मुझे अपने स्त्री होने से प्यार है
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वे एक वाक्य कहती हैं: मुझे अपने स्त्री होने से प्यार है.
(यह वाक्य असंख्य स्त्रियों ने अलग-अलग ढंग से, अपने अनुभवों, स्वप्नों-दु:स्वप्नों, आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के संदर्भ में कहा है.)
यह वाक्य मेरे मन में गूंजता है. यह वाक्य हरे में और नीले में गूंजता है. यह वाक्य अनंत में गूंजता है. यह वाक्य एक स्त्री की देह में, उसकी देह से बाहर गूंजता है. एक ही स्त्री-देह में सांस लेती असंख्य स्त्रियों में गूंजता है. चराचर में, यह एक वाक्य समूचे ब्रह्मांड में गूंजता है. गूंज कर समूचे ब्रह्मांड की सिम्फनी में बदल जाता है.
यह एक वाक्य स्त्री मूर्तिशिल्पकार इसाबेल आलबुकर्क कहती हैं.
(दो)
अपने ही लिखे को थोड़ा सा बदलकर कहूं कि एक स्त्री मूर्तिशिल्पकार के ज़रिए उसी की देह का इस्तेमाल कर स्त्री देह में ही रूपायित मूर्तिशिल्पों को देखना बहुत ही रोमांचक-उत्तेजित करने वाला अनुभव है. एक साथ आनंददायक और पीड़ादायी.
स्त्री की तरह ही इन शिल्पों में स्त्री की सदियों की करवटें सोयी रहती हैं. शिल्पकार की एक प्रेमिल निगाह और आत्मीय स्पर्श पाकर वे करवटें अपनी तमाम बेचैनियों के साथ अपना चेहरा आपकी ओर करती हैं. लगभग पत्थर हो चुकी उनकी आंखें आपको एक उम्मीद और नाउम्मीदी से टकटकी लगाए देख रही होती हैं. वह विरल शिल्पकार होगा जो स्त्रियों के पास जाते हुए उसकी आत्मा पर पड़ी सदियों की खरोंचों पर धीरे-धीरे अपनी अंगुलियों का स्पर्श करता है और पाता है कि उसकी समूची देह उसका प्रेमिल स्पर्श पाकर एक लय में कांप रही है.
इस कंपकंपाहट में एक स्त्री का मनोदैहिक संसार अपनी कई अर्थ-छवियों में झिलमिल करने लगता है. स्त्री की देह और आत्मा पर पड़ी खरोंचों में मवाद है. वहां सूख चुकी मृत चमड़ी की महीन परतें हैं. लेकिन उसके नीचे अब तक सदियों में मिले असंख्य घाव हैं. वे अब तक ताजा हैं, अपने हरेपन में छिपते हुए. जैसे वे सदियों पुराने नहीं, बस कल के ही हों. और एक शिल्पकार के उस स्त्री देह का स्पर्श करते से उस देह की कोई सूखी चमड़ी की परत उखड़ती है और वहां बिना किसी चीख या आह के घाव उघड़-उधड़ जाते हैं और रक्त की सहसा उछल आई बूंद में बदल जाते हैं.
बस यहीं, और यहीं वह कलात्मक और संवेदनशील स्पर्श है जिसने ऐसे छुआ है कि इसके पहले कभी किसी ने नहीं छुआ था. और उस शिल्प की देह की आत्मा के चंद्रमा से सदियों से जो सफेद, महीन बुरादा झर रहा था, वह अचानक एक दूधिया उजाले में अपनी पूरी पवित्रता के साथ झिलमिलाने लगता है. स्त्री की दैहिकता और उसकी यौनिकता से जुड़े हर तरह के कलंकित आख्यान को साहस के साथ पोंछता हुआ.
एक देह इसी पवित्रता में अपना कायांतरण इस तरह करती है कि सदियों से चट्टान के नीचे दबे बीज अंगड़ाई लेकर हरेपन के अनंत में अपनी नीली-पीली कोमलता में खुलते-खिलते हुए चमकने लगते हैं. कहीं अवसाद की परत चमकती है और कान धरें तो कहीं अधूरे स्वप्नों का सामूहिक और कारुणिक रुदन सुनाई देने लगता है और माध्यम कोई और ही रूप धारण कर लेता है जैसे वह एक कल्पनाशील स्पर्श की प्रतीक्षा में जड़वत था. कलाकार का स्पर्श उसे फिर से धड़कनें सौंप देता है.
कहने दीजिए, यह कलाकार के माध्यम को स्पर्श करने के कौशल पर निर्भर करता है कि माध्यम में प्रकट होने वाली शिल्प-देह को वह कैसे एक नई शिल्प-देह में बदल देता है. यदि कलाकार के स्पर्श में यांत्रिकता और रोजमर्रा का उतावलापन है तो हो सकता है, वह वही देह पाए जो लगभग निर्जीव-सा अनुभव दे. तब शायद वह कलाकार दुःख के आईने में नहीं झांक पाए जिनमें एक स्त्री के अंधेरे-उजाले संसार के विविधवर्णी अक्स हैं.
ये शिल्प भी स्त्री की एक प्राचीन और नित-नूतन काया है जिसमें उसकी असंख्य आत्माओं का वास है. इसमें देह का रोना सुनाई देता है. रोना एक स्वप्न है, जिसमें बहुत सारी हिचकियां रहती हैं. हिचकियां एक चादर बनाती हैं जिस पर करवटों की सलवटें हैं. चादर के रेशों में दुःख का रंग है. दुःख एक आईना है. आईने में दुनिया के अक्स हैं.
इसी दुनिया में एक स्त्री का शिल्प भी अपने प्राचीन अंधेरे में, उस घने अँधेरे के ठोस अकेले पन में, अनसुने रुदन में अदृश्य है. एक कलाकार उसे इस तरह जीवंत करता है कि वह एक कोमल उजाले में इस तरह से प्रकट होता है कि आपसे अनवरत संवाद करने लगता है. वह सांस रोककर अपनी सारी कहानियां सुनाना चाहता है, आपको भी सांस रोककर कहानियां सुनना पड़ती हैं. ये कहानियां एक कारुणिक आलाप की तरह खुलती हैं जैसे अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी की आवाज भी एक आलाप की तरह खुलती है. वहां अमावस्या और पूर्णिमा के बीच एक बेचैन चीख की आवाजाही है, अदृश्य खरोंचें और घाव हैं, करवट लेते स्वप्न और दु:स्वप्न हैं जिनका कोई ठौर नहीं. कोई ओर नहीं, कोई छोर नहीं.
वहां आपको उजाड़ का धूसर और भूरापन भी मिलेगा और बसंत का नीला और पीला भी. वहां आपको बारिश की विलंबित लय भी मिलेगी और सूखे का चारों ओर गूंजता सन्नाटा भी. वहां रक्त को जमा देने वाली शीत ऋतु भी मिलेगी जो झुलसा कर काला कर देती है तो ग्रीष्म का वह ताप भी मिलेगा जो शायद स्त्री की आत्मा में पैठ चुकी प्राचीन सीलन को सुखाकर उड़ा दे. और उसकी आत्मा एक बार फिर अनंत में एक छोटे से पीले फूल की तरह हवा में सांस लेने लगे. एक ऐसा फूल जो अकेला नहीं, बहुत सारे ऐसे ही फूलों से मिलकर बना है.
क्या कहा जा सकता है कि एक स्त्री की तरह ही शिल्पकार का बनाया मूर्ति शिल्प भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलता. पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार पढ़कर ही अनेकार्थ में समझा-महसूस किया जा सकता है. और तब, यह संभव हो कि वह शिल्प रहस्यों की महीन परतों को खोले, धीरे-धीरे. एक विलंबित लय में.
देह में रुके समय को बहने के लिए और एक मूर्तिशिल्प में रुके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है. ट्यूनीसिया मूल की अमेरिकी मूर्तिशिल्पकार इज़ाबेल आलबुकर्क के मूर्तिशिल्प और इंस्टॉलेशंस ऐसे ही हैं.
(तीन)
उनके मूर्ति शिल्प देह के अनंत आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरते हैं. इन उड़ानों में स्त्री की दबी-छुपी और खुली-खीली इच्छाओं की साहसिक अभिव्यक्तियां हैं. इनमें देह और मन की अनेक जटिल और बहुस्तरीय करवटें हैं. हर करवट की पारदर्शिता में दैहिकता अलग-अलग अर्थ-छटाओं में हैं. पहली ही नजर में ये मूर्तिशिल्प दैहिकता और कामुकता से स्पंदित दिखाई देते है. कहीं मिथकों और प्रतीकों में सांस लेते हैं. वे इन मूर्तिशिल्पों में जीवन, यथार्थ और स्वप्न को अपनी साहसिक रचनात्मकता से मथ देती हैं.
उनके शिल्प एक तरफ मनुष्य और जानवर के सीमांत को कल्पनाशीलता से छूते हैं तो स्त्री की अनेक मुद्राओं, भंगिमाओं और स्थितियों-अवस्थाओं से उसकी कही-अनकही के लिए नया रास्ता बनाते हैं. वे नई राहों की अन्वेषी जान पड़ती हैं. उनके इन शिल्पों में स्त्री की करुणा, आनंद, दु:ख, संत्रास और अनंत इच्छाओं का प्रकट-अप्रकट-उत्कट-विकट संसार है. और यह सब वे अपने ही शरीर का प्रयोगात्मक और कल्पनाशील इस्तेमाल कर मूर्तिशिल्पों में रूपायित करती हैं. उनके ये मूर्तिशिल्प खुद के शरीर को विभिन्न माध्यमों में कास्टिंग कर मूर्त किए गए हैं. उनके मूर्तिशिल्पों की शृंखला ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ न्यूयॉर्क की एक गैलरी में प्रदर्शित हैं. इसमें उनके दस मूर्तिशिल्प शामिल हैं. इसके लिए उन्होंने ब्रांज, लकड़ी, सोना, रेज़िन, फर, लोमड़ी के खुर, फर, बालों और शादी की अंगूठी का इस्तेमाल किया है. इन मूर्तिशिल्पों में स्त्री कभी अपने स्तनों और योनि को हाथ रखकर छिपाती खड़ी है, कभी घुटनों के बाल बैठे जांघों के बीच झाड़ू लिए है. कहीं योनि के ऊपर अपने दोनों हाथों से जलती मोमबत्ती थामे है तो कहीं अधलेटी और लेटी अवस्था में है. कहीं वह संभोग की अलग-अलग अवस्थाओं या आसनों में हैं. कही मेट्रिस पर, कहीं लकड़ी पर, कहीं पत्थर और कहीं चादर पर. यह मूर्तिशिल्पकार अपनी मौलिकता और प्रयोगात्मकता में देखने-दिखाने का अभिनव ढंग बहुत ही मार्मिकता, कारुणिकता और साहसिकता से प्रस्तावित करती हैं.
लग सकता है कि ये मूर्तिशिल्प चौंकाने के लिए रचे गए हैं लेकिन इनके पीछे सक्रिय दृष्टि यह अभिव्यक्त करती है कि ये प्रयोग किसी मानसिक खुराफात में स्खलित नहीं हुए हैं बल्कि स्त्री को उसके समूचेपन में देखने-दिखाने की रचनात्मक बेचैनी के अनूठे साक्ष्य हैं. ये कृत्रिम लग सकते हैं, बहसतलब और विवादास्पद भी लग सकते हैं. ये ज़रूर है कि ये उन्मादी-आह्लादी हैं और इनमें वाद-विवाद-सम्वाद भी हैं.
(चार)
इन शिल्पों में भले ही यौनिकता अपनी तमाम सतहों पर, तमाम पाखंडों से मुक्त होकर, कभी आक्रामकता और कभी मिथकीय चेतना से उभरी दिखाई देती हों, लेकिन ये कामोत्तेजना पैदा नहीं करते. शायद यह वही सौंदर्य दृष्टि है जो कामोत्तेजना पैदा करने की अपेक्षा आप में सौंदर्य देखने की नज़र परिष्कृत करती है. मुझे लगता है कि इन मूर्तिशिल्पों में रूपायित स्त्री एक काया से निकलकर दूसरे में प्रवेश करती है और इस तरह विभिन्न माध्यमों में उसका कायांतरण होता रहता है और एक ही काया होने के बाद इस कलाकार की नाजुक नज़र हर माध्यम में उसे एक दूसरी काया में बदल देती है. वे एक ही स्त्री (और खुद को भी) को अलग-अलग काया में अलग-अलग अर्थों में आविष्कृत करती हैं. जैसा कि वे खुद कहती हैं कि ‘ये दस शिल्प होते हुए भी एक ही हैं.’ और हम यह देख पाते हैं कि किस तरह से एक कलाकार की अथक रचनात्मक जिजीविषा एक ही स्त्री को बार-बार पुनर्जन्म देकर उसे अपनी ही धड़कनें सौंप देती है.
अपने ही स्वप्न-दु:स्वप्न, अपना ही चरम सुख और संत्रास सौंप देती है, पूरे तीखेपन और तीव्रता से अभिव्यक्त कर देती है. यह वैसा ही है जैसा कि चंद्रकांत देवताले अपनी कविता में कहते हैं :
‘मैं अपनी नींद से निकलकर
प्रवेश करता हूं
किसी और की नींद में
इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है.‘
कहने दीजिए, इज़ाबेल एक स्त्री की नींद से निकलकर दूसरी स्त्री की नींद में प्रवेश करती हैं और उनका पुनर्जन्म होता रहता है. ऐसा करते हुए वे और स्त्रियों का पुनर्जन्म संभव करती है. ये शिल्प उनकी अथक और कलात्मक ‘प्रसव पीड़ा’ से ही जन्म लेते हैं लेकिन ये मूर्तिशिल्प ऐसी नींद है जिसमें जागती आंखें स्वप्नों को ऐसे देखती हैं जैसे जीवन है और जीवन को ऐसे निहारती हैं जैसे स्वप्न हों. और इसीलिए उनके ये शिल्प स्त्री के स्वप्न भी हैं और जीवन भी हैं और स्वप्न और जीवन का भेद मिटाकर एकाकार हो जाते हैं. इसलिए इन मूर्तिशिल्पों में देह एक करवट में स्वप्न और दूसरी करवट में जीवन दिखाई देती है और कई करवटें मिलकर जीवन और स्वप्न का भेद विसर्जित कर देती हैं. और इनमें बकौल चंद्रकांत देवताले :
‘बहुत मुश्किल है बताना
कि प्रेम कहाँ था किन-किन रंगों में
और जहाँ नहीं था प्रेम उस वक़्त वहाँ क्या था.’
इन मूर्तिशिल्पों की देह में यदि एक करवट में हम वसंत का पीला महसूस कर सकते हैं तो दूसरी करवट में यौनिकता का नीला. तीसरी करवट में हरा, पीले में इस तरह बदलता दिखता है कि एक स्त्री का अवसाद धीमे रुदन की तरह फूटने लगता है. कहीं किसी करवट में चरम सुख लेने के लिए एक उद्दाम और उत्तेजित सुर्ख़ रंग भी साफ उभर आता है. बावजूद इसके ये मूर्तिशिल्प अपने में मिथकों और प्रतीकों को इस तरह से धारण किए हैं कि अनेकार्थी हैं.
इन मूर्तिशिल्पों की ख़ूबी है कि ये एक अर्थ से छिटककर दूसरे अर्थ को वहन करते दिखाई देते हैं और अनेकार्थों की कोमल-कठोर जटिल-उलझी शाखाएं इनमें से फूटती रहती हैं. ये रचनात्मकता के जिस अंधरे-उजाले में स्त्री-संसार को अभिव्यक्त करते हैं, उसमें से किसी एक दो को निकाल कर दिखाना-कहना सचमुच संभव नहीं लगता. फिर चंद्रकांत देवताले की कविता पंक्तियों का स्मरण हो आता है कि
‘पानी, नींद और अँधेरे के भीतर इतनी छायाएं हैं
और आपस में प्राचीन दरख्तों की जड़ों की तरह
इतनी गुत्थमगुत्था
कि एक दो को भी निकाल कर हवा में नहीं दिखा सकता.’
लेकिन यह कलाकार अपने इन काव्यात्मक मूर्तिशिल्पों में मिथकों और प्रतीकों, प्राचीन समय और वर्तमान समय के पेड़ों की गुत्थमगुत्था जड़ों को हवा में निकालकर दिखाने का जतन करती दिखाई देती हैं.
(पांच)
ये चिकने-खुरदरे, सफेद, भूरे-धूसर, चमकदार, रौशनी में नहाते मूर्तिशिल्प स्त्री की त्वचा की तरह आभामय दिखाई देते हैं लेकिन इनकी त्वचा के नीचे स्त्री का एक आनंदमय, त्रासद, मिथकीय और प्रतीकात्मक और राख होता संसार सांसे लेता है. हो सकता है इसे सिर्फ त्वचा मान लिया जाए. ये मांसल, नग्न, ऐद्रिय होते हुए भी त्वचा के नीचे दबी और दबा दी गई सुनी-अनसुनी कहानियां फुसफुसाते हैं. इनकी इस फुसफुसाहट में हम वह भी सुन सकते हैं जो हम सुनना नहीं चाहते. जिसकी हम निरंतर उपेक्षा करते रहे हैं और इरादतन इससे उदासीन बने रहने का अभिनय करते रहे हैं.
स्त्री इस राजनीति को समझती और इसकी परतें अब उखड़तीं-उधड़तीं दिखाई दे रही हैं. इस राजनीतिक षड्यंत्र का वह सदियों से शिकार रही है और इस राजनीति के जबड़े से बाहर आने की उसकी इस छटपटाहट को भी इन मूर्तिशिल्पों में शायद देखा और महसूस किया जा सकता है. ये एक व्यापक और शोषणपरक राजनीति का उद्दाम, तीव्र और सशक्त प्रतिरोध हैं सिर्फ प्रतीकात्मक चरम सुख के प्रतीक भर नहीं. इन्हें समूचे ब्रह्मांड की सिम्फ़नी की तरह भी सुना जा सकता है. इसलिए इन्हें सिर्फ त्वचा मानने की भूल नहीं की जाना चाहिए. इन मूर्तिशिल्पों को देखकर चंद्रकांत देवताले की कविता पंक्तियां फिर याद आती हैं :
‘जिसे तुम त्वचा कहते हो वह नदी का वसंत है
चाँदनी में बहता हुआ इच्छाओं का झरना
उसे समय को परे धकेल कर
जगह को गहराइयों में ले जाना ख़ूब आता है
फिर भी सिर्फ़ एक औरत को समझने के लिए
हज़ार साल की ज़िंदगी चाहिए मुझको
क्योंकि औरत सिर्फ़ भाप या वसंत ही नहीं है
एक सिंफनी भी है समूचे ब्रह्मांड की.’
(छह)
इ़जाबेल अल्बकुर्क अपने मूर्तिशिल्पों को ‘सिम्बॉलिक ऑर्गेज़्म’ (प्रतीकात्मक चरम सुख) कहती हैं. उनके 10 मूर्तिशिल्पों की प्रदर्शनी ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ दुनिया की कुछ मशहूर कला वीथिकाओं में प्रदर्शित की जा रही हैं. इसकी खूबी यह है कि ये मूर्तिशिल्प उन्होंने अपने ही शरीर की कास्टिंग करके रचे हैं. इन 10 मूर्तिशिल्पों में एक स्त्री को अलग-अलग स्थितियों और अलग-अलग वस्तुओं के साथ अलग-अलग माध्यमों में रचा गया है. वे कहती हैं
“मैंने मूर्तिशिल्प बनाने की शुरूआत 2016 में की थी. मैं और मेरे पार्टनर जोन रे उस समय बहुत सारा डिज़ाइन वर्क किया करते थे. उस समय हम कलाकार-फिल्ममेकर आर्थर जोफा के एंटी मोनोग्राफ ‘अ सीरीज़ ऑफ अटरली इम्प्रॉबेबल, येट एक्स्ट्राऑर्डिनरी रेंडिशंस’ को लेकर काम कर रहे थे. मैं उनकी किताब, उनकी अप्रोच, उनके विचारों और काम से गहरे प्रभावित हुई. वे जो कर रहे थे, उसकी गहराई मैं महसूस कर रही थी.
उसी समय अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति चुन लिए गए थे. लॉस एंजिल्स के चाइनाटाउन में हमारा एक छोटा सा ऑफिस था. इसकी खिड़की से हम रोज़ाना ही ट्रम्प विरोधियों की रैलियां देखा करते थे. मुझे अच्छी तरह से याद है कि महिलाएं भी विरोध प्रदर्शन कर रही थीं और तब हम अपनी डेस्क से उठकर उनमें शामिल हो जाते थे. मैंने निजी तौर पर यह महसूस किया कि मेरे भीतर एक तरह का गुस्सा सिर उठा रहा है. और वह गुस्सा शायद हमेशा से ही मेरे भीतर कहीं दबा रहा होगा. कुछ बहुत प्राचीन और सक्रिय जैसे कोई ज्वालामुखी हो. और तब से मैं रोज़ाना सूरज के उगने से पहले ऑफिस पहुंच जाती. दिन शुरू होने से पहले ही मैं एक मॉल में बने अपने ऑफिस में प्लास्टर और क्ले को मिक्स करने लगती. मैंने अपनी उस छोटी सी स्पेस को एक दरवाज़ा लगाकर अलग कर लिया और एकाग्रता से कई तरह के फॉर्म्स बनाने लगी. सिर, स्तनों और शिश्नों के ख़ूब सारे फॉर्म्स क्रिएट करने लगी. ये वे फॉर्म्स थे जिन पर मैं पिछले कुछ महीनों से काम कर रही थी. लेकिन मैं इनके टुकड़े कर देती, मिला देती और नष्ट कर देती. यह मेरे लिए बहुत ही कमाल का राहतभरा काम था. जैसे यह मेरी ज़िंदगी के आने वाले दौर में मुझे बचाने के लिए एक आर्मी को मूर्तिमान करने जैसा अनुभव था. यह प्रक्रिया तब तक जारी रही जब तक कि मैं अपने खुद के स्टुडियो में नहीं आ गई. और नए स्टुडियो में मैंने महसूस किया कि मुझमें सिर उठा रहा वह प्राचीन और सक्रिय ज्वालामुखी धीरे-धीरे प्रेम में बदल रहा है. और वह आर्मी अंतत: एक ‘ऑर्गी’ में बदल रही है. तब मैंने अपने कामों को नष्ट करना बंद कर दिया. उन्हें पोषित, पुष्पित-पल्लवित करना शुरू किया. मैंने मूर्तिशिल्प को चुना और मूर्तिशिल्पों ने कई कारणों से मुझे चुन लिया था. त्रि-आयामिता को लेकर मुझमें धुन सवार थी. मैंने जाना कि त्रि-आयामी काम मुझे बहुस्तरीय और जटिल परिप्रेक्ष्य दे रहे हैं.”
(सात)
इज़ाबेल कहती हैं कि मुझे अपने अनुभवों से प्रेरणा मिली और बाहरी कारणों से भी. मैं परफॉर्मर भी हूं और मैंने हेकूबा म्यूज़िक और परफॉर्मेंस ग्रुप मेरे पार्टनर जोन रे के साथ शुरू किया था. तब मैं 22 साल की थी. कह सकते हैं, यह मेरे कलात्मक जीवन की नींव थी. हमने उसमें हर तरह के प्रयोग करने की कोशिशें की. हमारा पहला एलबम पैराडाइज़ था. हमारा दूसरा एलबम आया जिसमें जोन और मैं एक दूसरे में घुल मिल और छिप गए थे. जैसे एक शरीर में दो लोग. इसके लिए हमने एक जैसे कपड़े पहने, अपने शरीरों के सारे बाल साफ कर लिए थे, और एक तरह से सीमाहीन होकर खूब अभ्यास किया. इस दौरान हमने तेनचिंग सीहेय और लिंडा मोन्टाना के कामों और मेरे मूर्तिशिल्पों की शृंखला ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ के बारे में लगातार सोचा और बातचीत की. इन सबके बीज हेकुबा से अंकुरित हुए. मुझे हेकुबा की तात्कालिकता से मुहब्बत है. मुझे मेरे और जोन के बीच मुहब्बत और सहयोग का जो संबंध है, उससे गहरा लगाव है और परफॉर्मेंस के जरिए व्यापक समुदाय से तादात्म्य बनाने से भी. फिर मैंने एक टाइम स्केल में गति करना शुरू किया और मैंने पाया कि यह प्रदर्शनकारी से ज्यादा मूर्तिशिल्पमय है.
(आठ)
एक इंटरव्यू में वे कहती हैं कि मैंने अपने शिल्पों की एकल नुमाइश ‘सेक्सटेट’ (निकोडिम गैलरी ) में अपनी सीरीज़ ‘आर्गी फॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ से कुछ शिल्प चुनकर प्रदर्शित किए. मैं कहना चाहूंगी कि ये शिल्पों को चुनने की प्रक्रिया से ज्यादा उस प्रक्रिया को बताते हैं कि मैंने कैसे इनका एक दूसरे से संबंध बनाते हुए इन्हें यहाँ प्रदर्शित किया है. मैंने इन्हें एक ही स्पेस में एक दूसरे के साथ सह-संबंध में प्रदर्शित करना ही कल्पित किया था, एक सिम्बॉलिक ऑर्गेज़्म की तरह. मैं इसमें हारमनी को गहराई से महसूस कर रही थी.
मेरी इस सीरीज़ के लिए मैंने अपने ही शरीर की कास्टिंग और थ्री डी स्केनिंग के जरिए विभिन्न माध्यमों का इस्तेमाल किया. सिरहीन मानवीय मूर्तिशिल्प रचने और इस प्रविधि से से मैं एक नई तरह का आस्वाद देना चाहती थी. मैं यही कहूंगी कि मैं ऑर्जीसीरीज़ को जीवन पर्यंत मूर्तिशिल्प रचने के रियाज़ के तौर पर देखती हूं. इसके साथ ही मैं मटेरियल की भाषा को जानने-समझने-बूझने-महसूस करने की कोशिश के रूप में भी देखती हूं. ब्रांज की भाषा, रबर की भाषा, रेज़िन की भाषा, लकड़ी और अन्य धातुओं की भाषा को जानने-खोजने की यह कोशिश है. जब मैंने इन शिल्पों को रचने की शुरुआत की तो मैंने ब्रांज को वैसे ही समझने की कोशिश की जैसे मैं अपने पांवों को समझने-महसूस करने की कोशिश करती हूं. रबर को मैं वैसे ही महसूस करने की कोशिश करती हूं जैसे मैं अपने खुद के हाथों की थरथराहट को महसूस करती हूं. और इन शिल्पों में अपने ही शरीर को मैं सीधे और मेटाफोरिकल ढंग से इन माध्यमों के जरिए रूपांतरण की प्रक्रिया में ही समझबूझ पाती हूं क्योंकि ये सारे मूर्तिशिल्प मेरे अपने ही शरीर से उत्पन्न हुए हैं. इन्हें भिन्न-भिन्न माध्यमों में खुद को रिप्रेज़ेंट करने का मेरे लिए अर्थ है कि मैं अपने ‘स्व’ को अभिव्यक्त कर सकूं.
द अनइसेंशियल सेल्फ. आप कह सकते हैं कि ये मूर्तिशिल्प मेरे बारे में हैं लेकिन दूसरे ढंग से देखें तो ये स्व के विचार के बारे में भी हैं. अपने ही शरीर का इस्तेमाल करने के मायने है कि मैं क्रोध से मुक्त होकर प्रेम की दिशा में आगे बढ़ रही हूं. अपने ही शरीर के साथ इस तरह काम करने का अर्थ यह भी है कि मैं बलपूर्वक अपने भीतर की शर्म के खिलाफ संघर्षरत हूं. और मैं इस संघर्ष के जरिए स्व-स्वीकार की प्रक्रिया में आगे बढ़ रही हूं. और मैं उम्मीद करती हूं कि दर्शक इसे समझने की कोशिश करेंगे.
(नौ)
‘ऑर्जीफॉर 10 पीपुल इन वन बॉडी’ प्रदर्शित मूर्तिशिल्प उनकी ज़िंदगी के निजी और काव्यात्मक क्षणों का छितरा जाना है. और इनमें मिथक, इतिहास और सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के तत्व भी घुलमिल गए हैं. वे कहती हैं कि
‘ये मेरी पसंद का नहीं बल्कि देखने का अपना एक ढंग है. मेरे इन मूर्तिशिल्पों में सेक्सुऑलिटी और इरॉटिसिज़्म की भाषा को प्रयुक्त किया है. सेक्सुआलिटी और इरॉटिसिज़्म के चश्मे के ज़रिए मैंने अपनी ही ज़िंदगी को समझने की कोशिश की है. उन सारी व्यवस्थाओं, इतिहास, संरचनाओं और समकालीन घटनाओं को भी किसी ना किसी स्तर पर अभिव्यक्त किया है जो हमारी सब की ज़िंदगी पर असर डालती हैं. मैं अक्सर रोमन कवि ओविड के बारे में सोचती हूं और यह भी कि उसने मेटामॉर्फोसिस के विचार का कैसे इस्तेमाल किया है. मेटामॉर्फोसिस के चश्मे के जरिए ही हम एक बड़े मानवीय अनुभव को जान-समझ सकते हैं. मेटामॉर्फोसिस या मेरी इस सीरीज़ के संदर्भ में इरॉटिसिज़्म एक आंख में बदल जाता है जिसके जरिए हम चीज़ों को कुछ ज्यादा क़रीब से देख-समझ सकते हैं.‘
उनके लिए मूर्तिशिल्पों के हर माध्यम के चुनाव करने की प्रक्रिया का अनुभव अनेक स्तरीय है. मिसाल के लिए ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ के मूर्तिशिल्प-1 को लें. इसके लिए उन्होंने अपने शरीर को ब्रांज में कास्टिंग की. उनकी इस माध्यम में गहरी दिलचस्पी थी. इस बारे में वे कहती हैं कि मेरे लिए यह जानना दिलचस्प था कि ब्रांज प्रकाश साथ कैसे प्रतिकृत होता है. वह बहुत ऐंद्रिक और सशक्त ढंग से प्रकाश को परावर्तित करता है. और मुझे शरीर को आध्यात्मिक आशयों के साथ इतना चमकदार बनाने का विचार बेहद पसंद आया. लेकिन मैंने जब अपने इस पहले मूर्तिशिल्प पर एकाग्र होकर काम करना शुरू किया तब कैलिफोर्निया के जंगलों में आग फैल गई थी. इस आग में मेरे परिवार के घर और आर्काइव को जलाकर खाक कर दिया. मेरी जड़ें मातृसत्तात्मक कलाकार परिवार में हैं और इस आग के कारण हमने चार पीढ़ियों की कला-सम्पदा को हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया था.
इसमें मेरी दादी मां, दादी, मेरी मां और मेरी बहनों की कलाकृतियां राख हो चुकी थीं. जब हम अपने घर और स्टूडियो की साफ-सफाई करने में जुटे तो हमें ब्रांज के तीन मूर्तिशिल्प मिले. वे संपूर्ण थे और उनकी ख़ूबसूरती ने मुझ पर ग़ज़ब का असर किया. और वहीं से मुझमें इन धातुओं में गहरी दिलचस्पी पैदा हुई क्योंकि इनमें एक तरह की अनंतकाल तक जीवित रहने की ताक़त थी. आग के बीच भी इन धातुओं की इंटीग्रिटी बरक़रार थी.
(दस)
उनका मूर्तिशिल्प-3 कमाल का है. इसमें एक निर्वसना अपने दाहिने हाथ से अपना बायां स्तन और अपने बायें हाथ अपनी योनि को छिपा रही है. इसकी मुद्रा दयनीयता नहीं, कारुणिकता पैदा करती है. वह शरीर पर दृश्य-अदृश्य प्रहारों की मार्मिक कहानी कहती है. इस शिल्प की खड़े रहने की मुद्रा, कलर, टोन और टेक्स्चर भी इतने अर्थगर्भी हैं कि एकबारगी देखने पर ही स्त्री का दमित-शोषित संसार सहसा प्रकट हो जाता है. वे इस शिल्प के बारे में कहती हैं
‘मैंने ऑर्जीसीरीज के मूर्तिशिल्प 3 को लकड़ी में रचा. मैंने इसके लिए ठोस अखरोट की लकड़ी का उपयोग किया. वस्तुतः आग में जल चुके पेड़ों को काटकर मैंने मूर्तिशिल्प तराशा. बचपन में मैं इसी पेड़ के नीचे बैठकर ही सपने देखा करती थी. लकड़ी के साथ काम करने में मुझे आनंद मिला क्योंकि इसका अपना एक शरीर था और एक भरापूरा-धड़कता जीवन भी. पेड़ एक तरह से इतिहास के गवाह होते हैं. वे हमारे पहले और हमारे बाद भी हर बात के साक्षी रहते हैं. उनकी संवेदनाएं होती हैं और वे हमारे स्पर्श को महसूस करते हैं. इसीलिए इस मूर्तिशिल्प के लिए मैंने लकड़ी को चुना. इस शिल्प को जितना मानवीय स्पर्श मिला, उतने ही वे पावन होते चले गए. मनुष्य की पोरों से निकले द्रव्य और प्रेम का स्पर्श पाकर वे ज्यादा सशक्त हो गए.‘
(ग्यारह)
इज़ाबेल का एक मूर्तिशिल्प है जिसमें एक स्त्री घुटने के बल बैठी अपने दोनों टांगो के बीच में एक लंबी झाड़ू लिए है. इसकी मुद्रा पीछे झुकी स्त्री की है जैसे वह कोई असहनीय विलाप कर रही हो या चीख रही हो. जब मैंने इस शिल्प की छवि देखी तो सहसा मेरी स्मृति में कौंध गया कि हमारे देश में दलितों पर कितने भयानक और वीभत्म अत्याचार किए गए हैं. हमारे यहां यह होता रहा है कि एक दलित अपने पीछे झाड़ू लटकाए चलता था और ताकि वह जहां जहां से गुजरे उसके पांवों के निशान मिटते चले जाएं. लेकिन यह कलाकार इस स्त्री को एक चुड़ैल के रूप में रूपायित करती हैं और इस शिल्प की अंदरूनी सतह पर राख भर देती हैं. यह हरा शिल्प एक भरी पूरी स्त्री और भीतर से राख हुई जाती स्त्री को साकार करता है. जैसे वह जलने के बाद भी अपनी राख को समेट रही हो.
(बारह)
उनका एक मूर्तिशिल्प लकड़ी में है जिसमें स्त्री सेक्स करने और बच्चे को जन्म देने की स्थिति में रची गई है. यह उजला भूरा शिल्प इंस्टॉलेशन भी है क्योंकि इसमें दो टेडी बियर का इस्तेमाल किया गया है. एक टेडी बियर ठीक स्त्री योनि के नीचे और दूसरा टेडी बियर इस तरह से संयोजित किया गया है कि वह स्तनपान करता शिल्प को दूसरे स्तर पर अर्थमयी बनाता है. इसमें एक स्त्री की प्रसव वेदना और मातृत्व का सुख दोनों ही सुंदरता से रूपायित हुए हैं.
(तेरह)
एक इंटरव्यू में वे कहती हैं कि ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ के मूर्तिशिल्पों में विभिन्न स्थितियों में शरीर की बहुस्तरीय अंतक्रियाएं भावनाओं के बहते हुए पलों की तरह रूपायित हैं. मुझे इन्हें मूर्तिशिल्प में ढालना इसलिए ज़रूरी लगा कि ये मूर्तिशिल्प एकदूसरे से अलग नहीं है, इनमें स्व की अखंडता (‘इंटीग्रेशन ऑफ सेल्फ’) है. या यूं कहें कि इनमें स्व की अनेकता का स्वीकार है. अपने तमाम आयामों में स्व की अभिव्यक्ति है. इसमें संकीर्णता नहीं, एक तरह का विस्तार है.
हरेक मूर्तिशिल्प विभिन्न विचारों की अभिव्यक्ति है. इन मूर्तिशिल्पों को रूपायित करने से महिनों पहले मैंने बुटोह या वोग नर्तकों की तरह एक निश्चित और खास रूप को हासिल करने के लिए ख़ासा रियाज़ किया. मैं इसे एक तरह से ड्रॉइंग फेज़ कहूना चाहूंगी. इस फेज़ में मैंने अबूझ मुद्राओं और भंगिमाओं की खोज की. मिसाल के लिए ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ सीरीज़ के मूर्तिशिल्प-4 को लिया जा सकता है.
यह मूर्तिशिल्प एक सेक्स पोज़िशन है. इसमें निवर्सना अपने दोनों हाथों और दोनों घटुनों पर फ्लोर पर आगे की ओर झुकी हुई है. इस मूर्तिशिल्प के संदर्भ में वे इतना ही कहती हैं कि ‘मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं कि यह मूर्तिशिल्प में पहली नज़र में अधीनता की हद तक समर्पण यहाँ तक कि अपमानजनक स्थिति दिखती है, फिर भी इस शिल्प में देह पूरी शक्ति और प्रभुत्व लिए हुए है. यह शिल्प सिर्फ अधीनता की अभिव्यक्ति नहीं करता है बल्कि यह अधीनता और प्रभुत्व के बीच रिश्ते की अभिव्यक्ति है कि कैसे दोनों का सहअस्तित्व है. इसी तरह ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी सीरीज़ के मूर्तिशिल्प 2 (द कैंडल पीस) एक बहुत ही सामान्य सेक्स पोज़िशन में है लेकिन इसके साथ ही यह प्रसव की स्थिति में भी है. यह मूर्तिशिल्प एक साथ संभोग की स्थिति और जन्म देने की स्थिति में, दोनों ही अभिन्न रिश्ते में रूपायित हैं.
(चौदह)
इन मूर्तिशिल्पों में स्त्री की यौनिकता के विभिन्न रूपों की खुली अभिव्यक्ति है. इतिहास और अधिकांश समाजों में स्त्री की यौनिकता से जुड़े कलंकित आख्यान भरे पड़े हैं. इसीलिए वे कहती हैं कि ‘यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम हर तरह से दमित करने वाली तमाम व्यवस्थाओं और सत्ताओं से अथक संघर्ष करें. हमारे पास जो भी है बल्कि हरेक चीज़ का हमें इस्तेमाल करते हुए, साहस के साथ, व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध को अभिव्यक्त करना चाहिए. और ये व्यवस्थाएं बहुधा स्त्री के शरीर और उसकी यौनिकता पर कायराना हमला करती हैं क्योंकि ये व्यवस्थाएं जानती है कि स्त्री की ये तमाम शक्तियां कितनी ताकतवर होती हैं. हमारी यौनिकता और तमाम इच्छाएं हमारी बुद्धिमत्ता और शक्ति के गहरे स्रोत हैं. हम इन्हें अपनी शर्म से जितना मुक्त करेंगी, स्वतंत्रता हमारे लिए उतनी ज्यादा आसान होती चली जाएगी.
(पंद्रह)
इस कलाकार की रचना प्रक्रिया भी बहुत दिलचस्प और कुछ रीति-रिवाजों से अभिन्न जुड़ी हैं. वे कहती हैं कि ‘जहां तक मूर्तिशिल्प रचने के पहले मेरे कुछ रस्म-रिवाज निभाने का सवाल है तो ये कुछ अर्थ में एक सुपीरियर जेश्चर हैं. और इन पर काम करते हुए मैं यह महसूस करती हूं कि मानवीय इतिहास में इसकी एक दीर्घ परंपरा है. मिसाल के लिए ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी 3’ (लकड़ी का मूर्तिशिल्प) एक ऐसा शिल्प है जो इस शृंखला का अपेक्षाकृत एक छोटा मूर्तिशिल्प है. और यह इतना छोटा है कि इसे बहुत प्रेम और सचेत संभाल के साथ आसानी से थामा जा सकता है.
इस स्त्री शिल्प के साथ नींद ली जा सकती है, इसके साथ रहकर गीत गाए जा सकते है और उसे दुलार किया जा सकता है. और ऐसा करते हुए मैंने पाया कि यह अनुभव राहतभरा है, जैसे किसी बीमारी में कोई मन का इलाज करता हो. इस शिल्प की काया को इस तरह से प्रेम या देखभाल करना वैसा ही था जैसे मैं अपनी ही काया की देखभाल करती हूं. मैंने इस शिल्प पर उस वक़्त काम करना शुरू किया. जब कोरोना संक्रमण के कारण लॉकडाउन लगा ही था. और उसी वक़्त मैंने एक ग्रुप ‘इनक्लोज़र’ को ज्वॉइन किया था. इस ग्रुप में कई कलाकार और मध्ययुग के स्कॉलर्स शामिल थे. ये क्वारेंटीन के समय नियमित बैठकों में मध्ययुनीन कलाओं, संतों, संन्यासियों के बारे में गहन विचार-विमर्श किया करते थे. हमने जब पहली बार बात करना शुरू किया तो हममें से अधिकांश अपरिपक्व थे और अपनी ज़िंदगी के बारे में बोलते हुए ध्यान आकर्षित करने कोशिश करते थे.
इस समूह की पहली बैठक में ही मैं अपने इस छोटे से लकड़ी के मूर्तिशिल्प के बारे में बताने लगी. तब इसमें कुछ लोगों ने मुझे ‘सिम्पेथैटिक मैजिक’ के बारे में बताया. तब मैंने महसूस किया कि यह प्राचीन मानवीय रस्म-रिवाज ने कैसे मेरी ज़िंदगी में आने का रास्ता बनाया. दूसरे रिवाज अधिक इंटेंशनल होते हैं. मिसाल के लिए ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी 5’ (हिरणी का मूर्तिशिल्प) लें. अपना ही बॉडी स्कैन करने के दौरान इस शिल्प का जन्म हुआ था. मैंने इस मूर्तिशिल्प को रूपायित करने के लिए खुद को हिरणी बनाने के लिए मैथड एक्टर की तरह काम किया.
वही खाना शुरू किया जो हिरण खाते हैं. मैं हिरणों के बीच और उनके साथ ही चरागाह में अपना सारा वक़्त बिताती. मेरे स्टूडियो के पास ही पहाड़ों के बीच चरागाह था, जहां हिरण विचरते हैं. और इनके बीच रहते हुए मैं बहुत ध्यान से और लगातार इनका विलाप सुनती थी. यह उनकी एक तरह की सुरक्षात्मक प्रार्थना होती है और यह प्रार्थना हिरण सामूहिक रूप से तब करते हैं, जब उन्हें यह अहसास हो जाता है कि कोई घात लगाकर उनका शिकार करना चाहता है. 433 ईसापूर्व में संत प्रैटिक अपने भिक्षुओं के साथ इस प्रार्थना का इस्तेमाल तब किया करते थे जब भिक्षुकों को जंगलों में रहते हुए किसी जंगली पशु के हमला करने का भय होता था, और यहीं से मेरी ट्रांसह्यूमेनिज़्म और रूपांतरण की प्रक्रिया में गहरी दिलचस्पी पैदा हुई. यह कि कैसे हम अपने गहनतम और उच्चतम पलों में रूपांतरण का साक्षात कर सकते हैं.
(सोलह)
उनका हिरणी के रूप में रचा गया शिल्प इतना खू़बूसूरत है कि पहली नज़र में यह मोहित कर लेता है. इसमें हिरणी की त्वचा में स्त्री काय एक खास मुद्रा में बैठी है. भूरे बाल, सफेद धब्बे, खुर और नाजुक पांव और हाथ. हाथ की एक अंगुलि में शादी की अंगूठी. नेलपॉलिश. यह शिल्प एक स्त्री और एक हिरणी के सीमांतों को मिला देता है और आत्म तथा अन्य के भाव को विसर्जित कर देता और एकत्व के भाव को प्रतिष्ठित करता है.
(सत्रह)
मैं यह नहीं सोचती कि मेरे मूर्तिशिल्प किसी बयान की तरह हैं. इस शृंखला का प्रत्येक मूर्तिशिल्प जवाब होने के बजाय एक सवाल ज्यादा है. लेकिन मैं मानती हूं कि एक राजनीतिक कर्म के रूप में आपकी कोई आवाज़ है तो इस अर्थ में कला का सृजन भी राजनीतिक है. इस अर्थ में मेरे ये मूर्तिशिल्प भी एक आवाज़ है और मैं इसका रचनात्मक इस्तेमाल करती हूं. हमारे भीतर जो स्वतंत्रता और शक्ति है, उसका यह एक तरह का अध्यादेश है. और इसीलिए कलाएं, शक्ति और सत्ता की अन्य व्यवस्थाओं के लिए बहुधा खतरे के रूप में देखी जाती हैं. कलाएं हमें हमारी अपनी अंदरूनी शक्ति से जोड़ती हैं. कलाएं बताती हैं कि हमारे बाहर व्यवस्थाएं कैसे और किस तरह से हमें नियंत्रित करने की कोशिशें करती हैं. इस अर्थ में मेरी कला प्रतिरोध की कला कही जा सकती है.
(अठारह)
वे स्टुडियो ओस्क की सह निर्देशक भी हैं. यह स्टुडियो आर्टिफिशियल और एलियन इंटेलीजेंस को इस तरह से विकसित करने में जुटा है जो कला और निजी अनुभवों को नए मानवीय और अ-मानवीय परिप्रेक्ष्य में देखने और रचने में मदद करने की कोशिश करता है. अपनी इस शृंखला ‘ऑर्जीफॉर टेन पीपुल इन वन बॉडी’ में वे अपनी निजी ज़िंदगी के अनुभवों और काव्यात्मक पलों को आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी के रिस्पॉन्स के रूप में भी रचती हैं.
(उन्नीस)
वे अपने एक इंटरव्यू में कहती हैं कि उम्मीद है, ब्रांज, रबर, रेज़िन, फर, लकड़ी में हर्षोन्माद, मृत्यु और सेक्सुअल आईडेंटिटी को रूपायित करने का यह अनुभव अंतत: एक अनंतता हासिल करेगा. जब मैंने इन मूर्तिशिल्पों को बनाने की शुरूआत की थी तो मुझे लगा था ये सभी सेक्सुअल हैं लेकिन अब ये ज्यादा शांत दिखाए देते हैं. और गैलरी की स्पेस में हरेक मूर्तिशिल्प नितांत अकेले महसूस होते हैं. मैं महसूस करती हूं, ये सब काम एक तरह से आध्यात्मिक हैं.
(बीस)
यह टिप्पणी इस कलाकार के एक वाक्य से शुरू हुआ था-‘मुझे अपने स्त्री होने से प्यार है.‘ कहने दीजिए उनके ये तमाम मूर्तिशिल्प और इंस्टालेशंस उनके होने के ही रचनात्मक साक्ष्य हैं. और उनका ‘अपने से प्यार’ का अर्थ तमाम स्त्रियों से प्यार है. इसी में उनके सरोकार और प्रतिबद्धताएं चुपचाप अभिव्यक्त होती हैं. अपने स्त्री होने से प्यार का एक अर्थ यह भी कि वह धरती की तरह निरंतर प्रसव पीड़ा सहती, हर पल उर्वर और रचनात्मक है. रचने का दर्द तो लेना ही होगा. चंद्रकांत देवताले की कविता
‘बाई दरद ले’ की पंक्तियां हैं:
‘बाई दरद ले
सुन बहते पानी की आवाज़ हां ! ऐसे ही देख ऊपर हरी पत्तियां
सुन ले उसके रोने की आवाज़
जो अभी होने को है
ज़िंदा हो जाएगी तेरी देह
झरने लगेगा दूध दो नन्हे होठों के लिए
बाई दरद ले.’
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रवीन्द्र व्यास इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक प्रभात किरण, दैनिक समाचार पत्र चौथा संसार, दैनिक भास्कर और नई दुनिया में पत्रकारिता. संप्रति: इंदौर से प्रकाशित दैनिक अखबार प्रजातंत्र के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत. |
यह आलेख कलादृष्टि का एक प्रस्ताव भी है।
रवि ख़ुद बेहतर चित्रकार हैं। इसलिए इसमें एक चित्रकार का परिप्रेक्ष्य भी समाया है। प्राँजल और काव्य भाषा से संपन्न।
पठनीय। बधाई।
एक अलग दुनिया की सैर। ये कविता है, चित्र है या वृतांत! स्त्री देह से इतर, उसकी अंतर्चेतना में और बाह्य जगत से उसका संबंध ये एक मिथकीय संवाद है जिसे बरतने में, समझने में संभवतः हमें अभी वक्त लगेगा।
कलाकृति में स्त्री की बहुआयामी यौनिकता,उसकी अर्थ छवियों और भंगिमाओ को इस आलेख के माध्यम से महसूस किया जा सकता है।चंद्रकांत देवताले की कविताओ का संदर्भ इसे और गहराई दे देता है।
कला आलोचना का सचमुच अन्यतम् उदाहरण, रम्य रचना का आ स्वाद देता, मूर्ति शिल्प को साक्षात मूर्ति मान करता आलेख.देह से देहातीत मेंं रूपांतरित होता इज़ाबेल का आत्म कथ्य सम कालीन स्त्री विमर्श को नई दिशा देता.सजीव मूर्ति शिल्प कितने अद्भुत होंगे, जब उनके चित्र इतने अभिभूत करते हैं.रवींद्र व्यास का आभार, आपको धन्यवाद
अद्भुत आलेख है यह। आज केवल आधा पढ़ पाई। लेकिन आज रात तक पूरा पढ लूँगी। कितनी ग़ज़ब हैं वे कृतियाँ जिनसे यह आलेख फूट निकला है स्वच्छ झरने की तरह। Ravindra Vyas जी ख़ुद इतने विशुद्ध और ग़ैर दुनियावी कलाकार हैं। वही लिख सकते थे। वाह।
‘दो बेहतरीन आलेख समालोचन पर पढ़े,रवींद्र व्यास का इसाबेल अल्बुकर्क पर और कुमार अंबुज का,दूसरों की मारक खामोशी फिल्म पर।
पहले का आल्हाद और दूसरे का अवसाद दिल दिमाग को झनझना गए।
कुमार अंबुज ने तानाशाही के हर उस तरीके का बेधक बयान लिखा जो विश्व ने पहले देखा और आज तक देखता आ रहा है।इन तरीकों का फिल्मांकन मारक हुआ होगा पर शब्दांकन रोंगटे खड़ा करने वाला है।इसे पढ़ लेने पर चैन खत्म होता है और हम भूलने की बजाय याद की अग्नि में सुलगने लगते हैं.
रविन्द्र व्यास ने बहुत विस्तार और गहराई से इज़ाबेल की कलाकृतियों पर लिखा है । एक शिल्प में स्त्री के समर्पण में अधीनता दिखाई देती है लेकिन व्यास जी इसे सिर्फ़ अधीनता नहीं अधीनता के प्रभुत्व के साथ रिश्ते के रूप में परिभाषित करते हैं और इसे “” अधीनता और प्रभुत्व ” के सहअस्तित्व की अभिव्यक्ति मानते हैं । मैं सोच में पड़ गया हूं कि क्या कभी ऐसा हो सकता है ?
बहुत बढ़िया आलेख और उतनी ही बढ़िया प्रस्तुति। बहुत बहुत बधाई
बहुत सुंदर आलेख! गिरते हुए साफ फेनिल पानी के झरने की तरह, जिसके पार सब कुछ दिखता है।
रविंद्र व्यास जी के इस आलेख को पढ़ने के बाद कला वीथिकाओं में रखी कलाकृतियों को देखने की नयी दृष्टि मिलेगी बहुत बधाई
इजाबेल के मूर्ति शिल्प की काव्यात्मक व्याख्या स्त्री को समझने के अनंत प्रयासों का ही एक भाग है जो चित्रकार रविंद्र व्यास ही कर सकते थे।