियतम को अपने नजदीक बुलाने का इशारा तो नायिका की चंचल आंखें करती हैं परंतु सजा उसके कुचों को मिलती है क्योंकि नायक नजदीक आने पर प्रेम में डूबकर नायिका के कुचों को उमेठता है.

9.

कोऊ रहीम जनि काहु के, द्वार गए पछिताय I
सम्पत्ति के सब जात हैं, विपत्ति सबै लै जाए ll

रहीम कहते हैं कि अगर आप अपनी विपरीत परिस्थितियों में किसी के दरवाजे जाकर अपनी व्यथा कह आए हों और सहायता मांग बैठे हो तो अब पछताओ मत, क्योंकि विपत्ति हमें धनी के दरवाजे लाकर पटक देती है. वैसे भी धनी के द्वार कौन नहीं जाता है? इसलिए अब पछतावा करने से कोई फायदा नहीं है.

10.

गरज आपनी आपसों, रहिमन कही न जाय I
जैसे कुल की कुल वधू, पर घर जात लजाय ll

रहीम कहते हैं कि जीवन में आने वाली सारी अच्छी बुरी बातों के जिम्मेदार हम खुद होते हैं. स्वाभिमानी व्यक्ति मुश्किल घड़ी में अपने दु:ख को दूसरे से कहने में कई बार सोचता है लेकिन लज्जाहीन व्यक्ति हाथ फैलाते समय जरा भी संकोच नहीं करता है ठीक उसी प्रकार कुलीन परिवार की बहू पराए घर जाकर अपना दु:ख कहने में लज्जा का अनुभव करती है.

11.

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेश I
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देसll

जागीर छिन जाने के बाद रहीम के पास कुछ शेष नहीं बचता है परंतु याचक उन्हें फिर भी घेरे रहते हैं. एक ने घेरा तो रहीम ने यह दोहा लिखकर उसे रीवां के नरेश के पास भेजा कि ‘चित्रकूट में राम है और मैं भक्त उनके चरणों में’ अब जिस व्यक्ति पर विपदा आती है तो वह रीवां नरेश के दरबार में ही आता है. रीवां नरेश समझ गए और उन्होंने उस याचक को एक लाख रुपये दिए.

12.

जेहि अँचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात I
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु ह्वै जात ll

रहीम कहते हैं जिस प्रकार स्त्री अपने आंचल की आड़ में छिपाकर दिए को पवन से सुरक्षित रखती है लेकिन बुरे वक्त में वही दिया उसके शरीर को जला डालता है उसी प्रकार कभी-कभी संकट के समय मित्र भी शत्रु हो जाता है इसीलिए रहीम कहते हैं कि सबसे बड़ा शत्रु तो बुरा वक्त है जो मित्र को भी शत्रु बना देता है.

13.

जे गरीब परहित करें, ते रहीम बड़ लोग I
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ll

रहीम कहते हैं कि जो लोग गरीबों पर दया करते हैं उनकी सहायता करते हैं वास्तव में वे ही बड़े लोग कहलाते हैं. धन संपत्ति होने से कोई बड़ा या महान नहीं होता है. धन संपत्ति के साथ उदारता का भाव ही किसी इंसान को बड़ा या महान बनाता है. जैसे श्रीकृष्ण का दीनहीन बालसखा सुदामा से प्रेम और आदर से मिलना फिर मान सम्मान देकर विदा करना इस बात को सिद्ध करता है.

14.

जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह I
धरती पर ही परत है, सीत घाम औ मेह ll

रहीम कहते हैं कि जब मनुष्य रूप में इस धरती पर जन्म लिया है तो हर परिस्थिति को समान भाव से सहने का हमारे भीतर होना चाहिए. परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी विकट हों लेकिन हमें अपना आपा नहीं खोना चाहिए और न ही सुखद परिस्थितियों में अतिरिक्त प्रसन्न होने की आवश्यकता है. पृथ्वी का उदाहरण देते हुए रहीम ने कहा है कि हमें यह शिक्षा इस पृथ्वी से लेनी चाहिए जो सर्दी, गर्मी और बारिश में समान भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करने में पीछे नहीं हटती है.

15.

जो रहीम ओछो बढै, तौ अति ही इतराय I
प्यादे सों फरजी भयो, टेढो़-मेढ़ो जाय ll

जिस प्रकार शतरंज में प्यादा एक-एक घर चल कर जब अपने शत्रु वजीर के घर पहुंच जाता है तो उसकी चाल बदल जाती है अर्थात् वह खुद ही वजीर की चाल चलने लगता है. रहीम कहते हैं कि ठीक इसी प्रकार छोटी सोच रखने वाला व्यक्ति यदि येन केन प्रकार से उच्च पद तक पहुंच भी जाता है तो उसमें अहंकार आ जाता है और इसी कारण से वह धृष्टतापूर्ण व्यवहार करने लगता है.

16.

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग I
चंदन विष ब्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ll

रहीम कहते हैं कि गुणवान और दृढ़ मानसिक शक्ति से ओतप्रोत धैर्यशाली व्यक्ति पर बुरी संगति का कोई असर नहीं पड़ता है. बुरी संगत का असर कमजोर मानसिक शक्ति वाले धैर्यहीन व्यक्तियों पर ही पड़ता है. जैसे चंदन के शीतल वृक्ष पर दिन-रात जहरीले सांपों के लिपटे रहने के बाद भी चंदन अपनी शीतलता नहीं छोड़ता है.

17.

तरुवर फल नहीं खात है, नदी न संचै नीर I
पर कारज के कारनै, साधु धरैं शरीर ll

रहीम कहते हैं कि फलों से लदा वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाता हैं और न ही पानी से लबालब भरा सरोवर अपना जल खुद पीता है बल्कि यह दोनों उदारता पूर्वक दूसरों के लिए फल और पानी मुहैया कराते हैं. ठीक उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति अपने संचित किए गए धन का प्रयोग परोपकार के लिए ही करते हैं.

18.

थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात I
धनी पुरुष निर्धन भए, करै पाछिली बात ll

रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार क्वार के महीने में गरजने वाले बादलों से वर्षा की उम्मीद करना बेवकूफी होती है अर्थात् क्वार के महीने में बारिश होने की संभावनाएं क्षीण होती हैं, ठीक उसी प्रकार जब संपन्न व्यक्ति निर्धनता को प्राप्त हो जाता है तो वह अपने अच्छे दिनों को बड़े गर्व से याद करता है परंतु उसका याद करना क्वार के बादलों की तरह निष्फल होता है क्योंकि वर्तमान में वह सामर्थ्यहीन हो चुका होता है और किसी की सहायता करने में असमर्थ.

19.

यह न रहीम सराहिए, देन लेन की प्रीति I
प्रानन बाजी राखिए, हारि होय कै जीति ll

रहीम कहते हैं कि जिस प्रेम में लेन देन या व्यापार की बात होती है वह प्रेम सच्चा नहीं होता है, जिस प्रकार एक योद्धा रणभूमि में जाते वक्त हार जीत की परवाह न कर के अपने प्राणों की आहुति दे देता है ठीक उसी प्रकार सच्चा प्रेम करने वाला त्याग में विश्वास करता है प्राप्ति में नहीं.

20.

रहिमन गली है साँकरी, दूजो ना ठहराहिं I
आपु अहै तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नाहिं ll

रहीम कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता अत्यंत संकीर्ण है, केवल निश्चल मन से युक्त आत्मा का विलय ही परमात्मा से हो सकता है. जिस प्रकार बहुत पतली गली से एक बार में एक ही व्यक्ति गुजर सकता है ठीक उसी प्रकार अगर ईश्वर को प्राप्त करना है तो मनुष्य को अपने अहंकार का त्याग करना होगा क्योंकि जहां अहंकार है वहां ईश्वर नहीं है और जहां ईश्वर है वहां अहंकार नहीं है, तो अहंकार के साथ मनुष्य ईश्वर तक नहीं पहुंच सकता है इसलिए अहंकार को छोड़ देना ही उचित है.

21.

रहिमन यों सुख होत है, बढत देखि निज गात l
ज्यों बड़री अंखियां निरख, आंखिन को सुख होत ll

रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार दूसरों की बड़ी आँखों को देख कर अपनी आँखों को ठंडक पड़ती है उसी प्रकार अपने परिवार और कुटुंब को बढ़ता और खुशहाल देखकर घर के बड़े-बुजुर्गों को सुख होता है. खुशहाल और निरंतर उन्नति को अग्रसर वंशवृद्धि जीवन का सबसे बड़ा सुख है.

22.

रहिमन रहिला की भली, जो परसैं चित लाय l
परसत मन मैला करे, सो मैदा जरि जाय ll

रहीम कहते हैं कि प्रेम पूर्वक परोसी गई मोटे अनाज की रोटी उस मैदा की रोटी से हजार गुना भली होती है जो बेमन से परोसी जाती है अर्थात घर आया अतिथि प्रेम का भूखा होता है. अगर अतिथि को प्रेम पूर्वक साधारण भोजन भी परोसा जाता है तो उसे वह स्वाद लेकर खाता है. इसके विपरीत उदासीनता पूर्वक परोसा गया छप्पन प्रकार का राजभोग नष्ट हो जाने योग्य है क्योंकि इस प्रकार का मानरहित भोजन भूख मिटाने में समर्थ नहीं होता है.

23.

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार I
रहिमन फिरि फिरि पोहिये, टूटे मुक्ताहार ll

जिस प्रकार मोतियों की माला अगर टूट जाए और उसके मोती बिखर जाए तो उसके कीमती मोतियों को यत्नपूर्वक फिर से पिरो लिया जाता है. रहीम कहते हैं कि उसी प्रकार हमें मोती जैसे कीमती रिश्तों और अपने प्रियजनों को प्रेम के धागे में पिरो कर रखना चाहिए अर्थात अगर प्रियजन रूठ जाएं तो उन्हें यत्नपूर्वक बार-बार मना लेना चाहिए. अगर एक बार मनाने से न माने तो अपना प्रयास नहीं छोड़ना चाहिए. निरंतर प्रयास से जैसे माला फिर बन जाती है वैसे ही रुठे हुए प्रियजन भी मान जाते हैं.

24.

आवत काज रहीम कहि, गाड़े बंधु सनेह l
जीरन होत न पेड़ ज्यौं, थामै बरैं बरेह ll

रहीम कहते हैं कि विपदा के समय हमारे स्नेही बंधु ही हमारे काम आते हैं. जैसे बहुत पुराना बरगद का पेड़ अपनी जटाओं के द्वारा सहारा मिल जाने से कभी कमजोर या जीर्ण नहीं होता है, क्योंकि बरगद का पेड़ धरती तक लटकने वाली अपनी लंबी-लंबी जटाओं से पोषक तत्व को प्राप्त करता रहता है और सदैव हरा भरा रहता है ठीक उसी प्रकार गाढ़े समय में भाई बंधुओं का साथ हमें हारने नहीं देता है.

25.

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं I
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं ll

रहीम कहते हैं कि जब लकड़ी आग में जलती है तो सुलग- सुलग कर अंत में बुझ जाती है और बुझने के बाद वह दोबारा नहीं सुलगती है लेकिन प्रेम की आग इतनी अनोखी होती है कि उसमें दग्ध होने वाला प्रेमी बुझ बुझकर सुलगता रहता है.

दीपा गुप्ता ने ‘अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानाँ’ पर शोध कार्य किया है और उनके समग्र (फ़ारसी छोड़कर) का हिंदी अनुवाद भी किया है जिसे वाणी प्रकाशन ने छापा है. ‘सप्तपदी के मंत्र’ उनका कविता संग्रह तथा ‘अल्मोड़ा की अन्ना’ उनका कहानी संग्रह है. अल्मोड़ा में रहतीं हैं.

Deepagupta989@gmail.com

हरीश त्रिवेदी का आलेख यहाँ पढ़ा जा सकता है: ‘अंग्रेजी, फ़ारसी और संस्कृत के रहीम’

Tags: 20232023 आलेखअब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानादीपा गुप्तारहीम के दोहे
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Comments 6

  1. ममता कालिया says:
    2 months ago

    बरसों पहले पढ़े,रहीम के दोहों को सव्याख्या पढ़ कर अद्भुत हर्ष हुआ।दीपा गुप्ता ने यह पुनः अन्वेषण का महती कार्य किया है।

    Reply
  2. कृष्ण कल्पित says:
    2 months ago

    दीपा गुप्ता रहीम की गंभीर और दुर्लभ अध्येता हैं । रहीम पर उनका शोधकार्य मेरी नज़रों से गुज़रा है । रहीम पर हुए अब तक उत्कृष्ठ कार्यों में मैं दीपा गुप्ता की शोध पुस्तक को शामिल करता हूं । रहीम आज भी हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में शामिल हैं । वे हमारे जीवन में घुलमिल गए हैं । सुंदर आलेख और सटीक व्याख्या । समालोचन का आभार ।

    Reply
  3. Anonymous says:
    2 months ago

    बाल्यकाल में पुनः विचरण का अवसर सा मिला
    रहीम इतनी आत्मीयता से कथन करते है कि वह सीधे हृदय को स्पर्श ही नहीं करता बल्कि उतर जाता है। बहुत बहुत आभार 💐💐🙏

    Reply
  4. Balram Shukla says:
    2 months ago

    बहुत सुन्दर।
    एक सामान्य अशुद्धि की और संकेत करना आवश्यक है । शुद्ध शब्द ख़ानेख़ानाँ या ख़ानेख़ानान है , ना कि ख़ाने ख़ाना। इसका अर्थ है ख़ानो का ख़ान।

    Reply
  5. Sadre Alam Gauher says:
    2 months ago

    रहीम के दोहों की बड़ी सुंदर व्याख्या।

    Reply
  6. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    2 months ago

    अब्दुर्रहीम के दोहे और उनसे निसृत आशय के बहाने दीपा गुप्ता की एक एक व्याख्या लौकिक साधना और आध्यात्मिक अनुभूति का ऐसा दृश्य पैदा करती है कि ‘ नासेह ‘ की बातों के अनुरूप ही जीवन के क्रिया व्यापार को बनाए रखने का मन बने. भक्तिकाल की सगुण विचारधारा वाले दौर में क़ौमी यकजेहती का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि तुलसीदास ने अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानां के कहने पर ही “बरवै रामायण” लिखी.
    बढ़िया आलेख.

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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