समानांतर
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असमाप्य विदाई
प्रिय मैडम,
मैं इस ट्रेन में बैठा हूँ तो यह आपकी दयालुता और सहायता के कारण है. अभी मुझे ख़याल आया कि जल्दबाज़ी में आपको ठीक से धन्यवाद नहीं दे सका. मुझे आपके प्रति वह आभार दिखाना चाहिए था जिसकी आप हक़दार हैं. दरअसल, सब कुछ हड़बड़ी में हुआ. आप भी जानती हैं कि यह एक आपाधापी और मुश्किलों से भरा दिन था.
जब पुलिस मेरे पासपोर्ट की जाँच कर रही थी तो मैंने आपसे पूछा था कि क्या मेरे चेहरे में किसी जाँच को प्रेरित करने लायक़ कोई रहस्य है. तो आपने कहा था कि हाँ, मेरे चेहरे पर एक रहस्य भरी प्रभा है जो शायद किसी पुलिस अधिकारी को चिंतित करने के लिए पर्याप्त है. लेकिन यदि यह रहस्यमयी प्रभा महिलाओं के चेहरे पर हो तो कुछ अलग ही बात होती है. यह रहस्य कुछ रोमांचक उत्सुकता जगा देता है.
सोचता हूँ मैं आपको कृपालु लिखकर संबोधित करूँ.
प्रिय दयालु मैडम, हमने एक साथ केवल कुछ मिनट ट्रेन के इंतज़ार में बिताए, केवल कुछ शब्दों का आदान-प्रदान किया. लेकिन इतने भर से अहसास हो रहा है मानो मुझे आपकी संगत में रहने की आदत हो रही है. दरअसल, जैसे ही ट्रेन निकलने वाली थी, मुझे वैसा ख़ालीपन महसूस होने लगा जो तब होता है जब आप अपने प्रिय लोगों से दूर हो रहे होते हैं.
मैंने जब पूछा था कि क्या तुम कभी पियानो बजाती हो. तुमने कहा- ”नहीं. कभी नहीं. लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं?” तब मैंने बताया कि जब मैं बच्चा था, अकसर अपने कमरे में गर्मियों की दोपहर में, अचानक कभी-कभी मेरी नींद उचटती तो पास से कहीं, एक पियानो की आवाज़ सुनायी देती. वह स्मृति में बसी रही है. उसी से मुझे ख़याल आया कि तुमसे पियानो बजाने के बारे में पूछूँ.
सचमुच?
मैंने अपनी रौ में तुमसे कहा- एक कमरे की खुली खिड़की से पियानो का संगीत बहकर आता था. लेकिन उस कमरे के भीतर अँधेरा था और दिखता नहीं था कि पियानो कौन बजा रहा है. मैं अपने कमरे में बैठा, बस, दिवास्वप्न देखता था.
अब मेरे हाथ में वह विज़िटिंग कार्ड है जिसे तुमने विदा के समय दिया था कि यात्रा में कोई दिक़्क़त होने पर तुम्हें फ़ोन कर सकूँ. मैं इस पर तुम्हारा नाम पढ़ता हूँ- सबीना. क्या मैं धृष्टता कर सकता हूँ कि तुम्हें आदरपूर्वक, अनौपचारिक होकर ‘प्रिय सबीना’ कहते हुए पत्र लिखना जारी रखूँ. इसी पत्र में न जाने कब से मैं आप से तुम पर आ गया हूँ.
ट्रेन धीमी हो रही है. लगता है आगे पटरियों पर कुछ रुकावट है. यह लगभग ऐसा है जैसे ट्रेन भी मेरी तरह कुछ झिझक रही है. एक घंटे पहले, मुझे चिंता यह हो रही थी कि ट्रेन छूट गई तो घर कैसे पहुँचूँगा. या ट्रेन लेट हो गई तो मुझे घर पहुँचते-पहुँचते कितनी देर हो जाएगी. मगर अब यदि यह ट्रेन रुक जाती है या वापस उस तरफ़ चलने लगती है जिधर से आई है तो मुझे ख़ुशी होगी.
लेकिन मैं अपनी कल्पना का संग छोड़ नहीं देना चाहता और एक किशोर की तरह दिवास्वप्न देखना जारी रखता हूँ. जैसा कि मैंने कहा, मैं हमेशा स्वप्नदर्शी रहा हूँ. आप अपने सपनों में जो चाहते हैं वह घटित हो सकता है. अपने सपनों में आपको कुछ भी स्पष्टीकरण देने की भी ज़रूरत नहीं है. वहाँ कोई सवाल भी नहीं करता क्योंकि कोई जवाब नहीं हैं. सपनों में उम्र नहीं होती. हम हमेशा जवान बने रह सकते हैं. और ख़ूबसूरत. मुझे पता है कि यहाँ मैं कुछ दयनीय लगने का जोखिम उठा रहा हूँ. यही बुढ़ापा है. हम कुछ भावनाओं को छुपाते हैं ताकि उन पर शर्मिंदा न होना पड़े. दरअसल, हम हास्यास्पद लगने से डरते हैं. लेकिन अब मुझे पता है कि मेरा समय लगभग समाप्त हो रहा है, तो मैं इस प्रबल बेख़याली में बँधकर जीवन में बह रहा हूँ कि एक अप्रत्याशित ख़ुशी के लिए मुझे शायद इतना अधिकार है कि मैं अभी किसी प्रेम में पड़ सकूँ.
क्या मैंने यह सब बताकर तुम्हें कोई ठेस पहुँचाई है कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ? तुम्हें जवाब देने की ज़रूरत नहीं है. विदा का वह चुंबन अविस्मरणीय है. मैं यह अहसास करने से ख़ुद को रोक नहीं पा रहा हूँ कि वास्तव में मेरे साथ कितना कुछ सुंदर घटित हुआ है.
याद आ रहा है कि प्लेटफ़ॉर्म पर तुम्हें बताया था कि मैंने अपने पोते से यह वायदा किया था कि उसके जन्मदिन के केक की मोमबत्तियाँ फूँकने के लिए मैं ठीक समय पर वापस पहुँच जाऊँगा. वह बहुत प्यारा छोटा-सा बच्चा है. हमारे परिवार, पीढ़ी दर पीढ़ी बेहतर और बेहतर होते जाते हैं. घर से निकलते समय उसने मुझे आज सुबह यह सिक्का दिया था. वह नहीं चाहता था कि मैं बाहर जाऊँ. मैंने उसे समझाया- “मुझे काम पर जाना है ताकि तुम्हारे जन्मदिन के लिए एक अच्छा उपहार ख़रीदने के लिए कुछ पैसे कमा सकूँ.” लेकिन जब मैं बाहर निकल रहा था तो मैंने देखा कि मुझे कुछ देने के लिए उसने अपना हाथ बढ़ाया. उसने अपनी मुट्ठी खोली और उसमें यह सिक्का था.
वह नहीं चाहता था कि मैं उसे छोड़कर जाऊँ.
(इरमान्नो ओलमी, केन लोच, अब्बास कियारोस्तामी. इन तीन प्रसिद्ध निदेशकों ने मिलकर एक फ़िल्म बनाई- टिकिट्स, 2005. एक ट्रेन यात्रा में तीन अनुभवों को लेकर. तीन अलग प्रसंग, ट्रेन एक. इसका पहला हिस्सा (इरमान्नो ओलमी द्वारा निदेशित) एक उम्रदराज़ अतिथि प्रोफ़ेसर के मन में प्रस्फुटित, उस सुंदर, सद्व्यवहारी महिला के प्रति उत्पन्न प्रेम भावना को लेकर है, जो उन्हें प्लेटफ़ॉर्म पर विदा देने आई थी ताकि ट्रेन में उनकी आरामदायक, आरक्षित यात्रा सुनिश्चित की जा सके. प्रोफ़ेसर रेल में बैठकर उन प्रसंगों, भावनाओं और बातचीत को शालीनता से लिखकर पत्र द्वारा मेल करना चाहते हैं, जिसने उनके ह्दय में प्रेम का संचार कर दिया है. यह पत्र भेजा नहीं जाता है लेकिन एक स्वप्ननुमा वशीकरण जैसी स्थिति में संभव होता है.)
दो |
दुख की कथा चित्रकला की कविता में
इस तरह कहना कि वह संगीत हो जाए
(एक)
घर से उठती मृत्यु की गंध स्त्री के केशों में, दीवारों में, बाहर की घास और उस तरफ़ खिले पीले-हरे-नीले-लाल में समा रही है. और तुम्हारी नाड़ियों में. इस पैवस्त मृत्यु के अँधेरे को देखने के लिए प्रकाश नाम का यह उजाला बहुत दूर से आया है. लेकिन यहाँ के विकट अंधकार को देखकर, एक तरफ़ चुपचाप किवाड़ से टिककर खड़ा हो गया है. अब यही उसकी मातमपुर्सी का तरीक़ा है. अँधेरा यहाँ प्रकाश से मिलकर नयी संरचना बन गया है. जिसे जीवन की प्रागैतिहासिक कंदरा में मनुष्य की आदिवासी पीड़ा का अंकन करना है. धूसर-काले विषाद का सभी आयामों में चित्रण. प्रमाण की तरह नहीं, दिनचर्या की तरह.
एक भग्न कमरा, टूटी कुर्सियाँ, ज़ंग लगा दरवाज़ा और दीवार पर उखड़े, जर्जर पलस्तर से बने चेहरे इस कथा के प्रधान चरित्र हैं. लेकिन विषाद की खिड़की से बाहर गली में दिखते सच्चे फूल भी बनावटी दिखने लगते हैं. और मूक दर्शक होने की सज़ा में तुम्हारी निरीह तस्वीर इसकी विषादपूर्ण चौखट में सदैव के लिए क़ैद हो जाती है. तुम देखते हो कि कोने में टूटी तिपाई पर फूलदान में बैंगनी पुष्प रखे हुए हैं. वे मुरझाते चले जा रहे हैं.
जीवन की विशाल कलादीर्घा में, व्यथित माध्यम में बनी पेंटिंग्स की एक प्रदर्शनी है. अपनी स्थिरता में भी चलायमान. गतिशीलता में भी स्थिर. दुख से अनुप्राणित मनुष्य के मस्तिष्क का विन्यास. यहाँ आग की तस्वीर में आग का रंग है. आग का तापक्रम और अग्नि की आवाज़ है. यह दुख का चटकना है. प्रवासी होने के अनंतिम संकट का बयान है. निर्धनता के जबड़े में दासता भरे श्रमशील जीवन को शब्दों से परे अपनी तकलीफ़ व्यक्त करना है. चाक्षुस साक्ष्य होगा कि इसके लिए कितनी कलाओं को एक साथ, समवेत हो जाना है.
घर में ये सीढ़ियाँ किसी दुख की जगह से आ रही हैं. उनसे होकर किसी दुख की तरफ़ ही जाया जा सकता है. तकलीफ़ों पर रोशनी गिरती है तो जीवन के उदरस्थ घाव चमकने लगते हैं. आसपास के तमाम रंगों ने मेहनत करके अवसाद का इंद्रधनुष क्षितिज पर तान दिया है. इसके सारे रंग अवसादी हैं. उसी की छाया में रस्सी पर रंग-बिरंगे कपड़े सूखते हैं मगर इनसे किसी सुख का अनुमान लगाना जीवन का अपमान है. यह समूची सुंदरता जीवन के उच्छिष्ट से घिर गई है. शोकाकुल रहने के लिए विवश. बुदबुदाहट में व्यथा की निर्जर शृंखला चलती है. दुर्भाग्य की अब वह अवस्था है जो सामाजिकी की गलत चिकित्सा से क्रॉनिक होकर जीर्ण हो गई है. यह ध्वंस की अटूट चित्रकथा है. एक अनंत लौकिक शाप. विपन्नता और असहायता से बुना हुआ चक्रव्यूह जिसमें प्रविष्ट होने के बाद पता चलता है कि सुरक्षित निकास संभव नहीं. अभिमन्यु को याद किया जा सकता है.
सार्त्र को भी : ‘नो एगज़िट’.
धीरे-धीरे आविष्कार होता है कि यह अभिनय नहीं, यातना है. आँखों से अभिव्यक्ति का एक शिविर है. पश्चाताप का अनुसंधान समानांतर है. तब पता चलता है कि मठाधीश, पुजारी, पादरी या मुखिया हो जाने से संसार में न दुख दूर होता है, न संताप. न अन्याय. बल्कि हर बार नयी दिलासा ऐसे अपराध में बदल जाती है जिसे रोज़ नये ढंग से अंजाम देना एक नया पापकर्म है, नयी सज़ा है. नयी अनैतिकता. इसी की आत्मस्वीकृति के लिए जगह-जगह कोठरियाँ और कठघरे बनाये गए हैं- धर्मस्थलों पर, थानों में, जेलों और घरों में. शब्दों में और कलाओं में. इसी से मुक्ति की लिए सारे परिक्रमा पथ हैं.
रथयात्राएँ हैं. ध्वजारोहण हैं.
(दो)
ढलती शाम में चटख नीला व्याकुल कर देता है. गुलाबी चोट पहुँचाता है. नारंगी सब तरफ़ निराशा फैला देता है. हरा ऋतुओं को ऊष्ण कर देता है. सफ़ेद की शांति एक कोने में अपनी पताका फहराने की झंझावत भरी कोशिश करती है. निर्धनता ग़रीब आदमी पर रंगों का असर कुछ अलग तरह से करती है. लैम्प पोस्ट की रोशनी भी गलियारे के अँधेरे को कुछ दूर तक ही दूर करती है लेकिन विपन्नता के फैले अंधकार को कतई नहीं. तुम अवाक् सोचते हो यह लैम्प पोस्ट की सीमा है या रोशनी की.
क्या विषमता की भी कोई रोशनी हो सकती है?
दृश्य में क़रीब देखती यह दृष्टि, भविष्य के सुदूर रेगिस्तान को देख रही है. विपत्ति में शोक भी असहाय हो गया है. कोई प्रेम भूख से नहीं मरना चाहता. कोई अपने प्रेम को भूख से मरते नहीं देखना चाहता है. सबको दुख की परछाईं दिखती है लेकिन आदमी की उपस्थिति ओझल हो जाती है. छप्पर से, बँसवारी से छनकर आते उजाले में दुर्दिनों के चेहरे चमकते हैं. राजनीतिक प्रतीकों के बाद आखिर धार्मिक प्रतीक भी कीचड़ में गिर पड़ते हैं. उठाओ तो उठाये नहीं उठते. उठ भी जाएँ तो फिर वे प्रतीक नहीं रह जाते. एक सस्ती धातु या प्लास्टिक की हताशा में बदल जाते हैं.
ये एक के न होने के अभाव हैं. अनेक. जब शरीर के शेष अंग शिथिल होते हैं तो आँखों में बसे निर्वात को अभिव्यक्ति का बाक़ी रह गया वज़न उठाना पड़ता है. धधकती आग की संतप्त नीली लौ में यह जो लाल चमक रहा है: वह संताप का छींटा है. दुर्भाग्य निजी एकांतिक जगहों में, स्नानागार या शयनकक्ष में भी पीछा करता है. वेदना अकेले में ले जाकर इत्मीनान से शिकार करती है. जीवन का व्याकरण गवाह है कि एकवचन नष्ट होने से बहुवचन नष्ट हो जाता है.
खिड़की पर लगे परदे के पार देखने की कोशिश में उस तरफ़ का कुछ नहीं दिखता. सिर्फ़ परदे पर बने बेल-बूटे हवा में अन्यमनस्क लहराते हैं. ज़िंदगी, विपत्तियों के क़िलों की चहारदीवारों के बीच, पगडंडी पार करने में ख़त्म हो रही है. तुम इसके दर्शक हो और सोचते हो कि आख़िर यह सब क्या है? इसका जवाब शायद रात के अँधेरे में छिपा है. तुम सोचते हो शायद इस सवाल के भीतर निवास करती कोई आशा है. जवाब के लिए तुम चित्त होकर छत को स्थिर पुतलियों से घूरने लगते हो. फिर सोचते हो कि दुखों का यशस्वी जीवन अंधकार में ही गरिमापूर्ण रह सकता है.
क़ब्रिस्तान की राह में फूल और ग़ुलदस्ते याद दिलाते हैं कि कितनी चीज़ें, कितनी बातें इसी संसार में थीं, जो किसी के लिए कभी थीं ही नहीं. उनके लिए अलभ्य. इस क़दर सुदूर कि स्वप्न में भी नहीं. अब बरामदे में निचाट अकेली रह गई ख़ाली कुर्सी के बारे में कोई बात करना एक व्यर्थ कवायद होगी. दारुण और हास्यास्पद.
अंत में ख़ुद अपनी क़ब्र खोदते हुए थकान होने लगती है.
तब क़ब्र के भीतर ही एक किनारे बैठकर, कुछ देर सुस्ताना पड़ता है.
(पुर्तगाली फ़िल्मकार, निदेशक पेद्रो कोस्ता की ‘वितालीना वरेला-2019’- बात इतनी है कि दूर देश में एक स्त्री का श्रमिक पति गुज़र जाता है. उसकी पत्नी वितालीना वरेला वहाँ पहुँचकर उन विपन्न, कठिन स्थितियों का जायज़ा लेती है जिनका सामना करते हुए, एक निर्धन मनुष्य अपनी तमाम अधूरी इच्छाओं के साथ, इस संसार से असमय चला गया है. यह लंबा आत्मालाप, अनंतिम संताप और विलाप है. विचलित करनेवाला अविचलित अवसाद.)
तीन |
सैल्युलोइड के
ताड़-पत्र पर कविता
(एक)
जहाँ तुम कभी गए नहीं, जहाँ तुम कभी रहे ही नहीं, जिन लोगों से तुम कभी मिले नहीं, जिन लोगों को तुम जानते ही नहीं, उन जगहों, उन लोगों को भूल कैसे सकते हो?
”माँ कहाँ है?”
”हमेशा की तरह क़ब्र में लेटी है. तुम्हारा इंतज़ार कर रही है कि तुम उसे दफ़ना सको.”
”यह युद्ध कब ख़त्म होगा?”
”कौन-सा युद्ध”
”जीवन.”
”मैं तुम्हारी खोज में भटक रहा हूँ जिसे मैं जानता नहीं. जिसे मैंने कभी देखा नहीं. तुम जो मेरी प्रतीक्षा में हो.”
”मुझे भय है कि मैं प्रेम का अनुभव लिए बिना ही मर जाऊँगी, बाक़ी कोई भय नहीं है.”
”तुम कहाँ से आए हो? तुम क्या खोजते हो?”
”जिन जगहों से तुम गुज़र रहे हो मगर देख नहीं रहे हो, जबकि यही असल दुनिया है. धरती है.”
(दो)
माँ जो हमेशा की तरह बेटे की भूख और बेहतरी के लिए चिंतित है. संतान की लापरवाही, अराजकता और अवहेलना में भी उस पर असंदिग्ध, प्रेमिल विश्वास है. अंतिम श्वास तक. उसी बीमार माँ से व्यर्थ खीझा हुआ ख़ामख़याली में डूबा नायक, अपनी महिला मित्र को अपशब्द कहे जाने पर तैश में गाली देनेवाले की हत्या करता है और अपनी जान बचाने के लिए भागता है. इस दरम्यान उन तीन स्त्रियों से सामना होता है जो अपने पिता, पति, भाई से सताई हुई हैं. तब पता चलता है मानो संसार में संतप्त प्रत्येक स्त्री का नाम एक ही है- इलाहा. पुरुष शक्ति संरचना की अनवरत यातना ने और प्रेमाभाव ने उन सबको निर्जीव और हताश बना दिया है. लेकिन किसी का ज़रा सहज व्यवहार, सहयोग, दुलार, आश्वस्तिदायक स्पर्श उनमें इतना साहस भर देता है कि वे अपने-अपने आततायियों, पिता और पति, की हत्या कर देती हैं.
तीसरी ख़ुद को गोली मार लेती है क्योंकि जीवन में किसी एक क्षण में, एक बार अपना समूचा दुख, अपनी कथा किसी से कह सकना ही जीवन का चरम सुख प्राप्त कर लेना है. भले फिर वह जीवन का अंतिम क्षण ही क्यों न हो. जैसे उस तकलीफ़ को कह देने से जीवन संपूर्ण हो गया. यह चेख़ोवियन तरीक़ा है. यह दुस्साहस नहीं, बड़ा साहस है.
(तीन)
यह मरण, यह आत्महत्या, ये हत्याएँ पंगु समाज की मुश्किलें हैं. यह सामाजिक दारुण दासता से मुक्ति और असंभव प्रेम की कामनाएँ है. सहनशीलता के सन्निपात में आत्मालापी वार्तालाप. एक छटपटाहट, एक बुदबुदाहट जो बची-खुची जिजीविषा को चादर की तरह ओढ़ लेना चाहती है. जहाँ प्रेम करना, जिसे प्रेम किया जा रहा है, उसके लिए दुख का कारण है. संवेदित तंतुवाद्य का हृदय को दो फाँक करता अवसाद भरा संगीत. अन्वेषी स्वप्निल यात्रा में आप लोगों को बचाना चाहते हैं मगर लोग बचते नहीं हैं. प्रेमाभाव ने उन्हें अभिशप्त कर दिया है. लेकिन जब विवश की जा रही स्त्री मृत्यु का ख़तरा उठाते हुए अपनी सफ़ेद पोशाक से स्कॉर्फ निकाल फेंक हवा में विलीन करती है तो स्क्रीन पर, दृश्य में और दृश्य से बाहर, सर्वत्र एक राहत फैल जाती है. अब धीमी बारिश की तरह बूँद-बूँद रिसता हुआ, कामनाओं के रोग निवारण के लिए अमृतासव चाहिए. यह स्वतंत्र प्रेम की वाष्प से आसवित हो रहा है.
यह किसी रहस्यमयी आभा से गुज़रना है. धुंध और अर्धप्रकाश में. यह छिपी चीज़ों को रोशन करता है. विडंबनाओं पर तर्जनी रखता है. कि तुम इस अमानवीय समाज में अपने दिल के बारे में, आत्मा, संवेदना, प्यार, अस्तित्व और अपनी उपस्थित अनुपस्थिति के बारे में पूछने पर भी तब तक कुछ मत बताना जब तक तुम कोहरे में न खो जाओ, जब तक पर्वत अविचल हैं, जब तक तुम्हें अपने सिर के ऊपर आकाश दिखता हो और कह देने की मारक अनिवार्यता न हो.
विश्वास करो कि उजाड़ में खड़े वृक्ष की उदासी
और आश्वस्ति तुम्हारे साथ है.
(चार)
इस स्त्री का पति विवाह के दिन ही युद्ध में चला गया है. देश को युद्ध में झोंक दोगे तो किसी का कोई व्यक्तिगत जीवन नहीं. अब अपने शेष जीवन में वह स्त्री ऐसे आदमी का इंतज़ार करती है जिसे उसने कभी देखा नहीं. एक बंद समाज में स्त्री के पास प्रतीक्षा के अलावा क्या है. एकाकी बस्ती में एकाकी घर. इन मरहलों से गुज़रते हुए हासिल होता है कि ज़िंदगी का कुल उद्देश्य, अर्थ और एक स्वप्न हो सकता है: प्रेम. लेकिन पुरातन कथा की तरह हज़ारों बंद दरवाज़े तुम्हारे सामने हैं. और तुम नहीं जानते कि उनके पीछे क्या है. तुम नहीं जानते कि तुम्हारे लिए कौन-सा दरवाज़ा है.
प्रेम ही है जो असफल होकर भी अपनी आवश्यकता बनाए रखता है. और उस चीज़ की तरह छलावा देता है जिसे तुम अपनी गिरफ़्त में मानते हो.
जो है भी लेकिन नहीं है.
(हिलाल बायदारोफ़ अज़रबैजान से हैं. उनकी ‘इन बिटवीन डाईइंग’ 2020 फ़िल्म सामंती, पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के तकलीफ़ भरे मानस को ईसीजी की तरह दर्ज करती है. फ़ंतासी और यथार्थ के संतुलन से वे सैल्युलोइड पर एक गझिन कविता लिखते हैं. अपने अधिकांश में यह अज्ञात, अनुपस्थित लेकिन आकांक्षी प्रेम की खोज है.)
कुमार अम्बुज जन्म: 13 अप्रैल 1957, ग्राम मँगवार, ज़िला गुना प्रकाशित कृतियाँ-कविता संग्रह: ‘किवाड़’-1992, ‘क्रूरता’-1996, ‘अनंतिम’-1998, ‘अतिक्रमण’-2002, ‘अमीरी रेखा’-2011, ‘उपशीर्षक’- 2022. कविताओं का चयन ‘कवि ने कहा’-2012, किताबघर से. राजकमल प्रकाशन से ‘प्रतिनिधि कविताएँ’- 2014.कहानी और अन्य गद्य: ‘इच्छाएँ’-2008.‘थलचर’- 2016.‘मनुष्य का अवकाश’-2020.कहानी संग्रह: ‘मज़ाक़’ और चयनित फ़िल्मों पर निबंधों का संकलन ‘आँसुओं का स्वाद’ शीघ्र प्रकाश्य.‘वसुधा’ कवितांक-1994 का संपादन. गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’- 2002 का नियोजन एवं संपादन. अनेक वैचारिक बुलेटिन्स और पुस्तिकाओं का भी प्रकाशन, संपादन. हिन्दी कविता के प्रतिनिधि संकलनों एवं कुछ पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल. साहित्य की शीर्ष संस्थाओं में काव्यपाठ, बातचीत तथा वक्तव्य. कविताओं के कुछ भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद तथा संकलनों में कविताएँ चयनित.कवि द्वारा भी कुछ चर्चित कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित. ‘विश्व सिनेमा’ से कुछ प्रिय फ़िल्मों पर अनियत लेखन. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार(1988), माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,(1992), वागीश्वरी पुरस्कार(1997), श्रीकांत वर्मा सम्मान(1998), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान(1998), केदार सम्मान(2000). संप्रति निवास- भोपाल. |
समालोचन पढ़ सका । सिनेमा के माध्यम से अँधेरे और मिथ्या अवधारणा से बाहर निकालने की कोशिश है । अंबुज जी बेहोशी से जगाने की कोशिश करते हैं । वैश्विक समाज में अँधेरा है । ग़रीबी सर्वव्यापी है । छले जाने का दुख है । माँ अपनी क़ब्र पर मिट्टी डाले जाने का इंतज़ार करती है । पहली कहानी में कल्पना में सुख ढूँढने की कोशिश है । स्पष्टीकरण दिया है ।
अद्भुत व्याख्या.
आख्यान के शिल्प में।आख्यान परत दर परत खुलता हुआ।
देखने से अमूर्त सिनेमाई जगत बेहतर खुलेगा।
पढ़ते हुए बस महसूस किया जाने वाला गद्य।बहुत कोशिश के बाद भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के शब्द मेरे सामर्थ्य में ही नहीं। गंभीर और उम्दा रचनात्मकता के लिए आमंत्रण देता है लेकिन सबके बस में सब कुछ होता नहीं। बहुत शुभकामनाएं।
कुमार अम्बुज का गद्य पढ़ना शुरू करता हूं तो मैं किसी दूसरे लोक में चला जाता हूं। वह लोक अनजाना और अचीन्हा होता है। दुःख, करुणा और प्रेम की यहां की दुनिया इतनी मर्मांतक होती है कि वह सह्य नहीं होता । एक लहूलुहान सी स्थिति हो जाती हैं-एक चीत्कार भरा रुदन सुनाई देने लगता है।
लगता है क्या हम इसी देश -दुनिया के नागरिक हैं जहां एक तरफ लिप्सा है, स्वार्थ है और दूसरी तरफ एक अटूट हार्दिकता है, जिसका हिस्सा हम होना चाहते हैं, पर हो नहीं पाते।
ऐसी लाजवाब व्याख्या कि पाठक अवाक छूट जाए।