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Home » ‘वीरेनियत’ का मतलब: पंकज चतुर्वेदी

‘वीरेनियत’ का मतलब: पंकज चतुर्वेदी

‘इतने भले नहीं बन जाना साथी/जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी’ वीरेन डंगवाल के पहले कविता संग्रह, ‘इसी दुनिया में’ यह कविता शामिल है. इसका असर कुछ ऐसा ही है जैसे निराला की ‘बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!/ पूछेगा सारा गाँव, बंधु!’ भावभूमि अलग होने के बाद भी इन दोनों कविताओं की सहज गीतात्मकता बाँध लेती है. वीरेन डंगवाल की उक्त कविता सचेत करने वाली कविता है. कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताओं में से ११२ कविताओं का चयन ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ के लिए किया है. वीरेन के कवि-व्यक्तित्व को समझने में यह संग्रह सहायक होगा, कविताओं पर आलेख दिया जा रहा है जो इस संग्रह की भूमिका है.

by arun dev
August 6, 2022
in आलेख
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‘वीरेनियत’ का मतलब: पंकज चतुर्वेदी
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इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कूवत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
संभव ही रह जाए न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊँचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफ़साना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं जो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो, उस पर भी तो तनिक विचारो

काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमंड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

(वीरेन डंगवाल, 1984)

 

‘वीरेनियत’ का मतलब
पंकज चतुर्वेदी

बड़ा कवि वह है, जो अपने बड़े होने को बार-बार सत्यापित करता है. अच्छा कवि उसे कह सकते हैं, जिसकी रचना की सिर्फ़ कुछ पंक्तियों में नहीं, बल्कि समूची संरचना में कविता विन्यस्त हो. बड़ा कवि अधिकतर ऐसी रचनाओं को संभव करता है.

‘अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल-प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण’

निराला की इन पंक्तियों में ‘प्रमाण’ की बहुवचनीयता ग़ौरतलब है. संख्या-बल में वीरेन डंगवाल का काव्य-अवदान अपेक्षया भले कम हो, मगर श्रेष्ठ कविताओं के औसत के लिहाज़ से वह बड़े कवि हैं. यह प्रतिशत कुछ-कुछ वैसा है, जैसा रन औसत क्रिकेट की दुनिया में दिग्गज बल्लेबाज़ डॉन ब्रॅडमन ने संभव किया.

बहरहाल. उनके पहले संग्रह की पहली कविता की शुरूआत में ही मृत्यु की परिस्थिति का विचार सहसा विचलित कर देता है. जैसे आरम्भ में ही अंत की मर्मस्पर्शी प्रस्तावना लिखी हुई है:

‘एक दिन चलते-चलते
यों ही ढुलक जायेगी गरदन
सबसे ज़्यादा दुख
सिर्फ़ चश्मे को होगा,
खो जायेगा उसका चेहरा
अपनी कमानियों से ब्रह्माण्ड को जैसे-तैसे थामे
वह भी चिमटा रहेगा मगर’

एक स्तर पर देखें, तो कवि की आत्मीयता इतनी गहन है कि वह चश्मे जैसी वस्तु को भी एक सजीवता या कहें कि ‘मानवीयता’ से संवलित करने में सक्षम है, मगर उसी समय एक दूसरे स्तर पर यह आधुनिक समय में इनसान के अथाह और अप्रत्याशित अकेलेपन की भी कविता है- यों कि उसे लगता है कि उसके अवसान पर ‘सबसे ज़्यादा दुख’ किसी परिजन-स्वजन-मित्र-प्रिय सरीखे मनुष्य को नहीं होगा, बल्कि ‘सिर्फ़ चश्मे को होगा’, क्योंकि वह अपना चेहरा खो देगा! उस विकट परिस्थिति में भी- अपने अपरिहार्य प्रेम के चलते- वह जैसे-तैसे ‘ब्रह्माण्ड’ को थामे रहेगा. एक तो वाह्य विश्व होता है और दूसरा आभ्यंतरीकृत.

संवेदना, चिन्तन, सौन्दर्य-बोध और कल्पना के स्तर पर यह दूसरा विश्व ही–जिसे हम अपनी चेतना में धारण करते हैं–हमारा वास्तविक विश्व या ब्रह्माण्ड है. कवि का निकष या इम्तिहान भी यही होता है कि कितने बड़े विश्व को वह आत्मसात् कर सका है.

कविता आगे बढ़ती है और कवि अपनी ही ज़िन्दगी को प्रश्नांकित करता है. शीर्षक के रूप में भी यही प्रश्न है: ‘कैसी ज़िन्दगी जिये!’

अपने समकालीनों में वीरेन शायद सबसे सघन और तीखी आत्मालोचना के कवि हैं. यह काम कविता के अपने पूरे सफ़र में वह लगभग निरन्तर करते रहे. आत्म-औचित्य की संतुष्टि, क्रांतिकारी होने के दर्प, ख़ुशफ़हमी या आत्म-श्लाघा से दूर वह अपनी वंचना, विवशता, बेचैनी, तकलीफ़ और विफलता का एक सहज, पारदर्शी और मार्मिक वृत्तांत रचते हैं. किसी भी दूसरे आम इनसान की मानिंद जीवन में क्या नहीं करना पड़ा–इस विषमताग्रस्त सामंती और उत्तर-औपनिवेशिक सामाजिक व्यवस्था में हम किस क़दर अपमानित रहने को मजबूर होते हैं, उसका यह कितना संश्लिष्ट बिम्ब है:

‘कभी म्याऊँ बोले
कभी हँसे, दुत्कारी हुई ख़ुशामदी हँसी’
और इस चित्रण का अन्त एक उद्विग्न आत्म-स्वीकार में होता है:
‘कैसी निकम्मी ज़िन्दगी जिये.’
ऐसी निर्मम आत्मालोचना के लिए बहुत निश्छलता और साहस चाहिए.

वीरेन अभिजन के नहीं, जन के कवि हैं. सम्भ्रान्त जन तो समृद्ध, सशक्त, सुख-भोग-रत और संतुष्ट हैं ही; लेकिन उनका यह ऐश्वर्य और आह्लाद मूल्यनिष्ठा से उनकी विमुखता का नतीजा है:

‘हवा तो ख़ैर भरी ही है कुलीन केशों की गन्ध से
इस उत्तम वसन्त में
मगर कहाँ जागता है एक भी शुभ विचार’

लाज़िम है कि कवि उस निष्क्रियता पर पड़ा परदा उठाता और उस पर चोट करता है, जिसमें हमारे समाज का उच्च-मध्य और मध्यवर्ग लिप्त है और थोड़ी-बहुत शर्मिंदगी को ही अपने कर्तव्य-पालन का पर्याय मानता है:

‘खरखराते पत्तों में कोंपलों की ओट में
पूछते हैं पिछले दंगों में क़त्ल कर डाले गये लोग
अब तक जारी इस पशुता का अर्थ
कुछ भी नहीं किया गया
थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा’

यह कविता तक़रीबन अड़तीस बरस पहले 1984 में लिखी गयी थी, लेकिन एकदम नयी और प्रासंगिक लगती है; क्योंकि जिस विडंबना का आख्यान इसमें है, वह आज भी बदस्तूर जारी है, बल्कि अब तो और हिंसक रूप में.

वीरेन निराला, नागार्जुन, शमशेर और रघुवीर सहाय जैसे पूर्वज कवियों के अलावा मुक्तिबोध की परम्परा से बहुत गहरे जुड़े हुए कवि हैं और अपने पहले संग्रह की दूसरी कविता में ही ‘अँधेरे में’ सरीखी क्लासिक कविता में आनेवाले ‘पागल के आत्मोद्बोधमय गान’ की याद दिलाते हैं:

‘किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया ?’

यह सवाल है, जो वह ज़िन्दगी भर करते रहे, अपने से और दूसरों से भी और यह भूल जाने की बात नहीं कि जवाब कमोबेश यही पाते रहे:

‘कुछ भी नहीं किया गया
थोड़ा बहुत लज्जित होने के सिवा’

इसलिए मुक्तिबोध की कविता के इस बेचैन आग्रह को भी यहाँ स्मरण कर लें, तो सार्थकता का एक चक्र पूरा होता है :

‘जितना भी किया गया
उससे ज़्यादा कर सकते थे.
ज़्यादा मर सकते थे.’

वीरेन डंगवाल का जन्म भारत को आज़ादी मिलने के दस दिन पहले 5 अगस्त, 1947 को हुआ था. तब से उनकी किशोरावस्था तलक जो दस-पन्द्रह वर्षों का वक़्फा था, उसमें देश स्वाधीनता की एक नयी सुनहली आभा में आँखें खोल रहा था. अंग्रेज़ों की विदाई से अवाम में नवनिर्माण की आशा, उत्साह, उमंग और सपने जाग गए थे. निराला ने रचना में उसी दौर की गवाही दी है:

‘कैसी यह हवा चली. तरु-तरु की खिली कली…..
अपना जीवन आया, गयी परायी छाया,
फूटी काया-काया, गूँज उठी गली-गली.’

लाज़िम है कि अपनी एक कविता में वीरेन लड़कपन में जब स्कूल जाते थे, उन दिनों के 15 अगस्त के जलसों को बहुत ख़ूबसूरती और शिद्दत से याद करते हैं. इस बयान में उनकी अचूक और मार्मिक बिम्बधर्मिता बहुत प्रभावित करती है:

‘झण्डा खुलता ठीक 7:45 पर फूल झड़ते
जन-गण-मन भर सीना तना रहता कबूतर की मानिंद’

बच्चे इतने निश्छल, पवित्र और संजीदा होते हैं कि शायद उनकी ही अवस्था में संवेदनाएँ अपने सबसे सान्द्र, प्रखर और उदात्त रूप में अक्षुण्ण रहती हैं. इसलिए इस उम्र में देश को लेकर जज़्बे का आलम देखिए कि एक बार जब झँझोड़ने पर भी झण्डा सही समय पर खुल नहीं पाया, तो

‘हेडमास्टर जी घबरा गये, गाली देने लगे माली को
लड़कों ने कहा हेडमास्टर को अब सज़ा मिलेगी
देश की बेइज़्ज़ती हुई है’

फिर उम्र बढ़ जाने पर कवि को याद आता है कि उस दौर में हम ‘काग़ज़ के झण्डे बनाकर घूमते’ इतने उत्साहित और रोमांचित रहते थे कि

‘चौदह अगस्त भर पन्द्रह अगस्त होती
सोलह अगस्त भर भी’

लेकिन इतने बरसों के समारोहों की उदास परिणति इस एहसास में होती है:

‘इतने बड़े हुए मगर छूने को न मिला अभी तक
कभी असल झण्डा
कपड़े का बना, हवा में फड़फड़ करने वाला
असल झण्डा
छूने तक को न मिला’

15 अगस्त सिर्फ़ आज़ादी का जश्न मनाने के लिए नहीं है, बल्कि जो आज़ादी इस दिन हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने अपने त्याग और बलिदान की बदौलत, अविराम संघर्षों से हासिल की थी; उसे देश के साधारण जन की सच्ची और संपूर्ण आज़ादी में बदलने की हमारी ज़िम्मेदारी को भी हमें याद दिलाने का दिन है. सबब यह कि आज़ादी का ‘असल झण्डा’ अभी तक भारत के दबे-कुचले अवाम को छूने तक को नसीब नहीं हो पाया है.

सच तो यह है कि स्वाधीनता का पहला दशक बीतते-न-बीतते सुखी, सुन्दर और शोषण-मुक्त भारत के सपनों का शीराज़ा बिखरने लगा था. भूलना मुनासिब नहीं कि पिकासो की ‘गुएर्निका’ सरीखी, एक फ़ासीवादी तंत्र की दहशत को साकार करती, उसकी आहटों को पहचानती मुक्तिबोध की क्लासिक कविता ‘अँधेरे में’ 1957 से 1962 के पाँच वर्षों के समयान्तराल में रची गई थी. जो विराट् मोहभंग था, वह एक भीषण ट्रेजेडी के एहसास में बदल गया. इस समयान्तर की बाबत एक इंटरव्यू में वीरेन डंगवाल मुझसे कहते हैं :

‘1966-67 में एक मोहभंग पैदा हुआ, जो देश-व्यापी था. सातवें दशक में जगह-जगह किसान-आंदोलन चल रहे थे, पूरा समाज उद्वेलित था. फिर लगा कि आज़ादी नाकाफ़ी है, वह दरअसल मिली नहीं है. वह मुहावरा ज़्यादा है, वास्तविकता कम. आज़ादी के नाम पर इस देश की जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा, बहुत बड़ा छल हुआ है.’

बीसवीं सदी के अन्तिम दशक की दहलीज़ पर हमने समाजवादी महाआख्यान का टूट-टूटकर बिखरना देखा. उसके अनन्तर भूमंडलीकरण का ज़माना आया, जो बक़ौल वीरेन: ‘भाषाओं, संस्कृतियों और कविता का शत्रु है.’ यह यथास्थिति के पोषक, अधिनायकवादी और केवल बाज़ार और उपभोग के प्रवक्ता एवं सारथी वैश्विक मनुष्यों को गढ़ता है. यह एकरूपता तथा ग़ुलामी को बढ़ावा देता और वैविध्य एवं प्रयोगधर्मिता को हतोत्साह करता है. इसके बरअक्स वीरेन बेहद प्रयोगधर्मा कवि थे, क्योंकि उनका मानना था कि ‘इसके बग़ैर अपने जटिल यथार्थ से पार पा सकना नामुमकिन है.’ उन्होंने प्रसंगवश बेर्टोल्ट ब्रेष्ट को याद किया है :

‘समय प्रवाहित होता रहता है- नयी समस्याएँ उभरती हैं और नयी तकनीकों की माँग करती हैं. यथार्थ बदलता है–उसकी प्रस्तुति के लिए प्रस्तुतीकरण के साधनों को भी बदलना चाहिए.’

महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं कि वीरेन डंगवाल की काव्य-भाषा में प्रचुर वैविध्य है, उसकी बहुत सारी तहें और एक व्यापक ‘रेंज’ है- संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र के तमाम अंचलों की वह नुमाइंदगी करती है. परम्परा, प्रकृति और संस्कृति में उसकी जड़ें गहरे जाती हैं और सबसे बड़ी सिफ़त है कि वह तत्सम के बजाय लगातार तद्भव की ओर जाती हुई ज़बान है, जैसे कि स्वयं वीरेन बराबर साहित्य के दायरे के बाहर वृहत्तर ज़िन्दगी की जानिब जाते हुए कवि हैं. इसीलिए वह नाज़िम हिकमत के इस मंतव्य पर इसरार करते हैं कि ‘कविता की भाषा और जीवन की भाषा को अलग-अलग नहीं होना चाहिए’ और उनके पास आत्मा की गीली मिट्टी पर छाप छोड़ सकने वाली बेहद जीवन्त और ज़बरदस्त काव्य-भाषा है. ध्वनियों के जितने प्रयोग उन्होंने किए, शायद ही किसी समकालीन कवि ने किए हों. उनके अनुभव के आख्यान में एकरसता और एकपक्षीयता नहीं है. वह इस सोच के हामी थे कि कविता में तकलीफ़ और जद्दोजहद की बात हो, पर उस जीवन-द्रव्य और जीवन-रस की बात भी हो, जिसके बग़ैर संघर्ष मुमकिन ही नहीं है. तभी वह कहते हैं कि ‘रचना के लोक में निष्कलुष प्रसन्नता की भी उतनी ही अपरिहार्य जगह है, जितनी करुणा की’ और गोया कविता में व्यवहार की ज़मीन पर इसे संभव करके दिखा देते हैं:

‘ककड़ी जैसी बाँहें तेरी झुलस झूर जाएँगी
पपड़ जाएँगे होंठ गदबदे प्यासे-प्यासे
फिर भी मन में रखा घड़ा ठंडे-मीठे पानी का
इस भीषण निदाघ में तुझको आप्लावित रक्खेगा
अलबत्ता
लली, घाम में जइये, तौ छतरी लै जइये’

वीरेन डंगवाल की कविता बेहद सीमित मध्यवर्गीय या उच्च-मध्यवर्गीय नागरिक अनुभव की अकादमिक क़िस्म की या आभासी कविता नहीं है, जो अक्सर निरी बौद्धिक कसरत के बूते लिखी जाती है; बल्कि उसमें आमदनी की निचली और सबसे निचली सतहों पर गुज़र-बसर करने वाली मनुष्यता के सुख-दुख, स्वप्न और संघर्ष हैं. वीरेन हमारे समय में पूँजी के अभूतपूर्व और अप्रत्याशित प्रभुत्व की वजह से संकट में पड़े हुए, बहुधा तबाह हो गए हिंदुस्तान के सामान्य जन-जीवन के कवि हैं और उसकी यातना को गहरे और ‘इंटेंस’ लहजे में व्यक्त करते हैं :

‘धन का घन
रहा बाज घन्न-घन्न
घन-घन-घन
घनन-घनन
फटे जा रहे पर्दे भ्रांतिग्रस्त कानों के
छुटे चले जाते हैं छक्के प्राणों के’

डॉ. नामवर सिंह ने एक वक्तव्य में वीरेन डंगवाल को ‘पदार्थमयता का कवि’ कहा था और जब मैंने उनसे यह बात साझा की, तो वह बहुत सहमत और प्रसन्न नहीं दिखे. शायद यह बयान जाने-अनजाने इस सचाई की अनदेखी करता है कि वस्तु-संसार के ऐन्द्रिय अभिज्ञान से एक उदात्त विचारशीलता और संवेदना के संश्लेषण के बग़ैर वह कोई कविता नहीं लिखते. इस लिहाज़ से ‘लॉरी बेकर’ शीर्षक पूरी कविता ग़ौरतलब है, जो प्रकृति के पाँच तत्त्वों की ही प्रधानता में सृष्टि का मंगल और सौन्दर्य मानती है; लेकिन इनसे भी ज़्यादा अहमियत भौतिक ऐश्वर्य के बरअक्स प्रकृति को श्रेयस्कर समझने वाले मानवीय चिन्तन को देती है:

‘सबसे ज़रूरी चीज़ है
वो ख़याल
जिसे तुम शक्ल देते हो पहले
सिर्फ़ हवा में;
लिहाज़ा
हवा भी सबसे ज़रूरी चीज़ों में एक है.
बाक़ी सारे नगीने तो बकवास हैं
सारे प्रपंच
पाखंड.’

हिन्दी में अब वीरेन के अंदाज़-ए-बयाँ को ‘वीरेनियत’ के नाम से जाना जाने लगा है, जिसका मतलब है, वीरेन डंगवाल की विशिष्टता, जो उनका ख़ास मिज़ाज और शैली थी, कविता ही नहीं, ज़िंदगी में भी. और स्पष्ट करना हो, तो ‘वीरेनियत’ कुछ मूल्यों के समुच्चय का नाम है, मसलन साफ़गोई, ज़िंदादिली, नैसर्गिकता, प्यार, मार्मिकता, प्रतिबद्धता और कशिश, जिसके साथ वह ख़ुद से जुड़े थे और अपने दोस्तों या दुनिया से भी मुख़ातब. इसके अलावा, उनमें साथी कवियों से बहुत लगाव था और उसी तरह, पूर्वज या अग्रज कवियों के प्रति अतिशय विनम्रता. तभी शमशेर की अनूठी कला का दाय स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा:

‘रंग बहुत से हैं मेरे पास
कहा साल के उस दरख़्त ने
मगर कूचियाँ तमाम ले गये
शमशेर बहादुर सिंह कत्थई गुलाब वाले.’

आज ‘वीरेनियत’ ऐसे बेहतरीन कवि को याद करने और उनसे आत्मीयता महसूस करने वाले समकालीन कवियों और अपने-अपने अवदान के परिष्कार, समृद्धि और उन्नयन की ख़ातिर उनसे प्रेरणा हासिल कर सकने वाले युवा एवं युवतम कवियों के लिए रौशनी की एक लकीर की मानिंद है.

हिन्दी में वीरेन को चाहने वाले साहित्यिकों का संसार उनके रहते ही बड़ा था और ‘वीरेनियत’ इस बात का सबूत है कि उनके जाने के बाद यह संसार सिमटा नहीं, बल्कि और बड़ा ही हुआ है. कम कवियों के साथ ऐसी स्थिति बन पाती है. दूसरे, साहित्य में सर्वानुमति जैसी कोई ‘ऐब्सलूट’ स्थिति नहीं होती. न वह संभव है और न ही काम्य, क्योंकि किसी कवि की लोकप्रियता के बावजूद आलोचना की गुंजाइश हमेशा बनी रहनी चाहिए. शायद इसी संभावना को लक्ष्य कर रघुवीर सहाय ने कभी ‘मेरा जीवन’ शीर्षक कविता में लिखा था और उनका यह काव्यांश वीरेन के उत्तर-जीवन के संदर्भ में भी काफ़ी सार्थक साबित होता है:

‘सारे संसार में फैल जाएगा एक दिन मेरा संसार
सभी मुझे करेंगे- दो चार को छोड़- कभी न कभी प्यार
मेरे सृजन, कर्म-कर्तव्य, मेरे आश्वासन, मेरी स्थापनाएँ
और मेरे उपार्जन, दान-व्यय, मेरे उधार
एक दिन मेरे जीवन को छा लेंगे- ये मेरे महत्त्व
डूब जाएगा तंत्रीनाद कवित्त रस में, राग में, रंग में
मेरा यह ममत्व
जिससे मैं जीवित हूँ

मुझ परितृप्त को तब आकर वरेगी मृत्यु- मैं प्रतिकृत हूँ

पर मैं फिर भी जियूँगा
इसी नगरी में रहूँगा
रूखी रोटी खाऊँगा और ठंडा पानी पियूँगा
क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूँ’

इसी तरह कम-से-कम तीन कविताओं में वीरेन ने भी अपने उत्तर-जीवन का भविष्य-कथन, पूर्वानुमान या कामना व्यक्त की है–‘समता के लिए’, ‘उठा लंगर खोल इंजन’ और ‘पितृपक्ष’. फ़रवरी, 2005 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार समारोह में स्वीकृति वक्तव्य देते हुए उन्होंने कहा था कि प्रेम, प्रतिबद्धता और प्रतिरोध को उन्होंने समवेत रूप से अपने कवि-कर्म की धुरी बनाकर रखा. बेशक ये तीनों अपरिहार्य हैं, मगर उपर्युक्त तीन कविताओं के साक्ष्य से हम कह सकते हैं कि इनमें भी प्रेम को वह शायद सबसे बुनियादी प्रेरणा या शक्ति मानते थे. यानी, अगर आपके दिल में प्रेम है, तो विचार और कर्म की दिशा भी सही होगी :

‘हवाएँ रास्ता बतलाएंगी
पता देगा अडिग ध्रुव चम-चम-चमचमाता
प्रेम अपना
दिशा देगा
नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा’

स्वाभाविक या असमय–मृत्यु तो सभी की होती है, मगर कैंसर के चलते वीरेन डंगवाल को जो यातना सहनी पड़ी, वह भयावह थी. उसमें भी यह और दारुण था कि उन्हें पहले से उनकी मौत बता दी गयी थी. ऐसे हालात में कोई सामान्य व्यक्ति रहा होता, तो शायद निष्प्रभ और निश्चेष्ट हो जाता, लेकिन उनमें असाधारण जिजीविषा और सिसृक्षा थी; जिसकी बदौलत वह आख़िरी साँस तक निस्तेज नहीं हुए, बल्कि देहावसान के कुछ महीनों पहले तलक उन्होंने अपनी रचनाशीलता को भी क़ायम रखा. तीन कविता-संग्रहों के बाद और मृत्यु का सामना करते हुए लिखी गयी उन 38 कविताओं पर–जो ‘असंकलित और नयी कविताएँ’ शीर्षक से ‘कविता वीरेन’ में संगृहीत हैं–हिन्दी में पर्याप्त विमर्श अभी नहीं हुआ है, जबकि इनमें अनेक रचनाएँ बहुत मार्मिक, दुर्लभ और श्रेष्ठ हैं. वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल–दोनों कवियों का निधन इसलिए और विडम्बनापूर्ण है कि वे उस समय बेहतरीन सृजन कर रहे थे. इस मानी में कवि-मित्र व्योमेश शुक्ल का बयान मर्मस्पर्शी है कि मानो ये दोनों कवि क़लम हाथ में लिये हुए मर गए! शायद अतिशयोक्ति न मानी जाए, अगर मैं उनका यह स्तवन करना चाहूँ कि योद्धाओं की मृत्यु ऐसी ही होती है.

अंग्रेज़ी कवि जॉन कीट्स को भी उस ज़माने में असाध्य तपेदिक़ के कारण अपनी असमय मृत्यु पहले से मालूम थी. कहते हैं कि मृत्यु से रूबरू होने के चलते सौन्दर्य और प्रेम पर एकाग्र उनकी कविताओं में अविस्मरणीय आभा और कशिश है. इस रौशनी में वीरेन की कविता ‘मेट्रो महिमा’ देखी जानी चाहिए, जो आधुनिकतम टेक्नॉलजी का अभिनन्दन है और आलोचना भी, मगर उसी समय वह एक नायाब और यादगार प्रेम कविता है. हिन्दी में ऐसा कमाल सिर्फ़ वीरेन डंगवाल कर सकते थे, इस आशय का बयान विष्णु खरे ने भी जारी किया था. वीरेन ने प्रेम के हासिल होने को चरम सार्थकता माना, तो उसके अभाव को सबसे बड़ी हानि, फिर चाहे कितने ही राजत्व और वैभव से सम्पन्न जीवन रहा हो :

‘और ज़िन्दगी में प्रेम नसीब नहीं हुआ
शाहजहाँ की ख़ानदानी उन शहज़ादियों को
जो अनब्याही ही दफ़्न कर दी गईं
संगेमरमर की क़ब्रों में’

आख़िरी वर्षों में वीरेन डंगवाल की एक प्रमुख चिन्ता सामाजिक जीवन में विभाजन और विषमता थी और इससे वह बहुत बेचैन रहते थे, मुझसे कहते: “हर जगह, हर स्तर पर इतना ‘डिवाइड’ पैदा किया जा रहा है, जैसा पहले कभी नहीं था.”

ये हालात उन्हें दुखद और डरावने लगते थे. ‘रामदास–दो’ शीर्षक कविता इसी मनःस्थिति की उपज है. सरकार-अवाम, ग़रीब-अमीर, स्त्री-पुरुष, अवर्ण-सवर्ण और हिन्दू-मुसलमान–इनमें फ़ासीवादी सत्ताकामी राजनीति ने इतनी चौड़ी और गहरी खाई बना दी है कि इनसानियत गोया एक नामुमकिन-सी शै है! वीरेन ने अपनी बीमारी के दिनों में भी इस भेदभाव और वैमनस्य के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अतीत की पड़ताल कविता के शिल्प में बारहा की: ‘लहसुन’, ‘पलाश बिस्वास’, ‘परिकल्पित कथालोकान्तर काव्य-नाटिका…. ‘ और ‘कानपूर’ जैसी कविताओं में. लहसुन के बारे में वह बताते हैं कि सर्वप्रथम ‘लामा थोघपा-पा-था ने ईसा से एक शताब्दी पहले/इसकी जड़ों को खोद निकाला था’ और उन्होंने ही इसे तत्कालीन भारत के गणराज्यों को तोहफ़े के तौर पर भिजवाया था. बौद्धों की इस अहम भूमिका के कारण ही विद्वेष से भरकर

‘ब्राह्मणों ने इसे अपवित्र और सद्गृहस्थों में
निषिद्ध घोषित किया.’

अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति हिक़ारत को वे अपना हक़ तो मानते ही हैं, ख़ुद अपने धर्म के उपेक्षितों से इंसाफ़ कर सकना उन्हें आज भी गवारा नहीं :

‘दलितों वंचितों पिछड़ों को न्याय चाहिए
बराबरी का प्रेम
और इन इच्छाओं को सचमुच समझ पाना
आसान नहीं सवर्णों के लिए.’

दूसरी ओर, मज़लूमों और अल्पसंख्यकों के लिए भी अपने प्रति किए जा रहे अन्याय और हिंसा को समझ सकना आसान नहीं:

‘लाल आँखों वाला एक ज़ईफ़ मुसलमान,
जब वो मुझसे पूछता है तो शर्म आती है :
‘जनाब, हमारी ग़लती क्या है?
कि हम यहाँ क्यों रहे ?
हम वहाँ क्यों नहीं गए ?’

ऐसे में अचरज नहीं कि जिस कवि ने अपनी रचना-यात्रा के आरम्भिक चरण में 36 बरस की उम्र में लिखा था :

‘हज़ार ज़ुल्मों से सताए मेरे लोगों
मैं तुम्हारी बददुआ हूँ ‘,

उसने जीवन की साँझ में भी अपनी इस प्रतिश्रुति को न सिर्फ़ अक्षुण्ण रखा, बल्कि युयुत्सा की धार को और भी समुज्ज्वल और प्रखर बनाया :

‘वे रानियाँ भी ग़ुलाम थीं
जो सोने की थाली में खाती थीं
ग़ुलाम थीं वे भी लखूदास शिवदास की तरह

इसलिए सुन लो सब यह नया गाना :
राज्जों, बजीरों का, शास्त्रों-पुराणों का नाश हो
जिन्होंने हमें ग़ुलाम बनाया.

इन तैंतीस करोड़ देवताओं का नाश हो
जो अपनी आत्मा जमाए बैठे हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों में
और हमारे मनों में.

अरे सुनो डूमो, धुनारो, लुहारो, दर्ज़ियो, कारीगरो, मजूरो
कितना सताया तुम्हें-हमें
इन पोथियों-पोथियारों, ताक़त वालों ने
इनका नाश हो
चलो मिलकर करते हैं इन पर घटाटोप.’

पंकज चतुर्वेदी
24 अगस्त, 1971, इटावा (उत्तर-प्रदेश)  

प्रकाशित कृतियाँ : ‘एक संपूर्णता के लिए’ (1998), ‘एक ही चेहरा’ (2006), ‘रक्तचाप और अन्य कविताएँ’ (2015), ‘आकाश में अर्द्धचन्द्र’ (2022) (कविता-संग्रह);

‘आत्मकथा की संस्कृति’ (2003), ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ (2013), ‘रघुवीर सहाय’ (2014, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली के लिए विनिबन्ध), ‘जीने का उदात्त आशय’ (2015) (आलोचना);

‘यही तुम थे’ (2016, वीरेन डंगवाल पर एकाग्र आलोचनात्मक संस्मरण); ‘प्रतिनिधि कविताएँ: मंगलेश डबराल’ (2017, सम्पादन), ‘प्रतिनिधि कविताएँ: वीरेन डंगवाल’ (2022, सम्पादन).

इसके अतिरिक्त भर्तृहरि के इक्यावन श्लोकों की हिन्दी अनुरचनाएँ प्रकाशित.

पुरस्कार: कविता के लिए वर्ष 1994 के भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और आलोचना के लिए 2003 के देवीशंकर अवस्थी सम्मान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान के रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित.

2019 में इन्हें रज़ा फ़ेलोशिप प्रदान की गयी है.

प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, वी.एस.एस.डी. कॉलेज, कानपुर (उ.प्र.).
ईमेल : pankajgauri2013@gmail.com

   

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Comments 8

  1. Amarjeet Yadav says:
    8 months ago

    इस भूमिका में, वीरेन की ‘वीरेनियत’ को उनके इतिहासबोध और सामाजिक मूल्य को उनकी कविता और जीवन के अनेक उदाहरणों द्वारा बहुत ही सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है आपने।
    ‘वीरेनियत’ को हम आपकी ही एक अन्य पुस्तक, ‘यही तुम थे’ में बखूबी देख और महसूस कर सकते हैं।
    नई पुस्तक के संपादन और इस विस्तृत और जरूरी भूमिका के लिए आपको हार्दिक बधाई, सर।
    आत्मीय शुभकामना!

    Reply
  2. अरुण आदित्य says:
    8 months ago

    पंकज जी ने बहुत मन और श्रम से लिखा है। आत्मीयता और आलोचकीय दृष्टि का सुंदर समन्वय ।

    Reply
  3. रवि रंजन says:
    8 months ago

    वीरेन डंगवाल के निधन के बाद उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित मंगलेश जी के लंबे निबंध के साथ मिलाकर पंकज जी के इस विलक्षण सूझबूझ के साथ लिखित आलेख से गुजरने पर पाठकीय अभिग्रहण का वृत्त पूरा होता है।
    ‘यही तुम थे’ जैसी नायाब संस्मरणात्मक किताब के केंद्र में जहां कवि वीरेन डंगवाल का सर्जनात्मक व्यक्तित्त्व है वहीं इस अनोखे आलेख में उनके कृतित्त्व की अर्थमीमांसा करते हुए मूल्यनिर्णय प्रस्तुत किया गया है। मेरे ख्याल से किसी कवि पर लिखते समय उसके अनोखेपन को रेखांकित करने के लिए शमशेरियत की तर्ज पर मंगलेशियत या वीरेनियत जैसी शब्दावली का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं है।
    कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी को साधुवाद और अरुण जी को इसके प्रकाशन के लिए धन्यवाद।

    Reply
  4. Daya Shanker Sharan says:
    8 months ago

    वीरेन डंगवाल आधुनिकता के लोक कवि थे।लेकिन किसी रूढ़ अर्थ में
    नहीं बल्कि समकालीन यथार्थ के जटिल संदर्भ में।अच्छी समीक्षा।
    समालोचन एवं पंकज जी को साधुवाद !

    Reply
  5. डॉ. भूपेंद्र बिष्ट says:
    8 months ago

    वीरेन दा को इस तरह याद और उनकी कविताओं पर ऐसा विमर्श सिर्फ़ पंकज जी ही कर सकते हैं. वीरेन की कविताओं के उत्कर्ष को उनकी शुरुआती कविताओं में ही रेखांकित कर देना, उनकी कविता यात्रा के उत्तर काल को व्यतीत की स्मृतियों में भी इंगित कर सकना — यह फन पंकज चतुर्वेदी ने बेहद खूबसूरती से साधा है.
    उनसे उनकी नजदीकी और आत्मीय मरासिम इस आलेख में एक आईने के मानिंद हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है.
    सुंदर और ग़ज़ब.

    Reply
  6. बटरोही says:
    8 months ago

    बहुत विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि वीरेन को कवियों के कवि की तर्ज पर मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, मंगलेश जैसे महानों के साथ न जोड़ें। वह इन सबसे अलग तरह का बेजोड़ कवि था, जो अपनी परंपरा, बौद्धिकता, स्मृति को लेकर अराजक ढंग से विद्रोही था। वह किसी और के मुहावरे, शब्द-विन्यास, बिंबों, प्रतीकों और साहित्यिक लफ्फाजों को ठेंगे पर रखता था। उसकी भाषा अपनी देशज थी, वैसे ही जैसे उसका प्यार और दोस्ती का तरीका भी ठेठ अपना था, उसे समझने के लिए उसके उस परिवेश की स्थानीयता से गुजरना जरूरी है जहाँ उसके संस्कार बने। उन खिलंदड़, लफंगे और बद्तमीज-से दिखने वाले दोस्तों की भाषा के बीच से गुजरना होगा जहाँ से उसने प्यार करना और जीना सीखा। पता नहीं वह कवि था भी या नहीं, क्योंकि वह शब्द, भाषा और साहित्य का बौद्धिक जादूगर नहीं था, वह हमें जिन्दगी को देखने का ऐसा प्यारा कोना थमा देता है शायद, जिससे हमें अपना और खुद की जिंदगी से प्यार करने और उसका विस्तार करने का रास्ता आसानी से सूझ जाता है।

    Reply
  7. हरि मृदुल says:
    8 months ago

    बहुत सुंदर। पंकज अध्येता हैं। काबिल हैं। संवदेनशील हैं। और सबसे बड़ी बात कि बड़े श्रम से हिंदी की नायाब रचनाशीलता को नए सिरे से रेखांकित कर रहे हैं।

    Reply
  8. राजेन्द्र दानी says:
    8 months ago

    भाई संक्षिप्त में सही पर यहां वीरेन डंगवाल का माकूल परिचय मिल जाता है । वीरेन के बारे में कोई भी निष्कर्ष सुधिजन निकालते हों पर वीरेन तक पहुंचने का सरल सतही रास्ता कोई नहीं है । यह व्यक्ति अनेक व्यक्तिगत मुलाकातों के बाद भी अपना परिचय देने से हमेशा कतराता रहा है । इसे जिस व्याधि ने मार दिया वह उसकी अपनी बुलाई हुई थी , यह भी सच है । जीवन के अपरिमित जंजाल से मुक्त व्यक्ति ही वीरेन जैसा हो सकता है । वीरेन के कवि व्यक्तित्व को अभी खोला नहीं जा सका है गोकी वह आसान नहीं है ।

    Reply

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