मेरा लेखन और ग्रंथालयों की दुनिया मराठी से हिंदी अनुवाद : उषा वैरागकर आठले |
मेरी किताबों से दोस्ती बचपन में ही हो गई थी. पिताजी पुलिस विभाग में थे. उनके तबादले प्रायः महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके में ही होते थे. उन्हें दौरे पर काफी जाना पड़ता था. बावजूद इसके, किताबों से मेरी दोस्ती और पढ़ने का मेरा जुनून उन्होंने भाँप लिया था. उनका तबादला इंदापुर में हुआ और मैं वहाँ के जिला लोकल बोर्ड की शाला में सातवीं कक्षा में भरती हुई. इंदापुर पहुँचते ही पिताजी मुझे वहाँ के एक ग्रंथालय में ले गए. ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित वह ग्रंथालय आज सत्तर साल बाद भी मुझे साफ़-साफ़ याद है क्योंकि ग्रंथ संग्रहालय का प्रथम दर्शन, वहाँ की किताबों को छूने, पन्ने पलटने का वह पहला अनुभव मैं चाहकर भी कभी नहीं भूल सकती. मेरा पढ़ने का जुनून यहीं अंकुरित हुआ और पला-बढ़ा.
उन तीन-चार सालों में मैंने वहाँ की अनेक किताबें पढ़ लीं. उस समय के पाठकों की लोकप्रियता के शिखर पर आसीन ‘खांडेकर-फडके’ जैसे मराठी साहित्यकारों के काल में मैंने र.वा.दिघे, ग.ल.ठोकळ, अण्णाभाऊ साठे, व्यंकटेश माडगूळकर, मामा वरेरकर द्वारा अनूदित किये हुए बांगला उपन्यास, विभिन्न यात्रा-वर्णन, वैज्ञानिकों की छोटी-छोटी जीवनियाँ पढ़ ली थीं.
उस छोटे से गाँव में रहते हुए भी पढ़ने की मेरी रफ़्तार और विषयों का दायरा लगातार बढ़ता चला जा रहा था. मेरे आसपास की दुनिया से अलग अनुभव उन किताबों में मुझे मिलता था. मेरे शिक्षक भी मेरे इस जुनून की सराहना करते थे और अपनी निजी किताबें भी मुझे पढ़ने के लिए दे दिया करते थे.
आगे चलकर शालेय परीक्षा के बाद पुणे में ‘फर्ग्युसन’ कॉलेज में प्रवेश लिया. वहाँ के ‘जेरबाई वाडिया ग्रंथालय’ ने मेरे अगले महाविद्यालयीन वर्षों को प्रभावित किया. ग्रंथालय का विस्तार व आकार देखकर मेरी आँखें चौंधिया गईं. उसकी भव्य इमारत, किताबों की विषयवार रचना, वहाँ के कार्ड कैटलॉग्स, चाही गई किताब एक मिनट में मिल जाने की व्यवस्था, इन विशेषताओं के कारण मैं इस ग्रंथालय से प्यार कर बैठी. वहाँ पहुँचते ही लगता था मानो किसी जादुई नगरी में आ गए हों.
कला संकाय में सुबह साढ़े दस बजे कक्षा समाप्त हो जाती थी. रहती कॉलेज के छात्रावास में थी, तो मज़ा ही मज़ा था! कॉलेज के बाद पूरा दिन मैं ग्रंथालय में बैठकर पढ़ने में गुज़ार देती. उस ग्रंथालय में किताबें खोजते, पन्ने उलटते-पलटते और पढ़ते हुए विषयों की विविधता समझ में आने लगी. कहानी-कविता-उपन्यास से इतर विषयों का अध्ययन मेरी पसंद बनता चला गया. ग्रंथालय के ग्रंथपाल बोरगावकर जी मेरी मदद करते. उन्होंने मेरे पढ़ने के जुनून को पहचानकर सवाल किया, ‘बी.ए. के बाद क्या करोगी?’ फिर खुद ही कहा, ‘तुम्हें ग्रंथपाल की उपाधि लेनी चाहिए.’
मुझे उनका सुझाव पसंद आ गया और मैंने पुणे विश्वविद्यालय में इसी पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया.
अब मेरी दुनिया में दूसरे बड़े ग्रंथालय का प्रवेश हुआ- पुणे विश्वविद्यालय का ‘जयकर ग्रंथालय’. यहाँ अगले साल तक मुझे ग्रंथालय का पाठ्यक्रम पढ़ना था. किताबों के प्रति प्यार के साथ प्रशिक्षण जुड़ने वाला था. विश्वविद्यालय के छात्रावास में रहने के कारण ‘जयकर ग्रंथालय’ में भी मनचाहा समय मैंने बिताया.
विभिन्न ज्ञानशाखाओं के अंतरसंबंध समझ में आने लगे. संदर्भ और ‘क्रॉस रेफरंस’ खोजने और उनका उपयोग करने में तर्कबुद्धि का विकास होने लगा. ‘ये बात समझ में नहीं आई तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा’ वाला उदासीन रवैया समाप्त हो गया. कुछ तो अंदाज़ा लगाने लायक… मामूली जानकारी तो होनी ही चाहिए, इस दिशा में आगे बढ़ती चली गई. उपाधि पाठ्यक्रम का परिणाम हाथ में आते-आते ही औरंगाबाद के ‘मिलिंद कला महाविद्यालय’ में ग्रंथपाल की नौकरी मिल गई. मेरे व्यक्तित्व की गढ़न में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला यह तीसरा बड़ा ग्रंथालय था.
डॉ. आंबेडकर के अनमोल किताबों का संग्रह इसमें था. लगभग पचास हजार किताबों वाला यह समृद्ध ग्रंथालय और किताबों में आकंठ डूबी हुई मैं!
महाविद्यालय में बहुत गरीब विद्यार्थी आते थे. वे समझ नहीं पाते थे कि ग्रंथालय में आकर किताब कैसे माँगी जाए! मैंने उनके लिए किताबों का ख़ास ‘डिस्प्ले’ आयोजित कर उन्हें किताबों से रूबरू होने व परिचित होने की योजना कार्यान्वित की. धीरे-धीरे उनका संकोच कम होने लगा और वे वहाँ रखे डिब्बे में ‘डिमांड स्लिप’ डालकर बाकायदा किताब ‘इश्यू’ करने लगे. मेरा मन मयूर नाच उठा! मैं तो भरपूर पढ़ ही रही थी. शुरु से मराठी माध्यम में पढ़ते हुए मैंने मराठी साहित्य लेकर बी.ए. किया था. अंग्रेज़ी न जानने की कुंठा मेरे मन में थी. मगर इस ग्रंथालय में मैंने बेहतरीन जीवनियाँ पढ़ी. यह अध्ययन आगे चलकर बहुत उपयोगी साबित हुआ. उस पाँच साल की कालावधि के लिए एक ही शब्द है, ‘अविस्मरणीय’!
फर्ग्युसन कॉलेज में 1960 में प्रवेश लेने के बाद, आगे 1968 में ग्रंथपाल की नौकरी छोड़ने तक इन तीन बड़े ग्रंथालयों ने मेरे व्यक्तित्व को गढ़ने में मदद की.
शादी होकर 1968 के अंत में मैं वसई (मुंबई का एक उपनगर) में रहने लगी. वहाँ ग्रंथालय और वाचनालय तो था मगर मेरी अध्ययन की भूख और दायरा बढ़ चुका था. अच्छी अध्ययन-सामग्री का तीव्र अभाव महसूस हो रहा था. इसलिए बच्चों के लिए ‘कार्वर’ (डॉ. जॉर्ज वॉशिंग्टन कार्वर) की जीवनी लिखना शुरु किया. वसई में समृद्ध सार्वजनिक ग्रंथालय नहीं था; आज भी नहीं है. उस समय संदर्भ ग्रंथों की मेरी ज़रूरत को प्राचार्य पु.द. कोडोलीकर सर ने मुंबई विश्वविद्यालय के ग्रंथालय से आवश्यक किताबें लाकर पूरा किया. कार्वर की जीवनी ‘माणूस’ (मनुष्य) पत्रिका के दिवाली अंक में प्रकाशित हुई. प्रसिद्ध मराठी लेखिका दुर्गाबाई भागवत की नज़र उस पर पड़ी. उसी दौरान उन्होंने भी कार्वर की जीवनी लिखकर उसकी पांडुलिपि वरद प्रकाशन के ह.व. भावे को दी थी. मैं पहली बार प्रकाशक श्री ग. माजगावकर से मिलने पुणे के ‘राजहंस’ कार्यालय गई हुई थी. वहाँ हमारी बातचीत चल ही रही थी कि भावे ने माजगावकर को फोन किया कि, ‘दुर्गाबाई ने कहा है कि उनकी किताब न छापी जाए’; उन्हें आपके ‘माणूस’ में प्रकाशित ‘एक होता कार्वर’ (एक था कार्वर) पसंद आया है….’
उनकी इस सूचना के बाद बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. दो वर्षों बाद दुर्गाबाई वसई में आयोजित साहित्य जत्रा के उद्घाटन के लिए आई थीं. मैं उनसे मिलने गई. ‘अभी क्या लिख-पढ़ रही हो?’ उनके पूछते ही मैंने अपने किताबों के अभाव की बात बताई. उन्होंने कहा, ‘एशियाटिक ग्रंथालय समृद्ध है. तुम वहाँ भरपूर अध्ययन कर सकती हो. तुम वहाँ आओ, मैं ‘रिकमंड’ करती हूँ.’ उस ज़माने में ‘एशियाटिक सोसाइटी’ के ग्रंथालय की सदस्यता लेने के लिए आवेदन पर वहीं के दो सदस्यों के हस्ताक्षरों की आवश्यकता होती थी. दुर्गाबाई ने एक अपना हस्ताक्षर किया और दूसरा हस्ताक्षर अशोक शहाणे ने किया. बस, फिर क्या था! वसई-चर्चगेट लोकल ट्रेन से मेरे चक्कर शुरु हो गए.
जल्दी ही ‘मुंबई विश्वविद्यालय ग्रंथालय’ (राजाबाई टॉवर), ‘अमेरिकन इन्फर्मेशन सेंटर’ (यूसिस), ‘पेटिट लाइब्रेरी’ में भी मैं जाने लगी. एक बार जब मैं ‘यूसिस’ गई थी, वहाँ ग्रंथालय के लिए बेकार हो चुकी किताबें एक सीढ़ी पर सजाकर रखी गई थीं. उनके पन्ने उलटते-पलटते हुए मुझे आयडा स्कडर (भारतीय ग्रामीण भागों में, ख़ासकर स्त्रियों के लिए काम करने वाली मिशनरी डॉक्टर) पर लिखा एक उपन्यास मिला. जैसे-जैसे मैं उसे पढ़ती गई, उसकी गिरफ़्त में आती चली गई. अगले लगभग साल भर की खोजबीन के बाद डॉ. आयडा स्कडर की जीवनी लिखी.
उस ग्रंथालय में काम करने वाले वसंत सावे से काफी परिचय हो चुका था. वे मेरी मदद और मार्गदर्शन किया करते थे. इसी तरह मुंबई विश्वविद्यालय ग्रंथालय के ग्रंथपाल अरविंद टिकेकर से भी अच्छा परिचय हुआ. 1983-84 के दरमियान मैं ‘जो ऑफ आर्क’ (फ्रांस की युद्ध-नायिका) पर जानकारी इकट्ठा कर रही थी, उस समय उन्होंने मुझे काफी दुर्लभ और महत्वपूर्ण किताबें उपलब्ध करवा दीं.
किशोर पाठकों के लिए लिखी जीवनी ‘रेमण्ड डिटमर्स’ (सरिसृप जाति के प्राणियों के विशेषज्ञ और लेखक) ने इसी ग्रंथालय में जन्म लिया.
1986-87 चल रहा था. डॉ. सलीम अली की आत्मकथा ‘The fall of a Sparrow’ उसी समय प्रकाशित हुई थी. प्रकाशक दि. ग. माजगावकर ने मुझे इस आत्मकथा का अनुवाद करने का सुझाव दिया. मैंने वह किताब पढ़ी और तय किया कि डॉ. सलीम साहब से मिलकर बाकायदा अनुवाद के लिए उनसे अनुमति लूँगी. मगर इसी बीच उनका निधन हो गया. बेचैनी के साथ मैं ‘बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी’ जा पहुँची. वहाँ उनके अनेक सहकर्मियों से मिलकर उनके साक्षात्कार लिये. सोसाइटी के ग्रंथपाल आइज़ैक किहिमकर ने मेरी उत्सुकता देखते हुए सहायता के लिए हाथ बढ़ाया. उस ग्रंथालय में डॉक्टर साहब की तमाम किताबें थीं. मैंने उनकी प्रस्तावना पढ़ी. प्रकाशित आत्मकथा में जिन बातों का उल्लेख नहीं था, इस तरह की नई और अनूठी जानकारी मिलती चली गई. मैं और-और पढ़ती गई, और जानकारियाँ हासिल करती गई. उसी दौरान डॉ. सलीम अली का लकड़ी का एक बक्सा ग्रंथालय में आया. इस लकड़ी के बक्से के विभिन्न खानों में वे पक्षी-निरीक्षण के लिए जाते समय अपनी आवश्यक वस्तुएँ रखकर ले जाते थे. उनके सहकर्मी और दोस्त लोक वान थो की एक डायरी इस बक्से में थी. इसमें बिलकुल अलग प्रकार की सामग्री पढ़ने का अवसर मिला. उसके आधार पर ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ के लिए मैंने एक दीर्घ लेख लिखा. संपादक अरुण टिकेकर ने उसे पूरा प्रकाशित किया. परिणाम यह निकला कि, डॉ. सलीम अली के व्यक्तिगत सहायक जे.एस.सेराव को इस लेख के कारण मुझ पर विश्वास हो गया. वे डॉक्टर साहब का समूचा पत्र-व्यवहार सम्हालते थे. डॉक्टर साहब के भाषणों की, समूचे लेखन की कार्बन कॉपीज़ उन्होंने सम्हालकर रखी थीं. यह समूची धरोहर उनके अंधेरी के घर में सुरक्षित रखी हुई थी.
‘इसमें का एक भी कागज़ तुम अपने घर नहीं ले जा सकती. यहीं मेरे सामने बैठकर तुम्हें पढ़ना होगा.’
उनकी इस शर्त को मानकर मैं लगातार आठ दिन उनके घर जाती रही. इसके फलस्वरूप डॉक्टर साहब की आत्मकथा के अनुवाद का काम तो ठंडे बस्ते में चला गया, उसके स्थान पर मैंने उनकी स्वतंत्र जीवनी लिख डाली. ‘बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी’ के ग्रंथालय के कारण ही यह संभव हो पाया.
कृषि विशेषज्ञ डॉ. पांडुरंग सदाशिव खानखोजे बाबत अनुसंधान करने के लिए मुझे फिर ग्रंथालय-यात्रा करनी पड़ी. ‘मुंबई पुरातत्व संग्रहालय’ में कुछ हासिल न होने के बाद ‘एशियाटिक लाइब्रेरी’, ‘मुंबई विश्वविद्यालय ग्रंथालय’, ‘नेहरू स्मारक संग्रहालय’ (दिल्ली), ‘राष्ट्रीय ग्रंथालय’ (कोलकाता), ‘केसरी सूची कार्यालय’ (पुणे), ‘जयकर ग्रंथालय’, ‘जेरबाई वाडिया ग्रंथालय’ में लगातार दौरा करना पड़ा.
इन सभी ग्रंथालयों ने अपने हमेशा के नियम ताक पर रखते हुए मेरे द्वारा चाहे गए संदर्भ प्राप्त करने में बहुत मदद की. इन संदर्भों के आधार पर ही मैं डॉ. खानखोजे की जीवनी लिख पाई.
मैं सबसे पहले अमेरिका गई 2001 में. वहाँ मेरी बेटी के घर के पीछे और सामने सार्वजनिक ग्रंथालय थे. उस ग्रंथालय-यात्रा में पालो ऑल्टो ग्रंथालय में अणुविज्ञानी लिज़ माइटनर की जीवनी ने मुझे सम्मोहित किया. उसके संदर्भ मिले और ‘एक होता कार्वर’ (एक था कार्वर) का डीलक्स संस्करण निकालने के लिए इच्छित छायाचित्र भी उस ग्रंथालय ने आसानी से उपलब्ध करा दिये.
अमेरिका के अगले दौरे में सांता बार्बरा के सार्वजनिक ग्रंथालय में रसायनविज्ञानी और डीएनए स्ट्रक्चर अनुसंधानकर्ता रोज़लिंड फ्रैंकलिन की जीवनी का जन्म हुआ.
उसके बाद 2007 में जोहान्सबर्ग के तीन महीने अपने निवास के दौरान वहाँ के भव्य सेंटॉन ग्रंथालय का लाभ लिया. वहाँ दक्षिण अफ्रीका की नोबेल पुरस्कार विजेता नदीन गोर्डिमर का साहित्य पढ़ा. उनके साहित्य पर आधारित एक लेख ‘कदंब’ के दिवाली अंक के लिए लिखा.
इन तीन विदेशी ग्रंथालयों की ख़ासियतों को जानना भी ज़रूरी है. भरपूर सूर्य प्रकाश को अपने भीतर तक प्रवेश देने वाली इमारतें, लिखने-पढ़ने के लिए शानदार, आरामदायक सुविधाएँ, चाही गई किताब के किसी भी अंश की तुरंत फोटोकॉपी करने की सुविधा, ग्रंथालयीन कर्मचारियों की मुस्तैदी के कारण यह जगह अध्ययन-पर्यटन की आनंद-यात्रा प्रतीत होती हैं.
बाल पाठकों के लिए वहाँ विशेष कक्ष की व्यवस्था है. तीन से आठ, आठ से पंद्रह और वयस्क उम्र समूहों के लिए पृथक-पृथक कक्ष हैं. बच्चों के लिए कक्ष में किताबों की व्यवस्था अधिकतम चार फीट ऊँची होती है. वहीं नीचे बिछी दरियों पर विभिन्न ‘पज़ल्स’ रखी होती हैं. बच्चे अभिभावकों के साथ पढ़ते हुए दिखाई देते हैं. निर्धारित दिनों में जादू के खेल, संगीत, नृत्य, कथाकथन जैसे कार्यक्रम भी होते हैं. मुझे रश्क़ हुआ इन बच्चों से कि, बचपन से इन ग्रंथालयों जैसे पर्यटन स्थलों का अनुभव वहाँ लिया जा रहा है.
कैलिफोर्निया में मेरे परिचित सार्वजनिक ग्रंथालयों की ख़ासियत थी कि प्रवेशद्वार के पास एक कोना सुरक्षित रखा जाता है ऐसी किताबों के लिए, जो लगभग नई होती हैं, मगर उन पर चौथाई डॉलर, आधा डॉलर, एक डॉलर की कीमत की पर्चियाँ लगी होती हैं. बच्चों की किताबें भी इसी तरह ज़मीन पर खोखे के डिब्बों में रखी जाती हैं. जिसे जो किताब चाहिए, चुनता है, उस पर लगी हुई पर्ची की कीमत पास रखे डिब्बे में डालकर किताब ले जाता है.
मैंने भी ऐसी कुछ किताबें खरीदीं. घर लाकर पढ़ने के बाद ज़रूरत न होने पर वापस उसी जगह जाकर रख सकते हैं. किताबों का यह आदान-प्रदान, अभिसरण का यह तरीका मुझे बेहद पसंद आया. ग्रंथालय द्वारा अपने अहाते में पुरानी किताबों की बिक्री महीने में एक रविवार को प्रदर्शनी लगाकर की जाती थी. यह ‘हाफ प्राइस बुक सेल’ होती थी. सुबह दस बजे फाटक खुलता था. मैं जब पहली बार ग्यारह बजे पहुँची, तब तक अधिकाँश किताबें बिक चुकी थीं. अगली बार ठीक दस बजे पहुँची तो देखा, पार्किंग लॉट गाड़ियों से ठसाठस भरा हुआ था! दूर कहीं गाड़ी पार्क कर अपने बाल-बच्चों के साथ लोग आ रहे थे. फटाफट किताबें लेकर, पैसा चुकाकर अपनी-अपनी गाड़ी में बक्सों में भरकर घर ले जा रहे थे. एक घंटे में ही 90 प्रतिशत किताबें बिक गईं. वहाँ की व्यवस्थापिका ने बताया कि, जिन किताबों की आवश्यकता नहीं होती, उन्हें वापस ग्रंथालय के उस कोने में लाकर रख दिया जाता है. यह उपक्रम कोई भी ग्रंथालय अपने यहाँ चला सकता है. ऐसा करने पर किताबें रद्दी में नहीं बिकेंगी और ग्रंथालय को भी आर्थिक सहायता होगी.
अमेरिका के ‘हाफ प्राइस बुक स्टोर्स’ भी ग्रंथालय जैसे ही हैं. वहाँ भी किताबें किसी ग्रंथालय जैसी ही वर्गीकृत कर रखी जाती हैं. वहाँ भी बैठकर पढ़ने के लिए आरामदायक सुविधा होती है. कोई आकर रोकटोक नहीं करता, इसके विपरीत कुछ मदद तो नहीं चाहिए, इस बाबत विनम्रतापूर्वक पूछा जाता है.
देश-विदेश में इस तरह के ग्रंथालयों में जाना मेरे लिए सिर्फ ‘जाना’ नहीं होता. मेरी समझ की परिधि का विस्तार करने वाला, ज़िंदगी को समृद्ध करने वाला वह एक खूबसूरत अवसर होता है. मैं कौन हूँ, इसका आत्मबोध मुझे वहाँ जाने पर होता है. वहाँ जाने पर मेरे पैर जमीं पर रहते हैं. इसीलिए मैं अपना यह पर्यटन जारी रखना चाहती हूँ…
(मुंबई से प्रकाशित ‘लोकसत्ता’ दैनिक के 06 मई 2023 के शनिवारीय परिशिष्ट ‘चतुरंग’ के पृ. 01 से साभार)
उषा वैरागकर आठले
सन् 1985 से निरंतर मराठी से हिंदी अनुवाद; लगभग 10 अनूदित किताबें एवं अनेक लेख प्रकाशित. वर्तमान में इप्टा की राष्ट्रीय सचिव.
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आत्मकथात्मक समृद्धिदायक लेख।
यह बहुत प्रेरणास्पद है।
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बहुत अच्छा आलेख। साथ ही अनेक स्मृतियों को जगाता हुआ। तब जब बहुत पैसे नहीं होते थे कि हर पसंदीदा किताब ख़रीद कर पढ़ी जाए (और बहुत सी तो बाज़ार में उपलब्ध भी नहीं होती थी) पुस्तकायों में पढ़ने की भूख मिटाने और पुस्तकों की उपलब्धता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अपने महाविद्यालय और विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों के अतिरिक्त इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की सेंट्रल लाइब्रेरी और दिल्ली में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी और ब्रिटिश कौंसिल की लाइब्रेरी की याद अब तक है।
इस लेख के प्रकाशन के लिए मैं अरुण देव जी की जितनी भी तारीफ करूं ,कम है।
गुलाम भारत में पुस्तकालय आन्दोलन चला था। इसका प्रभाव यह हुआ कि जगह जगह पुस्तकालय खुले। बिहार और उत्तर प्रदेश के अनेक शहरों और कस्बों में खुले उन पुस्तकालयों के अस्तित्व अब भी है। उन्हें संभालने वाला कोई नहीं। मैं तो बिना पुस्तकालय के जी ही नहीं सकता। यह लेख बहुत ही अच्छा है।
ग्रंथालय की दुनिया में प्रवेश व आगे चलकर स्वयं ग्रंथपाल बनना , जीवनी लेखन करना , यह पूर्ण यात्रा कितनी सुखद है । लेख के माध्यम से वीणा गवाणकर जी से मिलवाने के लिए शुक्रिया समालोचन 💐
अनुवाद बहुत तरल व सुंदर है
बड़ा अद्भुत आत्मकथ्य है भाई अरुण जी। मुझे बहुत कुछ याद आया। और याद आता चला गया। आगरा कालेज, आगरा से भौतिक विज्ञान में एमएससी के बाद इल्हाम हुआ, मुझे तो साहित्य के लिए इस दुनिया में भेजा गया है। लिहाजा अपने छोटे से कस्बाई शहर शिकोहाबाद से हिंदी एम ए में एडमिशन लिया।वहां अच्छी बात यह थी कि क्लासें सुबह सात से साढ़े दस बजे तक होतीं और फिर पूरा दिन खाली।
पर मेरे लिए तो यही दिन की शुरुआत थी। संयोग से कालेज की लाइब्रेरी बहुत अच्छी थी। और मैं सुबह साढ़े दस से लेकर शाम को पुस्तकालय बंद होने तक वहीं धूनी रमाकर बैठ जाता। पूरे दो साल यह सिलसिला चला, और हिंदी साहित्य की असंख्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकें वहां पढ़ी गईं, जिन्होंने विकट ऊहापोह वाले समय में मुझे रोशनी दी, शक्ति भी। आगे की राह भी दिखाई।
फिर रिसर्च करने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय गया तो वहां तो इतना बड़ा, इतना सुंदर और समृद्ध पुस्तकालय था, कि धीरे-धीरे मुझे लगने लगा, मुझे इससे इश्क हो गया है। कुरुक्षेत्र में पांच बरस रहा, और वहां सर्वाधिक समय पुस्तकालय में ही बीता। कुरुक्षेत्र में मेरा सबसे प्रिय मित्र पुस्तकालय ही था, जिसने देश-दुनिया के साहित्य के द्वार मेरे लिए खोल दिए।
बेशक मेरी जीवन कथा अधूरी ही होती, अगर पुस्तकालयों ने इतने सुखद ढंग से इसमें हस्तक्षेप न किया होता।
वीणा जी का आत्मकथ्य पढ़कर बहुत अच्छा लगा। साथ ही एक तीखी कसक भी महसूस हुई, काश, हमारे देश में भी अच्छे, समृद्ध पुस्तकालयों की एक सुंदर शृंखला होती, तो यह देश बहुत बदला हुआ होता। और चीजें इतने दर्दनाक पतन के साथ सामने न आतीं।
अलबत्ता, इस बेहद संवेदित करने वाले आत्मकथ्य को पढ़वाने के लिए, भाई अरुण जी, आपका और ‘समालोचन’ का बहुत-बहुत आभार।
स्नेह,
प्रकाश मनु
ग्रंथालय की दुनिया में प्रवेश व आगे चलकर स्वयं ग्रंथपाल बनना , जीवनी लेखन करना , यह पूर्ण यात्रा कितनी सुखद है । लेख के माध्यम से वीणा गवाणकर जी से मिलवाने के लिए शुक्रिया समालोचन 💐
अनुवाद बहुत तरल व सुंदर है
वीना गावनकर महाराष्ट्र के लेखकों में एक चर्चित नाम है विशेष रुप से जीवनियां लिखने के लिए उन्हें जाना जाता है । उषा वैरागकर आठले ने उनके लेख का बहुत अच्छा अनुवाद किया है। महाराष्ट्र में ग्रंथालय की एक समृद्ध परंपरा है । यहां तक कि वहां विधानसभा में ग्रंथालय के प्रभारी मंत्री भी होते हैं । छोटे-छोटे कस्बों में भी बहुत अच्छे ग्रंथालय बने हुए हैं ।जब संयुक्त प्रांत था उस समय विदर्भ के 8 जिलों में और मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों में शासन द्वारा ग्रंथालय बनवाए गए थे उनकी डिजाइन भी लगभग एक जैसी ही थी। Half price book store के बारे में जानकर अच्छा लगा। हमारे यहां भी सरकारी और गैर सरकारी पुस्तकालयों में यह परंपरा प्रारंभ करनी चाहिए ताकि किताबे रद्दी के भाव में ना बिक जाएं । बाद में बहुत महत्वपूर्ण पुस्तकें ढूंढने पर भी नहीं मिलती। वीना जी का यह लेख बताता है कि मराठी भाषा में पढ़ने की एक समृद्ध परंपरा है जो हिंदी में नहीं मिलती ।
बहुत महत्वपूर्ण लेख के माध्यम से जीवनी लेखिका उषा वैरागकर आठले जी से मिलना हो गया। साथ ही ग्रंथालयों की ऐसी सुविधा देश भर में होनी चाहिए। आदरणीय अरूण सर एवं समालोचन का आभार 💐
समृद्ध करने वाला लेख।
बहुत ही सुंदर लेख। समृद्धिकारी। इसे पढ़ते हुए यह भी पता चला कि यह लेख ‘लोकसत्ता’ दैनिक के 06 मई 2023 के शनिवारीय परिशिष्ट ‘चतुरंग’ में प्रकाशित हुआ है। काश इससे हिन्दी भाषा के समाचारपत्र कुछ सीख पाते !