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Home » टीआरपी के चक्र में टीवी:अरविंद दास

टीआरपी के चक्र में टीवी:अरविंद दास

समझ में नहीं आता कि माध्यम को दोष दिया जाए कि जिनके हाथों में वह है उन्हें. टीवी की शुरुआत भारत में कितनी उम्मीदों के साथ हुई थी, पत्रकारिता को उससे नये आयाम मिलने की आशा थी और आज हम कहाँ पहुंच गये हैं, रवीश कुमार ठीक ही कहते हैं कि इस देश में अगर तानाशाही आती है तो उसमें बड़ी भूमिका टीवी ‘पत्रकारिता’ की ही होगी. आपके पास सैकड़ों चैनल हैं और सामग्री सबकी लगभग एक जैसी है. यह कैसा विकल्प है ? वरिष्ठ टीवी पत्रकार मुकेश कुमार को लोग दूरदर्शन के जमाने से जानते हैं. सुबह सवेरे में साहित्य से जुड़ी उनकी प्रस्तुति की प्रतीक्षा रहती थी. उनकी दस से अधिक प्रकाशित किताबें हैं. इसी वर्ष राजकमल से उनकी किताब आयी है ‘टी आर पी: मीडिया मंडी का महामंत्र.’ इसकी चर्चा कर रहें हैं लेखक-पत्रकार अरविंद दास.

by arun dev
April 15, 2022
in समीक्षा
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टीआरपी के चक्र में टीवी:अरविंद दास
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टीआरपी के चक्र में टीवी

अरविंद दास

बीस साल पहले इसी महीने हम भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली से पत्रकारिता में प्रशिक्षण लेकर निकले थे. उन्हीं दिनों बाजार में कई नए निजी टेलीविजन समाचार चैनलों के आने की संभावना थी, कुछ ने चौबीसों घंटे अपना प्रसारण शुरू कर दिया था. नौकरी को लेकर हम उत्साहित थे, पर हम युवा साथियों के मन में टेलीविजन चैनलों की विषय-वस्तु, मनोरंजन, युद्धोन्माद, आक्रामकता आदि को लेकर अच्छे भाव नहीं थे.

अमेरिका में हुए 9/11 आतंकी हमले, भारतीय संसद पर हमला और गोधरा-गुजरात दंगों की घटना हमारे शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए चुनौती लेकर आया था.

उसी दौर में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्द भारतीय मीडिया में प्रचलन में आए थे और एक समुदाय विशेष की स्टीरियोटाइप छवि टीवी पर दिखाई जा रही थी. बीस साल के बाद भी हमारे भाव बदले नहीं हैं, फर्क इतना है कि हमें उस वक्त कहा जाता था कि अभी ‘संक्रमण काल (transition period)’ है जो कुछ महीनों में ठीक हो जाएगा, जबकि अब कहते हैं कि टेलीविजन चैनलों के लिए यह संकट काल है. अनायस नहीं कि पिछले कुछ वर्षों से देश के चर्चित पत्रकार-एंकर, रवीश कुमार, दर्शकों से टेलीविजन चैनल नहीं देखने की बार-बार अपील करते हैं!

ऐसा नहीं कि दस साल पहले कोई अच्छी स्थिति थी. वर्ष 2013 में वरिष्ठ पत्रकार-एंकर करण थापर ने एक आयोजन में कहा था:

“टीवी चैनल दरअसल, टीआरपी की दौड़ में लगे हैं. बीबीसी स्वायत्त है. वह विज्ञापन के लिए नहीं भागता. अगर आप ‘न्यूज वैल्यू’ से अलग होते हैं तो आपकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है और यह पत्रकारिता नहीं है.”

पिछले दिनों टीआरपी घोटाले की मीडिया में खूब चर्चा हुई थी. सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले, सत्य तक पहुँचने की बात करने वाले, लोकतंत्र का खुद को प्रहरी मानने वाले पत्रकार खुद खबर बन गए थे. ऐसे में लोगों के मन में टीआरपी को लेकर सहज जिज्ञासा थी कि टीआरपी का इतिहास क्या है? यह कैसे तय होती है? टीआरपी से कैसे पत्रकारिता प्रभावित होती है? आदि.

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मुकेश कुमार की हाल ही में प्रकाशित किताब ‘टीआरपी: मीडिया मंडी का महामंत्र’ में इन्हीं सवालों का सहजता से जवाब दिया गया है. समकालीन भारतीय समाज और मध्यवर्ग के जीवन में मीडिया की केंद्रीयता है, पर मीडिया के विभिन्न आयामों, विमर्श को लेकर शोधपरक पुस्तकों का सर्वथा अभाव है. यह किताब इस कमी को पूरा करती है.

गौरतलब है कि मुकेश कुमार ने टीआरपी को लेकर पीएचडी शोध कार्य किया है. इसी विषय पर वर्ष 2015 में ‘टीआरपी: टीवी न्यूज और बाजार’ (वाणी प्रकाशन) नाम से एक किताब उन्होंने लिखी थी और इन्हीं सवालों को टटोला था. ‘टीआरपी: मीडिया मंडी का महामंत्र’ (राजकमल प्रकाशन) टीआरपी घोटाले के संदर्भ में इन्हीं मुद्दों की नए सिरे से पड़ताल करती है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस किताब में विज्ञापन (32 हजार करोड़) और टेलीविजन रेटिंग पॉइंट के आपसी रिश्ते को विश्लेषित किया गया है. टीवी समाचार उद्योग में काम करने के अपने अनुभव के आधार पर लिखते हैं-

“न्यूज चैनलों में टीआरपी खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं मानी जाती है.”

वे इस किताब में टीआरपी को बाजार का औजार, हथियार कहते हैं. उनके विश्लेषण के केंद्र में मुख्यत: हिंदी के समाचार चैनल ही हैं.

सवाल है कि इन बीस वर्षों में हिंदी के टेलीविजन समाचार चैनल की प्रमुख प्रवृत्ति क्या रही? जनसंचार के प्रमुख माध्यम होने के नाते क्या इनके सरोकार जन से जुड़े? क्या सूचनाओं, विमर्शों के मार्फत इन्होंने जन को सशक्त किया ताकि लोकतंत्र में एक सजग नागरिक की भूमिका निभाने में इन्हें सहूलियत हो?

उदारीकरण (1991), निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद खुली अर्थव्यवस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर वह शुरु से ही कारपोरेट जगत का हिस्सा रहा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उद्देश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं. मुकेश कुमार लिखते हैं:

“वास्तव में बाजार, टीआरपी और पत्रकारिता के बीच का असली खेल शुरु हुआ चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों के आने के बाद. सन 2000 के आसपास यह दौर शुरु हुआ.”

वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में लगे करीब 44 हजार मीटर के जरिए रेटिंग के क्षेत्र में एक बड़ा नाम बार्क (Broadcast Audience Research Council) नामक संस्था टीआरपी देने का काम कर रही है. इस सैंपल को आधार बना कर वह करीब 85 करोड़ दर्शकों (20 करोड़ टीवी-घर) तक पहुँचने, उनके पसंद-नापसंद को जानने का यह दावा करती है और इसी आधार पर चैनलों के बीच विज्ञापनों का बंटवारा होता है. हालांकि टीआरपी घोटाले से पहले और घोटाले के बाद, सैंपल साइज, बार्क की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं. घोटाले की जाँच के दौरान बार्क के पूर्व सीइओ, पार्थो दासगुप्ता की गिरफ्तारी हुई. पुलिस के मुताबिक दासगुप्ता ने माना था कि रिपब्लिक टीवी के संपादक-एंकर अर्णब गोस्वामी ने रेटिंग बढ़वाने के लिए उन्हें लाखों रुपए रिश्वत दिए. इस किताब में लेखक ने बार्क की रेटिंग प्रणाली पर वाजिब सवाल उठाया है.

यह नोट करना समीचीन है कि भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों के प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. टेलीविजन की वजह से खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों, झुग्गी-झोपड़ियों तक हुई. पब्लिक स्फीयर का विस्तार हुआ, साथ ही एक नेटवर्क का निर्माण भी. जो केंद्र से दूर थे वे नजदीक आए. इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं समाचार की एक ऐसी समझ इसने विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है.

लेखक इस किताब में टेलीविजन चैनलों की ताकत पर अपनी नजर नहीं डालते हैं. टेलीविजन दृश्य-श्रव्य माध्यम है, जो तस्वीरों-आवाजों के माध्यम से संदेश को दर्शकों तक पहुँचाती है. टेलीविजन के संदेशों को ग्रहण करने के लिए साक्षर या पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है. जाहिर है भारत जैसे देश में जहाँ आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैं, टेलीविजन अखबारों का पूरक बन कर उभरा है. लेकिन यदि मीडिया को पहले ही ‘मंडी’ मान कर आप विश्लेषण करेंगे तो निष्कर्ष पूर्व-निर्धारित ही होंगे!

रेमंड विलियम्स ने अपनी चर्चित किताब टेलीविजन में टेलीविजन को तकनीकी और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में देखा-परखा है. टेलीविजन चैनलों की जो स्थिति है, उसका जिस तरह से पिछले दो दशकों में विकास हुआ है क्या वह हमारे उपभोक्तावादी समाज पर भी एक टिप्पणी नहीं है? विश्लेषकों का मानना है कि पूंजीवादी व्यवस्था के केंद्र में उपभोग की संस्कृति है. हमारे यहाँ दर्शकों की पसंद, इच्छा को लेकर अकादमिक शोध की पहल नहीं दिखती. ऐसे में इस निष्कर्ष तक पहुँचना कि ‘ये महाझूठ है कि दर्शकों के पास विकल्प हैं मगर वे उनका इस्तेमाल नहीं करते’ सरलीकरण ही कहा जाएगा.

मीडिया का विकास सामाजिक-सांस्कृतिक विकास से अलहदा नहीं होता. हिंदुत्ववादी प्रवृत्तियों के उभार का सारा दोष हम मीडिया के मत्थे मढ़ कर छुट्टी नहीं पा सकते.

इस पर काफी चर्चा हो चुकी है कि हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा है, जिसका एक सेट पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मुकेश कुमार ठीक ही इसे नोट करते हुए अपनी किताब में लिखते हैं:

“टीआरपी के चक्कर में ही बहस पर आधारित कार्यक्रमों में चीख-चिल्लाहट, लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज यहाँ तक की मारपीट आवश्यक तत्त्व बन गए, क्योंकि एक अनपढ़ देश में ऐसी चीजों की दर्शक संख्या अधिक होती है.”

यदि हम मान लें कि हिंदी के दर्शक ‘अनपढ़’ हैं, पर अंग्रेजी के दर्शक तो पढ़े-लिखे माने जाते हैं, फिर क्यों अंग्रेजी चैनलों के न्यूज रूम में भी आज वही चीख-चिल्लाहट सुनाई पड़ती है? क्यों अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार अपने चैनलों पर ऐसी बहस करते हैं जो सौहार्द की जगह वैमनस्य को बढ़ावा देता है, जिसका तथ्य और सत्य से कोई नाता नहीं रहता? क्यों ट्विटर पर सांप्रदायिक टीका-टिप्पणी वे करते दिखते हैं? क्या अंग्रेजी के समाचार चैनल हिंदुत्व के मुद्दे पर हिंदी चैनलों की राह पर नहीं है? क्या उग्र राष्ट्रवाद का स्वरूप अंग्रेजी और हिंदी के चैनलों में कमोबेश एक जैसा नहीं है? आज क्या दोनों के बीच एक खंडित लोक (split public) का स्वरूप वही है जिसकी चर्चा पिछली सदी में 90 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन के संदर्भ में अरविंद राजगोपाल अपनी किताब में करते हैं.

मुझे लगता है कि यह विभाजक रेखा धुंधली हुई है. सत्ता के करीब पहुँचने की ललक में अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार ज्यादा महीन ढंग से काम करते हैं. एनडीटीवी ने पूर्व पत्रकार संदीप भूषण ने ‘द इंडियन न्यूजरूम’ (2019) में इसकी पड़ताल की है.

सवाल यह भी है क्या सनसनी इस माध्यम की विशेषता तो नहीं? टीवी के पास महज़ एक परदा है जहाँ पर उसे सब कुछ दिखाना होता है, इस मामले में वह अखबारों या मोबाइल तकनीकी (ऑनलाइन मीडिया) से अलग है.

मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन ने अमेरिकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि-

‘सीरियस टेलीविजन अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता है-मनोरंजन की जबान.’

क्या यह हमारे समाचार चैनलों के सच नहीं है. पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शो, सीधे शब्दों में, मनोरंजन का एक प्रारूप है न कि शिक्षा, गहन विवेचन या विरेचन का. लेखक टीवी रेटिंग की नई प्रणाली की वकालत अपनी किताब में करते हैं, पर क्या उससे समस्या का समाधान संभव है? क्योंकि खुद लेखक ने लिखा है-

“कितनी भी निर्दोष रेटिंग प्रणाली क्यों न स्थापित कर दी जाए, कंटेंट उसके दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता.”

जाहिर है ऐसे में महज टीआरपी के कोण से हम टेलीविजन की संस्कृति का विश्लेषण नहीं कर सकते.

भारत में कारोबारी मीडिया और सत्ता के आपसी सांठगांठ पर कम बातचीत होती है, इस किताब में भी इस मुद्दे को महज छुआ गया है जिस पर विस्तृत शोध की अपेक्षा है. कुछ अपवादों को छोड़ कर आजाद भारत में सत्ता के इशारे पर मीडिया हमेशा काम करता रहा है.

आपातकाल में अधिकांश मीडिया घराने ने घुटने टेक दिए थे. मुकेश कुमार ने एक जगह लिखा है कि ‘पहला हमला बेशक बाजार का था जो टीआरपी के जरिए हुआ, मगर दूसरा आक्रमण राजनीति की ओर से हुआ है और इसकी शुरुआत छह साल पहले हुई है जो कि अभी जारी है.’ पर लेखक इसके विस्तार में नहीं जाते कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद मीडिया जगत में किस तरह से परिवर्तन आया है.

एक रपट की तरह वे लिपिबद्ध करके छुटकारा पा लेते हैं, जबकि उनके पास पत्रकारिता का लंबा अनुभव है. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे वे परख सकते थे. इसी लेख में वे नोट करते हैं कि हमारा मीडिया ‘सवर्णवादी है, बहुसंख्यवादी है.’ क्या पिछले छह साल में ऐसा हुआ है? क्या इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं जो भारत में टेलीविजन चैनलों के कर्ता-धर्ता रहे हैं? लेखक, जिन्हें कई चैनलों को शुरु करने का श्रेय हैं, यदि अपने अनुभव के आधार पर इस संदर्भ में कुछ लिखते तो ज्यादा तथ्यपरक और प्रभावी होता- इथनोग्राफिक स्टडी की तरह. अंत में, लेखक शोधार्थी रहे हैं, ऐसे में इस किताब में एक भी संदर्भ, नोट, फुटनोट का उल्लेख नहीं होना खलता है.

यह पुस्तक आप यहाँ से खरीद सकते हैं

अरविंद दास
लेखक-पत्रकार.
‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ ‘मीडिया का मानचित्र’ किताबें प्रकाशित.
रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड मीडिया: जर्मन एंड इंडियन पर्सपेक्टिव्स के संयुक्त संपादक.
डीयू, आईआईएमसी और जेएनयू से अर्थशास्त्र, पत्रकारिता और साहित्य की मिली-जुली पढ़ाई.
एफटीआईआई से फिल्म एप्रीसिएशन का कोर्स.
जेएनयू से पत्रकारिता में पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइट के लिए नियमित लेखन.

arvindkdas@gmail.com

Tags: 20222022 समीक्षाअरविंद दासटीआरपीटीवीमुकेश कुमार
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Comments 6

  1. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    वस्तुतः यह स्थिति केवल टी वी में नहीं है। हर क्षेत्र में हर चीज को बस प्रोडक्ट बना देने के इस दौर में कुछ मूल्यवान बचा रहे मुकेश कुमार जैसे लोग उसी प्रयत्न में लगे हैं।

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    3 years ago

    मैं रविश कुमार से सौ फीसदी इत्तिफाक रखता हूँ कि इस देश में अगर तानाशाही आती है तो इसमें मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका होगी।कुछ कहने की जरूरत नहीं , बस आप टीवी के सारे न्यूज़ चैनलों को एक-एक कर खोलते जाइए।एकाध को छोड़ सब राग दरबारी में आकंठ डूबे मिलेंगे।लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ बहुत बेशर्मी से सत्ता की बैशाखियों के सहारे चलता दीख जायेगा। जबकि टीआरपी बाजार का खेल है और राग दरबारी सत्ता और मीडिया के गठजोड़ का। इसमें निर्भिक पत्रकारिता अब एक विरल चीज है।मुकेश जी ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर लिखा है जो लोकतंत्र के बुनियादी सरोकारों से जुड़ा हुआ है।उन्हें एवं अरविंद जी को बधाई !

    Reply
  3. M P Haridev says:
    3 years ago

    डॉ मनोज कुमार की पुस्तक ‘टी.आर. पी. मीडिया मंडी का महामंत्र’ ठीक समय पर आयी है । संयोग से समालोचन भी अति दक्षिणपंथी सरकार के बरक्स सवाल उठा रहा है । पुस्तक की विषय वस्तु दमदार है । यहाँ लिखा गया है कि नरेंद्र मोदी के नाम का उल्लेख नहीं किया । करने की ज़रूरत नहीं है । सम्बुद्ध पाठक जानते हैं कि देश के जन मानस को अंधे कुएँ में धकेला जा रहा है । हफ़्ता दर हफ़्ता अनवरत चौबीस घंटे चलने वाले टेलिविज़न चैनल नयीं ख़बरें कहाँ से लायें । हर रोज़ चलने वाले हर बुलेटिन में ख़बरों का दोहराव होता है । अनुभव है कि अगले दिन शाम तक पिछले दिन की ख़बरें प्रसारित होती हैं । ओसामा बिन लादेन के ज़हरीले प्रॉप’गैन्डा के उकसावे में आकर दो पायलटों ने अलग-अलग विमानों को चलाकर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावरों को एक समय में गिरा दिया था । वे पायलट गणित के महान जानकर रहे होंगे । कुछ लोग जानते नहीं हैं कि 9/11 हमले के बाद अमेरिका में हर साल दो लाख ईसाई मुसलमान बन रहे हैं । गोधरा-गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि में मोदी के गुजरात के तीन बार मुख्यमंत्री बनने का कारण जुड़ा हुआ है । इसके विरोध में अपनी नौकरी से 13 वर्ष पहले हर्ष मंदर ने इस्तीफ़ा दे दिया था । ‘इस्लामिक आतंकवाद’ घृणास्पद है । थोड़े लोग इस गिरफ़्त में आये हैं । जबकि देश के विभाजन से पहले कश्मीरी आतंकवादियों, पाकिस्तान के शब्दों में, आज़ाद कश्मीर बना लिया था । आतंकी हमले अब तक भी जारी हैं ।
    हमारे देश का हिन्दी टेलिविज़न गोदी हो गया है । बचा है तो एनडीटीवी ग्रुप । हिन्दी में रवीश कुमार और अंग्रेज़ी भाषा में निधि राज़दान, विष्णु शोम और अब संकेत उपाध्याय । TRAI के नयें निर्देशों के कारण ख़बरों में मुझे एनडीटीवी ग्रुप का चयन करने की छूट मिली । केवल 3 रुपये महीना । और 1 रुपये में बीबीसी का अंग्रेज़ी चैनल । अर्णब गोस्वामी का च्युत होना जागरूक नागरिक जानते हैं । इस संदर्भ में लिखा गया शब्द ‘चित्तापन’ मीडिया के दोगलेपन को बयान करता है । प्रोफ़ेसर निल पोस्टमैन की उक्ति पथ प्रदर्शक है । सांप्रदायिकता फैलाने वाले panellist ज़्यादा चीखते हैं । वे अन्य panellists को बोलने नहीं देते । सवर्णवादी शब्द उन सवर्णों के लिये दुखदायी शब्द है जो दो वक़्त की रोटी नहीं जुटा पाते । इनकी संख्या, गांधी के शब्दों में ‘हरिजनों’ से कम नहीं है । गांधी के हरिजन अब अपने आपको दलित कहते हैं । मुझे आपत्ति है । कथित दलितों में बहुत व्यक्ति करोड़ोंपति हैं ।
    अंत में सरकारी टेलिविज़न चैनलों पर । रशिया में पुरानी पीढ़ी के 30 प्रतिशत व्यक्ति राष्ट्रीय चैनल देखते हैं । यह censorship से अभिशप्त है । वहाँ के खोजी पत्रकार अलेक्सी नवालनी यूट्यूबर हैं जिन्हें रशिया के 44 प्रतिशत युवा व्यक्ति देखते हैं । Alexei Navalny was sentenced to 2 years and 9 months. And was put in prison. Vladimir Putin has falsely accused him of embezzlement of funds. Every government in the world can’t tolerate truth.

    Reply
  4. कौशलेंद्र सिंह says:
    3 years ago

    एक अरसा हुआ न्यूज़ चैनल और डिबेट देखे, पहले बड़े मन से देखता था। अब न तो इतना वक़्त है और जो है उसे इनके शोर को देखने के लिए ज़रूरी नहीं लगता। ज़िन्दगी में उलझनें कम हैं जो इनको देखकर और बढ़ाई जाए। अच्छी समीक्षा है। पुस्तक पठनीय लगती है। बहुत शुभकामनाएं।

    Reply
  5. प्रकाश मनु says:
    3 years ago

    भारत में मीडिया, खासकर टीवी चैनल्स की पूर्वाग्रही और.सनसनीखेज पत्रकारिता, एक अर्थ में धूर्ततापूर्ण भी, की कई अंदरूनी परतों को खोलने वाली किताब। हिंदी के न्यूज चैनल्स की हालत देखकर, लेखक और समीक्षक दोनों की बातें कहीं अधिक मानीखेज लगती हैं। बिना जरूरत के जोर-जोर से चिल्लाते और.मूर्खतापूर्ण ढंग से सनसनी क्रिएट करते आज के एंकर्स को देखकर मुझे अपने कसबे के साँप और नेवले की लड़ाई दिखाने वाले मजमेबाज याद आते हैं, जो दर्शकों को इसी तरह बेवकूफ बनाते थे, पर उनकी भाषा और लहजा, दोनों ही आज के समाचार चैनल्स के एंकरों से कहीं बेहतर था!

    अलबत्ता, भाई अरुण जी, इस समीक्षा के जरिए आज की टीवी पत्रकारिता पर सही बहस की शुरुआत करने लिए आपका शुक्रिया!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  6. रोहित कौशिक says:
    3 years ago

    अच्छा विश्लेषण किया है। निश्चित रूप से टी आर पी की दौड़ में विचार विमर्श की मध्यम गति का जमाना चला गया।

    Reply

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