इस काव्य प्रस्तुति के बारे में कुछेक बातें
कविताएँ पढ़ना शुरू करें उसके पहले कहना चाहता हूँ कि मैंने 14 कविताओं को उनके भावबोध-मूड और कह लीजिए प्रविधि में आते शिफ्ट को आँकते हुए चार चैप्टरों में बाँटा है. पहले चैप्टर में केवल एक कविता है जो गद्यशील है. दूसरे चैप्टर में राग-विराग सम्बंधी पाँच कविताएँ हैं जो लयोन्मुख हैं. तीसरे चैप्टर में सात कविताएँ हैं जिनमें बहुश्रुत आंतरिक लय तो है ही, बाह्य लय भी है और अधिकांश कविताओं को संप्रेष्य प्रवहमानता के साथ पढ़ा जा सकता है. तीसरे चैप्टर की कविताओं में मुक्त लय ही नहीं उन्मुक्ति का अछोर भी हैं- इसलिए, ये उन्मुक्तक हैं. लयोन्मुख गद्यशील उन्मुक्तक में बाज़ दफ़ा विपथित सॉनेटीयता का आत्मन् दिख सकता है. इस अर्धस्वतंत्र लैडस्केप में निर्बंध इश्क़ की सूफ़ियाना अपराइज़िंग के नाम है चौथा चैप्टर. इस चैप्टर की एक मात्र कविता इश्क़िया को लिखते हुए यह भी लगा कि हिंदी की शब्दसंपदा अक्षय्य है जिसकी ओर समकालीन कविता का कम ही ध्यान जाता है. और, इसमें क्या दो मत कि नये शब्द नयी युनिवर्स लेकर आते हैं.
देप्रमि
पहला अध्याय |
पंद्रह अगस्त के आसपास का अगस्त
पंद्रह अगस्त को देश आज़ाद जैसी कोई चीज़ हुआ
उसी के आसपास मैं पैदा हुआ
जन्म के समय मेरे पाँव पहले आये – आम राय थी
भटकता रहेगा बशर
दर ब दर
नदियों की तरह मैं
शहरों और शिल्पों और वस्तुओं को
छोड़ देने का
वानप्रस्थ था
घूमता हुआ मैं
इतना थका, बेज़ार और उदास होता था
कि बेंच देखकर मैं खुश हो जाता था –
मेरी कुंडली तक में था कि ख़ाली जगह देखकर
मैं लेट जाया करूँगा और स्वप्न देखने लगूँगा
नदी किनारे बैठकर या राइटर्स रेजिडेंसी में लिखी जाती
कविताओं के कुटिल रहस्यवाद को जन शून्य अध्यात्मवाद और उसके फूल पत्तीवाद को मैंने जल्दी ही जान लिया उससे भी जल्दी मैंने फाड़ दी समकालीन कविता की स्टाइल शीट
जिसमें फैला था प्रगतिशील चेतना के अवचेतन का लालसावाद
प्रेम बाज़ दफ़ा फँसाव लगता था
और आधी रात सुख से भाग लेना
किसी खोज में तबदील होता भी था या नहीं
पता नहीं बुद्ध ने
दुःख का कारण तृष्णा बताकर
ज्ञान के उद्योग की संभावनाएँ लगभग ख़त्म कर दी थीं
भूख मुझे हर दफ़ा उतनी ही मौलिक लगती थी
प्रेम भी हर बार उतना ही आदिम
मैंने हिंदी के महानतम कवि की बात नहीं मानी कि
अब लौं नसानी अब न नसैहों. अब तक गँवाया अब और नहीं.
मैंने ख़ुद को नष्ट करना जारी रखा
मैं सीन के कोने में पड़ा एक्स्ट्रा था
सुपरस्टारों की छुट्टी कर देने की संभावना से भरा
मेरे पास शाप थे
और तिब्बत से सिध्दों की पांडुलिपियाँ
खच्चरों पर लेकर लौटते राहुल सांकृत्यायन की तरह
कई मन वृत्तांत संस्मरणों से आक्रांत
संक्षिप्त मैं हो नहीं सकता था
मैं देखता रहा दुनिया के सबसे जटिल दृश्य – आप्रवास से बनती सभ्यताएँ डूबती नावें कुछ न कर पातीं निरुपाय कविताएँ
मेरी गुहारों के कितने ही जहाज डूबते रहे
मार्क्सवाद का मैं इलाहाबादी उत्पात था
प्रेम के बदले मृत्यु और मृत्यु के बदले प्रेम की सतत माँग था
अनीश्वरवाद के दशाश्वमेध घाट का मैं बड़ा नहान था
दो मुर्दे जहाँ उठा रहे थे तीसरे मुर्दे को
उस जनाज़े का मैं निठल्लापन था
मुझ पर इसलिए फ़ब्तियाँ कसी गईं कि मैंने साँस ली
वैचारिक फ़िरकापरस्ती की मॉर्चुअरी में
हिंदी के गैंगवार में न मिटती यातना
मैं ही था न
दुनिया की दो सबसे पवित्र नदियों के बीच
ब्राह्मणत्व की अकाल और प्रफुल्ल मृत्यु
आत्मा से न निकलता खंजर
बंजर सवर्ण दोआब की उर्वरता का
सतत पश्चाताप
अविभाज्य मनुष्यता का मैं विकल नस्लवाद
और दुर्वह प्रेम का विक्षिप्त उन्माद
ज्ञानवापी को ज्ञान के हवाले करने की अर्ज़ियाँ लिखता हुआ
आज़ाद देश में मैं स्वतंत्र होने की कोशिश करता था
और क़ैदख़ानों में घूमता था देश एक
उपनिवेश था इसका और उसका और किसका
दिमाग़ इसलिए हमेशा रहता था खिसका
यह राष्ट्र किसी की रियासत था और मेरी हिरासत था
सांसत था लोकतंत्र
अपने एक का अनेक होता कोरस
बुद्ध का मैं युद्ध था
अहिंसा का फाड़ा गया पोस्टर
मैं जानता था कुछ भी सारतत्व जैसा नहीं था –
हर वस्तु में हर वस्तु का कोई न कोई अंश था
इसलिए पारस्परिक होना
प्राकृतिक आदिम और आधुनिक होना था
मेरे पास प्रागैतिहासिक क्रोध था
और ताक़तवर को घूरने का ऐतिहासिक हुनर
मणिकर्णिका की तरह मैं सुलगता रहता था
ध्वस्तीकरण की बाबा विश्वनाथ कॉरीडोर की
समकालीनता में
दूसरा अध्याय |
सृजन
नये नये पत्ते आने की ऋतु में अम्मां
पिता को बाहों में लेती हैं
सई के तट पर
निखरहरी खटिया पर फटही कथरी पर
प्रत्याशा से भरा हुआ सुख
आगत के अनुमानों से जो लदा फंदा
स्वेद लार में और वीर्य में
रति में मैं परिकल्पित होता-
वासना की आतुरता
सृजन की बड़ी कल्पना
मेरा यह आरंभ कृतज्ञ हूँ
दुख में और अँधेरे में माँ
पिता पूछते घूम रहे हैं पुरखे
संततियाँ क्यों भटक रही हैं
पीढ़ियाँ क्यों ठिठकी हैं
रास्ते रुँधे हुए क्यों
असमता क्यों न होती कम
ज्ञान क्यों इतना है निरुपाय
समूहों में क्यों इतना मतिभ्रम
अधिक अधिकारहीन क्यों
ज़ख्म
तोड़ा क्यों मुझे
याद ऐसी है कि सर्दी में खुली इस पीठ पर
मारता कोड़ा
कोई
क्यों विषम तुम क्यों अगम तुम
तुम ही तुम के पोस्टर अलगाव के
बदलाव के भी आत्मा के
देह के उद्देश्य सुख थे या कि दुख थे
या हमें जाना था इनके पार
सार क्या था
भार क्या था
जो नहीं होता था हल्का
आत्मा के ज़ख्म थे
जो नज़्म थे
न आओ
न आओ
आ गईँ तो जो अपरिमित हो उठे कितना तो सीमित
इस समय तो बाँह में सारा जहाँ
न आओ
चली जाओ दूर ज्यादा
और हो जाओ अगाता
तुम अगाधा विगत गाथा
जब नहीं हो तब बहुत हो
जो अपरिमित क्यों हो सीमित
राह तुम तक नहीं पहुँची आह
दाह गहरा चाह गहरी
थाह क्यों मिलती नहीं है
राह
जी विकल
सजल होकर हो गया पत्थर
वासना में हूँ अजर यदि
प्रेम में हूँ मैं अमर
याद
याद तुम्हारी बहुत आ रही
लेकिन फोन अगर होगा तो झगड़ा होगा
मिट्टी अलग अलग है हमारी निर्मितियों की
अगर सख्त मैं नहीं तो कह दूँ नहीं देखती हो तुम पीछे
बढ़ती ही जाती हो आगे ठहरती कहीं नहीं हो
ठीक गा रही हैं जीना* कि गैस चेंबर
प्रेम
शहर में जलता
हुआ मकान
धारदार एक ब्लेड
स्लोमोशन का सीन होटल पर
गिरा हुआ एक बम
आसमां आग
विषभरी आइसक्रीम
तुमसे लेकिन मुक्त नहीं मैं हो पाता हूँ
दिख जाती हो तुम क़िस्सा फिर वही पुराना
नयी शक्ल में दिखने लगता घबराता जी
पता नहीं क्या होने लगता
ढोने लगता भार कि वो जो
न उठ पाए
शिला
हिला पाए है बंदा कौन
मीर का
इश्क़ का पत्थर
दोहराता सुख ख़ुद को फिर दुख छाने लगता
चेहरा दिखता उससे ज्यादा पीठ दीखती
तुम्हारे नये प्रेम की अफ़वाहें हर ओर गूँजतीं
हवा भारी हो जाती
संस्मरण हाथी पाँव
थका
मैं
इश्क़
अथक
है
*इटली की महान् पॉप गायिका. तिर्यक अक्षरों में अंकित ये लाइनें उनके एक गीत का बेहद स्वतंत्र भावानुवाद हैं.
सब में तू ही
Truths only come from ruptures of situations, that is, from events.
– Alain Badiou, Being and Event 1
चली गई हो तुम सन्नाटा छोड़ गई हो
लंबा है दालान जहाँ सूखे पत्ते हैं
और कोई तकलीफ़ जहाँ घूमा करती है
काँपती बहुत देह है
याद आते हैं
दिन वे रातें
कौन चाहता था सोना बस होना ही काफ़ी होता था
इच्छाओं ने सुख देकर भ्रम में डाला था
अब तृष्णा है, बुद्ध, कहाँ हो
बहुत विकल हूँ कई तरह के मोह और दुख का जाला है
इच्छाओं को क्षमा, बुद्ध, मैं नष्ट नहीं कर पाऊँगा
मोड़ मैं उनको दूँगा
इश्क़ का बड़ा दायरा होगा
तू ही तू ही दिखे सभी में
सकल जगत में तू ही तू
सब में तू ही दिखे तो फिर यह
देहवाद न हो करके अद्वैतवाद हो*
अगर इजाज़त दें तो कह दूँ
इश्क़ जहाँ से करने वाला साम्यवाद हो
*सा सा सा सा जगति सकले कोsयं अद्वैतवाद:
तीसरा अध्याय |
यदि यह धरती सबकी है तो इसमें मेरा प्लॉट कहाँ है
यदि यह धरती सबकी है तो इसमें मेरा प्लॉट कहाँ है
स्लम में क्यों है मेरा झोपड़
फटे हुए तंबू में क्यों हूँ
क्यों हूँ मैं शंबूक मिथक का
सब कुछ मुझे बदलना है पर मेरी वो बंदूक़ कहाँ है
क्यों मेरी ही साँस फूलती
क्यों मुझको चक्कर आता है
क्यों हूँ भूखा क्यों प्यासा हूँ
क्यों उखड़ी उखड़ी भाषा हूँ
दो हाथों और दो पैरों और दो आँखों और
चक्कर खाते सिर वाला मैं एक मनुष्य अच्छा ख़ासा हूँ
सतत हार का क्यों पाँसा हूँ
यदि यह धरती सबकी है तो इसमें मेरा प्लॉट कहाँ है
मुझे मिली आ..आज़ादी का शाद कहाँ आज़ाद कहाँ है
नाद कहाँ अनुनाद कहाँ है
साफ़ नदी का पाट कहाँ है
लेटा हूँ मैं फटे टाट पर
एक पेड़ के नीचे मेरी नींद कहाँ है खाट कहाँ है
देश मेरा है पर यह किसका उपनिवेश है
खाने की यह मेज़ अगर लंबी कर लें और चौड़ी कर लें
तुझे हटाकर देखा ईश्वर, सत्य मिल गया हेतु मिल गया
सेतु मिल गया आभासी का ठोस मिल गया रोष मिल गया
जो ओझल था दोष मिल गया होश मिल गया जोश मिल गया
ईश्वर को मैं खोजन निकला
झाड़ी के पीछे निकला ख़रगोश मिल गया
ईश्वर है या नहीं कौन यह जाने लेकिन नदियाँ तो हैं
जिनसे कितने प्यासे पानी पी सकते हैं
इस पृथ्वी पर बहुत जगह है
खाने की यह मेज़ अगर लंबी कर लें और
चौड़ी कर लें कितने भी हों भूखे सब ही खा सकते हैं
ईश्वर जो कुछ नहीं कर सका बंदे वह सब कर सकते हैं
किस तरह हम बन गये हैं इस तरह
किस तरह का आदमी हूँ जानना चाहा तो जाना-
बस पकड़ने की प्रतीक्षा
में खड़ा ही रह गया मैं इस तरह कि
मिल गई बस तो मुझे मंज़िल मिलेगी झूठ था तो
क्यों नहीं पूछा ये मैंने क्यों खड़ा हूँ क्या मेरा गंतव्य है
प्राप्तव्य है ले चलेगी बस कहाँ मुझको किधर से
क्यों यहाँ हूँ या वहाँ हूँ मैं जहाँ हूँ यात्राएँ हैं ये कैसी
अर्थ क्या है व्यर्थ क्या है क्यों नहीं मैं जान पाता
क्या ख़ुदी है
किस तरह निर्मित हुए हम किस तरह निर्मित हुए वे
किस तरह हम बन गये हैं इस तरह
कुछ भी हो सकता है
कुछ भी हो सकता है मसलन पुलिस आपके घर आ जाए
पूछे यह कि क्या लिखते हो क्यों लिखते हो इससे या
उससे मिलते हो क्या ताक़त को नहीं जानते
क्या सत्ता का भान नहीं है
सज़ा किसको कहते हैं
यह तो मालूम होगा कि जब हत्या होगी
कोई पकड़ा नहीं जाएगा
उठाकर ले जाएंगे
अर्णउवा बदनाम करेगा
रहना मुश्किल हो जाएगा
आज़ादी और लोकतंत्र और संविधान ये विज्ञापन हैं
असल चीज़ है कड़ा नियंत्रण एकतंत्र का प्रजातंत्र के
बहुत भव्य ढाँचे में जिसमें पूँजी का संरक्षण हो व
विपुल विपन्नता का व्यापक और समतामूलक वितरण
घृणा का हिंसा का
मिशन : नागरिक निरक्षर
संकट में रहता हूँ तो संकट कहता हूँ
होगा कुछ तो होगा मैं बकता रहता हूँ
पृथ्वी के कोने में बैठा सुतली को बँटता रहता हूँ-
तानाशाह इसी में बांधे जाएँगे
पृथ्वी किसका उपनिवेश है
पृथ्वी किसका उपनिवेश है क्यों वह अब बीमार बहुत है
ख़ाली है आकाश तितलियों की स्मृति का यह उजाड़ है
सूखे आँसू जैसे नदियों के प्रवाह-पथ
ख़त्म कर रहे प्रकृति अडाणी जिंदल मित्तल
नदियों को रोका जाता है स्त्री की इच्छा पर
कितने बाँध बने हैं न्याय का मिलना मुश्किल
तानाशाह थका है लेकिन
न्यायपालिका का वह ही अध्यक्ष वक्ष पर
पत्थर गिरते तोड़े जाते परबत के.
पत्त्ते मेरा वस्त्र बाँह पर चिड़ियाँ बैठी हैं
घूमता नावों में मैं
ध्रुव से शुरू हुई उस ध्रुव तक नीली नीली हरी नदी में
गाता हुआ गीत मैं भटका
प्रिया, तुम आ ही जाओ – देखा यह सपना जागा तो
देखा उजली सुबह हो गई
अंधकार था गहरा लेकिन
भाषा के और वन के कटने की प्रतिध्वनियाँ
चेखव, मेरी बगिया मेरे लोकतंत्र मेरी ज़बान पर यह प्रहार है
कुल्हाड़ी की आवाज़ें गूँज रही हैं प्रजातंत्र के एकतंत्र में
मौलिकता
मौलिकता
विस्फोट नहीं है
साँस हर मौलिक है
उठाना हाथ
देखना आता हुआ मनुष्य
बहुत ही मौलिक है
रात के नीरव क्षण में हम अपना अपराध जान लें
मौलिकता है
चाय चढ़ाना
जाति छोड़ना
अनीश्वरवादी होना
जैसा मैंने कहा हर दफ़ा
भूख बहुत मौलिक लगती है
दुनिया
कूड़ा बीन रही है जो और
रिक्शा चला रहा है जो और ईँटें उठा रहा है जो और
पटरी बिछा रहा है जो और सड़कें बना रहा है जो और
टेंपो चला रहा है जो और
लक्क़ड़ चीर रहा है जो और
लोहा गला रहा है जो और
जेब काटने निकला है जो भीख माँगता स्टेशन पर जो
पुलिस कस्टडी में पिटता जो अक्षर नहीं चीन्ह पाता जो
ग्राहक को जो जोह रही वो
साहिर जिसका नाम हुआ वो
बोल नहीं पाता है वो जो –
इन सब की इच्छा है कि यह
सिस्टम बदले भाषा बदले कविता बदले मानुष बदले
दुनिया बदले
चौथा अध्याय |
इश्क़िया
इश्क़ था
दोज़ख़ था या वो बहिश्त था
बा-ग़ैरत या बे-ग़ैरत था
जान लिए जाता था जो था
मरने में जीने का हक़ था
हद था तो वो क्यों बे-हद था
ज़र्रा क्यों कहिए परबत था
इतना ऊँचा तो क़द था
कि आदमक़द था
तुम्हीं सत्य थीं तुम्हीं झूठ थीं तुम्हीं जोड़ और तुम्हीं टूट थीं
तुम्हीं ख़ज़ाना तुम्हीं लूट थीं तुम्हीं तृप्ति और तुम्हीं भूख थीं
तुम्हीं सूझ और तुम्हीं चूक थीं तुम्हीं चुप्प और तुम्हीं कूक थीं
तुम्हीं शूल और तुम्हीं हूक थीं तुम्हीं वचन और तुम्हीं मूक थीं
आँधी पानी तुम्हीं फूँक थीं
तुम्हीं नास्ति और तुम्हीं अस्ति थीं
तुम्हीं रिक्ति और तुम्हीं उक्ति थीं
तुम उचाट और तुम्हीं भक्ति थीं
तुम्हीं निराकृति तुम्हीं व्यक्ति थीं
दिशाहीन और तुम्हीं युक्ति थीं
तुम्हीं जेल और तुम्हीं मुक्ति थीं
तुम्हीं वाद और तुम विवाद थीं तुम बंजर और तुम्हीं खाद थीं
नीरव तुम और तुम्हीं नाद थीं तुम विस्मृति और तुम्हीं याद थीं
तुम कड़वाहट तुम्हीं स्वाद थीं
तुम्हीं होश और तुम ही रम थीं बेदम तुम थीं तुम ही श्रम थीं
तुम्हीं रौशनी तुम ही तम थीं ज्यादा थीं तो तुम ही कम थीं
तुम सूखा और तुम ही नम थीं
तुम पानी और तुम्हीं रक्त थीं तुम्हीं कौंध और तुम अशक्त थीं
तुम्हीं समूची तुम विभक्त थीं गुह्य बहुत और बहुत व्यक्त थीं
तुम्हीं छाँह और तुम्हीं धूप थीं
तुम अरूप और तुम्हीं रूप थीं
तुम्हीं सन्न और तुम्हीं अन्न थीं अफ़सुर्दा और तुम्हीं टन्न थीं
तुम विलाप थीं तुम प्रसन्न थीं तुम मदमस्ती तुम्हीं खिन्न थीं
तुम प्रवाह और तुम्हीं आह थीं तुम्हीं बाड़ और तुम्हीं राह थीं
तुम उदास और तुम्हीं वाह थीं तुम विरक्ति और तुम्हीं चाह थीं
तुम्हीं ओट और तुम्हीं चोट थीं तुम्हीं पूर्णता तुम्हीं खोट थीं
तुम्हीं मोह और तुम्हीं ओह थीं तुम्हीं खेत और तुम्हीं खोह थीं
तुम्हीं थीं ग़ायब तुम्हीं टोह थीं
तुम पत्थर और तुम्हीं काँच थीं तुम्हीं बर्फ़ और तुम्हीं आँच थीं
तुम्हीं थकन और तुम्हीं नाच थीं सन्नाटा तुम तुम्हीं बाँच थीं
तुम्हीं चार और तुम्हीं पाँच थीं तुम्हीं अनृत और तुम्हीं साँच थीं
तुम सोना और तुम पीतल थीं तुम बबूल थीं तुम पीपल थी
तुम तत्सम थीं तुम तद्भव थीं बाँझ और तुम ही उद्भव थीं
तुम्ही ख़ात्मा तुम संभव थीं तुम्हीं परंपरा तुम अभिनव थीं
तुम्हीं मृत्यु और तुम्हीं जान थीं तुम्हीं शोक और तुम्हीं तान थीं
लक्ष्यहीन और तुम्हीं बान थीं
तुम किताब थीं तुम हिजाब थीं तुम सुकून और तुम इताब थीं
अगर ये कह दूँ तुम शराब थीं बहती जमुना तुम चिनाब थीं
तुम गौरैया तुम उकाब थीं तुम सवाब थीं तुम अज़ाब थीं
तुम सवाल और तुम जवाब थीं तुम ग़ुमनामी तुम ख़िताब थीं
तुम तनाव थीं तुम बहाव थीं तुम्हीं डूबना तुम्हीं नाव थीं
शोकगीत तुम तुम्हीं रास थीं बहुत हताशा तुम हमास थीं
अंधकार थीं तुम उजास थीं तुम उज़ाड़ तुम पुनर्वास थीं
तुम्हीं कुआँ और तुम्हीं अकासा
तुम्हीं घुटन और तुम्हीं सुआसा
तुम्हीं जहर और तुम्हीं बतासा
अच्छा दिन और तुम खरवाँसा
तुम सन्नाटा तुम जनवासा
अट्ठहास तुम, तुम वनवासा
तुम्हीं प्रकट और तुम्हीं इशारा
जल समाधि और तुम्हीं किनारा
प्याऊ तुम्हीं समंदर खारा
ध्रुव तुम तुम्हीं टूटता तारा
तुम्हीं प्रथमत: तुम्हीं दोबारा
तुम कारा और तुम चौबारा
एक बार तुम ही सौ बारा
कम गूँजा या ज़्यादा गूँजा केवल इश्क़ पुकारा
इस दुनिया से उस दुनिया तक इश्कै इश्क़ गुहारा
(लंबी कविता फ़रवरी का एक हिस्सा)
कवि-कथाकार-विचारक-फ़िल्मकार देवी प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ ज़िले के रामपुर कसिहा नामक गाँव में. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बीए. इलाहाबाद, दिल्ली और बंबई में पत्रकारिता के संस्थानों में कुछ-कुछ समय काम किया. पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होने की दीर्घकालीन उदासीनता के बाद अब वह बिखरे हुए काम को समेटना चाहते हैं. इस कड़ी में उनकी लंबी कविता जिधर कुछ नहीं और उनकी अन्य कथाएँ मनुष्य होने के संस्मरण राजकमल से प्रकाशित हुई है जबकि प्रार्थना के शिल्प में नहीं उनका पहला कविता संग्रह था. कविता के लिए भारत भूषण स्मृति सम्मान, शरद बिल्लौरे सम्मान, संस्कृति सम्मान. 2009 में उन्हें अपने वृत्त चित्र के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला जिसे उन्होंने बाद में सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करते हुए लौटा दिया . इलस्ट्रेटेड वीकली ने उन्हें 1993 में देश के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले 13 प्रमुख लोगों में शामिल किया . उनकी लघुफ़िल्म सतत कान्स के शॉर्ट फ़िल्म कॉरनर में शामिल और निष्क्रमण नाम की फ़िल्म को फ़्रांस की गोनेला कंपनी ने विश्वव्यापी वितरण के लिए लिया. ये दोनों ही फ़िल्में गुना ज़िले के ग़ैरपेशेवर आदिवासी बच्चों को चरित्र बना कर बनाई गईँ. यह सब इसलिए कि नाम की उनकी फ़िल्म कवयित्री ज्योत्सना पर बनाई गई डॉक्यूमेंट्री है जिन्होंने हिंदी कविता की मुख्य धारा को धता बताते हुए एक असहमत और आज़ाद जीवन जिया और ज़िंदगी को उसकी आत्यंतिकता में समझने की कोशिश में हँसी खेल में उसे ख़त्म कर दिया. नज़ीर अकबराबादी, महादेवी वर्मा और देवीशंकर अवस्थी पर आदमीनामा , पंथ होने दो अपरिचित, एक और विवेक की खोज शीर्षक से शैक्षिक वृत्त चित्र बनाए; पब्लिक सर्विस ब्रॉडकॉस्टिंग ट्रस्ट के लिए व्हिसिल्स ऐंड बुलेट्स और नॉयज़ेज़ ऐंड वॉयसेज़ जैसी डॉक्यूमेंट्री बनाईँ. इस समय अपनी पहली फीचर फिल्म बनाने की प्रक्रिया में. |
चार अध्याय…चौदह कविताएँ। देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं का फ़लक इतना बड़ा है कि अलग-अलग होने के बावज़ूद ये सारी कविताएँ एक ही कविता है, जिसे फर्स्ट पर्सन में देवी ने लिखा है। इन कविताओं में देवी अस्मिता, अस्तित्व की बात करते हैं, जन्म मृत्यु से जुड़े सवाल उठाते हैं, समकालीन कविता की स्टाइलशीट फाड़ने की बात करते हैं, वह अपने भीतर जलती आग को मणिकर्णिका की आग कहते हैं। इस आग से जो सवाल उठते हैं या देवी उठाते हैं वे स्थानीय नहीं वैश्विक हैं। वह कहते हैं कि यदि धरती सबकी है तो मेरा प्लॉट कहाँ हैं, खाने की मेज अगर लंबी और चौड़ कर लें तो कितने ही भूखें हो सबक खाना दिया जा सकता है। उनकी कवित में समानता अंतर्निहित है। वह इस बात के पैरोकार नहीं हैं कि पृथ्वी पर किसी के पास छत या रोटी ना है…इन कविताओं में प्रेम है, विरह है, प्रेम की स्मृतियाँ और प्रेम का पुनः चाहना है, नदियाँ हैं, मौसम है ऋतुएँ हैं। कविताओं की यह ऋंखला उन सब सवालों को उठाती हैं, जिनसे आज पूरा विश्व जूझ रहा है। देवी को कविताओं की श्रृंखला के लिए बधाई। कविताओं को एक बार पढ़ेंगे तो कुछ नये अर्थ खुलेंगे…
कुछ कवियों की कविताओं को पढ़ते हुए आप उन कविताओं को बार बार पढ़ने के मोह से नहीं छूट पाते और कुछ ऐसा ही मोह देप्रमि की कविताएं लाती हैं।
देवी जी आधुनिक समय में कविता में नवीन प्रयोगों की प्रयोगशाला हैं, जिनके यहां यह सीखा जा सकता हैं कि नए प्रयोग को नई भाषा और अंतर्वस्तु बार बार कैसे दिया जा सकता है। नहीं तो अमूमन नए में पुराने के सम्मिश्रण की आवृत्ति मात्र रह जाती है।
साथ ही यह तो है ही कि कवि अपने काव्य परंपरा से आधुनिक संदर्भों को बनाता है और उनके सूत्र भी गढ़ता है फिर चाहे वह ‘जिधर कुछ नहीं’ , ‘बोहेमियन होने की उदासी’ हो या फिर यहां लगी कविताएं हों। पर इसके मायने यह नहीं कि वह परंपरा से लेता ही है, कभी कभी वह परंपरा को तोड़कर नए तरीके से देखता है और ये कविताएं इसलिए भी बार बार पठनीय है ।इनमें बुद्ध के दुखवाद को नए सिरे से देखने की कोशिश है, यह कोशिश है ‘इश्किया’ के हवाले से प्रेम में मानव अंतर्मन की स्थितियों की अभिव्यक्ति की, यह कोशिश है आधुनिक समाज और सिस्टम को बदलने की कवायद की, यह कोशिश है एक बे – उम्मीद समय में उम्मीद के आख्यान गढ़ने की, यह कोशिश है इश्क के साम्यवाद की और यह कोशिश है पृथ्वी के उपनिवेश बनते जाने के खतरों की शिनाख्त की।
देवी प्रसाद मिश्र इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि किसी को तो कोशिश करनी ही होगी, किसी को तो खतरे मोल लेने ही होंगे और इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे ‘कोशिशों की निडरता ’ के कवि हैं फिर वह चाहे शिल्प और भाषा के स्तर पर हो या अंतर्वस्तु के स्तर पर। कवि की यह निडरता बनी रहे।
पटना में एक आयोजन में हम साथ थे। देवी प्रसाद मिश्र ने कई कविताएँ लय वाली पढ़ी थीं जो उनकी पोलिटिकल स्टेटमेंट वाली सपाट कविताओं पर भारी पड़ी थीं। लय की तरफ़ लौटना कविता की आत्मा की तरफ़ लौटना है। कविता सिर्फ़ व्हीकल नहीं है। एक दृश्य, एक चित्र भी कविता है।
लय विचारों की धार को कुंद नहीं करती। प्रसाद ने कामायनी में गहन दर्शन को संभव किया था और दिनकर ने कुरुक्षेत्र में युद्ध और शांति के विमर्श को। ओडेन छंद और लय के बावजूद विचार की धार बचाए रखते हैं।
एक बार पढ़ गया, मगर यह काफ़ी नहीं।
सारी कविताएँ बहुत अच्छी हैं। मित्र को बधाई और ढेर सारी उम्मीदें!
बहुत शानदार अंक है। इसकी प्रस्तुति सम्मोहक है। कविताएँ इसी सम्मान और समझ के साथ दी जानी चाहिए। समालोचन आज इसी लिए शीर्ष पत्रिका है। कई दिनों तक इसमें डूबा रहूंगा।
देवी भाई जिस मंथर गति से बोलते हैं l ये कवितायें एक अंतर लय मे बंधी उसी मंथर गति से चलती हैं l ये उनकी कुछ अलग कवितायें हैं कहन के स्तर पर l गंभीर कथ्य को कैसे शिल्प निर्वाह करे उसकी नज़ीर हैं l ये उनके नये डाइमेंशन की कवितायें हैं l इसमें हट के नये देवी दिख रहे हैं l बधाई l
मुझे तो इश्किया ने लूट लिया। इसके बाद कहने को क्या रह जाता है। क्या हुनरमंदी और क्या परवाज़ ।
अच्छी और झकझोरती हुई कविताएँ। इनमें खास आंतरिक लय तो है ही; ‘दुनिया’ और इश्किया’ में सतह पर तैरती लय बहुत खास और प्रसन्न करती है। ये कविताएँ प्रतिरोध को जिस नए शिल्प और सधे एवं संतुलित अंदाज में व्यक्त करती हैं, वह प्रशंसनीय है। बधाई।
जैसा देवीप्रसाद मिश्र की कवितायें पढ़ते हुए हर बार होता है, चार चैप्टरों ( ‘गद्यशील’, ‘लयोन्मुख’, ‘लयात्मक’ और ‘उन्मुक्तक’ ) में बंटी उनकी इन नयी कविताओं में भी अनायास ऐसी पंक्तियाँ चली आती हैं, जिनकी समस्त अर्थ-छायाओं, आशयों-अभिप्रायों को पूरा आत्मसात करने के लिए हमें कुछ ठहरना, उनके साथ कुछ वक्त बिताना होता है । इसके बाद वे पंक्तियाँ पीछा नहीं छोडतीं, आपकी चेतना का अंश बन जाती हैं और हमेशा आपके साथ रहती हैं ।
‘नदी किनारे बैठकर या राइटर्स
रेजिडेंसी में लिखी जाती
कविताओं के कुटिल रहस्यवाद को जनशून्य अध्यात्मवाद और उसके फूल-पत्तीवाद को मैंने जल्दी ही जान लिया उससे भी जल्दी मैंने फाड़ दी समकालीन कविता की स्टाइल शीट
जिसमें फैला था प्रगतिशील चेतना के अवचेतन का लालसावाद’
‘मैंने हिंदी के महानतम कवि की बात नहीं मानी कि
अब लौं नसानी अब न नसैहों.
अब तक गँवाया अब और नहीं.
मैंने ख़ुद को नष्ट करना जारी रखा’
‘अब तृष्णा है, बुद्ध, कहाँ हो
बहुत विकल हूँ कई तरह के मोह
और दुख का जाला है
इच्छाओं को क्षमा, बुद्ध,
मैं नष्ट नहीं कर पाऊँगा
मोड़ मैं उनको दूँगा’
‘चेखव, मेरी बगिया मेरे लोकतंत्र
मेरी ज़बान पर यह प्रहार है
कुल्हाड़ी की आवाज़ें गूँज रही हैं
प्रजातंत्र के एकतंत्र में’
‘यदि यह धरती सबकी है तो इसमें मेरा प्लॉट कहाँ है ?’
‘स्लम में क्यों है मेरा झोपड़
फटे हुए तंबू में क्यों हूँ
क्यों हूँ मैं शंबूक मिथक का
सब कुछ मुझे बदलना है पर मेरी वो बंदूक़ कहाँ है’
‘पृथ्वी के कोने में बैठा सुतली को बँटता रहता हूँ-
तानाशाह इसी में बांधे जाएँगे’
कहीं कहीं कुछ सुंदर पंक्तियाँ दिखाई दे जाती है अन्यथा कविताएँ बनती नहीं दिखती। टेलीविज़न, सिनेमा और अन्य इसी तरह की उत्तर आधुनिक तकनीकों से देवी इतने आक्रांत दिखते है कि जिस स्थितियों से आक्रांत होकर उन्होंने यह कविताएँ लिखी है वह agnst/उद्वेग इतनी शाब्दिकता (verbosity) में खो गया लगता है।
इन कविताओं में देवी ने कुछ अद्भुत वाक्यांश बनाये हैं- “वैचारिक फिरकापरस्ती की मॉर्च्युरी”। न सिर्फ़ एक बेचैनी इन कविताओं में है, समग्रता का ऐसा रिप्रजेंटेशन दुर्लभ है। देवी ने पिछले दो सालों में न सिर्फ़ ख़ुद को बल्कि समकालीन हिंदी कविता को भी रीइनवेंट किया है। मुझे बार बार लगता रहा है कि यह कविता में पुराने संगीत से नए संगीत की तरफ़ बढ़ने का समय है और देवी इस लिहाज़ से बिल्कुल नए कवियों के साथ खड़े हो रहे हैं। इससे एक सुखद ईर्ष्या भी होती है।
कविता तो वही जिसमें मन-मिजाज उन्मुक्त हो! उसे लिखते हुए कवि उन्मुक्त हो! पढ़ते हुए पाठक भी उन्मुक्त हो जाए! यहाँ वह चीज़ मिलती है। देवी साब को बधाई चहुँपे!
हिंदी में यह बहस बहुत जोर शोर से चलती रही है कि छंद हो या न हो। देवी प्रसाद मिश्र की इन कविताओं ने यह प्रमाणित किया है कि कवि सामर्थ्य हो तो लय कथ्य का अर्थ विस्तार करती है। यह भी आश्चर्य की बात है कि चिढ़ाने की हद तक निरी गद्यात्मक कविता लिखने वाला कवि लय की ओर आता है तो कितनी खूबी से उसे निभाता है। यदि यह पृथ्वी सबकी है तो इसमें मेरा प्लॉट कहाँ है – मेरा नया राष्ट्रगान है।
कमाल है।धड़कन बढ़ाती हुई कविताएं।
हर्ष इतना कि जितनी मायूसी से भरा हुआ।
: जीवन-जगत के स्पंदन की आवृत्ति जब भाषा की स्वाभाविक लय में प्रतिध्वनित होती है तभी वह हलकोर बहु-अर्थवती कविता बन पातीहै। और तभी वह पलट कर पुनःजीवन को स्पर्श करती है,प्रभावित करती है।
समालोचन में देवीप्रसाद मिश्र जी की कविताएँ आई हैं। मैं पढ़ने लगा। पढ़ता, अगली पंक्ति पढ़ लेना चाहता लेकिन पहली को ही दोहराता-तिहराता आगे बढ़ता, बढ़ पाता। भाषा, मर्म, व्यंजना, कल्पनाशीलता, आशा, करुणा, शिल्प, शब्द गढ़न सबने ऐसा बाँधा कि जाने कितने समय बाद पढ़ना पढ़ने जैसा और फिर-फिर पूरा पढ़ना हुआ।
कितनी संवेदना सूक्तियाँ, कितने विनम्र अनुभव, कितने विचार प्रबोधन, कितना एकांत, कितना स्वाध्याय सुख इन सबके बारे में एक जगह एक ही बार में कहा नहीं जा सकता। जब बहुत प्रीतिकर, गहरा और उद्वेलनकारी पढ़ता हूँ, तो मेरे अंतःकरण की हिलोर आँखों तक उमड़ती है। कृतज्ञता आती है कि मैं पढ़ना चाहता हूँ तो पढ़ भी पाता हूँ। पाठ्य का नाद भीतर गूँजता है।
देवीप्रसाद जी के पास संभवतः इस वक़्त की श्रेष्ठतम विचारनिष्ठ काव्यभाषा है। उनके सृजन के पीछे जिस तैयारी, अभ्यास और सिद्धि की झलक मिलती है उस संबंध में कवियों में कुमार अम्बुज और पवन करण जी ही याद आते हैं। इन तीन कवियों के कवि होने में प्रपंचों से दूर केवल स्वाध्याय का ही ज़िक्र करें, तो वह एक पाठशाला है। आजकल के समीक्षा व्यवसाय के लिए बड़ी चुनौती।
मैं कल ही रात में सोच रहा था कि क्या हुआ कितना समय यों ही बीत गया कुछ देवीप्रसाद जी की कविताओं पर अनुचित कथन दिखाई नहीं पड़े। शायद यह जुड़ता मानस संपर्क संकेत होगा कि सुबह ही कविताएँ पढ़ने में आ गयीं।
यह भी कहूँगा, समालोचन ब्लॉग से होती हुई अब एक वेबसाईट है। लेकिन उसकी सामग्री और संपादन के बारे में क्या कहें। प्रिंट को मात देती है। समकालीन साहित्य में यह वेब मैग्ज़ीन कितनी श्रेष्ठ उपस्थिति और बड़ी उपलब्धि है। इस संबंध में संपादक नाम अरुण देव पूरी ध्वनि के साथ बोलना चाहिए, अरुण देव।
आप भी देवीप्रसाद मिश्र जी की कविताएँ पढ़िए-पढ़वाइए। वो लोग भी आलस छोड़कर निकलें जो ख़ारिज़ करने का अपना काम लगन से अथक कर पाते हैं। मुझे सुनाना ही ठीक से पसंद है। कभी सुनाने की कोशिश करूँगा। सबसे मिलकर ही साहित्य का सर्जक-पाठक स्मृतिशील समाज बनता है।
हक़ है पूछना-
यदि यह धरती सबकी है तो इसमें मेरा प्लॉट कहाँ है
देश मेरा है पर यह किसका उपनिवेश है
***
इस पृथ्वी पर बहुत जगह है
खाने की यह मेज़ अगर लंबी कर लें और
चौड़ी कर लें कितने भी हों भूखे सब ही खा सकते हैं
ईश्वर जो कुछ नहीं कर सका बंदे वह सब कर सकते हैं
• देवीप्रसाद मिश्र
‘तीसरा अध्याय’ की सातों कविताएं अच्छी लगीं। कवि की पुरानी प्रतिज्ञाएं इनमें एक नए मुहावरे और बड़े विजन के साथ निखरती हैं। पहली कविता भी जहां तहां मोहती है, लेकिन चार अध्यायों का यह विन्यास बिलकुल समझ में नहीं आया। अंतिम कविता का कुछ सिर पैर शायद पूरी ‘फरवरी’ श्रृंखला पढ़ने के बाद ही समझ में आ सकेगा। जॉन बर्जर ने पिकासो के आखिरी दौर के बारे में किंचित निराशा के साथ कहा है कि ‘वे एंटरटेनर होने लगे थे।’ भारी तकलीफों के दौर में कवि का खिलंदड़ापन थोड़ा बहुत चल सकता है लेकिन चमत्कृत करने का उसका आग्रह बहुत खिझाता है। बहरहाल, प्रयोग तो एक ही कवि कर रहा है। उसके काम को लेकर नतीजे इतनी जल्दी क्यों निकाले जाएं?
इन कविताओं को पढ़ना शुरू किया नहीं, कि अवश इसे पढ़ती चली गई। वर्तमान संत्रस्त समय की बेचैनियों में ढली इन कविताओं के इतने आयाम हैं कि इन्हें पकड़ने की कोशिश में बार-बार पिछली पंक्तियों को दुहराना हुआ और इस प्रक्रिया में नई अर्थछवियां खुलती गई। वर्तमान समय की हताशा, निराशा, भय और दुश्चिंताओं के साथ ही प्रेम, उदासीनता और जीवन के अन्य सभी रंगों की गहरी लकीरों को महीन संवेदनशीलता से उकेरती ये कविताएँ अवाक् छोड़ देती हैं। कहना न होगा कि देवी प्रसाद मिश्र की ये कविताएँ एक विशिष्ट रचना संसार का नवानुभव भी है। उन्हें मेरा साधुवाद पहुंचे।
इन कविताओं को समालोचन के माध्यम से हम पाठकों तक पहुंचाने के लिए यशस्वी सम्पादक अरुण देव जी को बहुत धन्यवाद।
कविता ”पंद्रह अगस्त के आसपास का अगस्त” में कवि ने एक तरक़्क़ी याफ़्ता देश में आज़ादी को ढूंढ़ने की कोशिश की है। अस्ल आज़ादी है क्या इसके माने भी समझने की ख़ूबसूरत कोशिश देखी जा सकती है।
”सृजन”
”ज़ख्म”
”याद”
ये वह नज़्में हैं कि जिनमे कवि ने अपने भूली बिसरी यादें और वर्तमान का ताअने बाने में अपना अनुभव शामिल कर दिया है।
”यदि यह धरती सबकी है तो इसमें मेरा प्लॉट कहाँ है” जैसी कविता हमें उन बेघरों कि हिमायत करती नज़र आती है कि जिनका कोई ठिकाना नहीं होता वो पूरी ज़िंदगी बस एक जगह से दूसरी जगह सिर्फ हिजरत ही करते हैं।
”पृथ्वी किसका उपनिवेश है” जैसी कविता को बहुत गंभीरता से पढ़ना चाहिए क्यूंकि इसमें consumerism और capitalism दोनों के प्रकोप से झूझती हमारी पृथ्वी और हमारा देश दिखाया गया है। ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ना अपने आप में एक मसला बाना हुआ है लेकिन इस सब के पीछे कौन है कविता में बहुत वाज़ेह अंदाज़ में पढ़ा जा सकता है। इस तरह कहाँ जा सकता है कि जान चेतना और एक अनोखे क़िस्म का एहतेजाज इन कविताओं में बखूबी देखा जा सकता है और सीखा जा सकता है।
पाठकों..अध्येताओं..आलोचकों को कविता की तरफ मोड़ लेने वाली ताजगी से भरी कविता श्रृंखला है। सुबह पढ़ा।
एक बार पढ़ के इस कविता के बारे में कुछ भी पुख़्ता अंदाज़ से कह देना इसकी तहों से अन्याय होगा, फिर भी सेव करने के लिए शेयर किया है।
ऐसी कविता है जिसे पढ़ने के बाद ख़ुद भी लिखने का मन करता है। लगता है हाँ, इतनी भी असंभव नहीं हो गयी है भाषा कि अपने समय को दर्ज करने में इतना ठिठके
प्रेम के फँसाव से जन्मी तृष्णा का दुःख न बन जाने की विधि का उपदेश बुद्ध की वाणी में ढूँढता कवि मृत्यु की प्रफुल्लता के सफ़र में भूख और प्रेम के बीच का संतुलन तलाशता है । अंश का अंश से पारस्परिकता बोध होना बुद्ध होने की निशानी है ।
हर हिस्से का टोन बदल जाता है
कहता है कवि पर जो न कहता है ज़्यादा समझ आता है।
सृजन के रतिबोध से प्रसन्न कवि नगण्य में बहुत,शून्य में संसार,सीमित में अपरिमित की शृंखला रचने की चाह में अंतिम सच साबित करने के क्रम में अंत से प्रारंभ की वृत्त घूर्णन गति पकड़ता है।
आँधी पानी तुम्हीं फूँक थी लिखते हुए कविता लययुक्त साधना में लीन लग रही है। तुम्हीं सत्य और तुम्हीं झूठ थीं लिखते समय कवि फिर से वैराग्य मलंग बन रुद्र और बुद्ध के बीच टहलता नृत्य करता नज़र आता है।
दुनिया बदले की आवाज़ में धूमिल की आवाज़ का साथ है । लय में एक तान है जो अब एक कामरेड लगा रहा है जो मौलिकता के धुन पर डफली बजा रहा है जिसे भूख से मौलिक कुछ और नहीं दिखता।यहाँ देवी अपनी विविधता के साथ पूरी तरह उपस्थित हैं।
आकाश तितलियों की स्मृति का यह उजाड़ है और कुल्हाड़ी की आवाज़ें गूँज रही हैं से लेकर पृथ्वी के कोने में बैठा सुतली को बाँटता रहता हूँ- तानाशाह इसी में बाँधे जाएँगे लिखते हुए एक कवि का पाग लपन प्रयोग की अपनी सीमाएँ ख़ुद ही तोड़ता है जो हर खंड में अपनी अलग लय ताल की धाप पर अपना पोट्रेट बनाती है। ईश्वर जो नहीं कर सका बंदे वह सब कर सकते हैं पढ़ते हुए फिर लगा धूमिल वापस आ गये हैं ।लयोन्मुखता को साधने के रास्ते में सबसे मुश्किल होता है आंतरिक लय
के साथ संप्रेष्यता और प्रवाहनमुखता में उन्मुक्तता को सम्भाले रखना । सूफियाना ट्रीटमेंट के साथ नये डायमेंशन तलाशती कविताएँ देवी जी के उत्तम शिल्प की नज़ीर है।
कविता की आंतरिकता और उसकी क्लिष्टता की बुनावट को लय की ताक़त से सामने रखते हुए अबूझ और असीम संभावनाओं की खोज में विचरता कवि देवी अपने शिल्प की बुनावट को हर बार ख़ुद ही तोड़ते हुए साँचा और ढाँचा दोनों की परिणति का नवीकरण कर रहा होता है। यही नवीकरण कई बार पढ़ते हुए तुक से बाहर लगता है पर डिकोड करते ही कविता अपनी रस पूरी तरह निचोड़ देती है ।
आइये आज इस रस का आनंद लेते हैं ।
जन्मदिन की शुभकामनाएँ प्रिय कवि ।
देवीजी को जन्मदिन की बधाई। अच्छी कविताओँ के लिए भी बधाई। समालोचन को धन्यवाद।
आत्म मंथन, अपनी खोज, अब तक क्या किया जीवन क्या जिया – जैसी मन की हलचल. देश में देश को खोजने की विकलता. सुबह सुबह इन कविताओं का स्पर्श अच्छा लगा. टिप्पणियां भी बहुत दिलचस्प हैं. जैसे सारी कविताएं पढ़ीं उसी मनोयोग से सारी टिप्पणियां भी पढ़ीं.
शिरीष मौर्य
इन कविताओं को कितनी बार पढ़ लिया, और पढ़े जाने की ज़रूरत रह जाती है। दशकों की ध्वनियां हैं इनमें।
मिश्र जी के लिए हमारी शुभकामनाएँ.
कल मैंने भी समालोचन पर उनकी कविताएँ देखीं. लिखी जा रहीं कविताओं से बिल्कुल अलग, न केवल अपने अंदाज में बल्कि एक ऐसी सोच में जिसमें वेदना भी है, विकलता भी और हजारों सालों की वह अपराजेयता भी जो हमें आस्थायुक्त करती है.
कवि ने कविता के समूचे स्थापत्य का जैसा अपूर्व विधान किया है, वह एक ऐसी साहसपूर्ण तोड़फोड़ है जो विशिष्ट सृजनशीलता और साहस की माँग करती है.
वैसे, सच्ची कविता इसके बगैर संभव भी कहाँ.
ये ठहरी हुई कविताएं हैं, जो अनायास ही अपनी गति का पता देती हैं। ये बताती हैं कि पाठक दरअसल इनके प्रवाह में साथ बह कर तटीय सत्यों को देख पा रहा है। इनमें कुछ इतने सटीक और नूतन बिम्ब हैं कि वाह कहने से पाठक बच नहीं पाता। अर्णब को अरनउआ और जिंदल, मित्तल, अदाणी तक सारी समकालीन कार्पोरेटियत इनमें आ जाती है। जन्म कुंडली का होना लोक का एक अनिवार्य प्रमाण पत्र अर्थात वह पहला कागज़ जो कि आपकी पहचान माना जाता रहा, यह एक ऐसा रूपक है जो आज के पहचान प्रमाण पत्रों की गवाही के साथ कटघरे में खड़ा हो सकता है, जिस ने मनुवाद और ब्राह्मणवाद को फलने फूलने की ज़मीन मुहैया करवाई। इश्क़िया कविता खूबसूरत बहुत है लेकिन कहीं माशूका के लिए लिखे चालीसे जैसी लग रही है। पर इश्क़ में इतनी मसरूफ़ियत को साथ लेकर चला जाना समाज और दुनिया को रहने लायक बना सकता है। इनमें देश और दुनिया से जुड़े तमाम ज़रूरी सवाल हैं, निशानदेहियां हैं और सुबूत भी हैं। यह दो बार ठहरकर पढ़ने के बाद लिखी फौरी प्रतिक्रिया है, इन कविताओं ने फिर कभी जब भी पुकारा तो मैं इन पर लौटूंगी। देवी जी की कविताओं को पढ़ने की साध रहती है और उनकी आवाज़ और उनकी कविता की लय, इस तमाम शोर में भी, याद रहती है।
इन कविताओं में तृष्णा / इच्छा से जूझने की ही ध्वनि है बाकी सारे राजनीतिक तामझाम व अनेक व्यंजित मोड़ कवि के अभ्यास का परिणाम हैं। यह भी कि, देवी सर के उठाए गए विषय और कहने का ढंग उनके लिए कोई नया नहीं है।
यहाँ महत्वपूर्ण यही है कि जीवन के उत्तर काल में उत्पात मचाती तृष्णा और उनके जूझने के क्रम में खुद को रिविजिट करता हुआ मनुष्य है। यहाँ, इतनी अधिक आत्मबयानी भी इसीलिए है।
देवी सर को हैपी birthday 🎂🎈
पटना में देवी जी ने एकल काव्य पाठ किया था जहां उन्मुक्तक व साॅनटीयता की चर्चा की थी । त्रिलोचन को याद किया था। देवी ऐसे दुर्लभ कवि हैं जो ‘देश मेरा है पर यह किसका उपनिवेश है ‘ इस सच की शिनाख्त कर चुके हैं। चल रही विउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया को उलट देने वाली शक्तियों को पहचानते हैं। इसलिए आज की आजादी की लड़ाई की स्पिरिट को प्रकट करने और जनता तक पहुंच बनाने के लिए अभिव्यक्ति के प्रयोगों की खोज करते हैं। उनकी कविताओं में भारत की आजादी की लड़ाई के क्लाइमेक्स के समय विकसित हो रहे नये काव्य प्रतिमानों व उसके कवियों की विरासत की अनुगूंज ऐसे ही नहीं सुनाई पड़ती! 21 वीं सदी की अपनी दूरूहताओं , आज की गुलाम बनाने की सत्ता की प्रवृतियों प्रविधियों के प्रतिकार के लिए मुक्तिबोध , नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर के पास जाते हैं।थिर बैठते हैं और फिर जमाने से अस्थिर होकर “आत्मा के ज़ख्म थे जो नज़्म थे” में बदलते हैं। नये सिरे से “इश्क़ जहाँ से करने वाला साम्यवाद” की कामना करते हैं।
इस अंक के लिए समालोचन को बधाई।
देवीप्रसाद मिश्र प्रयोगधर्मी कवि हैं।अपनी इन कविताओं को वे प्रविधि में आते शिफ्ट की कविताएं कहते हैं। संभवत: लय की ओर शिफ्ट का ही यह परिणाम है कि वे संप्रेष्य प्रवहमानता की भी बात करते हैं जबकि उनकी कविता अनाभिधात्मकता और अपने वक्र विन्यास छवि के लिए जानी जाती रही है।हालाकि संप्रेष्यता की वाहक भाषा को लेकर वे पूर्व में भी कह चुके हैं-” जिसमें डेढ अरब के दुख हों जैसी ही भाखा गढ़ना है”। यहां देवी संख्यात्मकता को अविभाज्य मनुष्य के वृहत्तर वृत्त में बदलते हुए दुख के बड़े समकालीन संकट को संकेतित करते हैं-” अविभाज्य मनुष्यता का मैं विकल नस्लवाद”। देवीप्रसाद जी के काव्य-प्रयोग साहसिक होते हैं।वे प्रयोगधर्मिता के पहले नैतिक शब्द ला कर प्रयोग की दिशा का संकेत दे देते हैं।अंतर्वस्तु के स्तर पर वे एक अत्यंत सजग कवि हैं।शिल्प के सारे प्रयोग और उद्यमता अंतर्वस्तु के लिए ही है।
इन कविताओं के लिए देवीप्रसाद जी को बधाई और समालोचन का आभार।
फिर-फिर देवीप्रसाद मिश्र
•
समालोचन पर चार अध्यायों में लिखी हाल की देवीप्रसाद मिश्र की कुछ कविताओं से गुज़रना हुआ ।
मैं जानता हूं कि यह कवि भी अपने जन्म से लेकर आज तक कविता से मुक्ति का रास्ता देख रहा है जैसा कभी निराला ने देखा था और उसकी तलाश में `प्रार्थना के शिल्प में नहीं` से आगे बढ़कर `पृथ्वी का रफूगर` और `जिधर कुछ नही` जैसी लंबी कविताओं से होता हुआ हमारे समय के सांप्रदायिक संकीर्णतावाद से मुठभेड़ करता हुआ बढ़ रहा है और हिंदी पट्टी की लिथड़ी हुई मानसिकता के भाष्य को पूरी तरह से निचोड़ कर रख देने की मंशा से अब तक के अवधारणावाद को अपदस्थ करता हुआ लगता है। यही कारण है कि उसकी कविता के केवल तेवर ही नहीं बदले हैं बल्कि कविता के भीतर के इंग्रेडिएंट्स को सार्थक बनाने के लिए न तो उसने सफल कविता के फॉर्मूलों का अनुकरण किया है जैसा अनेक कवि करते आए हैं न केवल वैचारिकता का लोहा पीटने में समय गंवाया है।
कवि दिनों दिन बासी होते कविता के फॉर्मेट और उसकी प्रतिबद्धता के दिखाऊ लटके झटकों से अलग अपनी अलग राह बनाता है और कटाक्ष की अपनी अलग भाषा ईजाद करता है। वह कविता की किसी भी रीतिबद्धता और पैटर्नबद्धता को हर बार तोड़ देना चाहता है लेकिन तोड़ने और रचने की समझ के साथ जो कम कवियों में पाई जाती है। वह लोकप्रियतावाद और सर्वानुमति के एजेंडे से भी परिचालित नहीं होता , यद्यपि वह लय का अनुसरण करता है। लेकिन लय की ओर उसके निरंतर झुकाव और उसकी अबाध लेकिन भूमिगत प्रतिश्रुति से पैदा अर्थपूर्ण अंत्यानुप्रासों के खेल से उपजी ये कविताएं मुक्तिबोध की याद दिलाती हैं जिनके बाद कविता की संरचना में वैसा बौद्धिक आनंद देने वाली कविताएं आज भी कम लिखी जा रही हैं। आज की अधिकतर कविताएं या तो निरंतर प्रोजैक हैं और अपने अक्ष और देशांतर पर किसी कश्मकश और जिरह में उलझी हुई हैं या फिर वे बहुत यथास्थितिवादी और कवि के अपने एजेंडे से परिचालित दिखती हैं।
इधर के वर्षों में लगभग यह मान लिया गया है कि कविता में लय की उन्मुक्ति या निर्बंध उन्मुक्तता या कवि का उन्मुक्तक स्वभाव कविता के संजीदा होने की राह में कहीं बाधा पैदा करते हैं। लेकिन देवीप्रसाद मिश्र ने यह सिद्ध किया है कि लय के निरंतर नए अविष्कार से कविता हर बार अपना चोला ही नहीं अपना भाष्य भी बदलती है जिससे अंतर्वस्तु के किसलय खिलते हैं। लय के सांचे में ढल कर भी कविता विचार के कितने गाढ़े रसायन से संपृक्त हो सकती है, ये कविताएं उसका अचूक उदाहरण है। अभी तक कुमार अंबुज की कविता का एक बिंब मेरे भीतर समाया हुआ है कि पृथ्वी बिल्डर की मेज पर अधखाया हुआ फल है। कवि का यह कहना कि ` पृथ्वी किसका उपनिवेश है` या `यदि यह धरती सबकी है तो इसमें मेरा प्लाट कहां है` आज की बिल्डरवादी विकासवादी लालसाओं का ही अग्रगामी प्रस्तावन है।
हम अगर अपनी कवि परंपरा को देखें तो जिन्हें हम मेजर पोएट कहते हैं उनमें निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन और त्रिलोचन इन सब कवियों में आंतरिक और बाह्य लय का गहरा स्वीकार है जिसे अस्वीकार कर आज की 90% कविता चल रही है जो कि आगामी कल की स्मृतिविहीनता की `रिसाइकल बिन` में कहीं खो जाने के लिए अभिशप्त है । न वह `रामचरितमानस` की तरह पढ़ी जाने वाली है न `आंसू` की तरह दोहराई जाने वाली, न `कामायनी` की तरह पाठ में मोहक और न त्रिलोचन की तरह की अपूर्व सानेटीयता से बांध लेने वाली, न शमशेर की सांगीतिक अनुगूंजों और तरह शमशेरियत के बोध से भरने वाली ; ऐसे में देवीप्रसाद मिश्र की नवाचारिता उनकी कविताओं को निरवधि काल के सम्मुख अजेय बनाती है।
कहना न होगा कि देवीप्रसाद मिश्र की हर कविता कविता की गतानुगतिकता से मुक्ति की खोज है जो पृथ्वी पर हो रही हर घटना की बारीक स्कैनिंग करती है। कविता की राह पर चलते हुए उन्हें कोई चार दशक हो गए हैं और अब कहा जा सकता है कि उनकी कविता का मुहावरा उनके जैसी कविता का मुहावरा है जो रीतिबद्ध और जड़ीभूत होने के विरुद्ध हमेशा सन्नद्ध रहती है। आखिरी कविता तो बेजोड़ है क्योंकि यह आज की सभी कविताओं पर भारी है। यह टेक की सारी जानी समझी और बरती संरचनाओं और युक्तियों पर प्रहार करती है और तुक ताल को नए तरीके से कथ्य के अनुरूप विन्यस्त करती है।
अफसोस है कि हिंदी ने अभी तक डाइवर्सिटी को उन्मुक्तता से सेलिब्रेट करना नही सीखा।
इन कविताओं के मंज़र-ए-आम पर लाने के लिए Samalochan Literary को बहुत-बहुत बधाई।
कई पाठ किए और कई पाठ आगे करने भी होंगे। समकालीन कवियों में देवी जी कथ्य और शिल्प दोनों के मामले में बहुत भिन्न स्वर हैं।