उत्तराखण्ड में नवलेखन-4
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इस शीर्षक को लिखते हुए मुझे बचपन में सुना पचास के दशक का यह गाना याद आ गया. इसके साथ ही जाने क्यों पहाड़ी परिवेश पर फिल्माई गई राज कपूर की ‘राम तेरी गंगा मैली’ का वह दृश्य आँखों के आगे तैर गया जिसे लेकर हमारे दौर की प्रखर विचारक-लेखिका मृणाल पांडे ने फिल्म के निर्माता पर मुकदमा ठोक दिया था.
क्या था उस दृश्य में ऐसा? वह एक सामान्य-सा तो दृश्य है जिसमें एक कम उम्र पहाड़ी लड़की बच्चे को अपना दूध पिला रही है. भूखी-प्यासी अपने प्रेमी की तलाश में भटकती महानगर के रेलवे प्लेटफ़ॉर्म में बिना दुपट्टा ओढ़े अपने पहाड़ी आंगड़े को उठाकर मातृभाव से बच्चे की ओर देखती हुई. बॉलीवुड-आतंकित भारतीय दर्शकों को इसमें मुकदमा ठोकने जैसा कुछ नहीं दिखाई दिया था और कुछ दिनों तक श्लील-अश्लील की फ़िल्मी बहस हवा में तैरती रही और भारतीय सिनेमा के ‘बाबा साहब फाल्के’ कपूर साहब को विशाल पूंजी थमाकर सारी बहस एक दिन थम गई. फिल्म अब भी उसी जोर-शोर से पैसा कमा रही है, यूट्यूब और दूसरे माध्यमों के जरिए.
मृणाल पांडे कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं हैं. हिंदी पत्रकारिता के बीच उभरी वह पहली दृष्टि-संपन्न स्त्री-पत्रकार हैं. प्रसार भारती की अध्यक्ष और पद्मश्री, डी लिट् आदि चीजें उनके कद के सामने छोटे तमगे हैं. साहित्य, संगीत, ललित कलाओं और राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में वह हिंदी समाज की मार्ग-दर्शक रही हैं. जब वह भारत के सबसे बड़े प्रकाशन समूह टाइम्स ऑफ़ इंडिया की महिला पत्रिका ‘वामा’ की संपादक थीं, उन्होंने पत्रिकाओं में औरतों के भीतरी कपड़ों के विज्ञापन छापने से मना कर दिया था. प्रबंधकों से शायद उनकी बहस भी हुई लेकिन उन्होंने समझौता नहीं किया. पत्रिका बंद हो गई लेकिन विज्ञापन पूरी दुनिया में आज तक धड़ल्ले से चल रहे हैं, नयी तकनीक के जरिये अधिक आकर्षक और ग्लैमर के साथ.
टूरिस्ट अगर भगा ही ले गया पहाड़ी बाला को, कोई अनर्थ तो नहीं हुआ. बड़े-बड़े ज्ञानवान भी यह करते रहे हैं. हमारे परम आदरणीय पुरखे बाबा राहुल (सांकृत्यायन) के बारे में सुना जाता है कि वो जहाँ भी जाते थे, शादी कर लाते थे. यूरोप के लिए तो यह आम बात है, हमारे हिंदी के आधुनिक लेखकों का इतिहास टटोलेंगे तो यहाँ ऐसे दृष्टांतों की कमी नहीं मिलेगी. औरतों के मामले में यह देश अलबत्ता सौभाग्यशाली नहीं रहा है लेकिन फिरंगी स्त्रियों की अंदरूनी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहें तो यह जानकारी हिंदी में ही हमारे जूनियर बिंदास लेखक अशोक पांडे के पास मिल जाएगी, किताब में भी और फुटकर लेखों के रूप में भी.
असल में सारा टंटा खड़ा किया हम हिंदी वालों के पुरखे कबीर ने. सैकड़ों वर्षों से वह हमें डांटता चला आ रहा है और हम हैं कि उसे अपना पुरखा मानने के लिए तैयार ही नहीं. पता नहीं वह हिन्दू था या मुसलमान, काशी का था या मगहर का; टोपी भी अजीब फुंदे वाली पहनता था, सबसे पहले उसी ने तो हमें चेताया था कि संतों, ज्ञान की आँधी आ रही है, सावधान हो जाओ.
हमारे इस पुरखे ने इस अज्ञानी मुल्क को चेताने के लिए उस दहशत भरी आँधी का कितना डरावना चित्र पेश किया कि आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. तो भी था तो हमारा पुरखा ही, जाते-जाते भरोसा भी दिला गया, ‘आंधी पाछे जो जल बूठा, प्रेम हरीजन भीना.’ और यह बीज शब्द ‘प्रेम’ ही तब से सारे झगड़े की जड़ बना हुआ है, जिसकी जननी है स्त्री.
इससे पहले कि इस आधुनिक बूढ़े की बातों से आप ऊबने लगें, मैं मुद्दे पर आता हूँ.
पचहत्तर-पार के इस पुराने लेखक के दिमाग में यह जिज्ञासा यों ही नहीं उठी थी कि साहित्य के क्षेत्र में उभर रही हमारे इलाके की नयी पौध अपने परिवेश और सामाजिक परिदृश्य को लेकर इन दिनों कैसे रिएक्ट कर रही है? दरअसल छोटे कस्बों-गाँवों में रहने वाले युवाओं के दिमाग में हिंदी लेखन की मुख्यधारा की ऐसी चकाचौंध है कि उसे अपना इलाका और वहाँ की बोली-भाषाएँ बासी और पिछड़ी हुई-सी लगने लगी हैं. और यह स्थिति आज की नहीं है, पिछली सदी के उत्तरार्ध से इसने धीरे-धीरे अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए थे.
जरा इन आंकड़ों पर गौर करें. हमारे छोटे-से प्रदेश उत्तराखंड में आज एक ज्ञानपीठ, पांच साहित्य अकादमी (एक अंग्रेजी-भाषी को छोड़कर) और दर्जनों पद्मश्री-भूषण और दूसरे नामधारी लेखक मौजूद हैं जो इस विशाल हिंदी लेखन-धारा की नाजुक धमनियाँ समझे जाते हैं. खास बात यह है कि ये सभी मुख्यधारा की दुनिया में इतने मस्त हैं (वीरेन डंगवाल को छोड़कर) कि आज तक उनमें से किसी ने अपने अलावा किसी दूसरे की ओर नहीं देखा, खासकर अपने कनिष्ठों की ओर. यह लेखमाला नए लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं, उन्हें अपने समाज की सांस्कृतिक चिंताओं के बीच घुसाने की कवायद-जैसी है. शायद इससे मृणाल जी के उस मुक़दमे के पीछे मौजूद मंशा का उत्तर मिल पाए, हालाँकि वो खुद भी एक उम्र के बाद इस मानसिकता की गिरफ्त में फँस गई थी. यह भी एक संयोग है कि मेरा और मृणाल जी का जन्म-वर्ष एक ही है और उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल में ही हासिल की थी.
गीता गैरोला
‘मल्यो की डार’ (2015) स्त्री अधिकारों के लिए लगातार प्रयत्नशील भट्टी गाँव (पौड़ी गढ़वाल) में जन्मी कर्मठ और संवेदनशील लेखिका गीता गैरोला का पहला संस्मरणात्मक गद्य-संग्रह है जिसके प्रकाशन के तीसरे साल ही दूसरा संस्करण सामने आ गया था. इस किताब में उन्होंने पहाड़ की स्त्री के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक सरोकारों को धरती के बीच से उठाकर ऐसे चित्रित किया है कि पाठक कब उसका हिस्सा बन जाता है पता ही नहीं चलता. किताब को पढ़कर एक बच्चे के कौतूहल और अनायास लगाव की तरह हम अपने चारों ओर के परिवेश से प्यार करने लगते हैं.
दादा प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य पंडित तारादत्त गैरोला और अनपढ़ दादी की बतकही के बहाने लेखिका ने जो स्मृति-संसार रचा है वह कोरा नोस्टाल्जिया नहीं है, बालमन पर जिज्ञासा की जड़ें रोपते पुरखों की परंपरा का बेहद संवेदनशील अंकुरण है जिसके जरिए बच्चे का निश्छल मन शेष प्रकृति को अपने ही समान प्राणवान और चेतनाशील ही नहीं, खुद की तरह प्यार करने लायक समझने लगता है.
मल्यो (स्नो पिजन) पहाड़ों का एक प्रवासी पक्षी है जो हिमालय के बर्फीले माहौल के बीच जिन्दगी गुजारकर वसंत की आहट के साथ निचली पहाड़ियों की ओर उतरने लगता है. कुमाऊँ में मल्या और गढ़वाल में मल्यो नाम से पुकारा जाने वाला यह बेहद खूबसूरत पक्षी बर्फीली जलवायु में रहने के कारण खूब मांसल होता है और आदमी की जीभ और हवस का मनमाना शिकार होने के लिए भी अभिशप्त है. पहाड़ी बालाओं की तरह.
गीता गैरोला इस रूप में भी पहली लेखिका हैं जिन्होंने यहाँ की प्रकृति और जन-समूह को ठेठ स्थानीय नजरिये से देखा है; अपने पूर्ववर्ती लेखकों की तरह सैलानी या मोहयुक्त नज़रिए से नहीं. शायद इसीलिए उन्होंने अपने इस नज़रिए को रेखांकित करने के लिए मल्यो-पक्षी को चुना.
“मैंने मल्यो को इतने पास से पहली बार देखा था. हमेशा दूर आसमान में सैकड़ों की संख्या में उड़ते पक्षियों की छोटे-छोटे काले बिन्दुओं जैसी डार (झुंड) देखी थी. जिन दिनों मल्यो की डार घाम तापने भाबर की तरफ उड़ान भरती, वे गेहूँ की बुवाई के दिन होते हैं. एक तरफ बुवाई करके बीज खेतों में डाला और दूसरी तरफ मल्यो की डार आसमान में उड़ती नज़र आती हैं. जिस खेत में पूरी डार बैठती, मिनटों में पूरा दाना चर जाती. दादी बताती थी बर्फ के मुलुक से भाबर का घाम तापने जाती है मल्यो की डार. रास्ते में जहाँ खाने को मिला उतर गए, नहीं मिला तो अपने डेरे की तरफ उड़ते रहे. भाबर पहुँच के ही दम लेते हैं ये मल्यो. जाड़ों के दिनों में जब घने जंगलों के बीच पाला भी बर्फ की तरह जम जाता है और मल्यो को खाना नहीं मिल पाता, तभी ये पक्षी खाने की खोज में प्रवास पर भाबर की तरफ चल देते हैं. वसंत ऋतु आते ही मल्यो की डार फिर अपने मूल जगहों में लौट आती है. तब तक बर्फ पिघलने लगती है. ठण्ड कम हो जाती है और ठंडे मुलुक के रहने वाले ये पंछी, भाबर की गर्मी कैसे सह पाएंगे?”
“उस दिन मल्यो भगाने के बाद मैंने पूछा, ‘दादी, तू हम बहनों को भी तो मल्यो की डार कहती है.’ ‘हाँ बबा, बेटियाँ मल्यो की डार ही होती हैं. अपने मैत में चार दिन रुकी और फिर चल देती हैं दूसरे मुलुक.’
लेखिका टिप्पणी करती है, ‘ठीक ही कहती थी दादी. हम सब मल्यो की डार ही तो हैं. चरने के लिए मैदानों की तरफ उड़ गए. पर मल्यो तो केवल जाड़े में भाबर जाते हैं, घाम तापने. शीत ऋतु ख़त्म होते ही अपने डेरों में लौट आते हैं. ये हैं असली प्रवासी. हम खुद को प्रवासी किस मुँह से कहते हैं! हम भगोड़े हैं भगोड़े, जो एक बार गए, और दुबारा पलट कर नहीं लौटे. हम तो हरे-भरे पहाड़ों की विलुप्त होती नस्लें हैं.’
मृणाल की अगली पीढ़ी की चिंताओं का खाका प्रस्तुत करती यह कहानी ‘मल्यो’ पक्षी-प्रेम या नष्ट होती हमारी प्राकृतिक धरोहर के बारे में नहीं है. यह उस मानवीय और सांस्कृतिक पलायन की भी दहला देने वाली बानगी है जिसके कारण हमारा पर्वतांचल आज रीता होता चला जा रहा है. हमारी कथित ज्ञान-संपन्न विकसित चेतना के बीच शायद इसीलिए हमारे दौर की रचनाशीलता आज लौट-लौट कर पुराकथाओं, किम्बदंतियों और लोक-शैलियों की ओर झाँकने के लिए मजबूर महसूस कर रही है. बेजुबान प्राणियों का यह संसार हमें अपनी ज़बान देकर न सिर्फ हमारी गलतियों की ओर संकेत कर रहा है, इस दुर्भाग्यपूर्ण दौर में हमें अपने अनुत्तरित सवालों के उत्तर तलाशने में भी मदद कर रहा है.
इसी तरह की एक और संस्मरणात्मक कहानी है ‘प्यारा चक्खू’. महादेवी वर्मा के पशु-पक्षी परिवार पर लिखे गए संस्मरणों की याद दिलाती यह रचना उनका कलात्मक विस्तार ही नहीं, आदमी और मानवेतर प्राणियों के रिश्ते को एकदम अलग और अधिक प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करने वाली, हिला देने वाली रचना है. मल्यो की तरह ही चाखुड़ भी बर्फीले माहौल में रहने वाला बेहद सुन्दर और प्यारा पंछी है जो शेष प्राणियों की तरह सहज स्नेह मिलने पर आदमी से जल्दी ही घुल-मिल जाता है और आदमी है कि उसका अपने लिए इस्तेमाल करने और उसे मार कर अपनी जीभ का स्वाद पूरने में खुद को धन्य समझने लगता है. और यह कहानी भी आदमी और पक्षियों के रिश्तों के बीच पैदा हुई दरार की नहीं, आदमी की अपने ही सबसे नजदीकी रिश्तों को खुद की लालसा के लिए क्रूरता से कुचल डालने की मार्मिक दास्तान है.
अपने बचपन में लेखिका को खेत की मींड पर ठण्ड और दर्द से कराहता एक घायल पक्षी-शावक मिलता है जिसे घर वालों की नाराजगी की परवाह किये बगैर वह अपने कमरे में ही पाल कर उसे प्राणदान देती है और उसकी सेवा करते हुए पालती है. कहानी का सारा विवरण बच्चों और उस चिड़िया के बीच आत्मीय रिश्ता पनपने और उसे परिवार का हिस्सा बना डालने का बेहद आत्मीय वृतांत है. कि कैसे एक छोटी बच्ची एक शिशु को जीवन दान देती है और उसे खुद की जिंदगी का हिस्सा बना लेती है. छोटे-छोटे मार्मिक विवरण हैं और उनको जीते हुए कहानी के दोनों किरदार बड़े होते हैं.
निश्चय ही ऐसे विषयों पर एक-से-एक मार्मिक कहानियां लिखी जा चुकी हैं, हिंदी ही नहीं, शायद दुनिया की हर भाषा में; मगर यह रचना इसलिए अलग और खास है कि इसमें रचना और उसके प्रणेता का ऐसा विरोधाभासी रूप उभरकर सामने आता है कि पाठक अपने मंतव्यों और सरोकारों को लेकर न केवल पुनर्विचार करने के लिए, खुद को लेकर सवालिया नज़रिया महसूस करने के साथ अपने रिश्तों से ही नफरत करने लगता है. कहानी के उत्तरार्ध में लेखिका अपने ही जैविक पिता को जिन शब्दों में गाली देती और धिक्कारती है, बहुत भद्दे, अशालीन और अश्लील तरीके से गरियाती है, वह बहुत साफ इस बात का इशारा है कि आदमी से कहीं अधिक सभ्य और अक्लमंद वो बेजुबान प्राणी हैं जिन्हें हम अपनी हवस का शिकार बना देते हैं. पूरे संस्मरण में पाठक लेखिका की अपने पिता के प्रति पैदा हो गई नफरत के पक्ष में खड़ा रहता है और अपनी तथाकथित सभ्य अर्जित संस्कृति को धिक्कारने लगता है.
‘वहीं पर पड़ा है समय’ आज़ादी के बाद पैदा हुई पीढ़ियों के अंतर-संबंधों की मार्मिक बानगी है, जिसमें से किसी एक को न तो झुठलाया जा सकता, न ख़ारिज किया जा सकता. विभिन्न जातियों के बीच गुथे आत्मीय सम्बन्ध, आजादी और उसे लेकर अलग-अलग पीढ़ियों का नज़रिया:
“मेरे बचपन के दिनों में गाँवों में कपड़े सिलने का काम औजी किया करते थे. गाँव के पूरे मवासे (परिवार) उनकी वृत्ति में बंटे रहते. हर परिवार में जैसे भाई बाँट (जमीन की बाँट) होती, वैसी ही बाँट औजी, लोहार, ओड़ (चिनाई करने वाले शिल्पकार) के परिवारों की भी होती. औजी अपनी वृत्ति के परिवारों की ख़ुशी में ढोल बजाने के साथ कपड़े सिलने का काम भी करते… हमारा परिवार कर्जू भैजी का गैख (जजमान) था. छोटे कद के सांवली रंगत वाले कर्जू भैजी मिठबोले और अपने हुनर के पक्के थे. दादाजी के लिए सर्ज का वास्कट वाला सूट कर्जू भैजी ने ही सिला था. अपने अंतिम दिनों तक उसे पहनते थे.”
मगर फिर एकाएक सब कुछ ऐसा उलटा-पलटा कि देश की आजादी को लेकर सरोकार और अर्थ ही बदलते चले गए. हर वर्ग और सम्प्रदाय के लिए. कहानी में लेखिका ने इसके पीछे मौजूद कोई कारण नहीं दिए हैं, किसी को अच्छा या बुरा भी नहीं कहा है, केवल पीढ़ियों का यथार्थ और वस्तुस्थिति का चित्रण भर कर दिया है. शायद कोई भी रचनाकार इतना ही कर सकता है; वह आने वाली पीढ़ियों के सवालों और सरोकारों को न बदल सकता और न इतिहास लौटा सकता. लेखिका ने यह भी नहीं बताया है कि इसके लिए देश की आजादी जिम्मेदार है, नए पनप रहे मूल्य या गाँवों में पुश्त-दर-पुश्त रहने वाले वे लोग, जिनका निरंतर सांस्कृतिक क्षरण हो रहा है! यह सवाल छोड़कर कहानी ख़त्म हो जाती है.
गीता का लेखन अपने दौर की चिंताओं में से पैदा हुआ पाठक के मन को सीधे उद्वेलित करने वाला सहज गद्य है जो संस्मरणात्मक होने के कारण भावाकुल भी है, तरल भी. इसीलिए वह आत्मीय भी है. अपने समाज की स्त्री-समस्याओं के हर पक्ष को लेकर वह अपनी रचनाओं में पूरी जीवन्तता के साथ उपस्थित होती हैं और अपने सहज सरोकारों के कारण पाठक को अपना हिस्सा बना लेती हैं. मसलन, ‘ओ ना मासी धंग’ स्त्री-शिक्षा से जुड़े अंतर्विरोधों को उजागर करने वाली कहानी है जिसमें नई-नई स्कूल जा रही पोती (लेखिका) और अनपढ़ दादी के बीच का रोचक बाल-सुलभ संवाद है. पोती की चिंता है कि स्कूल में सीखे गए अक्षर-ज्ञान का फायदा वह अपनी अनपढ़ दादी को दे सके क्योंकि स्कूल के मास्टरजी ने होमवर्क दिया है कि आज के सिखाये गए पाठ को घर जाकर वह हर उस सदस्य को पढ़ाए जो पढ़ना-लिखना नहीं जानता.
बच्ची की आँखों के सामने पहला चेहरा दादी का तैरता है और वह दादी को एक स्लेट और चाक थमाकर उसे हिंदी अक्षर सिखाने जुट जाती है. पोती के आग्रह पर दादी स्लेट पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचती है और कुछ देर बाद ऊबकर स्लेट और चाक परे रख देती है, यह बड़बड़ाते हुए ‘ओ ना मासी धंग, बाप पढ़े ना हम.’ बच्चे दादी के इस कथन को गीत की तरह गाते हुए नाचने लगते हैं, बाद में पता चलता है कि ‘ओ ना मासी धंग’ वास्तव में ‘ओम नमः सिद्धम्’ है का ठेठ गढ़वाली लोक-उच्चारण है, इसीलिए वह जोड़ती है, जिसे बाप ने नहीं पढ़ा,हम कैसे पढ़ सकते हैं. औरतों को पढ़ने-लिखने से किस प्रकार जानबूझकर हाशिये में रक्खा जाता है, उसका बेहद मार्मिक दस्तावेज है यह कहानी. कथ्य और भाषा को सामाजिक विडम्बनाओं के व्यंग्य के साथ किस तरह पिरोया जाता है, नए रचनाकारों को यह कौशल गीता से सीखना चाहिए.
गीता मशहूर एक्टिविस्ट के अलावा जबरदस्त घुमक्कड़ संवेदनशील लेखिका हैं. स्त्रियों के लिए वर्जित नंदादेवी राजजात यात्रा की वह पहली महिला यात्री हैं और इस रूप में पहाड़ी समाज के बीच आइकॉन की तरह याद की जाती हैं. ‘ये मन बंजारा रे’ (2021) उनका भावपूर्ण यात्रा-वृतांत है जो दुर्गम पहाड़ी पथों का रोमांचक परिदृश्य प्रस्तुत करता है. महिला सशक्तीकरण को लेकर उन्होंने देश भर की स्त्री एक्टिविस्टों के बीच जाकर उन्हें उत्तराखंड के दूर-दराज के इलाकों में बुलाकर यहाँ की समस्याओं पर मंथन किया है. भारत के अनेक वैचारिक मंचों के साथ मिलकर उन्होंने अनेक यादगार आयोजन किए हैं जिनकी देश भर में चर्चा हुई है. अपनी संस्था ‘महिला समाख्या’ के द्वारा ‘महादेवी वर्मा सृजन पीठ’, साहित्य अकादमी और ‘संगमन’ के साथ मिलकर उन्होंने नैनीताल में एक तीन दिवसीय वृहद् कार्यक्रम किया था सिस्में देश भर के प्रमुख लेखक महिला एक्टिविस्ट और विचारक शामिल हुए थे. देहरादून में तो ऐसे कार्यक्रमों की लम्बी श्रृंखला है. स्त्री-रचनाकारों की युवा पीढ़ी को गीता के इस ज़ज्बे का भी विस्तार करना चाहिए.
स्वाति मेलकानी
उत्तराखंड से गीता गैरोला की अगली पीढ़ी में सबसे अलग और भाषिक संवेदना के लिहाज से पूरी तरह सतर्क रचनाकार हैं स्वाति मेलकानी. नैनीताल में जन्मी और वहीं से भौतिक विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त स्वाति के अब तक दो कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-
1. जब मैं जिन्दा होती हूँ (2014) और
2. बुरांश (2022).
दोनों ही संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हैं जिनमें पहला ज्ञानपीठ द्वारा नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित है.
स्वाति की कविताएँ शुरू से ही प्रौढ़ रचनात्मक सरोकारों और अपनी आंतरिक रचना-यात्रा के बहुआयामी पाठ को पूरी सहजता और अंतरंगता के साथ पाठकों तक पहुँचाती हैं. अपने अन्य समकालीनों की अपेक्षा वह आत्मलीन और आत्म-केन्द्रित तो नहीं दिखाई देतीं, मगर यहाँ भी उनका लड़की होने का अहसास और उससे उत्पन्न अकेलापन एकदम अलग दिखाई देता है. यह देखकर हैरानी होती है कि गीता गैरोला की अगली पीढ़ी की ये तीनों युवा अभिव्यक्तियाँ– स्वाति मेलकानी, रेखा चमोली और सपना भट्ट– (जिनकी इस हिस्से में चर्चा है) अपने सार्वजनिक संसार के प्रति क्यों बेखबर दिखाई देती हैं. स्त्री होने के प्रति सजगता का बोध तो पिछली सदी के नारी-मुक्ति आंदोलन की दें है, लेकिन वहाँ आत्म-केन्द्रिकता नहीं है. हैरानी का सबब यह भी है कि समाज में पोशाक से लेकर बोलचाल और संबोधनों तक सब जगह लड़का-लड़की का अन्तराल मिटता चला जा रहा है. इन तीनों में भी अंतर दिखाई देता है, कई कविताएँ इस फर्क को रेखांकित करती भी हैं (जिन्हें मैं आगे चलकर उद्धृत करूँगा).
जाहिर है कि कवि और उसके सरोकारों को धरती के उस टुकड़े से हटाकर नहीं देखा जा सकता, जिस पर वह खड़ा है. उसी टुकड़े के कारण उसका अस्तित्व है: कवि, परिवेश और अनुभूतियाँ– ये तीनों ही मिलकर कविता को जन्म देते हैं. एक सार्थक कविता केवल कवि और पाठक को ही नहीं, खुद के जरिए अपने परिवेश भी तो शिक्षित, संस्कारित और विकसित करती है. शायद इसीलिए मैं कविता में सबसे पहले परिवेश खोजने लगता हूँ. ‘बुरांश’ की कविताएँ तो इस अर्थ में पूर्ण कविताएँ हैं ही, स्वाति के पहले संग्रह ‘जब मैं जिन्दा होती हूँ’ की भी अनेक कविताएँ अपने समाज का ही मुखड़ा हैं, भले वहाँ निजी सरोकारों की आहट दिखाई देने लगती है.
नदी तुम हो, नदी मैं भी
थकी तुम हो, थकी मैं भी
रुकी तुम हो, रुकी मैं भी
(पृ. 79: कोसी से)
स्वाति की कविताओं में भाषा, संवेदना और विचार की बुनावट अनायास नहीं है, शायद इसलिये वह अपनी हर अगली कविता में खुद का अतिक्रमण करती साफ दिखाई देती है.
स्वाति की कविताएँ सिर्फ भीतर के संसार की कविताएँ नहीं हैं, इसमें अपने आसपास के सरोकार और चिंताओं की आहटें बहुत साफ सुनाई देती है. विशेष रूप से ‘बुरांश’ संग्रह की इसी शीर्षक की सात कविताएँ. इनमें इस परंपरागत पहाड़ी फूल का वह नोस्टाल्जिया नहीं है, जो इसे लेकर लिखी गई सैकड़ों कविताओं में पहले से मौजूद है. यहाँ वह पूरी तरह एक उम्मीद, शक्ति और भविष्य की कर्मशीलता का उल्लास देती है:
बुरांश अकेला नहीं खिलता
खिलते बुरांश के साथ
पतझड़ से ऊबे
सैकड़ों बांज सुरई और काफल
फिर चहकने लगते हैं
बुरांश के खिलने से
जंगल खिल उठता है.
विशाल हिंदी समाज को संबोधित ये कविताएँ उसके एक अनचीन्हे कोने की बानगी नहीं, उसका मुख्य स्वर बनने की ताकत से पूरी तरह सराबोर हैं. एक भरी-पूरी उम्मीद.
रेखा चमोली
गढ़वाल के कर्णप्रयाग क़स्बे में जन्मी रेखा चमोली बी.एससी और शिक्षाशास्त्र से एमए हैं. 17 साल तक प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी रहने के बाद वह इस समय राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रायपुर, देहरादून में शिक्षाशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. अब तक दो कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- 1. ‘पेड़ बनी स्त्री’ (2012), बिनसर पब्लिशिंग कं., देहरादून और 2. ‘उसकी आवाज एक उत्सव है’ (2022), न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, दिल्ली. पहले संग्रह की कविताओं में कुछ कच्चापन है जो किसी भी लेखक की शुरुआती रचनाओं में होता ही है, मगर अगले दस वर्षों में कविताओं में बहुत साफ रचनात्मक प्रौढ़ता दिखाई देने लगती है. 83 छोटी-छोटी कविताओं का संग्रह ‘उसकी आवाज एक उत्सव है’ उनकी इस प्रौढ़ रचना-धर्मिता की खूबसूरत बानगी है. ‘आत्महत्या माय फुट’ संग्रह की बीसवीं कविता है और इसे उनकी कविता का केन्द्रीय स्वर भी कह सकते हैं.
बहुत बार मन करता है तेज स्कूटर चलाते हुए
किसी पहाड़ी मोड़ पर कर लूँ आँखें बंद
कुछेक मिनट की बात होगी और किस्सा ख़त्म
कविता यहीं पर ताकत बनती है इस प्रत्यय के बाद कि ‘जानी, जीना कितना ही दुश्वार क्यों न हो, मरने से थोड़ा हसीन तो होता ही है.’
मन था कि स्वाति की शीर्षक कविता के साथ रेखा की भी शीर्षक कविता सुनाऊँ, तभी ध्यान आया कि नयी पीढ़ी की रचनाओं का सन्दर्भ गीता गैरोला से शुरू हुआ है इसलिए गीता की कहानी ‘चौमास’ की सापेक्षिकता में रेखा की उसी शीर्षक की कविता ‘चौमासा’ का जिक्र करना पर्याप्त होगा.
‘चौमासा’ कविता इस रूप में भी सार्थक है कि यह रेखा की कविताओं का टर्निंग पॉइंट है. यहीं से वो अपने अंदर की दुनिया से मुक्त होकर बाहरी संसार की यात्रा करती दिखाई देती हैं. यह करीब-करीब वैसी ही उछाल है जैसी स्वाति ने अपने पहले संग्रह की आरंभिक दसेक कविताओं के बाद ली थी. बहुत गहरे सरोकारों और खुद के परिवेश की अलग व्याख्या करती यह कविता स्वयं ही एक प्रौढ़ रचनाशीलता का प्रस्थान है.- चौमासा
पहाड़ पर बारिश दूर तक दिखाई देती है
सुबह-सुबह बच्चों को अलसाती देर कराती
फिसलाती, खेल खिलाती, डांट पड़ाती
उन्हें स्कूल पहुँचाती है
बारिश बड़े समय तक उनके साथ बनी रहती है
खेतों, रास्तों, बटियों, छानियों से जगहें बनाती
रस्ते रोकती
नए रस्ते खोजती
पाँव उखाड़ती
छज्जे-गलियां सब धो जाती है
बारिश बिंदास बहती चली जाती है
रोपाई करती, हथमैया लगाती बहू-बेटियों के गत रुझाती
उन्हें थकाती-खिजाती है
लुका-छिपी खेलती है घासों में
घसियारिनों की मुट्ठी में
झम से पकड़ी जाती है
उनकी पीठ का बोझ बढ़ाती है
तबाही मचाती
गुस्सा दिखाती, नींदें उड़ाती, डराती
गाड़-गदने उकसाती
किसी की परवाह न करती
बारिश खूब गाली खाती है.
पहाड़ पर बारिश बहुत मुश्किल समय दिखाती है.
(पृष्ठ 22-23)
स्वाति और रेखा में एक सामान सन्दर्भ यह भी है कि दोनों ही विज्ञान की उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और दोनों की प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में हुई है. रेखा ने उत्तरकाशी के सरकारी स्कूल में पढ़ने के बाद गढ़वाल विवि से बी.एससी किया है और शिक्षाशास्त्र में एमए. नैनीताल तो कान्वेंट शिक्षा के लिए मशहूर है लिकिन स्वाति ने भी सरकारी स्कूल से ही प्राइमरी शिक्षा लेने के बाद क्षेत्र के मशहूर देवसिंह बिष्ट कॉलेज से भौतिकी में एम.एससी किया है. शायद अपने जड़ों के प्रति लगाव और ताज़गी उनकी कविताओं में इसीलिए आ पाई है.
यह देखकर अच्छा लगता है कि हमारी यह नयी पौध अपने निजी दायरे से बाहर निकल कर व्यापक परिवेश की यात्रा कर रही हैं और रामगढ़ की महादेवी, नैनीताल की मृणाल पांडे और भट्टी गाँव की गीता गैरोला का सही अर्थों में विस्तार कर रही हैं.
सपना भट्ट
मूल रूप से पौड़ी गढ़वाल के तल्ली रोहिणी गाँव की रहने वाली, जम्मू-काश्मीर में जन्मी सपना भट्ट की कविताओं से मेरा परिचय कुछ देर से हुआ. ‘समालोचन’ में उनकी कविताएँ देखी थीं, बाद में कुछ मित्रों ने इनकी कविताओं की ओर ध्यान खींचा तो मैंने उनका कविता-संग्रह ‘चुप्पियों में आलाप’ मंगाया. सपना से संपर्क किया और उनकी बाकी कविताएँ भी मंगायीं. तब मुझे सचमुच लगा कि उन्हें शामिल न करने पर शायद इस क्रम में एक जरूरी हस्ताक्षर छूट गया होता.
सबसे पहले मैं संग्रह के कवर पर बात करूँगा. गहरी नीली जमीन पर आसमानी रंग की पत्तियों से बना एक विकराल ऑक्टोपस एक स्त्री को अपनी कुंडली में जकड़े हुए है. अमूर्त आकार में गहरे सलेटी रंग से चित्रित यह औरत सिकुड़ी-सहमी-सी घुटनों के बल बैठी है और मातृभाव से अपनी गोद में बैठी लाल रंग की चिड़िया को निहार रही है. पूरी पेंटिंग में हालाँकि चार रंग हैं– गहरे नीले रंग की जमीन, आसमानी रंग से बना ऑक्टोपस और किताब का नाम, गाढ़े सलेटी रंग से चित्रित औरत, सफ़ेद रंग से लेखिका का नाम, घुटने पर बैठी लाल रंग की नन्ही-प्यारी चिड़िया और नाक की लाल फुल्ली. पूरे कैनवास पर सबसे छोटा आकार चिड़िया और नाक की फुल्ली का है लेकिन दो बिन्दुओं की तरह के ये चित्र सबसे पहले दर्शक का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं. शायद चित्रकार का उद्देश्य भी यही रहा होगा.
अनुप्रिया का बनाया गया यह कवर एक बेहतरीन पेंटिंग है और संग्रह की कविताओं के संसार में मुक्त विचरण करने के लिए हमें छोड़ जाता है.
इस आलेख की शुरुआत भी स्त्री देह, चिड़िया और फूलों से की गई थी. मृणाल पांडे का आक्रोश, गीता गैरोला के पक्षी, स्वाति मेलकानी का बुरांश, रेखा चमोली की मोटरसाइकिल की स्पीड जैसा गुस्सा और फिर से लौटकर स्वाति की कविता ‘शून्य’. यह सारा चक्र एक पहाड़ी लड़की का ही तो रूप रचता है जिसे सपना भट्ट ने अपनी कविताओं और अनुप्रिया ने अपनी पेंटिंग के माध्यम से इतनी बारीकी के साथ उकेरा है.
स्वाति के संग्रह ‘बुरांश’ की अंतिम कविता शून्य का जिक्र भी अनायास नहीं है. यों तो यह स्वाति की अब तक की लिखी अंतिम कविता है लेकिन यह एक लड़की की आदि और अथ-यात्रा का क्लासिस वृतांत जैसा है.
क्योंकि शून्य
हमेशा शून्य नहीं रहता
बीतते शून्य के साथ
शून्य में जमती हैं जड़ें
(स्वाति मेलकानी: ‘बुरांश’ पृ. 143)
शून्य (गर्भ), प्रेम, चिड़िया और फूल: ये सिर्फ शब्द या प्रतीक नहीं हैं, कालांतर में कलाओं और सृष्टि के आदि रहस्य भी हैं जहाँ से सब कुछ जन्म लेता और अंततः नष्ट होता चलता है अनवरत. एक जगह अंकुरण और उसी जगह पर अंत.
पिछले दिनों मैं गूगल में गीतांजलिश्री और उनके उपन्यास ‘रेत समाधि’ की अंग्रेजी अनुवादक डेज़ी रौकवैल की बातचीत सुन रहा था: We’re both very superstitious. बातचीत मुख्य रूप से ‘रेत समाधि’ की रचना-प्रक्रिया पर है. मैं उस पर कोई चर्चा करने नहीं जा रहा, सिर्फ उस प्रसंग का जिक्र कर रहा हूँ जिसने ‘रेत समाधि’ का मुखपृष्ठ तैयार करने का दबाव बनाया. डेज़ी खुद बहुत अच्छी चित्रकार हैं और उन्होंने कृष्णा सोबती की रचनाओं का अनुवाद भी किया है. वह कृष्णाजी को संसार के बड़े लेखकों में गिनती हैं. उन्होंने बताया कि जब वो कृष्णाजी की बैठक में उनका पोट्रेट बना रही थीं, दीवार पर एक पेंटिंग टंगी थी जिसमें बगीचा, फूल पत्ते, उड़ते पक्षी आदि दिखाई दे रहे थे. मुझे ठीक याद नहीं कि वो उपन्यास का कवर बना रही थीं या उनका पोर्ट्रेट, मगर अंततः वही है बुकर-सम्मान वाली किताब का मुखपृष्ठ.
चित्र में एक सीध में गेरुए रंग के गमले हैं जिनमें हरी पत्तियां और रंगीन फूल खिले हुए हैं. बायीं ओर के गमले में खूब हरियाली और सौन्दर्य है, गमले छोटे होते चले गए हैं और उनमें फूलों का कद भी घटता चला गया है. पांचवे गमले में फूल पत्तियां गायब हैं और उसके बीच से सफ़ेद बालों वाली कृष्णा सोबती (या ‘रेत समाधि की नायिका) एक बड़े-से पक्षी को अपनी लाठी के सिरे पर रखकर चारों ओर फैली पुष्प-सुवास को चुगा रही हैं. इसके बाद गमले बड़े होते गए हैं, अब फूल गायब हैं लेकिन दायीं ओर के सबसे बड़े गमले में बड़े-बड़े फूल फिर से घुसते दिखाई दे रहे हैं और एकदम ऊपर एक विशाल पुष्प मानो मुस्करा रहा है.
‘चुप्पियों में आलाप’ के कवर के साथ ‘रेत समाधि’ की तुलना अजीब ढंग से रोमांचित करती है. इस आलेख को तैयार करते हुए भी मुझे लगातार लगता रहा कि इसमें चर्चित रचनाकारों के जो भी प्रतीक आए हैं, वे मूलतः स्त्री प्रतीक हैं, उन्हें स्त्री के अलावा कोई और रेखांकित नहीं कर सकता था. चाहे वो मृणाल का गुस्सा हो, गीता के चक्खू की हत्या से उपजी खुद के पिता को दी गयी गालियाँ, स्वाति की कोसी नदी की थकान के साथ तादात्म्य हो, रेखा के साइकिल की स्पीड हो या सपना की ऑक्टोपस से जकड़ी चुप बैठी स्त्री का आलाप (जो मूलतः सदियों से अभिशप्त स्त्री की मौन चीख है).
पहाड़ों का चौमास यानी श्रावणी बौछार सपना के यहाँ भी है हालाँकि वहां प्रेम शरीर से मुक्त हुआ नहीं है. मगर प्रेम के जो आत्मीय और अन्तरंग चित्र सपना की कविताओं में आये हैं वे भरपूर संभावनाओं की ओर इशारा करते हैं:
चहुँओर गिरता है श्रावण धाराशार
बह जाती हैं सड़कें पुल और खेत
ढहते है पेड़, खिसकती हैं चट्टानें.
सपना की कविताओं के बिम्ब बेहद आत्मीय हैं और भाषा भी वैसी ही संवेदनशील. आसपास को ग्रहण करने का नज़रिया भी सहज और कलात्मक है. मुझे लगता है इसे और विस्तार देने के लिए समकालीन लेखन और अपनी जड़ों के बीच घुसकर तदाकार अन्विति के साथ लेखन को आगे बढ़ाने की जरूरत है, जो लगातार रियाज़ से ही संभव है.
और मुझे लगता है, यह बात सभी युवा रचनाकारों पर समान रूप से लागू होती है.
(क्रमशः)
अगले अंक में : नवीन नैथानी और अशोक पांडे का खल-कथा पुराण.
बटरोही जन्म : 25 अप्रैल, 1946 अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँवपहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास ’गर्भगृह में नैनीताल’ का प्रकाशन, ‘हम तीन थोकदार’ प्रकाशित अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.इन दिनों नैनीताल में रहना. मोबाइल : 9412084322/batrohi@gmail.com |
बहुत शानदार और उदार परिचय दिया है बटरोही जी ने । उसके बहाने कुछ बीती बातों को भी बताया । मैं बतरोही जी के लेखन को सदा पसंद करता रहा हूं । ऐसी तथस्थ और समझदार प्रतिभाएं हमारे संसार में कम बची हैं ।
बहुत मेहनत से बटरोही जी उत्तराखंड की रचनाशीलता पर फोकस कर रहे हैं। सराहनीय कार्य।
बहुत अलग तरह का दस्तावेजीकरण है। यह भविष्य में शोध के काम भी आएगा। बटरोही जी की लेखनी में पढ़ने की जिज्ञासा है।
बेहतरीन विश्लेषण
उत्तराखंड की रचनाशीलता पर सशक्त और सार्थक आलेख. बटरोही जी एवं समालोचन को हार्दिक बधाई.
वाह ! बटरोही जी जिस भी विषय को उठाते हैं उसे सहज नदी की हर्षोल्लित धार की तरह अपने अनुभव के बीच बीच में मिलने वाले झरनों से समृद्ध करते हुए गंतव्य तक पहुंचा कर ही दम लेते हैं । उत्तराखंड के लेखकों, नवलेखकों को उनसे बेहतर रससिक्त अभिभावक साहित्यकार की कल्पना नहीं की जा सकती । बहुत ही संक्षेप में लेखक और रचना के मर्म को खोल देते हैं । उन्हें और उनकी कलम से प्रस्तुत तमाम रचनाओं और रचनाकारों को बधाई जिनके कारण परिचयात्मक सी यह विधा समानांतर रचनात्मक ऊंचाई पा गई है ।
समीक्षा हेतु धन्यवाद
आदरणीय बटरोही सर के बारे में सबसे पहले स्वाति से जाना था। उनके महत्वपूर्ण कार्यों के बारे में जानकर सकारात्मक ऊर्जा मिली थी।
उत्तराखंड के नवलेखन की इस सीरीज में बहुत कुछ जानने समझने का मौका मिला।
मुझे खुशी है कि उन्होंने मेरी कविताओं को भी इस योग्य समझा । उन पर अपनी बात रखी। शुक्रिया सर !
अरुण देव जी आपका शुक्रिया । इस सीरीज को समालोचन में जगह देने के लिए आभार।
उत्तराखंड के नए लेखक सौभाग्यशाली हैं कि उन के सीनियर्स उन्हें चिन्हित कर के आलेख लिख रहे हैं….. रेखा चमोली को मै भविष्य की एक महत्वपूर्ण कवि की तरह पढ़ता हूँ. उस के कविता की एक नई ज़मीन है जो उस की अपनी है और उस की कविता का लोक मौलिक है. लेशमात्र भी आयातित नहीं. सभी लेखकों को बधाई और बटरोही जी का आभार!
वाह ! हर बार की तरह प्रभावी आलेख | प्रवाहमयी और मात्र सूचनात्मक या तथ्यातमक नहीं | मौजूदा स्थिति से चार कदम आगे ले जाता है पाठक को ! आदरणीय बटरोही जी का चिन्तन प्रणम्य है ।
आनंदमय लेख । कब शुरु हुआ और कब खत्म, पता नहीं चला