अनुराधा सिंह की कविताओं की स्त्रीसंतोष अर्श |
कविताएँ पढ़ते रहने की उजलत के पीछे ख़ास क़िस्म की बेचैनी होती है, यह अच्छी कविता की तलाश की पथरीली पगडंडी पर आगे बढ़ती जाती है. अपनी समकालीनता में स्त्री कवियों को पढ़ने का अनुभव इसलिए विशेष होता है कि वह अपने विवश मर्दवादी दृष्टिकोण, जिसे एकेडेमिया में ‘प्वॉइंट ऑफ़ व्यू’ कहते हैं, से हट कर होता है. कई बार स्त्री कविता की अनुभूतियाँ उन सीमाओं को पीछे ढकेलती है जिन्हें देख कर लगता था यही हद है. हिन्दी में स्त्री कवियों की तादाद बढ़ गयी है, यह अच्छा संकेत है. अच्छी कविता की भी मात्रा बढ़ेगी ऐसी उम्मीद की जाती रहेगी.
मेरी सीमाएँ हैं, किन्तु अपने समकालीन रचनारत जिन कवियों को अब तक पढ़ सका, उनमें मोनिका कुमार की गंभीरता, सुविज्ञता, परिपक्वता और दार्शनिकता ने हर तरह प्रभावित किया. उनकी कविताओं के व्यक्तिपरक सत्य ने सारे गोरखधंधे से अच्छी चुहल की है और उसकी व्यंजना लंबे समय तक टिकी रहने वाली है. स्त्रीवाद के वैचारिक प्रवाह को देह के हड़बोंग से बचाने की जैसी स्फूर्ति विश्व भर के स्त्री-विचारकों में देखी गयी है, हिन्दी का स्त्रीवाद उससे प्रेरणा ले सकता है, ऐसा कई बार प्रतीत हुआ. इधर सपना भट्ट, प्रियंका दुबे, शुभम श्री जैसे कवियों की कविताओं से भी हो कर गुज़रा. प्रेम की व्यथा और उसकी स्मृति को आवेगमयता के साथ जिस नफ़ीस भाषा में सपना ने रचा है, उसमें प्रगीतात्मक माधुर्य व रोमानी तड़प है. भविष्य उनकी कविताओं की दिशा तय करेगा.
प्रियंका की कविताएँ प्रेम में घुल गयी देह की ऐन्द्रिक तरलता से आप्लावित जान पड़ीं. वंदना टेटे और जसिंता केरकेट्टा जैसे जैविक कवियों ने स्त्री कविता के बौद्धिक, आंदोलनकारी स्वरूप को और अधिक पुष्ट किया है. जसिंता के ‘अंगोर’ और वंदना टेटे के ‘कोनजोगा’ संग्रहों में स्त्री के पर्यावरणवादी शब्दोच्चारण को देखना हिन्दी में ‘इको-फ़ेमिनिस्ट’ कविता की प्रचुरता की निशानदेही है.
आदिवासी कविता के संघर्ष और मुक्ति के महास्वप्न को निर्मला पुतुल की कविताओं से ही हमने देखा था. इससे एक बड़ी बात यह हासिल होती है कि संघर्ष करते रहने का सौंदर्य प्रत्येक तरह के सौंदर्य से न केवल ज़ुदा होता है, बल्कि उदार निराशा और बुर्ज़ुआ हताशा से बचाते हुये ज़ुल्मतों के ज़माने में भी बड़ी उम्मीद से भर देता है. फ़िलहाल यही आस है. और यही आस है जो पास है.
भ्रष्ट समाज को प्रत्येक संस्था भ्रष्ट ही चाहिए. पूंजीवाद की चाकरी करती मूल्यहीन राजनीति को चाहिए पथभ्रष्ट मतदाता. जनसेवक सुखा देना चाहते हैं जनहित का हर सोता. शासकों को बाधारहित शासन के लिए भ्रष्ट सांस्थानिकता चाहिए. भाषा भी एक संस्था है और उसके भ्रष्ट हो जाने के साथ साहित्य भी भ्रष्ट हो जाता है.
हिन्दी की साहित्यिकता के संकुचित, संकीर्ण होते जाने के कारणों में ललित कलाओं से इसका सामीप्य न होना ही नहीं, वरन् इसकी भ्रष्ट सांस्थानिकता में भी है. मौज़ूदा हालातों में भी यही लगता है कि अन्ततः इसे और संकुचित होते जाना है. जिस देशभाषा या भू-भाग में कोई प्रेरणास्पद और आधुनिक राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं होता वहाँ उत्कृष्ट साहित्य रचे जाने की संभावना क्षीण होती जाती है, क्योंकि महान प्रेरणाएँ ही महान कृति को जन्म देती हैं.
अब हिन्दी पट्टी का जो हाल है, वही हिन्दी साहित्य के इदारे का अहवाल है. गुट, जाति, लिंग का वर्चस्व बनाये रखने के साथ अपनी-अपनी झुग्गियों (Ghettos) में मुक्तिकामी होने का विभ्रम उत्पन्न कर हिन्दी के लोग शब्दजाल रचते हैं और उसी जाल में फँस-फँसाकर अहो रूपम-अहो-ध्वनि कर लेते हैं. उनके पास महान प्रेरणा से उद्भूत वह रचनात्मक अन्तः प्रज्ञा कहाँ से आएगी, जबकि पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ़ अपना वर्चस्व और विशेषाधिकार बनाये रखने के अतिरिक्त इनके निकट कोई बड़ा स्वप्न नहीं है?
इस कारण भाषा पर सृजनात्मक नियन्त्रण शिथिल हुआ है. नतीज़न वह भाषा जो साहित्यकारों, कवियों के नियंत्रण में कलात्मक सर्जना का पर्याय थी, उसे पूंजी की ताक़त और संचार क्रान्ति की घात से फ़ासिस्ट राजनीति ने हड़प लिया और थियोडोर डब्ल्यु. अडोर्नो के शब्दों में ‘सुलगती हुयी बुराई’ से भर दिया. और इसी सुलगती हुई बुराई के घटाटोप में जो अच्छा साहित्य ढूँढ लेने का काम कर ले, वही सच्ची आलोचना है. हिन्दी पट्टी की कलाहीनता ने प्रत्येक विचार को राजनीति में बदल दिया है. उत्तर-आधुनिक विचारक बौद्रिलार्द के शब्दों में जैसे सेक्स नहीं है, मर गया है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु सेक्स है. ठीक उसी तरह राजनीति नहीं है, क्योंकि प्रत्येक चीज़ राजनीति है.
राजनीति के पिछलग्गू भाषा के कारिन्दे स्वयं को लेखक कहते और प्रचारित करते नव-फ़ासीवाद के आगे भू लुंठित हैं. वे रचना से सम्भावनाशून्य हो कर प्रोपेगेंडा की सीढ़ियों के नीचे बिछे जाते हैं. ऐसे में कैसी आशा कि कोई कबीर आएगा और रामानन्द के पाँवों तले लेट जाएगा ?
हिन्दी समाज अपनी मुक्ति आधुनिक कलाओं में नहीं, सामन्ती मिथकों से प्रेरित राजनीति में देखता है. इस कारण उसे इस राजनीति में प्रछन्न साज़िशों और बुराइयों से बचा पाना मुश्किल लगता है. फ़ासीवाद के पालने में ललना बनकर झूलने को आतुर लोग रचना की प्रतिबद्धता त्याग कर भाषा को प्रोपेगेंडा के लिए इस्तेमाल करेंगे तो नक़द नारायण भी रहेंगे. लेकिन अन्तिम सत्य यह है कि ऐसे लोग रचना के औदात्य से सदा के लिए वंचित रह जाएंगे. यह त्रासदी नहीं, चुनाव है.
हिन्दी कविता या साहित्य का समूचा परिदृश्य उसी भ्रष्ट सांस्थानिक आचरण के चलते पतनशील है. हिन्दी पट्टी की मेहनतकश जनता जो आशा हिन्दी साहित्य की अभिजात सांस्थानिकता से रखती थी, वह धुँधली पड़ चुकी है. इसलिए उत्तर-सत्य और क्रोनी कैपिटिलिज़्म के इस समय में राजनीति का साहित्य से उदासीन रहना अथवा उसे दो-कौड़ी का समझ कर अपने चरणों का चाकर बना कर रखने का प्रयास एक ऐसा औचित्य प्रस्तुत करता है, जिसके सामने आँखें बन्द कर लेने से काम नहीं चलता.
पिछले दिनों एक युवा कवि की कविताओं पर टिप्पणी करने के (दुः) साहस का दुष्परिणाम यह हुआ कि उन्होंने फ़ेसबुक से न केवल मुझे अमित्र कर दिया, वरन मित्रतापूर्ण सम्बन्ध को समाप्त कर संवादहीनता के कुएँ में डाल दिया. ऐसे ही एक मठाधीश होने के भरम में डूबे, चेलाप्रिय अध्यापक कवि की कविताओं पर टिप्पणी करने की हिमाकत पर आदरणीय ने अहंकार से कहा कि ‘वे नामवर सिंह के किचन कैबिनेट में थे.’
लिहाज़ा हिन्दी में आलोचना के लिए भी कोई गरिमापूर्ण स्पेस नहीं बचा है. कविहृदय को महासागर की भाँति बड़ा, ज़र्फ़दार और सहिष्णु होना चाहिए. बाज़ दफ़ा ऐसा होता नहीं, बल्कि बक़ौल वागीश शुक्ल ‘हिन्दी का कवि स्वयं को कविता का बाप समझता है.’ ऊपर जो राग भ्रष्ट की तान छेड़ी गयी है, उसका निचोड़ यह है कि भ्रष्ट रचना को भ्रष्ट आलोचक की चाह रहती है. मन्नू भण्डारी की मृत्यु पर सांस्थानिक हिन्दी की ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिका के संपादक शंभूनाथ ने यह नहीं कहा कि मन्नू एक बड़ी लेखिका थीं. उन्होंने फ़तवा दिया कि मन्नू भण्डारी राजेन्द्र यादव से बड़ी लेखिका थीं. बची हुयी सदी में हिन्दी का मर्दवाद राजेन्द्र यादव न हो पाने की नरक जैसी आग में जलता रहेगा.
2018 में भारतीय ज्ञानपीठ से आया अनुराधा सिंह का कविता संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ मेरे पास एक वर्ष से अधिक समय से रखा है. पहली बार उसे सरसरी निगाह से पढ़ लिया था. जीवित रहने की बुनियादी शर्तों वाले कामों से फ़ारिग़ हो कर उसे दोबारा पढ़ना हुआ. कविता पर लिखना जितनी देर से संभव हो, उतना अच्छा होता है, यह विश्वास अनुराधा की कविताओं को दोबारा पढ़कर और दृढ़ हुआ. अनुराधा की कविताओं में वैविध्य है, विचारशीलता है, बौद्धिकता है, राजनीति भी है. प्रेम और दुःख तो ख़ैर स्त्री की अनुभूतियों का पैरहन है. अलावा इसके अनुराधा के पास एक व्यापक और विस्तृत नज़रिया है जिसकी परिधि बड़ी है. उनकी कविताओं में दो ख़ास बातें बरबस ही ध्यान खींचती हैं, एक तो स्त्री की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उसके आदिम रूप की तलाश की व्याकुलता तथा सजग विश्व दृष्टि, जो कविता में विचारों की राह समतल करती चलती है. उन्होंने अपने पहले संग्रह की प्रथम कविता में ही स्त्री के अस्तित्व को प्रकृति से संपृक्त कर दिया है. हरित स्त्रीवाद से हरी-भरी इस कविता की अन्तिम पंक्तियाँ हैं:
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में.
(क्या सोचती होगी धरती)
यह पंक्ति नरेश सक्सेना की कविता के उस नर्म किन्तु मर्द प्रश्न के उत्तर-सी लगती है कि “पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो ?” निःसन्देह स्त्री पृथ्वी की सच्ची उत्तराधिकारी है. पृथ्वी तनया है. और उसकी मुक्ति के बिना प्रकृति की मुक्ति भी सम्भव नहीं है, उत्तर-आधुनिक हो कर भी यह अवधारणा सतही नहीं लगती. धरती से सबकुछ छीनकर जिसे दे दिया गया, उसने उन चीज़ों का मोल कहाँ समझ पाया? प्रकृति बची रहे, स्त्री बची रहे और प्रेम भी बचा रहे. यह सब कैसे बचेगा ?
फिर देखा मैंने
स्त्री बची रहे प्रेम बचा रहे
इसके लिए
क़लम का
भाषा का खत्म होना जरूरी है
हर हत्या हमारी उंगलियों पर आ ठहरी
जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा
दरअसल उन्होंने ही किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया
(लिखने से क्या होगा)
भाषा के भीतर धृतराष्ट्र हो जाने की परिस्थितियाँ बढ़ती जाती हैं. धृतराष्ट्र कहते हैं, ‘हे संजय ! जब मैंने देखा कि विलाप करती हुयी, एक वस्त्र धारण किये रजस्वला, आर्त्त द्रौपदी को उसके पतियों के सामने दु:शासन केशों से खींच कर लाया और उसे नग्न करने लगा, परंतु कर न सका. तब मैंने विजय की आशा नहीं की.’
महाकाव्य में यह प्रसंग भाषा के भीतर है, अन्यथा चीरहरण की उस खल सभा में पुरुषार्थ की क्या कमी थी ? भाषा में जितनी चीज़ें हैं वे संकट में हैं. भाषा में झूठ का एक बड़ा जाल फैला जा रहा है जिसमें उलझकर प्रत्येक विचार नष्ट हो जाता है. भाषा में प्रवेश करते ही प्रत्येक वस्तु झूठ हो जाने के ख़तरे से घिर जाती है. भाषा में प्रेम लिखा जा सकता है, किया नहीं जा सकता. कहा भी नहीं जा सकता. भाषा में स्त्री को स्त्री भी ठीक से नहीं लिखा जा सकता. प्रेम क्या इस क़दर भाषा से बाहर की वस्तु है ? प्रेम की ऐसी विविध अनुभूतियाँ अनुराधा की कविताओं में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं, जिनमें आर्त्त स्वर है, व्यंग्य है, कातर निरीहता है :
क्षमाप्रार्थी हूँ
भर जाना चाहती हूँ दुर्गम अपराधबोध में
कि जब नहीं था मेरे पास करने के लिए
कुछ और
मैंने प्रेम किया तुमसे.
(खेद है)
घृणा से भागती न तो क्या करती
बात यह थी कि मैं प्रेम से भी भाग निकली.
(न दैन्यं)
प्रेम अनुराधा की कविताओं में इतनी ज़्यादा अभिव्यक्ति पाता है कि लगता है प्रेम की यह अतृप्त प्यास कभी नहीं बुझेगी. यह कई-कई रूपों, व्यंग्योक्तियों, तीव्र अनुभूतियों, अनंत पीड़ा और असीम करुणा की लहर की तरह आता है. जैसे रह-रह कर उठती हो कोई पीर. हिन्दी का प्रसिद्ध पद ‘प्रेम की पीर का कवि’ अनुराधा के लिए प्रयोग किया जा सकता है. जैसे जीवन में बाक़ी और सार्थक बातें प्रेम के बाद की हैं. स्त्री को चाहिए जैसे अनन्त प्यार. प्रेम की वंचना से घिरी हुयी स्त्री का दुःख कभी प्रेम बन जाता है और प्रेम दुःख. उसके प्रेम की भाँति उसका दुःख भी सूक्ष्म है. जो कहते हैं कि कविता तो कविता होती है, स्त्री-कविता और पुरुष कविता में क्या अन्तर ?
उन्हें स्त्री-कविता के डायलेक्ट पर ध्यान देना चाहिए. स्त्री को दुःख की अनुभूति अधिक क्यों होती है ? इसका कोई जैविक कारण है क्या? दुःख कहाँ सबसे ज़्यादा है ? देह में कि मन में कि आत्मा में ? (जो है नहीं) घर के भीतर है कि बाहर है? राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने महल के बाहर दुःख देखा था. महल-भीतर उन्हें दुःख देने वाली कोई शय नहीं थी. दुःख आस-पास ही था. अब ज़ोर दे कर कहा जा रहा है कि ऐतिहासिक तथा ऐतिहासिकता से परे आयुष्मती सभ्यताओं में स्त्री का जुड़ाव घर और प्रकृति से असामान्य और अधिक सांस्कृतिक रहा है. भारतीय समाज और संस्कृति में घर की अवधारणा ही स्त्री से सम्बद्ध है. इस सम्बद्धता में दुःख की उसकी अनुभूति अधिक प्रगाढ़ होगी ही होगी :
मैं समय के पहिए में लगी सबसे मंथर तीली
जब तक व्यथा की किनकी बाकी रही
किसी के सामने नहीं खोला मन
ठंडा गरम निबाह लिया
सुलह की थाली में परोसा देह का बासी भात
आँख के नमक से छुआ
सब्र के दो घूँट से निगल लिया.
(पितर)
देह का भात सचमुच बासी हो चुका है. देह स्त्री के पास इतनी ज़्यादा है कि सदियों से इसका भार उठाये हुए वह थक भी चुकी है. यह थकान गहरी और तवील है. इस बोझ को उतार कर फेंक देने के सिवाय उसके पास कौन सा विकल्प शेष रहा :
माँ अबकी मुझे देह से नहीं
खुड्डी से बुनना
ताने-बाने में
नींद का ताबीज़ बाँध देना
चैन का मरहम लेप देना
मौज़ का मंतर फूंक देना
बुनते समय
रंग-बिरंगे क़सीदे करना
ऐसे मीठे प्रेम-गीत गाना
जिनमें खुले बालों वाली नखरैल लड़कियाँ
पानी में खेलती हों
धूप में चमकती हों गिलट की पायलें
(अबकी मुझे चादर बनाना)
धूप में चमकती गिलट की पायलों का बिम्ब मोहक है. नींद के ताबीज़ की चाह में वेदना है. मौज़ के मंतर में मुक्ति का महास्वप्न है. और खुले बालों वाली नखरैल लड़कियाँ जैसे सामने ही खेल रही हैं. फिर आती हैं और बहुत सी औरतें :
काली औरतें
जंगल पहाड़ समुद्र और
कोयले में भी पायी जाती थीं.
अनुराधा की सार्वभौमिक काव्यात्मक करुणा उन्हें धरती की सभी स्त्रियों के निकट ले जाती है. दुनिया भर में ख़रीदी-बेची गयीं औरतों और उन पर ढाए गये ज़ुल्मों का मर्मभेदी आख्यान व्यंजित हो उठता है. यह उनकी कविता की इतिहास-दृष्टि है और विश्व-दृष्टि भी. अश्वेत स्त्रियों के भावपूर्ण उल्लेख से कविता सार्वभौमिकता ग्रहण कर लेती है. स्त्रीवाद की मुखर वैचारिकी इतिहास में स्त्री की भूमिका को भी रेखांकित करती है और उसे आलोक में लाती है, जैसा जनकवि रमाशंकर ‘विद्रोही’ ने कहा था :
प्रत्येक सभ्यता के मुहाने पर
एक औरत की जली हुयी लाश पड़ी है.
वर्णभेद में दोहरी क्रूरताओं का भारी सलीब ढोने के बाद अश्वेत स्त्री ने अपनी अकथ पीड़ाओं को व्यक्त करने के लिए किस क्षेत्र को नहीं चुना? साहित्य, कला, खेल, नृत्य वह हर जगह भीषण उपस्थिति दर्ज़ कराती रही. माया एंजेलो की इन पंक्तियों की तरह :
ये अग्नि है मेरी आँखों में
और कौंध है मेरे दाँतों की,
लचक मेरी कमर में…
काली स्त्री की यह वही ऐतिहासिक पीड़ा है, जो अनुराधा की इस कविता तक चली आयी है. कुछ पंक्तियों में ऐतिहासिक ज़ुल्मों को व्यक्त नहीं किया जा सकता. हाँ उन्हें याद रखा जा सकता है. कविता यह काम करती रही है.
एक अश्वेत कमनीय देह
आंदोलित अकथ पीड़ा से जिसे नृत्य कहते हैं.
(सन् 1800 की बागान औरतें)
सभ्यताएँ औरत की अधूरी नींद से उपकृत रही हैं. अलगरज़ उनके पास एहसानमंदी का कोई नज़रिया नहीं है. यही सबब है कि औरतें ईश्वर, देवताओं और आशिक़ों से ऊब चुकी हैं. उनकी इस ऊब में उसी अधूरी नींद का किस्सा है जो जब-तब कविता में ख़ुद को सुनाने लगता है. अधूरी नींद की यह कहानी महाकाव्यों तक विस्तृत है. जहाँ अर्जुन गर्भवती द्रौपदी को चक्रव्यूह-भेदन की कहानी सुना रहे हैं और द्रौपदी को नींद आ गयी है:
औरतों को ईश्वर नहीं
आशिक़ नहीं
रूखे फ़ीके लोग चाहिए आसपास
जो लेटते ही बत्ती बुझा दें अनायास
चादर ओढ़ लें सिर तक
नाक बजाने लगे तुरंत
———–
नींद ही वह क़ीमत है
जो उन्होंने प्रेम परिणय संतति
कुछ भी पाने के एवज़ में चुकायी.
(ईश्वर नहीं नींद चाहिए)
दुःख बहुत है अनुराधा की कविताओं में. स्त्री-जीवन में दुःख का भीगा हुआ भार इतना अधिक है कि पृथ्वी की गति संभवतः इसीलिए मंथर है. इस सत्य की बिना पर यह कहा जा सकता है कि प्रेम में डूबी हुई स्त्री का चेहरा बुद्ध जैसा लगता हो या न लगता हो, दुःख का ज़िक्र होने पर वह हू-ब-हू बुद्ध हो जाती है. ज्ञात दुःख और अज्ञात दुःख. जिन दुःखों को हम चीन्ह लेते हैं, वे हमारे अभ्यंतर में लहर की तरह तरंगित होते रहते हैं. इन लहरों की हिलोर ही मनुष्य को करुणा का पाठ पढ़ाती है. अनुराधा की कविताओं में जो करुणा है, यह मानवीयता के विराट स्वप्न को साकार करने में लगी हुई किसी श्रमिक स्त्री के माथे पर छलछला आयी रजत-स्वेद-बूँदों की मानिंद झिलमिलाती है. करुणा-भरी मानवीयता, जिसे पहचान कर नेरूदा ने कभी कहा था कि, ‘मैं भी तो मानवीयता के इस विशाल वृक्ष का एक पत्ता हूँ.’ और दुःख कब समाप्त होंगे ? तथागत ने कहा कि दुःख को स्वीकार कर लेने से ही यह समाप्त होगा :
दुख समाप्त हो जाते हैं एक दिन
आँसू बहने बंद हो जाते हैं
ज्ञात दुख नष्ट नहीं होते
जानने वालों के भीतर अंतः सलिला बहते हैं.
(तफ़्तीश)
दुःख और कविता के शाश्वत संबंधों में एक बात यह भी छिपी हुई है कि कविता की कला जो अन्य कलाओं का ही एक भाग है, दुःख से उबारने में संभव है कि नाकाम रहे, किन्तु यह उसे दर्ज़ करने में सफल रहती आयी है. कलाओं की तरलता मनुष्य के दुःख की गहरी अनुभूतियों का अपने में विलय कर लेती हैं. कलाओं और प्रकृति से स्त्री की आदिम नजदीकियाँ उसके दुःख और आँसुओं के हिसाब को समझने में सहायक हैं. बुद्ध ने कहा था कि महासागरों में भरा हुआ जल और कुछ नहीं मनुष्य के आँसू हैं. इन आँसुओं में स्त्री के आँसू कितने हैं, इस बात का हिसाब होना अभी बाक़ी है, किन्तु होगा ज़रूर:
बारिश में सिर की छत से अधिक
दु:ख में कविता ने रखी है मेरी लाज
लोग जानते हैं आसपास
कि कविता करते हुए आँसू निकल ही आते हैं बेसाख़्ता
मैं चाहती हूँ कि वे कभी ना जानेंकि आँसुओं और कविता से पहले दु:ख आता है
पहली बार दु:ख हुआ था तो
साइकिल की चढ़ी चेन को
ज्यादा चढ़ाती रही थी
आँसू गिरते रहे एन ग्रीस की जगह
आसमान धीरे-धीरे स्याह हुआ था बहुत
जिंदगी की गाड़ी ठीक से चलाने में
ग्रीस से ज़्यादा आँसू काम आये
और काम आई यही धोखेबाज़ मुस्कुराहट
(नकाब)
कविता, दुःख और स्त्री के आँसुओं के इस क्रम में यह भी गौर करने लायक़ बात है कि दार्शनिक आधार पर दुःखों का जो अस्तित्व है, वह तो है ही, किन्तु दुःखों के कारणों के निवारण के उपाय कितने हैं ? दुःख का स्वीकार्य ही ‘दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद’ (मार्ग) है. अन्यथा भिक्षु बनना होगा. बौद्ध दर्शन में कामतृष्णा, भवतृष्णा तथा विभवतृष्णा दुःख समुदाय के कारण बताए गये हैं. विभवतृष्णा से आशय उच्छेद और संसार की नश्वरता से है. संसार के विध्वंस की इच्छा भी उतना ही दुःख उत्पन्न करती है, जितना उसके शाश्वत होने की अभिलाषा. अन्ना आख्मातोवा ने अपने शोक के लिए एक कविता में कहा कि ‘शोक के आगे पर्वत गिर गये, एक प्रबल नदी ने अपना प्रवाह रोक दिया.’ धम्मपद कहता है :
तुम्हेहि किच्चम् आतप्पम् अक्खातारी तथागता.
पटिपन्ना पामोक्खांति झायिनो मार बन्धना..
(धम्मपद-मग्गवग्ग)
(हे भिक्खुओं, उद्योग तुम्हें करना होगा. उपदेश के सुनने मात्र से दुःखनिरोध कदापि नहीं हो सकेगा. उसके निमित्त आवश्यकता है, उद्योग की.)
निरी भावुकता और दुःखों की गहरी अनुभूति तो सामंतवादी समाज में भी कम नहीं थी. और उन्हीं आँसुओं की छल-छल के पीछे बसती थी भयानक क्रूरता. वहाँ निःसहायता अधिक बलवती थी. मुक्ति के सभी मार्ग अवरुद्ध थे. अब तो ऐसा नहीं है. संघर्ष के ऊबड़खाबड़ ही सही, रास्ते तो हैं. संघर्ष कहाँ है ? कितना है ? भारत में स्त्रियों के संघर्ष के मोर्चे कितने हैं ? यहाँ क्यों कोई रोज़ा लक्ज़मबर्ग नहीं हो सकती?
अपने-अपने घेटो में बन्द मुर्गियों की तरह लोमड़ों को देख कर आँखें बन्द कर लेने से मुक्ति कहाँ मिलेगी? मुक्तिकामी चेतना का निर्माण संघर्ष से होता है. यह संघर्ष कविता में आत्मसंघर्ष की तरह आता है. यह कहने में क्या गुरेज़ कि इन कविताओं में ही संघर्ष न्यून है. नहीं है, यह कहना ज़्यादती होगी, परन्तु उसका मिक़दार कितना है? स्वयं को कायर किशोरी कहना आत्मसंघर्ष का ही एक रूप है. सद्दाम हुसैन नाम की आख़िरी उम्मीद पराजित संघर्ष-चेतना का अवबोध है. लड़ाइयाँ हार-हार कर भी लड़ते रहना चाहिए. स्त्रियों को लड़कर बहुत कुछ बचाना है. और सबसे महान और उदात्त लक्ष्य तो प्रेम को बचाना ही है :
हम-सी कायर किशोरियों के लिए
जातिविहीन वर्गविहीन जनविहीन दुनिया
प्रेम के बच रहने की इकलौती संभावना थीक्षमा कीजिए, पर मई 1992 में सद्दाम हुसैन हमारी आख़िरी उम्मीद था.
(सद्दाम हुसैन हमारी आख़िरी उम्मीद था)
ऑनर किलिंग के लिए कुख्यात इस देश में ब्याह और जाति के नस्ली अन्तर-सम्बन्ध प्रेमियों के लिए गैस चैम्बर की तरह डरावने और दारुण हैं. जब अपनी ही जाति में नस्ल-आधारित लक्षित प्रेम की भ्रान्ति रच ली, तो किस बात का प्रेम ? मज़े की बात है कि लोगबाग अपनी ही जाति में किये गये प्रेम को बेशर्मी से ‘सच्चा’ कहना भी नहीं भूलते. उनका यह प्लान्ड प्रेम, प्रेम करने, होने के सम्पूर्ण औदात्य और समूची निष्ठा को अजगर की तरह निगल जाता है. योजनाबद्ध ढंग से किया गया प्यार इतना कृत्रिम और हास्यास्पद लगता है कि उसके महिमामंडन और दिखावे पर तरस आने लगता है. प्लान्ड प्यार करने वालों में स्वयं को शिक्षित-सुसंस्कृत और सभ्य मानने वालों के साथ ही ख़ुद को क्रान्तिकारी प्रेमी कहने वालों की संख्या भी कम नहीं है.
मुहब्बत की क़समें खाने वाले मर्द/औरत भी अपने बाप और परिवार के एक इशारे पर विवाह की प्रचलित सौदेबाज़ी कर लेते हैं और फिर कविता-कहानी की दुनिया में प्यार की रोमानी दुहाई देने लगते हैं. यह समाज नहीं बदला, तो क्या ऐसे ही नहीं बदला ? वास्तव में यह प्रेम से वंचित रह गया समाज है. इसमें प्रेम से और वंचित है स्त्री. जिसकी स्थिति इतनी अशक्त है कि वह इतना बड़ा ज़ोखिम उठाये भी तो कैसे? उसे इस क्रूर समाज द्वारा तबाह कर दिया जाना है. स्त्री को कभी इस समाज में क्षमा नहीं मिलती. आज भी स्त्री यह निर्णय नहीं ले सकती. अपनी जाति के बाहर प्रेम करने का साहस जुटा पाना, विशेष कर कथित उच्चता से निर्मित निम्नता की ओर बढ़ने में बहुत ख़तरा है. इन तहों से गुज़रने पर मालूम होता है कि भारतीय समाज में प्रेम सहज और नैसर्गिक न हो कर केवल एक मजबूरी भर है. अपनी जाति में प्यार और विवाह की मजबूरी का निर्वाह कर यह समाज झूठे प्रेम की नक़ली उदात्तता का उत्सव मना कर ख़ुश हो लेता है. जो समाज सहज, नैसर्गिक और अकुण्ठ प्रेम नहीं कर सकता वह पुष्ट सामाजिकता का निर्माण कैसे कर सकता है ? वह किस नैतिकता से स्वतंत्रता और समाजवाद की बात करता है ? जबकि प्रेम से ही समाजवाद अनुपस्थित है. सामंती विवाह पद्धतियों के दुर्गन्धपूर्ण कीचड़ में आकण्ठ डूबे इस समाज में पिछले दिनों किसी ने फ़ेसबुक पर अपनी बेटी के विवाह की तस्वीर साझा करते हुए लिखा, ‘माय प्रिंसेज़ विथ हर प्रिंस.’ इस समाज को अतीत के सामंती रिवाजों में ही अभिजन होने का गुमान होता है.
हम अनुमान कर सकते हैं कि सामंती समाज की भक्त प्रेमिका, कवि मीरा का प्रेयस यदि अवतारी कृष्ण न हो कर कोई दलित पुरुष होता, तो इतिहास से यह नाम ही मेट दिया गया होता. अनुराधा ने अपनी कविता में इस बड़ी विडम्बना पर उँगली रखी है. स्त्री के हवाले से हिन्दी कविता में इस तरह का विचार नयी अभिव्यक्ति है :
दलित लड़कियाँ उदारीकरण के तहत छोड़ दी गयीं
उनसे ब्याह सिर्फ़ क़िताबों में किया जा सकता था
या भविष्य में
सवर्ण लड़कियाँ प्रेम करके छोड़ दी गयीं
भीतर से इस तरह दलित थीं
कि प्रेम भी कर रही थीं
गृहस्थी बसाने के लिए
वे सब लड़कियाँ थीं
छोड़ दी गयीं.
गृहस्थी बसाने के पश्चात प्रेम की प्यास जीवन की शुष्कता बन जाती है. जीवन की प्रगाढ़ चाह पूर्ण नहीं हो पाती. अपूर्ण जीवन से बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है ? प्रेम की अपूर्णता जीवन की अपूर्णता है. प्रेम की परिपूर्णता में ही जीवन का सार है. प्रेम की उद्दाम चाह से ही अनुराधा अपनी कविताएँ बुनती हैं और इस उद्दाम चाह को अभिव्यक्त करने में उनकी भाषा और शिल्प अक्षम रह जाते हैं. इस कमज़ोरी के बावजूद ये कविताएँ सत्य के निकट ले जाने में सफल रहती हैं :
लड़कियाँ उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं
जो उन्हें प्रेम करके छोड़ देना चाहते थे.
(प्रेम का समाजवाद)
संरचना में जाएँ तो अनुराधा की कविताओं का वैचारिक भाग समृद्ध है, किन्तु भाषिक व्यंजना क्षीण है. कविताओं में एक विशिष्ट लय का नैरंतर्य है. यह लय पंक्तियों के अंतराल में स्पष्ट होती हुई साँसों के उतार-चढ़ाव जैसी है. उनकी कुछ कविताओं में लय ऐसी सुन्दर है, जैसे गीतों के मुखड़े साथ-साथ चल रहे हों. जैसे कि यह एक :
किसी दिन पेट भर खाऊंगी रोटी
किसी दिन आत्मा तक प्यास होगी
किसी दिन नींद में गेहूँ उगेंगे
किसी दिन बावड़ी भर रेत होगी
कई शक्लों में ढलकर दिन मिलेंगे
ये तय है तुम न होगे
(ये तय है)
इधर की कविता का शिल्प बेहद रूखा रहा है. कविता पढ़ें तो यह अनुभव ही न हो कि यह देश महान रसवादी आचार्यों का है. अनुराधा की कविताओं को पढ़ते हुए तमाम जगहों पर यह लगा कि ये भाव, विचार और अनुभूतियाँ और प्रभावी होतीं यदि कुछ और सुन्दर शिल्प में गढ़ी गयीं होतीं. कुछ पंक्तियों में अनुभव की सान्द्रता बढ़ाने की कोशिश सफल भी हुई है :
जैसे उसके होंठ अब तक रखे हैं मेरी हथेली पर फफोले की तरह
और बर्फ़ का फाहा छोड़ आयी हूँ तेज़ धूप में.
(लेना)
कहीं-कहीं इन कविताओं में सूक्ष्मता का वह स्तर भी है, जिस स्तर की भावप्रवणता है. इस सदी की मध्यवर्गीय कविता से प्रकृति का सौन्दर्य छूटता जा रहा है, जैसा प्रकृति से मनुष्य का अलगाव हुआ है उस अनुपात में यह आकर्षण बढ़ना चाहिए था. मेरा ख़याल है कि कविता पर भाषा का बोझ नहीं बढ़ाना चाहिए, यह भाषा से परे है. दूसरे समकालीन कवियों की तुलना में अनुराधा की भाषा कम तत्समाग्रही है. कतिपय कवियों के प्रभाव में भाषा की तत्समाग्रही पद्धति से हल्के भावों और विचारों को गुरुतर भाषा में कहने का चलन इधर बढ़ा है. कुछ कवियों (और आलोचकों को भी) पढ़ते हुए भान होता है कि वे भाषा का प्रभाव जमा कर काव्य की सहजता से परिचय कराने के स्थान पर पाठक को उससे वंचित कर देते हैं. कविता तो सहज ही होती है.
इसी प्रकार कविता में ग़रीबी और अभावों को प्रकट करने का भी ज़माना जैसे बीत चुका हो. मालूम होता है इस देश में निर्धनता और अभाव अब बचे ही नहीं. और स्त्री का श्रम भी मध्यवर्गीय कवियों के यहाँ से प्रायः ग़ायब मिलता है. इससे कविता की राह सँकरी हुयी है, जन के गुज़रने को कविता का मार्ग खुला होना चाहिए.
स्त्रीवाद की वैचारिकी से संपुष्ट अनुराधा की कविताओं की अनुभूतियाँ प्रगाढ़ और मर्मभरी हैं. भाषा और डिक्शन की भी तंगी नहीं है. एक शुष्कता है, जो अधिक कहने की चाहत के चलते है. सब कुछ कहने में भाषा ही असमर्थ है तो कविता- जिसे निज़ार क़ब्बानी ने कहा कि यह ‘संक्षिप्त का संक्षिप्त है’ में तमाम बातें किस तरह अटेंगी ? बेहतर है कविता में कम-कम कहा जाये. और बड़ी बातों को काव्य-कला के सहारे अनकहा छोड़ दिया जाये, जो अर्थ में व्यंजित होता रहे. प्रकृति की चिंता इन कविताओं में अवश्य है, उसका विराट सौंदर्य अनुपस्थित है. बिम्बों और प्रतीकों का ऐसा भी अकाल नहीं है कि वह इस समय की कविता में अनुपलब्धता का स्मारक बन जाए. जब ऐतिहासिक रूप से स्त्री प्रकृति से अधिक सम्बद्ध है तब उसकी कविता में प्रकृति का सूक्ष्म (स्थूल भी) सौंदर्य पूरे औदात्य के साथ आना चाहिए. ऐसी उससे आशा रखी जा सकती है, अनुराधा स्वयं लिखती हैं :
लेकिन चाहने से कविता नहीं लिखी गयी
चाहने से प्रेम नहीं हुआ
चाहने से युद्ध नहीं रुके
चाहने से आसमान नहीं झुके.
अनुराधा हिन्दी की एक प्रौढ़ कवि जान पड़ती हैं. उनकी कविताओं में विचरण करती हुई स्त्री वही है, जिसे हम देखते तो रोज़ हैं, लेकिन उसके बारे में अधिक जानते नहीं. उसे जानने के लिए इन कविताओं से गुज़रना ज़रूरी है.
संतोष अर्श रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित. |
कविताएँ अपने समय की खबर होती हैं।खासकर एक स्त्री जब कविता लिखती है तो उसके स्वयं का भोगा हुआ यथार्थ भी एक तल्ख आक्रोश में ढलकर कविता के रेशे-रेशे में जज्ब हो जाता है।अनुराधा सिंह की कविताएँ भी पितृसत्तात्मक समाज से प्रतिवाद करती एवं अपनी अस्मिता तलाशती विद्रोही तेवर की कविताएँ हैं।अतः इनसे सरसता और सहृदयता की अपेक्षा रखना बेमानी है।अनुराधा सिंह की कविताओ पर संतोष अर्श की समीक्षा स्त्री विमर्श के संदर्भ में कई कोणों से पड़ताल करती है जो महत्वपूर्ण है। बधाई !
Half way through the piece, very through provoking as always . Santosh never shies away from calling a spade a spade …such a fresh fearless voice in Hindi criticism 🙌
सुलझे हुए, स्पष्ट और सुविचारित शब्दों में लिखी गई आलोचना। आपकी भाषा और भाव-भाषिक अन्तर्सम्बन्ध व संतुलन के लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं संतोष अर्श जी!
अनुराधा सिंह प्रिय कवि हैं।
Very nice exposure for me. For the first time. Revelation.
एक साँस में पढ़ गई जैसे कोई छूटती हुई ट्रेन हो ,
ठहर कर फिर फिर पढ़ूँगी अपनी प्रिय कवि पर
आपने बहुत सुंदर और सारगर्भित लिखा मेरी शुभकामनाएँ संतोष 💐💐💐
मुझपर लिखा इससे प्यारी बात लगी कि शायद दो तीन साल हुए आपने ख़ुद यह किताब ख़रीदी। मुझे कुछ पता न चला। इतने समय बार- बार पढ़ते रहे, ज़ाहिर है चमत्कृत कर देने वाला नयापन शेष न रहा होगा। सो आपके सुदीर्घ अध्ययन की हर पड़ताल सिर माथे। कविताएँ मुझसे अधिक आपकी हैं। आपका यह व्यस्ततम समय चल रहा है, फिर भी आपने आज कविता के परिदृश्य पर अपनी तमाम चिंताएँ व्यक्त कीं। इस बात ने भी मुझे बहुत लुभाया। विष्णु खरे मुझसे कहते थे तुम पर नज़रें हैं मेरी। ऐसे आलोचक मुझे अच्छे लगते हैं जो कवि पर नज़रें जमाये रहें।
बहुत बेहतरीन लिखा।
सन्तोष जी ..अनुराधा जी की कविताओं पर आपके लिखे का जाने कब से इंतज़ार था..प्रिय कवि की कविताओं पर प्रिय आलोचक की टिप्पणी पढ़ना खुद को और समृद्ध करना है.मैं इस पूरे आलेख को सहेज रही हूं।