थेरीगाथा |
शुरुआत से पहले आत्म-संशय की ज़मीन पर उगे सवालों से मुठभेड़.
महास्थविर आनंद के तर्क, महाप्रजापति गौतमी का हठ और उनके पीछे दीक्षा लेने को आतुर असंख्य संकल्पदृढ़ स्त्रियों की कतार, महात्मा बुद्ध की सहजता में किंचित असहजता के बल पड़ गए. गंभीर चिंतन की मुद्रा में वे आत्मस्थ हो गए. कुछ देर बाद उनका गंभीर प्रशांत अकंप स्वर गूंजा-
‘ठीक है. अब से स्त्रियाँ भी प्रव्रज्या लेकर संघ में रहने की अधिकारिणी होंगी.’
इससे पूर्व कि हर्षोल्लास का कलरव स्त्री-कंठ से फूटकर हवाओं को महकाता, उन्होंने स्वर में कड़ाई का अतिरिक्त पुट घोल दिया- ‘किंतु…!’
सहस्रों हृदय आशंका से धड़क उठे- किंतु….! ‘किंतु भिक्खुणी बनने के बाद स्त्रियों को आठ अतिरिक्त नियम-धर्मों का पालन करना होगा.’
सब धड़कनें कान बन गईं.
- ‘भिक्खुणी को आयु में वरिष्ठ होने पर भी युवा/बाल/नवदीक्षित भिक्खु का उठकर स्वागत करना होगा.
- वर्षा ऋतु में रात्रि के समय मठ से बाहर रहने की अपरिहार्य स्थितियाँ बनने पर भिक्खुणियाँ केवल उन्हीं शरणस्थलियों में आश्रय ले सकेंगी जहाँ भिक्खु उनकी निगरानी कर सकेंगे.
- भिक्खु ही भिक्खुणियों की समय-समय पर होने वाली प्रायश्चित सभाओं की तिथियाँ निर्धारित करेंगे.
- नियम-भंग के अपराध में होने वाली भिक्खुणियों की दंड-सभाओं में भिक्खु भी भाग लेंगे, जबकि भिक्खुणियों का भिक्खुओं की दंड-सभा में प्रवेश वर्जित होगा.
- नियम-भंग की सूरत में भिक्खुणियों के अपराध एवं दंड का निर्धारण भिक्खु कर सकेंगे. भिक्खुणियों को भिक्खुओं के संदर्भ में दंड निर्धारण का कोई अधिकार नहीं होगा.
- भिक्खुणियों के दीक्षा समारोह में भिक्खु भाग लेंगे.
- भिक्खुणियाँ किसी भी सूरत में भिक्खुओं की आलोचना या भर्त्सना नहीं कर सकेंगी.
- भिक्खुणियों को आधिकारिक तौर पर भिक्षुओं को चेतावनी देने, धमकाने या उपदेश देने का अधिकार नहीं होगा. भिक्खुओं के लिए ऐसी कोई पाबंदी नहीं होगी.
उत्कंठित महाप्रजापती गौतमी के पास विचार का समय नहीं था. उनकी स्वीकृति पाकर महात्मा बुद्ध पुन: अंतर्लीन हो गए और निराश स्वर में भविष्यवाणी करने लगे-
‘यह नया धर्म कम से कम एक हज़ार वर्ष चलने वाला था. लेकिन अब स्त्रियों के प्रवेश के बाद संभव है पांच सौ वर्ष ही चले.’
लेकिन मैं यह सब सुनकर सिहर क्यों उठी हूँ? क्या स्त्रियों के एक बड़े समूह को घर की चारदीवारी से निकलकर मठ में प्रवेश करते देखना, अर्हत्व प्रकार संघ में धर्मोपदेशक की उच्च भूमिका में लीन होते देखना, निर्वाण के मर्म को समझ कर सांसारिकता के जाल से मुक्त देखना, उन्हें स्त्रीत्व की एक नई परिभाषा गढ़ते देखना बहुत आश्वस्त कर देने वाली क्रांतिकारी घटनाएँ नहीं हैं? क्या मैं ही अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए संशयवादी (स्केप्टिकल) हो गई हूँ? या स्त्री-अध्ययन की आलोचनात्मक प्रविधि दरारों के बीच छुपी सच्चाइयों को उघाड़ने की अतिरिक्त विश्लेषणात्मक इंद्रिय दे देती है? लेकिन फिर भी रह-रह कर यह प्रकरण कानों में क्यों गूंज रहा है कि दीक्षा लेने के लंबे अरसे बाद महाप्रजापति गौतमी पुनः गौतम बुद्ध के सामने उपस्थित हुईं और निवेदन किया कि भिक्खुणियों के लिए बनाए नियम-धर्म में से कुछ नियम हटा दें, जैसे पहला तो यही कि उम्रदराज भिक्खुणियों को नवदीक्षित भिक्खुओं के अभिवादन में उठाना/झुकना न पड़े. दूसरे, वरिष्ठता के आधार पर दोनों में अधिकारों और दायित्वों का पुन: बंटवारा हो. बुद्ध को प्रस्ताव नहीं मानना था, नहीं माने.
‘थेरीगाथा‘ का पाठ-विश्लेषण करने से पूर्व मुझे दो बातें स्वीकार कर लेनी चाहिए. एक, 600 ईसा पूर्व से 100 ईसा पूर्व तक का यह वह दौर था जब वैदिक धर्म लोक और परलोक को बाइनरी बनाकर सांसारिकता के बरक्स संसार का परित्याग कर जंगलों-आश्रमों-मठों में रहने वाले संन्यासियों-तपस्वियों-ऋषियों-आजीविकों को अतिरिक्त आदर-मान देता था. मान लिया जाता था कि सांसारिकता भोग का नश्वर चक्र है और वैराग्य ज्ञान की खोज में निकली बौद्धिक व्यग्रता जो संसार की नित्यक्रमिकता की निस्सारता और उच्छेदन के गूढ़ दार्शनिक रहस्य को पा लेना चाहती है कि ब्रह्म, सत्य और आनंद का साक्षात्कार किया जा सके.
चूंकि वैराग्य ज्ञान की साधना का कठोरतम मार्ग था जिस पर अकेले ही चलना था, इसलिए ‘ब्रह्मचर्य‘ की अवधारणा को बल देने के साथ ब्रह्मचर्य में व्यवधान डालने वाली स्त्री की उपस्थिति को एकदम निषिद्ध माना जाने लगा. स्त्री को मायाविनी बता कर दसों द्वारों से अवरुद्ध सांसारिकता के घर-आंगन में ही उसकी गति और नियति को सुनिश्चित कर दिया गया था. ऐसे में महात्मा बुद्ध द्वारा आगत भविष्य में अनिष्ट की संभावनाओं का अनुभव किया जाना निराधार तो नहीं!
दूसरे, प्रत्येक कालखंड अपनी पूर्व-परंपरा के घात-प्रतिघात से मिलकर बनी ऐसी चट्टान होता है जिस पर उनके सुस्पष्ट अचार-संहिताओं और वर्जनाओं की लिखावट भी मौजूद है और छुपा दी गई बेचैनियों को समझने के अनेक खुरदुरे नुकीले सिरे भी. दरअसल अचार-संहिताएँ और वर्जनाएँ चाहे व्यवस्था और अनुशासन के लिए बनाई जाती हों, किंतु अंततः वे दमन और अन्याय की बारीकियाँ को ढांपने की वर्चस्ववादी कला हैं. लेकिन यह मूल्यांकन तो एक तटस्थ दूरी के साथ किया जा सकता है जब दशकों-सदियों के अंतराल के बाद समय ही नहीं परिस्थितियाँ भी बदल जाती हैं और मूल्यांकनकर्त्ता अपने समय के नए भाव-बोध के साथ नई आचार-संहिताओं और अपेक्षाओं से संचालित होकर अतीत को खोदने और बुनने निकलता है. ऐसे में महात्मा बुद्ध यदि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रभाव से स्वयं को अछूत नहीं रख पाए तो क्या आश्चर्य! मैं स्थिति के इस विवश स्वीकार के साथ थेरी गाथा का पाठ करती हूँ कि बौद्ध मठों की उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में पितृसत्ता उसी तरह सांस ले रही है जैसे हमारे 21वीं सदी के लोकतांत्रिक भारत में. फर्क यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था के दबावों को दूर हटाने का हम अभिनय करते हैं, महात्मा बुद्ध उन्हें सिरे से खारिज कर मानव मात्र की सत्ता स्थापित करते हैं.
पड़ताल की प्रक्रिया में अब मेरे सामने कुछ सवाल एक-एक कर सिर उठाने लगे हैं कि ‘थेरीगाथा‘ को जिस प्रकार पिछले कुछ दशकों से ‘स्त्री-मुक्ति का ऐतिहासिक दस्तावेज‘ कहकर महिमामंडित किया जा रहा है, क्या वह सही है? दूसरे, ‘थेरीगाथा‘ में स्त्री-मुक्ति का स्वरूप क्या है? दरअसल यह सवाल इसलिए खड़ा होता है कि महात्मा बुद्ध की मुक्ति की अवधारणा सांसारिकता से मुक्ति है, और थेरियाँ अपने सारतत्व में बौद्ध धर्म की अनुयायी प्रचारक हैं. तो क्या थेरियों की मुक्ति की अवधारणा लौकिकता से मुक्ति के धार्मिक सिद्धांत की ही पुनर्प्रतिष्ठा है? या इसके आगे चलकर वे स्त्री की मुक्ति की नई अवधारणा भी देती हैं? अवधारणा न सही, स्त्री-मुक्ति की कोई नई छटपटाहट ही? तीसरे, ‘थेरीगाथा‘ भिक्खुओं द्वारा रचित ‘थेरगाथा‘ के समान है? या इसका प्रारूप स्त्री-लेखन और स्त्री-भाषा की मूलभूत विशेषताओं को उभारने वाला ऐतिहासिक दस्तावेज बन जाताहै? क्या ‘थेरीगाथा‘ को मीराबाई और अक्का महादेवी की तरह स्त्री-मुक्ति का विद्रोही स्वर कहा जा सकता है ?
(एक)
थेरियाँ कितनी स्वतंत्र, कितनी परतंत्र उर्फ सम्मोहन का मनोहारी शास्त्र
‘थेरीगाथा’ पालि में रचित बौद्ध त्रिपिटक के खुद्दक निकाय का महत्वपूर्ण अंश है जिसे सम्मानपूर्वक ‘बुद्ध वचन‘ भी कहा जाता है. कुल सोलह वर्गों में विभाजित थेरीगाथा पुस्तक में तिहत्तर थेरियों (बौद्ध भिक्षुणियों) की पांच सौ चौबीस गाथाएँ संकलित हैं. मूलत: पद्य में रचित ये गाथाएँ ‘गाथा’ इसलिए कही जाती हैं क्योंकि एकाधिक पदों की श्रृंखला में थेरियों ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों, अनुभूतियों-अनुभवों और जीवन-निर्णयों का दस्तावेजीकरण किया है. उल्लेखनीय है कि जहाँ एक पद से चार पद तक की रचना करने वाली थेरियों की संख्या सैंतीस है, पांच से नौ पद तक की रचना पच्चीस थेरियों ने की है, वहीं कुल आठ थेरियों ने दस से तीस पदों तक की फैली गाथाएँ लिखीं.
कुल तीन थेरियाँ- सुंभा, इसीदासी और सुमेधा ऐसी हैं जिन्होंने क्रमशः चौंतीस, अड़तालीस और पचहत्तर पदों में अपने जीवन-अनुभव को व्यापकता एवं सघनता के साथ प्रस्तुत किया है.
एकाधिक पदों वाली इन गाथाओं का संरचनागत पैटर्न लगभग समान है. ये किस्सागोई शैली में लिखी गई हैं और इनमें कथानाक विकास की पांच नाट्य-अवस्थाओं में से अंतिम तीन अवस्थाओं उत्कर्ष (क्राइसिस), विकास (रेजोल्यूशन/डाउनफॉल) और सुख/अंत (देनूमा) को सरलता से चिन्हित किया जा सकता है.
इन गाथाओं का आरंभ जीवन के मझधार में फंसी उस अवस्था से होता है, जहाँ जीने की सारी संभावनाएँ चुक गई हैं, मानो चारों ओर विराट शून्य है, शोक व मृत्यु का हाहाकार है. तब पथप्रदर्शक देवदूत की तरह अकस्मात् महात्मा बुद्ध या किसी बौद्ध भिक्षुणी का प्रवचन कानों में पड़ता है. तत्पश्चात जीवन-यात्रा की दिशा और गति व्यवस्थित हो जाती है जो निर्वाण के आलोक में खुलती है. दीक्षा से निर्वाण तक की यात्रा इन गाथाओं की रचना का मूल लक्ष्य है, और यहीं बौद्ध धर्म की धार्मिक-दार्शनिक प्रपत्तियाँ क्रमशः खुलने लगती हैं. स्वयं भगवान बुद्ध भी इन गाथाओं में उपस्थित होते हैं. कहीं अर्हत्व प्राप्ति के समय भिक्खुणी को दिए गए उपदेश को रिकॉर्ड करके उनकी उपस्थिति को सुनिश्चित किया गया है,[i] कहीं मुक्तिदूत की तरह उनका बार-बार धन्यवाद ज्ञापन भी किया गया है.[ii]
बौद्ध धर्म की शिक्षाओं, दार्शनिक सूत्रों और सामान्य जीवन पर पड़ने वाले बौद्ध धर्म के प्रभावों का भी यहाँ परिचयात्मक अंकन हुआ है. प्रायः हर गाथा में एक बात समान रूप से कही गई है कि ‘बुद्ध के अनुशासन को स्वीकार कर में मुक्त हुई‘.
इस बुद्ध-अनुशासन का अंग हैं तीन प्रकार की शिक्षाएँ- शील, समाधि और प्रज्ञा संबंधी शिक्षाएँ.
चार प्रकार के बंधनों का ज्ञान होना बुद्धत्व की ओर कदम बढ़ाने का पहला बिंदु है. ये चार बंधन हैं- काम, भाव, मिथ्या दृष्टि, और अविद्या.
अर्हत्व पाने के लिए साधक को तीन विद्याओं पर अधिकार करना होगा- पूर्व जन्म की स्मृति का ज्ञान, प्राणियों की विभिन्न अवस्थाओं में सुगति-दुर्गति का ज्ञान, अपने चित्त-मलों (आस्रवों) के विनाश का ज्ञान.
ज्ञान की इस समूची प्रक्रिया में इस बात पर बल दिया जाता रहा है कि शरीर नश्वर है, और जो नित्य है, वह दुख का स्रोत है. महात्मा बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति की साधना चूंकि रोग, जरा और मृत्यु के सवालों का जवाब पाने के क्रम में शुरू हुई थी, इसलिए थेरियाँ भी शरीर, आसक्ति और संसार को दुखों का कारण मानते हुए दुख से मुक्ति के लिए निर्वाण की साधना में रत रहने का संदेश देती हैं. उनकी गाथाओं का पूर्वार्ध जहाँ कवयित्री थेरी की मानस-अभिव्यक्तियाँ हैं, वहीं उत्तरार्द्ध धार्मिक उपदेशों की प्रतिलिपि.
भिक्खुणी पटाचारा की तीस शिष्याएँ तिंसमत्ताथेरीगाथा में गुरु पटाचारा की अभ्यर्थना करते हुए कहती हैं-
“रात्रि के प्रथम याम में
हमने स्मरण किया अपने पूर्व जन्मों को
रात्रि के मध्यम याम में
हमने विशोधित किया अपने दिव्य-चक्षुओं को
रात्रि के अंतिम याम में विनष्ट किया भीतर के अंधकार को
भगिनी! हमने आपका अनुशासन पूरा किया
संग्राम में विजय प्राप्त इंद्र की
तीसों देवता पूजा करते हैं जिस प्रकार
हम तीसों आपकी पूजा करेंगी उसी प्रकार
और आपके नेतृत्व में रहेंगी.”
यह पद बौद्ध-अनुशासन की परिपालना के अलावा अपने आप में दो वजहों से बहुत प्रमुख है.
एक, जिस वैदिक धर्म के प्रति अनास्थावान होकर बौद्ध धर्म संशयवादी, अनीश्वरवादी स्वरूप ग्रहण करता है, उसी ईश्वरवाद की स्वीकृति की प्रच्छन्न स्वरलहरियाँ यहाँ सुनाई पड़ती हैं.
दूसरे, बुद्ध-अनुशासन आध्यात्मिक मुक्ति की स्वतंत्रता अवश्य देता है, किंतु संघ के भीतर पदानुक्रमिकता का कठोर संजाल भी तैयार करता है, जहाँ भिक्खुणी की स्वतंत्रता भिक्खु के अधिकार द्वारा नियंत्रित है.
आध्यात्मिक मुक्ति की कामना और निर्वाण की लालसा बौद्ध भिक्षुणियों को संघ और धर्म की ओर आकृष्ट करती हैं. विडंबना है कि तमाम आस्रवों/विकारों का शमन कर लेने पर भी वे नहीं जान पातीं कि लालसाएँ तो उनके भीतर अब भी मौजूद हैं. सिर्फ रूप बदला है. प्रव्रज्या के बाद अर्हत्व, फिर निर्वाण, उपदेशक से उच्चपदस्थ महोपदेष्टा का पद, मठ के संचालन में केंद्रीय भूमिका, लौकिक बंधन मठ में भी विकार और प्रलोभन बनकर प्रविष्ट हुए हैं.
एक गहरी तटस्थ आलोचनात्मक दृष्टि के साथ अपनी और मठ की कार्य-पद्धति को जांचने की बेचैनी यहाँ दिखाई नहीं देती. वे सुनिश्चित पाठ पढ़ाई गई मधुर कंठी मैना की तरह धर्म की शिक्षाओं के अनुरूप अपने अनुभव और मानस-हलचलों को गाथा में पिरोती हैं. अध्यात्म की वस्तुपरकता में निजता की आत्मपरकता का समावेश कर देना- यह एक ऐसी कला है जो न केवल ‘थेरीगाथा‘ को विशिष्ट बनाती है, बल्कि तत्कालीन बौद्ध भिक्षुओं की ‘थेरगाथा‘ से अलग उनकी कारयित्री प्रतिभा और जीवन के प्रति अ-लगाव को लगाव के साथ देखने की दृष्टि को भी रेखांकित करती है. सवाल संसार, जीवन और देह की क्षणभंगुरता का हो, सौंदर्य और समृद्धि की निस्सारता का हो, ब्राह्मण धर्म के कर्मकांडी पाखंडपूर्ण स्वरूप के प्रति अनास्था का हो, थेरियाँ अपने जीवन की किसी छोटी-सी कड़वी स्मृति का चयन कर बुद्ध के उपदेशों की सार्थकता और मूल्यवत्ता को बलपूर्वक रेखांकित करती हैं.
सिद्धांत को अनुभव से जोड़कर ही किसी भी नए धर्म को लोकप्रिय और दीर्घजीवी बनाया जा सकता है. बौद्ध धर्म की ब्रांड एँबेसडर के रूप में थेरियाँ मानो यही करती हैं.
उब्बिरी हो या पटाचारा या ऐसी अनेक थेरियाँ- संतान की अकाल मृत्यु से संत्रस्त ये स्त्रियाँ बताती हैं कि बौद्ध धर्म की शरण में न आतीं तो पागल की तरह जीवन भर वन की धूल फांकती रहतीं. पटाचारा थेरी को ‘पटाचारा‘ कहा ही इसलिए गया कि शोक के अतिरेक में उसे अपने वस्त्र संभालने और लाज ढांपने की सुधि ही नहीं रही. बुद्ध के निकट आने पर पहली बार वह अनुभव करती है कि यह मनुष्य न उसकी अस्तव्यस्त अवस्था का उपहास कर रहा है, न उसका अनुचित लाभ उठाने का प्रयास कर रहा है, वरन् स्नेह और संरक्षण का आत्मीयता भरा हाथ बढ़ाकर उसे दुख के दलदल से बाहर खींच लाना चाहता है.
बुद्ध के उपदेश से वह जान जाती है कि दुख जब तक संतप्त करने वाला आवेग बना रहेगा, मनुष्य को कमजोर कर उस पर सवारी गांठता रहेगा. दुख से उबरने का एक ही मार्ग है- दुख के मूल में छुपी अपनी भौतिक ऐष्णाओं, स्वार्थ और सीमाओं को जान लेना. तब दुख आत्मज्ञान की उन्नत यात्रा का बड़ा कारक बनेगा. पटाचारा आदि थेरियों का एक बड़ा वर्ग जब ठहर कर सुस्थिर चित्त के साथ अपने दुख-त्रासदी के भीतरी रेशों की महीन जांच करने बैठता है तो पाता है कि रपटने की तरह गति के ऊर्ध्वगामी पड़ाव भी वहीं स्थित हैं.
आत्मान्वेषण की यह प्रक्रिया इन थेरियों को मानसिक-नैतिक दोनों रूपों से मजबूत करते हुए स्थिति से टकराने का हौसला देती है. तब बुद्ध प्रेरक व्यक्ति के रूप में ज़रूर उभरते हैं, किंतु अपनी दयनीयता से जूझने की उदात्त संघर्ष-यात्रा थेरियों की अपनी निजी है. यह विचार-यात्रा द्वंद्व और संकल्प का रूप लेकर उनके पदों में व्यक्त होती है जहाँ पहले दुर्बलता की कोख में पलता संशय और द्वंद्व है कि क्या मैं अपने दुर्बल चित्त पर काबू पा लेने के दुरूह लक्ष्य को पूरा कर सकूंगी? पटाचारा के पद इस दृष्टि से उद्धरणीय हैं:
“किसान हल से जोत कर जमीन
बीज बोते हैं
इस प्रकार धनोपार्जन करते हैं
और पालते हैं अपना परिवार, स्त्री और पुत्र
तो फिर क्योंकर न मैं पा सकूंगी निर्वाण
मैं, जो शील से संपन्न हूँ
अपने शास्ता के शासन को पूरा करने वाली हूँ
अप्रमादिनी हूँ
अचंचल हूँ
और हूँ विनीत.”
संशय के भीतर आत्मबल के बीज लुकेछिपे होते हैं जो व्यग्र तलाश के बिना प्रकट नहीं होते. यही चित्त में पैठकर अपनी ही अंतर्निहित संभावनाओं का साक्षात्कार करने की समाधि अवस्था है. बुद्ध-अनुशासन से बंधी ये थेरियाँ बेशक गौतम बुद्ध की तरह कोई नया ज्ञान-आलोक नहीं पा सकीं, लेकिन उनके मार्ग पर चलकर अपनी मनुष्यता और आत्मबल को रि-इन्वेंट कर लेना उन्हें अपने समय की अन्य स्त्रियों से अलगाता है.
मन की एकाग्रता के बीच बोध का यह बिंदु आलोक की क्षणिक कौंध की तरह उनकी अंतश्चेतना में कौंध जाता है, ठीक अंग्रेजी उपन्यासकार जेम्स जॉयस के उपन्यास ‘पोट्रेट ऑफ़ एन आर्टिस्ट एज़ अ यंग मैन‘ के नायक स्टीफन डेडलस की तरह. जेम्स इस कौंध को ‘एपीफेनी’ नाम देते हैं. ‘एपीफेनी‘ की क्षणांश जीवी कौंध देखने में सामान्य-सी लग सकती है, लेकिन उसके इर्दगिर्द स्थितियों, स्मृतियों और बेचैनियों को बुन कर उनके जीवन की दिशा ही बदल देती है. पटाचारा के अनुसार –
“पैर धोने के बाद एक दिन मैंने देखा
फेंका हुआ पानी बह रहा है
ऊंची जगह से नीचे जगह की ओर
मैंने अपने चित्त को समाधि में लगाया
ठीक वैसे जैसे सिधाया जाता है
उच्च नस्ल का घोड़ा सवारी के लिए
फिर जलता दीपक लेकर
विहार के भीतर गई
और चारपाई पर बैठ
ध्यानमग्न हुई दीपक की लौ पर
सुई लेकर दीपक की बाती को नीचे करने के लिए
जैसे ही तेल में डुबोने लगी
कि बुझ गया दीपक
साथ ही मानो मेरे चित्त से तृष्णा की लौ भी
इस तरह मैंने पा लिया निर्वाण.”
(दो)
‘थेरीगाथा इस मायने में भी महत्वपूर्ण रचना है कि यह दिशाहारा स्त्रियों की तिल-तिल टूटती करुण दशा का पल-पल जागती चेतना में रूपांतरण है. शोक मृत्यु नहीं है; जीवन को निस्पंद कर देने वाली मौत की चादर अवश्य है. थेरियाँ आम स्त्रियों की तरह इस चादर से अपने मन-प्राणों को नहीं ढांपतीं, बुद्ध के जरिए सामने उपस्थित नए अवसरों और विकल्पों पर विचार करने का हौसला पाती हैं. (दरअसल हौसला का यह तत्व ही उनके चरित्र को रचता है.) ये विकल्प हैं- घर छोड़कर बेघर (मठवासी) होना, संबंध तोड़कर संबंधहीन जीवन जीना, अभ्यस्त पुरानी लीक तज कर नई कठिन लीक चुनना, परनिर्भरता की जगह आत्मनिर्भर होना- जीविकोपार्जन से लेकर जीवन-चक्र पूरा होने तक. हौसला इन स्त्रियों को निर्णय करने की शक्ति देता है और जाहिर है निर्णय संपन्नता व्यक्ति के स्वयं ‘केंद्रीय सत्ता’ होने की स्थिति की बोधक है. भौतिकता का त्याग सरल नहीं है, विशेषकर स्त्री के लिए जिसके लिए घेरे और घर ही समूचा ब्रह्मांड हैं; संतान जीवन का अथ और इति.
मोह को स्त्री-व्यक्तित्व की मोहक संरचना कहा जाता है. ये स्त्रियाँ जाहिरा तौर पर निर्णय के प्रारंभिक बिंदु पर एक असहनीय स्थिति से पलायन कर दूसरे अज्ञात लोक में प्रविष्ट होती परछाइयाँ लग सकती हैं लेकिन जिस दृढ़ता, संलग्नता और एकनिष्ठ भाव से वे उस ‘नए लोक‘ को ‘अपना‘ बनती हैं, वह उन्हें भिक्खुणी से साधक बना देता है.
भिक्खुणी बनने के बाद अपने अंतस्थ को उडेलते हुए वे समान रूप से एक ही बात बार-बार कहती हैं कि ‘मैं आज तीनों विधाओं की ज्ञाता हूँ‘. ये तीन विद्याएँ पोथियों का पाठ नहीं, जीवन-स्थितियों के बीच अपने चित्त और क्षमताओं का एकाग्र आकलन है.
जब वे स्मृतियों के सहारे ‘पूर्व जन्म‘ को जान लेने की बात करती हैं तो दरअसल दीक्षा से पूर्व अपने लौकिक जीवन का सारतत्व समझने की बात करती हैं जिसका परिहार और परिमार्जन करके ही नया जन्म (दीक्षित साधक का सार्थक जीवन) पाया जा सकता है. यह ‘नया जन्म‘ किसी आध्यात्मिक गुरु की ‘अनुकंपा’ से नहीं, अपनी ही जिजीविषा, साधना और ज्ञान-पिपासा के पुनरुत्थान से संभव है. उत्तराथेरीगाथा को उद्धरित करते हुए इसे यूं कहा जा सकता है:
“एकनिष्ठ होकर संयत की है मैंने
अपनी काया
मन और वाणी
तृष्णा को समूल उखाड़ फेंक दिया है
शांत हूँ अब
निर्वाण के सुख से आप्लावित
परम शांति को अनुभव कर रही हूँ.”
थेरियाँ, मेरे समक्ष, अपनी ही राख से उबर कर दमकते फीनिक्स पंछी का बिंब प्रस्तुत करती हैं.
यह निर्विवाद तथ्य है कि स्त्री और पुरुष की जमीन और आसमान में आज भी बहुत फर्क है. बौद्ध काल में पुरुष के लिए साधक बनकर गृहत्याग करना सरल भी था, सामाजिक दृष्टि से सम्मानजनक भी था. वे अपने दुर्दांत अक्खड़पन और रहस्यमय अकेलेपन के बावजूद समाज में ज्ञान के अग्रदूत माने जाते थे. इसीलिए ‘थेरगाथा‘ में बेघर होने की पीड़ा दुर्भाग्य या विडंबना बनकर उन तक नहीं आती. ब्रह्मचर्य आश्रम की तरह यह एक सहज स्थिति है जो वर्णाश्रम व्यवस्था में उल्लिखित न होने के बावजूद उन्हें ठौर और संरक्षण देती है. स्त्री के लिए बेघर होने की स्थिति निरापद नहीं. इसका सीधा संबंध स्त्री के चरित्र, लाज और सतीत्व से जुड़ा हुआ है. यह सामाजिक वर्जनाओं के आंतरिकीकरण की स्थिति है जो ‘मर्यादा‘ बैनर तले आज भी पितृसत्ता के ढांचे में मौजूद है. ऐसे में मठ में रहना ही नहीं, बल्कि
“यहाँ-वहाँ जाकर अवशिष्ट अन्न को
दीक्षा में पाना
और पंसुकूलिक (थेगलियों से बना) चीवर पहनना”
भी थेरियों के लिए सहज स्थिति नहीं थी. सुभा थेरी जब अपनी गाथा में इस हिचक को संशय और आत्मसंघर्ष का बिंदु बनाती हैं तब स्त्री-मन को रचने वाली ग्रंथियों और आचारसंहिताओं की दबावकारी भूमिका को सहज ही समझा जा सकता है. स्त्री के लिए प्रव्रज्या ‘करो या मरो‘ का मुद्दा है. पुरुष की तरह घर छोड़ने के बाद लौटने के रास्ते उसके लिए खुले नहीं रहते.
“इतनी दूर रास्ता तय कर लेने के बाद
तृष्णाजनित व्यसन में नहीं पड़ूंगी मैं
निर्वाण में ही आनंद है.”
इस पद में आत्मनिर्णय की दृढ़ता और वरण की स्वतंत्रता की गहरी गूंज मौजूद है, लेकिन साथ ही विकल्पहीन होने की विडंबनात्मक स्थित भी है. जाहिर है इसलिए पुरुष के समक्ष उपलब्ध अवसरों को अपने निमित्त उपस्थित मानना, उन्हें विकल्प के रूप में देखना और फिर किसी एक विकल्प के वरण की बाध्यता थेरियों को गहरी द्वंद्वात्मकता में ढकेलते है. यह अलग बात है कि बाद में वहीं से उनके क्रमिक रूपांतरण की आरोहण-यात्रा भी शुरू होती है जो ‘थेरगाथा‘ में पूरी तरह से अनुपलब्ध है.
‘थेरगाथा‘ के टेक्सचर में निश्चयात्मकता है, लक्ष्य-प्राप्ति की एकोन्मुखी दृढ़ता है, पीछे खींचती स्मृतियों का झंझावात नहीं, जैसा असंख्य थेरियों की गाथा में दिखाई देता है.[iii]
‘थेरीगाथा’ में पीछे छोड़ दिए गए दुखों के साथ सघन बहनापा है. यह स्थिति थेरियों को इस अर्थ में विशिष्ट बनाती है कि दुख से मुक्त होने की आध्यात्मिक यात्रा के बावजूद वे दुख की पोटली को सांस में ऑक्सीजन की तरह बसा कर साथ लिए चलती हैं. किसा गौतमी की गाथा अवलोकनीय है :
“दुखों से भरपूर स्त्री
तूने असंख्य जन्मों में
अनुभव किया है अपरिमित दुख
तूने सहस्रों जन्मों में
बहाए हैं आंसू अपार
तूने देखा है शमशान में
मृत पुत्रों की लोथ को खाते वन्य पशु
हाय! तेरा सब कुछ लुट गया
छोड़ दिया तुझे सबने
पति भी चला गया छोड़कर
किंतु आश्चर्य! फिर भी पहुंच ही गई मैं यहाँ
जहाँ नहीं है मृत्यु
है तो अमृत!
मैंने उसी अमृत-निर्वाण को पा लिया है
आज निकल गया है मेरी पीड़ा का तीर
सब बोझ फेंक दिए हैं दूर
सब कर्तव्य हुए पूरे
सभी बंधनों से मेरा चित्त विमुक्त हो गया है
कहती हूँ यह, मैं, किसा गौतमी.”
थेरियों के इस आध्यात्मिक उत्कर्ष का सबब बेशक महात्मा बुद्ध हैं- उनका धम्म और संघ- लेकिन बुद्ध-अनुशासन के बावजूद धार्मिक नि:संगता के बीच मानस-हूकों और द्वंद्वों को गूंथ कर वे प्रेम, करुणा और अहिंसा के बुद्धोपदेश को आत्मपरकता से जोड़ती हैं.
‘थेरीगाथा‘ आत्मपरकता के इस चौथे आयाम के कारण बुद्ध की संवेदना का महत्वपूर्ण स्त्री-संस्करण है.
(तीन)
ऋग्वेद की ऋषिका रोमशा ने कहा
‘मैं अपरिपक्व बुद्धि वाली स्त्री नहीं, पूर्ण विकसित विचारवान प्राणी हूँ, अहमस्मि रोमशा‘ उर्फ स्त्री की अस्मिता विद्रोह की टंकार से पनपी है, धर्मानुदेशों की अनुपालन से नहीं.
द्वंद्व विचलन नहीं है. न ही संभ्रम की स्थिति जो मानसिक-बौद्धिक अक्षमताओं के कारण जन्मती प्रतीत होती है. दरअसल मानसिक-बौद्धिक क्षमताओं के प्रखरतर होने के कारण ही ज्ञानबोध उपजता है जो नैतिक और शास्त्रीय व्यवस्थाओं और वर्जनाओं की व्यर्थता का बोध भी करता है और विद्रोह की संभावित स्थितियों-परिणतियों को भी संकेतित करता है. इसके विपरीत है यथास्थितिवादी मानसिकता जो घेरों में बंधी बूंद भर सुविधाओं से अस्तित्व की जमीन को सींच लेना चाहती है. द्वंद्व इन दोनों स्थितियों को संग-संग पा लेने का प्रारंभिक प्रलोभन है. वह घेरों में बंधी सुरक्षा भी चाहता है, घेरों के पार पूरे आसमान को अपना आशियाना भी बना डालना चाहता है.
व्यक्ति को अपनी अंतर्निहित संभावनाओं को पहचानने और उभारने का मौका भी देता है. यह न केवल एक कुशल शिल्पी की तरह उसे नए सिरे से तराशता है, बल्कि विकसित भावबोध और अंत:प्रज्ञा के आलोक में जीवन-जगत् के साथ संबंधों का नया शास्त्र रचने की संवेदनात्मक ताकत भी देता है. द्वंद्व के मूल में स्मृतियाँ (अतीत) हैं और स्वप्न (भविष्य) भी.अलबत्ता द्वंद्व स्थायी भाव नहीं है. यह विघटन (भावुकता) बनकर बह सकता है या संकल्प (तार्किकता) बनकर संघर्ष की राह पर चल निकलता है. थेरियाँ स्मृतियों की कमंद थाम कर संकल्प को अपना स्वप्न बनाती हैं और फिर कस्तूरी की तरह उन स्मृतियों को अपनी नाभि में सहज लेती हैं.
यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि ‘थेरीगाथा‘ का सबसे चमकीला पक्ष स्मृतियाँ है जहाँ थेरियों का परिवेश ही नहीं, उनके अंतस् का ममत्वपूर्ण सुकोमल पक्ष भी उद्घाटित होता है. आध्यात्मिक उत्कर्ष की यात्रा भले ही साधक की लैंगिक पहचान समेत अन्य विभेदकारी सामाजिक भूमिकाओं के तिरोभाव के ‘छद्म सत्य‘ को प्रस्तावित करती हो, थेरियाँ अपनी स्त्री आइडेंटिटी और अध्यात्म की अ-लैंगिक पहचान दोनों को एक साथ साध कर चलती हैं. स्त्री की स्मृतियों को बुनता है उसका स्त्री (दोयम) होने का बोध. इस बोध में बहुत-सी कठोर सामाजिक सच्चाइयाँ घुलनशील अवयव बनाकर प्रवाहित रहती हैं. जैसे परिवार और विवाह के कठोर बंधन, शिक्षा एवं ज्ञान साधना के न्यूनतम अवसर, संसार को उसकी व्यापकता में न जान पाना, संकीर्ण घेरों में बंधे रहने की जड़ व्यवस्था के बीच अपने लिए आरक्षित ‘मूर्ख बुद्धिहीन‘ विशेषण सुनना, या निरंतर अपमान एवं तिरस्कार के बीच निरंतर महिमामंडन के कुटिल स्वांग से अप्रभावित बने रहना.
थेरियाँ इसी भौतिक जगत् से प्रताड़ित स्त्रियाँ हैं- जन्म से ही स्त्री-द्वेष (मिसोजिनिस्ट अप्रोच) को घूंट-घूंट पीकर अपने दमित अस्तित्व को रफू-टांके से दुरुस्त बनाए रखने की मानवी-अभ्यस्तताएँ. वे बहुत कुछ कह देना चाहती हैं लेकिन मितभाषी हैं शायद. या औसत स्त्री की तरह दर्द को दवा बनाना श्रेयस्कर समझती हैं क्योंकि दिल के तहखाने में बंद दर्द छलांग लगाकर जब समाज के बीचोबीच पहुंचता है तो व्यक्ति को उपहास या सहानुभूति का करुण पात्र ही बना डालता है. इसलिए शिकायत का स्वर थेरियों के पास नहीं. शिकायतें दरअसल आत्महीनता और आत्मदया के खूंटे से बंध कर दूसरे पर दोषारोपण करती उंगलियाँ हैं जो जवाबदेही से कतरा कर आसान रास्तों का चुनाव करती हैं. थेरियों के पास खजाना भर बेचैनियाँ हैं. वे भटक रही हैं लगातार! भटकाव की इस प्रक्रिया ने उनके भीतर सवालों के अलाव दहकाए हैं कि स्त्रीत्व क्या है? स्त्री-अस्मिता क्या है? स्त्री-द्वेष क्यों है?
भटकाव से दीक्षा और दीक्षा से निर्वाण तक फैले लंबे समय में वे निरंतर दो स्तरों पर सचेत बनी रही हैं. एक, स्त्री को लेकर भौतिक संसार (गृहस्थी) एवं मठ की सोच, दृष्टि, कार्यशैली और संवेदना के स्तर की विश्लेषणपरक तुलनात्मक पड़ताल. दूसरे, आत्म साक्षात्कार कर अपने को जांचते रहने की सजगता. चेतना के तीन स्तर अंडरकरंट की तरह उनकी रचनाओं में मौजूद हैं.
पहला स्तर है पड़ताल जो स्थिति के संज्ञान से शुरू होता है; समस्या को समस्या के रूप में चिन्हित करने की निर्भीकता देता है; परिवेश को नि:संग दृष्टि से देखने का विवेक देता है; और अपने से वस्तुपरक दूरी बनाकर विश्लेषणधर्मी होना सिखाता है ताकि जान सके कि स्थिति को विडंबना या त्रासदी बनाने में सक्रिय कारण कौन-कौन रहे हैं और उसमें स्वयं उसकी अपनी भागीदारी क्या रही है.
चेतना का दूसरा स्तर है ऊर्जा. यह विश्लेषण से निष्पन्न निष्कर्ष को स्वीकारने की निर्भीक ईमानदारी है. उत्साह, भविष्य और गति- इन तीनों पर दृष्टि फोकस करते हुए यहाँ स्थिति से उबरने का वैचारिक ड्राफ्ट बनाने पर बल रहता है.
तीसरा स्तर है क्रियान्वयन या संघर्ष जिसके हमसफर हैं कर्मठता, दृढ़ता, अनवरतता (कंसिस्टेंसी) और आत्मविश्वास. जाहिर है तब चेतना के यही तीनों स्तर थेरियों की स्त्री-मुक्ति की अवधारणा को जानने के निकष बन जाते हैं. यहीं ढेर सी असहमतियाँ सिर उठा कर सवालों की शक्ल भी लेने लगती हैं. चूंकि थेरियाँ बुनियादी तौर पर मितभाषी हैं, इसलिए उनकी गाथाओं का स्ट्रक्चर आइसबर्ग की तरह है. वे इस आह्वान के साथ संकेतों में बात करती हैं कि पाठक उनकी मनोदशा तक पहुंचकर स्वयं रिक्तियों को पूरते हुए स्थितियों का विखंडन, विश्लेषण और पुनर्सृजन करता चले. जैसे मात्र एक पद में अपने समूचे जीवन का भाष्य लिख डालने वाली मुत्ताथेरी का यह आत्म स्वीकार:
“मैं मुक्त हो गई हूँ
अच्छी तरह से विमुक्त हो गई हूँ
तीन टेढ़ी चीजों से
ओखली से, मूसल से
और अपने कुबड़े स्वामी से
अहा! मैं मुक्त हो गई हूँ
जरा और मरण से भी.”
उल्लेखनीय है कि ‘थेरीगाथा‘ में स्मृतियाँ ज्यादा जगह घेरने के बावजूद साध्य नहीं, निर्वाण तक पहुंचने का साधन हैं. इसलिए यहाँ उनकी टीस कम हुई है और वे जीवन की दिशा बदलने वाले भावनात्मक इंडिकेटर के रूप में अधिक व्यक्त हुई हैं, लेकिन स्त्री-अध्ययन की समाजशास्त्रीय दृष्टि इन घटनाओं के भीतर विन्यस्त पितृसत्तात्मक व्यवस्था और उसकी आनुषांगिक संस्थाओं की कार्यशैली का आसानी से अनुशीलन कर लेती है. घरेलू हिंसा का संदर्भ हो[iv], बहुविवाह प्रथा का संताप हो या स्त्री की समूची अस्मिता को ‘दो अंगुली मात्र प्रज्ञा वाली’[v] कहकर समाज की मिसोजिनिस्ट दृष्टि के उद्घाटन का साहस हो, ‘थेरीगाथा‘ में इन हौलनाक सच्चाइयों को स्त्री के प्रतिरोधी स्वर के रूप में एक साफगोई दृढ़ता के साथ गूंथ दिया गया है.
स्मृतियों को थहाते हुए थेरियाँ स्पेस और सम्मान पाकर आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो जाने की स्त्री-आकांक्षा को ही अभिव्यक्त करती हैं, लेकिन यहीं से पहला सवाल भी उठ खड़ा होता है कि जब इन्होंने सांसारिकता को त्याग ही दिया है तो फिर सम्मान और स्पेस कहाँ और किस से पाना है?
क्या मठ के भीतर? लेकिन उसके लिए तो थेरियों की ओर से कोई प्रयास या संघर्ष हुआ ही नहीं. वहाँ तो निबिड़ मौन है, श्रद्धाविगलित समर्पण है और बंद घेरों की प्रदक्षिणा करने का आनुष्ठानिक उत्साह है.
यह समझना भी बेहद जरूरी है कि एकांत साधना में बाय-प्रोडक्ट के रूप में मिला स्पेस जटिल, उलझे, दमनकारी सामाजिक संबंधों की गांठें खोलने के लिए पर्याप्त नहीं. अंतर्वैयक्तिक संबंधों की बात करते हुए स्पेस का अर्थ पूरी तरह से बदल जाता है. वहाँ वह सह-अस्तित्व, सम्मान और सद्भाव पर चलते हुए पारस्परिकता में एक-दूसरे की मनुष्य-अस्मिता के संरक्षण का नैतिक-भावनात्मक दायित्व बन जाता है.
किसागोतमी थेरी का एक पद है :
“जो ऐसा कहते हैं
कि स्त्री होना दुक्ख है
ऐसे मनुष्यों के चित्त को संयमी बनाने वाले
सारथी स्वरूप भगवान बुद्ध ने कहा है
स-पत्नियों के साथ एक घर में रहना दुक्ख है
बच्चों को जनना दुक्ख है.”
उल्लेखनीय है कि बौद्धकालीन समाज में स्त्री को इन पाँच जैविक-सामाजिक स्थितियों के कारण ‘दुख का घर‘ कहा जाता था-
धुर बचपन में ही गृहत्याग (बालविवाह की प्रथा),
रजस्ववला होना,
गर्भधारण करना,
प्रजनन की अनिवार्यता और
(आजीविका के लिए) पुरुष पर निर्भर होना.
दुखों को अपरिहार्य बनाकर ‘दुखी स्त्री’ को दृष्टि ओझल करना सरल हो जाता है. किसागोतमी अपने पद में स्त्री-द्वेषी सामाजिक मान्यता का प्रतिरोध तो करती ही हैं, भगवान बुद्ध की अभ्यर्थना के बहाने ऐसे पुरुष की परिकल्पना भी करती हैं जो (पितृसत्ताक दृष्टि के बावजूद) स्त्री-संवेदी हो, दुख को प्राण बनाकर स्त्री की सांसों में पिरोने वाली वर्चस्ववादी संस्थाओं का विश्लेषण करना जानता हो, और स्वयं अ-लैंगिक अस्मिता के रूप में ट्रांसफॉर्म होने के बाद स्त्री की पीड़ा को अनुभव कर सकता हो. ऐसा ही पुरुष बहु-विवाह प्रथा समेत तमाम सामाजिक रूढ़ियों की वैधता को अस्वीकार करने का साहस रखता है. यहाँ इस तथ्य को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि थेरियों का गृहस्थ धर्म को त्याग कर मठ में आना आध्यात्मिक उत्कर्ष पाने से पहले पितृसत्ता के मौजूदा ढांचे को अस्वीकारना है. यह अस्वीकार स्त्री की प्रजनन और रक्त संबंध से जुड़ी दोयम दर्जे की भूमिकाओं का ही नहीं, पुरुष-सत्ता के प्रति अविश्वास भी है, और भिक्षाटन के जरिये आत्मनिर्भर होने की लालसा भी.
‘थेरीगाथा‘ की महत्ता इस तथ्य में निहित है कि विकल्प चुनने की स्वतंत्रता को वे स्त्री-अस्मिता की तलाश का आत्मान्वेषणकारी सोपान बना देती हैं. लेकिन यहीं दूसरा सवाल उठता है कि क्या वरण की स्वतंत्रता ही सब कुछ है? या वह नए सफर की आधारभूमि है जहाँ स्वयं कर्त्ता की भूमिका में उतरकर हल जोतना पड़ता है. क्या थेरियाँ कर्त्ताभाव से संपन्न हो पाई हैं, या महज अनुकर्त्ता ही बनी रहीं हैं?
इन गाथाओं में स्मृतियों के द्वार गृहस्थी में खुलते हैं तो दीक्षा के बाद इंद्रिय निग्रह और लौकिकता के विस्मरण की कष्टकर भावनात्मक-वैचारिक प्रक्रियाएँ अपनी दुर्बलताओं से साक्षात्कार के गवाक्ष खोलती हैं. यह देखना दिलचस्प है कि बौद्ध धर्म की दार्शनिक शब्दावली थेरियों के यहाँ अपने रूढ़ अर्थ का विस्तार कर उसमें ढेर सी व्यंजक ध्वनियों को भर देती है. ‘मार‘ बौद्ध धर्म में साधक को साधना मार्ग से डिगाने वाली प्रलोभनकारी ‘दुष्ट‘ ताकत की तरह आता है जिसे अपने ही आत्मबल, दृढ़ता और नैतिक साहस के हथियारों से हराना पड़ता है. ‘मार‘ दरअसल थेरियों के चित्त में स्थित मनोविकृतियों का ही पुरुष वेश में मानवीकरण है जो कभी अपनी ही दृढ़ता के प्रति संशय का रूप लेकर उभरता है[vi] तो कभी उन्हें ‘स्त्रीत्व‘ यानी हीनतर अस्मिता का भय दिखाता है.
‘मार‘ को अपने ‘अदर‘ (अन्य) का रूप देने की युक्ति थेरियों के अंतर्मन को ही उजागर नहीं करती, वरन् ब्राह्मण धर्म और ‘थेरगाथा’ में उपस्थित उस पुरुष-दंभ का विलोम भी रचती है जहाँ पुरुषों द्वारा स्त्रियों को ‘बाधा‘ (माया) के रूप में चिन्हित कर स्वयं को क्लीन चिट देने की परंपरा रही है. सोमाथेरी के पास अपनी कनविक्शंस को दृढ़ता बनाने का साहस है :
“अरे मार! ये बातें उसी से कह
जिसे यह भान होता हो
कि मैं स्त्री हूँ
पुरुष हूँ
या अन्य कोई हूँ
जब चित्त अच्छी तरह समाधि में स्थित है
ज्ञान नित्य विद्यमान है
और प्रज्ञा द्वारा धर्म का सम्यक दर्शन कर लिया गया है तो स्त्रीत्व इसमें हमारा क्या करेगा?”
आत्म-साक्षात्कार, दुर्बलताओं का स्वीकार और स्खलन के लिए नैतिक जवाबदेही का भार- ये तीन ऐसी चीज़ें हैं जो ‘थेरगाथा’ में सिरे से नदारद हैं, जबकि यही ‘थेरीगाथा’ को निर्भीक और ईमानदार रचना का रूप देती हैं. ‘थेरगाथा’ अपने अंतिम प्रभाव में धर्मोपदेशों के प्रवचनों का संकलन भर रह जाता है. लेकिन यहीं तीसरा सवाल भी उठ खड़ा होता है कि अपनी संवेदना को धर्मसम्मत रूढ़ परिपाटी में ढालकर थेरियाँ उन्हीं घटनाओं का चयन क्यों करती हैं जो गृहत्याग की अपरिहार्यता के बाद आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक ले जाती हैं?
क्यों समूची पुस्तक में एक भी स्थल ऐसा नहीं जहाँ परिवार, संतान, इंद्रिय सुख और सुरक्षा की उदग्र कामना के बीच उन्होंने सांसारिक जीवन में लौटने की कामना की हो? क्या इसलिए कि ये गाथाएँ अपनी अंतिम परिणति में अंतर्मन की भावाकुल उद्दाम अभिव्यक्तियाँ नहीं, बल्कि धर्म-प्रचार के उद्देश्य से रची गई रोचक-प्रेरक दृष्टांत वाली धर्म-अनुदेशिकाएँ हैं? और यहीं से एक और प्रश्न सिर उठाता है कि यदि ‘थेरीगाथा’ विशुद्ध रूप से मठवासी भिक्खुणियों की स्त्री-आकांक्षाओं का प्रगीति काव्य होता तो क्या इसे त्रिपिटक में स्थान देकर कालजयी कैनन साहित्य का दर्जा दिया जाता?
(चार)
स्त्री-अस्मिता का एक अर्थ किसी भी स्वतंत्र मनुष्य की तरह निजी स्पेस और सम्मान पाना है. इसके लिए जरूरी है, न केवल समाज में प्रचलित स्त्री-द्वेष के विविध रूपों को पहचानना बल्कि स्त्री-द्वेष को उग्रतर बनाने वाले कारणों (मनोविज्ञान) को भी जानना. चंदाथेरीगाथा में कुल पांच पद हैं. इन पदों में वह स्वयं को दरिद्र नि:संतान विधवा के रूप में चिन्हित करती है जिसके अपने बंधु-बांधव भी विपद् की घड़ी में मुख मोड़ कर चले गए हैं. जीने के लिए भोजन और वस्त्र भी नहीं. तिस पर भीख मांगने की लाचारी. (उल्लेखनीय है कि साधकों-संन्यासियों के लिए जहाँ भिक्षाटन को धर्म सम्मत समझा जाता था, वही गृहस्थ के लिए भिक्षाटन सामाजिक कलंक था. ऐसे में प्रव्रज्या ग्रहण करने के अतिरिक्त और क्या विकल्प शेष रहता?
चंदाथेरी का यह प्रकरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह छठी शताब्दी ईसा पूर्व से 21वीं सदी तक के भारतीय समाज की संरचना में अंतर्निहित उस स्त्री-द्वेष को उभारता है जिसे पंडिता रमाबाई 1887ई० में रचित अपनी पुस्तक ‘हिंदू स्त्री का जीवन‘ में इस लोक-किंवदंती के जरिए प्रत्यक्ष करती हैं :
प्रश्न: निर्दय कौन है?
उत्तर: दुष्ट का हृदय.
प्रश्न: इससे भी क्रूर क्या है?
उत्तर: स्त्री का हृदय.
प्रश्न: सबसे क्रूरतम क्या है?
उत्तर: पुत्रहीन निर्धन विधवा का हृदय.
ज्ञान और तर्कणा शक्ति स्त्री अस्मिता को पाने और ‘स्त्री’ को पुनर्परिभाषित करने वाले महत्वपूर्ण घटक हैं. इन्हीं के जरिए विषमतापूर्ण सामाजिक संरचना की पड़ताल भी संभव है और दलित अस्मिताओं द्वारा अपना स्थान लेने का संघर्ष भी. थेरियाँ बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट इसलिए भी हुई हैं कि प्रारंभिक संकोच के बाद महात्मा बुद्ध उनकी स्त्री-अस्मिता का सत्कार करते हुए आध्यात्मिक मुक्ति के संदर्भ में उन्हें मनुष्य (अ-लैंगिक प्राणी) का दर्जा देते हैं. मनुष्य की इस अवधारणा में वर्ग/वर्ण विभाजन नहीं; कड़ी वर्जनाएँ और दबाव नहीं; समान आचार-संहिता की परिपालना में सबके लिए समान स्वायत्तता, स्वतंत्रता और सम्मान का भाव है. स्त्रियों को शिक्षित करना, गतिशील एवं आत्मनिर्भर बनाना, और गृहस्थी के दबावों के विपरीत मठ के एकांतवास में अपने छिन्न-भिन्न व्यक्तित्व को पुन: तराशते हुए निजी व्यक्तित्व अर्जित करने के अवसर देन – ये ऐसी नियामतें हैं जिन्हें पाकर थेरियाँ संशय को सवाल बना पाई हैं.
पुण्णाथेरी गाथा इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि यह एक दासी (चिर वंचित अस्मिता) द्वारा ज्ञान और आत्मसम्मान पाकर ब्राह्मणवाद के धार्मिक बाह्य आडंबरों पर चोट करने का साहस है :
“यदि गंगाजल से ही शुद्धि होती
तो मेंढक कछुए जल के सर्प
मगर और अन्य जलचर
स्वर्ग जाते जरूर.
यदि गंगा-स्नान से पाप-मुक्ति होती
तो भेड़-बकरी, सूअर-मृग को मारकर
उनका मांस बेचने वाले चोर जल्लाद या अन्य पापी लोग
पाप कर्म के बाद गंगाजल में स्नान कर
पाप मुक्त नहीं हो जाएँगे क्या?
फिर यदि गंगा में नहाने से
भूल जाते हैं पूर्व के पाप-कर्म
तो क्या तेरे पुण्य कर्म भी नहीं भूल जाएँगे उनके साथ?
फिर क्या रहेगा शेष तेरे पास, ओ मूर्ख ब्राह्मण!”
स्त्री अस्मिता अपनी अंतर्निहित संभावनाओं को मूर्त कर भविष्य निर्माण हेतु समाज में सकारात्मक हस्तक्षेप की उदग्र कामना है; बौद्धिक तेवरों के साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्था का आंतरिकीकरण करके स्व के घेरे का विस्तार करते चलने की वैचारिक निष्क्रियता नहीं. यह समाज की मनोदृष्टि को अ-लैंगिक कांति देने की साधना है. तब उपर्युक्त सवालों (जो महज सवाल नहीं, अपने भीतर जवाब की दिशाएँ और धार छुपाए हुए हैं) के आलोक में ‘थेरीगाथा’ के भीतर सांस लेती तमाम थेरियों की द्वंद्वात्मकता और वैचारिक प्रतिबद्धता स्पष्ट होने लगती है.
सबसे पहले यह कि थेरियाँ मूलतः (पितृसत्ता में दीक्षित) ‘स्त्रियाँ’ हैं, बुद्ध की अनुगामिनी शिष्याएँ. दुख को जानने की प्रक्रिया में वे दुख के मूलभूत कारण रूप में स्त्री की सामाजिक अधीनता को पहचानती तो हैं, पर इसके खिलाफ आवाज़ उठाने की पहल नहीं करतीं. इसलिए कि पितृसत्ता का आंतरिकीकरण कर वे स्वयं शोषण और दमन को सह्य बनाने का प्रशिक्षण पा चुकी हैं. अलबत्ता अपने इस नए ‘अवतार’ (बुद्ध-शिष्या) में अपने अधिकार को पाने के लिए वे एक बार महाप्रजापति गौतमी के नेतृत्व में संगठित अवश्य होती हैं, लेकिन फिर उसी स्त्री-द्वेषी अष्ट नियम विधान का अनुकूलन कर नियति को निर्वाण मानने लगती हैं.
यहाँ यह देखना बहुत दिलचस्प हो जाता है कि ‘पूर्व-जन्म‘ की स्मृति करते हुए वे अपनी घुटन भरी स्त्री-नियति को याद करती हैं और इस जन्म (मठ) में स्त्री-अधीनता की तमाम शर्तों के बावजूद स्वयं को अ-लैंगिक सत्ता के रूप में स्वीकार करती हैं. यह स्थिति ‘स्त्रीत्व’ की सामाजिक संरचना पर पुनर्विचार की स्थिति नहीं, बल्कि सत्ता के घेरे में घिरकर ‘पुरुष’ (श्रेष्ठ) हो जाने की पितृसत्तात्मक ग्रंथि है. इसलिए मैं पुनः इस वाक्य को दोहराना चाहूँगी कि थेरियाँ ऊहापोह की चेतना के बावजूद अंततः अनुकूलित स्त्रियाँ हैं- पुरुष-ग्रंथि का विस्तार.
दूसरे, वे स्वतंत्र होने का भ्रम रचती हैं, पर ‘कर्ता मनुष्य’ नहीं बन पाई हैं. वे बौद्ध धर्म को स्वीकारती हैं; बुद्धि, तर्क, संशय का सहारा लेकर स्थिति को चीन्हने का भ्रम पालती हैं, किंतु बुद्ध की तरह आप्लावनकारी स्थितियों का अतिक्रमण कर नए गंतव्यों को नहीं तलाशतीं. गृहस्थी के किले से निकलकर मठ के प्रांगण में आ जाना मुक्ति नहीं; पितृसत्ता को पुष्ट करती एक खास तरह की आचार-संहिताओं, वर्जनाओं और नियम-कायदों से निकलकर दूसरी तरह के नियम-कायदों में जकड़ जाना है. थोड़ा सा स्पेस, थोड़ा सा सम्मान, थोड़ा सा ज्ञान, और थोड़ी सी गतिशीलता मुक्ति का पर्याय नहीं होते.
वह महिमामंडन की साजिशों की तरह उदारता का चोला पहनकर यथास्थिति को बनाए रखते हैं. अपने नए रोल में हर्षित थेरियाँ पनडुब्बी की तरह सतत कार्यशील व्यवस्था की इन संश्लिष्ट बारीकियों को नहीं समझ पातीं. न ही आत्मविश्लेषण को आत्मविश्वास, विद्रोह और स्थिति के अतिक्रमण के उच्चतर सोपान तक ले जा पाती हैं. यदि ऐसा होता तो अंतर्मन में झांक कर वे देख पातीं कि निर्वाण प्राप्ति के बाद भी ममत्व की डोरियों से बुनी स्मृतियाँ कभी-कभी उन्हें नि:संगता के बीचो-बीच कोमल भावनाओं से भर देती हैं.
भद्रा कापिलानी थेरीगाथा इसका प्रमाण है. भद्रा अपने पति महाकश्यप के साथ बौद्ध धर्म में दीक्षित होती है. अर्हत्व और निर्वाण प्राप्ति के बाद कायदे से उसे राग-द्वेष के संबंध के व्यामोह और चित्त की दुर्बलता जैसे तमाम मनोविकारों से अनासक्त हो जाना चाहिए, लेकिन अपनी गाथा में वह पूर्व पति महास्थविर महाकश्यप को भगवान बुद्ध का उत्तराधिकारी पुत्र घोषित करती है (अतिशयोक्ति अलंकार?).
वह इकलौती थेरी है जो अपनी गाथाओं में किसी ‘अन्य‘ का आत्मीयतापूर्वक स्मरण करती है. यदि स्मृतियाँ और संबंध प्रव्रज्या के बाद खत्म नहीं किए जा सकते हैं तो कैसे विश्वास कर लिया जाए कि एकांत के दुर्वह कमजोर क्षणों में इन थेरियों को अपने छूटे बांधव-पुत्र-परिवार याद न आए होंगे? कैसे संयम के कठोर जीवन में अतीत में धंसी रंगीन कामनाओं के दृश्य-चित्र कसक बनकर पलांश के लिए आंख के सामने न कौंधे होंगे? क्या अपने इन अनुभवों को उन्होंने गाथा में व्यक्त नहीं किया होगा? यदि हां, तो वे गाथाएँ कहां हैं? क्या उन्हें भी उसी वजह से तो लुप्त नहीं किया गया, जो ‘सीमंतनी उपदेश‘(अज्ञात हिंदू महिला) जैसी उन्नीसनीं सदी की रचना को ज़मींदोज़ कर देने का कारण बनी?
तीसरे, विकल्प चुनने की स्वतंत्रता और पुरुष भिक्खुओं की तरह निर्वाण पाने की सुविधा को ही वे मुक्ति के अर्थ में ग्रहण करती हैं, जबकि स्त्री-मुक्ति सामाजिक संदर्भों के बिना अमूर्त और बेमानी है. स्त्री-मुक्ति की अवधारणा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पुनरीक्षण की बौद्धिक-संवेदनात्मक व्यग्रता है. यह निजी स्तर पर अपनी अस्मिता को पहचानने और पाने की कामना भर नहीं है, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की पितृसत्तात्त्मक मानसिकता से टकराकर एक संवेदनशील समय-समाज बनाने की जिद भी है. यह जुनून बनकर अकेले भी संघर्षरत हो सकती है, और आंदोलन बनकर समय की लहर की सवारी भी कर सकती है.
यह कहना कि 21वीं सदी की अपेक्षाओं के अनुरूप पूर्ववर्ती रचनाओं का मूल्यांकन करना सर्वथा अनुचित है- एक ऐसा वर्चस्ववादी प्रताड़नापूर्ण तर्क है जो यथास्थिति के पोषण हेतु विवशताओं और मूक आज्ञाकारिता को ही चुनता है. बतौर स्त्री-आलोचक इस तर्क के खिलाफ मेरी दो आपत्तियाँ हैं.
एक, यदि पूर्ववर्ती साहित्य इतना कालाबद्ध है कि नवीन मानदंडों पर कसे जाने से घबराता है तो स्पष्ट है कि उसमें कालजयी तत्व विद्यमान नहीं हैं. तब ऐसे साहित्य की वर्तमान में क्या प्रासंगिकता है?
कोई भी कृति वर्तमान के साथ वैचारिक-संवेदनात्मक संबंध बनाए बिना जीवित नहीं रह सकती. अध्ययन की अधुनातन पद्धतियाँ पूर्ववर्ती कृतियों के परंपरा से चले आ रहे महत्व में ‘डेंट’ तो लगा सकती हैं, लेकिन साथ ही वे एक पूरी काल-परंपरा में विन्यस्त सभ्यता और संस्कृति के विकास-क्रम को भी दर्शाती हैं, और उन पड़ावों-मनोवृतियों को भी चिन्हित करती हैं जो आज तक सत्ता और पूंजी को ही समय की ताकत बनाती हैं.
दूसरी आपत्ति यह है कि दलित-दमित अस्मिताओं के दबा दिए गए स्वरों को सुनने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता? मैं जब ऋषि रोमशा के सूक्त को पढ़ती हूँ तो थेरियाँ मुझे मठ में मुक्त जीवन जीने के भ्रम में अपनी ही परिधि की परिक्रमा करती परछाइयाँ नजर आती हैं.
ऋषि रोमशा ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 126वें सूक्त के सातवें मंत्र की रचयिता हैं. भाष्यकर सायण ने इन्हें बृहस्पति की पुत्री तथा ब्रह्मवादिनी कहा है. (महिमामंडन की एक और कोशिश!)
रोमशा गांधार देश की कन्या है जिसका विवाह सिंधु देश के नरेश भावयव्य से हुआ. रोमशा विवाहोपरांत लंबे समय तक पति की उपेक्षा से संत्रस्त रही, फिर एक दिन अपने प्रतिरोध को वाणी देते हुए पति से स्त्री-अधिकारों के साथ सम्मान की पुरजोर मांग कर बैठी-
“उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणिमन्यथा.
सर्वाहमस्मि रोमशा गांधारीणामिवाका.”
(मेरे समीप आकर मुझसे परामर्श लो. मेरे कार्यों और विचारों को छोटा मत समझो. मैं रोमशा हूँ, अपरिपक्व बुद्धि वाली स्त्री नहीं, अपितु गांधार देश की भेड़ के समान सर्वत्र रोम वाली अर्थात पूर्ण विकसित बुद्धि और परिपक्व विचारों वाली हूँ.)
‘थेरीगाथा‘ में विरासत से चले आ रहे आत्मविश्वास से परिपूर्ण इस दृढ़ स्त्री-स्वर का अभाव है. उल्लेखनीय है कि दृढ़ता और आत्मविश्वास का यही स्वर 12वीं और 15वीं सदी में अक्का महादेवी[vii] और मीराबाई[viii] में भी मिलता है.
पुरुष आलोचक इन दोनों कवयित्रियों को भक्ति परंपरा में रखकर उनके विद्रोह को भक्ति के समर्पण में ढालने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन दोनों ही स्त्रियाँ जिस प्रखर भाव से पारिवारिक बंधनों के खिलाफ आवाज उठाते हुए प्रेम (ईश्वर नहीं, लौकिक प्रेमी पुरुष जो ईश्वर की पूर्णता में ही साक्षात होता है) की तलाश में निकल पड़ी हैं, वह अपनी खोई हुई अस्मिता को पुनः पाने की कामना भी है और स्त्री-आकांक्षाओं को सुस्पष्ट एवं सुदृढ़ अभिव्यक्ति देने का साहस भी.
यहीं तीसरा सवाल सिर उठाता है और वह है, स्त्रियों के साहित्यिक अवदान को दर्ज करने में पुरुषों की भूमिका.
यह घनघोर विडंबना है कि संसार में रहकर सामाजिक मान्यताओं और समाज-संस्थाओं से अकेले दम टकराकर विद्रोह का शंख फूंकने वाली अक्का महादेवी और मीराबाई को भक्त कवयित्री के रूप में इतिहास में दर्ज किया गया और बौद्ध मठ में धर्मप्रचारक के रूप में काम करने वाली थेरियों को ‘स्त्री-मुक्ति का विद्रोही स्वर’ कहा गया. क्या इसलिए कि अक्का महादेवी और मीराबाई लीक तोड़कर चलने के क्रम में वर्चस्ववादियों को पसोपेश में डाल देती हैं और थेरियाँ समाज की ओर से पीठ मोड़कर तेजी से प्रतिष्ठित होने वाले धर्म की भाव-गायिकाएँ बन जाती हैं?
इतिहास साक्षी है कि थेरी-साहित्य सहित तमाम स्त्री-रचनाकारों का मूल्यांकन पुरुष ही करता रहा है. थेरीगाथाओं के संग्रहकर्त्ता पुरुष हैं. उन्होंने ही उन पद्यबद्ध रचनाओं से पूर्व थेरियों की विशिष्ट जीवन-स्थितियों पर गद्य टिप्पणियाँ लिखी हैं. ये टिप्पणियाँ ही अंतत: उन पदों को समझने की कुंजी का काम करती हैं. उन्होंने ही इसे ‘स्त्री जाति की मुक्ति का दस्तावेज‘ कहकर प्रचारित किया है, और इस तरह आध्यात्मिक मुक्ति की सार्थकता को रेखांकित करते हुए सामाजिक मुक्ति के उस सवाल को सिरे से खारिज कर दिया है जिसे ऋषि रोमशा जैसी विद्रोही स्त्रियाँ समय-समय पर उठाती रही हैं.
यहीं यह शंका भी उठाती है कि संकलन की प्रक्रिया में क्या पुरुष संकलनकर्ताओं ने ईमानदारी से भिक्षुणियों के तमाम पदों को समान सम्मान भाव से त्रिपिटक में जगह दी है?
या उन गाथाओं को छोड़ दिया होगा जो स्त्री-मन की गहराइयों से निकलकर समाज-व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करती होंगी? बेशक यह अनुमानपरक संभावना है, लेकिन अनुमान सपाट स्थितियों के पीछे खदबदाते संशयों को तो उभारते ही हैं.
(पाँच)
स्त्री-भाषा का कैनन ग्रंथ उर्फ अपने को पाने की खोज स्त्री-भाषा की मूल आकांक्षा है
निर्वाण में जीवन का स्थगन है, परिवेशगत प्रतिकूलताओं से टकराने की अपेक्षा उनसे परे हटने का विवश स्वीकार है. स्त्रीवादी आलोचना की दृष्टि से स्त्री की सामाजिक मुक्ति के सवाल को आध्यात्मिक मुक्ति की परतों में छुपा देना ‘थेरीगाथा’ की सीमा कहा जा सकता है, लेकिन साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में उसका महत्व अपनी जगह है.
यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि ‘थेरीगाथा‘ भारतीय साहित्य का पहला ग्रंथ है जो स्त्री-भाषा के कैनन गढ़ता है. तर्क के साथ तरलता, द्वंद्व के साथ दृढ़ता का सहमेल स्त्री-भाषा को बुनने वाले दो परस्पर विरोधी अवयव हैं जो अंतर्गुंफित होकर आत्मपरकता के घनघोर आत्मीय संवेदन में आत्मसाक्षात्कार की चौकन्नी विश्लेषणात्मकता का परिपाक करते हैं. परंपरा स्त्री को भाव की प्रतिमूर्ति मात्र कहकर अशक्त, कांतिहीन और परनिर्भर मानती रही है.
थेरियों की भाषा इस मान्यता को सख्ती से पलटती है. स्त्री होने का बोध उनके संवेदन को रचता है, किंतु वह कहीं से भी हीन भावना से ग्रस्त नहीं. परिस्थितियों ने उन्हें निस्सहाय बनाया है, दीन नहीं. विवाह से लेकर परनिर्भरता तक, रजस्वला होने से लेकर प्रजनन तक जिन दुर्बलताओं को उसकी अनिवार्य नियति कहकर उसे वंचित किया जाता है, उन्हीं दुर्बलताओं से वे लड़ने की ताकत पाती हैं. वे जानती हैं गर्भ और प्रसूति की घनघोर अशक्त वेला में भी संतान पर आंच की आशंका मात्र से वे हर युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाती हैं. इसलिए जुझारूपन, अपराजेयता और जिजीविषा उसकी भाषा में भाव-तरंगों की तरह शामिल हैं.
वर्जनाएँ स्त्री की सहचर हैं. इनमें से कुछ को वह आंचल के छोर में बांधे रखती है और शेष को अंतर्मन के तलघर में रख देती है. समाज चूंकि हर वक्त कठघरे लेकर उसे घेरते रहना चाहता है, इसलिए जवाबदेही के लिए वह हमेशा तैयार है. पितृसत्ता संबल देने के लिए एक भी कंधा उसके लिए मुहैया नहीं करती.
घर-बाहर स्वतंत्र विचरण के लिए बित्ता भर जगह नहीं. निर्विघ्न आवाजाही के लिए उसके पास मात्र एक जगह है- अंतर्मन का वह तलघर जहाँ वर्जनाओं के साथ उसकी ग्रंथियाँ और असुरक्षा बोध, भय और सपने गुड़ीमुड़ी पड़े रहते हैं.
इन सबके उलझे सूत्रों को सुलझाते-सुलझाते वह तलघर के अंधेरों को भी पोंछने लगती है और प्रकाश की झीनी सी रेखा में अपने चेहरे पर खुदी चित्र-लिपि भी पढ़ने लगती है.
ईमानदारी आत्मसाक्षात्कार की रूह है. आत्मसाक्षात्कार की सतत अनिवार्यता स्त्री के जिंदा रहने की सबसे बड़ी जरूरत है. आत्मसाक्षात्कार में भी वह स्वयं को कठघरे में खड़ा पाती है. फर्क यह है कि समाज जवाबदेही के लिए उसे कठघरे में खड़ा करता जरूर है, पर उसका पक्ष सुने बिना उसे अपराधी ही घोषित करता है. यह सत्ता का वर्चस्ववादी निरंकुश शास्त्र है.
स्त्री की भाषा में मौन सबसे ज़्यादा जगह घेरता है. अंतर्मन के कठघरे में वह उन सवालों का जवाब देते हुए वकील और जज भी खुद बन जाती है. कन्फेशन उसे अपने को चीन्हने और उबरने की नई रणनीतियाँ बनाने का बल देता है. विचार की इस प्रक्रिया में उसकी भाषा अपने को गढ़ने लगती है. दूसरों की ज़मीन क़ब्ज़ाने की बजाय चूंकि वह अपने ही घेरों में बँधी है,इसलिए स्त्री की तरह स्त्री भाषा भी भीतर-भीतर गहरे प्रविष्ट होकर मनोभावों को खोलने वाली संश्लिष्ट इकाई बन जाती है.
नैतिक दृढ़ता के उच्चतर सोपान पर पहुँच कर वह स्त्री-छवि को रचने वाली पुरुष-अवधारणाओं को निरंतर बाइनरी रूप में दर्ज करने लगती है. जैसे दीनता को दृढ़ता से, अपराध-बोध को आत्म-साक्षात्कार से, दैहिक सौंदर्य को भाव एवं कर्म-सौंदर्य से प्रतिस्थापित करना.
स्त्री की भाषा सफलता के परकोटे चढ़ कर विजय-पताका फहराने की बजाय बेहद विनम्रतापूर्वक अपनी ही दुर्बलताओं और असफलताओं को रेखांकित करती चलती है. अपरासामा थेरी की भाषा में संकोच को विनय, दीनता को दृढ़ता, अपराध -बोध को आत्मसाक्षात्कार बनाने की यह विशिष्टता साफ़ दिखाई देती है कि :
“मुझे गृहस्थ जीवन का त्याग किए
पूरे पच्चीस साल हो गए हैं
किंतु मेरा चित्त शांत हुआ हो कभी
स्मरण नहीं होता.”
‘थेरीगाथा’ से यदि धर्म की रूढ़ि से बंधे बुद्ध-अनुशासन और प्रचार की अनिवार्यता को निकाल दिया जाए तो यह स्त्री के सघन संश्लिष्ट भावोच्छ्वास की रचना बन जाती है. भावनाओं का आवेग भाषा को तत्कालिकता और सीमाओं से मुक्त करता है.
थेरियों की भाषा दो स्थलों पर अपने को रच कर निरंतर सृजनरत रहती है. एक, अंतर्द्वंद्व की गुंझलक भरी गहराइयों को थहाते हुए जहाँ डूबने की तमाम गुंजाइशों के बावजूद वे मोती बटोर लाती हैं. दूसरे, अपनी स्त्री-नियति का बखान करते हुए. उल्लेखनीय है कि आज की तरह उस समय भी अंतर्द्वंद्व (आत्मसाक्षात्कार) की मीलों फैली जमीन पर स्त्रियों की ही मिल्कियत रही है.
समाज में प्रचलित अवधारणा के अनुरूप ‘थेरगाथा‘ में भी द्वंद्व और आत्मसाक्षात्कार कमजोरी की निशानी हैं. वहाँ इसकी जगह प्रभूत मात्रा में उपलब्ध है दर्प- पुरुष होने का[ix], ज्ञान-पिपासु[x] होने का, ताकतवर[xi] होने का.
स्त्री की भाषा में दर्प का अश्लील बल नहीं, विनम्रता में गुंथी दृढ़ता है. बेशक यहाँ भद्दाथेरी और नंदुत्तराथेरी जैसी स्त्रियाँ भी हैं जो ज्ञान की खोज में गृहत्याग कर निर्ग्रंथ साधुओं (जैन मुनियों) के संघ में प्रविष्ट होती हैं, वाक्पटुता और तर्क शक्ति में महारत हासिल करती हैं, फिर बौद्ध संघ में आकर निर्वाण पाती हैं.
खेमा थेरी, सुंभाथेरी, सुमेधाथेरी जैसी आत्मविश्वास से परिपूर्ण स्त्रियाँ भी हैं जो भीतर फैले विचलनों को देख भय से सहर नहीं जातीं, वरन् मुकाबला करती हैं- पुरुषार्थ (?) से भरकर. स्त्री-भाषा में पुरुषार्थ क्रिया, उपदेश या प्रलोभन की आक्रामकता में नहीं आता, बिम्ब और नाटकीयता में अंतस् के उच्छवास को उलीचते हुए गीतिकाव्य की शक्ल ले लेता है.
यह पुरुषार्थ को स्त्री-ओज में बदलती नई स्त्री-भाषा है. सुंभाजीवकंबवनिका थेरी की भाषा लोक में प्रचलित इस मान्यता का विरोध करती है कि स्त्री महज प्रलोभनों की पोटली है. वह कल्पना करती है कि ‘मार’ उसे दनादन ढेरों भौतिक प्रलोभन दिए जा रहा है- आभूषण से लेकर मुलायम रेशमी ऊनी वस्त्र तक, इत्र अंग-लेप से लेकर चंदन निर्मित पलंग तक, उसके सौंदर्य से लेकर गुणों की प्रशस्ति तक. वह पुरुष के मिथ्याचार को समझती है और उसकी कामवासना की क्षणिक पिपासा को भी. वह उसे ज्ञान से पछाड़ना चाहती है और लोक जीवन से बिंब उठाकर उन्हें तर्क की डोर में गूंथती है:
“एक समय देखा मैंने
सुंदर नई लकड़ी की खूंटियों से बनी
एक सुचित्रित कठपुतली
धागों और तकुओं से कुशलतापूर्वक बंधी हुई
दिखा रही थी नाना प्रकार के सुंदर नृत्य
फिर जैसे ही हटा लिए गए
तकुए और धागे
छिन्न-भिन्न होकर गिर पड़ी वह कठपुतली
बता, इस भग्नावशेष कठपुतली का
कौन सा अंग
मोहित करता है तेरे मन को?”
थेरियों की भाषा में बड़बोलापन नहीं है. वे शब्दों के अपव्यय से बचती हैं. शब्द को बिंब में ढालती हैं और ध्वनि को गूंज में. भाव के उच्छ्ल आवेग में विचार की संयत गहराइयाँ भरती हैं. वहाँ तर्क है, पर शास्त्रार्थ का दंभ नहीं. शास्त्रार्थ जो एक पक्ष की जय को सुनिश्चित करते हुए दूसरे पक्ष में खड़े पराजित पर ठहाका करने की कुत्सा है. थेरी भाषा में विवाद नहीं, संवाद है- मैत्री का आह्वान, मित्रवत् स्थिति के समाधान की युक्ति! इसलिए यहाँ रसिक पुरुष द्वारा बार-बार स्त्री के नैनों के बाण से घायल होने की कामार्त्त पुकार के जवाब में वह कामाग्नि में धू-धू जलते शब्दों की समिधा नहीं डालती, अपनी आंखें निकाल कर उसकी खुली हथेली पर धर देती है :
“ये आंखें क्या हैं?
दो गड्ढों में स्थित अश्रुओं से सिंचित
तरल बुदबुद मात्र!
पेड़ के खोल में स्थित जैसे
एक छोटी सी गोलक
लसदर पदार्थ निकलता रहता है जिसमें.”
थेरी-भाषा आत्मगौरव से दिपदिपाती जिस स्त्री को रचती है, वह पुरुष रचित स्त्री-छवि का विलोम है. पुरुष के लिए स्त्री-देह भोग की वस्तु है. उसका दैहिक सौंदर्य कामोद्दीपन का केंद्र. एक परिपाटी में बंध कर जब वह स्त्री के नख-शिख सौंदर्य का वर्णन करता है, तब वहाँ स्त्री का हृदय और मस्तिष्क, आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ, तर्क और स्वप्न अदृश्य हो जाते हैं. रह जाता है कामनाओं का उत्तप्त संसार.
अंबपाली थेरी, विमला थेरी और अड्डकासि थेरी दीक्षा से पूर्व वेश्याएँ थीं- भोग का घृणित सामान! पुरुष वेश्या के लिए कुलीन सदगृहस्थी की चौखट प्रतिबंधित करता है, किंतु अपने व्यभिचार के लिए उसे नगरवधू बनाकर महल-दुमहलों की व्यवस्था कर देता है. वेश्या कुलवधू के एकरेखीय जीवन की अपूर्णता पाने की हकदार भी नहीं. देह में प्राण गूंथ कर उसे हर आगंतुक पुरुष को तृप्त करना है.
“संपूर्ण काशी राज्य की जितनी आय है एक दिन की
उतना ही विपुल मेरा दाम था
एक रात का
उतना ही मूल्य, उससे कम नहीं.
निगम ने निश्चित किया था मूल्य
मेरी एक रात की सेवाओं का.”
(अड्डकासि थेरीगाथा का एक मर्मस्पर्शी अंश)
पुरुष रचित साहित्य में वेश्या कुटनी है, हृदयहीन है,‘निरीह‘ पुरुष की आखेटक है. थेरी-भाषा में स्त्री की तिल-तिल जलती वेदना को परखने के कई आयाम हैं. यह भाषा वेश्यावृत्ति को आजीविका बना देने के सामाजिक षड्यंत्र के पीछे वेश्याओं के मनोविज्ञान, विवशता और प्रतिरोध को भी रचती है. वह स्पष्ट करती है कि पुरुष-निर्मित समाज व्यवस्थाएँ सम्मान से लेकर भौतिक संसाधनों तक जीवनयापन के तमाम रास्ते वेश्या के लिए बंद कर देती हैं.पेट की भूख उसे ताक़तवर के हाथ का खिलौना बनने को मजबूर करती है. इस मजबूरी में शामिल हो जाता है पुरुष के कामोद्दीपन हेतु स्त्री का निर्लज्ज, अश्लील, कामुक आचरण, जिसे कुट्टनीशास्त्र कह कर खूब गरियाया जाता है.
थेरियों की भाषा परंपरा का प्रतिकार करते हुए पुरुष को कठघरे में खड़ा करती है. ग़ौरतलब है कि किसी भी वर्चस्ववादी को कठघरे में खड़ा करना आसान काम नहीं. इसके लिए चाहिए दुर्दान्त ईमानदारी और ब्रह्मांड तक फैला साहस. विमला थेरी के पास ये दोनों बहुतायत में हैं :
“वेश्यालय के द्वार पर सतर्क दृष्टि से बैठ
व्याध के समान जाल फैलाती थी मैं
लाज शर्म को त्याग कर
आभूषण ही नहीं
अपने गुह्य अंग तक दिखा देती थी
पुरुष के पतन के लिए
मैं तरह-तरह के मायाजाल रचती थी.”
आक्रोश में जब पीड़ा घुल जाती है, तब वह व्यंग्य बन जाती है. ऐसे में शब्द कोषगत अर्थ छोड़कर व्यंजनात्मक ध्वनियाँ देने लगते हैं. थेरी-भाषा अभिधात्मक पद को व्यंजक बना कर वाग्विदग्धता और वचन-वक्रता जैसी शब्द शक्तियों का अनायास परिपाक करने लगती है. इससे गाथा के कलात्मक सौंदर्य की ही अभिवृद्धि नहीं होती, स्त्री-जीवन की विडंबनाओं के संग-संग व्यवस्था की कुटिलता भी प्रत्यक्ष होती है.विमला थेरी के उपर्युक्त पद में ‘पतन’ शब्द इसी गहरी अर्थव्यंजकता का सूचक है.
अड्ढकासिथेरी की गाथा का एक अंश दृष्टव्य है:
“मेरा सारा सौंदर्य
आज मेरे लिए
घृणा का कारण बना हुआ है.”
यहाँ स्त्री-सौंदर्य की पुरुष-रचित अवधारणा को सिरे से ख़ारिज कर दिया गया है. इसमें रुद्ध कर दिये गए स्त्री-कंठ से फूटने वाली नई भाषा के संकेत हैं जो अनिवार्य रूप से पुरुष-भाषा के समानांतर स्त्री-भाषा को रचने का स्वप्न संजोए हुए हैं. भाषा की विकास-गाथा रिले-रेस की तरह है. वह बहुत से प्रतिभागियों की भागीदारी के साथ छोटे-छोटे पड़ाव पार करते हुए निरंतर गतिशील रहती है. अंबपाली थेरी अढ्ढकासिथेरी के स्त्री-भाषा के सृजन-स्वप्न को अपनी तरह से रचती हैं. भाषा का आलंकारिक प्रयोग उनकी गाथा को विशिष्ट बनाता है, लेकिन उसमें रूढ़ परंपरा का प्रशिक्षण या अनुगूंज नहीं, बल्कि एक स्पष्ट सुस्थिर डिपार्चर है.
काव्यशास्त्र में भाषा का आलंकारिक प्रयोग सौंदर्य की अभिवृद्धि के लिए किया जाता है. अंबपाली स्थितियों का विलोम रचते हुए इसे सौंदर्य और काम-पिपासा का उद्दीपक कारक बनाने की बजाय सौंदर्य की कृत्रिम अवधारणा के पीछे छुप कर खड़े कठोर जीवन-सत्य के प्रत्यक्षीकरण का जरिया बनाती हैं, जैसे
“सुंदर गोलाकार गदा के समान
किसी समय मेरी दोनों सुंदर बांहें थीं
वही आज बुढ़ापे में
दुर्बल पाडर पेड़ की डालियों के समान हो गई हैं.
पहले सुंदर मुंदरी और स्वर्णालंकारों से
विभूषित रहते थे मेरे हाथ
वही आज बुढ़ापे में
हो गए हैं गांठ-गठीले
जड़ों की तरह.
कभी मेरे दोनों स्तन
स्थूल सुगोल उन्नत सुशोभित होते थे
वही आज बुढ़ापे में
हो गए हैं पानी से रीती
लटकी हुई चमड़े की थैलियों के सदृश.
किसी समय मेरी दोनों जांघें
हाथी की सूंड के समान सुशोभित होती थीं
वही आज बुढ़ापे में
हो गई हैं बांस की पोली नलियों के समान.
कभी मेरी पिंडलियाँ
सजी रहा करती थीं
सुंदर घुंघरू और स्वर्णालंकारों से
वही आज बुढ़ापे के कारण
हो गई हैं तिल के सूखे डंठल के समान.”
तर्क दिया जा सकता है कि बुद्ध के उपदेश की परिपालना में यहाँ स्थितियों का विपर्यय यौवन (और जीवन) की क्षणभंगुरता को व्यक्त करने तथा बुढ़ापे (मृत्यु एवं दुख) की नित्यता को रेखांकित करने के लिए किया गया है. बात सही भी है, लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यहाँ यौवन को स्त्री-देह, स्त्री-देह को सौंदर्य और सौंदर्य को भोग की काम-ऐष्णाओं तक ले जाने वाली पुरुष-सोच पर भी सोच-विचार कर प्रहार किया गया है. अंबपाली की भाषा में ‘दैहिक स्त्री‘ की बजाय ‘विचारशील स्त्री‘ की ओजस्वी छवि है जो ‘थेरगाथा‘ में पिरोई गई मर्दवादी भाषा की सत्ता को चुनौती देती है :
“मनोरम रूप शब्द गंध रस और स्पर्श
ये पांच प्रकार के काम-गुण
दिखाई देते हैं स्त्री रूप में.”
(सब्बकामित्थेरगाथा)
तथा
“मैं भिक्षाटन के लिए जा रहा था
कि देखा एक स्त्री को
सजी-संवरी सुंदर स्त्री को
मैं समझ गया
वह मौत का फंदा है.”
(नागसमालतथेरगाथा)
‘थेरीगाथा‘ की भाषा अपने में गहरे पैठ कर पुरुष-भाषा में नदारद ‘अदर‘ (स्त्री पक्ष) को सतह पर लाती है. यह भाषा तलस्पर्शी, चमकदार और राग से सिक्त है. वह द्वंद्वात्मक है, इसलिए विश्लेषणात्मक भी है और सृजनात्मक भी. वह आत्म के सहारे वस्तु-सत्य को पहचानती है, और विचार को भाव की सघनता में गूंथ देती है. बुद्ध की छाया में चूंकि वह स्वयं को गढ़ती है, इसलिए वर्चस्व की प्रगल्भता की बजाय सृजन की स्निग्धता है और अपने को पहचानने का निगूढ़ आलोक भी.
इस कैनन ग्रंथ के सहारे आज की स्त्री-भाषा का विश्लेषण न केवल स्त्री-भाषा की निर्मित की मंथर-दीर्घ विकास-प्रक्रिया को उद्घाटित करेगा, बल्कि उस फांक को भी प्रत्यक्ष करेगा कि क्यों आज भी स्त्री और पुरुष दो अजनबी द्वीपों की तरह समय-सागर की छाती पर मिलते-टकराते-कतराते तैर रहे हैं.
और अंत में
समूचे विश्लेषण को निष्कर्षबद्ध करते हुए कहा जा सकता है कि धर्म के फ़्रेम में बंध कर भी स्त्री-मन की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करना, और इस प्रक्रिया में स्त्री-मुक्ति का आधा-अधूरा (सीमित) ड्राफ्ट प्रस्तुत करना ‘थेरीगाथा‘ को अपने समय से आगे की मेधा बनाता है. इस सीमित ड्राफ्ट में मुक्ति के लिए तड़पती जो ‘नई स्त्री‘ दिखाई देती है वह:
(१) विकल्पहीन होकर बंद कोठरी में क़दमताल करने की बजाए बाहर खुलते नए विकल्पों का वरण करती है,
(२) गृहस्थी के खींचे गए घेरे का अतिक्रमण कर अपने लिए नया स्पेस रचती है,
(३) द्वंद्वात्मकता से मुठभेड़ कर अपने को निख़ालिस ‘मनुष्य’ के रूप में चीन्हना चाहती है जो प्रकारांतर से ‘अन्य‘ (पुरुष) को भी उसकी तमाम वर्चस्ववादी दुरभिसंधियों के साथ प्रकट कर देती है,
(४) पुरुष भाषा के समानांतर विशिष्ट स्त्री- भाषा विकसित करती है,
(५) स्त्री को विचारशील संवेदनशील जीवन्त मनुष्य के रूप में प्रत्यक्ष करती है, जहाँ स्त्री का मांसल सौंदर्य पुरुष के उपभोग का सामान नहीं रहता, स्त्री की अपनी दैहिक मिल्कियत और अस्मिता का रूपक बन जाता है. अंबपाली थेरी की गाथाओं का यह प्रतिरोधी स्वर परवर्ती पुरुष-साहित्य-परंपरा को ख़ूब तिलमिलाता है.
उल्लेखनीय है कि इस ‘नई स्त्री’ की ये ‘स्वतंत्रताएँ’ परवर्ती पौराणिक और लौकिक साहित्य में ‘स्त्री‘ तत्व को रचने वाली दो अर्हता बन गईं.
एक, सतीत्व की अवधारणा जो स्त्री की घेराबंदी के लिए लक्ष्मण-रेखा की कठोरता को ‘लार्जर दैन लाइफ़’ बना देती है. इसका मूल लक्ष्य है स्त्री को चारदीवारी में घोंट कर शिक्षा और गतिशीलता के अधिकार छीन लेना, उसे बुद्धिहीन गूंगी इकाई बना देना ताकि किसी भी सूरत में अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति कर वह पुरुष-मंतव्यों का प्रतिकार न कर सके.
दूसरे, नखशिख सौंदर्य और नायिका-भेद जैसी काव्यशास्त्रीय परंपरा का विकास ताकि ‘बोलने‘ और ‘घेरे से बाहर निकलने वाली गतिशील‘ स्त्री को मांसलता और कामुकता का प्रतिरूप बनाया जा सके.
लंबे अरसे तक साहित्यिक परिदृश्य से स्त्री-स्वर की अनुपस्थिति की एक वजह ‘थेरीगाथा‘ के निर्भीक स्वर के प्रति पितृसत्ता के भय और तिरस्कार की हीनता-ग्रंथि ही तो है.
_______
संदर्भ
[i] ये प्रकरण अधिकांशतः एक पदीय गाथाओं में हैं. संभवत: ये थेरियां बौद्ध धर्म में दीक्षित होने वाली प्रारंभिक भिक्षुणियाँ रही हों जिन्होंने स्वयं कुछ नहीं लिखा, लेकिन महात्मा बुद्ध द्वारा दिए गए उद्बोधन को लयबद्ध करके आजीवन गाती रही हों. उल्लेखनीय है कि महात्मा बुद्ध ने इन थेरियों के नाम के अनुसार उनका उद्बोधन किया है, जैसे मुत्ता थेरी को कहा:
‘हे मुक्ता! तू मुक्त हो जा
राहु के ग्रहण से मुक्त हुए चंद्रमा की तरह
तू सभी बंधनों से मुक्त हो जा
विमुक्ति प्राप्त चित्त के द्वारा समाज के कर्ज को चुकाकर
तू समाज के भोजन को ग्रहण कर.’
या पुण्णा थेरी को संबोधित किया :
‘हे पुण्णा!
तो इसी जीवन में पूर्णता को प्राप्त कर
पूर्णमासी के पूर्ण चंद्र की तरह
तू कल्याणकारी धर्म में पूर्णता को प्राप्त कर
प्रज्ञा की परिपूर्णता से तू
इस भयंकर अंधकार को पूरी तरह नष्ट कर देगी.‘
[ii] ‘सुंदरी! देख, यह सोने जैसी कांति वाले
सतेज शारीरिक छवि वाले
त्रिलोक के शिक्षक हैं
ये असंयतों को संयत बनाने वाले पूर्ण निर्भय पुरुष
भगवान सम्यक् संबुद्ध हैं!’
एवं
‘अहो! कितना अमोघ है बुद्ध का शासन.’
[iii] संघा थेरी अपने जीवन से दो स्तरों पर असंतुष्ट रही. एक, पारिवारिक जीवन से, दूसरे, ईश्वर और कर्मकांडी ब्राह्मण धर्म से जो स्त्री का सम्मान नहीं करता. इसी असंतोष के कारण वह अपने बच्चों, पशुओं और घर-संबंध को छोड़ प्रव्रज्या लेती है। निर्वाण और अर्हत्व प्राप्त कर लेने के बाद जीवन-कथा कहते हुए वह जिस अनुराग के साथ संतान और पशु को छोड़ने की बात कहती है, वह विराग के बीच मोह की झीनी सी डोर को बचाए रखने की स्त्री-आकांक्षा है:
‘प्रव्रज्या लेकर छोड़ दिया है मैंने अपना घर
संतान और पशु भी
राग द्वेष को छोड़ा
अविद्या को भी
तृष्णा को नष्ट कर दिया है समूल
और अनुभव कर रही हूं परम शांति निर्वाण की‘
हालांकि स्थिति के इस निश्चयात्मक स्वीकार के पीछे कुछ विचलन भी हैं जिन्हें इसी आलेख के दूसरे खंड में समझाने का प्रयास किया गया है।
[iv] “अहो! मैं मुक्त स्त्री हूं
मेरी मुक्ति कितनी धन्य है
पहले में मूसल लेकर धान कूटा करती थी
आज मुक्त हूं उससे
मेरी दरिद्रावस्था के छोटे-छोटे खाना पकाने के बर्तन-भांडे
जिनके बीच दिनभर बैठी रहती थी मैं मैली-कुचैली
और निर्लज्ज पति मेरा
उन छातों से भी तुच्छ समझता था मुझे
जिन्हें बनाता था वह जीविका के लिए
अब मैं कितनी सुखी हूं…
कितने सुख से ध्यान साधना करती हूं।”
[v] सोमाथेरी अपने एक पद में समाज की स्त्री-द्वेषी मानसिकता का उद्घाटन करते हुए बताती हैं कि ‘दो अंगुल प्रज्ञा वाली‘ कह कर समाज सदा स्त्री को अपमानित करता रहा है। उसे ‘दो अंगुल प्रज्ञा वाली‘ इसलिए कहा जाता है क्योंकि हांडी में दो अंगुल डाल कर ही वह भात के पकने का अनुमान लगाती है।
[vi] “सेला! इस लोक में नहीं है
मुक्ति जैसी कोई चीज
एकांतवास से फिर तुझे क्या लाभ?
अरे! समय रहते आनंद ले काम-भोग के सुख का
अन्यथा पछतावा ही रह जाएगा पीछे।
[vii] पति की हृदयहीनता और विवाह बंधन की कठोरता से त्रस्त अक्का महादेवी (अनुमानित जीवन-काल सन्1130-1160) गृहत्याग के बाद देह, दैहिक वर्जनाओं और देह-नियामक लौकिक मर्यादाओं के पाश से स्वयंमेव मुक्त हुई हैं। किसी भी धर्म का आश्रय लेना उन्होंने नामंजूर किया :
“किसे परवाह है
कौन तोड़ता है पेड़ से पत्ती
एक बार फल टूट जाने के बाद.
किसे परवाह है
कौन जोतता है जमीन
त्याग दी जो तुमने.
किसे परवाह है
कौन सोता है उस स्त्री के साथ
जिसे छोड़ दिया तुमने
एक बार प्रभु को जान लेने के बाद
किसे परवाह है
कुत्ते खाते हैं इस देह को
या गलती है यह पानी में.”
या
“दूसरे पुरुष कांटा हैं
कोमल पत्ती में छिपे
मैं उन्हें छू नहीं सकती
न जा सकती हूं उनके पास
न कर सकती हूं भरोसा
न कह सकती हूं मन की कोई बात
मां! सबके सीने में है शूल
मैं नहीं भर सकती उन्हें बाहों में
सिवाय मेरे मल्लिकार्जुन के”
और
“घर में पति
बाहर प्रेमी
मुझसे नहीं निभते दोनों
यह संसार
और दूसरा संसार
मुझसे नहीं निभते दोनों
ओ मल्लिकार्जुन!
मुझसे नहीं बन पड़ता
पकड़े रहूं
एक हाथ में बेल-फल
दूसरे में धनुष”
(इन पदों की अनुवादक हैं गगन गिल। ‘समालोचन‘ में https://samalochan.com/akka-mahadevi/ लिंक पर इन कविताओं को पढ़ा जा सकता है.)
[viii] अक्का महादेवी की तरह मीरा भी ‘पग घुंघरू बांध‘ कर राजसत्ता, कुलकानि और स्त्रीत्व की बनी-बनाई संरचना का विरोध करती है। उनके पद जिस तादाद में कृष्ण की भक्ति को समर्पित हैं, उससे कहीं ज्यादा संख्या में पितृसत्ता से अनुकूलित परिवार एवं विवाह संस्था के प्रति उनके भीतर के विद्रोह को अभिव्यक्त करते हैं। कुछ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं :
(क) “सास बुरी म्हारी ननद हठीली,जलबल होय अंगीठी”
(ख) “राणा जी थे क्याने राखों मोंसू बैर
राणा जी म्हाने ऐसे लगत है ज्यूं बिरछन में कैर।”
(ग) लोकलाज कुलकाण जगत् की, दी बहाय ज्यूं पाणी
अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौरांणी।”
[ix] जो मुनि
स्त्रियों की उलझन में नहीं पड़ते
वे निश्चित रूप से
सुखपूर्वक सोते हैं
स्त्रियाँ सदा रक्षाणीय हैं
और उनमें
सत्य बहुत ही दुर्लभ है!”
( ‘थेरगाथा‘ में संकलित गोतमत्थेरगाथा)
[x] “जिज्ञासा से ज्ञान बढ़ता है
ज्ञान से प्रज्ञा बढ़ती है
प्रज्ञा से मनुष्य सच्चाई को जान लेता है
जाना हुआ सत्य सुखदायी होता है।”
(‘थेरगाथा‘ में संकलित महाचुंदत्थेरगाथा)
[xi] “अरे चित्त! नगर द्वार पर बंधे हाथी की तरह
मैं तुझे बाँध कर रखूँगा
कि तू पाप-कार्य में न लग सके
कि शरीर में उत्पन्न काम-जाल में
न फँस सके।”
(‘थेरगाथा‘ में संकलित विजितसेनत्थेरगाथा)
रोहिणी अग्रवाल
आलोचना पुस्तकें : हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला, एक नज़र कृष्णा सोबती पर, इतिवृत्त की संरचना और स्वरूप, समकालीन कथा साहित्य: सरहदें और सरोकार, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, साहित्य की ज़मीन और स्त्री मन के उच्छवास, हिंदी कहानी: वक़्त की शिनाख्त और सृजन का राग, हिंदी उपन्यास का स्त्री पाठ, साहित्य का स्त्री स्वर, हिंदी उपन्यास: समय से संवाद, कथालोचना के प्रतिमान, कहानी का स्त्री- समय कहानी संग्रह : घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ सम्मान एवं पुरस्कार : हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पर तीन बार, स्पंदन आलोचना सम्मान, वनमाली कथा आलोचना सम्मान, रेवांत मुक्तिबोध सम्मान, डॉक्टर शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान, डॉक्टर रामविलास शर्मा स्मृति सम्मान, नारी शक्ति सम्मान, श्रेष्ठ महिला सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी rohini1959@gmail.com/9416053847 |
Rohni जी लगातार स्त्री चेतना को अपनी आलोचना में एक नई पारखी नजर से देखा है और उसे आगे और आगे की ओर ले गई हैं।
स्री आलोचन में स्त्री पक्ष को जिस सशक्त तरीके से रोहिणी जी रखती हैं, वह बेजोड़ है. बहुत ही श्रम से लिखी गई इस रचना में उन्होंने पुन: अपने कद को साबित किया है. समालोचन और रोहिणी जी को बधाई.
न केवल विचारोत्तेजक बल्कि संग्रहणीय शोध आलेख।
परंपरा की इतनी भेदक और धड़कती पड़ताल..! मंत्रबिद्ध करने वाला प्रवाही विश्लेषण ; थेरीगाथाओं का एक ऐसा पाठ जिसमें विचारशीलता का आवेग तो है पर बौद्धिकता की धमक नहीं। “थेरी-भाषा के आत्मगौरव” तक पहुंचना और उसके भीतर से दिपदिपाती स्त्री छवि को सामने लाने का यत्न काबिलेगौर है…इसे समग्रता में समझने के लिए अभी एक दो बार और डुबकी लगानी पड़ेगी…इस मूल्यवान लेनदेन के लिए हार्दिक बधाई…
रोहिणी जी ने बढ़िया लिखा है। इसमें बुद्ध और स्त्री से जुड़े हुए कई आयाम आये हैं जिन्हें रोहिणी जी ने देखने की कोशिश की है।
ज्यादातर इस पूरे विमर्श का आधार कई तरह की दृष्टियों से होता हुआ ओरियंटल और उसी से जुड़े हुए सिद्धांतों के आसपास माने जाना लगा है, जिसे यहाँ भी देखा जा सकता है।
लेकिन ऐसे में हर उस टेक्स्ट का तुलनात्मक अध्ययन होना जरूरी है जो एक बड़े समय को प्रस्तुत
कर रहा है। यहाँ पर थेरीगाथा के साथ साथ Pali vinaya दो ऐसे टेक्स्ट हैं जिनपर सबसे ज्यादा अध्ययन हुआ है, इसका कारण जहाँ इनका अनुवाद रहा वहीं इन दोनों को पश्चिमी दुनिया में ज्यादा महत्व देने से रहा।
ऐसे में apadanas ,जो बुद्ध के अनुयायियों की जीवनी है उसमें चालीस से ज्यादा स्त्रियों की कहानी है,इसका अनुवाद एक बड़े पैमाने पर 1993 तक नहीं हुआ था, वहीं manimekalai जो एक तमिल टेक्स्ट है उसका अंग्रेजी में अनुवाद 1940 तक नहीं हुआ था। कुछ इस तरह के अन्य टेक्स्ट भी अनुवाद या भाषा वैज्ञानिकों की किसी न किसी सीमित वजहों के कारण कभी केंद्र में नहीं आ पाए।
इस तरह कई ऐसे बिंदु है जिसपर बात इसी लिए नहीं हो सकी है कि कुछ टेक्स्ट की केंद्रियता में ये भुला दिये गए, इससे किसी भी समय का सही आकलन करना एक सीमित प्रयास बन जाताहै। शायद इसपर ध्यान देने से एक विस्तृत सामाजिक अध्ययन का क्षेत्र खुलेगा जो सिर्फ कुछ टेक्स्ट के प्रधान मान लेने से उसी निश्चित घेरे में चक्कर लगाता दिखता है।
रोहिणी अग्रवाल का यह लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनको बधाई। पूरा पढ़ा। पुस्तक पढ़ी नहीं है। लेकिन कुछ बिंदुओं पर कुछ कहने का मन है। कुछ सोचना भी पड़ेगा। कल या परसों इसपर विस्तृत टिप्पणी करूंगी। अभी आराम और चिंतन की जरूरत है।
बहुत समय से कोई प्रामाणिक सामग्री अपने अल्प प्रयासों व संसाधनों के कारण ढूंढ रही थी। रोहिणी जी का आलेख महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है।
धन्यवाद अरुण जी ।
पूरा लेख एकबार में ही पढ़ गई। काफी विस्तार से विश्लेषण किया आपने। बहुत महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिली। आपका बहुत शुक्रिया इस लेख के लिए।
यूनिवर्सिटी में बौद्ध दर्शन पढ़ा था मैंने। लेकिन थेरी के बारे में कही कोई जिक्र नहीं मिला था। छोटी छोटी प्रसंग और कविताएँ पढ़ी है इस प्रसंग में, लेकिन ये संदर्भ मेरे लिए नया है।
लेख को पढ़ते हुए स्त्री अभिव्यक्ति और स्त्री लेखन को छुपाने का, इस वजह से बना शून्य का बोध हुआ कई बार।
मेरा एक सवाल है, बौद्ध और जैन साध्वी में अंतर क्या है। दोनों ही नास्तिक धर्म कहलाते हैं।
“थेरीगाथा’ में पीछे छोड़ दिए गए दुखों के साथ सघन बहनापा है. यह स्थिति थेरियों को इस अर्थ में विशिष्ट बनाती है कि दुख से मुक्त होने की आध्यात्मिक यात्रा के बावजूद वे दुख की पोटली को सांस में ऑक्सीजन की तरह बसा कर साथ लिए चलती हैं. “
स्त्री-मुक्ति और मुक्तिकामी लेखन के क्या-क्या बिंदु हो सकते हैं, यह आलेख बेहद महत्वपूर्ण ढंग से इंगित करता है।
थेरी गाथा स्त्रियों के स्वत्व की अभूतपूर्व दास्तान थी जो भले ही ज़ाहिर तौर पर विद्रोही नहीं थी पर इतने अधिक प्रश्नों से परिपूर्ण थी कि विद्रोह की नींव बहुत पुख़्ता पड़ती है।
थेरीगाथा के होने और ग़ायब हो जाने के मध्य के सवाल जितने भी रहे, उन पर बहुत समीचीन आलेख लिखा गया है।
दो बार में पढ़ा , भीतर जज़्ब होने का मौक़ा देते और सोचने गुनने का स्पेस देते हुए रोहिणी जी का ये विचारोत्तेजक शोध परक लेख
स्मृति और स्वप्न , अतीत और भविष्य के बीच संतुलन बनातीं अपने जगह को फिर फिर ईजाद करतीं थेरियों की गाथा का बहुत मानीखेज़ पाठ
रोहिणी जी को बहुत बधाई
रोहिणी अग्रवाल जी का थेरि गाथा पर विस्तृत लेख अपनी वैचारिक गहनता के साथ अपनी गिरफ्त में ले लेता है। एक तो बुद्ध की निर्विकल्प मानवीय दृष्टि, दूसरे थेरियों की व्यथा कथा के साथ उनकी मुक्ति कामी चेतना के विवेचन में स्त्री चिंतन की व्यापकता और गहनता समाविष्ट है। यह स्त्री वादी से अधिक एक अभेद वादी चिंतन है, जहाँ लैंगिक भेद को अति क्रांत कर शुद्ध मानवीय दृष्टि की केंद्रीयता निरूपित हो जाती है.
आज सुबह थेरीगाथा धर्म के फ्रेम में जड़ा स्त्री-मुक्ति का आख्यान शीर्षक से आलोचक रोहिणी अग्रवाल का महत्वपूर्ण लेख पढ़ा. यह लेख अब तक थेरीगाथा के महिमामंडन से अलग वैचारिक तौर पर एक नया पाठ प्रस्तुत करता है. रोहिणी जी कथा साहित्य में यह काम पहले भी कर चुकी हैं. अब इस लेख में उनकी पैनी दृष्टि थेरीगाथा की परत दर परत उघाड़ती है उनके शोध और तर्क के औज़ारों से.
यह लेख थेरीगाथाओं की प्रकृति, गीतों में स्मृति पक्ष, बुद्ध के उदार और मानवीय चरित्र को बताते हुए भी मठों में व्याप्त पितृसत्ता के रूप को उजागर करता है. सुमन राजे की किताब हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास में शामिल थेरी गाथाओं पर आधारित लेख में थेरियों की अभिव्यक्ति के रूप दिखाई देते हैं पर रोहिणी जी कई आयामों से थेरीगाथा की पड़ताल करती हैं. वे आयाम हैं—थेरियों का मुक्ति संदर्भ, दीक्षा आदि. सबसे ज़रूरी पक्ष है कि रोहिणी जी इस लेख में समय को ध्यान में रखते हुए और बौद्ध धर्म द्वारा स्त्री को एक नई व्यवस्था देते हुए भी पितृसत्ता और धर्म सत्ता के अनेक सवालों को उठाते हुए पाती हैं कि थेरियाँ वास्तविक मुक्ति से अधिक धर्म प्रचारक की भूमिका में संलिप्त हैं. इसीलिए स्त्री द्वेषी दृष्टि का समूचा विरोध उनमें दिखाई नहीं देता.इन मठों में दुख के स्वरूप को वे समझती हैं . कामनाओं के द्वार बंद कर देने की अभिव्यक्ति भी वहाँ है पर सामाजिक अधीनता से उपजे दुख के ख़िलाफ़ वे खड़ी नहीं होतीं.
इस पूरी बहस को जानने समझने के लिए रोहिणी जी के लेख को पढ़ना ज़रूरी है. इस वक्त रोहिणी जी को दिली बधाई.
प्रज्ञा
रोहिणी अग्रवाल अपने आलोचना कर्म से अक्सर विस्मित कर जाती हैं । उनकी आलोचना पर टिप्पणी करना सहज नहीं हो सकता । हमारे ज्ञात इतिहास में उनकी आवाजाही उनके अध्ययन का परिचय देती है और किसी विशेष कालखंड पर उनकी सजग दृष्टि से उपजी उनकी प्रखर प्रतिक्रिया उस विशेष कालखंड को समझने का गहरा विवेक दे जाती है । इस उपक्रम में वे जिस तरह अपने गाढ़े रसायन का निवेश करती हैं वह अमूल्य है । उनका यह निवेश उनके लिए कम पर पाठक की अनवरत तृष्णा के लिए अधिक होता है ।
बुद्ध के पौराणिक वर्चस्व के अनुशासन को समझाने के बड़े दायित्व का निर्वहन वे थेरी अस्तित्व से प्रारंभ करते हुए समकालीनता तक पहुंचकर कर जाती हैं । क्या उनके इस सृजनात्मक श्रम का विवेचन हमारी विपन्न और मितव्यवी टिप्पणी कर सकती है ? मुझे तो नहीं लगता ! इतिहास से अब तक स्त्री को केंद्र में रखकर उनका विश्लेषण झूठी स्त्री पक्षधरता की ओर नही ले जाता , लिंगों के भेद को मिटाने की भी मांग नहीं करता वरन इस भेद को केवल उत्कृष्ट मनुष्य रूप में बदल देने की आंदोलनात्मक मांग करता है । उनका यह रचनात्मक श्रम प्रशंसित होगा ।
यह तो एक पूरा गद्यप्रबंध हैं।इसमें शोध भी है,आलोचना और धर्मविवेचन भी।
भारत का यह दूसर ऐसा नया प्रस्थान था जो मनुष्य और उसके आध्यात्मिक पौरुष पर कुछ अधिक ही भरोसा करता हुआ उस स्त्रीमुक्ति का विधान करता है जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रवत मानी गई।पर आपका यह विनिबंध कई अन्य गहरे इशारे भी करता है जो विचारणीय हैं जैसे संघ में भी पुरुष वर्चस्व।
यह नया और महत्वपूर्ण काम है।बधाइयाँ
रोहिणी जी का यह लेख स्थाई महत्त्व का है। हमने भारतीय स्त्री चिंतन पर बहुत कम दृष्टि डाली है और अनुसंधानपरक दृष्टि तो और भी कम है। रोहिणी जी ने स्थापित किया कि इस युग की परिस्थितियां क्या थीं, थेरियों के लिए धर्म का अनुशासन पितृसत्ता के अनुभव से कुछ कम न था। अपमान और शोषण के कड़वे घूंट वहां भी उनके हिस्से आए और भी अनेक सूत्रात्मक वाक्यों से सजे इस लेख को बहुत धैर्य और गंभीरता से लिखा गया है। इस विषय पर अभी और भी शोध होना बाकी है। यह विस्तृत लेख सोचने के लिए बहुत से बिंदु देता है। रोहिणी जी को ढ़ेर सारी बधाई!
मैंने ‘समालोचन’ पर यह लेख पढ़ लिया था लेकिन उस समय मैं ‘कथादेश’ के अपने अतिथि संपादन में प्रकाशित होने वाले हरिशंकर परसाई विशेषांक का फाइनल मैटर देख रहा था।उस कार्य से मुक्त होते ही मैंने आज यह लेख फिर से पढ़ा।
मैंने ‘जनधारा’ के स्त्री केंद्रित विशेषांक को संपादित करते हुए रोहिणीजी और अन्य मित्रों से भी चर्चा की थी कि स्त्री विमर्श को थेरी गाथाओं से आगे के संदर्भ में देखा जाना चाहिए लेकिन इस लेख को पढ़कर विस्मित हूँ। रोहिणीजी ने थेरी गाथाओं को स्त्री- विमर्श के संदर्भ में ही विभिन्न आयामों के साथ विवेचित किया है।यह विवेचनाएँ बहुअर्थी हैं, लेकिन पूरी तार्किकता और गंभीर विश्लेषण के साथ स्त्री- विमर्श के नए भावबोध के साथ जुड़ती हैं। थेरी गाथाओं में उल्लेखित भिक्खुणियों के लौकिक जीवन से मुक्ति के प्रयासों और ‘बुद्धम शरणम’ को एक नई मुक्ति की चाह और हासिल की तरह अनेक आलोचकों और लेखकों ने बहुत भाव प्रवण और प्रशंसा भाव से लिखा है ,जो कि अनुचित भी नहीं है।लेकिन रोहिणीजी ने इन संदर्भों को और आगे ले जाकर – ‘थेरियों की मुक्ति की अवधारणा लौकिकता से मुक्ति के धार्मिक सिद्धांत की ही पुनर्प्रतिष्ठा है ?’ की
प्रश्नाकुलता पर छोड़ा है ,वह प्रश्न नहीं लगभग निराकरण पर जाकर ठहरता है । स्त्री विमर्श का एक नया संदर्भ यहाँ से भी खुलता है ।
और रोहिणीजी ने बुद्ध की शर्तों के सम्मान ( या कह सकते हैं बचाव ?) में जो समय संदर्भों की बात कही है वह बहुत जरूरी बात है क्योंकि इसी तर्क में कि ‘मूल्यांकन कर्ता अपने समय के नए भाव – बोध के साथ नई आचारसंहिताओं और अपेक्षाओं से संचालित होकर अतीत को खोदने और बुनने निकलता है । ऐसे में महात्मा बुद्ध यदि पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के प्रभाव से स्वयं को अछूत नहीं रख पाए तो क्या आश्चर्य ?’ यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि हमारे महान लेखकों- और विचारकों पर जो विचार- संकीर्णता के आरोप लगाए जाते रहे हैं उसका विश्लेषण इस तरह के समय -संदर्भों में भी होना चाहिए । तुलसीदास के ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ को भी इस संदर्भ के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
इस लेख को पढ़ते हुए मुझे अमेरिकी आलोचक क्लींथ ब्रुक्स की बात याद आ गई जिन्होंने कहीं लिखा है कि , ‘आलोचक को इतिहासकार की मदद की जरूरत रहती है’-इसे ठीक उल्टे अर्थ के साथ भी पढ़ा जा सकता है कि , इतिहास (और पुराणों ) की व्याख्या करने वालों को भी एक आलोचक की जरूरत पड़ती है। अतीत को लेखक / आलोचक की आँख से देखा या परखा जाना चाहिए।एक अच्छे लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई ।
भारतीय साहित्य में स्त्री भाषा और सरोकारों की ठोस और तार्किक अभिव्यक्ति के प्रथम ग्रंथ की यह मीमांसा पाठ में सहज और संश्लिष्ट के संतुलन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। धर्म की सीमाओं के बावजूद स्त्री अस्मिता के प्रश्नों को थेरीगाथा जिस बहुपरतीयता के साथ विश्लेषित करती है, उसके मर्म को उद्घाटित करने में रोहिणी जी के इस बौद्धिक निवेश का दस्तावेजी महत्त्व है। थेरगाथा और थेरीगाथा के तुलनात्मक अध्ययन की रोशनी में स्त्रीमन और भाषा को समझने का जो सार्थक जतन इस सुदीर्घ लेख में दृष्टिगत होता है, उससे स्त्री अध्ययन की भारतीय परंपरा को समझने की नई अर्गलाएं खुलती हैं। रोहिणी जी के इस महत्त्वपूर्ण आलेख को धैर्य से पढ़ा जाना चाहिए। इस श्रमसाध्य और सार्थक काम के लिए रोहिणी जी को बधाई और इसे प्रकाशित करने के लिए समालोचन का आभार!