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Home » प्रेम का विष: कुमार अम्बुज

प्रेम का विष: कुमार अम्बुज

‘कोई दम कल आए थे मज्लिस में 'मीर' /बहुत इस ग़ज़ल पर रुलाया हमें.’ विश्व के महानतम फ़िल्म निर्देशकों में फ़्राँस्वा त्रुफ़ो का नाम लिया जाता है और उनकी फ़िल्म ‘The Story of Adele H’ को प्रेम के भग्न हृदय का स्मारक कहा जाता है. इस फ़िल्म को अनेक सम्मान मिले हैं. विश्व सिनेमा पर आधारित इस स्तम्भ की आठवीं कड़ी में कुमार अम्बुज ने इसी फ़िल्म पर लिखा है. किसी कृति के समानांतर उतनी ही उदात्त रचना के सृजन का यह अप्रतिम आयोजन समालोचन पर संभव हो रहा है. प्रस्तुत है.

by arun dev
April 22, 2022
in फ़िल्म
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प्रेम का विष: कुमार अम्बुज
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प्रेम का विष
अभागा है वह जिसमें यह गरल नहीं

कुमार अम्बुज

 

जो मिला था वह खो चुका है. जो मिल नहीं रहा है वह कामना है. जो मिलेगा वह असंतोष है. प्रेम के यही तीनों काल हैं. यही व्याकरण है. यही अलंकार. अब विष चाहिए. या प्रेम चाहिए. दोनों पृथक नहीं इसलिए विषाक्त प्रेम चाहिए. विष के बिना प्रेम एक रीता हुआ पात्र है. खाली पात्र किसी काम का नहीं.

हलाहल प्रेम को अनश्वर बनाता है जो कंठ में नहीं ठहरता. धमनियों में, साँसों में उतर जाता है और चुंबनों के नीले निशान छोड़ता है. फिर दूर से पहचाना जा सकता है कि तुम्हें प्रेम ने अंगीकृत कर लिया है. अब तुम निर्भय जी सकते हो. तुमने जीवन हार दिया है, मृत्यु को जीत लिया है. और इसमें विरोधाभास नहीं है.

जैसे अमर प्रेम वही है जो पहले क्षण से निष्ठाहीन हो. या वह जो द्रोही और अविश्वसनीय हो. वही तुम्हें जिलाये रखेगा. तुम्हारे पंचतत्वों में से एक, अग्नि को देह में प्रधान कर देगा और  प्रज्‍ज्‍वलित बनाए रखेगा. वही तुम्हारी अमर ज्योति है. तुम ऐसे ही प्रेम को विस्मृत न कर सकोगे. जो विष धारण नहीं कर सकते, उनके लिए अविनाशी प्रेम संभव नहीं. तुम जो अपराध बोध से ग्रसित हो, वह प्रेम की नहीं, नैतिकता की समस्या है. प्रेम समस्त अपराधों से परे है, उसका कोई दण्‍ड नहीं. वह खुद ही दण्‍ड है.

इसका विरेचन नहीं हो सकता. इसका वमन मुमकिन नहीं. इसे तुम्हें अपने आमाशय में रखना होगा या यकृत में. अब यही तुम्हारे लिए पाचक रस है. प्रेम ही वह सरीसृप है जिसकी कोई भी प्रजाति एकदम विषहीन नहीं. गरल रहित प्रेम की कामना, प्रेम की अवमानना है. प्रेम का सबसे निकट पर्यायवाची छल है. इस छल की प्रतिष्ठा है कि सब इसमें से गुज़रना चाहते हैं. लेकिन कौन नहीं जानता कि यह मरीचिका है. मरुस्थल में लगाई गई दौड़ और अबूझ तृष्णा ही प्राप्ति है. जैसे यह अपनी तरह की ‘इथाका’ के लिए यात्रा है.

यहाँ संपूर्ण विश्वासघाती ही संपूर्ण काम्‍य है. वही है जो विकल कर देता है. वह जो मानवीय गुणों, समर्पण या सौंदर्य की परवाह नहीं करता. प्रेम की तो कतई नहीं. वह बस, एक बार मिलता है फिर कृष्‍ण-विवर में चला जाता है. चला जाता है कहना ठीक नहीं, दरअसल, वह बीत जाता है. स्थायी प्रेम एक प्रेतकथा है. उस पर विश्वास मत करो, उसे फिर पाने की लालसा व्यर्थ है. उसे सप्रयास आयुष्मान बनाने की चेष्टा मत करो. उसकी प्रतीक्षा त्याग दो, वरना स्‍नायुरोग तुम्हारी राह तक रहे हैं.

या यह समाज का ज़हर है जो प्रेम की प्रक्रिया को विषैला कर देता है. प्रेम में विष मिला देता है. या अपनी आकांक्षा अनुसार, मनचाहे ढंग से किसी को प्राप्त न कर पाने की कसक, संतापजन्‍य आक्रोश, आनुषंगिक प्रतिकार की भावना ही वह विष है जो प्रेम के रसायनों का सहउत्‍पाद है. या सामाजिक साँचे में वह परिघटना है जिसमें विषाक्त होने का आरोप केवल दो मनुष्यों के हिस्सों में आता है.

या प्रेमियों के मन में कोई अदम्‍य तानाशाह है जो आत्मघात कर सकता है, प्रिय को मार सकता है लेकिन पराजित नहीं होना चाहता. षड्यंत्र, कुटिलता, हिंसा सब मंज़ूर है, पराजय नहीं. या यह ऐसे द्वंद्व-युद्ध में बदल जाता है जिसमें अज्ञात प्रतिष्ठा दाँव पर है और किसी एक का विनाश अनिवार्य है. अरीना के बाहर समाज महज़ दर्शक है या उत्प्रेरक. अथवा यह प्रेमियों का चोटिल अहं है जो विष बनकर पोर-पोर में समा गया है.

जो कहता है स्‍वाति का जल चाहिए :
वही अमृत है. बाक़ी विष.

 

दशकाधिक पहले अनियमित दैनंदिनी में लिखी इन पंक्तियों के आलोक में फ्रांसुआ त्रुफो की फ़‍िल्‍म ‘द स्‍टोरी ऑव एदेल एच-1975’ को याद करता हूँ. यह मारक, सच्ची कथा है. सारी सृजनात्मक कलाएँ भी उस यथार्थ की जायज संतानें हैं, जिन्हें समाज के डर से, सामना करने के साहस की कमी से अथवा निजी स्वार्थ रक्षा के लिए अँधेरों में फेंक दिया जाता है. लेखक, रचनाकार उन्हें उठाकर जीवन प्रदान करते हैं: सम्मानजनक वास्तविकता और मानवीय करुणा के साथ. जैसे यह कृति इस पक्ष को प्रबल करती है कि प्रेम का उत्ताप और उसका भार उठाना जीवन की वास्तविकता है, अंतर्दशा और दुर्दशा है. मात्र फिक्‍शन नहीं.

 

The Story of Adele H फ़िल्म से एक दृश्य

दो)

संज्ञान लें कि फ्रांस और यूरोप में उस वक्‍़त द मिजरेबल्‍स, द हंचबैक ऑव नोत्रे-दम जैसी अमर कृतियों के लेखक, नाटककार, कवि विक्टर ह्यूगो से बड़ा व्‍यक्तित्‍व कोई नहीं था. वे हस्‍तक्षेपकारी राजनीतिक हस्ती भी थे. उनका प्रभामंडल लगभग अघोषित सम्राट की तरह था. इस फ़‍िल्‍म में एदेल के साथ संलग्‍न एच का विस्‍तार ‘ह्यूगो’ है. इतने ताक़तवर विक्‍टर ह्यूगो भी अपनी पुत्री एदेल को इस गरलपान से बचा नहीं सके. कुछ दंश ऐसे होते है जिनसे कोई किसी को नहीं बचा सकता.

एदेल ने अपने प्रेमी का युगों तक पीछा किया, जिसे एक बार वह ख़ुद अस्वीकृत कर चुकी थी. वह अब संशोधन मूलक समाधान चाहती थी. ऐसे प्रेमी से जिसके मन में वह निशेष थी. ऐसा प्रेमी जो किसी के लिए समर्पित नहीं रह सकता था. इस सैन्‍याधिकारी को एक जगह विश्राम नहीं था. न जीवन में और न ही प्रेम के क्षेत्रफल में. एदेल ने इस प्‍यार को पा सकने के लिए क्‍या नहीं किया. अभिमान, सम्‍मान, लोकलाज त्‍यागते हुए हर तरह का समर्पण. ख़ुद को पोशीदा रखना, नाम बदलना, पहचान छिपाना, चतुराई से झूठ बोलना, ये सब तो खैर प्रेम की खोज में न्यूनतम अनिवार्य अहर्ताएँ हैं.

घर से भागकर, हक़ की तरह घर से पैसे मंगाए. परिवार को अँधेरे में रखा. फिर उनसे ज़ि‍दपूर्वक विवाह की सम्मति प्राप्‍त की. विवाह की झूठी ख़बर फैला दी. अपने ही जाल में सबको उलझाया, फिर ख़ुद उलझ गई. जाल चक्रव्‍यूह में बदल गया. प्रवेश ऐच्छिक था निर्गमन अब असमर्थता है. अंतत: घर-परिवार से विच्छेदित वह गुमशुदा हो गई. अपने पिता विक्‍टर ह्यूगो के असीमित प्रभाव और प्रतिष्‍ठा से वह परिचित थी इसलिए उसने भरसक गुमनामी, तमाम कष्‍टों और निर्धनता में रहकर, अपने प्रेम की शक्ति पर भरोसा रखते हुए, यौवन भर प्यार का पीछा किया. बिना काग़ज़ात यात्राएँ संपन्न कीं, जैसे भीतर जलती कोई शिखा ही उसका पारपत्र है, वीसा है.

रात्रि यानी अनिद्रा. दिन यानी एक याचक की भागदौड़. अपने को अज्ञात और गुप्तचर बनाकर एक साथ जीवन जीना. आकुलता के बारे में अलग से क्या लिखना. न ख़ुद चैन से रही, न किसी को चैन लेने दिया. कहा ही गया है कि प्रेम के नाग लहराते हैं. आग का दरिया है. जो डूबा सो पार हुआ. आदि-इत्‍यादि. कहा जा सकता है कि प्रेम की इकाई ‘#बरदाश्त’ है. उसके बाद अंधकार. एकांगी प्रेम की कोई इकाई नहीं. वह गणना से बाहर है, उसे नापा नहीं जा सकता.

नगर लाँघे. अप्राप्य प्रेमी के लिए देश छोड़े. समुद्र बाधा नहीं थे. परिवार की मर्यादा, नैतिकता और व्यावहारिक पक्ष उसे विचलित नहीं कर सके. वह ख़ुद से ही विचलित थी. वह तारों के साथ नीले अँधेरे आकाश के नीचे रही. कोहरे को वस्‍त्र की तरह अंगीकार किया. अपरिचितों को परिवार माना. गलियों की धूल, नमी उसका उपहास और शृंगार करती रही. वह लगातार किराये के घरों में भटकती, ऊपर से अभिनयपूर्ण सहज, भीतर से मलबाग्रस्‍त. कि यह अज्ञातवास है और उजागर होकर अभीष्ट प्राप्त करने की द‍िन ब द‍िन विकराल होती चुनौती.

एक बार उसका प्रेमी उससे मिलने आता है तो एदेल की प्रसन्नता, घबराहट और उत्साहित भंगिमा शायद ठीक तरह न लिखी जा सके. लेकिन वह तो यह कहने आया था कि अब तुम मेरा पिंड छोड़ो. हमारे बीच कुछ नहीं था. यदि कुछ था भी तो वह व्यतीत है. गिड़गिड़ाने से हार्दिक आलिंगन या चुंबन नहीं मिलते. परंतु वह हताश नहीं होती, उसके नकार के बीहड़ में कोई राह खोज लेना चाहती है. लेकिन निराशा का कारख़ाना भी चालू है. अब यह इकतरफ़ा प्रेम की कथा रह जाएगी?

एदेल प्रकाश में ही नहीं, बारिश, धुँधलकों और अँधेरों में भी परछाईं की तरह पीछा करती है. यह अथक पीछा है. अनुनय, विनय, आग्रह है जो दुराग्रह बन चुका है. अब सामने है व्यथा साधने और स्वयं को शेष करने की दिनचर्या. वह इस प्रेमी के लिए ज्ञात-अज्ञात कोई भी कीमत चुकाने के लिए उद्यत है. गलत सही का अंतर समाप्त है. यह विक्षिप्त आसक्ति है. यहाँ तक कि पदानुक्रम से च्युत हो जाना भी स्वीकार्य है. और उम्मीद ऐसी जो जिजीविषा को भी सांत्वना दे. यह चाह की उत्‍कटता है लेकिन इसमें उन्मादी कनक का समावेश है. उसे लगता है कि विश्‍व विख्यात पिता की संतान होना उसके हर काम में अड़चन है. वह अपने उत्ताप में इन मन:स्थित‍ियों का रोजनामचा लिखती चली जाती है. व्यर्थ होते प्रेमपत्र और डायरी. ये उसकी शरणस्‍थलियाँ हैं. किंवा मरणस्‍थलियाँ.

एदेल को लगता है कि उसके प्रेम की एकनिष्‍ठता और प्रबलता हर बाधा पार कर लेगी. विनम्रता, आज्ञाकारिता से राह आसान कर लेगी. वह पत्थर को अपने प्रेम की धमनभट्टी में डालकर तरल बना देगी. वरना वह प्रेमी को हर तरह की हानि पहुँचा देगी. अन्य किसी से उसका विवाह नहीं होने देगी. कोर्ट मार्शल करा देगी. नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती, वह तो अपने सारे धन उस पर लुटा देगी. उसकी कुटैवें स्‍वीकार कर लेगी, परस्त्रियों के साथ अंतरंगता भी. वह वशीकरण कराएगी और उसे विवश कर देगी. वह एक लुढ़कते हुए आँसू से अपना टूटता स्वप्न थाम लेगी. वह मानिनी थी, फिर अधीरा हो गई. लेकिन हर चीज़ की हद होती है. तंत्रिकाएँ जवाब दे जाती हैं. अवसाद अपर्याप्त, असमर्थ, हास्यास्पद अभिव्यक्ति है. समस्या समाधान से आगे निकल गई है. आघातों और नैराश्‍य के अनंत थपेड़ों से घायल मस्तिष्क थककर चूर हो जाता है. प्रेम भीतर ही भीतर अनेक ट्यूमर बना चुका है. अंत में एदेल मतिभ्रम की खाई में जाकर गिरती है. अब यही विक्षेप आश्रय है.

 

The Story of Adele H फ़िल्म से एक दृश्य

तीन

बात इतनी भर नहीं है.
बात इज़ाबेल अडजानी की है. और त्रुफो की है. त्रुफो ने इस प्रेम की मारक क्षमता, अस्वस्थता का जैसा फ़ि‍ल्‍मांकन किया है और पाँच दशक पहले, युवतर इज़ाबेल अडजानी ने इस पात्र को जिस तरह जीवंत किया है, वह जीवनपर्यंत गरलपान की पुनर्रचना है. उस प्रेम की जिसमें आत्‍मघाती सायनाइड मिला हुआ है. त्रुफो ने फ़‍िल्‍म नहीं, उस दुर्निवार दीवानेपन को निदेशित किया है जो ध्वंस करते हुए विस्‍फोट करता है. जिसकी आवाज़ एक हज़ार डेसीबल में केवल नाड़‍ियों और मज्‍जा में सुनाई देती है. फिर नष्‍ट होने के उपरांत की शांति छा जाती है.

अब वह मनोरोगी है. उसे पिता की करुण पुकार, माँ की अंतिम अस्वस्थता और मृत्यु भी वापस घर नहीं ला सकती. अब तो न्‍यूरोन्‍स भी कुचले जा चुके हैं. सामने पड़ने पर वह अपने प्रेमी को ही नहीं पहचान सकती. जो साध्‍य था, वही अपरिचित हो चुका है. जिस प्रत्‍यंचा से बाण खींचना था वहीं साधारण डोरी की तरह एक तरफ़ पड़ी है. कौन होगा जो एदेल बनी इज़ाबेल या इज़ाबेल बनी एदेल के दुख से आहत होकर, सहानुभूति या प्रेम में न पड़ जाये, यह भूलकर कि वह तो महज़ फ़‍िल्‍म का दर्शक है और ‘इज़ाबेल एदेल’ किसी अन्‍य की नहीं हो सकती, सिवाय उसके जो उसे अपनी होने नहीं देगा. या जो यह न सोचे कि इस नायिका के त्रास का आखिर सुखद अंत होना चाहिए. लेकिन यातना ही है जो अनंत है. वही है जो नष्‍ट नहीं होती, अगली पीढ़ि‍यों को उत्तराधिकार में मिलती है.

इस सीधे आवेगमय कथानक में प्रयोगवादी पेंच नहीं है लेकिन स्थिति आती है कि एदेल की पीड़ा, दर्शक के लिए परदे पर सहनीय नहीं रहती. वह एदेल के स्‍नायुतंत्रों के टूटने की मरमर सुनता है. उसका एक अबोध बच्चे की तरह बिलखना हृदय में चीरा लगाकर धँस जाता है. संवेदित दर्शक फ़‍िल्‍म के उत्कर्ष में, फ़्रेम दर फ़्रेम फ्रेम जान सकता है कि यह असाध्य प्रेम है. असाध्य रुग्णता. असाध्य कामना. असाध्य अभ्‍यर्थना. असाध्य युद्ध. साधारण मस्तिष्क के लिए यह औचित्य से परे है. यह असीम सुनसान में मर्मांतक पुकार है, अनसुनी रह जाने के लिए. इसकी वेदना परदे से, स्‍क्रीन से बाहर आकर रिसने लगती है. तब पता चलता है कि यह तो विष है.

जो इस विष को पहचानते हैं उन्‍हें फ़‍िल्‍म में आस्‍वाद अधिक मिलेगा. मगर भला ऐसा कौन होगा जो इस विष के बिना अब तक जीवित रहा चला आया हो.
यदि कोई है तो वह अपनी क़ब्र में है.

The Story of Adele H (1975)/Director: François Truffaut 

कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल, 1957, ग्राम मँगवार, गुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’, ‘उपशीर्षक’ और कहानी-संग्रह- ‘
इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.
kumarambujbpl@gmail.com

Tags: 20222022 फ़िल्मFrançois TruffautThe Story of Adele Hविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 19

  1. पंकज मित्र says:
    3 years ago

    कुमार अंबुज अद्भुत काम कर रहे हैं। यह स्थायी महत्व की चीज़ बन रही है और फिल्में देखने की एक नई दृष्टि दे रही है 🙏

    Reply
  2. शरद कोकास says:
    3 years ago

    यह समीक्षा कुमार अंबुज की काव्यात्मक दैनंदिनी से गुजरते हुए एदेल की पीड़ा तक पहुंचने की एक संवेदी यात्रा है। इस आख्यान को पढ़ते हुए अनुभव हुआ कि विक्टर ह्यूगो की कृतियों में एक जीवंत कृति उनकी पुत्री के असफल प्रेम की करुण गाथा भी हो सकती है जिसे निर्देशक त्रुफो और फ़िल्म की नायिका इज़ाबेल ने चाक्षुस रूप दिया है । समालोचन के माध्यम से इस लेख को हम लीगों तक पहुंचाने हेतु आपका आभार – शरद कोकास

    Reply
  3. M P Haridev says:
    3 years ago

    कुमार अंबुज ने अपनी भूमिका में पैने शब्दों का प्रयोग किया है । जीवन जटिल है । अवसाद और ख़ुशी का यौगिक है । मैंने जानबूझकर मिश्रण शब्द नहीं लिखा । जीवन गरल है और अमृत भी । विवेकवान व्यक्ति अपने प्रेम संबंधों को मज़बूत बनाये रखता है । पत्नी और पति एक-दूसरे का सम्मान करते हैं । बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाते हुए उनकी परवरिश करते हैं ।
    फ़िल्म मोहब्बत के भयानक अँधेरे और झूठे प्रेम का सजीव चित्रण करती है । नामीगिरामी व्यक्ति की पुत्री होकर भी प्रेम के झूठे जाल में ख़ुद को फँसा लेती है । उसे वितृष्णा नहीं है । प्रेम का कारख़ाना एकतरफ़ा हो गया है, चालू है ।
    बहुतेरे युगल ऐसे द्वंद्व से गुज़रते हैं । ज़िंदगी को नर्क बना देते हैं । ख़ासकर पुरुष मतलबी हो जाते हैं । घर उसका आश्रय स्थल है । उसे रोटी-पानी, कपड़े और साफ़ बिस्तर चाहिये । अंबुज जी ने फ़िल्म के दोनों पात्रों को उनके उत्कृष्ट प्रदर्शन की बधाई दी है । यह फ़िल्म हमारे लिये दर्पण है । देखते हुए ख़ुद को महसूस करें । क्या हमारा चेहरा विकृत तो नहीं हो गया । क्या हम अपने साथ छल तो नहीं कर रहे ।
    अगले जन्म का पता नहीं । वर्तमान जीवन स्वर्ग बनाया जा सकता है या नर्क में डाल देते हैं ।

    Reply
  4. कैलाश बनवासी says:
    3 years ago

    दिल में किसी के प्यार का जलता हुआ दिया
    दुनिया की आंधियों से भला ये बुझेगा क्या
    सांसों की आंच पा के भड़कता रहेगा ये
    सीने में दिल के पास धड़कता रहेगा ये
    वो ज़ख़्म क्या हुआ जो मिटाने से मिट गया
    वो दर्द क्या जो दबाए से दब गया
    — साहिर
    पढ़कर यही याद आ गया।
    अव्याख्येय की यह भी असमाप्त व्याख्या है,जिसे रगों में उतरकर आपने प्राण प्रण से संभव करने की कोशिश की है जिसे आप भी जानते हैं कि अधूरी है।

    Reply
  5. Anonymous says:
    3 years ago

    New thought . I like it very much .

    Reply
  6. विनय कुमार says:
    3 years ago

    Kumar Ambuj सदा की तरह भावक-आलोचक की भूमिका में हैं और भाषा भी आपकी तन्मय !

    इसे पढ़कर एक वैज्ञानिक तथ्य साझा करने का मन हो आया है कि सृजनात्मकता और मानसिक रोगों के chromosomal substrate कई बार एक से होते हैं और वंशानुगत भी। यानी रचनात्मक व्यक्ति की संतान रचनात्मक हो सकती है या बीमार या दोनों। यह भी देखा गया है कि सर्जनात्मक व्यक्तित्व अगर बचकर निकल भी गए तो उनके रक्त सम्बन्धी मानसिक रोग झेलते हैं। कई केसेज़ मेरे संज्ञान में भी हैं – एक भाई लेखक और दूसरा schizophrenic या पिता कवि और पुत्र Bipolar या schizophrenic।

    इस रोशनी में मुझे अम्बुज जी के वर्णन से रूपायित नायिका अपने महान पिता के महान chromosome के काले कोने के विष से व्यग्र और शापित दिखती है। यानी संकट का स्रोत psycho-sociodynamic ही नहीं biological भी है। कहना चाहिए उसकी तड़प और यातना के कारण उसके होने में हैं। उसकी त्रासदी यथार्थ के सही बोध में आड़े आ रहे उसके cognitive distortions
    की वजह से हैं।

    मैंने फ़िल्म नहीं देखी है, इसलिए कम और धीरे से बोल रहा। 😊

    Reply
    • Kumar Ambuj says:
      3 years ago

      #यह #फ़िल्म #यूट्यूब #पर #भी #उपलब्ध #है:
      https://youtu.be/BXNN0Qzbdqo

      Reply
  7. Gyan Chand Bagri says:
    3 years ago

    बहुत शानदार श्रंखला जा रही हैं. इतना प्रभावित हूं कि शायद Anthropology Of Cinema पर एक किताब लिखूं. शुक्रिया कुमार अम्बुज सर. शुक्रिया समालोचन.

    Reply
  8. अच्युतानंद मिश्र says:
    3 years ago

    यह श्रृंखला बहुत मानीखेज़ हो चली है। इस अर्थ में भी कि जब आप कला के एक माध्यम से दूसरे माध्यम की ओर जाते हैं, तो रचनात्मकता का एक नया संसार खुलता है। यहां फिल्मों को देखने की एक काव्य-दृष्टि है।
    हमारे यहां कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों पर बहुत बात नहीं होती ,लेकिन यह देखना दिलचस्प होता कि एक चित्रकार, एक उपन्यासकार, एक कवि, एक संगीतकार किसी दूसरी विधा को कैसे देखता है। वे अपने कम्फर्ट जोन से निकलकर किसी दूसरी विधा के बीहड़ में किस तरह भटकते हैं! अंततः कला हमे भटकने की जो स्वायतत्ता प्रदान करती है, नैतिक अनैतिक से इतर, वह अन्यत्र सम्भव नहीं।
    कुमार अम्बुज जी को इस श्रृंखला के लिए बधाई।

    Reply
    • Kumar Ambuj says:
      3 years ago

      अच्युतानंद, आपने इस कलागत आवाजाही को समझकर लिखा, मुझे आश्वस्ति हुई। क्योंकि इसे ध्यान में रखे बिना इस सर्जनात्मकता में, इस समानांतर कृति में कोई पाठक भी ठीक तरह प्रवेश नहीं कर सकता।

      Reply
  9. Anonymous says:
    3 years ago

    शानदार। अब विष चाहिए या प्रेम चाहिए। तलवार की धार पर धावनो के समान। इस आलेख में अनेक पहलू अनुस्यूत हैं। जो एकाधिक बार पढने गुनने के लिए बाध्य करते हैं एक अनिवार्य रूप से देखने योग्य फिल्म। फिर आलेख पढ़ूंगा।
    धन्यवाद अंबुज जी। आभार समालोचन ।–हरिमोहन शर्मा

    Reply
  10. कैलाश मनहर says:
    3 years ago

    एक फ़िल्म को अपनी निजि अन्तर्दृष्टि से देखते हुये बहुत सधी हुई काव्यात्मक भाषा में लिखा है कुमार अम्बुज ने | किसी नौसिखिये के लिये यह सब विडम्बनापूर्ण हो सकता है लेकिन प्रेम की गहन प्रकृति को समझते हुये इस लेख में प्रेमी-प्रेमिका के मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों की विश्लेषणात्मक प्रक्रिया पर लिखा गया है | कला जगत के विभिन्न अनुशासनों पर संभवत : हिन्दी में ऐसा कार्य बहुत कम हुआ है | कुमार अम्बुज को बधाई और समालोचन को साधुवाद |

    Reply
  11. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    बेहतरीन आलेख। एक प्रेम कविता निर्देशक ने सेल्युलाइड पर लिखी है और एक प्रेम कविता कुमार अम्बुज जी ने यहाँ समालोचन पर। प्रस्तुत करने हेतु समालोचन का आभार।

    Reply
  12. Anonymous says:
    3 years ago

    फिल्म के बहाने अद्भुत आलेख. यह पूरी श्रृंखला ही फिल्मों के साए
    में सुंदर निबंधों का संग्रह है। चाहता हूं किसी प्रकाशक की इन पर नजर पडे. अरुण जी आपका धन्यवाद

    Reply
  13. सुभाष राय says:
    3 years ago

    इसे पढ़ते हुए कोई भी कह सकता है कि कुमार अम्बुज को काव्यात्मक गद्य सिद्ध है। प्रेम, यातना और पीड़ा को इस तरह कहना कि वह पढ़ते हुए भी थर्रा दे, रुला दे, बेचैन कर दे, बहुत मुश्किल काम है लेकिन कुमार बहुत सरलता से यह कर ले जाते हैं। गरलपान की पुनर्रचना, दुर्निवार दीवानापन या इसी तरह के फ्रेजेज से भरा है यह गद्य। प्रेम में खुद को मिटा देने की अनहद जिजीविषा को फिल्म जैसी विधा अपने अनेक उपकरणों से मर्मवेधी बना सकती है लेकिन केवल शब्दों के जरिये इस प्रेम विष को पाठक की नसों में फैला देना मामूली बात नहीं है। कुमार अम्बुज को इस गरल रस भाषा के लिए बधाई।

    Reply
  14. हीरालाल नगर says:
    3 years ago

    यहां इस वजह से लिख रहा हूं कि वह गायब न हो जाए। The Story of Adele की समीक्षा पढ़कर मैं अवाक हूं कि इसका पूरे स्क्रीन पर प्रेम के गाढ़ा रंग पुता हुआ है। कुमार अंबुज अपनी सशकत और आत्मग्राही भाषा मे लिखते हैं उसे पढ़ते और समझते हुए भीतर कंपन होने लगता है।
    प्रेम को विषाक्त होना ही होगा। मर्यादा-विहीन प्रेम ही आगे की यात्रा तय कर सकता है।
    कुमार अम्बुज जो लिखते हैं, गर वह उतरता गया तो फिल्म-कहानी को उतनी ही शिद्दत के साथ समझा जा सकता है।
    फिल्मों पर कभी-कभी विष्णु खरे लिखते थे या मंगलेश डबराल। और फिल्मों की शानदार परम्परा से हम वाकिफ होते थे। कुमार जब फिल्म पर लिख रहे हों, तो पढ़ते बनता है।
    वे फिल्म के अंतस को समझकर लिखते हैं ।उन्हें बहुत बधाई।

    Reply
  15. Anonymous says:
    3 years ago

    कुमार अंबुज जी,क्या कहूँ। आपको पढ़ते हुए मन नही भरता ।कमाल का लिखते हैं। प्रेम यही है। प्रेम कोई एक ही कर पाता है। प्रेम में दो के लिए जगह कम पड़ जाती है। प्रेम अंतत आपने जो लिखा वही है – यदि वह विष से भरा नहीं हो तो खाली पात्र।

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  16. प्रियंका दुबे says:
    3 years ago

    वयस्क होने के अपने सालों में मुझे अक्सर महसूस हुआ कि हमारे यहाँ भावनात्मक शिक्षा सिफ़र है. इसलिए बड़े होते हुए हम घर-परिवार-समाज से मिलने वाली सारी फ़िज़िकल चुनौतियों का समाना भले ही कर लें…पढ़ाई-लिखाई इत्यादि में भले ही खूब मेहनत कर लें…लेकिन निजी दुःख के क्षणों में खुद का सामना करने के अपने को बिल्कुल असमर्थ पाते हैं. क्योंकि हमें मालूम ही नहीं है कि खुद को हैंडल कैसे करना है. मैंने अत्यंत मेधावी, मेहनती और उम्मीद से भरे मित्रों को दिल की तबाही वाली एक कील पर सालों झूलते हुए देखा है. कई कारणों में से एक कारण भावनात्मक शिक्षा का न होना है. यहीं पर जीवन में कला की भूमिका स्पष्ट होती है. मुझे हमेशा लगा है कि सर्विस(जनसेवा), कला, और पढ़ना आपको मरने से बचा सकता है. प्रिय लेखक सुज़ान सौन्टैग भी दुःख में हमेशा किताबों में खुद को छिपा लेती थीं – ‘I fly to the safety of my mind’ कहते हुए. यह तीनों ही बिंदु भावनात्मक शिक्षा के रास्ते भी खोलते हैं. लगतार पढ़ना emotional education का सबसे अच्छा तरीक़ा है. कुमार अम्भुज जी का यह लेख इस भावनात्मक शिक्षा में आपकी बहुत मदद करेगा. मुझे लगता है इसके पहले सेक्शन का तो प्रिंट आउट निकाल कर अपने कमरों में चिपका लेना चाहिए. इससे आपके जीवन के दुःख कम नहीं हो जाएँगे, लेकिन आपको अपनी उम्मीद सिफ़र करके जीवन में आगे बढ़ने का रियाज़ करने में मदद मिलेगी. उम्मीद शून्य रखने की ट्रेनिंग जीवन की सबसे कठिन और सबसे ज़रूरी ट्रेनिंग है जिस पर ज़्यादातर हम कभी ध्यान नहीं देते. इसलिए मैं इस लेख के पहले सेक्शन में दर्ज सारी चेतावनियों को अपने कमरे की दीवार पर ‘सनद रहे’ के तहत चिपका रही हूँ. त्रूफो और फ़िल्म तो प्रिय है ही. त्रूफो का काफ़ी काम मूबी पर देखा जा सकता है.

    इस पीस की मेरी कुछ प्रिय पंक्तियाँ जिन्हें पढ़ते हुए मैं खूब मुस्कुराई, ironically ही सही :”जो विष धारण नहीं कर सकते, उनके लिए अविनाशी प्रेम संभव नहीं. तुम जो अपराध बोध से ग्रसित हो, वह प्रेम की नहीं, नैतिकता की समस्या है. प्रेम समस्त अपराधों से परे है, उसका कोई दण्‍ड नहीं. वह खुद ही दण्‍ड है.”

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  17. लल्लन चतुर्वेदी says:
    3 years ago

    मैंने इस आलेख को समालोचन पर पढ़ा। समालोचन मैं रोज देखता हूं। मेरी जानकारी में ज्ञात वेब पत्रिकाओं में सबसे अलग, इसलिए श्रेषठ भी।कुमार अंबुज का लेखन जादुई है। उनकी कविता साधारणता में असाधारणता का वितान रचती है।मेरी भी इच्छा हुई थी कि प्रिंट निकाल कर रखूं।इतनी बेहतरीन शुरुआत की है कुमार साहब ने कि क्या कहूं। अरुण देव जी और कुमार अंबुज को पुनः बधाई।

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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