शाही धाक का अब सिर्फ़ सन्नाटा
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यह सहज आवाज़ों से भरी सुबह है. टोंटी से रिसती पानी की बूँदों की टप-टप, चिडि़यों की चहचहाहट, कुत्तों, मुर्गों, कौओं और कीड़ों की आवााज़ों के संगीत से बुनी हुई. इसकी कोमल धूप में तुम देख सकते हो एक टूटे घर की दीवार पर वॉकर-साइकिल के सहारे चलती एक परछाईं. यह एक जर्जर, वृद्ध महिला है और साथ में गूँजती उसके वॉकर की हलकी गड़गड़ाहट. वह एक साफ़-सुथरी सड़क से कहीं जा रही है. राह में उसे एक और महिला मिलती है. यह वृद्धा भूल नहीं पाती इसलिए याद करती है और उसे कई बार सुनाई जा चुकी कहानी सुनाती है कि दशकों पहले जब वह ख़ुद छह बरस की थी, वे उसकी माँ को मारने आए थे.
वे. यानी तानाशाह के आदमी.
देश के सर्वेसर्वा की समांतर सेना के सैनिक. ख़ूबसूरत भूदृश्य की पृष्ठभूमि में वॉकर के सहारे चलते वह एक कुरूप समय को याद कर रही है. सुंदर-असुंदर का विरोधाभास और उसकी विडंबना परदे पर मुखरित है. सामने छोटा-सा पुल और यह चमकदार सड़क है. यहीं, इसके नीचे कहीं क़ब्र है. बल्कि अनेक क़ब्रें. उन्हें पाटकर यह पुल, यह सड़क बना दी गई है. लेकिन कोई अपने गुनाहों, दुष्कर्मों और अत्याचारों को कैसे पाट सकता है. लोगों के पास स्मृति है. वे इस चमचमाती सड़क को, इस पुल को देखते हैं और कहते हैं कि इसके नीचे लोग दफ़न हैं. वहीं कहीं अनुमान से वे अपनी श्रद्धांजलि के फूल रख देना चाहते हैं. सड़क के दूसरे किनारे झरबेरियाँ हैं, वे जैसे याद दिलाती हैं कि तमाम बेक़ुसूर लोगों को यहीं मार दिया गया था. वहाँ विचरती एक बकरी भी कुछ सूँघकर मिमिया रही है- यहाँ मारे जाने की गंध है. इस हवा में मृत्यु गंध है. यह अत्याचार की दुर्गंध है. यह जाती नहीं है. युगों तक बनी रहती है.
क्या जीवन अपने आप में अन्याय है, एक त्रासदी है?
नहीं, ताक़तवर आदमी अन्यायी है. यही अमर त्रासदी है.
(दो) |
क़स्बे के एक सिरे पर ढलती शाम की यह प्रखर पीली, केशरिया रोशनी है. जिसमें चमकते हुए ये चार मूर्ति शिल्प हैं. इनकी मिट्टी, बालू और खुरदरेपन से, देहयष्टि गठन से, इनकी भंगिमाओं से पहली नज़र में समझा जा सकता है कि ये मारे गए लोगों की स्मृति में खड़े हैं. खुले आकाश के नीचे. नग्न. निष्कवच. ये मृतकों के प्रतिनिधि हैं. उनके, जो केवल इसलिए नहीं मार दिए गए कि वे ग़लत के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे या अपनी असहमति, अपना विरोध दर्ज कर रहे थे. वे तो महज़ इसलिए मारे गए क्योंकि दूसरे लोग चुप थे. तुम चुप थे. और तुम. और हाँ, तुम भी. उन सबने चुप रहने का चुनाव किया जो बोल सकते थे. उन्होंने बहाना किया कि हमारे बोलने से क्या होगा. सब एक-दूसरे की ख़ामोशी की ओट में जाकर बैठ गए. एक-दूसरे की चुप्पी के पीछे छिप गए. ये चार नुमाइंदे-शिल्प और वे लाखों जन जिनकी गिनती कहीं नहीं हैं, वे सब तुम्हारी चुप्पी से मारे गए. जब बोलना ज़रूरी हो तब चुप्पी से बड़ी हिंसा और क्या हो सकती है? किसी तानाशाह को ख़ामोशी से बड़ा प्रोत्साहन और क्या मिल सकता है?
सत्ता के पास एक और घातक औज़ार है: गृह युद्ध. यह युद्ध तानाशाह शुरू करा देता है. जो पहले घर के फिर समाज और देश के लोगों को आपस में उलझाता है. फिर वह पुलिस का, मिलिट्री का इस्तेमाल करता है. फिर अपनी तथाकथित राष्ट्रीय नागरिक सेना को प्रेरित करता है. अत्याचारों के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक चुप्पी में आततायी की बीज-शक्ति निवास करती है. वही उसे निरंकुश बना देती है. वह देश के लोगों को मार रहा है लेकिन कहता है वह देश का भला कर रहा है. पहले चुनकर उन्हें मारता है जिनके प्रति दुष्प्रचार है और घृणा प्रसारित कर दी गई है. लेकिन बाक़ी लोग ज़्यादा ख़ुश न हों, उधर देखें- उस टॉवर से, उस खिड़की से, उस छत से, पीछे के बरामदे से, पीपल की और बरगद की, धर्मस्थल की ओट से, कार्पोरेट की छत से आप भी निशाने पर हैं. आप जब भी हत्या को हत्या बोलेंगे, निशाने पर आएंगे. लेकिन कब तक नहीं बोलेंगे. आप कितने अत्याचारों, कितनी हत्याओं तक नहीं बोलेंगे. प्रतिज्ञाएँ करके, शपथ उठाकर भी कब तक चुप रहेंगे? फिलहाल आप हत्यारों के प्रशंसक हैं. फ्रैंको! फ्रैको!! हिटलर! हिटलर!! मुसोलिनी! मुसोलिनी!! जो भी आपका देश है, आप उसके तानाशाह के नाम की जय-जयकार कर रहे हैं. लेकिन इन नारों से कोई भी अमर नहीं होता.
यह हर्षध्वनि सुनो. यह प्रसन्नता तानाशाह की विदाई पर पैदा होती है. जो उसके पक्षधर थे उनमें से अधिकांश अचानक कहने लगे हैं- नहीं, हम उसके समर्थक नहीं थे. हम विवश थे. हमें मजबूर कर दिया गया था. हमसे समझने में ग़लती हुई थी. वे सब अपने-अपने झूठ की गुफ़ा में मुँह छिपाकर बैठ गए हैं. लेकिन आम जनता कह रही है- अच्छा हुआ. अब हम जगमगाती रात्रि की गलियों में घूम सकेंगे. बेरोकटोक ढंग से साँस ले सकेंगे. और जो निर्दोष-जन राजनीतिक बंदी बनाकर जेलों में डाल दिए गए थे, वे सब बाहर आ जाएंगे. संसद से पुकार लगाई जा रही है कि इन बंदियों को आम माफ़ी दो. मगर संसद में तो वे लोग भी हैं जो तानाशाह की इच्छाओं का क्रियान्वयन करते रहे. वे क्षमादान की इस माँग को कुछ अलग तरह से पूरा करना चाहते हैं ताकि अपने अपराधों के प्रति जवाबदेह होने से बच सकें. वे अद्भुत रास्ता खोजते हैं: ‘ठीक है. सबको माफ़ी मिलेगी. जो जेलों में बंद हैं उन्हें, और जो तानाशाह के आदेशों का पालन करते रहे, उन्हें भी. देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए यही ज़रूरी है.’ सबके द्वारा सबको क्षमादान. जो हुआ भूल जाओ. आततायी को भूल जाओ, अत्याचारों को भूल जाओ. सबको माफ़ करो और आगे बढ़ो. ‘द पैक्ट ऑव फ़ोरगेटिंग’. क़ानून लागू हो गया है: अपना यंत्रणापूर्ण अतीत विस्मृत कर दो.
लेकिन क़ानून के ज़रिये कोई अपनी यादों का सफ़ाया किस तरह कर सकता है. विधान कैसे तय कर सकता है कि स्मृति में से कुछ हिस्सा चयनित ढंग से भुलाया जा सके. इतनी क्रूरताएँ, नृशंसताएँ और अत्याचार आँखों के सामने हुए हैं. माँओं के सामने बच्चों ने दम तोड़ा है. बच्चों के सामने माँओं ने. पिता यकायक अदृश्य हो गए. बच्चे लापता. नंगे बदन पर हर तरह की हिंसा हुई. हिंसा का कोई प्रकार, कोई तरीक़ा शेष नहीं रहा. मृत्यु से कहा गया कि ज़रा इंतज़ार करो, अभी त्रास देने का हमारा चक्र पूरा नहीं हुआ. मृत्यु का मज़ाक़ बना दिया गया. और जीवन का. वे सब चित्रावलियाँ मस्तिष्क की अंतरतम कोशिकाओं में अमिट हैं. तुम एक अधिसूचना से, दंड प्रक्रिया संहिता में एक धारा जोड़कर अनश्वर को नश्वर कैसे बना सकते हो. यह हास्यास्पद है. यह क़ानून एक घटिया चुटकुला है. जब तक मनुष्य जीवित रहता है, अपमान की, अत्याचार की स्मृति बनी रहती है. वह चेचक के विषाणु की तरह देह में अमर हो जाती है. हर्पीज़ की तरह उभर आती है. स्मृतिलोप में भी वह अचानक द्युति की तरह चमक उठती है.
तुम कहते हो कि ‘भूलने’ से आगे जीवन सुखमय होगा, विद्वेष ख़त्म होगा. इस तरह धीरे-धीरे एक दिन संततियाँ भूल जाएँगी कि उनके घर की दहलीज़ पर, इसी गली में, इन सड़कों पर, इस पाषाण-भवन में, इस शासकीय इमारत में लोगों की आँतें निकाल ली गईं, आँखें फोड़ दी गईं, गुप्तांगों को कुचल दिया गया, उनमें काँच और पत्थर भर दिए गए, नाक को ख़ून का फ़व्वारा बना दिया गया. तुम्हें लगता है आगामी पीढ़ियाँ यह भूल जाएँगी यदि तुम ऐसा इंतज़ाम कर दो कि उन्हें कुछ पता ही न चल सके. तब बड़े होकर वे अपने बच्चों को कुछ नहीं बता सकेंगे क्योंकि वे ख़ुद भी कुछ नहीं जानते. मगर यह इतना सीधा समीकरण नहीं. तुम सोचते हो इतिहास में तुम पर लगा यह कलंक पोंछ दिया जाएगा. मतलब तुम इतिहास की गति और ताक़त नहीं जानते. तुम जितने भोले दिखते हो उससे अधिक कहीं ग़ाफ़िल हो. तुम चाहो तब भी अपने हिसाब से तवारीख़ नहीं लिख सकते. लिख भी दोगे तो पत्थरों पर ख़ून के छींटे, नोचे गए केश के ऊतक, जमीन में दबी हड्डियाँ, उनकी मिट्टी हो गई राख, अनाम आदमी की कोई इबारत, एक कविता, एक चिट्ठी, टूटी दीवार पर लिखा रक्तिम ‘ह’, हत्यारों की ग्लानि या कोई लोकगीत बता देगा कि सच्चा इतिहास क्या है. विद्यालयों से तुम अपने कारनामों के पाठ हटा दोगे तो जीवन की पाठशाला लोगों पर एक दिन वही सब कुछ उजागर कर देगी जो तुम छिपाना चाहते हो. तुम्हारा रक्तरंजित, रक्तपिपासु इतिहास छलक जाएगा. तुम्हारी कालिमा उभर आएगी. वह निशान सूख कर काला हो चुका होगा लेकिन सब उसे ख़ून की तरह पहचान लेंगे. वह एक पपड़ी तरह होगा, जिसे कुरेदते ही इतिहास पर दिया गया तुम्हारा ज़ख़्म सामने आ जाएगा. नासूर बनकर.
भले ही किसी अत्याचारी के घर को चमचमाती दुकान में, बाज़ार या मॉल में बदल दें लेकिन जिसने अत्याचार सहन किया है, वह कभी नहीं भूल सकता कि यह दुष्टात्मा का घर है. क़ानून किसी की स्मृति पर क़ब्ज़ा नहीं कर सकता. क्या क़ानून मंत्री या कोई हिंसा मंत्री सबकी तरफ़ से सबको माफ़ी देने का हक़दार है? हमारे हत्यारे को कोई दूसरा कैसे माफ़ कर सकता है?
(तीन) |
दुनिया में कई लोगों को अधिकार मिलते ही ‘आतंक का उत्पादन’ करने में ख़ुशी मिलने लगती है. ऐसे उत्पीड़कों को क्षमादान कैसे दिया जा सकता है. लोग अपनी पीड़ा भला किस तरह और क्यों भूल जाएँ? पीड़ित तो अपनी तकलीफ़ पीठ पर ढोते हैं, उनकी पीठ पर पीड़ाओं का कूबड़ बन जाता है. पीड़ा की स्मृतियों का संकुल. वे यातनाओं को भुला देने के वैधानिक प्रस्ताव का जीवित निषेध हैं. एक सामूहिक प्रतिवाद. वे कैसे भूल सकते हैं कि जिन्होंने तकलीफ़ों को अंजाम दिया, उन्हें इनाम दिए गए. उनका सम्मान किया गया. पदोन्नत किया गया. सुरक्षा और सुख-सुविधाएँ दी गईं. और अब यह संभव किया जा रहा है कि इन हत्यारों पर अभियोग भी न लगाया जा सके. इन पर अभियोग आएगा तो उन पर भी जो आज सरकार में हिस्सेदार हैं. वे कह रहे हैं कि ‘सामूहिक हत्याओं’ का कोई दोषी नहीं. ‘व्यक्तिगत अमानुषिकता’ के लिए भी कोई उत्तरदायी नहीं. मानो वह एक प्राकृतिक, दैवीय प्रकोप था. कोई सुनामी थी. उतर गई. गुज़र गई. उसे भूल जाओ. किताब का पन्ना पलट दो. आगे बढ़ो. राज्य के अपराध की सज़ा राज्य को कैसे दोगे? यह राज्य अपराधियों द्वारा ही शासित है. राज्य एक काल्पनिक व्यक्ति है. काल्पनिक व्यक्ति को सज़ा नहीं दी जा सकती. अदृश्य को कैसे दंडित करोगे. यदि कहीं कोई दृश्यमान था भी तो वह अब मर चुका है. उसके अपराध समायतीत हो गए हैं.
ये जीवित वधिक ख़ुद को ख़ुद बरी करने की पटकथा लिख रहे हैं. इसलिए हम कहना चाहते हैं कि ‘मानवता के प्रति अपराध’ का मुकदमा चलाने के लिए इस संसार में कहीं तो जगह दो. हमारे देश में नहीं तो दूसरे देश में. अंतर्राष्ट्रीय अदालत में. वरना हर आततायी अपने देश का आंतरिक मामला बताकर लोगों को मारता रहेगा और कहता रहेगा सब भूल जाओ. हमें मुआवजा या सांत्वना नहीं, न्याय चाहिए. माननीय! इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती. इंसाफ़ समयातीत नहीं हो सकता. न्याय ऐसी मूलभूत आवश्यकता है कि जब तक न्याय न मिले, तब तक की समय सीमा मानी जाए. और अदृश्य मान लिए गए अपराधियों को ‘राज्य के कोहरे’ से बाहर लाकर अदालत की रोशनी में, न्याय के बरामदे की धूप में दृश्यमान किया जाए.
जब क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने के बहाने, सुनवाई के प्रहसन उपरांत या बग़ैर सुनवाई के ही लोगों की हत्या कर दी जाती है तो इसे विश्व नागरिकों के संहार के दायरे में रखा जाए. इसका समाधान वैश्विक स्तर पर हो. यह मानवाधिकार है. ऐसी हत्याओं की फ़ाइल कभी भी खुल सकती है. पाँच, दस, बीस या पचास बरस बाद. कभी भी. और वे भी तो हत्याएँ हैं जब लाखों लोग ग़ायब हो जाते हैं. काग़ज़ों में मनुष्य को जीवित रखा जाता है, मारा नहीं जाता, ग़ायब कर दिया जाता है. प्राणोच्छेद की यह एक नयी श्रेणी है जिसमें मारने का दोष नहीं आता. फिर कहा जाता है अपने पिता, अपनी माँ, अपने बच्चों, मित्रों, रिश्तेदारों की मृत्यु भूल जाओ. उनके अदृश्य हो जाने को, स्मृति से भी ग़ायब कर दो. यह विस्मृति क़ानूनी है. अनिवार्य है. स्मृति गंभीर अपराध है.
अब किसी अंतर्देशीय अदालत में जाकर न्याय की गुहार लगाना होगा. इस राज्य में राज्य के अपराध के ख़िलाफ़ कोई न्याय नहीं मिल सकता. राज्य से बड़ा राज्य का भय है. पीड़ित भले एक हज़ार हैं, दस हज़ार या दस लाख. या एक कोटि हैं मगर राज्य तो बहरा और अंधा ही नहीं है, वह अधिकार संपन्न है. और हथियार संपन्न है. इस तानाशाह की ताक़त है कि वह कहीं दूसरी जगह भी न्याय में रोड़े अटकाएगा. आरोपों की जाँच नहीं कराएगा. साक्ष्य नष्ट कर देगा. राजनयिक धमकियाँ प्रसारित कर देगा. और कहेगा यह हमारा अंदरूनी मामला है. मानो उसकी संप्रभुता का यह कोई अविभाज्य अंग है. दूसरे देश इसलिए चुप हो जाएँगे क्योंकि वे भी अपने नागरिकों को, निरंकुश होकर मारने के अधिकार के पक्ष में हैं. वे भी इसे अपना आंतरिक मामला बनाए रखना चाहते हैं. न्याय प्राप्त करना हर काल में महानतम चुनौती है. संसार की सारी सत्ताओं का तंत्र युगों से इसी काम में लगा है कि किसी को कहीं समुचित न्याय न मिल जाए.
(चार) |
तुम इसलिए मारे गए कि तुम अपनी माँ, बहन, बेटी, पत्नी को बलात्कार से बचाना चाहते थे. क्योंकि तुम्हारे पिता और भाई यह नहीं बता पाए कि तुम कहाँ जाकर छिप गए हो. इसलिए कि तुम अपने बच्चों की, अपने पड़ोसियों की खबर नहीं दे पा रहे थे. क्योंकि तुम अपनी हत्या, अपने अपमान और अत्याचार के लिए सहर्ष प्रस्तुत नहीं थे. और अब भी तुम मरने के लिए एकदम तत्पर नहीं हो. तुम्हारे ये आचरण राज्य की अवज्ञा हैं. तुम राजद्रोही हो. अस्तु देशद्रोही.
बेहतर होगा तुम भूल जाओ कि तुम्हें यातनाएँ दी गईं. तुम्हारे सामने प्रियजन की हत्याएँ हुईं. भूल जाओ तुमने उस दैत्य को देखा जो बाँसुरी बजाता था. चित्रकारी करता था. संगीत सुनता था. कविता लिखता था. लुभावने भाषण और हत्याओं के आदेश देता था. लेकिन तुम यह भूल नहीं सकते. क़ानून कह रहा है तुम इसे याद नहीं रख सकते. यह कठिनतम पहेली है. क़ानून मनुष्य नहीं है. मनुष्य क़ानून नहीं है. यह क़ानून अपराधियों ने बनाया है. यह क़ानून अंधा नहीं है, शातिर है. तुम विस्मृत नहीं कर पा रहे हो क्योंकि यह तुम्हारे वश में नहीं है. इसलिए तुम न्याय के लिए भटकते हो. बहत्तर की उम्र में, चौरासी की उम्र में. पाँव क़ब्र में लटके हैं मगर तुम उन्हीं लटके पैरों से न्याय की चाह में पैदल चल रहे हो.
तुम्हारा संघर्ष और आत्मसंघर्ष एक साथ जारी है.
यह दशकों की तुम्हारी कठोर तपस्या और अपराजेय धैर्य का फल है कि इस पृथ्वी पर कम से कम एक देश, एक न्यायालय, एक न्यायाधीश आख़िर न्याय देना मंजूर करता है. पीड़ितों की गुहार से सहमत होता है. लेकिन उसे साक्ष्य चाहिए. साक्षी चाहिए. जीवित, स्पंदित और अडिग. यह समय के साथ भी दौड़ है. वक़्त एक प्रबल पक्ष हो गया है. जैसे प्रतिवादी. कुछ समय और बीत गया तो गवाह मर जाएँगे. और जब गवाह नहीं होंगे तो मान लिया जाएगा कि अत्याचार नहीं हुए. हत्याएँ नहीं हुईं. लोग प्रताड़ित नहीं हुए. कोई तानाशाह नहीं हुआ. कोई मारा नहीं गया. इस स्वच्छ नीले आसमान के तले हमेशा सुख, शांति और ख़ुशहाली बनी रही है.
फिर इस सत्य का क्या होगा कि स्कूलों को कारागारों में बदल दिया गया था. ताकि देश में अधिकतम लोगों को क़ैद किया जा सके. उपरांत सुविधानुसार उन्हें मारा जा सके. अभियोग लगाकर, बिना बचाव का मौक़ा दिए. तय था कि मृतक का कोई अवशेष किसी को नहीं दिया जाएगा. उनके बच्चे अभियुक्त के बच्चे कहलाएँगे. उनका जीना अकल्पनीय हो जाएगा. या उन बच्चों को बरगलाकर वे अपना सैनिक, अपना हथियार बना लेंगे. उस वक़्त में सबसे आसान था कि बुद्धिजीवी, वामपंथी, आतंकवादी या देशद्रोही कहकर किसी को भी सरेआम उठा लीजिए. फिर उनका जुलूस निकाल दो, प्रेसवार्ता में बताओ कि ये अपराधी हैं. कोई प्रमाण नहीं हैं लेकिन क़ुसूरवार हैं. सब चुप हो जाएँगे. बाक़ी लोगों की ख़ामोशी के कारण भी वे अपराधी मान लिए जाएँगे. वे बेगुनाह कैसे सिद्ध करेंगे कि वे निर्दोष हैं जब पुलिस ही अंतिम रूप से विश्वसनीय मान ली गई हो. जब न्यायालय में याचिका ही नहीं लगाई जा सकती. मुंसिफ़ की चौखट पर न्याय का घंटा नहीं बजाया जा सकता क्योंकि भूल-ग़लती आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर. खड़ी हैं सिर झुकाए सब क़तारें, बेज़ुबाँ बेबस सलाम में. सब ख़ामोश. मनसबदार, शाइर और सूफ़ी, सब सरदार हैं ख़ामोश. शाही धाक का अब सिर्फ़ सन्नाटा.
(पांच) |
मारे गए लोगों की याद में लगाए इन शिल्पों पर भी गोली चला दी गई है. यह तानाशाही के बाद का गणतंत्र है. या लोकशाही में कोई तानाशाही. जैसे तानाशाही कोई असाध्य कर्क रोग है जिसकी रोगग्रस्त कोशिकाएँ गणतांत्रिक शरीर में भी बची रहती हैं. इन मूर्तियों का शिल्पकार कहता है कि मेरे इन शिल्पों में यही एक चूक रह गई थी कि मैं इनकी देह पर गोली लगने के निशान नहीं बना पाया थे. यह कमी इन क़ातिलों ने पूरी कर दी है. और अब ये चार शिल्प संपूर्ण होकर, तीखी हवाओं के सामने, समस्त ऋतुओं के समक्ष हैं: मारे गए लाखों लोगों के प्रतिनिधि. प्रतिरोध के ये चार बुत.
तुम्हारी चुप्पी ये चार स्मारक.
नये शासक कहते हैं कि हमें नहीं पता पिछले शासकों ने क्या कुछ किया. या क्या नहीं किया. उनके काल में लोगों को क़ब्रें नसीब हुईं या नहीं हुईं. या जिन्हें नसीब हुईं तो वे क़ब्रें कहाँ हैं, हमें नहीं पता. हमने नये क़ानून अनुसार सब कुछ विस्मृत कर दिया है. विकास की राजनीति है- ‘भूलो और आगे बढ़ो.’ उधर कला-साहित्य-इतिहास कहता है- ‘याद रखो और आगे बढ़ो.’ यह असमाप्य लड़ाई है. स्मृति और इतिहास बचाने की. लेकिन जवाबदार कहते हैं कि हम इतनी पुरानी क़ब्रें कहाँ खोजेंगे.
जो भुलाने का आदेश देते हैं, उनके पास ताक़त है. जो भूल नहीं पा रहे हैं, उनके पास ताक़त नहीं है. वे विवश हैं मगर अपने पूर्वजों, बच्चों, माता-पिता की राख चाहते हैं. उन्हें सम्मानपूर्वक वापस दफ़न करना चाहते हैं. दुखी लोगों को परास्त नहीं किया जाता सकता. देश के चौधरी धमकाते हैं कि पुराना अन्याय सामने लाने की कोशिश में नया अन्याय होगा. पुराने घाव हरे करोगे तो पूरा शरीर घावों से हरा हो जाएगा. इसे छोड़ो और आगे बढ़ो. देखो, नयी पीढ़ी भी सब भूल रही है. दो दशक, चार दशक, छह दशक पहले की बातें आप भी भूल जाइए. बस, इतना याद रखिए कि हमारे पास विस्मृति का क़ानून है. बंदूक़ है. प्रशिक्षित भीड़ है.
यातना की स्मृति देह के हर हिस्से में रहने लगती है. दिमाग़ में उसकी एक स्प्रेड शीट बन जाती है. विशाल पीड़ा के कोटर में पीड़ाओं के अनेक कोटर बन जाते हैं. दुख के थक्के जम जाते हैं. उनकी गठानें बन जाती हैं. वे यातनाओं की याद रोज़ दिलाती हैं. उठते-बैठते. चलते-फिरते. सोते-जागते. खाते-पीते, कसरत करते हुए भी. विचार में, स्वप्न में. व्यस्तता में, ख़ालीपन में. फिर ये सब प्रेरणाएँ बन जाती हैं, हक़ माँगने के लिए. न्याय की ज़िद के लिए. यह जताने के लिए तुम चुप करने के वास्ते लोगों के मुँह में कपड़े भर सकते हो लेकिन अपने शब्द नहीं. जिन लोगों का तुमने एक रात में, एक सुबह में सब कुछ छीन लिया, जिन्होंने एक पहर में अपना सब कुछ खो दिया, उनसे कहते हो कि वह सब भूल जाओ. आगे बढ़ो. उनका रोम-रोम इस तरह अग्रसर होने से इनकार करता है.
दिक़्क़त यह है कि तानाशाहों के लिए समर्थन इसी जनता में से निकलकर आता है. तानाशाह आसमान से नहीं आता. यहीं धरती पर, इसी समाज में उसका निर्माण होता है. फिर उसके प्रशंसकों की एक फ़ौज बन जाती है. जो कहती है तानाशाह ग़लत नहीं होता, उसे ग़लत समझ लिया जाता है. सच्चा तानाशाह तो सच्चा देशभक्त होता है. वह अपने धर्म, संस्कृति, परंपरा की रक्षा करता है. साम्यवादी ‘रेड ज़ोन’ के प्रेत से मुक्ति दिलाता है. उधर संसार में अनेक देश और धर्म-संस्थान तानाशाहों को मान्यता दे देते हैं. उन्हें भी अपने क्षेत्रों में कठोर नियंत्रण लागू करना है. वे तानाशाहों को सम्मानित तक कर देते हैं. इस तरह तानाशाही विचार के रूप में प्रासंगिक और पुरस्कृत बनी रहती है. किसी आततायी की ताक़त और आयु दरअसल इस बात पर निर्भर करती है कि कितनी सेना, कितनी पुलिस, कितने न्यायाधीश, बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, पत्रकार और कितने राजनेता उसके समर्थन में बने रहते हैं. उसके अँगूठे के नीचे के ज़रा से अंधकार में दबे रहते हैं. तिलचट्टों की तरह.
भले ही अब तानाशाह इस दुनिया में नहीं रहा लेकिन उसके तमाम सहयोगी नौकरशाह, कार्यपालक, राजनेता तो अभी जीवित हैं. वे सरकार में हैं, संसद में है़, पंचायत में हैं, संस्थानों में हैं. यदि जनता इनके पिछले कुकर्मों को विस्मृत नहीं करेगी तो ये सब ख़तरे में आएंगे. ‘विस्मृति क़ानून’ एक रणनीति है. अपराधियों का बचाव है. परंतु जिस बच्ची की निरपराध माँ को निर्ममता से मारा गया, वह दशकों से गुहार लगा रही है, उसका गला स्थायी रूप से बैठ गया है. साधारण बातचीत में भी उसे ज़ोर लगाकर बोलना पड़ता है. वह बूढ़ी हो चुकी है. न्याय माँगने के लिए जितना चीख़ना चाहिए, उतनी ऊँची आवाज़ उसके पास बची नहीं है. मगर वह न तो कुछ भूलना चाहती है, न क्षमा करना चाहती है. उससे कहा जा रहा है कि तुम्हें अपनी माँ के अवशेष तब मिलेंगे जब हाथी, ऊँट, सूअरों के पंख उग आएंगे और जब वे उड़ना शुरू कर देंगे. रोज़ धमकी मिलती है कि मृतकों के लिए न्याय माँगोगे तो ख़ुद मृतक हो जाओगे. ये लोग कुछ भी कैसे विस्मृत कर सकते हैं?
उनके पास सिर्फ़ याददाश्त ही तो बची है.
(छह) |
समझाया जा रहा है कि किसी तरह, किसी फ़ैसले से मृतक वापस नहीं आ सकते. जो गुज़र गए संत्रासों की बात करेंगे, वे मुजरिम होंगे. गलियों में उनका चलना दूभर कर दिया जाएगा. हर जगह उन्हें दुत्कार मिलेगी और अपमान. इसलिए अपनी स्मृति के साथ छल करो, हम पर विश्वास करो. हम तुम्हारे हितरक्षक हैं. पिछला भूल जाओ और हमारे साथ विकास यात्रा पर चलो. हमें गुस्सा मत दिलाओ वरना हमें देखते ही तुम्हारा पेशाब निकल जाएगा. जनता वही है, संस्थाएँ वे ही हैं, राष्ट्र वही है, जनतंत्र नया हो गया है. शब्दों के अर्थ, व्याख्याएँ बदल कर नयी हो गईं हैं. इन्हें समझो और ख़ामोश रहो. एड़ी के बल पीछे घूमो. हमारे साथ क़दमताल करो.
लेकिन हुज़ूर, आपने तो सड़कों, इमारतों के नाम हत्यारों के नाम पर रख दिए हैं. जिन्होंने हमारे नवजात बच्चे छीनकर अपने कब्जे में ले लिए थे कि वे बड़े होकर ग़लती से भी आपके विचार से असहमत न हो जाएँ. आपकी असलियत न समझ सकें. जगहों के नए नामकरण से आप विस्मृति का नया प्रकार फैलाना चाहते हो. अत्याचारियों के नाम पर जगहों के नाम कर दोगे तो स्थिति यह बनेगी मानो हम क़ातिलों की गली के वाशिंदा हो गए हैं. अपने घर के पते पर उनके नाम लिखने हेतु बाध्य कर दिए गए हैं जिन्होंने हमारा सर्वस्व नष्ट कर दिया. जिन्होंने बीमारों को अस्पतालों में ही मार दिया, जिन्होंने हमारी रोज़ थाने में बुलाकर पिटाई की, चमड़ी उधेड़ने तक. मुक्कों से गर्भपात कर दिए गए. दीवार पर, टेबल पर सिर पटक-पटककर मूर्छित किया गया. जीवित लोगों को अजीवितों की तरह पछीटा गया. यह जताने के लिए कि अत्याचारी अमर हैं और उनके शिकार मरणशील हैं. असहाय हैं. भुनगे हैं.
निरीह लोगों पर मुक़दमे लाद दिए क्योंकि वे सरकार की अमानुषिकता के विरोधी थे. और अब वे, नृशंस अपराधियों के नाम पर रखी गलियों के बाशिंदे होने के लिए अभिशप्त किए जा रहे हैं. देखो, इस वसंत में गिरती देवदार की, मेपल की, नीम की पत्तियों पर उन यातनाओं से रिसता हुआ ख़ून चमक रहा है. क्रूरताओं के इतने संस्करण हैं कि लाखों पृष्ठ केवल उनके संक्षिप्त विवरण से भर जाएँगें. जितने लोगों को त्रास देकर मारा गया यदि उनकी छोटी-छोटी नामपट्टिकाएँ भी बनाई जाएँ तो शहर की दीवारें उनसे पट जाएँगी. इसलिए तुम्हें पीडि़तों का यह साधारण नारा सबसे भयानक लगता है- ‘अत्याचारियों को सज़ा दो.’ तुम्हारा क़ानून दरअसल अत्याचार भूलने के लिए नहीं, अत्याचारियों को भुला देने के लिए बनाया गया है.
क्षमादान का विधान छलावा है. हमें नये न्यायाधिकरण चाहिए. विशेष न्याय आयोग चाहिए. जहाँ अत्याचार किए गए उन इमारतों में अत्याचार के साक्ष्यों का संग्रहालय चाहिए. स्मृति का क़ानून चाहिए. जब कोई अंतर्राष्ट्रीय अदालत क्षीण आवाज़ में भी कहती है कि न्याय मुमकिन है तो हमें उदास आसमान में एक इंद्रधनुष दिखने लगता है. इस बार यह न्यायाधीश संवेदनशील है. वह पीड़ितों से घर-घर जाकर मिली है. उनके बयान सुन रही हैं, दर्ज कर रही हैं. उसे उस वक़्त के बारे में पता चल रहा है जिस पर मनुष्यता केवल शर्मिंदा हो सकती है. उसने क़ब्रों को खोदकर अवशेष निकालने के आदेश दिए हैं. अभी तक हमें जिन क़ब्रों के पास जाने तक की इजाज़त नहीं थी. बीच में एक दीवार थी जिस पर गोलियों के निशान थे. उसी दीवार के पार से हमें फूल फेंकना पड़ते थे. बिना यह जाने कि उधर हमारे प्रियजन दफ़न हैं भी या नहीं. देखो, यहाँ केवल हत्यारों की क़ब्रें एकल हैं. लेकिन मारे गए लोगों की क़ब्रें सामूहिक हैं. अब न्याय की एक खिड़की खुली है. खिड़की का एक पल्ला. आएगी, यहीं से रोशनी आएगी. यहीं से ताज़ा हवा का झोंका आएगा.
हम अदालत को उन नामों की सूची बनाकर देंगे जिन्होंने हमारे ऐन सामने क्रूरतम अपराध किए. इनके कृत्य इतने संगीन हैं, इतने प्रत्यक्ष कि ज़रा-सी पूछताछ में ही वे उजागर हो जाएँगें. इन्होंने किसी एक गाँव या शहर को नहीं, पूरे देश को ‘गुएर्निका’ में तबदील कर दिया. रिसते हुए घाव कैसे भूले जा सकते हैं. हम लंबे समय से जलती हुई मोमबत्ती की लौ की तरह अपनी वेदना में अनवरत काँपते रहे हैं. और अब तुम हमारी ‘न्याय की माँग’ को ‘बदले की भावना’ का नाम देकर उसे न्यून करना चाहते हो. क्षमादान एक व्यक्तिगत मामला है, उसे आप गिरती हुई बर्फ़ या बारिश की तरह सार्वजनिक नहीं बना सकते. सबकी तरफ़ से राज्य निदेशित नहीं कर सकता कि भूल जाओ. यों भी भूलना माफ़ करना नहीं होता. अत्याचारी यदि राज्य का प्रतिनिधि था, चाकर, चापलूस या ग़ुलाम था, या उसने राज्य की इच्छा के अनुपालन में अत्याचार किया था तो इस वजह से पीड़ित के लिए न्याय की ज़रूरत ख़त्म नहीं हो जाती.
अंतत: एक दिन संघर्ष हाथियों-ऊँटो-सूअरों में भी पंख लगा देता है. न्याय की असंभव लगनेवाली प्रतीक्षा पूरी होती है. आख़िर टूटा-फूटा ही सही, अनवरत माँग से कुछ न्याय सामने आता है. यह अपेक्षा कुछ हद तक साकार होती है कि जितना सच सामने आए उतना न्याय को भी सामने आना चाहिए. झिझकता हुआ न्याय सामने आता है, पुरानी क़ब्रें खोदी जाती हैं, गड़े मुर्दे निकाले जाते हैं. अत्याचारों के प्रमाण और प्रियजन के अवशेष मिलते हैं. वे फिर याद दिलाते हैं कि न्याय महज़ राजनैतिक पक्षधर होगा तो सिर्फ़ अन्याय होगा. अतीत के अपराधों की स्मृति पर कार्यभार है कि वह मानवीयता और न्याय का मार्ग प्रशस्त कर सके. कि अपराधियों के नाम से गलियों के, जगहों के नाम न हो सकें. लेकिन यह सब तब होगा जब अपराधी सत्ता में नहीं होंगे. और लोग दूसरों पर किए जा रहे अत्याचार पर ख़ामोश नहीं रहेंगे. तब कोई भी आदमी दूसरों की चुप्पी की वजह से नहीं मारा जाएगा.
इसे याद रखो और आगे बढ़ो.
अत्याचार न हो सकें इसकी योजना ही सभ्यता हो सकती है.
बर्बरता बची रहती है तो फिर सब कुछ असभ्यता है.
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(आभार- गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘भूल ग़लती’ की पंक्तियों के लिए.)
Documentary: The Silence of Others, 2018 (Spain): Director: Almudena Carracedo, Robert Bahar.
कुमार अम्बुज जन्म: 13 अप्रैल 1957, ग्राम मँगवार, ज़िला गुना, संप्रति निवास- भोपाल. . प्रकाशित कृतियाँ-कविता संग्रह: ‘किवाड़’-1992, ‘क्रूरता’-1996, ‘अनंतिम’-1998, ‘अतिक्रमण’-2002, ‘अमीरी रेखा’-2011, ‘उपशीर्षक’- 2022. कविताओं का चयन ‘कवि ने कहा’-2012, किताबघर से. राजकमल प्रकाशन से ‘प्रतिनिधि कविताएँ’- 2014.कहानी और अन्य गद्य: ‘इच्छाएँ’-2008. ‘थलचर’- 2016.‘मनुष्य का अवकाश’-2020.कहानी संग्रह: ‘मज़ाक़’ और चयनित फ़िल्मों पर निबंधों का संकलन ‘आँसुओं का स्वाद’ शीघ्र प्रकाश्य.‘वसुधा’ कवितांक-1994 का संपादन. गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’- 2002 का नियोजन एवं संपादन. अनेक वैचारिक बुलेटिन्स और पुस्तिकाओं का भी प्रकाशन, संपादन. हिन्दी कविता के प्रतिनिधि संकलनों एवं कुछ पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल. साहित्य की शीर्ष संस्थाओं में काव्यपाठ, बातचीत तथा वक्तव्य. कविताओं के कुछ भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद तथा संकलनों में कविताएँ चयनित.कवि द्वारा भी कुछ चर्चित कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित. ‘विश्व सिनेमा’ से कुछ प्रिय फ़िल्मों पर अनियत लेखन.भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार(1988), माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,(1992), वागीश्वरी पुरस्कार(1997), श्रीकांत वर्मा सम्मान(1998), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान(1998), केदार सम्मान(2000).kumarambujbpl@gmail.com |
कुमार अंबुज जी ने सिनेमा को हिंदी में जो भाषा और दृष्टि बख़्शी है वह नई पीढ़ी के लोगों के लिए एक मिसाल है। एक–एक वाक्य हमें समृद्ध करता है।
जनवरी के जाते-जाते, इस नए साल की यह सचमुच एक प्रसन्न कर देने वाली खबर है कि ‘समालोचन’ के जरिए मेरे प्रिय कवि-गद्यकार कुमार अम्बुज के सिनेमा पर लिखे गए गद्य का फिर आस्वादन लिया जा सकेगा। कुछ फिल्मों पर लिखे गए उनके पहले की गद्य-शृंखला के नैरंतर्य में ‘साइलेंस ऑफ अदर्स’ पर लिखे गए उनके इस गद्य में भी यह अंतर्निहित है कि वे अपने समय के तमाम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष और बहुस्तरीय अन्यायी संसार को कितनी बेचैनी और शक्ति के साथ प्रतिरोध के साथ अभिव्यक्त करते हैं। यही बात उनकी कविताओं और कहानियों में भी देखी जा सकती है। इस डॉक्युमेंट्री पर लिखा गया यह गद्य भी विनम्रता से बताता है कि यह फिल्म-एप्रीसिएशन तो कतई नहीं है। यह उससे आगे जाकर हमारे लिए एक ऐसा व्यापक परिप्रेक्ष्य बनाता है जिसमें हम देख पाते हैं कि फिल्मों पर लिखी गई तमाम समीक्षाओं और व्याख्याओं का अतिक्रमण कर सिने-गद्य को अपनी मौलिकता और अद्वितीयता में संभव करता है।
मैं इसे ‘कवि का गद्य’ में भी नहीं बांधना चाहता क्योंकि इसमें कविताई करने का कोई सायास और कृत्रिम प्रयत्न नहीं है बल्कि यह उनके गद्य की अंतर्निहित स्वाभाविकता है। यह बाआसानी देखा जा सकता है कि इसमें कविता की उड़ान उतनी नहीं है जितनी फिल्मों के जरिए अपने समय के बहुस्तरीय जटिल यथार्थ को अभिव्यक्त करने का साहस और जतन है। और ऐसा करते हुए वे वह रचनात्मक जोखिम उठाते हैं जो इस गद्य को फिल्मों से बाहर जाकर एक व्यापक अर्थ देता है। इस अर्थ में हम अपने समय की वे पीड़ादायी छवियां देख पाते हैं जो इस संसार को हर स्तर पर बदसूरत बनाने की छवियां हैं और इसके खिलाफ अथक प्रतिरोध पैदा करते हैं। इसलिए हिंदी में सिने-गद्य को अंबुज जी एक नई विधा काया देते हैं जिसमें उनकी संवेदनशील और ताकतवर दृष्टि जीवंतता देती है और एक नया आयाम।
“दिक़्क़त यह है कि तानाशाहों के लिए समर्थन इसी जनता में से निकलकर आता है. तानाशाह आसमान से नहीं आता. यहीं धरती पर, इसी समाज में उसका निर्माण होता है” शानदार लेख👍
अंतर्तम् को झकझोर देने वाला, आगाह करने वाला आलेख.प्रमोद वर्मा ने सच कहा है कि राज्य सत्ता मूलतः मानव विरोधी होती है.इसीलिए मार्क्स और गांधी ने राज्य विहीन मानव समाज की परि कल्पना की.कुमार अम्बुज का आभार, बधाई और धन्यवाद
इतिहास की ये सारी बर्बरताएँ मनुष्य जाति के चेहरे पर एक बदनुमा दाग हैं ।इनसे बस एक ही सवाल पूछा जा सकता हैं-इन सब का कोई अंत भी है या नहीं ?..कब मुक्ति मिलेगी ? अत्यंत मार्मिक वृतांत।
डर डर कर पढ़ रहा था कि इसमें वर्णित स्थितियाँ कहीं हमारी स्थितियों से मेल न खा जाएँ. अगर यह सच हुआ तो यह भी डर है कि इसमें हमारे आज का भविष्य भी है. इस तरह पूरा पढ़ गया और अब इससे अलग होने की कोशिश कर रहा हूँ.
संवेदना के बिन्दु से विचारों का इतना बड़ा प्रसार बहुत प्रशंसनीय है। एक बहुत महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही है जो जितनी जल्दी संभव हो विश्व के हित में हो जानी चाहिए।
मानवता के प्रति अपराध’ का मुकदमा चलाने के लिए इस संसार में कहीं तो जगह दो. हमारे देश में नहीं तो दूसरे देश में. अंतर्राष्ट्रीय अदालत में. वरना हर आततायी अपने देश का आंतरिक मामला बताकर लोगों को मारता रहेगा।
संवेदना और विचार सम्पन्न आलेख।