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Home » माँ के लिए ग्यारह कविताएँ: तेजी ग्रोवर

माँ के लिए ग्यारह कविताएँ: तेजी ग्रोवर

वरिष्ठ कवयित्री,कथाकार और अनुवादक तेजी ग्रोवर की ‘नी मेरिए माँएँ’ शीर्षक से प्रकाशित माँ के लिए ग्यारह कविताएँ पढ़ते हुए पहली प्रतिक्रिया आँखें देती हैं. फफकती हुई रुलाई कोरों पर अटकी रहती है. उम्र के लगभग अंत की यातना जहाँ इसे मार्मिक बनाती है वहीं इसे माँ में देखना उस अनुभव को और भी सघन. हिंदी ही नहीं सम्पूर्ण कविता जगत में ‘नी मेरिए माँएँ’ का इसके प्रकाशन से ही अब एक ख़ास स्थान सुनिश्चित हो गया है. इन कविताओं के बिना अब माँ पर लिखी कविताओं का वृतांत पूरा ही नहीं होगा. ये शहर की भी कविताएँ हैं. तेजी ने अपने अंतरतम में धंस कर अपने को विदीर्ण करते हुए इसे रचा है. मिथक इसे और गहरा करते हैं. ये कविताएँ प्रस्तुत हैं

by arun dev
March 29, 2024
in कविता
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माँ के लिए ग्यारह कविताएँ: तेजी ग्रोवर
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नी मेरिए माँएँ
(माँ के लिए ग्यारह कविताएँ)

तेजी ग्रोवर

1.
फ़्रेडरिक शोपाँ का हृदय*

तुमसे एक उस्ताद के हृदय से मुख़ातिब हूँ, मेरी माँ,
वर्ष दो हज़ार सोलह में जिसकी कब्र पेर-लाशेज़ में हम ढूँढ नहीं पाये

मेरी कविता में आना हो तुम्हें
मेरी विस्मृति में तुम आना
कोई एक शब्द हो कोई मन्त्र जिसे उच्चारते हुए भूल जाऊँ
दुआ करो मैं भूल जाऊँ तुम्हें

क्या अंश-मात्र भी देख पायीं तुम्हारी आँखें इस नक्षत्र की छटाएँ
एक मशीन के सामने एक तपते हुए कक्ष में
यही और सिर्फ़ यही
बस सिलते हुए कपड़ों से तन्द्रा टूटती रही उन अन्य आँखों की
जिनमें शायद रूह का वास था-
वह रूह जो सिर्फ़ दीमक के लिए लिखती थी

वे आँखें सिर्फ़ दीवार की ओर देखतीं, मेरी माँ
तुम्हारी सुन्दर छब से उदास-
निस्पृह और निस्पन्द उन आँखों में तुम नहीं थीं

किसी की भी आँख में तुम नहीं हो,
आततायी घेरे हुए हैं तुम्हारी मृत्यु-शैया को
फट चुके हैं मेरे ओंठ उन्हें कोसते हुए मन-ही-मन
फिर मानुस मेरा ख़ुद को भी कोसता है अक्षम्य
माटी मेरी ही तिड़क रही है तुम्हारे विदा लेने से पहले, मेरी माँ
रहम करो भूल जाऊँ तुम्हें

कितनी छोटी निकल आयी थी काँच की वह बर्नी
जिसे सर्जन की उँगलियाँ थामे हुए आज भी दिखती हैं मुझे
इतना फैल गया था शोपाँ का हृदय

मैं उसी की धुन में मुख़ातिब हूँ तुमसे

“सियाह लहू जो उसने अन्त में उच्चारा था किसी हाइकु सा
काश वह, वाक़ई, वही किंवदन्ती उच्चार देता:
‘मैं सुख के स्रोत पर पहुँच चुका हूँ’”.**

*विख्यात पोलिश कम्पोज़र जिसका हृदय वारसॉ के एक गिरजाघर में दफ़्न है. पेरिस के पेर-लाशेज़ नामक कब्रिस्तान में शोपाँ की कब्र है.
** पोलिश उपन्यासकार ओलगा टोकारकजुक के उपन्यास उड़ानें में इस सन्दर्भ का वर्णन है.

 

2
कटा हुआ नींबू का पेड़

ठीक है, मेरी माँ
मान लें तुम और मैं कि मुंतज़िर हैं हम
उड़ जाने उस क्यारी से

जो तुम्हारे काट दिये गये नींबू से सरसरा रही है बासी हवा में

तुम मुंतज़िर हो और कतार में मैं, मेरी माँ, अन्धी पगडण्डी में गपे हुए पाँव

फिर यमद्रुम के फाहे उड़ने लगते हैं हमारे श्वेताम्बरी भेस को घेरे हुए —
देखो, कैसा सख़्त सा लीप दिया गया है पृथ्वी को
जहाँ तुम धूप में बैठी पीले होते फलों को गिनती थीं दिन में कई-कई बार
तुलसी और फूलों और घास और मुझे भी जो मना करती रही —
संगमरमर की सतह से ढाँप दिया गया है

मंजरियों से रीत गयी हवा में

आठ के अंक उकेरती हुई क्रुद्ध मधुमक्षिकाएँ
वमन करती हैं मेरे भाई के दमकते हुए फ़र्श पर

उसकी देह का कम्पन स्वांग है तुम कहते हो, मेरे भाई
उसकी आँख की धुन्ध स्वांग, स्वांग उसका कहना वह गिर जायेगी
तुम कहते हो वह अनिद्रा का स्वांग रचती है
कम्पन और अकेलेपन और नैराश्य का
वह मृत्यु की चाहना का स्वांग रचती है
वह जो सिकुड़ी हुई गठड़ी पड़ी है

तुम्हारी रूह के अँधेरे में

वह चुपचाप रो रही है कटे हुए पेड़ की जगह कुर्सी में बैठी हुई
फिर वह बुदबुदाती है “नहीं” को तीन बार मानो फलों को अनगिन रही हो
जैसे तीन बार उधेड़ रही हो पुत्र के लिए हाथ से बुने हुए सूटर
जैसे तीन बार पोंछ डालना चाहती हो उसके श्वास को पृथ्वी के हृदय से

3

नींबू रोता है नीचे बैठा बूढ़ा वह बच्चा मर चुका है
नींबू रोता है नींबू को गिनता हुआ वह मर चुका है हृदय से
नींबू रोता है उसे मार दिया गया है
नींबू रोता है दाना चुगते पाखी को
नींबू नींद में छाल को खुजलाता है
नींबू झक्क सफ़ेद रोता है नीचे बिछे हुए फ़र्श को
नींबू माटी को रोता है जो मार दी गयी है
नींबू गाड़ी को रोता है जो काट ले गयी उसे एक बूढ़े बाग़ से
नींबू रोता है शिशुओं के बचे हुए जीवन को

 

 

4

तुच्छ कोई वस्तु मुट्ठी में कसे हुए तुम आवाज़ देती हो

और गायक आ जाते हैं तुम्हें लेने
जैसे तुम सदैव सुनती थीं हमारी हर पुकार ,

कोई एक नहीं सुनता तुम्हें        बस गायक आ जाते हैं, मेरी माँ, तुम्हारी प्रथम पुकार पर

हरे पहाड़ से टेक लिये तुम्हारी युवा पीठ-

मेरे हाथ में तुम्हारी यह तस्वीर-
मुझे ‘शालभंजिका’ के हिज्जे सिखाने
औंधी गिर पड़ी है अभी-अभी एक किताब से

पहाड़ तुम्हारे जीवन में आया लेकिन तुम्हारी पीठ को अपनी ओर से
छुआ एक भी बार नहीं पहाड़ ने
तुम्हारी पीठ ने स्पर्श किया उसे पहली और अन्तिम बार
फिर एक सियाह बादल तैर आया एक बार तुम्हारी आँखों के जल को सुड़कने
कैसे विश्वास होता तुम्हें कि प्रेम का यह भी कोई रूप होता है
एक ही दिन के लिए सही तुमने उसे और उसने तुम्हें चख लिया पहाड़ की ओट में

एक ही दिन का प्रेम और वह भी मुआफ़ नहीं हुआ तुम्हें,

तुम्हें एक नींबू के दिवंगत पेड़ से भी प्रेम है, मेरी माँ –
तुम नज़र उठाये अब भी ख़ला में उसे पुकारती हो –
वह मारा गया पृथ्वी की उस घासभरी बगीची में अपने फलों को

तुम्हारी आँखों से गिनवाता हुआ साल-दर-साल

वह गिनती भी मुआफ़ नहीं हुई
कलह का घर है यह पेड़ तुम्हारा
-कहा गया तुमसे-
और एक गाड़ी ले गयी उस प्रेयस को
तोड़ लिये गये तुम्हारे स्पर्श किये हुए फल

एक भी दिन सुर में नहीं रहा
और आ चुके हैं एक ही पुकार पर गायक तुम्हें लेने

5

तुम ह को पुकारती हो

ह नहीं है घर
ह घर पर है

तुम कितने लम्बे समय से भूल चुकी हो उतारकर दाँतों को साफ़ करना

तुम क म स ग इ को भी पुकारती हो

कोई नहीं है घर, सब घर पर हैं

बैठक में हँसी के स्वर और व्यञ्जन
ह क म स ग इ के वस्त्रों से ज़र्क-बर्क़ फूटते हैं

तुम ह को पुकारती हो
ह नहीं है घर
सब घर पर हैं
और भी नाम हैं जो पालतू जीवों के साथ पधारे हुए हैं तुम्हारे घर
तुमसे मिलने कोई नहीं आया
न पूछता है तुम अभी हो या नहीं
न उन्हें याद है तुम्हारे कमरे का पता घर में कहीं दबा हुआ
तुम्हारी केशराशि उलझी है स्वेद और धूल से
तुम्हारी पीठ को कोई ज़रा खुजला भर दे
तुम आवाज़ देती हो

तुम पानी के गिलास को पुकारती हो
वह मेज़ से चलकर नहीं आया तुम्हारे पास

इ अभी बहुत छोटा है
वह वॉकर को ठेलता हुआ
तुम्हारी चादर का कोना उठाकर
तुम्हारे मिटते हुए श्वेत को देख जाता है

कैसे लिखूँ ह क म स ग इ –
क्यूँ जन दिये तूने इतने मिटे हुए अक्षर
बार-बार पुकारती उन्हें
झरते हुए फूलों की ध्वनि से –
नी मेरिए माँएँ

 

6

“तुम जब यहाँ होती हो
ईश्वर के लिए, कवि
दरवाज़े बन्द रखा करो” —-
यह तुम्हारी आवाज़ है, मेरी माँ, हाथ जोड़ती हुई

“मेरे घर के दरवाज़े कभी बन्द नहीं होंगे”-
यह ह की आवाज़ है           निर्भय और निशंक

सिवा ख़ुदा के किसी का खौफ़ यहाँ नहीं है

ह को मालूम हैं ख़ुदा को ख़ुश रखने की विधियाँ –
“मेरे घर के दरवाज़े कभी बन्द नहीं होंगे”

ख़ुदा खेलता है दुलकी चाल से
दहलीज़ पर खड़ा बेतरह हँसता है

इतना हँसना ख़ुदा का-
माँ को खौफ़ आता है

कि कोई अलंकार मेरे काम नहीं आता

शिंजित नहीं हो पाते मेरे शब्द
चले गये हैं वे दिन
जब मैं लिख सकती थी :
“अर्थों के फूल चुनने पुत्र घाट पर आये हैं”

7

जैसे चोंच में तिनका उठाये ही वे स्थान ढूँढती हैं

मैं मर्म ढूँढती हूँ अपने झरते हुए अक्षरों में

तुम्हारे ढले हुए स्तनों को उठाकर साफ़ करती हूँ तुम्हें
तुम हाथ जोड़ शुक्रिया अदा करती हो
बस छन्द नहीं मिलता कोलाहल और क्रोध से भरे हुए घर में

तुम्हारी शिंजिनी सी देह पर
कोई पुत्र के भेस में बर्क़ गिराकर कक्ष से निकल जाता है
तुम देखती हो उसी क्षण आँख के पर्दे पर
सर्पिणी जो किसी जन्म में तुम हो
सपोलों को निगल जाती हुईं

मैं नहीं थी उनमें यह तय है, मेरी माँ
मैंने अवश्य अपना सर्प-जीवन अपार सुख में सम्पूर्ण किया होगा
क्षमा हो गया होगा मुझे वह दंश जिसका त्रास मेरे आत्मजों ने सहा
उत्तरीय में छिपाकर इन्द्र मुझे छोड़ आये होंगे उस घनघोर यज्ञ में
आस्तीक ने हाथ जोड़ बचा लिया होगा मुझे अग्नि से

भाई को निगल लिया होगा तुमने सोचकर भी शान्त नहीं होता मन
तुम्हारा वह सर्पिणी-धर्म मरणासन्न मानुस की देह को क्यूँकर डसता है दिन-रात
क्यूँ थूक नहीं रही तुम्हारी देह उस मछ्ली को
जो तुम्हारे जल में तड़पती है बेतरह बौरायी हुई इस घर में!

 

8

पोटली में कुछ पैसा बाँधे हुए रखती हो
और अपने कमरे की चाबी, नी मेरिए माँएँ
छल्ले पर लिखा हुआ है “वर्ल्ड’ज़ बेस्ट मॉम”
गुड़ी-मुड़ी पड़ी हो तुम घोर गर्मी के दिनों रज़ाई के भीतर

रात साढ़े नौ
खुले किवाड़ों का खौफ़ तुम्हें नींद की गोलियाँ खिलाने आता है
मृत्यु-भय नहीं है, नानक तुम्हारे अंग-संग हैं

मैं आती हूँ तुम्हारा कपोल चूमने
बाहों के घेरे में तुम नहीं
तुम्हारे शब्द हाथ आते हैं मेरे —

“मेरा दिल मर चुका है, कवि,
तुम्हें बिलकुल नहीं रोना है
वादा करो
बिलकुल नहीं रोना है, तुम्हें”

 

9
मैंने एक बूढ़े पुरुष को देखा अमृतसर में रिक्शा चलाते हुए

मैंने एक बूढ़े पुरुष को देखा अमृतसर में रिक्शा चलाते हुए
मैंने फिर उस एक दिन कई बूढ़ों को देखा अमृतसर में रिक्शा चलाते हुए
पूरे अमृतसर में बूढ़े ही बूढ़े दिखते थे उस दिन रिक्शा चलाते हुए
मुझे नहीं पता किस-किस ने उन्हें देखा उस एक दिन जब मैंने अमृतसर को रिक्शों से भरे हुए देखा –
सारा शहर ख़ाली था उस दिन बस हर रिक्शे में कोई बूढ़ी महिला बैठी हुई नज़र आती थी मुझे
क्या मैं या फिर मेरी माँ उन महिलाओं में थी, मुझे ठीक-ठीक याद नहीं
लेकिन मेरी आँखें ख़ला में कोई साढ़े नौ फ़ुट ऊँची उठी हुईं थीं
सड़कों पर शहतूत बिछे हुए थे और कुचले जा रहे थे

10

एक नेवला जिसकी आँखें और कान कंटकों से बिन्धे हुए थे
सड़क पार करने का प्रयास कर रहा था

उस एक दिन जब अमृतसर में मुझे सिर्फ़ रिक्शे नज़र आ रहे थे

मुझे कहना नहीं चाहिए
मेरे आगे की रिक्शा में मेरी माँ सी दिखती एक महिला थी जो निश्चित ही मेरी माँ नहीं थी
मैंने उसे काल के किसी खण्ड में देखा था मेरी माँ के भेस में
किसी बूढ़े रद्दी वाले के साथ बहस करते हुए
वह रद्दीवाले से ग़रीब थी या अमीर मुझे नहीं मालूम
लेकिन वह तोल रही थी लोहे की कुछ ज़ंग लगी सलाखें मशीन पर रखकर
फिर वह ठगी सी उठ खड़ी हुई और कहने लगी:

अब मैं पहले अपना वज़न देखती हूँ
फिर हाथ में सलाखेँ लिये मशीन पर खड़ी होती हूँ
फिर देखना तुम्हारी मशीन झूठ बोलती है या सच
बाबा नानक तुम्हें नेकी की राह दिखाएँ, मेरे वीर

11

फिर वे आये, मेरे भाई के घर, जिनसे पैडल घूम नहीं रहे थे
कितना धवल हो सकता था उनका रूप, लेकिन कुचैले ने हर लिया था उसे
वे मुझ वृदधा को बिटिया कहते हुए घाव दिखाते रहे मुझे
उधार से पटी नौ सौ अड़सठ की एक पर्ची अस्पताल की

रिक्शे का एक चक्का टेढ़ा था, या मुझे लगा वह टेढ़ा है
हादसों की एक पोटली गमछे की गिरह में
उम्र बतायी उस लम्बे छरहरे पुरुष ने
मेरी माँ से दो बरस छोटे मुझे वे लगे या नहीं, यह भी याद नहीं
उनकी पत्नी का ज़िक्र भी आया जो घर में अकेली थीं

भीतर माँ थी जो रोज़ उस आततायी घर से रिहाई माँगते ईश्वर से रूठ चुकी थी
हम में से कौन मृत्यु के ज़्यादा क़रीब था मुझे नहीं मालूम

ख़ाली पेट प्राणायाम का समय था
और मैंने राउंड फ़िगर में उनकी पर्ची को निपटाने का प्रयास किया

वे बोले, बिटिया, मैं ठीक होकर फिर आता हूँ तुम्हारे पास
मुझे मालूम था उन्हें अगली बार फाटक से लौटा दिया जायेगा

बात जहाँ ख़त्म हुई उसे किस मुँह से बताऊँ मैं
कौन मुझे मुआफ़ करेगा-

उस शहर में जहाँ मेरी माँ मृत्यु जोहती है दिन-रात
और रिक्शे चलाते हुए केवल बूढ़े ही नज़र आते हैं!

तेजी ग्रोवर, जन्म 1955, पठानकोट, पंजाब. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास. आधुनिक नॉर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के बीस पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित हैं. प्राथमिक शिक्षा और बाल साहित्य के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप और योगदान रहा है. तेजी की कृतियाँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में अनूदित हैं; स्वीडी, नॉर्वीजी, अंग्रेजी और पोलिश में पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित. 2020 में उनकी सभी कहानियों और उपन्यास (नीला) का एक ही जिल्द में अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ है. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और रज़ा अवार्ड से सम्मानित तेजी 1995-97 के दौरान वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलो चयनित होने के साथ-साथ प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्ष भी रहीं. 2016-17 के दौरान नान्त, फ्रांस में स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो रहीं.

2019 में उन्हें वाणी फ़ाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान, और स्वीडन के शाही दम्पति द्वारा रॉयल आर्डर ऑफ़ पोलर स्टार (Knight/ Member First Class) की उपाधि प्रदान की गयी.
tejigrover@yahoo.co.in

 

Tags: 20242024 कवितातेजी ग्रोवरमाँ के लिए कविताएँ
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Comments 12

  1. Priyanka Dubey says:
    1 year ago

    मार्मिक – कविताओं की ग्रेविटी इतनी है कि एक साथ सभी को पढ़ना मुश्किल है . मैंने अभी चार पढ़ी. आगे और पढ़ती हूँ. बहुत सुंदर बिंब …haunting, actually. There is haunting quality in these poems .
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    Reply
  2. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    1 year ago

    माँ की स्मृति में लिखी मार्मिक कविताएं जिसे पढ़कर मुझे अपनी माँ की याद आ गयी. इस तरह की कविताएं लिखने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए.

    Reply
  3. Tewari Shiv Kishore says:
    1 year ago

    मैं तेजी जी की कला का प्रशंसक रहा हूं। इन कविताओं ने मेरी श्रद्धा पुष्ट की। कविता सं. 2 और 7 मेरी पहली पसंद हैं। कविता 1 भी भाई, पर कुछ प्रिटेंशस होने के कारण मामूली-सा विरक्त करती है। “अर्थों के फूल चुनने पुत्र घाट पर आए हैं” (कविता6) असम्भव सुंदर बिम्ब है ।
    अभी इतना ही।

    Reply
  4. विनय कुमार says:
    1 year ago

    स्मृति लोप के संकट और स्मृतियाँ ! इन कविताओं की भाव भूमि को कुछ-कुछ परिचित रहा हूँ । मगर तेजी जी ही लिख सकती थीं यूँ। पीड़ा को यूँ कह पाने की कला कितनों के पास।
    “बस छन्द नहीं मिलता कोलाहल और क्रोध से भरे हुए घर में” -!

    Reply
  5. आदित्य says:
    1 year ago

    मेरे लिए ये कविताएं ‘दुस्वप्न के उस पार’ की कविताएं हैं। आपने जो खो दिया है और जिसे हम सब (जिन्होंने नहीं खोया है) एक न एक दिन किसी न किसी तरह खो देंगे, के लिए और मार्मिक हैं। ऐसी कविताएं, जो अपनी सांगितिकता, अपनी दृष्टि, अपने खिलदंडपन में एक नया धरातल तैयार करती हैं, ऐसे में, जब हर ओर सपाट और अनुभूतिहीन कविताओं का दौर चल रहा हो, अनुभूति की ऐसी गठी हुई ईकाई हैं ये कविताएं जो हमारी बंद आंखों को खोलती हैं, हमें चुनौती भी देती हैं और हाथ पकड़कर हमें वहां ले जाती हैं, जहां जाना अपने काव्यबोध को सिंचित करने के लिए अनिवार्य है। इन शानदार कविताओं के लिए कवि को बधाई, मगर बधाई भी क्या? जैसे ये कविता नहीं कोई जश्न हो! कविताएं हमारी यातनाओं की कालकोठरी हैं, जिसमें हमें बंद रहना है।

    Reply
  6. बिपन प्रीत says:
    1 year ago

    कमाल की कविताएं हैं . आहें भरते इन कविताओं के साथ-साथ चलती रही । एक चुप सी चीख है जो इन में दबी-दबी सी निकलती है। आप तो याद रहीं कि नही पर माँ का चेहरा दिखता रहा , माँ की आवाज़ कानों में गूंजती रही । अभी भी दूर से आती गूँज बाकी है । अब आप स्वीकृत सी खुद को भूलने कोशिश कर रही हैं लेकिन यह हो नहीं पा रहा आपसे , माँ को आखरी नज़र देखना बाकी ज्यो रह गया था । वह पीड़ा बाकी ही रहनी .
    बार-बार पढ़ रही हूं हर बार बाकी कुछ रह गया सा लगता है । खुद को बमुश्किल पकड़े बहती ही चली जा रही हूं अजीब से आवेग में..

    Reply
  7. अशोक अग्रवाल says:
    1 year ago

    अरुण देव की टिप्पणी के बाद इन कविताओं के बारे में कुछ भी लिखना मुझे नहीं सूझ रहा है।

    Reply
  8. Naresh Goswami says:
    1 year ago

    कल से इन कविताओं को बेतरतीब पढ़ रहा हूँ. कहीं से भी शुरु कर देता हूँ— कभी आख़िर से, कभी बीच से और कभी एकदम शुरु से. और अभी तक कुछ कहते नहीं बन रहा! … यह घटित हो चुके की ओर लौटने की दुर्गम यात्रा है. इन्हें अभी कई बार पढ़ना होगा

    Reply
  9. Ashutosh Dube says:
    1 year ago

    शोक से ज़्यादा विछोह और विछोह से भी ज़्यादा एक आहत विदाई का दंश इन कविताओं में अपने टेक्स्ट से पाठक में फैल जाता है। यहीं एक पुरानी कविता की पंक्ति भी आहत विस्मय में अपने अर्थों को बदलते देखती है। इनमें एक घुमड़ता और व्यक्त होने की तड़प में उछल कर फिर फिर रह जाता रिक्ति का अवसाद है। नींबू के पेड़ का जाना एक और बड़े मानवीय विस्थापन की भूमिका में गड्डमड्ड है। पीड़ा के अकथ में करवट लेती हुईं ये कविताएं न लिखी जा कर मुक्त होती हैं न कवि और पाठक को मुक्त करती हैं। ये हमें हमारी क्षतियों के पास एक अवसन्नता में खड़ा कर देती हैं।

    Reply
  10. अम्बर पाण्डेय says:
    1 year ago

    Teji Grover की यह कविताएँ पढ़ना बहुत कठिन था। मैंने कई बार पढ़कर इन्हें बीच में ही छोड़ दिया। इतनी इंटेंसिटी इतना आवेग और इतना दुःख जैसे कवि के पैरों तले से ज़मीन नहीं खसकी सिर से आसमान टिन की छत की तरह उड़ गया हो।
    सब जानते है तेजी बड़ी कवि है यह निर्विवाद है मगर जो हम नहीं जानते कि इस संगीत को जन्म देने में इस साज़ पर क्या गुज़री है।

    Reply
  11. Jaswinder Sirat says:
    1 year ago

    कई बार पढ़ने के बाद भी बहुत कुछ बचा सा महसूस हो रहा है बहुत जानती हूं आपको। आपकी मां के प्रति मोहब्बत भी ।कुछ कहते नहीं हो रहा।इतनी संवेदना से भरी हुई हैं कि ये कहते हुए कि एक एक शब्द पूरा पूरा भरा पड़ा है ।

    Reply
  12. डाॅ प्रीति जायसवाल says:
    1 year ago

    एक अलग ही आस्वाद !
    तरंग उमगाती पंक्तियाँ ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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